Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे
वा, उत्कृष्टेन संख्येया उपपद्यन्ते, एवं-तथैव संझिनो जघन्येन एको चा, द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येया उपपद्यन्ते, एवं-तथैव, असंज्ञिनोऽपि जघन्येन एको वा, द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येवा उपपद्यन्ते, एवं भवसिद्धिका जघन्येन एको वा, द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येया उपपद्यन्ते, 'आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मइ अन्नाणी, सुय अनाणी, विभंग नाणी' आमिनिबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः, मत्यज्ञानिनः, श्रुताज्ञानिनः, विभङ्गज्ञानिनः जघन्येन एको बा, द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येया उपपद्यन्ते, 'चक्खुदंसणी ण उपवज्जति' चक्षुदर्शनिनो नो उपपद्यन्ते इन्द्रिय परित्यागेनैव तत्रोत्पत्तेःविधानात् , अथ अचक्षुर्दर्श निनां कथं तर्हि तत्र उत्पत्तिरितिचेन्न इन्द्रिहोते हैं और उत्कृष्ट से संख्यात उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार का कथन संज्ञी जीवों की, असंज्ञी जीवों की भवसिद्धिक जीवों की, उत्पत्ति के विषय में भी जानना चाहिये, अर्थात् ये सब जघन्य से एक, दो, या तीन उत्पन्न होते हैं और उत्कृष्ट से संख्यात उत्पन्न होते हैं 'आभिणियोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मइ अन्नाणी, सुयअन्नाणी, विभंगनाणी' इसी प्रकार से आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञाती और विभंगज्ञानीये सब भी जघन्य से एक या दो अथवा तीन उत्पन्न होते हैं और उत्कृष्ट से संख्यात उत्पन्न होते हैं 'चक्खुदंसणी ण उववज्जति' चक्षुर्दर्शनी वहां उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि इन्द्रियों का परित्याग करके ही जीव वहां उत्पन्न होते हैं। यदि ऐसी बात है तो फिर अचक्षुर्दर्शनियों का वहां उत्पाद कैसे कहा गया है ? सो ऐसी आशंका यहां पर नहीं करनी चाहिये-क्योंकि इन्द्रियानाश्रित सामान्य પાક્ષિકજી, સંજ્ઞીજ, અસંજ્ઞીજ, ભવસિદ્ધિક છે અને અભવસિદ્ધિક છે પણ એક સમયમાં ઓછામાં ઓછા એક, બે અથવા ત્રણ અને વધારેમાં पधारे सध्यात अपन थाय छे. " आभिणियोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मइ अन्नाणी, सुय अन्नाणी, विभंगनाणी" मे प्रमाणे मानिनिमाविज्ञानी, તજ્ઞાની, અવધિજ્ઞાની, મત્યજ્ઞાની, શ્રતાજ્ઞાની અને વિર્ભાગજ્ઞાની છે પણ એક સમયમાં ઓછામાં ઓછા એક, બે અથવા ત્રણ અને વધારેમાં વધારે सध्यात अपन थाय छे. "चक्खुदंसणी ण उववज्जंति" यक्षु शनी या पन्न થતા નથી, કારણ કે ઇન્દ્રિયેને પરિત્યાગ કરીને જ જીવે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. જે ત્યાં ચક્ષુનીને ઉત્પાદ થતો ન હોય, તે અચક્ષુર્દશનીને ઉત્પાદ કેવી રીતે સંભવી શકે ?
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