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अहिंसा तत्त्व दर्शन
प्रभाव जमाने के लिए अनार्य भाषा का व्यवहार करते हैं । कोई-कोई वैयाकरण आदि ऐसे धूर्त होते हैं कि शास्त्रार्थं में वादी को परास्त करने के लिए तर्क- मार्ग को सामने रख देते हैं तथा अपने अज्ञान को ढकने के लिए व्यर्थ शब्दाडम्बरों से समय का दुरुपयोग करते हैं। कपट के कार्यों से अपने जीवन को निदित करने वाले बहुत से मायावी अकार्यों में रत रहते हैं । जैसे कोई मूर्ख हृदय में गड़े हुए बाण को पीड़ा से डरकर स्वयं न निकाले तथा दूसरे के द्वारा भी न निकलवाए किन्तु उसे छिपाकर व्यर्थ ही दुःखी बना रहे, इसी तरह कपटी पुरुष अपने हृदय के कपट को बाहर निकालकर नहीं फेंकता है तथा अपने अकृत्य को निंदा के भय से छिपाता है । वह अपनी आत्मा को साक्षी बनाकर अपने मायाचार की निंदा भी नहीं करता तथा वह अपने गुरु के निकट जाकर उस माया की आलोचना नहीं करता है । अपराध विदित हो जाने पर गुरुजनों के द्वारा निर्देश किए हुए प्रायश्चितों का आचरण भी वह नहीं करता है। इस प्रकार कपटाचरण के द्वारा अपनी समस्त क्रियाओं को छिपाने वाले व्यक्ति की इस लोक में अत्यन्त निंदा होती है, उसका विश्वास हट जाता है, वह किसी समय दोष न करने पर भी दोषी माना जाता है, वह मरने के पश्चात् परलोक में नीच से नीच स्थान में जाता है | वह बार-बार तिर्यंच तथा नरक योनि में जन्म लेता है । ऐसा व्यक्ति दूसरे को धोखा देकर लज्जित नहीं होता अपितु प्रसन्नता का अनुभव करता है तथा अपने को धन्य मानता है । उसकी चित्तवृत्ति सदा प्रवंचना में लीन रहती है । उसके हृदय में शुभभाव की प्रवृत्ति होती ही नहीं । उसके माया-निमित्तक हिंसा कर्म का बन्ध होता है ।" ४. लोभ-निमित्तक
कई व्यक्ति इस प्रकार कहा करते हैं कि 'मैं मारने योग्य नहीं किन्तु दूसरे प्राणी मारने योग्य हैं । मैं आज्ञा देने योग्य नहीं किन्तु दूसरे प्राणी आज्ञा देने योग्य हैं। मैं दास, दासी आदि बनाने के योग्य नहीं परन्तु दूसरे प्राणी दास, दासी बनाने योग्य हैं । मैं कष्ट देने योग्य नहीं किन्तु दूसरे प्राणी कष्ट देने योग्य हैं । मैं उपद्रव के योग्य नहीं परन्तु दूसरे प्राणी उपद्रव के योग्य हैं? -इस प्रकार उपदेश देने वाले काम भोग में आसक्त रहते हैं । वे सदा विषय-भोग की खोज में लगे रहते हैं । इस प्रकार उस लोभी व्यक्ति के लोभ-निमित्तक हिंसा - कर्म का बन्ध होता है । "
कई व्यक्ति खान-पान के लिए हिंसा करते हैं । वे बिना ही अपराध प्राणियों
१. सूत्रकृतांग २।२।२७ २. वही, २।२।२७
३. वही, २२ २८
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