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अहिंसा तत्त्व दर्शन
२. ५
भगवान् महावीर ने हिंसा करने के कारणों का उल्लेख करते हुए बताया है कि- 'कुछ व्यक्ति, इसने मुझे पहले मारा था, इसलिए मारते हैं, कुछ यह मुझे मार रहा है, इसलिए मारते हैं और कुछ यह मुझे मारेगा इसलिए मारते हैं, यह सब हिंसा है ।'
इस प्रकार जितने भी विशुद्ध अहिंसा के विचारक हुए हैं, जिन्होंने दूसरों के द्वारा अहिंसा पालन करवाने की सीमा निरवद्य उपदेश को ही बतलाया ।
आत्म रक्षा
रक्षा का सामान्य अर्थ है बचाना। इससे सम्बन्ध रखने वाले महत्त्वपूर्ण प्रश्न चार हैं- रक्षा किसकी ? किससे ? क्यों ? और कैसे ? प्रत्येक प्रश्न के दो-दो विकल्प बनते हैं :
(१) रक्षा शरीर की या आत्मा की ?
(२) रक्षा कष्ट से या हिंसा से ?
(३) रक्षा जीवन को बनाए रखने के लिए या संयम को बनाए रखने के लिए ?
(४) रक्षा हिंसात्मक पद्धति से या अहिंसात्मक पद्धति से ?
अहिंसात्मक पद्धति द्वारा संयम को बनाए रखने के लिए, हिंसा से आत्मा को बचाने की वृत्ति का नाम है – आत्म-रक्षा ।
हिंसात्मक पद्धति द्वारा जीवन को बनाए रखने के लिए कष्ट से बचाव होता है, वह शरीर रक्षा है ।
वास्तव में शरीर रक्षा और आत्म-रक्षा- ये दोनों लाक्षणिक शब्द हैं । इनका तात्पर्यार्थ है । हिंसात्मक प्रवृत्ति द्वारा विपदा से बचने का प्रयत्न करना शरीररक्षा और हिंसा से बचने का प्रयत्न करना आत्म-रक्षा ।
साध्य जैसे शुद्ध हो, वैसे साधन भी शुद्ध होना चाहिए। आत्म-रक्षा के लिए साध्य और साधन दोनों अहिंसात्मक होने चाहिए। थोड़े में यूं कहा जा सकता है आत्म-रक्षा का अर्थ है - राग-द्वेषात्मक आदि असंयमय वृत्तियों से बचना | इसका साध्य है— आत्म- मुक्ति | इसके साधन हैं :
१. धार्मिक उपदेश,
२. मौन या उपेक्षा,
३. एकान्त - गमन ।
हिंसा करना उचित नहीं, इस प्रकार हिंसक को समझाना, उसकी हिंसा करने की भावना को बदलने का प्रयत्न करना, धार्मिक उपदेश है ।
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