Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्त्रे 'नपुंसगवेषगा न उज्जति, सेसं तं चेत्र' नपुंसमवेदकास्तत्र नोपश्यन्ते, शेष तदेव-पूर्वोक्तवदेव बोध्यम् । 'उपनगावि तहेच, असनी उव्वदंति' उद्वर्तका अपि तथैव-पूर्वोक्तरत्नप्रभावदेव बोध्याः, नवरं-पूर्वापेक्षया विशेषस्तु-असंज्ञिनः उद्वर्तन्ते असुरकुमारादारभ्य ईशानपर्यनदेवानामसंशिष्वपि पृथिव्यादिपुत्पादात्, 'ओहिनाणी, ओहिदंमणी य ण उन्नति, सेसं तं चेत्र' अवधिज्ञानिनः, अवधिदर्शनिनश्च न उद्वन्ते, असुरादिभ्य उत्तानां तीर्थङ्करादित्वामाप्तः, तीर्थङ्करादी नामेव चावधिमतामुष्टतात्वोपलब्धेः। शेषं तदेव-पूर्ववदेव बोध्यम् , 'पण्णत्तएसु वेद और पुरुषवेद में-उत्पन्न होते हैं। क्योंकि इनमें उत्पन्न होनेवालों में ये ही दो वेद होते हैं । 'न'लगवेगगा न उवजंति सेसं तं चेव' नपुं. सकवेवाले यहां उत्पन्न नहीं होते हैं-और सब कथन बाकी का पहिले जैसा ही है। 'उठ रहनगा वि तहेव, असन्ती उठबट्टति' उद्वतकों के सम्बन्ध का कथन रत्नप्रभा में किये गये इनके कथन की तरह से ही जानना चाहिये, परन्तु जो इनके कथन में यहां विशेषता है वह ऐसी है कि यहां असंज्ञो उद्वर्तना करते हैं। क्योंकि असुरकुमार से लेकर ईशानपर्यन्त के देव असंज्ञीपृथिव्यादिकों में भी उत्पन्न हो जाते हैं। 'ओहिनाणी, ओहिदसणी य ण उन्धट्टति-सेस तं चेव' अवधिज्ञानी
और अवधिदर्शनी यहां से उद्वर्तना नहीं करते हैं, क्योंकि असुरा. दिकों से उवृत्त हुए जीवों की उत्पत्ति तीर्थकरादि रूप से नहीं होती है और अवधिज्ञान एवं अवधिदर्शनसहित तीर्थ करादिक ही उद्वर्तना करते हैं। बाकी का और सब कथन यहां उद्वर्तना संबंधी पहिले के ज्जति" असु२३भारावासमा नघुसवेहवाणा मसुमारे। उत्पन्न थता नथी. "सेसंतंचेव" मीनु समस्त थन नम: पृथ्वीना नारछीना समायु::
" उव्वटुंतगा वि तहेव, असन्नी उन्वटुंति" अनि विषय इथन ५९ રતનપ્રભા નારકના કથન જેવું જ અહીં સમજવું પરંતુ અસુરકુમારની ઉઠત્તના કથનમાં એટલી જ વિશેષતા છે કે અસુરકુમારથી અસંજ્ઞીઓ પણ ઉદ્વર્તન કરે છે, કારણ કે અસુરકુમારથી લઈને ઈશાનપર્યંતના દે અસંશી एथ्वीय माहिमा पत्पन्न २४ लय छे. “ओहिनाणी. ओहिदसणी य ण उठति-सेसं तंचेव" अधिज्ञानी अन अघिदशनी महाथी (અસુરકુમારાવાસમાંથી) ઉદ્વર્તન કરતા નથી, કારણ કે અસુરકુમારાદિમાંથી ઉદ્ધત્ત થયેલા (નીકળેલા) જીવોની તી કરાદિ રૂપે ઉત્પત્તિ થતી નથી અને અવવિજ્ઞાન અને અવધિદર્શનથી યુક્ત તીર્થકરેની જ ઉદ્વર્તન થાય છે. બાકીનું સમસ્ત કથન ઉદ્વર્તના સંબંધી નારકના પૂર્વોક્ત કથન પ્રમાણે જ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૦