________________
४५
अहिंसा तत्त्व दर्शन
(१) बंध अविरति के परिणाम से होता है। अविरति का परिणाम जैसे बाण फेंकने वाले व्यक्ति के होता है, वैसे ही जिन जीवों के शरीर से बाण बना उनके भी होता है। इसलिए इनके अविरति की दृष्टि से पाप-कर्म की क्रिया होती है।
(२) मुक्त जीवों के अविरति नहीं होती, इसलिए उनके त्यक्त शरीर द्वारा पाप-कर्म का बंध नहीं होता।
(३) जिन जीवों के शरीर से धर्मोपकरण बनता है, उनके पुण्य कर्म का बंध नहीं होता। पाप-बंध का कारण-अविरति जैसे निरन्तर होती है, वैसे पुण्य का कारण-शुभ प्रवृत्ति निरन्तर नहीं होती। वह विवेकपूर्वक या प्रयत्नपूर्वक करने से ही होती है । तात्पर्य यह है--किसी जीव का त्यक्त शरीर किसी दूसरे जीव की हिंसा का सहायक बनता है, इतने मात्र से उसको हिंसा का दोष नहीं लगता किन्तु उसके भी पूर्व शरीर की आसक्ति त्यक्त नहीं होती, इसलिए उसे आसक्ति रूप हिंसा का दोष लगता है, प्रवृत्ति रूप नहीं। वह धर्म करने का साधन बनता है, तब उसे उसके द्वारा धर्म का फल नहीं मिलता । कारण यह है-धर्म तभी होता है जबकि आत्मा की उसमें प्रवृत्ति होती है, अन्यथा वह नहीं होता।
अविरति की अपेक्षा जीव को अधिकरणी और अधिकरण भी कहा गया है।
अधिकरण
हिंसादि पाप कर्मों के हेतुभूत वस्तु को अधिकरण कहते हैं। उसके दो भेद हैं-आन्तरिक और बाह्य । शरीर और इन्द्रियाँ आन्तरिक अधिकरण हैं और कुल्हाड़ी आदि परिग्रहात्मक वस्तुएँबाह्य-अधिकरण। जिसके ये होते हैं, वह जीव 'अधिकरणी' कहलाता है और शरीरादि अधिकरण से कथंचिद् अभिन्न होने से 'अधिकरण' भी कहलाता है। ___सर्व-विरति वाले जीवों के शरीरादि अधिकरण नहीं होते । अविरति वाले जीवों के ही शरीरादि अधिकरण होते हैं ।
हिंसा का विवेक और त्याग
जो अपना दुःख जानता है, वह अपने से बाहर दूसरे का दुःख जानता है और जो अपने से बाहर दूसरे का दुःख जानता है, वही अपना दुःख जानता है । १. भगवती ५१६ वृत्ति २. वही, १६१ ३. आचारांग ॥१४१४७ : जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ,
जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org