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अहिंसा तत्त्व दर्शन नहीं होते।
एगस्स गती य आगती, विदु मंता सरणं ण मन्नइ ।' -प्राणी अकेला आता है और जाता है, इसलिए विद्वान् किसी को शरण नहीं मानता।
(२) दुःख-मुक्ति : लोकवाणी में दुःख-मुक्ति का उपाय है-परिग्रह । अध्यात्मवाणी में उसका उपाय आत्म-निग्रह ही है :
___अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । -आत्मा का निग्रह कर, इस प्रकार दुःख से मुक्ति मिलेगी। (३) व्यक्ति-प्रधान स्थिति : लोकवाणी में समाज-प्रधान स्थिति है, वहां अध्यात्मवाणी व्यक्ति को ही प्रधान बतलाती है :
जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं ।' -सुख-दुःख अपना-अपना होता है।
अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाय इति,
अन्नेण कडं अन्नो न पडिसंवेदेति ॥ पत्तेयं जायति, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं उववज्जइ, पत्तेयं झंझा, पत्तेयं सन्ना, पत्तेयं पन्ना, एवं विन्नू वेदणा ।'
-दूसरे का दुःख दूसरा नहीं समझता। दूसरे के किए हुए कर्म का दूसरे को संवेदन नहीं होता। व्यक्ति अकेला जन्मता है, अकेला मरता है, च्यवन और उत्पत्ति भी अकेले की होती है । कलह, संज्ञा, प्रज्ञा, विज्ञान और वेदना-ये सभी प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग होते हैं ।
(४) मातृ-पितृ-स्नेह : लोकवाणी माता-पिता के प्रति स्नेह उत्पन्न करती है। अध्यात्मवाणी उस स्नेह को बन्धन बताती है या उसे वास्तविक सम्बन्ध नहीं बताती :
मायाहिं पियाहिं लुप्पइ । का ते कान्ता कस्ते पुत्रः।
१. सूत्रकृतांग ११२।३।१७ २. आचारांग ११३।६४ ३. वही श२।२२ ४. सूत्रकृतांग २११ ५. वही, २१११११३ ६. मोहमुद्गर ८
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