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अहिंसा तत्त्व दर्शन
करते हैं, कल-कारखाने चलाते हैं, व्यापार करते हैं-यह उद्योगी हिंसा है। राष्ट्र, जनता एवं कुटुम्ब की रक्षा करते हैं, आततायियों से लड़ते हैं, अपने आश्रितों को आपत्तियों से बचाते हैं, छल-बल आदि सम्भव उपायों का प्रयोग करते हैं-यह विरोधी हिंसा है। द्वेषवश या लोभवश दूसरों पर आक्रमण करते हैं, बिना प्रयोजन किसी को सताते हैं, दूसरों का स्वत्व छीनते हैं, अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए मनमाना प्राण-वध करते हैं, वृत्तियों को उच्छखल करते हैं-यह संकल्पी हिंसा है। इस प्रकार हिंसा के चार प्रमुख वर्ग किए गए हैं । गह-त्यागी मुनि इस चार प्रकार की हिंसा को त्यागते हैं, अन्यथा वे मुनि नहीं हो सकते । गृहस्थ पहली तीन प्रकार की हिंसा को पूर्ण रूप से नहीं त्याग सकते, तथापि यथासम्भव इनको त्यागना चाहिए । व्यापारादि करने में मनुष्य का सीधा उद्देश्य हिंसा करने का नहीं, कार्य करने का होता है, हिंसा हो जाती है। संकल्पी हिंसा का सीधा उद्देश्य हिंसा का होता है, कार्य करने का नहीं। दूसरों के सुख, शान्ति-हित और अधिकारों को कुचलने वाले कार्य भी बहुधा संकल्पी हिंसा जैसे बन जाते हैं । अतः सामूहिक न्यायनीति की व्यवस्था का उल्लंघन करना भी सबल हिंसा का साधन है । संकल्पी हिंसा तो गृहस्थ के लिए भी सर्वथा वर्जनीय है। जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होने वाली हिंसा का असर व्यक्तिनिष्ठ है, समष्टिगत नहीं। किन्तु संकल्पी हिंसा का अभिशाप समूचे राष्ट्र और समाज को भोगना पड़ता है।
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