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अहिंसा तत्त्व दर्शन -माता-पिता के स्नेह में बंधा व्यक्ति मूढ़ बन जाता है। कौन तेरी स्त्री है और कौन तेरा पुत्र?
अध्यात्मवादी दृष्टिकोण __ अध्यात्मवादी इस 'अति' को श्रेयस्कर नहीं मानता। यह सही है कि समाज की आवश्यकताओं को भुलाया नहीं जा सकता किन्तु उन्हीं को सब कुछ मानकर चले, वह कैसा आत्मवादी ! समाज की अपनी मर्यादा है. धर्म और अध्यात्म की अपनी। दोनों को एक ही मानकर चले, वह भूल है। समाज में विवाह की मर्यादा है किन्तु अध्यात्मवाद ब्रह्मचर्य से हटकर विवाह करने को कब अच्छा मानेगा? उसकी ब्रह्मचर्य ही प्रतिष्ठा है। समाज-व्यवस्था में यथावकाश हिंसा भी क्षम्य है, असत्य भी प्रयुज्य है, चोरी भी व्यवहार्य है, धन-संग्रह भी स्वीकार्य है । अध्यात्मवाद कभी, कहीं और किसी भी स्थिति में हिंसा को क्षम्य नहीं मानता। असत्य, चोरी और धन-संग्रह के लिए भी ऐसा ही समझिए। समाज के पास न्याय या दण्ड की व्यवस्था है और अध्यात्मभाव के पास है, अहिंसा और उपदेश या हृदय-परिवर्तन। न्यायाधीश अपराधी को मौत की सजा देता है, यह समाज का न्याय है। अध्यात्मवाद कहता है-यह हिंसा है। दण्ड-विधान के अनुसार वह उचित है तब हिंसा क्यों ? ऐसा प्रश्न आता है किन्तु किसी एक को दण्ड देने का किसी दूसरे को अधिकार है-यह तत्त्व अध्यात्मवाद स्वीकार ही नहीं करता । पाप करने वाला ही यदि हृदय से चाहे तो पाप का प्रायश्चित कर सकता है, दूसरा पाप का दण्ड देने वाला कौन ? समाज पाप को नहीं धो सकता, प्रायश्चित नहीं करा सकता। वह पापी को कष्ट दे सकता है, बुरे को बुराई का स्वाद चखा सकता है, इसमें कोई विवाद नहीं। न्याय और दण्ड-विधान समाज के धारक या पोषक तत्त्व हैं। अध्यात्मवाद इन्हें क्यों माने, वह अपना प्राण लूटने वाले को भी मित्र मानने की बात जो कहता है। न्याय और दण्ड-विधान समाज की देश, काल, स्थिति के अनुकूल इच्छापोषित विचारधारा है। अहिंसा सार्वभौम है। इसलिए दोनों एक हों भी कैसे?
विकट परिस्थितियों में समाज हिंसा को क्षम्य मानता है। धर्म की भाषा में वह अनिवार्य हिंसा है। किन्तु विकट परिस्थिति में हुई हिंसा अहिंसा होती है, यह कभी नहीं हो सकता । इस विषय पर महात्मा गांधी के विचार मननीय हैं । वे एक प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं :
'उचित यह है कि सत्य के बलिदान पर किसी का हित साधने का मेरा कर्तव्य नहीं, सत्य का पालन ही सर्व का अत्यन्त हित है, ऐसा निश्चय कर उसका आग्रह रख पालन करें । वैसा करने वाले मनुष्य को ऐसी विकट
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