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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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परिस्थिति उत्पन्न हो तब क्या करना, यह उसे अपने आप सूझ पड़ेगा । वास्तविक विकट प्रसंग में कोई मनुष्य इस तरह असत्य का व्यवहार करता है । समाज तो उसे उदारता से क्षमा दे देता है । धर्म का सूक्ष्म जानकार भी उसकी विकट परिस्थिति का विचार कर इसके प्रति क्षमा-बुद्धि से देखेगा, परन्तु उसने धर्म का आचरण किया अथवा ऐसे प्रसंग पर झूठ बोलना धर्म है - ऐसा नहीं कहेगा ।
धर्म तो ऐसा ही कहता है कि प्राण देकर भी सत्य रखना चाहिए, सत्य की अपेक्षा दूसरे किसी को प्रथम स्थान नहीं दिया जा सकता ।
व्यक्ति या समाज को अपनी आवश्यकताएं पूरी करनी पड़ती हैं - यह मानना स्वाभाविक है, किन्तु आवश्यकता पूर्ति को मोक्ष-धर्म या अहिंसा मानकर बरता जाए - यह दोहरा पाप है ।
युग प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव ने समाज और राज्य की व्यवस्था की । लोगों को उनका तत्त्व समझाया । उनके निर्वाह और प्रेयस् के लिए असि, मषि और कृषि की शिक्षा दी । क्या उन्होंने इसे मोक्ष - साधना मानकर किया ? नहीं। फिर प्रश्न होगा - कर्म - बन्धन जानते हुए उन्होंने ऐसा क्यों किया ? प्रजा के हित के लिए किया । प्रजा के नेता थे, इसलिए अपना कर्त्तव्य या दायित्व समझते हुए किया | आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है'--
एतच्च सर्वं सावद्यमपि लोकानुकम्पया | स्वामी प्रवर्तयामास, जानन् कर्तव्यमात्मनः ॥
यह व्यवस्था - प्रवर्तन सावद्य - सपाप है, फिर भी भगवान् ऋषभदेव ने अपना कर्तव्य जानकर इसका प्रवर्तन किया । यह कोई नई बात नहीं है । निम्न पंक्तियों में यही प्रश्न महात्मा गांधी के सामने आया । उन्होंने वही समाधान किया, जो कि एक अहिंसा के मर्म को समझने वाला कर सकता है ।
प्रश्न : यदि अहिंसा ही धर्म है और हिंसा धर्म नहीं तो खाना-पीना किसलिए ? मर ही क्यों नहीं जाना चाहिए ?
उत्तर : यदि किसी के चित्त में अहिंसा इतनी एकरस हो जाए तो देह रखने के प्रति उदासीनता आए और वह उसे छोड़ देना चाहिए, यह अशक्य नहीं । पर ऐसा सामान्य तौर पर मन से होता नहीं । कारण कि जहां तक जीवन में कुछ करने की, प्राप्त करने की और जानने की आज्ञा और इच्छा रहती है, तब तक देह को
१. अहिंसा - विवेचन, गुजराती से अनूदित २. त्रिशष्टि शलाका पुरुषचरित १।२।६७१
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