Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
“અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૮૨
કાવ્યપ્રકાશ ભાગ - ૨
: દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુસૂરિજી સમુદાયના દીક્ષાદાનેશ્વરી પૂ. આ. શ્રી ગુણરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા. ના શિષ્ય પૂ. શ્રી જિતરત્નવિજયજી મ. ની પ્રેરણાથી શ્રી સુમતીનાથ શ્વે. મૂ. જૈન સંઘ, મેમનગર
જ્ઞાનખાતામાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સોમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૧
ઈ. ૨૦૧૫
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
030
031
032
033
034
035
036
037
038
039
040
041
042
043
044
045
046
047
048
049
050
051
052
053
054
शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
(?)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२)
(૩)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
824
288
520
578
278
252
324
302
196 190
202
480
228
60
218
190
138
296
210
274
286
216
532
113
112
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ
શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह - 04.
(मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ ( - भेल) ahoshrut.bs@gmail.com
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ भर्णोद्धार संवत २०५५ (६. २०१०) - सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. खा पुस्तो www.ahoshrut.org वेवसाइट परथी पए। डाउनलोड sरी शडाशे. પુસ્તકનું નામ
ईर्त्ता टीडाडार-संचा
ક્રમ
055 | श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 | विविध तीर्थ कल्प
057
ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | 058 सिद्धान्तलक्षगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
જૈન સંગીત રાગમાળા
060
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध ( प्रबंध कोश)
062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
064 | विवेक विलास
065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ
067
068 मोहराजापराजयम्
069 | क्रियाकोश
-
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
072 | जन्मसमुद्रजातक
073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
074
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
ભાષા
सं
.:
सं
सं
सं
गु.
सं
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
सं/गु. श्री दामोदर गोविंदाचार्य
सं
F
सं
सं
सं
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. जिनविजयजी म.सा.
शुभ.
सं
सं/ हिं
सं.
सं.
सं/हिं
सं/हिं
शुभ.
पू. पूण्यविजयजी म.सा.
| श्री धर्म
श्री धर्मदत्त
पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
पू. चतुरविजयजी म.सा.
श्री मोहनलाल बांठिया
श्री अंबालाल प्रेमचंद
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
श्री भगवानदास जैन
श्री भगवानदास जैन
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322
668
516
268
456
420
638
192
428
406
308
128
532
376
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४
- - -
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम
भाषा प्रकाशक
कर्त्ता / संपादक साराभाई नवाब
महाप्रभाविक नवस्मरण
गुज.
साराभाई नवाब
गुज.
हीरालाल हंसराज
गुज.
पी. पीटरसन
अंग्रेजी
कुंवरजी आनंदजी
शील खंड
133 करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह यशोदेवसूरिजी
135 भौगोलिक कोश- १
डाह्याभाई पीतांवरदास
136 भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास जिनविजयजी
137 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक - १, २
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
क्रम
127
128 जैन चित्र कल्पलता
129 जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग - २
130 ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
131 जैन गणित विचार
132 | दैवज्ञ कामधेनु ( प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
138 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक ३, ४
139 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक - १, २
140 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक-३, ४
४
141 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-१, 142 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-३, 143 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ 144 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
145 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ 146 भाषवति
147 जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
148 मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
149 फक्कीका रत्नमंजूषा- १, २
150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
151 सारावलि
152 ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
153
१
२
ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
नूतन संकलन
आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
श्री गुजराती श्वे. मू. जैन संघ हस्तप्रत भंडार कलकत्ता
सोमविजयजी
सोमविजयजी
सोमविजयजी
शतानंद मारछता
रनचंद्र स्वामी
जयदयाल शर्मा
कनकलाल ठाकूर
मेघविजयजी
कल्याण वर्धन विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी
रामव्यास पान्डेय
हस्तप्रत सूचीपत्र
हस्तप्रत सूचीपत्र
गुज.
सं.
सं./अं.
गुज.
गुज.
गुज.
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
गुज.
गुज.
गुज.
सं./हि
प्रा./सं.
हिन्दी
सं.
सं./ गुज सं. सं.
सं.
हिन्दी
हिन्दी
साराभाई नवाब
साराभाई नवाब
हीरालाल हंसराज
एशियाटीक सोसायटी
जैन धर्म प्रसारक सभा
व्रज. बी. दास बनारस
सुधाकर द्विवेदि
यशोभारती प्रकाशन
गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी
गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
शाह बाबुलाल सवचंद
शाह बाबुलाल सवचंद
शाह बाबुलाल सवचंद
एच. बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस
भैरोदान सेठीया
जयदयाल शर्मा
हरिकृष्ण निबंध
महावीर ग्रंथमाळा
पांडुरंग जीवाजी बीजभूषणदास जैन सिद्धांत भवन
बनारस
श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
पृष्ठ
754
84
194
171
90
310
276
69
100
136
266
244
274
168
282
182
384
376
387
174
320
286
272
142
260
232
160
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304
122
208 70
310
462
512
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
| विषय
पहा
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत
| भाषा संस्कृत
181
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३
संस्कृत संस्कृत संस्कृत
330
संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
248
पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
संस्कृत संस्कृत /हिन्दी
504
185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी
448
440
616
| श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
190
संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती
| श्री सारंगदेव
632
नारद
84
191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक
192
श्री हीरालाल कापडीया
मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला ।
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
संस्कृत हिन्दी
194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५
446
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
| 414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
409
199 | अध्यात्मसार सटीक
476
एच. डी. वेलनकर
संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया
444
श्री डी. एस शाह
146
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान संपादक - पुरातत्त्वाचार्य, जिन विजय मुनि [ सम्मान्य संचालक - राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ]
राजस्थानराज्यसमायोजित
जेसलमेरज्ञान भण्डार - ग्रन्थोद्धारग्रन्थावलि - क्रमांक २
सोमेश्वरविरचित काव्यादर्शसंकेतसमन्वित
मम्मटाचार्यकृत
काव्य प्र का
द्वितीय भाग [ प्रस्तावना, विविध पाठभेद, परिशिष्टादि ]
प्रकाश क राजस्थानराज्यसंस्थापित
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
( राजस्थान ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट) जोधपुर (राजस्थान )
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
राजस्थान राज्यद्वारा प्रकाशित सामान्यतः अखिल भारतीय तथा विशेषतः राजस्थान प्रदेशीय पुरातनकालीन . संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी आदि भाषानिबद्ध
विविध वाङ्मय प्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्थावली
प्रधान संपादक पुरातत्त्वाचार्य, जिन विजय मुनि [ ऑनररी मेंबर ऑफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी ] सम्मान्य सदस्य-भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना; गुजरात साहित्य सभा, अहमदाबाद ; विश्वेश्वरानन्द वैदिकशोध संस्थान, होशियारपुर, पाब; निर्वृत्त-सम्मान्य नियामक (ऑनररी डायरेक्टर)- भारतीय विद्याभवन, बंबई; प्रधान संपादक-गुजरात पुरातत्व मन्दिर ग्रन्थावली; भारतीय विद्या ग्रन्थावली; सिंघी जैन ग्रन्थमाला; जैन साहित्यसंशोधक ग्रन्थावली;-इत्यादि, इत्यादि।
ग्रन्थांक ४७ भट्ट सोमेश्वरविरचित-काव्यादर्शसंकेत-संयुक्त
मम्मटाचार्यकृत का व्य प्रकाश
द्वितीय भाग [विस्तृत प्रस्तावना-पाठभेद-परिशिष्टादि]
.
प्रकाशक
राजस्थानराज्याज्ञानुसार संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
(राजस्थान ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट) __ जो ध पु र (रा ज स्था न)
विक्रमाब्द २०१५ । राष्ट्रीय शकाब्द १८८० । राज्यनियमानुसार सवाधिकार सुराक्षत "
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
भट्टसोमेश्वरविरचित काव्यादर्श संकेत - समवेत मम्मटाचार्यकृत
का व्य प्र का श
[विस्तृतप्रस्तावना, विविधपाठभेद, बहुविधपरिशिष्टादि समन्वित ]
संपादनकर्ता
प्रा. रसिकलाल छोटालाल परीख
[ अध्यक्ष - भो० जे० उच्चतर अध्ययन - संशोधन प्रतिष्ठान, गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद ]
द्वितीय भाग
[ प्रस्तावना, विविध पाठभेद, परिशिष्टादि ]
प्रकाशनकर्ता
राजस्थान राज्याशानुसार
संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
विक्रमाब्द २०१५ राष्ट्रीयशकाब्द १८८०
( राजस्थान ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट ) जोधपुर (राजस्थान )
[ प्रथमावृत्ति - प्रतिसंख्या ७५० 1
ख्रिस्ताब्द १९५९
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
प्रधान संपादक
मुनि जिनविजय द्वारा संपादित ग्रन्थ
१ त्रिपुरा भारती लघुस्तव - महाकवि लघुपण्डित कृत २ शकुनप्रदीप- पं. लावण्यशर्मा कृत
३ करुणामृतप्रपा - कवि सोमेश्वर ठकुर कृत
४ बालशिक्षा व्याकरण - ठकुर संग्रामसिंह कृत
५ पदार्थरत्नमञ्जूषा - पं. कृष्णमिश्र कृत
६ मुग्धावबोधादि औक्तिक संग्रह - अनेक विद्वत्कृतिरूप
७ प्राकृतानन्द - पं. रघुनाथ कृत
८ रत्नपरीक्षादि सप्तग्रन्थसंग्रह - ठकुर फेरू रचित
९ उक्तिरत्नाकर - पं. साधुसुन्दरगणिकृत
१० राठोडांरी वंशावलि - राजस्थानी ऐतिहासिक भाषारचना ११ राजस्थानी सुभाषितसंग्रह
१२ हमीर महाकाव्य - नयचन्द्रकविकृत ( सटीक एवं सटिप्पण)
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
RÄJASTHAN PURĀTANA GRANTHAMĀLĀ
MANew
General Editor - Āchārya Jina vijaya Muni, Puratattvächārya Honorary Director, Rājasthāna Prachya Vidyā Pratişthāna, JODHPUR)
KAVYAPRAKASA
OF MAMMATA
WITH THE SAM KETA NAMED KĀVYĀDARŚA
OF SOMEŚVARA BHATTA
Part Second [Introduction, Appendixes, Indexes etc.]
Published By
The Rajasthāna Prāchya Vidyā Pratisthāna
( The Rajasthan Oriental Research Institute ) Established by the Government of Rajasthan
JODHPUR (Rajasthan)
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Rājasthāna Purātana Granthamālā
Published by the Government of Rajasthāna A series devoted to the Publication of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa, · Old Rajasthānt-Gujarati and Old Hindi works pertaining to India in .
general and Rajasthan in particular
General Editor Acharya Jina Vijaya Muni, Purātattvāchārya Honorary Member of the German Oriental Society, (Germany); Bhandarkar
Oriental Research Institute, Poona; and Viśveśvrananda Vaidio Reasearch Institute, Hosiyarpur, Punjab; Gujarat Sahitya Sabhā, Abmedabad; Retired Honorary Director, Bharatiya Vidya Bhavan, Bombay; General
Editor, Gujarat Purātattva Mandira Granthāvali; Bharatiya Vidyā Series; Singhi Jain Series;
etc, etc.
No. 47 KĀVYAPRAKASA
OF MAMMAȚA
WITH THE SAMKETA NAMED KĀVYĀDARS
OF SOMEŚVARA BHATTA
PART SECOND [Introduction, Appendixes, Indexes etc.)
Published Under the Orders of the Government of Rajasthan
by The Director, Rājasthāna Prāchya Vidyā Pratisthāna (Rajasthan Oriental Research Institute )
JODHPUR (RAJASTHAN)
V. S. 2015 1
All Rights Reserved
[1959 A. D.
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
KAVYAPRAKĀŠA
OF
MAMMATA
WITH
THE SANKETA NAMED KAVYADARSA
OF
SOMEŚVARA BHATTA
(Son of Devaka of the Bhāradvāja family)
EDITED
with introduction, appendixes containing variant readings, and indexes of
verses, names of author's works, of important words etc. etc.
BY Prof. RASIKLAL C. PARIKH Director B. J. Institute of Learning and Research,
Gujarat Vidyasa blia, Ahmedabad. [ Postgraduate teacher of Sanskrit & Ancient Indian Culture of the
Gujarat University)
PART SECOND (Introduction, Appendixes, Indexes etc.)
Published
Under the Orders of the Government of Rajasthan
BY The Director, Rajasthāna Prachya Vidyā Pratistbāna
(Rajasthan Oriental Research Institute)
'JODHPUR (RAJASTHAN)
V. S. 2015]
[1959 A. D.
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
Works by Prof. R. C. Parikh
VAIDIKA PATHAVALI (a selection from the Vedas and the Brāhmaṇas
with Gujarati translation and notes)
KAVYAPAKASA (ULLASAS 1 to 6) (Gujarati translation jointly with Prof. R. V. Pathak)
Published by Gujarat Vidya Pith, Ahmedabad
KĀVYĀNUŠĀSANA OF HEMACANDRA
Vols. I & II (Critically edited with an introduction in English on the cultural history of
Gujarat and life and works of Hemacandra)
TATTYOPAPLAVASIMHA OF JAYARĀŠI BHATTA . (Edited with an introduction in Eglish jointly with Pandit Sukhalalji)
Published in the Gaekwad Oriental Series, Baroda
KÄYYAPRAKASAKHANDANA OF SIDDHICHANDRA (Critically edited with an introduction in English)
Published in Singhi Jain Series.
NRTYARATNAKOŚA OF RĀNĀ BRĪ KUMBHA (Edited with introduction in English jointly with Prof. Dr. Priya bala Shah)
Published in Rajasthan Purātana Granthamälä, Jaipur.
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
CONTENTS
2-4
INTRODUCTION
1 to !110 1 General remarks
Kávyādarśa Kāvyaprakāśa- Samketa 2 Critical notice of the manuscripts
2-6 Kávyaprakāśa Kävyādarśa Kāvyaprakāśa-Samketa
4-6 3 Authorship, Date etc.
6-21 The double authorship of Kavyaprakāśa
6-7 The date of Mammata The date of Someśvara
8-20 (i) The date of Manikyacandra's Samketa.
12-14 (ii) Rucaka or Ruyyaka
14-15 (iii) Hemacandra
15-19 (iv) Conclusion
19 (v) Someśvara's native place
19-20 .. (vi) Somesvara's other works
20 - (vii) Kavyadarsa Kavyaprakasa Samketa
20-21 Appendix A
23-86 Parallelisms in the Samketas of Someśvara and Māņikyacandra. Appendix B
87-110 Parallelisms in the Samketas of Rucaka and Someśvara
१-३५२
काव्यादर्शनामसंकेतसमेतः काव्यप्रकाशः प्रथम उल्लासः-काव्यस्य प्रयोजनकारणस्वरूपविशेषनिर्णयो नाम द्वितीय उल्लासः-शब्दनिर्णयो नाम तृतीय उल्लासः-अर्थव्यञ्जकतानिर्णयो नाम चतुर्थ उल्लासः-ध्वनिनिर्णयो नाम पञ्चम उल्लासः-ध्वनिगुणीभूतव्यङ्ग्यसङ्कीर्णभेदनिर्णयो नाम . षष्ठ उल्लासः-शब्दार्थचित्रनिरूपणं नाम सप्तम उल्लासः-दोषदर्शनो नाम अष्टम उल्लासः-गुणालंकारमेदनियतगुणनिर्णयो नाम नवम उल्लासः-शब्दालङ्कारनिर्णयो नाम दशम उल्लास:-अर्थालङ्कारनिर्णयो नाम .
