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अहिंसा तत्त्व दर्शन
वस्तु को नहीं मापता। वह वस्तु का मान उपयोगी-अनुपयोगी की दृष्टि से करता है। जो वस्तु समाज के लिए उपयोगी है, वह अच्छी और जो उपयोगी नहीं, वह बुरी । समाज-दर्शन की भाषा में समाज के लिए उपयोगी प्रवृत्ति को शुभ योग या पुण्य-कार्य और अनुपयोगी प्रवृत्ति को अशुभ योग या पाप-कार्य कहा जाएगा। अब आप सोचिए-दोनों का मानदण्ड एक नहीं है, तब दोनों की भाषा एक कैसे होगी? स्याद्वाद का रहस्य है-वस्तु को विभिन्न दृष्टि-बिन्दुओं से परखना । एक ही वस्तु द्रव्य की दृष्टि से नित्य और पर्याय की दृष्टि से अनित्य होती है। इस दशा में दृष्टि-भेद से उसे नित्य-अनित्य दोनों कहना क्या कोई गूढ़ रचना या शब्दजाल है ? समाज के लिए उपयोगी किन्तु राग, द्वेष, मोह, हिंसामय प्रवृत्ति को समाज की दृष्टि से शुभ योग यानी अच्छी प्रवृत्ति और अध्यात्म की दृष्टि से अशुभ योग कहा जाए, उसमें आपत्ति जैसी क्या बात है? कुछ समझ में नहीं आता, कमसे-कम स्याद्वादी के लिए तो यह उलझन नहीं होनी चाहिए। स्याद्वाद का प्रयोग सीमित नहीं है। वह सिर्फ वस्तु को नित्य-अनित्य बताने के लिए ही नहीं
समाज में बलवान् के लिए दुर्बल को मारना निर्दोष माना जाता है। चौंकिए मत, सही बात है। चूहों को मनुष्य मारता है, बन्दरों को मारता है और उन सब को मारता है, जो मनुष्य के स्वार्थ में बाधक बनकर जीते हैं। मानो जीने का अधिकार केवल मनुष्य को ही है। समाज के प्रवर्तक मनुष्य के विरोधी तत्त्वों को मारने की अनुमति देते हैं, किन्तु वह मोक्ष का मार्ग नहीं है। 'सबल के लिए निर्बल को मारने को मोक्ष-धर्म बताते हैं, वे कुगुरु हैं, कुबुद्धि से चलने वाले हैं'-आचार्य भिक्षु ने यह तत्त्व बताया।
समाज में स्वार्थ-हिंसा भी चलती है। अपने छोटे-मोटे स्वार्थ के लिए मनुष्य छोटे-मोटे जीवों को मारता है। समाज-दर्शन इसे बुरा नहीं मानता। किन्तु यह मोक्ष-धर्म नहीं है । परार्थ हिंसा भी चलती है। एक आदमी दूसरे आदमी के लिए भी जीवों को मारता है । गरीबों को मारकर बड़ों को पोषण देने की प्रवृत्ति जो है, उसे धर्म बताना दोषपूर्ण है।
बलात्कार अहिंसा नहीं है। हम हिंसक को जबरदस्ती अहिंसक नहीं बना सकते। हिंसक की आत्मा अहिंसा को स्वीकार नहीं करती, तब तक किसी देवता की भी ताकत नहीं कि उसे अहिंसक बना दे । उपाध्याय विनय विजयजी के शब्दों में-भगवान् महावीर जमालि को, जो उनका दामाद था और मिथ्यात्व के प्रचार में जुट गया
१. अनुकम्पा की चौपाई, दोहा ७।१ २. व्रताव्रत की चौपाई, ७।४
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