Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१३ उ० १ सू० १ पृथिव्यादिनिरूपणम्
उववज्जंति' हे गौतम! अस्यां खलु रत्नपभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयात्रासशतसहस्रेषु = नरकावासलक्षेषु संख्येयविस्तारेषु नरकेषु जघन्येन एको वा, द्वौ वा, प्रयोवा, नैरयिकाः, उत्कृष्टेन संख्येयाः नैरयिका उपपद्यन्ते, 'जहणेणं एक्कोवा, दो वा, विनित्रा, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उववज्र्ज्जति' जघन्येन एको वा, द्वौ वा, त्रयोवा, उत्कृष्टेन संख्येयाः कापोत लेश्याः - कापोत लेश्यावन्तः उपपद्यन्ते'जह एको वा, दोवा, तिम्नि वा उक्को सेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया उववज्जं ति' जघन्येय एको वा, द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येयाः कृष्णपक्षिका उपपद्यन्ते, ' एवं पक्खियावि, एवं सन्नी, एवं असनी वि एवं भवसिद्धिया, एवं अभवसिद्धिया' एवं पूर्वोक्तरीत्या शुक्लपक्षका अपि जघन्येन एकोवा, द्वौ वा त्रयो वा, तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उववज्जंति' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी में ३० लाख नरकावासों में जो कि संख्यातयोजन विस्तारवाले हैं जघन्य से एक, दो अथवा तीन नैरयिक उत्पन्न होते हैं, और उत्कृष्ट से संख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं-'जणेणं एक्को वा, दो वा तिन्नि वा उक्को सेणं संखेज्जा काउलेस्सा उबवज्जंति' जघन्य से एक या दो अथवा तीन और उत्कृष्ट से संख्यात कापोतलेइयावाले जीव उत्पन्न होते हैं, 'जणेणं एक्को वा, दो वा, तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया उववज्जं ति' जघन्य से एक दो या तीन और उत्कृष्ट से संख्यात कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं- ' एवं सुखिया वि एवं सन्नी एवं असन्नी वि, एवं भवसिद्धिया, एवं अभवसिद्धिया' इसी प्रकार से शुक्लपाक्षिक जीव भी जघन्य से एक या दो या तीन उत्पन्न
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एक्कोवा, दोवा, तिन्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उववज्जंति" हे गौतम! રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ૩૦ લાખ નરકાવાસેામાંના જે સખ્યાત ચેજનના વિસ્તાર. વાળા નરકાવાસા છે, તેમાં એક સમયમાં એછામાં ઓછા એક, એ અથવા ત્રણ નારકા ઉત્પન્ન થાય છે અને વધારેમાં વધારે સખ્યાત નારકી ઉત્પન્ન थाय छे. “ जहण्णेणं एक्कोवा, दो वा, तिन्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उववज्जंति " तेमां मे सभयभां छाभां गोछा मेड, ये अथवा त्रायु भने वृधारेभां पधारे सभ्यात आपोतवेश्यावाजा नारी उत्पन्न थाय छे. “जहodi एककोवा, दोवा, तिन्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया उववज्जंति " ત્યાં એક સમયમાં ઓછામાં ઓછા એક, એ અથવા ત્રણ અને વધારેમાં વધારે सांध्यात कृष्णुपाक्षि}। उत्पन्न थाय छे. “ एवं सुक्कपक्खिया वि, एवं सन्नी एवं अन्नी वि एवं भवसिद्धिया, एवं अभवसिद्धिया" से प्रभागे शुम्स
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