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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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१. सूक्ष्मजीव-हिंसा।
५. सापराध-हिंसा। २. स्थूलजीव-हिंसा।
६. निरपराध हिंसा। ३. संकल्प-हिंसा।
७. सापेक्ष-हिंसा। ४. आरम्भ-हिंसा।
८. निरपेक्ष-हिंसा। हिंसा के ये आठ प्रकार हैं । श्रावक इनमें से चार प्रकार की (२, ३, ६, ८,) हिंसा का त्याग करता है। अतः श्रावक की अहिंसा अपूर्ण है।
स्थावर-जीव-हिंसा
स्थावर जीव दो प्रकार के होते हैं : (१) सूक्ष्म, (२) बादर।
सूक्ष्म स्थावर इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे किसी के योग से नहीं मरते। अतएव उनकी हिंसा का त्याग श्रावक को अवश्य कर देना चाहिए। श्रावक बादर स्थावर जीवों की सार्थ (अर्थ सहित) हिंसा का त्याग नहीं कर सकता। गृह-वास में इस प्रकार की सूक्ष्म हिंसा का प्रतिषेध अवश्य है। शरीर, कुटुम्ब आदि के निर्वाहार्थ श्रावक को यह करनी पड़ती है, तथापि इनकी निरर्थक हिंसा का त्याग अवश्य करना चाहिए।
निरथिकां न कुर्वीत, जीवेषु स्थावरेष्वपि ।
हिंसामहिंसाधर्मज्ञः, कांक्षन्मोक्षमुपासकः ।। अर्थात् मोक्षाभिलाषी अहिंसा-मर्मज्ञ श्रावक को स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं करनी चाहिए। अहिंसा का धर्म सावधानी में है, विभ्रान्ति में नहीं।
जीवन की अविभक्ति और विभक्ति
जीवन संकुल भी है और असंकुल भी।
जीवन अखण्ड या अविभाज्य है-स्याद्वाद की भाषा में यह नहीं कहा जा सकता। उसका प्रवाह एक हो सकता है, किन्तु प्रवाह का बिन्दु एक ही नहीं होता। मैंने थोड़े समय पहले एक विबन्ध में लिखा था-"जीवन एकरस और धारावाही है। उसके टुकड़े नहीं किए जा सकते-यह सच है किन्तु स्थूल-सूक्ष्मसत्य की दृष्टि से जीवन चैतन्य के धागे से पिरोई हई भिन्न-भिन्न मोतियों की माला है। उसकी प्रत्येक और प्रत्येक प्रकार की प्रवृत्ति उसे खण्ड-खण्ड कर डालती है । देश और काल उसे जुड़ा नहीं रहने देते। स्थितियां उसकी अनुस्यूति को सहन नहीं करतीं। भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का क्षेत्र भले एक हो, उनका स्वरूप
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