Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे स्पर्शनेन्द्रियो ।युक्ताः प्रज्ञप्ताः, नो इन्द्रियोपयुक्ताः यथा असंज्ञिनः स्यात् सन्ति स्यातन सन्ति इत्युक्ता स्तथा वक्तव्याः, 'संखेज्जा मणजोगी पण्णत्ता, एवं जाव अनागारोवउत्ता' संख्येयाः मनोयोगिनः प्रज्ञप्ता, एवं-तथैव, यावत्-संख्येया: वचोयोगिनः, संख्येयाः काययोगिनः, संख्येयाः साकारोपयुक्ताः, संख्येया अनाकारोपयुक्ताः प्रज्ञप्ताः । 'अगंतरोववन्नगा सिय अथि, सिय नत्थि' अनन्तरोपपन्नकाः स्यात् सन्ति, स्यात् न सन्ति, 'जइ अस्थि जहा असन्नी' तत्र ये अन्तरोपपत्रकाः सन्ति ते यथा असंज्ञिनः प्रतिपादितस्तथैव प्रतिपत्तव्याः, संखेज्जा परंपरोववनगा पणत्ता' संख्येयाः परम्परोपपन्नकाः प्रज्ञप्ताः, 'एवं जहा अणंतरोववनगा तहा अगंतरोवगाढगा, अणंतराहारगा, अणंतरपज्जत्तगा परंपरोवगायुक्त भी संख्यात, रसनेन्द्रियोपयुक्त भी संख्यात और स्पर्शनेन्द्रियोपयुक्त भी संख्यात ही कहे गये हैं। नो इन्द्रियोपयुक्त असंज्ञियों के जैसे हैं भी और नहीं भी हैं, ऐसे कहे गये हैं 'सखेज्जा मणजोगी पण्णत्ता, एवं जाव अणागारोवउत्ता' मनोयोगी संख्यात, वचोयोगी संख्यात, काययोगी संख्यात, साकारोपयुक्त संख्यात और अनाकारो. पयुक्त भी संख्यात ही कहे गये हैं। 'अणंतरोववनगा सिय अस्थि, सिय नत्यि' अनन्तरोपपन्नक वहां हैं भी और नहीं भी हैं 'जइ अस्थि जहा असन्नी' यदि ये वहां हैं तो असज्ञियों के जैसे हैं-अर्थात् जिस प्रकार से असंज्ञी कहे गये हैं-वैसे कहे गये हैं 'सखेज्जा परंपरोववनगा पण्णत्ता' परम्परोपपन्नक भी संख्यात ही कहे गये हैं 'एवं जहा अणंतरोववन्नगा तहा अणंतरोवगाढगा, अणंतराहारगा, अणंतरपज्ज
યુક્ત પણ સંખ્યાત, ધ્રાણેન્દ્રિપયુકત પણ સંખ્યાત, રસનેન્દ્રિપયુકત પણ સંખ્યાત અને સ્પર્શેન્દ્રિય પયુકત પણ સંખ્યાત કહ્યા છે. ત્યાં નેઈન્દ્રિપયુકત નારકે અસંી નારકેની જેમ હોય છે પણ ખરાં અને નથી પણ
ता. “ संखेना मणजोगी पण्णत्ता, एवं जाव अणागारोव उत्ता" त्यां मनाया સંખ્યાત, વચનગી સંખ્યાત, કાયમી સંખ્યાત, સાકારોપયુત સંખ્યાત १२. मना५युत ५ सयात ह्या छ. “ अणंतरोववन्नगा सिय अस्थि, सिय नस्थि" मनन्तरा५५न ना त्या य छ ५६ ५२ म नया पर डा. “जइ अत्थि जहा असन्नी" ने त्या तभने। सइमा सय छ, तो असशीयानी रेम तमे। सभ्यात य छ " संखेज्जा परंपरोववन्नगा पण्णत्ता" त्या ५२ ५२।५५न्न ना। पर सभ्यात ४ा छे. “ एवं जहा अणंतरोववन्नगा तहा अणंतरोवगाढगा, अणंतराहारगा, अणंतरपज्जत्तगा,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