३६--८३ ८४-१०९ ११०-१११ ११२-१९५ १९६-२२२ २२३-२५२ २५३-३५२
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
( 2 )
परिशिष्टानि 1 काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि II काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य पाठान्तराणि III काव्यप्रकाशस्य A संज्ञित-ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि IV काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य A. B. संज्ञितादर्शयोः पार्श्वगतानि टिप्पणानि । ___V काव्यप्रकाशस्थविषयाणामकाराद्यनुक्रमः . VI काव्यप्रकाशोदाहृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमः VII काव्यप्रकाशोदाहृतप्राकृतपद्यानां संस्कृतच्छायासहितानामकारायनुक्रमः । VIII संकेते प्रमाणत्वेनोदाहृतानां संदर्भाणामकाराद्यनुक्रमणी IX संकेतोदाहृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमणी
x संकेतोदाहृतानां प्राकृतपद्यानां संस्कृतच्छायासहितानामकारायनुक्रमः XI संकेतस्थविशिष्टानां पदानामकाराद्यनुक्रमणी XII संकेते निर्दिष्टानां ग्रन्थानामकाराद्यनुक्रमणी XIII संकेते निर्दिष्टानां वादिनां ग्रन्थकृतां च अकाराद्यनुक्रमणी XIV संकेतावतरणानां संपादकेन समुपलब्धानां मूलग्रन्थानामकारायनुक्रमणी
Additons and Corrections
1-26 27-34 35-45 46-47 48-52 53-65 66-70 71-75 76-81 82 83-88 89
90-91 92. 93-94
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
Abbreviations of the Names of Works and Authors अ. को. -अमरकोश सं. वामनाचार्य झळकीकर, आवृत्ति, ५ मुंबई १८९६ अ.च. -अर्जुनचरित | अ. भा. -अभिनवभारती Vol I Second Edition, Gaekwad Oriental Series,
Baroda, 1956 अ. रा. -अनर्घराघव आवृत्ति ३. काव्यमाला सिरिझ, मुंबई १९०८ अ. वृ. मा. -अभिधावृत्तिमातृका निर्णयसागर, मुंबई १९१६ अ. श. -अमरुशतक आवृत्ति २, काव्यमाला, मुंबई १९२९ अ. शा. -अभिज्ञानशाकुन्तल आवृत्ति ८, निर्णयसागर, मुंबई १९२२
–अलङ्कारसर्वस्व आवृत्ति २, त्रिवेन्द्रम संस्कृत सिरिझ १९२६ औ. वि. च. -औचित्यविचारचर्चा गुच्छक १ (पृ. ११५-१६०) काव्यमाला, आवृत्ति ३, निर्णयसागर,
मुंबई १९२९ उ. का. सा. से-उद्भटकाव्यालङ्कारसारसंग्रह Gaekwad Oriental Series, Baroda, 1931
with विवृति (तिलक) उ. लं ल. वृ.-उद्भटालङ्कारलघुवृत्ति निर्णयसागर, मुंबई १९१५ क. म. -कर्पूरमजरी संस्करण ४ निर्णयसागर, मुंबई १९४९ का. . -कादम्बरी आवृत्ति ७, निर्णयसागर, मुंबई १९२८ का. द. -काव्यादर्श प्रकाशक महेरचंद्र लक्ष्मणदास, लाहोर १९२५ काव्यकल्पलतार्थोत्पत्तिस्तबकोद्धार (हस्तलिखित) मुनिपुण्यविजय का. मी. -काव्यमीमांसा आवृत्ति ३. Gaekwad Oriental Series, Baroda, 1934 काव्यादर्श का. प्र. संकेत-काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेत काव्यालङ्कारसारसंग्रह-उद्भट, Gaekwad Oriental Series, 1931 काव्यालङ्कार--भामह, चौखम्बा संस्कृत सिरिझ, बनारस, १९२८ काव्यालहार-रुद्रट, आवृत्ति ३ काव्यमाला, मुंबई. १९२८ काव्यालकारसूत्र-चामन, काव्यमाला, आवृत्ति ३, मुंबई १९२६ का. सं. -काठकसंहिता कि. किरातार्जुनीय आवृत्ति ६ निर्णयसागर, मुंबई शा. १८२९
कु. म. -कुट्टनीमत, गुजराती न्युझ प्रिन्टींग प्रेस. मुंबई १९२४ कु. सं. -कुमारसंभव, संस्करण १४, निर्णयसागर, मुंबई १९५५ गा. स. -गाथासप्तशती काव्यमाला २१, निर्णयसागर, मुंबई १८८९ चन्द्रचूडचरित जै. पु. प्र. सं.--जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह प्रथमभाग सिंधी जैन ग्रंथ माला मुंबई १९४३ जैमिनि ज्ञानदर्शनचारित्रसंवादरूपवीरस्तवन, कर्ता विजयलक्ष्मीसूरि (हस्तलिखित) मुंनिपुण्यविजय तं. वा. -तंत्रवार्तिक आनन्दाश्रम संस्कृत सिरिझ, पूना तिलक द. रू. अ. -दशरूपकावलोक आवृत्ति ५, निर्णयसागर, मुंबई १९४१ दे.. श. -देवीशतक धनिक
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
च. . -ध्वन्यालोक, चौखम्बा संस्कृत सिरिझ, बनारस, १९४० न. सा. -नवसाहसाङ्कचरित प्रथमभाग, बॉम्बे संस्कृत सिरिझ नं. ५३, मुंबई १८९५ ना. -नागानन्द आ. ५, श्रीबालमनोरमा सिरिझ मद्रास, १९४८ ना. शा.. -नाट्यशास्त्र (अ. १-२७ Gaekwad Oriental Series) २८-३६
Chaukhamba Sanskrit Series. प. प्रा. -पद्मप्राभृतक चतुर्भाणी १, मद्रास पा. अष्टा. -पाणिनीय अष्टाध्यायी पा. म. भा. -पातजलमहाभाष्य पा.शि. -पाणिनीय शिक्षा प्रि. द. -प्रियदर्शिका edited by Prof. Kangle, Publisher C. M. Parikh,
Ahmedabad, 1928 -ब्रह्माण्डपुराण बा. रा. -बालरामायण सं. पंडित गोविंददेवशास्त्री, बनारस, १८६९ बि. का. -बिहणकाव्य (पृ. १४५-१६९), काव्यमाला. गु. १३ आ २, १९१६ भ. का. -भट्टिकाव्य, सं. कमलाशंकर प्राणशंकर त्रिवेदी बॉम्बे संस्कृत सिरिझ, १८९८ भट्ट कुमारिल भट्ट तोत भर्तृहरि भ. वै. श. -भर्तृहरि वैराग्यशतक, वाणीविलास प्रेस, मद्रास. १९१८ भ. श. -भल्लटशतक काव्यमाला गु. ४, पृ. १४०-१५६, १८८७ भ. शं. श. -भर्तृहरि शुभारशतक भा. का.लं. भामह काव्यालङ्कार चौखम्बा संस्कृत सिरिश बनारस, १९२८
भास
म.च. -महावीरचरित आवृत्ति ३, निर्णयसागर, मुंबई १९१० म. भा. द्रो. प.-महाभारत द्रोणपर्व ।
, शां. प.- , शांतिपर्व कुम्भकोणम्
, स्त्री. प. - , स्त्रीपर्व मा. मा. -मालतीमाधव edited by R. G. Bhandarkar, Bombay Sanskrit
Series 1905. आ. ३, निर्णयसागर, १९१५ मा. श्री. सू.-मानवश्रौतसूत्र मी. द. -मीमांसादर्शन दू. मेघदूत आ. ४, निर्णयसागर, शा. १८१३
-रत्नावली. संस्करण २, निर्णयसागर, मुंबई १९१८
-रघुवंश आवृत्ति ७, निर्णयसागर १९२९ रा. रामायण संस्करण ४, निर्णयसागर १९३० रु. का. लं.-रुद्रटकाव्यालङ्कार आवृत्ति ३, काव्यमाला, मुंबई १९२८ व. जी. --वक्रोक्तिजीवित आ. २, कलकत्ता ओरिअन्टल सिरिझ, १९२८ वा. का. लं. सू. -वामनकाव्यालंकारसूत्र आवृत्ति ३, काव्यमाला, मुंबई १९२६ वि. उ. Or विक्र -विक्रमोर्वशीय आवृत्ति ६, निर्णयसागर, मुंबई १९२५ वि. शा. भ. -विद्धशालभजिका कलकत्ता ओ. सिरिझ, नं ३०, १९४३ वे. सं. -वेणीसंहार आवृत्ति ८, निर्णयसागर मुंबई १९३५
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
( 5 )
os
व्य. वि. - व्यक्तिविवेक त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरिक्ष १९०९ थि. व. - शिशुपालवध संस्करण ९, निर्णयसागर १९२७ श्री जेसलमेरुदुर्गस्थ जैनताडपत्रीय ग्रंथभंडारसूचीपत्र, सं. मुनिश्री पुण्यविजयजी, जैन श्वेताम्बर कॉन्फरन्स, मुंबई
(मुद्रयमाण) लो. वा. - श्लोकवार्तिक चौखम्बा संस्कृत सीरिझ, बनारस, १८९८ सु. - सुभाषितावलि बॉम्बे सं. सीरिझ. १८९६ सु. र.भा. - सुभाषितरत्नभाण्डागार संस्करण ५, १९१९, निर्णयसागर, मुंबई सू. श. - सूर्यशतक आ. २, काव्यमाला १९००, निर्णयसागर, मुंबई ह. च. - हर्षचरित संस्करण ५, निर्णयसागर, मुंबई १९२५
-हनुमन्नाटक __Alamkāracudamani of Kavyānusāsana (see K. S.)
Amaruśataka - with Arjunavarmadeva's Commentary
-Kāvyamālā Series, No. 18. 2nd edition, 1929. A.S.
Alamkārasarvasva of Rucaka - Trivendrum Sanskrit
Series, 2nd edition, 1926. Dhvanyāloka Kāvyamālā Series, 2nd edition, 1911 & Caukhambā
Sanskrit Series, 1940. D. C. G. C. M. Descriptive Catalogue of the Government Collections
of Manuscripts, Vol. XII, Bhandarkar Oriental
Research Institute, Poona, 1937. H.C. Harşacarita of Bāņå with a Commentary of Sankara
Kāvyamālā Series, 1925, Nirnayasagar Press, Bombay. History of Classical Sanskrit Literature - by Krishnamachari,
__Madras, 1937. Historical Inscriptions of Gujarat Vol. II edited by Acharya Giri
jashankar Vallabhaji. H. S. P. History of Sanskrit Poetics – by M. M. Kane - 1951 Introduction to Surathotsava --Kāvyamāla Series, 1902, Nirnayasagar
Press, Bombay. J.O. R. Journal of Oriental Research, vol. XIII, Madras, 1939. K.P. "Kāvyaprakāśa. K. D. K. P. S. Kāvyādarśa Kāvyaprakāśa Samketa. K. S.
Kavyanusāsana of Hemacandra, Vol. I, edited by Prof. R. C. Parikh. Mahāvira Jain Vidyalaya, Bombay, 1938.
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
K. M. Kāvyamīmāmsā of Rajasekhara - Gaekwad Oriental
Series, 3rd edition, 1934, K. P. S.
Kavyaprakāśa with Māņikya's Samketa - edited by R. Shamashastry, Sanskrit Series No. 60, University of Mysore, 1922 Kāvyaprakāśa with Maạikya's Samketa, edited by M. M. Abhyankar Shastri, Anandāśrama Sanskrit
Series. Kāryaprakāśa with Maheśvara's Adarsa -( with an Introduction by
S. K. De ) edited by Amarendramohan & Upendra
mohan, Calcutta Sanskrit Series No. VI, 1936. Kāvyaprakāśa with Rucaka’s Samketa edited by Sivaprasāda Bhattā
chārya - Calcutta Oriental Journal, Vol. II. No. 6,
March 1935, Vol. II, No. 12, Sept. 1935. Kavyaprakāśa edited by Jhalakikar, 4th edition, Bhandarkar Oriental
Research Institute, Poona, 1921. Kavyalamkārasārasamgraha - by K. S. Ramaswami Shastri, Gaekwad
Oriental Series, 1931. L, C. V. Literary Circle of Mahāmātya Vastupāla by B. J.,
Sandesara. Singhi Jain Series, Bombay 1953. Sarasvatikanthābharaṇa - 2nd edition 1934, Nirnayasagar Press, Bombay. S. P.
Sanskrit Poetics - Vol. I, by S. K. De, 1923. Srngāraprakasa - by V. Raghavan, Karnatak Press, Bombay.
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान संपादकीय किंचित् वक्तव्य ।
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
द्वारा प्रकाशित राजस्थान पुरातन ग्रन्थ मालाका, यह ४७ वां ग्रन्थ, मम्मट महाकविकृत काव्यप्रकाश के द्वितीय भागके रूपमें, विद्वानोंके सम्मुख उपस्थित हो रहा है। इसके पूर्वके प्रन्यांक ४६ के 'किंचित् प्रास्ताविक' में हमने इस के विषयमें जैसा सूचित किया है, यह भाग उक्त ग्रन्थका विस्तृत प्रस्तावना एवं परिशिष्टादि संग्रहात्मक स्वरूप है। इसके अवलोकनसे विज्ञ अभ्यासियोंको प्रतीत होगा कि संपादक विद्वान् श्रीयुत परिखने इसके संपादन कार्यमें कितना परिश्रम उठाया है और किस प्रकारकी प्रन्थसंबद्ध मूल्यवान सामग्रीका संकलन किया है। इसके लिये हम यहां पुनः हमारे परमप्रीतिपात्र और चिरमित्र खरूप इनके प्रति अपना हार्दिक कृतज्ञ भाव प्रकट करना चाहते हैं।
इसके पूर्व प्रन्थमें हमने निर्दिष्ट किया ही है कि राजस्थान सरकारने, जैसलमेरके प्राचीन ज्ञान भंडारमें, हमारे राष्ट्रीय साहित्यके जो अमूल्य प्रन्थरन छिपे पडे है उनको प्रकाशमें लानेकी एक विशिष्ट योजना स्वीकार की है और तदनुसार, हमने राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालाके अन्तर्गत 'जैसलमेर ज्ञानभंडार ग्रन्थोद्धार ग्रन्थमाला' नामकी एक 'पृथक् श्रेणि ( सीरीझ ) प्रकट करना प्रारंभ किया है। उसीके द्वितीय अंकके रूपमें यह पुस्तक प्रकट हो रही है।
इस पुस्तकमें, मूल प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिके ४ पन्नोंके फोटोब्लाक बनवाकर उनके चित्र दिये जा रहे हैं जिससे विद्वानोंको उसकी लिपि आदिका यथेष्ट दर्शन हो सकेगा।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेष आभार प्रदर्शन
हम यहां पर, जैसलमेर के ज्ञानभण्डारविषयक प्रन्थोद्धार का सुमहत् आयोजन करने निमित्त, राजस्थान राज्य के प्रेरक प्राणस्वरूप, वर्तमान मुख्य मंत्री महोदय, श्री श्री मोहन लालजी सुखाडिया तथा मुख्य सचिव श्री भगवन्त सिंहजी मेहता और शिक्षासचिव श्री विष्णुदत्तजी शर्मा के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रदर्शित करना चाहते हैं, जिनके राज्य कल्याणकारी सद्विचारों और सत्प्रयासों के परिणामस्वरूप, राजस्थान. सामाजिक एवं सांस्कारिक जीवन में नूतन उत्साह, नूतन प्रेरणा और नूतन संगठन का प्रसार हो रहा है और साथ में राजस्थान की प्राचीन संस्कृति के संरक्षण और समुद्धार के निमित्त मी राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान द्वारा प्रस्तुत 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' के प्रकाशन 'जैसी देश-विदेश में ख्याति प्राप्त करने वाली साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास भी प्रशंसनीय रूप में वृद्धि प्राप्त कर रहा है।
११ जनवरी, १९६०
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर
- मुनि जिनविजय
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला]
[काव्यप्रकाश-संकेत
नाशिायदाऊमुमतासमम्माननीय कार्यास्ता पाचवदयमाणरमणीयकझदयदारिणीवाधिनवायरन कारिकारणानियवांवरायाजमवादासकारणक्किन्धान मिमिकादायादिमझद्याभरनहिलकामानिविकीसिवाकुनानरानन्धममिक्षावविद्यधकाराणामनियनवयनायक विकाद्यसंसारकविरकापजापतिायधामगारावातविश्व
चंपनियटनादानंददायिनाममुचिनिनियांकलgreg मिनिाकावरापक्रयाश्वामिनारायस्माशावापादानकाराणानिकमायानमा यमलिलादीनिमतकारिकारणानिपिडामतिमिरादया पवागदयघुमयरसाधनाच साचन निवारार्थनातनाय निवासिवाद्यापारनवमहान्यावि विध्यपकारनिर्मि विनिश्वद्यमानामावावावसमाववियतनवाचतनावशावतमाहवनायकाश्रया नापदंपरिवीना नयतिवारचिन्नमानापजापतिमिमिानग्या कार्यशावनीनामावक्किा
यवर्धमानालयतिरकाका नियानांकाचगकर्माकाहि मश्शयमन्यनीतिकर्मयानावानयाधम प्रत्यायानकारी जयन्यावनिकविधतापनिवाचवायावालाकालियनबार निवकसिचावनिरयसयकमवायीमावावाकाडोमा । नामिवियललणसंवादातापायाजनेयमर्दवराया भीमानावना रसरंगजनामात्यादिद्यावहारामचिन्धिनाना जयाममिमनिकनधाम-वा-यामोवपरमाव्या मुज्ञ
कर्मकम्यमाचा जयनियत कितवतयतीत्यतपरताशनमाममामीयानि मुनिवाक्याचाच पानायथ्याश्चमावीकार्यशिनिमांप्रतिकारमानाप्रश्ननापियाम तिवमवसीबाट रुयामायाकपदानाककायाक्किासाचावासाद्यतिरिकालकादधिशाकतिमारनामारगाणा इदानावयमिनिादायन्यायनयुगानकारशकायममिवयवावयमशिवायकमायासिम 15क्रापत्याउनसमुहिश्यसमादापिघुवत्री नानपिमहानायकाचनितिशकादीनी विवाद नद्यमानाः सकलद्यावहारिन्नमुपदिशतिश्चानंदमिनियरखमाझानसी मिानमिवाशदेवसममाका बनाने
जेसलमेरस्थित-जैनग्रन्थभण्डारगत ताडपत्रात्मक प्राचीनतम पुस्तकके आदि २ पत्र ।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला]
[काव्यप्रकाश-संकेत
कच्चायिवादरविकविमनिविद मुमटोसिकालायरायमी। लोमिजा-मस्तस्याकविरिषद्याममयामनुनयामद्यानसा हाताराकन्नमवक्रमब्यबासूसाग्रहासागायतविधि उल्थमनाएसमयपदिय सामानाचायमालाना मिंदीवरा रहिमन तिमाहगमावप्रतिपादमान निवासस्वजन स्वामक्कमकेतचिहाराविषधामाष्टियादा रिका सिसकायकमिटमयासिस्थासमवसुमबापानलब्ध
अवधिमाकामयतयावीपसिरियसनायाममायवाचीनाशीतलवानांचवर्मा मासमवताममितिमादायमनशममास्तानाबमानस्यनावारामध्यान। दावरफुटीककरमजावतमामृतता करावपुरयाएमृतासुकाबनेकालिकामा रामा नियादारणानयनाशनासमयानीयामात्यानिमायावषकोत:मपुरवबंधायासबा. कामलासमीनियुक्ती नबानदायधिसुहितामशिकवादिश्चिमका सुवासाचवामिय सायकवावलमायामन्यपुनरुकव असिस्टमकानसमाधवाशमानाऽपामया सदश्यमा विपर्यवसानाध्यपक्रमवा जरुकवयिसुस्वशतिपयुकायद्यपिनादौधा
चुणालंकारनावावशवायवालयकाहानंतधाशापाया छादाबानायकतिपयमाहितवर्गमिषानिकारामी रवीक्षाधामकरसंयममिवादनुसदवादकाप्रसाधती छिमन्तारिताकाबनिदिवाडाचवंडश्वसनावितवाकि निमावियाचपरितःसुमानामारवश्यापीनमश्चमतिाय मजाममाछामरबाजकालासमहादवकसनुमामाप्रतिक्षावशालगामवालमहाश्रीवत्सवडालख
रिक्यायामालिकारखाणामांवितककनपाउनालेकायदायगवायना विारावलझापा जीनामाझम यानिनिमाधानकायाविपकरुपन्यायानिनु मनानिमलछम नासायानामवासनविकसिलावावधचमुचिया निकाममायमानिनवमयासी सेयर नियम निमिवामी काकस्पतरुानामासम्परागहालितविस्वातजनाविर समदंकारातिनिधीमामधारविरचितकाद्यासाशकाकाकासाकतिम मिधारणविमाकाबार्शनाममासंतीक्षकादायीनामकाजन्यकालमाकमा कियाटकायापालासेवन २०श्वाशनापाठेवादारखानालिखितमितिमाशा
जेसलमेरस्थित-जैनग्रन्थभण्डारगत ताडपत्रात्मक प्राचीनतम पुस्तकके अंतिम २ पत्र ।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
General remarks
This work on Kāvyaprakāśa brings to light the hitherto unpublished commentary of Bhatta Someśvara, known by the name of Kävyädarśa Kāvyaprakāśa-samketa, one of the earliest commentaries on Kāvyaprakāśa. For the editing of Kā vyaprakāśa itself, there is new material in the form of two very old manuscripts, one on palm-leaf and the other on paper, none of them, probably used before. Various readings from the edition of Kāvyaprakāśa with Māņikyacandra's Saṁketa (1921 A. S. S. Poona) and its fourth edition with Jhalkikara's commentary (1921 B. O. R. I. Poona), have also been noted. These are respectively named A, B, C and D.
