Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 666
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ०४ सू०९ द्वि० पु० स्पर्शनाद्वारनिरूपणम् ६५१ कायप्रदेशैः, उत्कृष्टेन सप्तचत्वारिंशता धर्मास्तिका पपदेशै नवपुद्गलास्तिकायप्रदेशाः स्पृष्टा भवन्ति । गौतमः पृच्छति- दस पोग्गलस्थि कायपरसा केवइएहिं धम्मत्थिकायपरसेहिं पुट्ठा ? ' हे भदन्त ! दशपुद्गलास्तिकायप्रदेशाः कियद्भिः धर्मास्ति. कायप्रदेशः स्पृष्टा भवन्ति ? भगवानाह-'जहण्णेणं बावीसाए, उक्कोसेणं बावनाए' हे गौतम ! जघन्येन द्वाविंशत्या धर्मास्तिकायप्रदेशैः उत्कृष्टेन द्वापश्चाशता धर्मास्तिकायमदेशैः दशपुद्गलास्तिकायप्रदेशाः स्पृष्टा भान्ति । 'आगासथिकायस्स सम्बत्थ उकोसगं माणियन्वं' आकाशास्तिकायस्य सर्वत्र-एकमदेशिकाय संख्यमदेशिकान्ते उत्कृष्टकम् उत्कृष्ट पदमेव भणितव्यम् , न जघन्यकमितिभावः। आकाशस्य सर्वत्र सद्भावात् असंख्यप्रदेशत्वात् । गौतमः पृच्छति-'संखेज्जा भंते ! पोग्गलत्यिकायपरसा केत्रइएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुट्ठा ? ' हे भदन्त ! संख्येयाः काय के ४७ पदेशों द्वारा स्पृष्ट होते हैं । ___अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-' दस पोग्गलत्यिकायपएसा केवइएहिं धम्मस्थिकायपएसेहिं पुट्ठा' हे भदन्त ! पुद्गला. स्तिकाय के १० दश प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जहण्णेणं बावीसाए उको. सेणं बावन्माए' हे गौतम ! धर्मास्तिकाय के २२ प्रदेशों द्वारा जघन्य. रूप में, और धर्मास्तिकाय के ५२ प्रदेशों द्वारा उत्कृष्टरूप में १० पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश स्पृष्ट होते हैं। 'आगासत्यिकायस्त सव्यस्थ उकोसगं भाणियव्वं' आकाशास्तिकाय का सर्वत्र-एकप्रदेशिक से लेकर असंख्यात प्रदेशिक तक में-उत्कृष्ट पद ही कहना चाहिये-जघन्य पद नहीं, क्योंकि उसका सर्वत्र सद्भाव रहता है। अब गौतम से ऐसा पूछते हैं-'संखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवइएहिं धम्म. गौतम स्वामीन। प्रR-" दम पोग्गलत्थिकायपएसा केवइएहि धम्मत्यि. कायपएसेहि पुट्ठा १" मगवन् ! पुगतायना इस प्रश। यस्त. કાયના કેટલા પ્રદેશ વડે પૃષ્ટ થાય છે ? महावीर प्रभुन। उत्तर-“जहण्णेणं वावीसाए, उक्कोसेणं बावन्नाए"3 ગૌતમ! પુદગલાસ્તિકાયના દસ પ્રદેશ ધર્માસ્તિક યના ઓછામાં એ છા ૨૨ ।। १3 अने पधारेमा पारे ५२ प्रदेश १ २५ष्ट थाय छे. “आगा सस्थिकायस्स सव्यस्थ उक्कोसगं भाणियध्वं" शास्तियन ३e पहा સર્વત્ર- એક પ્રદેશિથી લઈને અસંખ્યાત પ્રદેશિક સુધીમાં-કહેવું જોઈએજઘન્ય પદનું કથન કરવું જોઈએ નહીં, કારણ કે તેને સર્વત્ર સદૂભાવ રહે छ, भने ते असण्यात प्रदेशका छे. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦

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