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अहिंसा तत्त्व दर्शन सामाजिक कर्तव्य ऐसे होते हैं कि उनसे व्यक्ति को दुःख और संकट ही मिलता है। फिर भी उन्हें पूरा करना पड़ता है। इस पर कोई यह कहेगा कि किसी भी व्यक्ति की कर्म-प्रवृत्ति सुखार्थ अथवा दुःख-निवारणार्थ होती है। पर-हितार्थ निरन्तर रत रहने वाले साधु और सर्वथा स्वार्थी कृपण मनुष्य-इन दोनों की प्रवृत्ति सुखार्थ ही होती है। फांसी पर जाने वाले देश-भक्त को भी एक प्रकार का सुख प्राप्त होता है। इसका उत्तर यह है कि तोफिर सुख-साधकता धर्म्य और अधर्म्य ठहराने की कसौटी नहीं हो सकती। कारण एक ही क्रिया कितने ही व्यक्तियों के लिए सुख-साधन और कितने ही व्यक्तियों के लिए दुःख-साधन हो जाती है। यज्ञ के पुरोहित को दान करना, यह क्रिया वेदों पर श्रद्धा रखने वाले यजमान को सुख, सन्तोष देती है और वही क्रिया वेदों पर श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य में विषाद और असंतोष उत्पन्न कर देती है, क्योंकि विशिष्ट कर्तव्यों का मूल्य विशिष्ट सामाजिक स्थिति में ही उत्पन्न होता है। सनातन धर्म की परम्परा पर विश्वास रखने वाले चमार को अस्पृश्यता के व गुलामगिरी के नियम पालने में अत्यन्त सुख-सन्तोष मिलता है और उस पर श्रद्धा न रखने वाले चमार को दुःख और पाप जान पड़ता है। इस तरह सुख-साधकता धर्म का लक्षण नहीं बन सकता।"
जहां विरति नहीं, वहां दया दान या कुछ भी हो, वह आत्म-शुद्धि-साधक धर्म नहीं है। थोड़े में उनके विवेकवाद का यही सार है। विवेकवाद के आचार्यों ने इस सिद्धान्त को लगभग ऐसे ही माना है। काण्ट के अनुसार-'दया अथवा मोह से प्ररित होकर स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति के विरुद्ध काम करना मानसिक बीमारी का लक्षण है। ___ 'जो व्यक्ति जितनी दूर तक राग-द्वेष के वश में आता है, वह उतनी ही दूर तक नैतिक आचरण करने में असमर्थ रहता।"
जिन संवेगों और आवेगों को लोग भला समझते हैं, उन्हें स्टोइक लोग बुरा समझते थे। किसी भी परिस्थिति में दया के आवेश में आना बुरा है। मनुष्य दया के आवेश में आकर भी अपने विवेक को भूल जाता है और न्याय न करके समाज का अहित कर देता है। दया के स्थान पर स्टोइक लोग प्रशान्त मन रहने और सद्भावना लाने का आदेश करते हैं। सब प्राणियों में आत्मीयता स्थापित करनी
१. हिन्दू धर्म की समीक्षा, पृ० ६६ २. नीतिशास्त्र, पृ० १६६ ३. वही, पृ० १६८ ४. विवेकवाद का एक विशेष मत 'स्टोइकवाद' है। ईसा से ३०० वर्ष पहले
साइप्रस द्वीप के निवासी 'जनों' ने इसका प्रवर्तन किया।
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