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अहिंसा तत्त्व दर्शन फिरती वहीं जा पहुंची । अपने साथ चलने का आग्रह किया किन्तु उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। वह व्याकुल हो रही थी, उसने कहा-'आप चलें, नहीं तो मैं कुएं में गिरकर आत्महत्या कर लूंगी।' उन्होंने कहा-'हम जिस नीच कर्म को छोड़ चुके, उसे फिर नहीं अपनाएंगे।' उसने तीनों की बात सुनीअनसुनी कर कुएं में गिर आत्महत्या कर ली।
यह तीसरा व्यभिचारी का दृष्टान्त है । इसमें भी दो बातें हुई–एक तो साधु के उपदेश से व्यभिचारियों का दुराचार छूटा और दूसरी, उनके कारण वह वेश्या कुएं में गिर मर गई । अब कुछ ऊपर की ओर चलें। यदि चोरी-त्याग के प्रसंग में बचने वाले धन से चोरों को, हिंसा-त्याग के प्रसंग में बचने वाले बकरों से कसाई को धर्म हुआ माना जाए तो व्यभिचार-त्याग के प्रसंग में वेश्या के मरने के कारण इन तीनों व्यक्तियों को अधर्म हुआ, यह भी मानना होगा।
यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण है कि धर्म-अधर्म आत्मा की मुख्य प्रवृत्तियों पर निर्भर है, प्रासंगिक प्रवृत्तियां धर्म-अधर्म का कारण नहीं बनती। __ तीनों के परिणाम क्रमश:- (१) धन की रक्षा, (२)बकरों की रक्षा और (३) वेश्या की मृत्यु है । परिणाम से कार्य का मूल्य आंका जाए तो एक ही कोटि का कार्य दो जगह अच्छा होगा और तीसरी जगह बुरा, किन्तु ऐसा होने पर भी किसी कार्य का मूल्यांकन स्थिर नहीं हो सकता । चोरी का त्याग, जीवहिंसा का त्याग और व्याभिचार का त्याग, जो मुनि के उपदेशों से हृदय-परिवर्तन होने पर आत्म-शुद्धि के लिए किए गए, उनका स्वरूप विरति या संयम है। और वे आत्म-शुद्धि के विरोधी नहीं हैं तथा उनका अनन्तर परिणाम आत्म-शुद्धि है । ____ आचार्य भिक्षु ने इस स्वरूप-विवेकात्मक कसौटी से धर्म-अधर्म को कसा और उनके लक्षण बांधे। उनकी परिभाषा के अनुसार अहिंसा ही धर्म है। उनका लक्ष्य है--आत्म-शुद्धि-साधकता । सुख-साधकता धर्म का लक्षण नहीं है । कई प्राचीन तत्त्ववेत्ता सर्व-भूत-सुख को ही मनुष्य का श्रेष्ठ ध्येय मानते थे। उस पक्ष का सार यह है कि लोक-हितकारक और लोक-सुखकारक जो कर्म है, वह धर्म है, लोकदुःखकारक अधर्म । कुमारिल भट्ट ने इस पक्ष को अमान्य बतलाया। कारण साफ है--श्रुति, स्मृति और परम्परा के बहुत सारे विधि-निषेध इस कसौटी पर ठीक नहीं उतर सकते। आचार्य भिश्रु ने बताया-आध्यात्मिक भूमिका का सुख है-- निर्जरा--आत्म-शुद्धि। धर्म उसका साधन है । वह पौद्गलिक सुख का साधन हो तो अधर्म जैसा कोई कार्य रहता ही नहीं। डॉ. लक्ष्मणशास्त्री ने प्रो० दफ्तरी के मत की मीमांसा करते हुए लिखा है-'दफ्तरीजी धर्म का मुख्य लक्षण सुख-साधकता बतलाते हैं, परन्तु यह धर्म का लक्षण नहीं हो सकता। क्योंकि बहुत सारे
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