________________
अहिंसा तत्त्व दर्शन
सार ही होता है । भगवान् ऋषभनाथ या कोई भी व्यक्ति हो, भोग्य कर्म सबको भोगने पड़ते हैं । उस समय प्रवृत्ति का द्वार खुला रहता है । मोह प्रबल होता है तब अविरति प्रवृत्ति में आसक्ति अधिक होती है, वह कम होता है तब कम । प्रवृत्ति मोक्ष की साधक न हो तो ज्ञानी जन उसे क्यों करें - यह प्रश्न उक्त पंक्तियों से स्वयं स्पष्ट हो जाता है । ज्ञानी होना एक बात है और विरत होना दूसरी बात । ज्ञान और अविरति में विरोध नहीं है, उनमें स्वरूप - भेद है - वे दो हैं । विरोध है अविरति और विरति में । एक विषय की विरति और अविरति — ये दोनों एक साथ नहीं हो सकतीं । एक विषय की विरति और एक विषय की अविरतिये एक साथ होती हैं । इसीलिए गृहस्थ श्रावक 'विरताविरति' या 'धर्माधर्मी' होता है । गृहस्थ की संयममय या विरतिपूर्ण क्रियाएं ही मोक्ष की साधक हैं, शेष नहीं । आरम्भ या हिंसा करता हुआ व्यक्ति मुक्त नहीं होता । मुमुक्ष को आखिर मुनि - धर्म स्वीकार करना ही पड़ता है ।' गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी जो सुव्रती होते हैं, वे स्वर्ग पाते हैं । कई भिक्षुओं से गृहस्थ संयम - प्रधान होते हैं । मुनि-धर्म को पालन करने वाले भिक्षु सब गृहस्थों से संयम - प्रधान होते हैं ।"
मोक्ष - साधना के क्षेत्र में गृहस्थाश्रम की अपेक्षा मुनि-धर्म का कितना महत्त्व है, वह इन्द्र और नमि राजर्षि की चर्चा से स्पष्ट है ।
८२
इन्द्र मुनि से कहता है- 'आप अभी दान दें, श्रमणों और ब्राह्मणों को भोजन कराएं, यज्ञ करें, फिर दीक्षा लेना ।'
उत्तर में मुनि कहते हैं— 'जो व्यक्ति प्रतिमास लाखों गाएं दान में देता है, उसकी अपेक्षा कुछ भी न देने वाले का संयमाचरण श्रेष्ठ है ।'
इन्द्र ने फिर कहा—'आप घोरआश्रम (गृहस्थ - जीवन ) को छोड़कर दूसरे आश्रम (मुनि जीवन) में जा रहे हैं, यह ठीक नहीं । आप इसी आश्रम में रहकर धर्म को पुष्ट करने वाली क्रिया करें ।'
राजर्षि ने कहा – 'गृहस्थ आश्रम में रहने वाला व्यक्ति तीस-तीस दिन तक की तपस्या करे और पारणे में कुश के अग्रभाग पर टिके उतना खाए, फिर भी वह
१. ( क ) सूत्रकृतांग २।२।३-६
(ख) भगवती १७ - २
२. भगवती ३ | ३
३. उत्तराध्ययन ५।२४ : एवं सिक्खा समाविन्ने, गिहिवासे वि सुव्वए । मुच्चई छविपव्वाओ, गच्छे जक्खस्स लोगयं ॥
४. वही ५।२० : संति एगेहि भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा ।
गारत्थे हि य सव्वेहि साहवो संजमुत्तरा ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org