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हिंसा
प्राणातिपात पाप है, चण्ड है, रौद्र है, मोह और महाभय का प्रवर्तक है।'
हिंसा गांठ है, मोह है, मृत्यु है, नरक है ।' हिंसा की परिभाषा
प्रमाद और काम-भोगों में जो आसक्ति होती है, वही हिंसा है। आत्मा की अशुद्ध परिणति मात्र हिंसा है, इसका समर्थन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है- 'असत्य आदि सभी विकार आत्म-परिणति को बिगाड़ने वाले हैं। इसलिए वे सभी हिंसा हैं । असत्य आदि जो दोष बतलाए हैं वे केवल 'शिष्य बोधाय' हैं । संक्षेप में राग-द्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा और उनका प्रादुर्भाव हिंसा है। रागद्वेष-रहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राण-वध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती, राग-द्वेष सहित प्रवृत्ति से प्राण-वध न होने पर भी वह होती है। जो राग-द्वेष की प्रवृत्ति करता है, वह अपनी आत्मा की घात कर ही लेता है, फिर चाहे दूसरे जीवों की घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणति होना भी हिंसा है। इसलिए जहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति है, वहां निरन्तर प्राण-वध होता है।"
निश्चय दृष्टि से आत्मा ही अहिंसा है और वही हिंसा। अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है और जो प्रमत्त है, वह हिंसक है।
१. प्रश्नव्याकरण ११२३ : एसो सो पाणवहो पावो, चण्डो, रुद्दो-मोहमह
व्भयपवहओ। २. आचारांग १।११७८ : एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु
__णरए। ३. वही ११११८६ ४. पुरुषार्थ-सिद्धय पाय-४२ ४८ ५. हरिभद्र कृत अष्टक ७, श्लोक ६ की वृत्ति
आया चेव अहिंसा, आया हिंसेत्ति निच्छओ एस । जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो॥
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