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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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हो जाती है किन्तु द्रव्य-अहिंसा की अवस्था दैहिक चंचलता छूटे बिना, दूसरे शब्दों में समाधि अवस्था पाए बिना नहीं आती ।
प्राणातिपात (प्राण - वध )
आत्मा अमर है । उसकी मृत्यु नहीं होती । यह सर्व साधारण में प्रसिद्ध है पर तत्व दृष्टि से यह चिन्तनीय है । आत्मा एकान्त - नित्य नहीं परिणामिनित्य है अर्थात् उत्पाद - व्यय सहित नित्य है । केवल आत्मा ही क्या विश्व के समस्त पदार्थों का यही स्वरूप है । कोई भी पदार्थ अपने रूप का त्याग न करने के कारण नित्य है और नाना प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होते रहने के कारण अनित्य है । द्रव्य रूप में सब पदार्थ नित्य हैं और पर्याय रूप में अनित्य । नित्य का फलितार्थ है- अपने रूप को न त्यागना । अनित्य का फलितार्थ है - क्रमशः एकएक अवस्था को छोड़ते रहना और दूसरी- दूसरी अवस्था को पाते रहना । आत्मा अपने स्वरूप को नहीं छोड़तीं; अतः नित्य है, अमर है और एक शरीर को छोड़ दूसरे शरीर में जाती है – इसलिए अनित्य है— उसकी मृत्यु होती हैं। आत्मा की प्राण-शक्तियों का शरीर के साथ सम्बन्ध होता है, उसका नाम जन्म है और उनका शरीर से वियोग होने का नाम मृत्यु है । जन्म और मृत्यु - ये दोनों आत्मा की अवस्थाएं हैं । मृत्यु से आत्मा का अत्यन्त नाश नहीं होता । केवल उसकी अवस्था का परिवर्तन होता है
'जीव जीवे अनादि काल रो,
मरे तिरी हो पर्याय पलटी जाण ।'
इसलिए प्राणों का वियोग होने से आत्मा की मृत्यु कहते में हमें कोई भी संकोच नहीं होना चाहिए। प्राण-शक्तियां दस हैं :
१- ५. पाँच इन्द्रिय-प्राण
६. मन-प्राण
७. वचन प्राण
८. काय प्राण
६. श्वासोच्छ्वास - प्राण
१०. आयुष्य प्राण
'निष्काम कर्म और अहिंसा
अहिंसा के सम्बन्ध में निष्काम कर्म एक व्यामोहक वस्तु बन रहा है । कुछ व्यक्तियों का विचार है कि फल प्राप्ति की आशा रखे बिना हम जो कोई काम
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