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अपने साथ लोटा लेजानेका भरसक प्रयत्न किया किन्तु सब व्यर्थ । तब उसने उजेनके श्रीसंघसे अपने पुत्रको उसे दीला देनेकी प्रार्थना की । इस प्रार्थनाने श्रीसंघके समक्ष उस समय एक जटील समस्या उपस्थित कर दी। एक ओर पूज्य गुरुमहाराज व धार्मिक समस्या थी व दूसरी ओर मातृ हृदय ! कई विद्वान् व अनुभवी पुरुषोंने अपने अपने विचारोंको भाषणके रूपमें समस्त श्रोताओंके सामने रक्खे व अन्तमें इस निर्णय पर पहुंचे कि स्वयं मुनि श्रीहर्षविजयजीसे प्रार्थना की नाय कि दोनों पक्षोंमेंसे जिसको अच्छा समझते हो श्रीसंघके सामने उसीकी तरफ जा कर बैठ जाय । इस निर्णयको सुनकर मुनिश्रीका हृदयकमल खिल उठा । वे जो वैराग्यरंगमें पूर्णरूपसे रंग चुके थे जिनको संसारकी निस्सारताका सच्चा भान हो गया था, भला फिर सांसारिक मोहरूपी सर्पणीके चंगुलमें क्यों कर फंस सकते थे । ? उन्होंने अपने सच्चे उच्च आत्मिक ध्येयके सामने मातृ-मोहकी कुछ भी परवाह न की । वे निर्भयतापूर्वक सर्व दर्शकोंके सामने अपने गुरुमहाराजके चरणोंमें बैठ कर अपने धर्मरति होनेका परिचय दिया । फिर क्या था ? न्यायकी पूर्णाहुति हुई और उनकी मातुश्री तथा भ्राता दलाजीकों निराश हो वापोस अपने घरके मार्गको अवलम्बन लेना पड़ा। विद्याभ्यास
मुनिश्री हर्षविजयका विद्याप्रेम भी आश्चर्यजनक था । उन्होंने सम्वत् १९५८ के उज्जैन नगरमें होनेवाले चतुर्मासमें ही गुरुमहाराज द्वारा पंचप्रतिक्रमण, पाक्षिक सूत्र, जीवविचार, नवतत्त्व, दंडक, लघुसंघयणी आदि धार्मिक पुस्तकोंका अभ्यास कर अपनी तीक्ष्ण बुद्धिका परिचय दिया । चतुर्मासकी अवधि समाप्त होने पर उन्होंने गुरुमहाराजके संग अहमदावादवाले जवेरी छोटाभाई के संघकी शोभा बढ़ा