Kāvyādarśa Kāvyaprakāśa-samketa
The text of Kāvyādarśa Kavyaprakāśa-samketa is based upon a copy of two palm-leaf Mss. belonging to the Badā-Bhandara of Jesalmere in Rajasthan. This copy which belongs to the mss. collection of Gujarat Vidya Sabha of Ahmedabad was prepared by Pandit Keshavaram Shastri who was deputed by the institution for the purpose of inspecting the Mss. of the Bhandaras under the guidance of Acharya Shri Jinavijaya Muni. One of the palm-leaf Mss, is complete, the other comes upto the seventh Ullasa. Both these palm leaf Mss. have been noted by C.D. Dalal in his Catalogue of Manuscripts in the Jain Bhandars at Jesalmere (p. 43 and p. 12 respectively). These have been described by Muni Shri Punyavijayaji also in his sit Juha TPT. Jaarsustu-ete-set to be published shortly by the Jain Svetāmbar Conference, Bombay. There is a very recent paper ms. of this work in the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, also. This paper ms. seems to be a copy of the palm-leaf ms. No. 346 of the Bada-Bhandara. It is described in the Descriptive Catalogue of the Government Collections of Mss. Vol. XII pp. 77–78. These Mss. are called A. B. C. respectively.
1 There is another palm-leaf Ms. of the Samketa in one of the Bhandars at Patan It is too worn out to be handled.
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
Critical notice of the Manuscripts Kāvyaprakāsa Description of the manuscripts : A. Source: Badā: Bhaņdāra of Jesalmere; bearing the number 183,
Material: Palm-leaf. Number of leaves: 178: la and 178b unwritten. Length: 15"; breadth : 11" to 13". Lines per page: 2 to 4. Each line is made up of two parts of about 5" and 7" respectively. Each part contains about 25 and 27 letters respectively. Script: Devanāgarĩ. Date : Samvat 1215, Asvina sudi 14, Budha = Wednesday October 8 1158 A. D.', in the reign of Kumārapāla. Place : Aşahila-pāțaka. Name of the scribe or patron : Pandita Šri Lakşmīdhara.
In the middle of the wooden puņthi 09972 SET:. Begins : Solo TH 107982 II FFAIRF# etc. Ends: संपूर्णमिदं काव्यलक्षणं काव्यप्रकाशे अर्थालंकारनिर्णयो नाम दशम उल्लासः ॥ 3॥ इत्येष मार्गो laget etc. to : 11 3 0 E* 3 11 At Floy#TT: 4704 Tot ll she TS11 2 13141113 11 ६ ॥ छ ॥ संवत् १२१५ अश्विनशुदि १४ बुधे अद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीविराजितमहाजाधिराजपरमेश्वर-परमभट्टारक-उमापतिवरलब्धप्रसाद-प्रौढप्रताप-निजभुजविक्रमरणाङ्गणविनिर्जितशाकम्भरीभूपाल-श्रीकुमारपालदेवकल्याणविजयराज्ये पंडितलक्ष्मीधरेण पुस्तकं लिखापितमिति।
1 I am thankful to Prof. Harihar Bhatta of the B. J. Institute, Gujarat Vidya Sabha, Ahmedabad, for finding out this and subsequent equivalent dates of the Christian era.
2 On this Dr. P. K. Gode remarks: “If the word "foaftar" is taken in its strict sepse the statement would mean that Pandita Lakşmidbara got this copy prepared for him. If, however, farfar be interpreted to mean feat, Lakşmidhara bimself becomes the scribe" (p. 53). On the strength of the identity of the passage श्रीमदणहिलपाटके to विजयराज्ये in the above colophon, with the one found in the inscription of V. S. 1213 (-- A. D. 1156) in the temple of Pārsvanātha in Naddula = Nadol whose scribe was Papdita Mahipala, Dr. Gode says, "Can we suppose that Pandita Mabipāla's sentence quoted above is reproduced by Pandita Lākşmidhara in the Kāvyaprakāśa colophon? If Pandita Lakşmidhara is supposed to be a different person from the copyist of the Kavyaprakāśa Ms., it may be possible to suggest that Kayastha Mahipāla may have copied the Ms. of the Kávyaprakāśa for Pandita Lakşmidbara and in doing so he only repeated a sentence from his inscription of A. D. 1156 two years later." Dr. Gode, however, adds that more evidence is needed for this inference and suggests as an alternative inference that Pandita Lakşmidhara had before him in 1158 A, D. the earlier Nadol grant of 1156 A. D. (J. O. R. Madras: Vol. XIII pp. 52-53).
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
Source: Gujerat Vidya Sabha Material: Paper. Number of leaves : 134. Length : 8.5", breadth 3". Lines per page: about 7. Letters per line: about 37. Margin on each side: 1". Upper margin and lower margin: 7" each. Script: Devanagari; handwriting beautiful. Date : Sake 1211. Khara-samvatsara, Jyestha Sukla 5, Guru.
= Thursday 26th May, 1289. D. Name of the seribe: Laksmanasāri, son of Sri Visnubhatta. The Ms. came into the possession of Dayāsāgaragaņi in
Samvat 1536 (1480 A. D.) when in Ahmedabad. Folio la: in the middle ॥ काव्यप्रकाशः॥
1b:- begins : श्री गणाधिपतये नमः । ग्रंथारंभे विघ्नविघाताय ete. Ends: 134a. न पृथक् प्रतिपादनमहन्तीति संपूर्णमिदं काव्यलक्षणं ॥ २॥ इति
॥ इति श्रीकाव्यप्रकाशेऽर्थालंकारनिर्णयो नाम दशमोल्लासः ॥ - इत्येष मार्गों etc ॥ समाप्तोयं काव्यप्रकाशः ॥
Colophon : शाके चन्द्रविलोचने (illegible) शशिभिः क्लप्ते खरे वत्सरे ज्येष्ठे मासि सिते दले गुरुयुते पंचम्यभिख्ये तिथौ । साधूनां परितोषपोषविधये श्रीविष्णुभट्टात्मजे
नायं लक्ष्मणसूरिणा विलिखितः काव्यप्रकाशः खयं ॥
शुभमस्तु ॥ In a different, bolder hand: सं. १५३६ वर्षे श्री अहम्मदावादनगरे वा० दयासागरगणिभिः परिगृहीता प्रतिरियं ।
These would be interesting suggestions if they were not based on the identity of a passage which is of a conventional nature and to be found with slight variations in other colophons and inscriptions of Kumārapāla. For example, compare: संवत् १२०८ ज्येषशुदि ६ रवौ अबेह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीसमलंकृत महाराजाधिराज-उमापतिवरलब्धप्रसाद-प्रौढप्रतापनिजमुजविनिर्जितरणांगणोपेतशाकंभरीभूपाल-श्रीमत्कुमारपालदेवराज्ये (p. 106. जै. पु.प्र.सं. प्रथमभाग सिं. जै. ग्र. मा.).
In volume II of Historical Inscriptions of Gujarat edited by Acharya Girijasankara Vallabhaji asimilar reference would be found on p. 14 with the addition श्रीअवन्तीनाथ who was subjugated by Kumārapāla by that time (V. 8. 1220).
1 I am obliged to Prof. Harihara Bhatta for the following note:. "शाके चन्द्रविलोचने शशिभिः , खरसंवत्सर, ज्येष्ठ शुक्कुपंचमी, गुरुवार. x stands for a letter, which is not legible; it may by न्दु or धु. Thus the readings may be I चन्द्रविलोचनेन्देशशिभिः or II चन्द्रविलोचनेषुशशिभिः।
___Reading I gives शक ११२१ or १२११ according as the digits are taken from right to left or left to right-both of which dates are earlier than the date mentioned in the manuscript.
Now ज्येष्ठशुक्लपंचमी of शक ११२१ was शनिवार, रविवार or सोमवार, most probably रविवार, but it was certainly, not गुरुवार. So शक १२११ remains the only alternative.
Now ज्ये. शु. ५ of श.१२११ was बुधवार, गुरुवार or शुक्रवार, most probably गुरुवार.
The खर संवत्सर recently was शालिवाहन शक १८७३. So the cycle of 60years of the संवत्सरs gives शक १२१३ as खर संवत्सर, and not १२११.
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
The letter afterà is illegible. It may be or y, most prog, bably Reading the digits from right to left the year would be a तेंदु. 113-1199 or 1200 A. D. which is not possible because the far and are do not agree.
There is another reason also. 1200 A. D. is a bit too early for a paper ms. Reading the digits, however, from right to left according to an older custom, the year would be a 1311=1289 A. D. In this case the faf and agree. The oldest paper mss. are known to be in about this time.
4
Kavyadarsa-Kavyaprakāśa samketa
Description of manuscripts:
A. Source: Bada Bhandara of Jesalmere; bearing the number 346 Material: Palm-leaf.
Number of leaves: 222.
Length: 143"; breadth 24" to 1".
Lines per page: 7; on a few pages 3 to 6. Each line is made up
of two parts of about 41" to 6", the first part containing about 23 to 25 letters, the second about 33 to 35. 1a and 222b blank.
Script: Devanagari.
The difference arises from the fact that there was formerly the custom of dropping one in every 85 years, as 85 years 86 revolutions of Jupiter (5). The 60 year cycle of the as was created to be roughly equal to 5 revolutions of Jupiter, but, to be exact, the correction of one ar is necessary as shown above. So it appears that the correction of 2 years had already been made before 222, thus bringing संवत्सर in शक १२११.
Incidentally, it shows us also the fact that the custom of dropping one in 85 years may have originated 2x 85-170 or 3 x 85-255 years before 2222, i. e. between 956 and 1041 years of the era.
So, may be according to the ancient practice of dropping a संवत्सर, which was called & क्षय संवत्सर like क्षय मास or क्षय तिथि.
Thus fedt gear-26 May 1289 4. D. (Thursday) seems to be the correct date and the reading seems to be शाके चन्द्रे विलोचनेंशर्शिभिः. Here we have to take the digits from left to right, which was also a custom in older times. In later times, the custom became mostly to read from right to left.
Now we discuss the other reading aftagaff. The manuscript came in the possession of af in Vikram Samvat 243 i. e. Salivahana Saka 20. This reading ("पु) gives १५२१ or १२५१ शालिवाहन शक, of whiob १५२१ is inadmissible, being later than शक १४०१, the date of the Ms. coming in the possession of दयासागरगणि. The years शालिवाहनशक १२५१ is not, however, & खर संवत्सर, lying as it does at an interval of 22 years from, शा. श. १२७२, which comes as खरसंवत्सर, if no क्षयसंवत्सर is allowed. So it is also inadmissible, for this reaseon.
...falls on Thursday, 4th May 1329 A. D. most probably, though it may be one day earlier or later. Here the (day of the week) is satisfactory, but as it cannot be a ra, this date also cannot be admitted.
Thus शा· श. १२११ ज्ये. शु. ५ गुरुवार - 26 May 1289 A. D. seems to be the correct date,”
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
Date- Samvat 1283 Asadha Vadi 12 Sani = A. D. 1226, April 25
Saturday, or A. D. 1227 May 15 Saturday'. Begins: द.॥ स्वस्ति ॥
पदार्थकुमुदवातसमुन्मीलनचन्द्रिकाम् । वन्दे वाचं परिस्पन्दजगदानन्ददायिनीम् ॥
समुचितेति । यत् किल प्रस्तुतं वस्तु etc. Ends : द्विखण्डोऽपि अखण्ड इव यद् भाति तत्रापि संघटनैव संनिमित्तम् ।
खीकृत्य कल्पतरुतो मरुतः परागं दृष्टेः क्षतिं विदधते जगतोऽपि किं तैः । मृतः कृती तु परितः सुमनोमुखेभ्यः पीतं मधूद्वमति येन मदं करोति ॥ ॥ छ ॥ इति भट्ट श्रीसोमेश्वरविरचिते काव्यादर्शे काव्यप्रकाशसंकेते दशम उल्लासः ॥छ । भरद्वाजकुलोत्तंसभट्टदेवकसूनुना । सोमेश्वरेण रचितः काव्यादर्शः सुमेधसा ॥ संपूर्णश्च काव्यादर्शो नाम काव्यप्रकाशसंकेत इति शुभम् ॥ छ ।
संवत् १२८३ वर्षे आषाढ वदि १२ शनौ लिखितमिति ॥ छ ॥ 3॥ छ । B. Source : Bada Bhandara of Jesalmere; bearing the number 99.
Material: Palm-leaf, incomplete. Number of leaves: 207; upto the seventh Ullāsa. Length: 119", breadth 12"-rarely 13". -Lines per page : 5, rarely 4 or 3. Each line made up of two parts of about 30%" and 413", containing about 38 to 40 letters. Script: Devanagari.
Date : About the latter half of the 14th century.' Begins : पदार्थकुमुद etc.. Ends : इति मतं खीकृतम् ॥ ६३ ॥ - येषां ताण्डवमाधत्ते चित्ताध्वनि रसध्वनिः । त एवास्य सुवर्णस्य परीक्षाकषपट्टकाः॥ इति भट्टश्रीसोमेश्वरविरचिते काव्यादर्श काव्यप्रकाशसंकेते सप्तम उल्लासः ॥ C. Source : Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona
C. PL Ms., p. 12 Material : Paper. Number of leaves : 128. Length: 100%; breadth : 13". Lines per page : 30 to 35; about 36 letters per line. Script : Devanagari. Age : Samvat 1931 = 1875A. D.
1 I am indebted to Prof. Harihar Bhatt for the following:
"The date April 25, 1226 A. D. Saturday is according to the Chaitri or Asadhi Saruvatsara and Paurņiwānta Māsa as in Northern India (Chaitri).
The date would be 15th May 1227 A. D. Saturday, if the Samvatsara is Kārtiki and the Miga is Amävāsyānta as at present in Gujarat , but I think Kartiki custom was not prevalent at the date in question.
2 पृ. १३५. श्री जेसलमेरुदुर्गस्थ-जैनताडपत्रीय ग्रंथभंडार-सूचीपत्र, prepared by Muni Shri Panyavijayaji; to be published shortly by the Jain Svetāmbar Conference, Bombay,
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
Begins: श्रीगणेशाय नमः । ॐ स्वस्ति ॥
पदार्थकुमुदवात etc. वंदे वाचं परिस्यन्दजगदानंददायिनीं ।
Ends: अथ च सुधियां etc. इति भट्ट श्री सोमेश्वरविरचिते etc. संपूर्णश्व काव्यादर्शो नाम काव्यप्रकाशसंकेत इति शुभं । छ. सं. १९३१ आषाढप्रथमकृष्ण सप्तम्यां चंद्रवासरे लिपीकृतं व्यास टीकमदास श्री जयशैलनगरे वैरीशालराज्ये शुभं भवतु ।'
The various readings of K. P. are given in appendix I. So also the variants of A and B mss. of the Kavyadarśa-Kavyaprakāśasamketa are given in appendix II. The paper ms. C appears to be only a copy of A.
The indexes speak for themselves.
Authorship, Date etc.
The double authorship of Kavyaprakāśa
This question pertains to two different matters: one, the attribution of the authorship of Vṛtti and Karikas of Kavyaprakasa to separate persons and the other to the attribution of authorship of a part of Kavyaprakasa as a whole to one, and a part to another. The first matter has been discussed in detail by M. M. Dr. P. V. Kane. In his History of Sanskrit Poetics published in 1951, he comes to the conclusion that Mammata must be held to be the author of Karikas also (that is in addition to his being the author of Vṛtti). But one of the references mentioned by him as an argument requires to be corrected. He says "None of the earlier commentators such as चंद्र, जयन्त, सरखतीतीर्थ, सोमेश्वर makes any distinction between the author of thes and of the af." Now as far as Someśvara is concerned, he refers to af and far as if he is a different author. For.example, Someśvara after explaining the Kārikā लक्ष्यं न मुख्यं etc. ( उ. २.१६. पृ. २५) says: fa. So also in Ullasa 10 pp. 262 and 291 तन्न युक्तमित्याह वृत्तिकार : - क्रूरस्येति and तथात्रैव द्वयोर्युगपद् अनुपादानेऽपि ज्ञेयमित्याह वृत्तिकृद् अत्रैव तुच्छेति । respectively.
-
Considering the fact that Somesvara is earlier than Manikyacandra as we shall see later, the question of the separate authorship of Kärikäs and Vṛtti still remains open.
