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अहिंसा तत्त्व दर्शन
जो व्यक्ति जीवों की हिंसा में अपना अनिष्ट समझता है, वही उसका त्याग कर सकता है ।
शान्ति को प्राप्त हुए संयमी पुरुष दूसरे जीवों की हिंसा कर जीने की इच्छा नहीं करते ।
बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसा निश्चय करना चाहिए कि प्रमादवश पहले जो कुछ किया, वह आगे नहीं करूंगा ।
विविध कर्मरूपी हिंसा की प्रवृत्ति मैं नहीं करूं- - इस भावना से जो उठा है, इसी पर मनन किया है, अभय का मर्म समझा है - वही बुद्धिमान् व्यक्ति इन प्रवृत्तियों को नहीं करता । जिन प्रवचन में ऐसे ही व्यक्ति को उपरत और अनगार कहा है ।
जैन दर्शन का उद्देश्य है - निर्वाण - मोक्ष । निर्वाण कर्म की शान्ति से मिलता है । कर्म की शान्ति सर्व विरति से होती है । सर्व-विरति प्रत्याख्यानीय चारित्र मोह के विलय से प्राप्त होती है ।
प्राणीमात्र का लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह सर्व विरति बने । किन्तु प्रत्याख्यानीय मोह का उदय रहते सर्व विरति नहीं आती । यह आत्मा की अशक्यता है । इस अशक्यता की दशा में यथाशक्य विरति का विधान है । किन्तु जिनके अप्रत्याख्यानीय मोह का उदय होता है, वे अंशत: भी विरति नहीं कर सकते 1 उनके लिए सम्यग् - दृष्टि बनने की व्यवस्था है । अनन्तानुबन्धी मोह के उदय से जो सम्यग्दृष्टि भी नहीं बन सकते, उनके लिए निर्जरा-तपस्या का मार्ग खुला रहता है । निर्जरा - तप, सम्यग् - दृष्टि और विरति - ये मोक्ष के साधन हैं ।
निर्जरा मोक्ष का साधन है पर केवल निर्जरा से मुक्ति नहीं होती, दृष्टि भी सम्यक् होनी चाहिए । चारित्र के बिना इन दोनों से भी मुक्ति नहीं होती । तीनों - सम्यग् दृष्टि, निर्जरा और चारित्र - विरति एक साथ होते हैं, तब आत्मा कर्म - मुक्त होती है । जो मुनि कैवल्य प्राप्त नहीं करता, वह मुक्त नहीं बनता । जो सर्व-विरति नहीं बनता, वह वीतराग नहीं बनता । जो वीतराग नहीं बनता, वह कैवल्य प्राप्त नहीं करता । इसलिए सब मुनि मुक्त नहीं होते । किन्तु जो मुनि व्रत पालन करते-करते वीतराग बन केवली बन जाते हैं, वे ही मुक्त होते हैं ।
घर में रहते हुए बहुत सारे आरम्भ समारम्भ (हिंसा आदि कार्य ) करने पड़ते हैं, इसलिए उस दिशा में सर्व-विरति हो नहीं सकती। आरम्भ-हिंसा करता हुआ जीव मुक्त नहीं बनता । गृहस्थ जितना त्याग करता है, उसकी उतनी ही विरति होती है, शेष अविरति होती है ।
जो कुछ भी त्याग नहीं करता, वह अविरत होता है । इसके आधार पर तीन
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