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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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था, नहीं रोक सके तो दूसरा कौन किसे रोक सकता है ? कौन किसे बलपूर्वक पाप से बचा सकता है ? अतुल बलशाली अरिहन्तों ने क्या बल-प्रयोग करके धर्म करवाया ? नहीं। किन्तु शुद्ध धर्मोपदेश दिया जिसे समझ-धारकर लोग संसारसमुद्र का पार पाते हैं।
आचार्य भिक्षु ने कहा-'तीर्थकर घर में थे, तब उनमें तीन ज्ञान थे, राज्य-अधिकार भी था, फिर उन्होंने अहिंसा-पालन की बलात् आज्ञा नहीं बरताई । बलात् हिंसा छुड़ाने में यदि धर्म होता तो चक्रवर्ती बलपूर्वक छहखण्ड में अहिंसा की घोषणा करा देते। किन्तु ऐसा न होता है और न उन्होंने किया भी।
लोभ, लालच देना या परिग्रही बनाना भी अहिंसा नहीं है। देव, गुरु और धर्म-ये तीनों अपरिग्रही हैं। परिग्रह के द्वारा इन्हें मोल लेना चाहे, वह विपरीत दिशा है। परिग्रही स्वयं बने या दूसरे को परिग्रही बनाए और किसी भी भावना से बनाए, वह मोक्ष मार्ग नहीं है।'
शौनकोपदेश और पद्पुराण के अनुसार-'जिस व्यक्ति की धर्म के लिए धन की इच्छा हो, उसका इच्छा-रहित होना अच्छा है। कीचड़ को धोने की अपेक्षा दूर से उसको न छूना ही अच्छा है।'
ठीक यही तत्त्व इष्टोपदेश में पूज्यपाद ने बताया है।
समाज की दृष्टि में बल-प्रयोग का भी, परिग्रह का भी अपनी-अपनी जगह स्थान है, इसलिए हमें वस्तु-तत्त्व को परखने में पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। हिंसा-अहिंसा की परीक्षा करनी हो, वहां हमें अध्यात्म का मानदण्ड लेकर उसी की भाषा में बोलना चाहिए और जहां उपयोगी-अनुपयोगी की परख करनी हो, वहां समाज का मानदण्ड और उसी की भाषा का व्यवहार करना चाहिए। आचार्य भिक्षु ने इसी को सम्यग् दृष्टि कहा है ।
१. शान्तसुधारस, १९।३-४ २. अनुकम्पा चौपई ७।४४१४६ ३. वही ७।६४ ४. वही १११५२
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