3
1 For other details see pp. 77-78 D. C. G. C. M. vol XII, 1936. 2 p. 259.
3 See also R. Shama Shastry pp. VII-VIII Introduction to K. P. with Manikya's Samketa, Sanskrit Series, University of Mysore, 1922. See also S. K. De: Sanskrit Poetics, Vol. I, p. 161 (1923); also his introduction pp. 19-21 to K. P. with Mahesvara's Adarśa. Calcutta S, S. Vol. VI 1936,
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
The other matter viz. some part in the latter portion of K. P. was composed by some other writer, has been discussed at length by our two historians of Sanskrit Poetics, Dr. De and M. M. Dr. Kane. Arjunavarmadeva (13th Century A. D.) in his commentary on the Amaruśataka (verse 30. Kāvyamālā Series), refers to the joint authorship of K. P. According to him Alaka had a hand not only in the 10th but also in the 7th Ullāsa' He probably regarded Mammața and Alaka as the joint authors of the whole work,
Rājānaka Ānanda, a Kasmirian commentator, in his K. P. Nidarśana (1665 A. D.) is more explicit and quotes a traditional verse which records Mammata's authorship upto the topic of Parikara-Alamkāra (X-32) and attributes the rest to ‘Alaţa, Allața or Alaka'.
The three Samketas refer in a general way to the double authorship of K. P. It should be noted that our palm-leaf ms. A. of K. P. which is the oldest Ms. (1158 A. D.) of the work known to us refers in the colophon to the double authorship of K. P. in the words "and TTH : " As Dr. Gode says “In view of the absence of Alaka's name in Ruyyak's allusion of the 12th century and in view of the other references being removed from Mammaţa's date by about a century, the importance of Pandita Lakşmidhara's colophon of the Kavyaprakāśa Ms, in 1158 A. D. is a better and more explicit corroboration of the Kasmirian tradition about the double authorship of Kāvyaprakāśa than that furnished by Rājānaka Ananda in the 17th century or Arjunavarman in the 13th century. The date of Mammata :
Dr. S. K. De in his Sanskrit Poetics assigns Mammata's literary activity roughly to the last quarter of the 11th Century. M. M. Dr. Kane would put the date of the K. P. between 1050 and 1100 A. D.
1 History of Sanskrit Poetics, 1951, pp. 260-61; S. K. De's Sanskrit Poetics Vol. I (1923) pp. 161-62; Introduction to K. P. with Maheśvara's Commentary, p. 20.
2 Rucaka's Samketa p. 75 (C. 0. J. Vol. II, No. 12 September 1935). Someśvara's Samketa-p, 352; Māņikya's Saņketa p. 304 ( A. S. S. Poona).
3 pp. 51, 52 vol. XIIIJ. O. R. S. Madsas 1939, This Ms. has also another importance noted by Dr. Gode. It provides a definite lower limit to Mammata's date by about two years. Ibid p. 49.
4 S. P. Vol. I. p. 160, also p. 19; Introduction to K. P. with Maheswaras's commentary
5 History of Sanskrit Poetics, p. 213.
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
KAVYAPRAKASA-SAM KETA
The date of Somes'vara:
The colophon of the palm-leaf mus. of K, D. K. P. S. as noted in its description has the following:
भरद्वाजकुलोत्तंसभट्टदेवकसूनुना। सोमेश्वरेण रचितः काव्यादर्शः सुमेधसा ॥
संपूर्णश्च ete. संवत् १२८३ वर्षे आषाढवदि १२ शनौ लिखितमिति ।
From this we gather that Bhatta Someśvara was the son of Bhatta Devaka and belonged to the Kula i. e, family of Bharadvājas.
The palm-leaf ms, was completed on Saturday the 12th of the dark-balf of Aşādha Samvat 1283 i. e. Saturday April 25, 1226 A, D., or Saturday May 15, 1227 A. D.
This is all the first hand information that we have about Some. śvara, the author of K. D. K. P. S. The lower limit of the times in which he must have lived is either April 1226 A. D. or May 1227 A. D., when the writing of our Ms. A was finished.
This Someśvara was taken by Peterson and Aufrecht to be the author of Kirtikaumudi' and a contemporary and a close friend of Vastupāla ( who died in 1240 A. D.). This mistake has been corrected by S. K. De, M. Krishnmachari and Sandesara. Krishnamacbari, however, places our Someśvara in the 14th Century, which is obviously wrong, because the palm-leaf ms, A. of K, D, K. P, S, is dated 1226 or 1227 A. D.
The authors and works referred to by Someśvara in his Samketa are not later than Mammaţa. Amongst others however, we may mention Tilaka to whom Someśvara refers on p. 295. He was the author of a commentary on Udbhata's Alamkārasāra Samgraha called Udbhataviveka or Udbhatavicära. He is placed between 1075-1125 A. D. by K. S. Ramaswami Sastri and between 1100-1125 A, D. by M, M. Dr. Kane.'
1 S. K. De, Sanskrit Poetics Vol. I. p. 172.
2 Sandesara, Literary Circle of Mahămātya Vastupala; Singhi Jain Series, 1953 p. 32. Pandits Sivadatta and Kasivatha credit him with the authorship of Kāvyaprakāšaţika & Kāvyādarśa, p. 16, Introduction to Surathotsava, K. M. Series, 1902,
3 L. C. V. p. 49.
4 See p. 757 and footnote 4, History of Classical Sanskrit Literature, 1937, Madras.
5 History of Sanskrit Poetics pp. 130-131. See also pp. 34, 41, 45, Sanskrit Introduction of K. S. Ramaswami Sastri to his edition of Kävyälaņkārasărasamgraha G. 0. S. 1931. Sri K. S. Ramaswami Sastri. refers to the possibility of other works of Rājānaka Tilika on acoount of certain references to him made by Rucaka in his Alamkārasarvasva not found in his edition of Udbhataviveka (pp. 38-39). M. M. Kane, however, brushes aside this possibility by saying that the opinion is based on bare conjectures (p. 131 H. S. P.). But the opinion of K. S. Ramaswami Sastri is strengthened by the fact that the quotation in connection with Aksepa Alamkāra attributed to Tilaka by Somes'vara is also not found in the Udbhata viveka on p. 21 of the text where it would be expected.
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
So in order to narrow down the time gap between 1125 and 1227 A. D., I made a comparative study of Someśvara's Samketa with Māại. kyacandra's Saņketa on the one hand and Rucaka's Sainketa' on the other. This comparison shows that Māņikyacandra profusely borrows from Someśvara, just as Someśvara does from Rucaka. Let us take Manikycandra's Samketa first. (I used for the first three Ullāsas the A. S. S. edition but as some portion in Ullasa V (p. 115) was found missing in it when compared with Mysore edition, I changed to it for the remaining portion. )
The number of parallel passages I found in both the Samketas is as follows, Ullása-wise :
U. 1-16; U. II-15; U. III-6; U. IV-19; U. V-22; U. VI1; U. VII-34; U. VIII-12; U. IX-23; U. X-91.
Before we proceed to draw any conclusions from these parallel passages, it must be pointed out that some allowance must be made for the similarities and identities because both the works are commentaries on the same work. One has also to consider the possibility of a common source for both the works. But even after due deductions are made on these grounds, the identities, similarities and paraphrases in both the Samketas cannot be regarded as accidental. In fact, any one who will go through the parallel passages given in appendix A will be left in no doubt that either of the two has adopted considerable portions from the other work. The question, therefore, to be settled is whether Someśvara has borrowed from Māņikya or vice versa. Careful considération of these paralellisms should incline one to think that Mānikyacandra has borrowed from Somesvara. This opinion gets corroboration from other facts also.
Māņikycandra in the Praśasti to his Samketa frankly says : नानाग्रन्थसमुद्धृतैरसकलैरप्येष संसूचितः संकेतोऽर्थलवैभविष्यति नृणां शङ्के विशई तमः। निष्पना ननु जीर्णशीर्णवसनैनीरम्ध्रविच्छित्तिभिः प्राथ्यप्रथितां न मन्थति कथं कन्था व्यथां सर्वथा ॥ १२
In this verse Mānikya tells us that his Samketa has been 'pieced together (HxFea: with small passages taken from various works and compares it to a Kanthā “a patched garment.' In fact he informs us that he has prepared bis Samketa with the help of borrowings from other works. R. Shama Sastry has in the introduction to his edition of
0.0. J. vol. II.
1 Edited by Sivaprasad Bhattacharya and published in
nos. 6, and 12. 2 See appendix A. 3 P. 496, K. P. S., Mysore edition.
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
KAVYAPRAKASA-BANKETA
the work given parallel passages to show Māņikya's indebtedness to the Kavyanusasana of Hemacandra.' The parallel passages shown by me would open the probability of similar borrowings from Somesvara's Samketa also. This probability becomes almost a certainty when we find that at two places in Māņikya's Samketa referring to the opinions of others there are unmistakable references to the views expressed in Someśvara's Samketa.
Māņikya while discussing the verse af faget etc. as an illustration of Samuccaya Alamkāra says : “अन्यमतामिप्रायेण विशेषण विशेष्ययोरत्र वैपरीत्ये STTK: 1"* Someśvara in the same context gives this view. He says Papageida 372377afafa @9991T P K 579:1 (g. 393). It may be noted that this reference is not to be found either in the Samketa (p. 67), or Alamkärasarvasva of Rucaka (pp. 183–84 )
While discussing the verse dau etc, as an illustration of Paryaya, Māņikya says: 37 canaisat fa ani sitframarat THTHIE: This is the opinion expressed by Someśvara in the following words :
सकलरत्नसारतुल्यो बिम्बाधर इति तेषां बहुमानो वास्तव एवेति प्रतीयमानोपमापि । (पृ. ३१४). This is also not found in Rucaka's works. But we have a more convincing proof than these. In the parallel passage No.13 in Ullása VII it will be found that Máņikya gives the following Sanskrit verse as an illustration of दुष्कमत्व :
aitas fauca warte af faatu aiman dari ag faferare la (p: 247). Now this is really the Sanskrit translation of a Prakrit verse which is to be found as follows in Someśvara's Samketa: काराविऊण खउरं गामउडो मजिउण जिमिऊण । नक्खत्ततिहिवारे जोअसिअं पुच्छिउं लग्गो ॥ (पृ. १५६ )
Now if we ask who may be the borrower in this passage taken as a whole, we can certainly say that if the Brāhmaṇa writer Someśvara had borrowed from Māņikya, he would not have translated an original Sanskrit verse into Prakrit. The traditional practice has always been to translate Prakrit into Sanskrit and not vice versa. Therefore about this passage we can certainly say that the original is that of Someśvara, Māņikya having given only the Sanskrit version.
1 pp. XII-XVI. 2 p. 415: Mysore Edition, 3 Trivendrum Sanskrit Series. Second edition. 1926. Not found also in the
Kavyānuśasana of Hemacandra. See Viveka, p. 393, M. J. V. edition. 4 Not found also in K. S., see p. 74 (M. V. J. edition). 5 Hemacandra quotes this verse in Prakrit p. 264. The verse occurs in the
Sarasvatikanthäbharana also, p. 31. K.S.S. 1934.
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
11
If we add to this the consideration that Brahmana writers generally do not borrow passages from Jain writers, particularly in works of such subjects, the proof of Māņikyacandra borrowing from Someśvara is almost complete, falling short only in the absence of a direct mention of Someśvara by name. But Māņikya has not mentioned Hemacandra or Kävyänuśäsana also. He has, however, made a general acknowledgement of his debts to the previous works in the verse quoted above.
Thus mainly on the strength of the character of parallel passages found in both the Samketas corroborated by other considerations, I come to the conclusion that Māņikyacandra has borrowed from the Saņketa of Someśvara and that, therefore, Someśvara precedes Māņikyacandra in time.
Now let us consider the parallel passages in the Samketa of Rucaka and the Samketa of Someśvara. Their number Ullasa-wise is as follows:
U. 1-4; U. II-3; U. III-3; U. IV-5; U. V-11; U. VI-no Samketa of Rucaka; U. VII-4, 4a-b-c; U. VIII-2; U.IX-25; U. X-72.
A close scrutiny of these parallel passages leaves no doubt that Someśvara has absorbed in his Samketa, particularly in the tenth Ullāsa, quite a good portion of Rucaka's Saņketa. Now if we consider the meaning of the term Samketa as used to denote a type of commentary, the relation between these two Samketas will become clear. Monier Williams in his S. E. Dictionary explains the word as follows: "a short explanation of a grammatical rule (= 2 śaili. q. v), M. W; a special or particular interpretation (a concise explanation of a grammatical aphorism)". Thus Samketa is a short explanatory commentary. Sankara, the author of a commentary on Harşacarita of Bāņa, describes his Saņketa as "ÅTERIGE: 1 IZE=HEUTİ 7" etc.
Now when we compare the Samketa of Rucaka with that of Someśvara we find that the former is a real Samketa in the proper meaning of the term - a short explanatory commentary of difficult and recondite passages, consisting of 75 pages (royal octavo), while that of Someśvara consists of 352 pages of the same size. This explains the small number of parallel passages, but we find that in the case of the tenth Ullása the number is as big as 72. Rucaka, in addition to explanations of difficult words, no doubt, introduces a few discussions. But these compared to those of Someśvara are very few in number. In fact it will be found that explanatory portions of both the Samketas are very
I p. 258. H. C. (Kävyamālā Series ), 1925.
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
12
KĀVYAPRAKĀŠA-SAMKETA often in indentical words; while they often differ in their discussion of general points.
This is sufficiently indicative of Someśvara's Saņketa being later than that of Rucaka.
Thus we are able to place Someśvara between Rucaka and Māņikyacandra. The Date of Māņikyacandra's Samketa :
The date of Mäniky acandra's Samketa has been taken as V. S. 1216= A. D. 11607 on the strength of the following verse of the Praśasti of the work:
natalifta ha hai #12 #1349417R4 ECST anfa: (p. 470 ).
But this date of Māņikya has been controverted by Prof. Dr. Sandesara in his work Literary Circle of Mahāmātya Vastupāla'. His.. main argument for not accepting this date is based upon the irreconcilability of this date with the date of another work of Māņikyacandra. Our Māņikyacandra finished the composition of his Mabākävya Pārsvanăthacaritra in V. S. 1276 = A. D. 1220 at Div in an island on the southern coast of Saurashtra. The Prasasti runs as follows:
सपिर विसंख्यायां समायां दीपपर्वणि । समर्थितमिदं वेलाकूले श्रीदेवकूपके ॥
Thus the interval of 60 or 61 years between 1159-60 A, D., the date of Samketa and 1220 A, D., the date of Parsvanātha Caritra, cannot be reconciled according to Dr. Sandesara. He says: "Now, if the author wrote his Samketa, a fruit of his mature learning and ripe intelligence, in 1160 A, D., it is difficult to believe that he should have been fit enough to compose a Mahakavya sixty years afterwards—in 1220 A. D., if at all he could have lived so long." He therefore proposes that «Vaktra' in the verse of Māņikya's Samketa should be interpreted as either six (mouths of Kārtikeya ) or four (mouths of Brahman). In support of this interpretation he relies upon certain old authorities which he has discussed in his work. On this interpretation the date of Māņikya's Samketa would be either 1246 V.S. = 1190 A, D), or 1266 V.S.= 1210 A.D.
Māņikyacandra's close contact with Vastupāla (died 1240. A. D.) is another fact which Dr. Sandesara adduces in support of the date of 1190 or 1210 A, 0.3
1 See p. 2. Introduction to A. S. S. edition; p. IV. Mysore edition; p. 169. S. P. Vol, I; H. S. P. p. 263.
2 See pp. 80-81, L. C. V., Singhi Jain Series, 1953.
3 This is based on the evidence of Prabandhāvali (1234 A. D.) of Jina bhadra, a contemporary work.
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
13
But these arguments though plausible are not decisive. If we assume that Māņikyacandra might have been of thirty years of age when he, by borrowing from several previous works on Alamkāra, particularly Someśvara's Samketa, composed his Samketa, there would not be anything inherently impossible in Māņikyacandra finishing his Mabäkävya at the age of ninety. One need not assume that he composed the whole poem at a time in his old age. He might have commenced his Mahākāvya much earlier and given the finishing touch in old age. As to his contact with Vastupāla, there is nothing impossible in the same taking place in Māņikya's old age. Many Jain Sadhus have been known to have lived to the age of ninety or hundred
But the argument based on the interpretation of the Sabdanka would deserve greater consideration, if it could be proved that the word 972 and its synonyms did not signify the number 1. But it is not so. Dr. Sandesara and Shri Nahta have not been able to quote any reference in which the word Vaktra and its synonyms are used alone. They are generally found used with Brahman ( = 4), Siva ( = 5) and Kārtikeya (= 6) or their synonyms. Dr. Sandesara on the authority of Sri Agarchand Nahta says that in later times the word Vaktra and synonyms were used alone to signify 4 or 6. But no instance is quoted. While in the following late reference in the a rea-agen-
agent of Vijaya Lakşmisüri, the word ach definitely signifies 1 :
"मुँनिकैरसिद्धिवंदैनने वर्शे आठममुदि भले भावेरे" Here no other interpretation of an excepting number one is possible, Vijaya Lakşmisuri would not have used the word aga to signify one, if he had no traditional support.
This is corroborated by what is said in the ms. of 172 Pasal अर्थोत्पत्तिस्तबकोद्धार-“यदा एकसंख्यः पदार्थो विवक्षितः तदा एकसंख्या अन्येऽपि पदार्थाः।" This means that in addition to the traditional Sabdas for one, all the words for things which are one in number can be used to signify one. वक्त्र or वदन for mouth is one such word.1
Māņikyacandra who shows great knowledge of all the different topics of Kavi-sikşā could not be so inexact as to use the word Vaktra which, without Brahman or Guha qualifying it, could signify four or six, if he really did not mean one.
So I see no adequate reason to give up the usually accepted interpretation of 7774742TET = V. S. 1216 = A. D. 1160 the year in which Mänikyacandra completed his Samketa.
1 I am indebted to Muni Shri Punyavijayaji for the references from aftrema by Vijaya Laksmisūri and #1527a f a61.GI. He informs me that the ms. of this latter work belongs to the 16th century of the Vikrama Era.
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
14
KĀVYAPRAKĀŚA-SAMKETA
. Consequently we can place Someśvara's Saņketa prior to 1160 A. D. Rucaka or Ruyya ka:
At the end of the text of Samketa published in Calcutta Oriental Journal Vol. II No. 12, the colophon reads, wat 7911795er !
This Rajanaka Rucaka is the same as Rajānaka Ruyyaka who is famous in Sanskrit literature as the author of Alamkārasarvasva. His date has been put by S. K. De in the second and third quarters of the 12th century, that is between 1125 and 1175 A, D.' Kane places the composition of A. S. between 1135-1150 A, D3
So Someśvara's Samketa may be placed after 1135-1150 A. D.
