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प्रवर्तक और निवर्तक धर्म ___ जो लोग मानते हैं-धर्म समाज के अभ्युदय के लिए चला और है, उनके लिए अहिंसा मर्यादित धर्म है। मर्यादा का मापदण्ड है-समाज की आवश्यकता ।
धर्म का प्रवर्तन आत्म-शुद्धि के लिए हुआ, ऐसे विचार वालों के लिए अहिंसा अमर्यादित धर्म है। वे अहिंसा को उपयोगिता या आवश्यकता के बाटों से नहीं तोलते । वे उसे संयम की तुला से तोलते हैं। सचमुच ही अहिंसा समाज के अभ्युदय के लिए ही प्रवृत्त हुई होती तो उसकी मर्यादाएं इतनी सूक्ष्म नहीं बनतीं, समाज-निरपेक्ष बनकर भी वह विकसित नहीं होती।
अहिंसा-धर्म समाज के अभ्युदय के लिए ही है तो उसे धर्म की भूमिका पर क्यों रखा जाए ? समाज के लिए वह अधिक उपयोगी तभी बन सकता है, जबकि उसका मूल्यांकन समाज की दृष्टि से किया जाए।
अहिंसा का विचार समाज की भूमिका से ऊपर शरीर को एक बाजू रखकर केवल आत्म-स्वरूप की भित्ति पर हुआ है, उससे स्पष्ट जान पड़ता है कि उसका लक्ष्य आत्म-शुद्धि या देह-मुक्ति ही है।
अहिंसा-धर्म की भित्ति स्वर्ग के प्रलोभन और नरक के डर की कल्पना ही है तो उसे तोड़ फेंक देना चाहिए । वैज्ञानिक युग के व्यक्ति की दृष्टि में अर्थवाद की अपेक्षा यथार्थता का मूल्य अधिक हो जाता है।
अहिंसा-धर्म आत्म-शोधन के लिए है अर्थात् देह-मुक्ति के लिए है तो उसे अपनी ही दिशा में चलना चाहिए।
सामाजिक धर्म नितान्त ऐहिक और पौने सोलह आने भौतिक होता है । उसमें स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य आदि पारलौकिक स्थितियों का विचार नहीं होता। नैतिकता का विचार होता है, वह भी सामाजिक स्तर पर । अनात्मवादी कितने ओछे स्तर पर धर्म का विचार करते हैं, उसका एक नमूना देखिए–'आदमी को अपने ऊपर विश्वास करना सीखना चाहिए । धर्म-ग्रंथों के पाठ उसे कड़कड़ाती सर्दी से न बचा सकेंगे । घर, अग्नि और वस्त्र ही उसकी रक्षा कर सकेंगे। अकाल से बचने के
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