Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रबोधिनी टीका पद २२ सू. २ क्रियास्वरूपनिरूपणम्
दोषेण कलहेन अभ्याख्यानेन पैशुन्येन परपरिवादेन अरतिरती मायामृषाक्रमेण मिथ्यादर्शनशल्येन सर्वेषु जीवा नैरयिकभेदेन भणितव्याः, निरन्तरं यावद वैमानि कानामिति एवम् अष्टादश एते दण्डका || १८ || नू. २ ।
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टीका-पूर्व कायिकयादयः क्रियाः प्ररूपिताः सम्प्रति ताः क्रिया किम् अविशेषेण सर्वेषां जीवानां सन्ति किंवा न सन्ति ? इति जिज्ञासया प्ररूपयितुमाह 'जीवाणं ते ! किसकिरिया अकिरिया ?" हे भदन्त ! जीवाः खलु किं सक्रियाः भवन्ति ? किंवा अक्रिया:- क्रियारहिता भवन्ति ? भगवानाह - 'गोयमा !" हे गौतम । 'जीवा णं किरिया कजइ) हे भगवन् ! किस विषय में परिग्रह से क्रिया होती है ?
( गोयमा सव्वदव्वे) हे गौतम! सब द्रव्यों में ( एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं) इसी प्रकार नारकोंको यावत् वैमानिको ( एवं ) इसी प्रकार (कोहेणं) क्रोध से (मा. ण) मान से ( मायाए ) माया से (लोभेणं) एवं लोभ से (पेज्जेण) प्रेम से (दोसेi) द्वेष से ( कलहेणं) कलह से ( अम्भकखाणेणं) अभ्याख्यान से (पेसुन्नेणं) पैशुन्यसे ( परपरिवारणं) परपरिवाद से ( अरतिरतीते) अरति और रति से (माया) मोसेणं) तथा माया मृषा से (मिच्छादण सल्लेणं मिथ्यादर्शनशल्य से (सव्वेसु) इनसभी में (जीवा) जीव (नेरइयभेदेण) नैरयिक भेद से (भाणियन्वा ) कहना चाहिए ( निरंतरं जाव वैमाणियाण ति) लगातार यावत् वैमानिकों को ( एवं अट्ठारस एए दंडगा ) इस प्रकार ये अठारह दंडक हुए । सू. २||
टीकार्थ :- पहले कायिकी आदि क्रियाओं का कथन किया गया है । अब क्या वे क्रियाएँ सभी जीवों को समान रूप में होती हैं अथवा नहीं, इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर स्पष्टीकरण करते हैं
श्री गौतमस्वामी - क्या जीव सक्रिय होते हैं अथवा अक्रिय होते हैं अर्थात् क्रिया से सहित होते हैं या क्रियासे रहित होते हैं ?
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શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
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( गोयमा ! सव्वदव्वेसु) हे गौतम! मघां द्रव्योमा ( एवं नेरइयाण जाव वेमाणियाण) मेरे नारो यावत् वैमानिओनी (एव) मेरीते (कोहेण) अधथ । (माणेण ) भानथी ( मायाए) भायाथी (लोमेण) सोलथी (पेज्जेण) प्रेमथी (दोसेण) द्वेषथी ( कलहेण) सहथी ( अब्भक्खाणेणं मल्या ध्यानथी (पेसुन्नेण ं) पैंशून्यथी ( परपरिवारण) परपरिवाथी ( अरति) अरति ( रतीते ) रतिथी ( मायामोसेण) भायाभृषार्थी (मिच्छाद सणसल्लेण ) भिथ्या दर्शन शस्यथी (सव्वेसु) मा धामां (जीवा) (रइयभेदेण) नैरयिउना लेध्थी (भाणियव्वा) उडेचा लेह से ( निरंतर जाव वेमाणियाण त्ति) निरन्तर यावत् वैभानिओभा ( एवं अट्टारस एए द 'डगा) मा अमरेमा अढार इंउथया ॥सू. २॥ ટીકા :- પહેલાં કાયિકી આદિ ક્રિયાઓનું કથન કરાયું છે.
હવે શું તે ક્રિયાઓ બધાજીવાને સમાનરૂપમાં થાય છે અથવા નથી થતી એ પ્રકાર ની જિજ્ઞાસા થતાં સ્પીકરણ કરે છે.
શ્રી ગૌતમસ્વામી-હે ભગવન શુ જીવ સક્રિય હાયછે, અથવા અક્રિય હાય છે? અર્થાત