The date of the palm-leaf ms. of Someśvara's Samketa is, as we have seen, 1226 A, D. By a comparative study of the three Samketas, it becomes possible to put Someśvara's work earlier than 1160 A, D., somewhere between 1135-50 and 1160 A, D.
Certain passages of Someśvara's Samketa are similar or identical with those of Alamkaracūdāmaņi and Viveka of the Kávyānusasana of Hemacandra also. Though I have not made a thorough comparison of the two works, the passages that came to my notice are sufficient to raise the question of borrowing by one from the other or from a common source. Hemacandra lived from 1089 A. D. to 1173 A. D. (K. S. Vol. II p. CCLXX and CCXC). His K. S. was written after his Sabdănuśasana which was finished by 1143 A. D. (K. S. Vol. II CCXCI). If we can take the K. S. with its Alamkāracūļāmaņi and Viveka as being written between 1143 A. D. and 1150 A. D., chronology itself cannot help in solving the question of borrowing. So let us consider a few of these parallel passages.
In the Samketa on the seventh Ullāsa treating of Doşas, SomeSvara explains दिव्यादिव्याः प्रकृतयः thus : दिव्यादिव्यास्तु चतुर्धा and then illustrates the different types with a number of verses. This whole passage of about thirty lines in Someśvara's Samketa is similar to one found in the
Muni Punyavijayaji himself has collected about a thousand 571 which he proposes to publish with the relevant references. He informs me that in fifteen or twenty instances in which the word ge and its synonyms are used, they are always preceded by Brahman, Siva or Guha or their synonyms. He has also not met with any instance of the word et and its synonyms being used alone where they would signify four, five or six. The late reference of the use of 29 alone that has been quoted above signifies one,
1 pp. 193-195, S. P. Vol. I; pp. 261-274 and p. 267, H. S. P. 2 p. 194, S. P. Vol. I. 3 p. 273, H. S. P.
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
15
Viveka of K. S. pp. 174-75. The Viveka passage however is longer because it describes the three other Prakṛtis, viz., Pataliya, Martyapātālīya and Divyapataliya. Now, this whole passage of Viveka is taken from the Kavyamimamsā (pp. 42-43) of Rajasekhara (900-925 A. D.). Similarly Someśvara in his Samketa on the same Ullasa (pp. 183-186) which is a shortened form of one found in the Viveka pp. 179-198, while explaining and gives a long passage. This passage is to be found in Manikya's Samketa also (p. 275). Hemacandra has taken this passage also from the Kavyamīmāṁsă, pp. 89–Ĭ12.
So in these two cases we can trace the parallelism to a common source, viz., the Kavyamīmāmsa of Rajasekhara.
The third passage that is worthy of comparison is in the eighth Ullasa which treats of Gunas. Mammața while explaining the difference between Guna and Alamkara gives a general definition of Alamkāra as one which may help the Rasa, if there is one, but which, otherwise, only adorns the body-poetic. Mammața gives two examples in one of which an Alamkara does not help the Rasa even though there is one, and in the other of which the Alamkaras help the Rasa. Someśvara, after commenting on this, gives a few more points with illustrations in which the position of Alamkara is shown in the following ways: (1) are fail, ( 2 ) न बाधकत्वताटस्थ्याभ्याम्, ( 3 ) बाधकत्वेन and, ( 4 ) ताटस्थ्येन. Then he illustrates the following : (5) अनङ्गत्वेऽपि कालेऽवसरे ग्रहणम्, ( 6 ) अकाले ग्रहणम्, ( 7 ) गृहीतस्यावसरे त्यागः, (8) अनवसरे त्यागः, (9) नातिनिर्वाहः, (10) अतिनिर्वहणम्, ( 11 ) निर्वाहेऽप्यङ्गत्वम् and ( 12 ) निर्वाहेऽप्यनङ्गत्वम् ।
Hemacandra has regarded this topic as important and given it a whole sutra (Adhyāya I. sūtra 14, p. 35) and in the Alamkāracūḍāmani and Viveka discussed it in detail. Pages 198-200 of Someśvara's Samketa are almost identical with the pp. 36-41 of the K. S. An interesting point may be noted here. Hemacandra has quoted the verse etc, in the A. C. and explained it in the Viveka, while Someśvara after quoting the verse follows it with the explanation. The same is the case with the verse
up etc.
Hemacandra, we find, has adopted in his works the method of taking his material from several authors and arranging and marshalling it in a more systematic way. Can we say, here, that he took his material from Someśvara and arranged it differently? Or have both the authors a common source?
In the same Ullasa, Someśvara has an elaborate discussion on the different theories and definitions of Gunas (pp. 204-208). Hemacandra in his Viveka has given a longer dissertation on the same subject
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
16
KĀVYAPRAKASA-SAMKETA
AnmM
(pp. 274–288). The matter that is cominon is almost in identical words and contains the saine illustrations. Here it appears that both have a common source, probably the missing portion of the K. M., Hema candra giving a longer and more detailed version.
In the same Ullāsa, Someśvara has a big digression on the different types of Sanskrit literature, viz. fpeift and #91 with its different varieties, अनिबद्ध with its different varieties and महाकाव्य, as also a long account of the Fi with its ten varieties as well as uparūpakas (pp.'11-222).
If we compare this digression with the eighth Adhyāya of the Kāvyánuśāsuna, we find that it is very similar not only in content but words also.
Now we find that in the Dhvanyaloka, Uddyota 3, Karika 7 there is a mention of Kāwyaprabheda. The Vrtti explains it as follows:
“यतः काव्यस्य प्रभेदा मुक्तकं संस्कृतप्राकृतापभ्रंशनिबद्धम्। संदानितकविशेषककलापककुलका नि पर्याबन्धः, परिकथा सकलकथा खण्डकथा सर्गबन्धोऽभिनेयार्थमाख्यायिकाकथेत्येवमादयः (पृ. १४१)." On this Abhinavagupta in the Locana says:
मुक्त कमिति । मुक्तमन्येन नालिङ्गितम् । तस्य संज्ञायां कन् । तेन स्वतन्त्रतया परिसमाप्त निराकाङ्क्षार्थमपि प्रबन्धमध्यवर्ति मुक्तकमित्युच्यते । मुक्तकस्यैव विशेषणं संस्कृतेत्यादि । क्रमभावित्वात्तथैव निर्देशः । द्वाभ्यां क्रियासमाप्तौ संदानितकम् । त्रिमिर्विशेषकम् । चतुर्भिः कलापकम् । पञ्चप्रभृतिभिः कुलकम् । इति क्रियासमाप्तिकृता भिद इति द्वन्द्वेन निर्दिष्टाः । अवान्तरक्रियासमाप्तावपि वसन्तवर्णनाद्येकवर्णनीयोद्देशेन प्रवृत्तः पर्याबन्धः । एकं च धर्मादिपुरुषार्थमुद्दिश्य प्रकारवैचित्र्येणानन्तवृत्तान्तवर्णनप्रकारा परिकथा । एकदेशवर्णना खण्डकथा । समस्तफलान्तेतिवृत्तवर्णना सकलकथा। द्वयोरपि प्राकृतप्रसिद्धत्वाद् द्वन्द्वेन निर्देशः । पूर्वेषां तु मुक्तकादीनां भाषायामनियमः महाकाव्यरूपः पुरुषार्थफलः समस्तवस्तुवर्णनाप्रबन्धः सर्गबन्धः संस्कृत एव। अभिनेयार्थ दशरूपकं नाटिकात्रोटकरासकप्रकरणिकाद्यवान्तरप्रपञ्चसहितमनेकभाषाव्यामिश्ररूपम् । आख्यायिकोच्छ्रासादिना वक्त्रापरवक्त्रादिना च युक्ता । कथा तद्विरहिता। उभयोरपि गद्यबन्धस्वरूपतया द्वन्द्वेन निर्देशः, आदिग्रहणाच्चम्पूः । यथाह दण्डी--'गद्यपद्यमयी चम्पू:' इति । (पृ. १४१)."]
Now we find this material both in Someśvara's Saņketa as well as Hemacandra's Kūvyānusāsana. This means that the common source for both the works is Dhvanyaloka and Locana. But there is much identical additional matter on this topic in both the works which is not to be found in Dhvanyaloka and Locana. Let us take the different Kathaprabhedas. Both Hemacandra and Someśvara mention twelve varieties of Kathas as against the three of Dhvanyaloka.
काव्यानुशासनम्-धीरशान्तनायका गद्येन पद्येन वा सर्वभाषा कथा ।। ८ ।
आख्यायिकावन्न स्वचरितव्यावर्णकोऽपि तु धीरशान्तो नायकः तस्य तु वृत्तमन्येन कविना वा यत्र वर्ण्यते, या च काचिद् गद्यमयी यथा कादम्बरी, काचित्पद्यमयी यथा लीलावती, या च सर्वभाषा काचित् संस्कृतेन काचित् प्राकृतेन काचिन्मागध्या काचिच्छूरसेन्या काचित् पिशाच्या काचिदपत्रंशेन बध्यते सा कथा।
1 Kavyamala series, 2nd edition, 1912.
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
17
प्रबन्धमध्ये परबोधनार्थं नलायुपाख्यानमिवोपाख्यानमभिनयन् पठन् गायन् यदेको ग्रन्थिकः कथयति
तद्गोविन्दवदाख्यानम् ।
तिरश्चामतिरश्चां वा चेष्टाभिर्यत्र कार्यमकार्यं वा निश्चीयते तत्पञ्चतन्त्रादिवत्, धूर्त विट कुट्टनीमतमयूर - मार्जारिकादिवच्च निदर्शनम् ।
प्रधानमधिकृत्य यत्र द्वयोर्विवादः सार्धप्राकृतरचिता चेटका दिवत् प्रवह्निका । प्रेत महाराष्ट्रभाषया क्षुद्रकथा गोरोचना-अनङ्गवत्यादिवन्मन्थल्लिका ।
यस्यां पुरोहितामात्यतापसादीनां प्रारब्धानिर्वाहे उपहासः सापि मन्थलिका ।
यस्यां पूर्वं वस्तु न लक्ष्यते पश्चात्तु प्रकाश्यते सा मत्स्यह सितादिवन्मणिकुल्या ।
एकं धर्मादिपुरुषार्थमुद्दिश्य प्रकारवैचित्र्येणानन्तवृत्तान्तवर्णनप्रधाना शुद्धकादिवत् परिकथा |
wwwwwww
मध्यादुपान्ततो वा ग्रन्थान्तरप्रसिद्धमितिवृत्तं यस्यां वर्ण्यते सा इन्दुमत्यादिवत् खण्डकथा । समस्त फलान्तेतिवृत्तवर्णना समरादित्यादिवत् सकलकथा । एकचरिताश्रयेण प्रसिद्ध कथान्तरोपनिबन्ध उपकथा । लम्भाङ्किताद्रुतार्था नरवाहन दत्तादिचरितवद् बृहत्कथा । एते च कथाप्रभेदा एवेति न पृथग्लक्षिताः ।
wwwwwwwwwww
गद्यपद्यमयी साङ्का सोच्छ्वासा चम्पूः ॥ ९ ॥
संस्कृताभ्यां गद्यपद्याभ्यां रचिता, अभिप्रायेण यान्यङ्कनानि खनाम्ना परनाम्ना वा कविः करोति तैर्युक्ता उच्छ्रासनिबद्धा चम्पूः । यथा वासवदत्ता दमयन्ती वा । (पृ. ४६३-४६५ ).
संकेतः - कथायामिति । सुकुमाररचनाप्राया गद्येन पयेन वा सर्वभाषा धीरशान्तनायका कथा, यथा कादम्बरी, पद्यमयी तु लीलावती । एकं धर्मादिपुरुषमुद्दिश्या नन्तवृत्तान्तवर्णनप्रधाना शुद्धकादिवत् परिकथा । मध्याद् उपान्ततो ग्रन्थान्तरतः सिद्धमितिवृत्तं यस्यां वर्ण्यते सा खण्डकथा ॥ सर्वफलान्तेतिवृत्तवर्णनप्रधाना सकलकथा ॥ एकचरिताश्रयेण प्रसिद्ध कथान्तरोपनिबन्ध उपकथा । लम्भकाङ्किताद्भुतार्था नरवाहनदत्तादिचरितवद् बृहत्कथा । संस्कृतगद्यपद्याभ्यां साभिप्रायखनामपरनामाङ्किता सोच्छुसा वासवदत्तादिवत् चम्पूः | अभिनयन् गायन् पठन् यदेको ग्रन्थिकः कथयति तद् गोविन्दवद् आख्यानम् ॥ तिरश्चामतिरश्चां वा चेष्टाभिर्यत्र कृत्याकृत्ये निश्चीयेते तत् पञ्चतन्त्रादिवत् कुट्टनीमतमयूरमार्जारादिवच्च निदर्शनम् । यत्र द्वयोर्विवाद ः प्रधानमधिकृत्य सार्धप्राकृतरचिता चेटकादिवत् प्रवह्निका ॥ प्रेतमहाराष्ट्रभाषया क्षुद्रकथा गोरोचनानङ्गवत्यादिवद् मन्थलिकेत्यादि तु कथाभेद एवेति न पृथगौचित्यमत्रोक्तम् । (पृ. २११-२१२ ).
In the above quotations we find that though Someśvara defines Sakalakatha, he does not mention any example of it, as Hemacandra does. What must be the reason? Is it because Samaradityakatha is the work of a Jain writer Haribhadrasüri? If that were so, we could say that Someśvara has taken his material from Hemacandra omitting the Nastika Jain work. But we find that Hemacandra quotes in Viveka verses which are his authorities for the definitions and examples of (1) Upākhyāna— Akhyāna, (2) Nidarśana, (3) Pravahlikā, (4) Manthallikā, (5) Manikulyā, ( 6 ) Parikathā, ( 7 ) Khandakathā, (8) Upakathā, and (9) Brhatkathā, but about Sakalakathāū he simply says 'चरितमित्यर्थ : ' and gives no authority. This means that Hemacandra must have no authority for Sakalakatha other than that of Dhvanyaloka and Locana. We have seen that these works do not mention any names of works as examples.
This would lead us to believe that Someśvara must have drawn upon the same common source as the work whose verses are quoted
3
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
18
KÁVYAPRAKASA-SAMKETA
by Hemacandra which, as we have seen, has nothing to say about Sakalakatha and that Hemacandra on his own must have removed the defect by mentioning Samarādityakatha."
While introducing what are called Uparūpakas, Someśvara says गेयं तु प्रेक्ष्य काव्य पदार्थाभिनयखभावं श्रीगदितादि (p. 221). Now it is Hemacandra who divides काव्यं into प्रेक्ष्यं श्रव्यं च and subdivides प्रेक्ष्यं into पाठ्यं गेयं च (p. 432), and further divides (प्रेक्ष्य) गेयं into डोम्बिका to श्रीगदितरागादि (p. 445). Here the interesting words to be noted in both are 772-921. It would appear that Someśvara has taken his wording from Hemacandra, though the quotation about the varieties of genitiin both is from the commentary of Abhinavagupta who himself introduces the passage with the words agat Arad: (p. 181 ) I. II. vol. I 2nd edition G.O.S.
The last point to be noted is a small one. Someśvara in the tenth Ullāsa while explaining 777717494 says RHETY 19 14H121sa at ga adha (g. 304). Here we have to note the words apcan and उपमादयोऽपि. We know that it is Hemacandra who has defined उपमा as
NATIF I (p. 339). Someśvara seems to say that where there is no kura there is no Alamkāra, and this applies to Upamā also. He seems to imply that this is a characteristic common to all Alamkāras and not
1 It is well known that Bhāmaba in bis Kavyalam kāra gives five kinds of Kávya viz. Fara (HET ), fent (afs*), FM, enfant and fas( .9. 2. q. 3. #. # .), while Dandin in his Kāryādaría recognizes (1) , (2) antara #614174, (3) 741 and rejects 311611fh as a separate kind (**.23-26. gr. 9. g. 80-85. ed by Rangacharya, Madras 1910). As mixed varieties of verse and prose he gives two-viz. 772# and art (27. 38.9. 22 ibid). Both these early writers do not give any sub-varieties,
Rudrata in the sixteenth adhyāya of his Kávyālaņkāra mentions #14 (9), HETATA, 41, Tegah (34.28... 9. v. . . . 8920), and EU 4T, cft, rostilla, arcaife ( 34.8, 1. 33-38. q. ibid).
Bhoja in his Sarasvatīkaņāthābharaṇa gives a division of Kāvya into 4 and , but offers no varieties of the former, wbile for latter gives six-viz. tea, Tuca, festa, #991, 2 and 7 (T. 306-306 K M. S. 2nd edition 1934). Dr. V. Raghavan however, in his work on Bhoja's Śrngāra Prakāśa (pp. 28-29) mentions 24 kinds of Śrávya Prabandhas out of which (1) Akhyāyikā, (2) Nidarśanā, (3) Pra-vablikā, (4) Manthallikā, (5) Maņikulyā, (6) Katbā, (7) Parikatha, (8) Khandakathā, (9) Up&kathā, and (10) Běhatkathā and (11) Champú, may be noted. If this list is complete, we have to say that Bhoja also does not mention Sakalakathā and that therefore the authority for it for Hemacandra and Someśvara may be different. Only after the text of Srngāraprakaśa of Bhoja is published, we can say whether the verses quoted in Viveka as authorities for sub-varities of Kathā can be traced to that work or some other work referred by it.
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
the particular one of Upamā. Can we say that this is a fling at Hemacandra ?
Thus the parallelisms in the Samketa of Someśvara and the Kavyanusasana of Hemacandra do not give us any definite clue as to the priority of the one or the other. It appears that both have drawn independently from common sources like Dhvanyāloka, Locana, the verses quoted in Viveka etc.
Probably, both the works the Kávyānušāsana with Alamkāra cūdamaņi and Viveka and the Samketa of Someśvara were too near in time to each other to be known and utilized by the one or the other. But if some borrowing has to be assumed, the probability is that the Brahmanical writer would not condescend to take his material from a Jain, while Hemacandra had never any hesitation in utilizing nonjain works. If this turns out to be true, the date of Someśvara's Samketa will have to be placed before 1150 A. D.
