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अहिंसा का राजपथ : एक और अखण्ड
अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है । वह एक और अखण्ड है। किन्तु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना नाश होता है, उतना ही उसका विकास । इस मोह-विलय के तारतम्य पर उसके दो रूप निश्चित किए गए हैं
१. अहिंसा-महाव्रत, २. अहिंसा-अणुव्रत । इनमें स्वरूप भेद नहीं; मात्रा (परिमाण) का भेद है।
मुनि की अहिंसा पूर्ण है, इस दशा में श्रावक की अहिंसा अपूर्ण । मुनि की तरह श्रावक सब प्रकार की हिंसा से मुक्त नहीं रह सकता। मुनि की अपेक्षा श्रावक की अहिंसा का परिमाण बहुत कम है। उदाहरण के रूप में मुनि की अहिंसा बीस बिस्वा(पोर) और श्रावक की सवा बिस्वा है। इसका कारण यह है कि श्रावक त्रस जीवों की हिंसा छोड़ सकता है, बादर-स्थावर जीवों की हिंसा को नहीं । इससे उसकी अहिंसा का परिमाण आधा रह जाता है-दस बिस्वा रह जाता है। इसमें भी श्रावक त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करता है, आरम्भजा हिंसा का नहीं। अतः इसका परिमाण उससे भी आधा अर्थात् पाँच बिस्वा रह जाता है। इरादेपूर्वक हिंसा भी उन्हीं त्रस जीवों की त्यागी जाती है, जो निरपराध हैं । सापराध त्रस जीवों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकता, इससे वह अहिंसा अढाई बिस्वा रह जाती है । निरपराध त्रस जीवों की भी निरपेक्ष हिंसा को श्रावक त्यागता है, सापेक्ष हिंसा तो उससे हो जाती है। इस प्रकार श्रावक (धर्मोपासक या व्रती गृहस्थ) की अहिंसा का परिमाण सवा बिस्वा रह जाता है । एक प्राचीन गाथा में इसे संक्षेप में कहा है
जीवा सुहमा थूला, संकप्पा आरम्भा भवे दुविहा । सावराहा निरवराहा, सविक्खा चेव निरविक्खा ॥
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