Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ०७ सू० १ लोकविस्तारनिरूपणम् २४७ पुरीषेण वा, प्रस्रवणेन वा, मुत्रेण वा, श्लेष्मणा वा-कफविशेषेण वा, सियाणकेन वा-नासिकामलविशेषेण वा, बान्तेन वा, उद्वमनेन वा, पित्तेन वा, पूयेन वा-विकृतशोणितेन वा, शुक्रेण वा, शोणितेन वा, चर्मभि ा, रोमभि वर्वा, शृङ्गे वो, खुरै वा, नखै की, खुराग्रभागै र्वा अनाक्रान्तपूर्वो भवति ? अस्पृष्टपूर्वो भवेत् किमिति प्रश्ना, गौतम आह-'भगवं णो इणढे सम?' हे भगवन् ! नायमर्थः समर्थः-नैतत्संभवति न अनाक्रान्तपूर्वः स्यात् अपितु अनाक्रान्तपूर्व एवेति कदाचित् तत्संभाव्यापि प्रस्तुतार्थस्यासंभावनामाह-'होज्जा वि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमेते वि पए से, जेणं तासि अयाणं उच्चारेण वा जाव णहेहिं वा अणाकंतपुव्वे' हे गौतम ! भवेदपि कदाचित् खलु तस्य अजावजस्य उन बकरियों की 'उच्चारेणं वा' लेडियों से 'पासवेणं वा' अथवा उनके पेशाब से , 'खेलेणवा' या उनके श्लेष्म से , 'सिंघाणएण वा' या उनके नाक के मेल से 'वंतेण वा ' या उनके वमन से पित्तण या' या उनके पित्त से 'पूएण वा' विकृत खून से-पीप से , 'सुक्केण ' या उनके शुक्र से-वीर्य से 'सोणिएण वा' या उनके खून से 'चम्मेहिं वा' या उनके चमड़े से, 'रोमेहिं वा' या उनके रोमों से, 'सिगेहिं वा' या उनके सींगों से, 'खुरेहिं वा, या उनके खुरों से 'नहेहिवा' या उनके नखों से , 'अणाकंतपुव्वे भवइ ' अनाक्रान्त पूर्व बना रहे ? अर्थात् इन सब में किसी एक से भी वह अछूताछुआ न गया बना रहे है ?
उत्तर में गौतम ने कहा-'भगवं णो इणढे समटे' हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है-ऐसी वहां संभावना नहीं हो सकती, किन्तु ऐसी बीमाथी अथवा “पासवेर्ण वा" तमना भूत्रथा अथवा “खेलेण वा" तमना ४६ १३, “ सिंघाणएण वा" अथवा तमना नामांथी नीता थी। प्रबाही 43, “वतेण वा" या तमना मन 43, पित्तेण वा" अथवा तमना पित्त 43, “पूएण वा" अथवा तमना ५२ १३, “सुक्केण वा" अथवा तमना पाय 43, "सोणिएण वा " अथवा तभना ही , “चम्मेहिं या" अथवा तमनी यामडी १, “रोमेहि वा" Aथा तभनी २ail 3, " सिंगेहिं वा” अथ तमना शिंकाम। 43, “ खुरेहिं वा” अथवा तभनी मरीमा १3, “ नहेहि वा" तमना न५ 43, “अणाकंतपुव्वे भव" અનાક્રાન્તપૂર્વ હશે ? એટલે કે લીંડીએ આદિ પદાર્થોમાંથી કઈ પણ એક દ્વારા પણ સ્પર્શ થયા વિનાને તેને એક પણ પ્રદેશ રહેશે ખરે?"
गौतम स्वामीन। उत्तर-" भगवं णो इणद्वे समटे" अगवन् ! मेj સંભવી શકે નહીં એટલે કે લીંડીઓ આદિથી જેને સ્પર્શ ન થયો હોય
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