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अहिंसा तत्त्व दर्शन
३. चौर्य और अचौर्य, ४. स्वार्थ और परार्थ ।
यदि हिंसा आदि तत्व ही विकसित होते तो सामाजिक जीवन उदित होने से पहले ही अस्त हो जाता और यदि अहिंसा आदि तत्त्व ही विकसित होते तो सामाजिक जीवन गतिशील नहीं बनता। इस तथ्य की स्वीकृति वास्तविकता की अभिव्यक्ति मात्र होगी कि हिंसा और अहिंसा-ये दोनों तत्त्व सामाजिक अस्तित्व को धारण किए हुए हैं। ये दोनों भिन्न दिशागामी हैं. इसलिए इन्हें विरोधी धाराएं कहा जा सकता है किन्तु दोनों एक लक्ष्य (समाज-विकास)-गामी हैं, इस स्तर पर इन्हें अविरोधी धाराएँ भी कहा जा सकता है। आत्मा का अस्तित्व और अहिंसा
कोई भी विकास एकपक्षीय धारा में अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता। हर विकास की प्रतिक्रिया होती है और उसके परिणामस्वरूप प्रतिपक्षी तत्त्व का विकास-क्रम प्रारंभ होता है। भौतिक अस्तित्व की प्रतिक्रिया ने मनुष्य को आत्मिक अस्तित्व की ओर गतिमान् बनाया। उसे इस सत्य की दृष्टि प्राप्त हुई कि चेतन का अस्तित्व अचेतन से स्वतंत्र है। यह जगत चेतन और अचेतन-इन दो सत्ताओं का सांसर्गिक अस्तित्व है। उस दिन सामाजिक विकास के सामने आत्मिक विकास और राजतंत्र के सामने आत्म-तंत्र का प्रथम सूत्रपात हुआ। इस सूत्रपात ने अहिंसा आदि का मूल्य-परिवर्तन कर डाला। सामाजिक अस्तित्व के स्तर पर उनका मूल्य सापेक्ष और ससीम था, वह आत्मिक अस्तित्व के स्तर पर निरपेक्ष और निःसीम हो गया। सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा का अर्थ था प्राणातिपात का आंशिक निषेधमनुष्यों तथा मनुष्योपयोगी पशु-पक्षियों को न मारना। और न मारने का लक्ष्य था, सामाजिक सुव्यवस्था का निर्माण और स्थायित्व ।
आत्मिक क्षेत्र में अहिंसा का अर्थ हुआ प्राणातिपात का सर्वथा निषेध -किसी प्राणी को न मारना, न मरवाना और मारनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करना । प्राणातिपात के सर्वथा निषेध का लक्ष्य था मुक्ति यानी परिपूर्ण आत्मोदय ।
मुक्ति का दर्शन जैसे-जैसे विकसित हुआ, वैसे-वैसे अहिंसा की मर्यादा भी व्यापक होती चली गई।
व्यापक मर्यादा में इस भाषा को अव्याप्त माना गया कि प्राणातिपात ही हिंसा है और अप्राणातिपात ही अहिंसा है। वहाँ हिंसा और अहिंसा की परिभाषा की आधार-भित्ति अविरति और विरति बन गई। अविरति-यानी वह मानसिक ग्रन्थि जो मनुष्य को प्राणातिपात करने में सक्रिय करती है, जब तक उपशान्त या
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