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अहिंसा तत्त्व दर्शन
क्षीण नहीं होती तब तक हिंसा का बीज उन्मलित नहीं होता। इसलिए हिंसा का मूल अविरति है, प्राणातिपात उसका परिणाम है । यह व्यक्त हिंसा उस मानसिक ग्रन्थि या अव्यक्त हिंसा के अस्तित्व में ही संभव है। विरति-हिंसा-प्रेरक मानसिक ग्रन्थि की मुक्ति जब हो जाती है, तब हिंसा का बीज उन्मूलित हो जाता है। अहिंसा का मूल विरति है, अप्राणातिपात उसका परिणाम है, यह व्यक्त अहिंसा हिंसा-प्रेरक मानसिक ग्रन्थि की मुक्ति होने पर ही विकासशील बनती है। इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व में अहिंसा के अर्थ, उद्गम और लक्ष्य में आमूलचूल परिवर्तन हो गया।
भगवान् ऋषभ और अहिंसा
कर्म-युग के विकास के साथ राजतंत्र की स्थापना हुई, तब पहले राजा ऋषभ बने थे। वे कुलकर नाभि के पुत्र थे। उनकी राजधानी थी अयोध्या। ___ ऋषभ ने प्रजा के निर्वाह और अभ्युदय के लिए प्रवृत्तियों का विकास किया-कृषि, व्यापार और सुरक्षा आदि सामाजिक कर्मों का स्वयं संचालन किया। शिल्प, कला और व्यवसाय के प्रवर्तन का उद्देश्य यही था कि जनता की जीविका चले, भली-भाँति निर्वाह हो, जिससे चोरी और छीना-झपटी की आदत पनप रही है, वह निर्मूल हो जाए।
सामाजिक विकास और जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ यदि प्रवृत्तियों का विकास नहीं हुआ होता तो संभव है खाद्याभाव के कारण समाज असामाजिक तत्त्वों का गढ़ बन जाता और फिर हिंसक पशुओं की भांति असामाजिक अवस्था में चला जाता। किन्तु ऋषभ का कर्तव्य-बोध इतना प्रबल था कि उन्होंने नवनिर्मित समाज को उस भयंकर परिस्थिति से बचा लिया।
ऋषभ के पुत्र भरत के नाम से हिमवर्ष का नाम भारतवर्ष हुआ था। जैनसाहित्य के अतिरिक्त पुराण भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं। वैदिक साहित्य में भी ऋषभ के बारे में अनेक उल्लेख मिलते हैं। __ ऋषभ उस आदियुग के सूत्रधार हैं, जिसमें सामाजिक जीवन का शिलान्यास हुआ था और संभवतः ऋषभ के हाथों से ही हुआ था। ऋषभ उस आदियुग के सूत्रधार हैं जिसमें सामाजिक कर्तव्य का श्रीगणेश हुआ था और संभवतः ऋषभ के हाथों से ही हुआ था। ऋषभ उस आदियुग के सूत्रधार हैं जिसमें मुक्ति-साधना का आधार-स्तम्भ खड़ा किया गया था और उन्हीं के हाथों से किया गया था।
इसीलिए ऋषभ किसी समाज, परम्परा और सम्प्रदाय से आबद्ध नहीं हैं किन्तु सार्वजनिक हैं। युग के आदि-प्रवर्तक के रूप में उनकी सर्वत्र प्रतिष्ठा है।
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