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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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नहीं होती । परिग्रह का स्थानान्तरण अपरिग्रह नहीं होता । परिग्रह रखना जैसे धर्म नहीं, वैसे ही परिग्रह रखाना और रखने को अच्छा जानना भी धर्म नहीं है । जैन-धर्म अविरति और विरति को तीन करण, तीन योग से मानता है । परिग्रह से अपना संयम है । परिग्रह करने की वृत्ति का त्याग है, वह धर्म है अथवा परिग्रही को अपनी वस्तु देकर ( दान - काल के पश्चात् ) परिग्रह की क्रिया से मुक्त होने की जो वृत्ति है, वह धर्म है ।
६. संयमी को ज्यों-त्यों देना ही धर्म है - यह मान्यता भ्रमकारी है । उसे शुद्ध आहार ऐषणापूर्वक शुद्धवृत्ति से दिया जाए, वही धर्म है, शेष नहीं । जैन आगमों की दृष्टि से धर्म-दान का स्वरूप यह होगा :
व्यक्ति - संयमी
वस्तु - शुद्ध
वृत्ति – शुद्ध
व्यक्ति - संयमी
परिणाम
वस्तु - अशुद्ध-आधा कर्म वृत्ति - अशुद्ध — नागश्री जैसी
-धर्म
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परिणाम-अधर्म
वस्तु अशुद्ध होगी, वहां वृत्ति शुद्ध नहीं हो सकती । तात्पर्य कि अशुद्ध वस्तु देने की वृत्ति शुद्ध नहीं होती ।
साधु विद्यार्थी है । उसे पोषक खाद्य नहीं मिल रहा है । साधु के पढ़ने में खलल न हो, यह सोचकर कोई व्यक्ति पोषक भोजन बना उसे देता है और वह उस वृत्ति को पवित्र मानता है । विद्या को ही प्राधान्य देने वालों की दृष्टि से वह अपवित्र नहीं भी है । किन्तु अहिंसा की दृष्टि से सोचने वाले उसे मोह कहेंगे । आधाकर्म आहार साधु के लिए अग्राह्य है, इसलिए वैसा आहार देने का संकल्प पवित्र होगा या मोह - यह समझना कठिन नहीं है । अगर वृत्ति के साथ जुड़ी हुई वस्तु का कोई महत्त्व नहीं होता तो मुनि प्रासुक और ऐषणीय आहार ले, अप्रासु अनेषणीय न ले - ऐसी व्यवस्था भगवान महावीर क्यों करते ? संयमी अशुद्ध और अनेषणीय आहार लेता है तो उसका लेना धर्म नहीं होता । गृहस्थ संयमी को अशुद्ध और अनेषणीय आहार देता है तो उसका देना भी धर्म नहीं होता । नागश्री ने धर्मघोष मुनि को अकल्प्य आहार दिया और हिंसापूर्ण वृत्ति से दिया, इसलिए वह दान कर्म नहीं हुआ । रेवती ने भगवान् महावीर की रोग-दशा से द्रवित होकर कुष्माण्ड पाक बना डाला । स्थूल दृष्टि से इसमें उसकी कोई दुर्भाना नहीं जान पड़ती। भगवान् उसकी स्थूलवृत्ति के पीछे रहे हुए मोह को जानते थे, इसलिए उन्होंने वह नहीं लिया । भावना के शुद्ध या अशुद्ध होने का निर्णय
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