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संयम और असंयम की भेदरेखा
क्रिया की प्रतिक्रिया होती है । व्यवहार में हम प्रवृत्ति और उसके परिणाम को अत्यन्त भिन्न मानते हैं पर निश्चय दृष्टि में बात ऐसी नहीं है । दोनों साथसाथ चलते हैं । कर्म या प्रवृत्ति से आत्मा के बंध होता है । अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ और शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्म बंधता ही है किन्तु स्थूल रूप में अशुभ प्रवृत्ति न करने पर भी ' अशुभ प्रवृत्ति का त्याग नहीं, उस दशा में भी अशुभ कर्म बंधता है । हिंसा करने वाला प्रवृत्ति रूप हिंसक कहलाता है। हिंसा की प्रवृत्ति न करने वाला किन्तु हिंसा का अत्यागी अविरति रूप हिंसक कहलाता है ।' आचारांग की वृत्ति में सूक्ष्म जीवों की हिंसा की चर्चा करते हुए बताया है— सूक्ष्म जीवों का वध नहीं किया जाता, वे मारे नहीं मरते, फिर भी तब तक उनके प्रति हिंसक भाव बना रहता है, जब तक उनके वध की निवृत्ति नहीं होती - हिंसा का संकल्प नहीं
टूटता ।
अहिंसा तत्त्व दर्शन
प्रवृत्ति रूप में हिंसा निरन्तर नहीं होती । जब कोई हिंसा करता है, तभी होती है | अविरति रूप में हिंसा निरन्तर होती है— तब तक होती है, जब तक हिंसा का त्याग नहीं होता, हिंसा का संकल्प, भाव या वृत्ति आत्मा से घुल नहीं जाती । यह तत्त्व आचार्य भिक्षु की वाणी में ऐसे है
हिंसा री इवरत निरन्तर हुवै, हिंसा रा जोग निरन्तर नांहि । हिंसा रा जोग तो हिंसा करै जदि, विचार देखो मन मांहि || साधु और गृहस्थ में बड़ा अन्तर यह होता है कि साधु के सर्वथा हिंसा की विरति होती है और गृहस्थ के सर्वथा विरति नहीं होती । साधु से प्रमादवश कहीं हिंसा हो जाए तो वह योग रूप - प्रवृत्ति रूप हिंसा होगी, अविरति रूप नहीं । गृहस्थ की हिंसा प्रवृत्ति रूप होने के साथ-साथ अविरति रूप भी होती है ।
मी सावद्य या अशुभ योग की प्रवृत्ति न करे तो उसके कोई हिंसा नहीं होती । वह सर्वथा अहिंसक रहता है। गृहस्थ शुभ योग की प्रवृत्ति करते हुए भी पूरा अहिंसक नहीं बनता और इसलिए नहीं बनता कि उसके अशुभ प्रवृत्ति की अनुमोदना रूप अविरति निरन्तर सत्ता में रहती है। इसका फलित यह होता है कि जो सर्वथा अविरति का त्यागी है, वह संयमी है; जिसने अविरति का कुछ त्याग किया है और कुछ अविरति शेष है, वह संयमासंयमी है। जिसके अविरति बिलकुल नहीं मिटी, वह असंयमी है ।
संयमी खाता है वह संयम है, लेता है वह संयम है, देता है वह संयम है ।
१. भगवती १०१; सूत्रकृतांग २२ २६
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