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अहिंसा तत्त्व दर्शन मुनि-धर्म की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकता।'
इस प्रकार समझा जा सकता है-समाज और मोक्ष की दृष्टि और साधना सर्वथा एक नहीं है। समाज दृष्टि में गृहस्थाश्रम का पूरा महत्त्व है । धर्म का महत्त्व वहीं तक है, जहां तक वह गृहस्थ-धर्म की बुराइयों को मिटाए। मोक्ष-दृष्टि में मुनि जीवन का सर्वोच्च स्थान है। गृहस्थ-जीवन का महत्त्व उसके व्रतों तक ही सीमित है।
जो व्यक्ति इन दोनों के एकीकरण की बात सोचते हैं, वे इस तथ्य को भुला देते हैं कि स्वरूप-भेद में एकता नहीं हो सकती। ये दोनों समानान्तर रेखाएं हैं, जो साथ-साथ चलती हैं पर आपस में मिलती नहीं ।
सामाजिक भूमिका और अहिंसा
जैन-दर्शन के अनुसार गृहस्थ के विचारों का केन्द्र मुनि की तरह केवल धार्मिक क्षेत्र ही नहीं है, राजनैतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी उसकी गति अबाध होती है। उसकी मर्यादा का उचित ध्यान रखे बिना उसके गृहस्थ सम्बन्धी औचित्य का निर्वाह नहीं हो सकता। अतः गृहस्थ के कार्यक्षेत्र हिंसात्मक और अहिंसात्मक दोनों हैं। वर्तमान के राजनैतिक वातावरण में अहिंसा को पल्लवित करने की चेष्टा की जा रही है। यह कोई नई बात नहीं । अहिंसा का प्रयोग प्रत्येक क्षेत्र में किया जा सकता है। उसका क्षेत्र कोई पृथक-पृथक् निर्वाचित नहीं, सर्वथा स्वतंत्र है। सत्प्रवृत्ति और निवृत्ति में उसका एकाधिकार आधिपत्य है । जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में भी अहिंसा प्रयोज्य है, खाने-पीने में भी अहिंसा का विचार रखना लाभप्रद है पर हिंसा और अहिंसा का विवेक यथावत् होना चाहिए अन्यथा दोनों का मिश्रण लाभ के बदले हानिकारक हो जाता है ।
भगवान् महावीर का श्रावक महाराज चेटक वैशाली गणतंत्र का प्रधान था। वह अहिंसा-वती था। निरपराध जीवों के प्रति उसकी भावना में दया का प्रवाह था। यह तो श्रावकत्व का सूचक है ही, किन्तु सापराध प्राणी भी उसके सफल बाण से एक दिन में एक से अधिक मृत्यु का आलिंगन नहीं कर पाते थे । युद्ध में भी उसे प्रतिदिन एक बाण से अधिक प्रहार करने का त्याग था। इतना मनोबल सर्वसाधारण में हो सकता है, यह सम्भव नहीं। व्रत-विधान सर्व-साधारण को अहिंसा की ओर प्रेरित करने के लिए है । अतः इसका विधान सार्वजनिकता के दृष्टिकोण से सर्वथा समुचित है। इसमें अहिंसा का परिमाण यह बताया गया है कि श्रावक निरपराध त्रस प्राणी (न केवल मनुष्य) को मारने की बुद्धि से नहीं मारता। यह
१. उत्तराध्ययन ६।३८,४०,४२,४४
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