________________
४२
अहिंसा तत्त्व दर्शन
का त्यागी नहीं है, वह उनका भी हिंसक ही है। उसकी चित्तवृत्ति उनके प्रति हिंसात्मक ही है। इसलिए पहले जो कहा गया है कि अप्रत्याख्यानी प्राणी समस्त प्राणियों के हिंसक हैं-यह ठीक ही है। इस विषय में दो उदाहरण और हैं । एक संज्ञी का और एक असंज्ञी का । उनका आशय यह है-एक पुरुष एकमात्र पृथ्वीकाय से अपना कार्य करना नियत कर शेष प्राणियों के आरम्भ करने का त्याग कर देता है । वह देश, काल से दूरवर्ती पृथ्वीकाय का भी हिंसक ही है, अहिंसक नहीं । पूछने पर वह यही कहता है- "मैं पृथ्वीकाय का आरम्भ करता हूं, कराता हूं और करने वाले का अनुमोदन करता हूं।" परन्तु वह यह नहीं कह सकता कि मैं श्वेत या नील पृथ्वीकाय का आरम्भ करता हूं, शेष का नहीं। क्योंकि उसके किसी भी पृथ्वी-विशेष का त्याग नहीं है, इसलिए आवश्यकता न होने से या दूरी आदि के कारण वह जिस पृथ्वी का आरम्भ नहीं करता, उसका भी अघातक नहीं कहा जा सकता एवं उस पृथ्वी के प्रति उसकी चित्तवृत्ति हिंसा-रहित नहीं कही जा सकती। इसी तरह प्राणियों के घात का प्रत्याख्यान नहीं किए हुए प्राणी को देश-काल से दूरवर्ती प्राणियों का अघातक या उनके प्रति उसकी अहिंसात्मक चित्तवृत्ति नहीं कही जा सकती। यह संज्ञी का दृष्टान्त है।
जो जीव ज्ञान-रहित तथा मन से हीन हैं, वे असंज्ञी कहे जाते हैं। वे जीव सोए हुए, मतवाले तथा मूच्छित आदि के समान होते हैं । पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के प्राणी तथा विकलेन्द्रिय से लेकर सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तक के त्रस प्राणी असंज्ञी हैं। इन असंज्ञी प्राणियों में तर्क, संज्ञा,वस्तु की आलोचना करना, पहचान करना, मनन करना और शब्द का उच्चारण करना आदि नहीं होता तो भी ये प्राणी दूसरे प्राणियों के घात की योग्यता रखते हैं। यद्यपि इनमें मन, वचन और काया का विशिष्ट व्यापार नहीं होता, तथापि ये प्राणातिपात आदि अठारह पापों से युक्त हैं, इसलिए ये प्राणियों को दु:ख, शोक और पीड़ा उत्पन्न करने से विरत नहीं हैं, इसलिए इन असंज्ञी जीवों के पाप-कर्म का बन्ध होता है। इसी प्रकार जो मनुष्य प्रत्याख्यानी नहीं है, वह चाहे किसी अवस्था में हो, सबके प्रति दुष्ट आशय होने के कारण उसके पाप-कर्म का बन्ध होता ही है । जैसे पूक्ति दृष्टान्त के संज्ञी और असंज्ञी जीवों के देश काल से दूरवर्ती प्राणियों के प्रति दुष्टआशय होने से कर्मबन्ध होता है, इसी प्रकार प्रत्याख्यान-रहित प्राणी के देशकाल से दूरवर्ती प्राणियों के प्रति भी दुष्ट-आशय होने से कर्म-बन्ध होता ही है।'
हिंसा की सूक्ष्म विचारणा पर क्रिया का सिद्धान्त विकसित हुआ है । कर्मबन्ध की निमित्तभूत चेष्टा को क्रिया कहते हैं । वह पाँच प्रकार की है
१. सूत्रकृतांग २।४।६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org