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अहिंसा तत्त्व दर्शन जान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोजनवश करता है तो कोई बिना प्रयोजन भी। 'सूत्रकृतांग' में हिंसा के पाँच समादान बतलाए हैं :
१. अर्थ-दण्ड, २. अनर्थ-दण्ड, ३. हिंसा-दण्ड, ४. अकस्मात्-दण्ड,
५. दृष्टिविपर्यास-दण्ड । १. अर्थ-दण्ड
जो व्यक्ति अपने लिए, अपनी जाति, परिवार, मित्र, घर, देवता, भूत और यज्ञ आदि के लिए और स्थावर प्राणियों की स्वयं घात करता है, दूसरों से करवाता है, घात करते हुए को अच्छा समझता है, वह अर्थ-दण्ड के द्वारा पाप-कर्म का बंध करता है।
२. अनर्थ-दण्ड
कोई व्यक्ति त्रस प्राणियों को अपने शरीर की रक्षा के लिए नहीं मारता, चमड़े के लिए, माँस आदि के लिए भी नहीं मारता, इसने मेरे किसी सम्बन्धी को मारा है, मार रहा है या मारेगा, इसलिए नहीं मारता, पुत्र-पोषण, पशु-पोषण, घर की सुरक्षा, श्रमण-ब्राह्मण की जीविका के लिए भी नहीं मारता किन्तु बिना प्रयोजन ही कुतूहल आदि के लिए वह प्राणियों को मारता है, छेदन करता है, भेदन करता है, अंगों को काट डालता है, चमड़े और नेत्रों को उखाड़ता है, उपद्रव करता है, वह अनर्थ दण्ड-निरर्थक हिंसा है। ___इसी प्रकार बिना प्रयोजन स्थावर जीवों की हिंसा करने वाला, चपलतावश वनस्पतियों को उखाड़ फेंकने वाला, नदी-तालाब आदि जलाशयों के तट पर पर्वत व वन आदि में बिना मतलब आग लगा देने वाला भी अनर्थ-दण्ड के द्वारा पापकर्म का बंध करता है।
३. हिंसा-दण्ड
बहुत से व्यक्ति दूसरे प्राणियों को इस आशंका से मार डालते हैं कि 'यह जीवित रहकर मुझे मार डालेगा,' 'जैसे कंस ने देवकी-पुत्रों को उनके द्वारा
१. सूत्रकृतांग २।२।१८
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