But for the present we may place the composition of Kávyādarśa. Kávyaprakāśa-samketa between 1150 A. D. and 1160 A. D.
Thus within fifty to sixty years of the publication of Kāvyaprakāśa (c. 1100 A, D.), we find Rucaka writing a real Samketa (1135-50 A.D.), Someśavara, a very much enlarged Samketa called by him Kāvyādarśa (1140-50 A. D.) discussing topics not treated in K, P., and Māņikyacandra also a similar Samketa (1160 A, D.). To his we may add Hemacandra basing his Kāvyānuśāsana on Mammața's work, making his treatise much more comprehensive than Someśvara's commentary. This shows how soon the greatness of Mammata's work was recognized, not only in his own region Kashmir but in Gujarat also. It speaks for the intellectual intercourse between different and distant parts of India in those old times. Somesvara's native place:
Vāmanācārya Jhalkikar in his Sanskrit introduction p. 25 to the fourth edition of K P. (1921) takes Somesvara to be a Kānyakubjadesiya, a native of Kanouj on the strength of the following reference:
71891 frygesicht Jean ETET JAETT **FT 3179: 4597974an. This is, however, too general a remark to warrant any such guess. This passage occurs in the Viveka of K. S. of Hemacandra also. It is likely that
i Udbhata uses the words "qatgiRT RÆ" (q. & fa.HT). Vägbhata in his Kāryānuśāsana uses the words "S HREY41' (q. 33 K, M. S.). Appayadikshita says " Anguiana Flagfa: (
F HIAI. G. & ) the very words of Hemacandra. Jagannātha says ATERI 75 etc. (q. 84, T..).
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
20
KĀVYAPRAKASA-SAMKETA
it may have been taken by both the writers from the missing portion of the Kāvyamīmāṁsā of Rājasekhara, who belonged to Kanouj.
If knowledge of obscene words of a particular language can be taken as proof of a writer's regional language and therefore native region, we may say that Someśvara belonged to Kashmir, because on p. 136 he says 377 ty etc. His Mangala indicates him to be a follower of Pratyabhijñādarśana- a school of thought which had developed in Kashmir and was prevalent at this time. This would be an additional argument to make Someśvara a Kashmirian. But it should be said that no definite conclusion can be based on such references. Someśvara's other works:
We have no knowledge about the other works of Someśvara, Verses given at the end of Ullásas VII & X and quotations of verses under Ha (p. 131 & p. 224), however, show that Someśvara must have been a poet also. Both the latter verses are benedictory. The first describes the rising Sun in the following lines:
शश्वदर्शनलोपिसन्तततमस्तोमच्छिदा पण्डितः काषायं दधदम्बरं मुनिरिव क्षोणी पुनानः परम् ।
कुर्वाणः करविभ्रमैत्रिजगतो बोधं समध्यासितः पौरस्त्याचलवेदिकां दिनकरः क्लिश्नातु वः कल्मषम् ॥ The second verse is as follows:
दूरागाधभवान्धकूपकुहरक्रामत्तमःकर्दमकोडान्तःपरिलीनदीनवपुषः पाठीनपोतानिव । जन्तून् यस्त्वरित निजोद्धरकरैरुद्धृत्य लोकंपृणैः प्रीणन्निर्मलशर्मवारिभिरभिप्रेयाय भूयात्स वः ॥
Here also the Sun is intended. From the benedictory nature of these two verses one may guess that they may be either verses from some of his dramas or more probably from a Sūrya stotra. Kāvyādarśa Kāvyāprakāsa Samketa:
This Samketa of Someśvara is really the first adequate commentary of Kävyaprakāśa on a big scale, that of Rucaka being mostly a short explanatory note. Not only the author has shown great knowledge of previous works on Sanskrit poetics, but his exposition is both clear and critical. His erudition not only of Kāvyasastra and Kāvyas but also of allied subjects such as Mimāṁsā, Vyākaraṇa etc. is evidenced by quotations given and the works and the authors mentioned by him as well as by references traced by the editor. 1 येषां ताण्डवमाधत्ते चित्ताध्वनि रसध्वनिः । त एवास्य सुवर्णस्य परीक्षाकषपट्टकाः उ.७ पृ. १९५
स्वीकृत्य कल्पतरुतो मरुतः परागं दृष्टेः क्षतिं विदधते जगतोऽपि किं तैः। भृङ्गः कृती तु परितः सुमनोमुखेभ्यः पीतं मधूद्वमति येन मदं करोति ॥ उ. १० पृ. ३५२
It may be noted here that Rucaka does not give any such verses of critical import at the ends of Ullāsas in his Samketa. Māņikya however gives verses at the end of each Ullāsa, in comparison with the two of Someśvara. It will be interesting to compare these verses also. So I quote them below.
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
21
: : It is hoped that this Samketa of Someśvara will be appreciated by scholars as an interesting and illuminating work on Sanskrit Poetics,
It is a pleasant duty to acknowledge the help and assistance received from scholar-friends, First and foremost is the Generel Editor of the Series-Acharya Muni Shri Jinavijayaji, who asked me to prepare, for the Rajasthān Purātattva Granthamala, a critical edition of the Kavyādarśa-Kāvyaprakāśa-Samketa which was carefully copied under his personal supervision by Pandit Keshavram Kashiram Shastri. Prof. Dr. Priyabālā Shah my former student and now colleague has rendered me assistance in a number of ways, particularly in the preparation of appendixes containing the various readings of K. P. and K. P.S. and helping me in tracing quotations in the K. P.S. to their original sources. For this labour of love my thanks are due to her.
I acknowledge with thanks the assistance received from Pandit K. K. Shastri, whose carefully prepared press-copy was of so much use to me. He also considerably helped me in indicating some paralleisms from the Samketa of Māņikyacandra as well as proof-reading. I also thank Vyakarana-Kavya Tirtha Mrs. Vasumati Shah, assistant to the Curator of the Manuscripts Department of Gujarat Vidya Sabha, who copied for me various indexes.
Ullāsa I.
सच्छब्दार्थशरीरस्य काऽलंकारव्यस्थितिः । यावत्कल्याणमाणिक्यप्रबन्धो न निरीक्ष्यते ॥ (p. 16). Ullasa II.
सम्यक्शब्द विभागश्रीस्तेषां न स्याद्दवीयसी । परिच्युता न सङ्केतायेषां मतिनितम्बिनी (p. 49 ). Ullāsa III.
मनोवृत्ते ! भोक्तुं निबिडजडिमोढापि परितः परस्मै चेत् काव्याद्भुतपरिमलाय स्पृहयसि ।
समुद्यद्वैदग्ध्यध्वनिसुभगसर्वार्थजनने तदा सङ्केतेऽस्मिन्नवहितवतीं सूत्रय रतिम् ।। (p, 58). Ullāsa IV.
न वेत्ति यस्य गाम्भीर्य गिरितुङ्गोऽपि लोलटः । तत्तस्य रसपाथोधे : कथं जानातु शङ्ककः ।। (१).
भोगे रत्यादिभावानां भोगं स्वस्योचितं ब्रुवन् । सर्वथा रससर्वस्वमर्मास्पार्टान्न नायकः ॥ (२) (p. 147). Ullāsa V.
सङ्केतगमने दत्तां मनस्सुमनसां जनः । ध्वनियंत्र गुणीभूतः श्रोत्रानन्दी निरूपितः॥ (p. 187). Ullāsa VI.
सङ्केतरीतिरेषैव ज्ञानश्रीभुक्तयेऽद्भुता । वर्णनाविषयीचके यत्र वाणीगतवनिः ।। (p. 190). Ullāsa VII.
सङ्केतवर्मनाऽनेन सम्यग्घटनतत्पराः । मदयन्ति विदग्धानां मनांसि सुमनोगिरः॥ (p. 285). Ullasa IX.
वाणी काव्यप्रकाशस्य गुणतत्त्वविवेचिनी । सङ्केतेनैव घटते यदि कस्यापि धीमतः ॥ (p. 305). Ullāsax.
गुणानपेक्षिणी यस्मिन् अर्थालङ्कारतत्परा । प्रौढापि जायते बुद्धिः सङ्केतस्सोऽयमद्भुतः ॥ (p. 469).
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
22
KAVYAPRAKASA-SAŅKETA
Prof. G. H. Bhatt, Director of the Oriental Instutite, Baroda, very kindly lent to me his copy of the Calcutta Oriental Journal containing Rucaka's Samketa.
I express my sense of gratitude to Dr. Lady Vidyagauri R. Nilkanth-Honorary Secretary of Gujarat Vidya Sabha for allowing me the use of the press-copy of K. P. S. and the oldest paper ms. of K. P. in the possession of the Institution.
Muni Shri Punyavijayaji has put me under a deep debt of obligation by supplying references to Sabdańkas which have been of material help in settling the date of Māņikyacandra. Prof. Haribar Bhatt not only found out equivalent dates of the Christian Era fi Indian dates given in the mss., but very kindly also helped me in settling the date of the paper ms. of Kävyaprakāśa.
Ahmedabad, 1-1-1957.
Rasiklal C. Parikh.
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
Appendix A Parallelisms in the Samketas of Someśvara and Māņikyacandra.
N.B.-For the first three Ullāsas of M's. Samketa, the references are to the pages of the edition of Anandāśrama Sanskrit Series, for the remaining seven, the edition of University of Mysore Sanskrit Series No. 60.
उल्लास १ सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
در
१ (1) कवेरपेक्षया अन्यशब्दनिर्देशः। (2) वक्तीति वाक्शब्दः। उच्यते इति
वागर्थः । उच्यतेऽनयेति वाग
भिधा व्यापारः। (3) यतःसुकविभिरनुबध्यमानाभावा
भचेतना अपि चेतनवचेतना अप्यचेतनवद् विवर्तन्ते ।
२ (4) कविप्रजापतिवाचश्चास्या आधि-
क्ये नियतीत्यादेरुपमेयोत्कर्षहेतोरुक्तावाक्षिप्ते चौपम्ये व्यतिरेकालंकारो व्यङ्ग्यः।
२ (1) कवेरपेक्षया अन्यशब्दनिर्देशात् । ३ (2) वक्तीति वाक्शब्दः। उच्यत इति
वागर्थः । उच्यतेऽनयेति वाग
भिधाव्यापारः। २ (3) यतोऽस्यां चेतना अपि भावाः
कविना निबध्यमाना अचेतनवदु, अचेतना अपि चेतनवत् प्रतिभा
सन्ते। ३ (4) कविब्राह्मब्राह्मीनिर्मिते ब्रह्मनिर्मितेः
सकाशात् स्वरूपप्रयोजनकारणविशेषप्रतिपादकेन नियतीत्यादिविशेषणचतुष्टयेन आधिक्ये नियतीत्यादेरुपमेयोत्कर्षहेतोरुत्या समाक्षिप्ते चोपमानोपमेयभावे व्यतिरे
कालंकारो व्यङ्ग्यः। (5) कविब्राह्मीप्रभावख्यापनेऽतीव प्र.
न्थकृतो रत्यलक्ष्यक्रमस्थायिभा.
बोऽत्र काव्ये व्यङ्ग्यः। (6) दोषपरिहारेण सगुणं सालंकार
काव्यमभिधेयम् । शास्त्रमभिधायकम् । तयोरभिधानाभिधेयल
क्षणः संबन्धः। ४ (7) प्रयोजनं सर्वत्रापि प्रवृत्त्यङ्गम् ।
यतो न प्रेक्षापूर्वकारिणो निष्प्रयोजनाः प्रवर्तन्ते । तदपि दृष्टादृष्ट
त्वाद् द्विधेत्याह-काव्यमिति । (8) अस्येदं वृत्तमस्मात् कर्मण इत्येवं
युक्तियुक्तकर्मफलसंबन्धप्रकटनकारित्वादर्थप्रधानेभ्यः।
(5) कविभारतीप्रभावख्यापने वक्तुर-
तितरां रतिरित्यलक्ष्यक्रमः स्था
यीभावोऽत्र वाक्ये व्यङ्ग्यः।। (6) दोषल्यागेन गुणालंकारसंस्कृतं
काव्यमभिधेयं शास्त्रं चेदमभिधायकं तयोरभिधानाभिधेयलक्षणः
संबन्धोऽर्थादुक्तः। (7) प्रयोजनं च सर्वत्र प्रवृत्त्यङ्गम् ।
यदुक्तम् प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । तदपि दृष्टमदृष्टं
चाह-काव्यमिति । २३ (8) अस्येदं वृत्तममुष्मात् कर्मण इत्येवं
युक्तियुक्तकर्मफलसंबन्धप्रकटनकारिभ्योऽर्थे तात्पर्य विद्यते येषामित्यर्थप्रधानेभ्यः।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
24]
KAVYAPRAKASA-SA MKETA
सोमेश्वर
पृ.
३ (१) रसस्याङ्गिनो योऽङ्गभूतो व्यञ्जनात्मा व्यापारस्तन्निष्ठतया विसहशम्
(10) यद् भट्टनायकः
शब्दप्राधान्यं to काव्यगीर्भवेत् । ९ ( 11 ) च्युतं चन्दनं, न तु क्षालितम् । निर्मृष्टो न तु किञ्चिन्मृष्टः । दूरमनञ्जने, निकटे तु साञ्जने । पुलकिता तन्वीति चोभयं विधेयम् ।
(12) व्यङ्गयपक्षे, अधम पदं च व्यञ्जकम् । अत्र शब्दशक्तिमूलो वस्तुध्वनिः ।
( 13 ) तथात्रैव स इव त्वं त्वमिव सोऽव्यधम इत्युपमेयोपमालंकारो व्य
जयः ।
( 14 ) कस्याश्चित् संकेतस्थानं जीवितसर्वस्वायमानं धार्मिकसंचरणान्तरायदोषात् तदवलुप्यमान पल्लवादिविच्छायीकरणाच्च त्रातुमियमुक्तिः ।
१० ( 15 ) नागतेति व्यङ्ग्यस्यार्थस्य मलिना मुखच्छायेत्यनयैवोक्तत्यैव विषयीकृतत्वमिति व्यङ्गयाद्वाच्यमेव सातिशयम् ।
(16) यच्च रसभावादि व्यङ्गयार्थशून्यं केवलवाच्यवाचकवैचित्र्यमात्रं तचित्रं काव्यमित्याह । शब्दचित्रमिति । विस्मयकृद् वृत्तादिवशात्, न तु सहृदयचमत्कारकारिरसनिष्यन्दमयमित्यर्थः । काव्यानुकारित्वाद् वा चित्रं लेख्यमात्रत्वाद् वा कलामात्रत्वाद् वा ।
[ उ. १
माणिक्यचन्द्र
पृ.
४ ( 9 ) रसस्याङ्गिनोऽङ्गभूतो यो व्यापारस्तत्परतया विलक्षणम्
(10) यदाह भट्टनायकः
शब्दप्राधान्यं to काव्यगीर्भवेत् । ८ ( 11 ) च्युतं न तु क्षालितम् । क्षालितमित्युक्ते व्ययार्थप्रतीतिरेव न स्यात् । वाप्यामेव क्षालनभावात् । निर्मृष्टो न तु किञ्चिन्मृष्टः । दूरमनञ्जने निकटे तु साञ्जने । पुलकितेति तन्वीति चोभयं विधेयम् । ९ (12) व्यङ्ग्यपक्षेऽधमपदस्याधमपदसहायानां चन्दनच्यवनादीनां व्यञ्जकत्वमित्येषो अर्थशक्तिमूलो वाक्यप्रकाइयो ध्वनिः । (13) तथात्रैव स इव त्वं त्वमिव सोऽयधम इत्युपमेयोपमालंकारो व्य
ङ्गयः ।
(14) कस्याश्चित् संकेतस्थानं धार्मिकसंचरणान्तरायदोषात् तदवलुप्यमान पल्लवादिविच्छायीकरणाच्च त्रातुमियमुक्तिः ।
( 15 ) नागतेति व्यङ्गयस्यार्थस्य मलिना मुखच्छायेत्यनयोक्त्या विषयी - कृतत्वमिति वाच्यमेव चमत्का रीति ।
९ ( 16 ) यच्च काव्यं केवलवाच्यवाचकवैचित्र्यभाक् तच्चित्रम् । रसादिव्यङ्गयार्थ' रहितत्वेन काव्यानुकारित्वाद् विस्मयकारिवृत्तादियोगाद् वा लेख्यसादृश्याद् वा कलामात्रत्वादिना वा ।
† A. S. °र्थत्वेन । 'रहितत्वेन in Shamhastry's edition, Mysore 1922
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास २
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
११ (1) उक्तस्वरूपाकासादिवशाद् अन्यो- ११ (1) आकाङ्क्षादिवशादनन्योन्यमन्विताः न्यमन्विताः पदार्थास्तात्पर्यापर
पदार्थास्तात्पर्यान्यनामधेयं वानामधेयं वाक्यार्थमवबोधयन्ति । क्यार्थ प्रतिपादयन्ति ।। १२-१३ (2) यद्येकस्मिन् गोपिण्डे संकेतः १३ (2) यद्येकस्मिन् गोपिण्डे संकेतः क्रि
क्रियते तदान्येषु कर्तुं न यते तदान्येषु कर्तुं न शक्यते । शक्यते।।
१३-१४ (3) न खलु डिशब्दोच्चारे त्थशब्दः। १३-१४ (3) न खलु 'डि'शब्दोच्चारणकाले
त्थशब्दोच्चारे वा डिशब्दः। 'स्थ'शब्दोऽस्ति, [त्थ] शब्दो
अत एव संहृतक्रमं स्वरूपम् । वारणकाले वा 'डि'शब्द इति।
तत् खलु तां तामभिधाशक्तिमअत एव संहृतक्रमं स्वरूपम् ।
भिव्यञ्जयता वक्त्रा यदृच्छयोतत् खलु तां तामभिधाशक्ति
पाधितया संज्ञिनि तस्मिंस्तस्मिमभिव्यञ्जयता वक्त्रायदृच्छया
निवेश्यते । तस्माच्छब्दप्रवृत्तिसंक्षिनि निवेश्यते । तस्माच्छ
निमित्तानां चतुष्ट्वान्मुख्यब्दप्रवृत्तिनिमित्तानां चतुष्वाद
शब्दश्चतुर्विधः। मुख्यः शब्दश्चतुर्विधः।। १४-१५ (4) यदृच्छाशब्देषु शुकसारिका- १५ (4) यदृच्छाशब्देषु शुकसारिकाधुमनुष्याधुदीरितेषु भिन्नेषु सम
दीरितेषु भिन्नेषु डित्थत्वादिकं वेतं डित्थशब्दत्वादिकं सामा
सामान्यमेव यथायोगं संशिष्वन्यमेव यथायोगं संक्षिषु अध्य
ध्यस्तमभिधेयम् । यदि वोपचस्तमभिधेयम् । यदि वा उपच
यापचययोगितया डित्थादौ यापचययोगितया डित्थादौ
संशिनि प्रतिक्षणं भिद्यमानेऽसंझिनि प्रतिकलं भिद्यमाने
प्यभिद्यमानो यन्महिना ध्वभिद्यमानो यन्महिना डित्थो
डित्थडित्थ इत्येवमभिन्नाकारः डित्थ इत्येवमादिरूपत्वेन अभि
स्यात्तथाभूतं डिस्थादिशब्दानाकारः प्रत्ययो जायते । तत्
वसेयवस्तुसमवेतमेव डित्थतथाभूतं डित्थादिशब्दावसेय
त्वादिसामान्यम् । तच्च डित्थावस्तुसमवेतमेव डित्थत्वादि
दिशब्दैरभिधीयत इति गुणसामान्यं, तञ्च डित्थादिशब्दैर
क्रिया यदृच्छाशब्दानामपि भिधीयत इति गुणक्रिया
जातिरेवैकः शब्दार्थ इति । यहच्छाशब्दानामपि जातिशब्दाद् जातिरेवैकः शब्दार्थ
इति भट्टाः। (5) जातेरर्थक्रियायामनुपयोगाद् (5) जातेरर्थक्रियाकारित्वाभावाद्
विफलः संकेतः यदाह 'न हि विफलः संकेतः । व्यक्तेस्त्वर्थ.. जातिर्दाहपाकादौ उपयुज्यते' क्रियाकारित्वेऽप्यानन्त्यव्यभिइति । व्यक्तेस्त्वर्थक्रियाकारि
चाराभ्यां न संकेतः कर्तुं शक्यत वेऽपि भानन्स्यव्यभिचाराभ्यां इति जातिमती व्यक्तिः शब्दार्थ
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
26]
KAVYAPRAKASA-SANKETA
सोमेश्वर
पृ.
