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अहिंसा तत्त्व दर्शन बुद्धिमान् जल की हिंसा न करे ।'
इसी प्रकार जो अग्निकाय के जीवों के स्वरूप को जानने में कुशल हैं, वे ही अहिंसा का स्वरूप जानने में कुशल हैं। मनुष्य विषय-भोग की आसक्ति के कारण अग्नि तथा दूसरे जीवों की हिंसा करते रहते हैं, क्योंकि आग जलाने में पथ्वीकाय के, घास-पात के, गोबर-कचरे में रहने वाले तथा आग के आस-पास उड़ने-फिरने वाले अनेक जीव जलकर मर जाते हैं ।
इसी प्रकार अनेक मनुष्य आसक्ति के कारण वनस्पति की हिंसा करते हैं। वनस्पति भी जन्मशील और सचित्त है । जैसे-जब कोई व्यक्ति हमें मारे-पीटे तो हम दुःखी हो जाते हैं, वैसे ही वनस्पति भी दुःखी होती है। जैसे हम आहार लेते हैं, वैसे ही वह भी । हमारे समान वह भी अनित्य और अशाश्वत है। हम घटतेबढ़ते हैं, उसी प्रकार वह भी घटती-बढ़ती है । जैसे अपने में विकार होते हैं, वैसे ही उसमें भी होते हैं । जो वनस्पति की हिंसा करते हैं, उनको हिंसा का भान नहीं होता । जो मुनि वनस्पति की हिंसा को जानता है, वही सच्चा मर्मज्ञ है ।'
____ अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूच्छिम, उद्भिज और औपपातिक-ये सब त्रस जीव हैं। इनकी हिंसा न करे, न कराए।
इसी प्रकार वायुकाय के जीवों को समझना चाहिए । अनेक व्यक्ति आसक्ति के कारण विविध प्रवृत्तियों द्वारा वायु-काय की तथा उसके साथ ही अनेक जीवों की हिंसा करते हैं । क्योंकि दूसरे अनेक उड़ने वाले जीव झपट में आ जाते हैं और इस प्रकार आघात, संकोच, परिताप और विनाश को प्राप्त होते हैं।
हिंसा के परिणाम का निर्णय
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि क्षुद्र प्राणी हैं। हाथी, घोड़े आदि महाकाय प्राणी हैं । किन्तु इन सबकी आत्मा समान है—असंख्य प्रदेश वाली है। इसलिए इनकी हिंसा से एक सरीखा वैर या कर्म-बन्ध होता है-ऐसा एकांत वचन नहीं बोलना चाहिए । इसी प्रकार इन प्राणियों में ज्ञान, विकास, इन्द्रिय, शरीर और पुण्य का तारतम्य है । इसीलिए इनको मारने में वैर या कर्म-बन्ध समान नहीं होताऐसा एकान्त वचन भी नहीं बोलना चाहिए। कारण यह है-कर्म-बन्ध की
१. आचारांग १११।३ २. वही १।११४ ३. वही ११११५ ४. वही ११११६ ५. वही ११११७ ६. सूत्रकृतांग २१४१६४
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