Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 696
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१३ उ०४ सु० १० अवगाहनाद्वारनिरूपणम् ६८१ % लोकाकाशेवगाढो भवति, अलोकाकाशे तु न, तदभावात् , 'एवं अहम्मत्थिकायपएसा वि' एवं-धर्मास्तिकायप्रदेशावगाहरदेव, अधर्मास्तिकायप्रदेशा अपि तत्र स्यात् अवगाहा भवन्ति, स्यात् नो अवगाढा भवन्ति, यदा अवगाहा भवन्ति तदा एक एवाधर्मास्तिकायप्रदेशोऽत्रगाढो भवति, उक्तयुक्तेः । गौतमः पृच्छति-'केवइया आगासथिकायप्पएसा ओगाढा?' कियन्तस्तत्राकाशास्तिकायप्रदेशा अव. गाढा भवन्ति ? भगवानाह -'नत्थि एको वि' तत्राकाशास्तिकायपदेशस्थाने एको ऽपि तदन्यः आकाशास्तिकायमदेशोऽवगाढो न भवति, स्वस्थाने स्वमदेशान्तरनहीं है। कारण-अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय का अभाव है। 'एवं अहम्मथिकायपएसावि' धर्मास्तिकायप्रदेश अवगाह की तरह ही अधमर्मास्तिकाय के प्रदेश भी वहां पर कदाचित् अवगाढ हैं और कदाचित् अवगाढ नहीं हैं-यदि वे वहां पर अवगाढ होते हैं तो एक ही अधर्मास्तिकाय का प्रदेश उक्तयुक्ति अनुसार अवगाह होता है। अब गौतमस्वानी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'केवइया आगासस्थिकायप्पएसा ओगाढा' हे भदन्त ! जहां पर आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ-स्थित है वहां पर आकाशास्तिकाय के और कितने प्रदेश अवगाढ-स्थित है, इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'नस्थि एकोवि' हे गौतम ! जहां पर आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाट है-वहां आकाशास्तिकाय के और दूसरे प्रदेशों में से एक प्रदेश भी अवगाह नहीं है क्योंकि अपने स्थान में स्वप्रदेशान्तर के आवगाह होने का असंभव होने यी मला छे. "एवं अहम्मत्थिकायपएसा वि" स्तिय प्रहशना અવગાહની જેમ જ અધર્માસ્તિકાયના પ્રદેશ પણ કયારેક ત્યાં અવગાઢ હોય છે અને કયારેક અવગાઢ હતા નથી જે તેઓ ત્યાં અવગાઢ હોય છે તે એક જ અધમસ્તિકાયનો પ્રદેશ ત્યાં અવગાઢ હોય છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ પણ ઉપર મુજબ સમજવું. गौतम स्वामीना प्रश्न- केवइया भागासथिकायपएसा ओगाढा " है ભગવન! જ્યાં આકાશારિતક ને એક પ્રદેશ અવગાઢ છે, ત્યાં આકાશાસ્તિકાયના બીજા કેટલા પ્રદેશ અવગાઢ તિ) હેાય છે? भी प्रभुनी उत्त२-“नथि एक्को वि" उ ीतम ! या साશારિતકાયને એક પ્રદેશ અવગાઢ છે, ત્યાં આકાશ રિતકાયને બીજે એક પણ પ્રદેશ અવગાઢ હેત નથી, કારણ કે પિતાના જ સ્થાનમાં પિતાના જ અન્ય પ્રદેશની અવગાહના અસંભવિત છે. भ० ८६ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦

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