________________
अहिंसा तत्त्व दर्शन
है, उसके दृष्टि-विपर्यास से होने वाली हिंसा के द्वारा पाप-कर्म का बंध होता है।'
हिंसा के निमित्त संक्षेप में हिंसा के निमित्त दो हैं—राग और द्वेष । राग के दो प्रकार हैंमाया और लोभ । क्रोध और मान-ये द्वेष के प्रकार हैं।
१. मित्र-दोष-निमित्तक
कई व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो थोड़े अपराध में महान् दण्ड देते हैं । माता, पिता, भाई, भगिनी, स्त्री, पुत्र-वधू तथा कन्या के द्वारा थोड़ा अपराध होने पर भी उन्हें महान् दण्ड देते हैं। ठण्डक के दिनों में वे उन्हें बर्फ के समान ठण्डे जल में गिरा देते हैं तथा गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर गर्म जल डालकर कष्ट देते हैं एवं अग्नि, गर्म लोहा या गर्म तेल छिड़कर उनके शरीर को जला देते हैं । तथा बेंत, रस्सी, छड़ी आदि से मारकर उनके शरीर की चमड़ी उधेड़ देते हैं। ऐसे व्यक्ति जब घर पर रहते हैं, तब उनके परिवार वाले दुःखी रहते हैं और उनके परदेश चले जाने पर वे सुखी रहते हैं। ऐसे पुरुष इस लोक में अपना तथा दूसरों का अहित करते हैं और मरने के पश्चात् वे परलोक में अत्यन्त क्रोधी और परोक्ष में निन्दा करने वाले होते हैं। यह मित्र-दोष से होने वाली हिंसा का निमित्त है।'
२. मान-निमित्तक
जाति, कुल, बल, रूप, तप, शास्त्र, लाभ, ऐश्वर्य और प्रज्ञा के मद से मत्त होकर जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों को तुच्छ गिनता है तथा अपने को सबसे श्रेष्ठ मानता हुआ दूसरे का तिरस्कार करता है, उसके मान-निमित्तक हिंसा-कर्म का बन्ध होता है।
३. माया-निमित्तक
कई व्यक्ति बाहर से सभ्य और सदाचारी प्रतीत होते हैं परन्तु छिपकर पाप करते हैं । वे लोगों पर अपना विश्वास जमाकर पीछे से उन्हें ठगते हैं । वे बिलकुल तुच्छ वृत्ति वाले होकर भी अपने को पर्वत के समान महान् समझते हैं। वे मायाकपट-क्रिया करने में बड़े चतुर होते हैं। वे आर्य होते हुए भी दूसरे पर अपना
१. सूत्रकृतांग २।२।२१ २, वही, २।२।२६ ३. बही, २।२।२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org