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२. श्री.अजितनाथ-स्तुति,
परमात्मपथ का दर्शन
(तर्ज-पूर्ववत्) परमात्मा से प्रीति के सम्बन्ध मे पूर्व स्तुति मे बहुत ही स्पष्टरूप मे योगी श्रीआनन्दघनजी ने कह दिया कि निष्कपट हो कर आत्म-समर्पण करने से ही परमात्मप्रीति हो सकती है , परन्तु उक्त परमात्मप्रीति या परमात्मप्राप्ति का मार्ग जव तक वास्तविक रूप से जान लिया न जाय, तव तक परमात्मभक्ति अधभक्ति रहेगी , इसलिए अव इस स्तुति मे परमात्मप्राप्ति के मार्ग का दर्शन (निर्णय) करने की दृष्टि से वे कहते है‘पथडो निहालु रे बीजा जिन तणो रे, अजित अजित-गुणधाम । "जे तें जीत्या रे, तेणे हूँ जीतियो रे, पुरुष किस्यु मुझ नाम ॥
पथड़ो० ॥१॥
अर्थ
मैं द्वितीय वीतराग परमात्मा श्रीअजितनाथ भगवान् का (उनके पास पहुंचने का) मार्ग अत्यन्त बारीकी से देख रहा हूँ। अजितनाथ परमात्मा मुझ सरीखे व्यक्तियो द्वारा नहीं जीते (साधे) गए सद्गुणो के धाम है। उन्होने रागद्वषादि शत्रुओ को जीत कर जिस मार्ग से कार्य सिद्ध किया था, उस मार्ग को देखते हुए मैं उन्हें कहता हूँ-मेरे परमात्मदेव । जिनको आपने जीत लिया था, उन्होंने आपसे पराजित हो कर अब मुझे जीत लिया है। दूसरो के द्वारा । विजित (पराजित) हो कर भी मेरा नाम पुरुष (पौरुषवान आत्मा) कैसे ठीक हो सकता है ? अत फिलहाल तो आप जिस मार्ग से गये हैं, उस समस्त पथ का अवलोकन करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
। भाष्य
___ परमात्मपथ का निरीक्षण क्यो, कैसे ? परमात्मा (विशुद्ध आत्मा) के साथ प्रीति करने वाले अन्तरात्मा