१४-१५ (5) न संकेतः कर्तुं शक्यत इति जात्युपहिता व्यक्तिः शब्दार्थः इति वैशेषिकाः ॥ अपोह इति । जातिव्यक्तितद्योगजातिमबुद्ध्याकाराणां शब्दार्थत्वस्य अनुपपद्यमानत्वाद् गवादिशब्दानामगोव्यावृत्त्यादिरूपः शब्दार्थः इति बौद्धाः ।
( 6 ) शब्दस्य मुख्येन लाक्षणिकेन वा व्यापारेण अर्थावगतिहेतुत्वमिति मुख्यं तावद् अर्थमाह-स मुख्योऽर्थ इति । साक्षात् संकेतितो मुखमिव हस्ताद्यवयवेभ्योऽर्थान्तरेभ्यः प्रथमं प्रतीयमानत्वात् । यदुक्तम्शब्दव्यापारतो to इप्यते ॥ मुख्यार्थविषयः शब्दोऽपि मुख्यः ॥ तत्रेति । अर्थविषये । समयापेक्षा वाच्या अवगमनशक्तिरभिधाशक्तिः ॥ १५-१६ (7) वाचकस्य शक्तिमुक्त्वा लाक्षणिकस्य लक्ष्यार्थदर्शनद्वारेण व्यापारमाह-मुख्यार्थेति । मुख्यस्यार्थस्य अनुपपत्तेरनुपयोगाच्च प्रत्यक्षादिप्रमाणेन बाधे तेन मुख्येनार्थेन सह लक्ष्यस्यार्थस्य योगे संबन्धे सादृश्यादौ सति रूढेः प्रयोजनाद् वातिपarrant [a]लत्वादेरशब्दान्तरवाच्यात् ताद्रूप्यप्रतिपत्यादिरूपाद् अमुख्यः शब्दव्यापारो लक्ष्यार्थविषयो लक्षणाशक्तिः । कारिकामेव उदाहरणद्वारेण व्याकुर्वन्नाह-कर्मणीति । कुशान लातीति-दर्भग्रहणायोगाद् मुख्यार्थबाधे विवेचकत्वादौ संबन्धे प्रसिद्धे प्रसिद्धिवशात् प्रवीणलक्षणो लक्ष्योऽर्थो लक्षणाव्यापारेणावगम्यते । आदिशब्दाद्
पृ.
१५
उ. २
माणिक्यचन्द्र
इति वैशेषिकादयः । अपोह इति । जातिव्यक्तितद्योगजातिमद्बुद्ध्या- काराणां शब्दार्थत्वस्याननुपपाद्यमानत्वाद् गवयादिशब्दानामगोव्यावृत्त्यादिरूपोऽपोहः शब्दार्थ इति बौद्धाः ।
१६ ( 6 ) शब्दस्य मुख्येन लाक्षणिकेन व्यञ्जनात्मकेन वा व्यापारेणार्थावगतिहेतुत्वमिति मुख्यं तावदर्थ - माह-स मुख्योऽर्थ इति । स सा क्षात् संकेतितो मुखमिव हस्ताद्यवयवेभ्योऽर्थान्तरेभ्यः प्राग्र ज्ञायमानत्वात् । मुख्यार्थविषयः शब्दोऽपि मुख्यः । तत्रेति । अर्थविषये । समयापेक्षया वाच्यावगमनशक्तिरभिधाशक्तिः ।
(7) अथेदानीं लाक्षणिकस्य लक्ष्यार्थदर्शनद्वारेण व्यापारमाह-मुख्यार्थेति । मुख्यार्थस्यानुपपत्तेरनुपयोगाच्च प्रत्यक्षादिप्रमाणेन बाघे तेन मुख्यार्थेन सह लक्ष्यार्थस्य योगे संबन्धे सादृश्यादौ सति रूढेः प्रयोजनात् पावित्र्यशैत्यादेरशब्दान्तरवाच्यात् ताद्रूव्यप्रतीत्यादिरूपादन्योऽर्थो यलक्ष्यते प्रतिपाद्यते यत्साम्यादमुख्यः शब्दव्यापारो लक्ष्यार्थनिष्ठो लक्षणाशक्तिः । यदिति । वाक्यार्थनिर्देशः । सेति । विधीयमाना लक्षणा | सर्वनामपदं हि कदाचिदनूद्यमानलिङ्गमादत्ते कदाचि - द्विधीयमानलिङ्गमिति । उदाहरणद्वारेण व्याकरोति-कर्मणीति । कुशाँ लातीति दर्भग्रहणायोगान्मुख्यार्थबाधे विवेचकत्वादी संबधे रूढेः प्रवीणोऽर्थो लक्षणाव्या
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.२]
INTRODUCTION : APPENDIX A
[27
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
१६-१७ (7) पारेण लक्ष्यते । आदिशब्दाद्
द्विरेफद्विकानुलोम्यप्रातिलोम्यलावण्यदयः । द्विरेफशब्देन रेफद्वितययोगिभ्रमरपदलक्षणार्थलक्षणाद्वारेण रूढ्यनुवृत्तिरेव षट्पदादौ क्रियते। तुरङ्गकान्ताननहव्यवाहज्वालेव भित्त्वा जलमुल्ललास । इत्यादौ तुरङ्गकान्ताननहव्यवाहशब्दो वडवामुखाग्नौ लक्षणया प्रवृत्तः । न च तत्र रूढः । व्यव हारेऽनभ्यनुशातत्वादिति द्रष्टव्यम् । सति तु गुप्तार्थप्रतिपादनादिप्रयोजन एवंविधलक्षणा अप्यदुष्टाः। यद्भट्टकुमारिल:निरूढा to त्वशक्तितः। 'निरूडा' इति भ्रष्टोपाचारप्रतीतयः ।
लक्षणा' इति लक्षणाशब्दाः । 'अभिधानवद्' वृक्षादि नामवत् ।
१५-१६ (7) द्विरेफादयः। द्विरेफशब्देन हि
रेफद्वितययोगिभ्रमरशब्दे लक्षणाद्वारेण रूढ्यनुवृत्तिरेव क्रियते यथा वा लावण्यादयो लवणरसयुक्तत्वादेः स्वार्थाद् अन्यत्र हृद्यत्वादौ लक्ष्ये रूढाः ॥ तुरङ्गकान्ताननहव्यवाहज्वालेव भित्त्वा जलमुल्ललास । इत्यादौ तु तुरंगकान्ताननहव्यवाहशब्दो वडवामुखाग्नौ लक्षणया प्रयुक्तः । न चासौ तत्र रूढो, वृद्धव्यवहारेष्वननुशातत्वादितिदुष्टत्वम् । सति तु गुप्तार्थप्रतिपादनादिप्रयोजनसद्भावे एवंविधानामपि लक्षणानामदुष्टत्वम् । यद् भट्टकुमारिल:निरूढा to त्वशक्तितः। 'निरूढा' इति भ्रष्टोपचारप्रतीतयः । 'लक्षणा' इति लक्षणाशब्दाः ।'अभिधानव
दिनामशब्दवत्॥ १६.१७ (8) सान्तरः सव्य[वधानस्तटा-
दिलक्षणोऽर्थस्तदाश्रया क्रिया शब्दव्यापारो लक्षणा । तथा हि गङ्गाशब्दोऽभिधेयस्य स्रोतोविशेषस्य घोषाधिकरणतानुपपत्त्या मुख्यशब्दार्थबाधे योऽसौ समीप-समीपिभावात्मकः संबन्धस्तदाश्रयेण तटं लक्षयति । लक्षणायाश्च प्रयोजन तटस्य गङ्गात्वैकार्थसमवेता. संविज्ञातपदपुण्यत्वादिप्रतिपादनं व्यङ्ग्यम् । न हि तत्पुण्यत्वादिशब्दान्तरैः स्प्रष्टुं शक्यते। तद्योगश्च मुख्यार्थासन्नत्वम् । तत् पश्चधा आचार्यभर्तृ मित्रेण उक्तम्
अभिधेयेन संबन्धात् साहश्यात् समवायतः । वैपरीत्यात् क्रियायोगाल्लक्षणा पश्चधा मता॥
१७ (8) सव्यवधानस्तटादिलक्षणोऽर्थस्त
दाश्रया क्रिया शब्दव्यापारो लक्षणा । तथाहि । गङ्गाशब्दाभिधेयस्य स्रोतसो घोषाधारतानुपपत्तेर्मुख्यार्थबाधे योऽयं समीपसमीपिभावात्मा संबन्धस्तदाश्रयेण तटं लक्षयति । लक्षणायाश्च प्रयोजनं तटस्य गङ्गात्वैकार्थसमवेतपुण्यत्वमनोरमत्वशैत्यादिप्रतिपादनं व्यङ्ग्यम् । न हि तत् पुण्यत्वादिशब्दान्तरैः स्प्रष्टुं शक्यते । तद्योगश्च तत्रासन्नत्वम् । तत्पश्चधोक्तं अभिधेयेन up to पञ्चधा मता । संबन्धाद्यथागङ्गायां घोषः । सादृश्याद्यथागौर्वाहीको गौरेवायमित्यादी मुख्यार्थस्य सानादिमत्त्वेन प्रत्यक्षादिना प्रमाणेन बाधेऽभिधे
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
28 ]
KAVYAKRA KASA-SAMKETA सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र १७-१८ (8) अभिधेयेन संबन्धाद् । यथा १७ (8) येन सादृश्यात् तद्गतजाड्यमान्द्या. 'गङ्गायां घोषः। सादृश्याद, यथा
दिगुणयुक्तो वाहीको लक्ष्यते । 'गौर्वाहीको गौरेवायम्' इत्यादी
प्रयोजनं तादूप्यप्रतिपत्यादि । मुख्यस्यार्थस्य सानादिमत्वादेः
एते च सारोपासाध्यवसानालप्रत्यक्षादिना प्रमाणेन बाधेऽभि
क्षणागौणलक्षणाया उदाहरणे। धेयसादृश्यात् तद्गतगुणसदृश
समवायः साहचर्यम् । यथा गुणयुक्तमर्थान्तरं वाहीकलक्षणं
कुन्ताः प्रविशन्तीत्यादौ कुन्तालक्षयति । प्रयोजनं च ताद्रूप्य
दीनां प्रवेशानुपपत्त्या मुख्यार्थप्रतिपत्त्यादि । एते च सारोपायाः
बाधे साहचर्यात् पुरुषा लक्ष्यन्ते। साध्यवसानायाश्च गौणलक्षणाया
प्रयोजनं च रौद्रत्वादीनां सातिउदाहरणे । समवायः साहचर्यम् ,
शयानां प्रतिपादनम् । वैपरीत्यायथा 'कुन्ताः प्रविशन्ती'त्यादौ
द्भद्रमुखः । अत्र भद्रमुखशब्दकुन्तानां प्रवेशस्य असंभवान्मु
स्याभद्रमुखे प्रयोगात् स्वार्थबाधः। ख्यार्थवाधे साहचर्यात् पुरुषा
अतोऽसौ स्ववाच्यभूतभद्रमुलक्ष्यन्ते । कुन्तवन्त इति च
खत्ववैपरीत्यादभद्रमुखत्वं लक्षप्रयोगाद येषां रौद्रत्वादीनां
णयाऽवगमयति । प्रयोजनं तु धर्माणां न तथा प्रतिप
गुप्तासभ्यार्थप्रतीतिः । क्रियायोत्तिस्तेषां सातिशयानां प्रतिपत्तिश्च प्रयोजनम् । वैपरीत्याद्, भद्र
गाद्यथा महति समरे शत्रुघ्नत्यमुख इति । अत्र भद्रमुखशब्दस्य
मिति । अत्राशत्रुघ्ने शत्रुघ्नप्रयोअभद्रमुखे प्रयोगात् स्वार्थबाधः।
गात्स्वार्थबाधः । शत्रुघ्नशब्दश्चाअतोऽसौ स्ववाच्यभूतभद्रमुख
शत्रुघ्ने हननक्रियायाः कर्तृत्वावैपरीत्याद् अभद्रमुखत्वं लक्षणया
योगाल्लक्षणया प्रयुक्तः । प्रयोजन वगमयति । प्रयोजनं चात्रापि
च वर्ण्यमानशत्रुघ्नशब्दाभिधेयगुप्तासभ्यार्थप्रतीतिः । क्रियायो
नृपरूपताप्रतिपादनम् । एवं निरगात् कार्यकारणयोगाद, यथा
न्तरार्थनिष्ठशब्दव्यापारोऽभिधा । पृथुरसि गुणैर्मूर्त्या to त्रिलोक
सान्तरार्थनिष्ठस्तु लक्षणा । तेनाविजय्यपि ॥
भिधैव मुख्याथै बाधिता सत्यअत्र शत्रुघ्ने शत्रुघ्नशब्दप्रयोगाद्
चरितार्थत्वादन्यत्र प्रसरतीति मुख्यार्थबाधः । शत्रुघ्नशब्दश्च
तत्पुच्छभूतैव लक्षणा। अशत्रुघ्ने शत्रुहननक्रियाकर्तृत्वयोगाल्लक्षणया प्रयुक्तः । प्रयोजनं च वर्ण्यमानस्य शत्रुघ्नशब्दाभिधेयनपतिरूपताप्रतिपादनम् । एवं निरन्तरार्थविषयः शब्दस्य व्यापारोऽभिधा । सान्तरार्थनिष्ठश्च निबन्धनत्रयसमुद्भवो लक्षणा । तेन अभिधैव मुख्येऽर्थप्रविवृत्सुर्बाधकेन निरुध्यमाना सती अचरितार्थत्वाद अन्यत्र प्रसरतीत्यभिधापुच्छभूतैव लक्षणा।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. २]
INTRODUCTION : APPENDIX A
[29
सोमेश्वर
पृ.
माणिक्यचन्द्र १८ (9) यथान्यैर्मुकुलादिभिरुक्ता। न च
क्रमेण द्वयोर्वाच्यता । शब्दबुद्धि
कर्मणां विरम्य व्यापाराभावात् । १९ (10) अयमभिप्रायः--यत्र शब्दः सर्वथा
स्वमर्थे त्यजन्नन्यं लक्षयति तत्र लक्षणेन तटादिज्ञापनेन लक्षणा । यत्र तु स्वार्थमपि वदन्नन्यमुपा
दत्ते तत्रोपादानेनेति। (11) एतदेव द्रढयति-अनयोरिति । त
टादीनां लक्ष्याणां प्रतिपादने भेदात्मकं न ताटस्थ्यम् । कुन्तपुरुषयोगङ्गातटयोश्चाभेद एवेति यदन्यैस्तटस्थे लक्षणा शुद्धत्युक्तं तषितमित्याह-तत्त्वप्रतिपत्तौ हीति । भेदे तु गङ्गासंबन्धमात्रप्रतीतेन लक्षणाविशेषः।
१८ (9) यथान्यैर्भट्टमुकुलादिभिरुदाहृतान
च क्रमेण द्वयोर्वाच्यता विरम्य
व्यापारद्वयाभावादित्यन्योक्तेनाह। १९ (10) अयमभिप्रायः। यत्र शब्दः स्वमर्थ
सर्वथा त्यजन्नन्यं लक्षयति तत्र लक्षणेन लक्षणा । यत्र तु स्वार्थमपि वदन्नन्यमर्थमुपादत्ते तत्रो
पादानेनेति । (11) एतदेव द्रढयन्नाह-अनयोरिति ।
तटादीनां लक्ष्याणां प्रतिपादने मेदात्मकं न तटस्थत्वम् । किंतु कुन्तपुरुषयोगङ्गातटयोश्च अभेद एवेति यदन्यैस्तटस्थे लक्षणाशुद्धत्युक्तं तदयुक्तमित्याह-तत्त्वप्रतिपसोहीति । तस्य भावस्तत्त्वमभेदः, तस्य प्रतिपत्तौ हि प्रतिपिपादयिषितमशब्दान्तरवाच्यं यदपरिमितं रौद्रत्वादिपावनत्वादिप्रयोजनं तस्य प्रतीतिः । मेदे तु गङ्गासंबन्धमात्रप्रतीतिर्न लक्षणाया वि.
