Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 675
________________ ६६० भगवतीसूत्रे यथा असंख्येयाः पुद्गलास्तिकायप्रदेशाः प्रतिपादितास्तथैव अनन्ता अपि पुद्गलास्तिकायप्रदेशाः निवशेषाः सर्वे प्रतिपत्तव्याः, विशेषस्तु अत्र यथा जघन्यपदे औपचारिका अवगाहप्रदेशा अधस्तना अरितना वा भवन्ति तथैव उत्कृष्टपदेऽपि, निरूपचारितानाम् अनन्तानाम् आकाशप्रदेशानाम् अवगाहतोऽसद्भावात् , लोकस्थापि असंख्येयप्रदेशात्मकत्वात् , तथाचोक्तम् - 'धम्माइ पएसेहि दुपएसाई जहन्नयपयम्मि । दुगुणदुरूवहिएणं तेणेव कहं नु हु फुसेज्जा ? ॥१॥ एत्थ पुण जहण्ण पयं लोगते तत्थ लोगमालिहिउं । फुसणा दावेयचा अहवा खंभाइ कोडीए ॥ २ ॥ इति ॥ छाया-धर्मादि प्रदेशद्विपदेशादिः जघन्यपदे । द्विगुणरूपाधिकेन तेनैव कथं नु हु स्पृशेत् ? ॥ १ ॥ अत्र पुनर्जवन्यपदं लोकान्ने तत्र लोकमालिख्य । स्पर्शना दापयित्वा, अथवा स्तम्भादिकोटया ( स्तम्भाधाकारेण ) ॥२॥ अर्णता वि निरघसेसं ' हे गौतम ! पूर्वोक्त रीति द्वारा जिस प्रकार से असंख्यात पुद्गलास्तिकायप्रदेशों का कथन किया गया है-उसी प्रकार से पुद्लास्तिकाय के समस्त अनन्त प्रदेशों का कथन भी जानना चाहिये-परन्तु यहां ऐसी विशेषता है कि जैसे यहां जघन्यपद में भी नीचे के या ऊपर के वे अवगाह प्रदेश औपचारिक होते हैं, उसी प्रकार से उत्कृष्टपदमें भी नीचे के या ऊपर के वे अवगाहप्रदेश औपचारिक होते हैं, क्योंकि अवगाह की अपेक्षा से आकाशप्रदेश लोकाकाशप्रदेश-विना उपचार के अनन्त नहीं होते है। कारण यह है कि लोकाकाशके प्रदेश असंख्यात ही सिद्धान्तकारों ने कहे हैं। अतः अवगाह का अपेक्षा आकाशप्रदेश अनन्त वास्तविक रूप से नहीं होते है। सोही कहाहै-'धम्माइपएसेहि' इत्यादि । કથન કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રકારે પુદ્ગલાસ્તિકાયના સમસ્ત અનંત પ્રદેશનું કથન પણ સમજવું પરંતુ અહીં એવી વિશેષતા છે કે-જેવી રીતે અહી જઘન્ય પદમાં નીચેના અથવા ઉપરના અવગાહ પ્રદેશ ઔપચારિક હોય છે, એ જ પ્રમાણે ઉત્કૃષ્ટ પદમાં પણ નીચેના અથવા ઉપરના તે અવગાહપ્રદેશે ઔપચારિક હોય છે, કારણ કે અવગાહની અપેક્ષાએ આકાશપ્રદેશ-લે કાકાશપ્રદેશ–ઔપચારિકતા વિના અનંત હોતા નથી, કારણ કે લેક કાશના પ્રદેશ સિદ્ધાન્તકારોએ અસંખ્યાત જ કહ્યા છે. તેથી અવગાહની અપેક્ષાએ આક પ્રદેશ વાસ્તવિક રૂપે અનંત હોતા નથી. એજ વાત આ सूत्रा द्वारा व्यरत 2-2-" धम्माइपएसेहि" त्यादि। શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦

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