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अहिंसा तत्त्व दर्शन चाहिए। आत्मीयता उपादेय है, दया नहीं।"
आचार्य भिक्षु का विवेकवाद आध्यात्मिक विवेकवाद है। उन्होंने कहा'दया-मात्र, दान-मात्र आध्यात्मिक हैं-ऐसी मान्यता उचित नहीं । वही दया और दान आध्यत्मिक है जो अहिंसात्मक है, राग-द्वेष-रहित है। शेष दया-दान अन्आध्यात्मिक है।'
उनके आध्यात्मिक विवेकवाद के फलित ये हैं : १. विरति धर्म है। २. अविरति अधर्म है। ३. सुख-साधकता धर्म का लक्षण नहीं है । ४. संसार और मोक्ष का मार्ग भिन्न-भिन्न है। ५. परिणाम से धर्म-अधर्म का निर्णय नहीं होता। ६. क्रिया का फल वर्तमान में होता है, पहले-पीछे नहीं। ७. व्रत-वृद्धि के लिए अविरति-पोषण धर्म नहीं । ८. परिग्रह का आदान-प्रदान धर्म नहीं। ६. हिंसा में और हिंसा से धर्म नहीं होता।
(क) एक की रक्षा के लिए दूसरे को मारना धर्म नहीं। (ख) बड़ों के लिए छोटों को मारना धर्म नहीं।
(ग) देव, गुरु और धर्म के लिए हिंसा करना धर्म नहीं। १०. धन से धर्म नहीं होता। ११. बलात्कार से धर्म नहीं होता। १२. हिंसा किए बिना धर्म नहीं-ऐसा मानना मिथ्या है। १३. एक ही कार्य में अल्प-पाप, बहु-निर्जरा होती है-ऐसा मानना
मिथ्या है। १४. मिश्र-धर्म--- एक ही प्रवृत्ति में धर्म-अधर्म दोनों की प्ररूपणा मिथ्या
१५. व्रताव्रती का आहार व्रत और अव्रत दोनों का पोषक नहीं। १६. गृहस्थ दान का पात्र-अधिकारी नहीं। १७. गृहस्थ का खान-पान अव्रत में है। १८. तपस्या धर्म है, पारणा धर्म नहीं।
१. नीतिशास्त्र, पृ १४८
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