शेषः॥ २०-२१(12)यत्रोपमानगतगुणसदृशगुणयो
गलक्षणां पुरःसरीकृत्य उपमेये उपमानशब्द आरोप्यते तौ गौणौ, गुणेभ्य आगतत्वाद्
गौणशब्दवाच्यौ। २१ (13) स्वार्थो गोशब्दस्य गोपिण्डः,
परार्थो वाहीकादिः। गोशब्दो वाहीकशब्देन अनुपपद्यमानसमानाधिकरणत्वाद् बाधितमुख्यार्थः सन् स्वाभिधानपुरःसरं स्वसहचारिजाड्यादिगुणाल्लक्षयित्वा तत्सदृशवाहीकगतजाड्यादिगुणलक्षणाद्वारेण गोगुणसदृशगुणोपेते वाहीके उपचरितः, तेनेयमु- पचारमिश्रा । लक्षणाद्वयगर्भीकारेण चतुर्थकक्षायां लक्षणेति लक्ष्यमाणगुणमुखेन गोशब्दो वाहीके लक्षणया प्रवर्तत इत्यर्थः ।
२१ (12) यत्रोपमानगतगुणतुल्यगुणयोगल
क्षणां पुरःसरीकृत्योपमेय उपमानशब्द आरोप्यते तो गौणौ । गुणेभ्य आगतत्वाद् गौणशब्द
वाच्यौ । (13) स्वार्थो गोशब्दस्य गोत्वं पिण्डाक
तिर्वा । व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थ इति वचनात् । परार्थो वाहीकः । तथा च गोशब्दो वाहीकशब्देऽनुपपद्यमानसामानाधिकरण्याद् बाधितस्वार्थः सन् स्वाभिमानपूर्व स्वार्थसहचारिजा
ड्यादिगुणोल्लक्षयित्वा तत्तुल्यवा२१ हीकस्थजाड्यादिगुणलक्षणाद्वारेण
गोगतगुणतुल्यगुणोपेते वाहीक उपचरितः। शब्दोपचारस्याओंपचारादिना भावित्वात् तदर्थोऽपि । केचिच्छब्दोपचारमेव.
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
10]
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
[उ.२
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
२१(13) न तु परार्थोऽभिधीयत इति ।
गोशब्देन स्वार्थसहचारिगुणलक्षणापूर्वं तदभेदेन वाहीकगताः खसदृशा गुणा एव लक्ष्यन्ते, सव्यवधानशब्दव्यापारात् । न तु वाहीकार्थोभिधीयत इत्येकलक्षणागभैयं तृतीयकक्षायां लक्षणेत्याहुः। 'अभिधीयत' इति । लक्ष्यते ।
२१ (13) मन्यन्ते । एवमन्यत्रापि । तेने
यमुपचारमिश्रा । लक्षणाद्वयगर्भीकारेण चतुर्थकक्षायां लक्षणेति । चतुर्थकक्षात्वं लक्षणाया अभिधापेक्षया झेयम् । लक्ष्यमाणगुणयोगेन गोशब्दो वाहीकलक्षणया प्रवर्तत इत्यर्थः । गर्भलक्षणयोरन्त्यलक्षणार्थ प्रवृत्तत्वात् तत्प्रयोजनेन प्रयोजनवत्त्वं न तु तयोभिन्नं प्रयोजनम् । न तु परार्थो- गोशब्देन स्वार्थसहचारिगुणलक्षणापूर्व तदभेदेन वाहीकस्थाः स्वतुल्या गुणा एव लक्ष्यन्ते । सव्यवधानव्यापारात् । न तुवाहीकार्थोऽभिधीयत इत्येकलक्षणागर्भेयं तृतीयकक्षायां लक्षणेत्याहुः । 'अभिधीयत' इति लक्ष्यते।
(14) साधारणेति । गोर्वाहीकस्य साधा
रणाः सदृशा ये गुणास्तदाश्रयेण वाहीकार्थ एव लक्ष्यः। अभिधेयेति। मुख्यादर्थाद् अविनाभूता तत्संबद्धैव यार्थान्तरप्रतीतिःसा लक्षणा शुद्धत्यर्थः। लक्ष्यमाणैश्च जाड्यादिभिः संबन्धाद् या वृत्तिः सव्यवधानार्थनिष्ठः शब्दव्यापारः सा गौणी । नान्तरीयकत्वमिति । न अन्तरं नान्तरम् । अविनातत्रभवं नान्तरीयं, तदेव नान्तरीयकमविनाभावि, येन विना यन्न भवति तन्नान्तरीयकं, तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणं जातिव्यक्त्यादिवत । तत्त्वे हीति । नान्तरीयकत्वेन हि मञ्चपुरुषयोरविनाभावोऽस्ति । अविनाभावे चेति । नान्तरीयकत्वे गौरनुबन्ध्य इत्यादौ ।
(14) साधारणेति । गोर्वाहीकस्य च सा
धारणास्तुल्या ये गुणास्तदाश्रयेण वाहीक एव लक्ष्यः । अभिधेयेति। मुख्येनार्थेनाविनाभूतस्य केनापि संबन्धेन संबद्धस्यान्यवस्तुनो या प्रतीतिः सा लक्षणा शुद्धत्यर्थः । लक्ष्यमाणैर्गुणैर्जाड्यादिभिः संबन्धाद् या तु वृत्तिः सान्तरार्थनिष्ठः शब्दव्यापारः सा गौणी। 'नान्तरीयकत्वमिति' नान्तरमविनाभावः। बत्र भवं नान्तरीयम् । गहादित्वादीयः। तदेव नान्तरीयकमित्ति । अविनाभावि येन विना यन्न भवति तन्नान्तरीयकं तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणं कृतकत्वानित्यत्वादिवत् । तथात्वे हीति । नान्तरीयं हीत्यर्थः । न हि मश्चापुरुषयोरविनाभावोऽस्ति । इत्युक्तमिति।गौरनुबन्ध्यइत्यत्र ।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.२] INTRODUCTION : APPENDIX A
[31 सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र २५(14a)यदि च सिंहो बटुरिति शौर्याति- २६ (14a)यदि च सिंहो माणवक इति शौशयेऽवगमयित्वे स्खलनतित्वं श
र्यातिशयेऽवगमयितव्ये स्खलद्गब्दस्य, तत् तर्हि प्रतीति नैव कुर्या- तित्वं शब्दस्य किमर्थ तस्य प्रयोदिति किमर्थं तस्य प्रयोगः। 'गम्य' गः। गम्य इति ण्यन्तो निर्देशः। इति ण्यन्तो निर्देशः कर्तव्य इति । शब्दावगमयितव्य इत्यर्थः। ना'अन्यत इति' अभिधालक्षणाव्या
न्यत इति । अभिधालक्षणाव्यापारात् । शब्दादिति । गङ्गादेः।
पारात् । 'शब्दादिति' । गङ्गादेः । २६ (15) यथा तटस्य प्रयोजनप्रतिपादने २७ (15) यथा तटस्य प्रयोजने प्रति
ऽसामर्थ्य, न तथा गङ्गाशब्दस्य । पाद्येऽसामर्थ्य न तथा गङ्गाशब्दतस्मादभिधालक्षणातिरिक्तस्त
स्य । तस्मादभिधालक्षणाभ्यामन्यच्छक्तिद्वयोपजनितार्थावगमपवि
स्तच्छक्तिद्वयोपजनितार्थावगमपत्रितप्रतिपत्तप्रतिभासहायार्थद्यो- वित्रितप्रतिपत्तृप्रतिभासहायार्थ- ... तनशक्तिवननात्मा व्यापारः,
द्योतनशक्तिर्ध्वननात्मा व्यापारः । तेन यत्केनचिल्लक्षितलक्षणेति ना- तेन यत्केनचिल्लक्षितलक्षणेति नाम कृतं तद् व्यसनमात्रम् । तथा
मकृतं तद्वयसनमात्रं तथाभावे च भावे च प्रयोजने लक्ष्ये प्रयो
प्रयोजने लक्ष्ये प्रयोजनान्तरान्वेजनान्तरान्वेषणेन अनवस्थानाद्
षणेनानवस्थानादतिप्रसक्तिः। अतिव्याप्तिः स्यात् ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास ३ सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र ३१ (1) अर्थो व्यञ्जको यदि निरपेक्षस्त- ३१ (1) अर्थो व्यञ्जको यदि निरपेक्षस्तत्स
त्सर्वदा तमर्थमवगमयेत् । अथ दातमर्थमवगमयेत् । अथ सापेक्षः सापेक्षः किं तस्यापेक्षणीयमि- किं तस्यापेक्षणीयमित्याह-वक्तत्याह-वक्तृबोद्धव्येति ।
बोद्धव्येति । (2) काचिद् अविनीतवधूः कृतपरपुरुष- (2) अत्र काचिद् असती कृतान्यपुरुषसंभोगा गात्रगतविकारविशेषा
सङ्गा कायगतविकारविशेषापह्नवेपह्नवेनाभिधत्ते । तस्याश्च असा
नाभिधत्ते । तस्याश्च असाध्वीत्वे ध्वीत्वे अवगते तृतीयस्य तटस्थस्य ऽवगते तृतीयस्य तटस्थस्य प्रतिप्रतिभाजुषो व्यङ्ग्यप्रतीतिः।।
भाजुषो व्यङ्ग्यप्रतीतिः। . (3) 'ककि लौल्ये' इत्यस्य धातोः । __३२ (3) यद्वा ककि लौल्य इत्यस्य धातोः 'काकु'शब्दःप्रकृतार्थातिरिक्तमपि
काकुशब्दः । प्रकृतार्थातिरिक्तमपि वाञ्छति-इति लौल्यमस्याभि
वाञ्छतीति लौल्यमस्याभिधीधीयते । यद्वा ईषदर्थे कुशब्दस्य यते । यद्वा ईषदर्थे कुशब्दस्य काकादेशः। तेन हृदयस्थवस्तुप्रती- देशः। तेन हृदयस्थवस्तुप्रतीतेतेरीषभूमिः काकुः।
रीषद्भूमिः काकुः। ३२ (4) ननु 'तथाभूतां दृष्टा' इत्यादि- (4) ननु तथाभूतामित्यादिवाच्यसिवाच्यस्य सिद्धौ काकुः स्वरविशे
द्धौ काकुरयं खरविशेषः कारणषोऽङ्गकारणमिति-वाच्यसिद्ध्यङ्ग
मिति गुणीभूतव्यङ्गभेदः कथं न लक्षणो गुणीभूतव्यङ्गयमेदः स्यादित्याशङ्कयाह न च वाच्येकथं न भवतीत्याशङ्कयाहन च ति । हे सहदेव कुरुषु न खेदो गुवाच्येति । 'हे सहदेव कुरुषु
रोर्यन्मयि खेद इत्येवंरूपप्रश्नमात्रेकिं न खेदो गुरोः यन्मयि खेदः'
णापि काकोर्विश्रान्तेः । काकोस्तु इत्येवंरूपेण प्रश्नमात्रेणापि यद् वैशिष्ट्यं तत्पर्यालोचनया काकोर्विश्रान्तत्वात् । काकोस्तु
सहदेवस्य व्यङ्गयप्रतीतिरिति नैष यद् वैशिष्ट्यं तत्पर्यालोचनया काक्वाक्षिप्तो गुणीभूतव्यङ्गभेदः ।
सहृदयस्य व्यङ्गयार्थप्रतीतिः। ३४ (5) मिथः संयोग इति । तत्र वक्तृबोद्ध- ३५ (5) मिथः संयोग इति । तत्र वक्त
व्ययो गेयथा-अत्ता इत्थ नु मजइ बोद्धव्ययोगे यथा-अत्ता एत्थ ति । अत्तेति श्वश्रूरसहिष्णुः, न
इति। अत्तेति श्वश्रूरसहना । न तु माता । तेन गुप्तमभिलाषः
तु माता । तेन गुप्तमभिलाषा पोषणीयः। न च सर्वदा भयदे- पोष्यः। अत्र दूरे सा शेते । अत्र त्याह । अत्रेति । दूरे सा च शेते न
त्वन्मार्गनिकटेऽहमुपभोगयोग्या। जागर्ति । अत्र त्वन्मार्गनिकटेऽह
सांप्रतं विघ्नकारित्वात् कुत्सितं मुपभोगयोग्या । सांप्रतं विघ्न
दिवसं दिवसकम् । प्राकृते पुनकारीति कुत्सितं दिवसम् । प्रा
पुंसकयोरनियमः। तस्मात् संप्रति कृते पुनपुंसकयोरनियमः। तस्मात्
विलोकय । मिथो धपत्रावलोकसंप्रति विलोकय । अन्योन्य
नेन दिनातिवाहनं कुर्वस्तावदि
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.४]
INTRODUCTION : APPENDIX A
[8
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
५.
३४ (5) वदनविलोकनविनोदेन दिनं ताव-
दतिवाहयाव इत्यर्थः । रात्रावधिकमदनोद्रेकादन्ध शय्याविभागानभिज्ञ शय्यायां मा शयिष्ठा अपि तु प्रहरचतुष्टयमपि निधुव
नेन क्रीडा [व इत्यर्थः] (6) विवक्षितान्यपरवाच्येऽर्थशक्ति
मूले शब्दस्यापि सहकारित्वं भवत्येव, विशिष्टशब्दाभिधेयतया विना तस्यार्थस्य अव्यञ्जकत्वात् । ततः शब्दार्थयोरुभयोरपि व्यञ्जकत्वं, केवलमर्थस्यात्र मुख्यत्वम् ।
३५ (5) त्यर्थः । पथिकेति चेतितेऽपि तव
न दोषकारीति न भेतव्यम् । रात्रौ राव्या वा स्मरोद्रेकादन्ध .शय्याविभागानभिज्ञ शय्यां मा
शयिष्ठा अपि तु प्रहरचतुष्टयम
पि क्रीड। ३६ (6) विवक्षितवाच्येऽर्थशक्तिमूले
शब्दस्यापि सहकारित्वमस्ति यतो विशिष्टशब्दाभिधेयतया विनाsर्थस्याव्यञ्जकत्वात् । ततो द्वयोरपि व्यञ्जकत्वम् । केवलमर्थस्य मुख्यं व्यञ्जकत्वं शब्दस्य तु सहकारिभावेन।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास ४
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
४२ (1) रसनाव्यापारगोचरत्वेन कषाय- ६८ (1) कषायफलचर्वणपरपुरुषदशनप्रभ
फलचर्वणपरपुरुषदर्शनप्रभवमुख- वमुखप्रसेककलनाकल्पनया रसप्रसेककलनारूपेण हेतुना अन्या
नीयस्वरूपतयाऽन्येभ्योऽनुमीयनुमेयविसदृशः।
मानेभ्यो विलक्षणः। (2) सामाजिकजनास्वाद्यमानो मुख्य- ६९ (2) सभ्यानां मुख्यरामाद्यनुगतस्थाय्यरामादिगतस्थाय्यनुकरणरूपत्वा
नुकरणरूपः अनुकरणरूपत्वादेव देव च नामान्तरेण व्यपदिष्टो
च नामान्तरेण व्यपदिष्टो रत्यादी रस्यमानत्वाद् रसः।
रसः। (3) स्थायी तु काव्यबलादपि नानु- ६८ (3) स्थायी तु काव्यबलादपि नानुसंधातुं शक्यः। रतिः शोक
संधेयः । रतिश्शोक इत्यादयो हि. . इत्यादयो हि शब्दा रत्यादिकमभि- शब्दा रत्यादिकमभिधेयीकुर्वधेयीकुर्वन्ति अभिधानत्वेन, न तु न्त्यभिधानत्वेन न तु वाचिकाभिवाचिकाभिनयरूपतयावगमयन्ति। नयरूपतयाऽवगमयन्ति । न हि न हि वागेव वाचिकम् , अपि तु वागेव वाचिकम् , अपि तु तया तया निवृत्तमङ्गैरिवाङ्गिकम् । तेन निर्वृत्तं, अङ्गैरिवाङ्गिकम् । तेनविवृद्धात्माप्यगाधोऽपि दुरन्तो- विवृद्धात्माऽप्यगाधोऽपि दुरन्तोऽपि महानपि । वाडवेनेव जलधिः ऽपि महानपि । वाडवेनेव जलधिः शोकः क्रोधेन पीयते ॥
शोकः क्रोधेन पीयते ॥ इत्यादौ न शोकोऽभिनेयः, अपि इत्येवमादौ न शोकोऽभिनेयः, तु अभिधेयः ॥
अपि त्वभिधेयः। हि, अनुकरणरूपो रस ६९ (4) तथा हि-अनकरणरूपो रस इति इत्युक्तं न च तद् युक्तम् , यतः
वदेत् तन्न किञ्चिद्धि प्रमाणेनोपकिंचिद्धि प्रमाणेनोपलब्धं तदनु
लब्धं तदनुकरणमिति शक्यं वकरणमित्युच्यते, यथैव 'असौ कुम् । यथा एवमसौ सुरां पिबसुरां पिबति' इति सुरापानानुक
तीति सुरापानानुकरणत्वेन जलरणत्वेन पयःपानं प्रत्यक्षावलो
पानं प्रत्यक्षेक्षितं भाति । इह च कितं प्रतिभाति । इह च नरगतं
नटगतं किञ्चिदुपलब्धं स इत्यनुकिं तदुपलब्धं सद् रत्यनुकरण
करणतया भातीति चिन्त्यम् । तया भातीति चिन्त्यम् । तच्छरीरं तद्वपुस्तनिष्ठं प्रतिशीर्षकादि रोमातनिष्ठं प्रतिशीर्षकादि रोमाञ्चग- ञ्चगद्गदिकादि भुजाक्षेपवलनादि द्रादिकादि भुजाक्षेपवलनप्रभृति भ्रूक्षेपकटाक्षादि च न चित्तवृत्तिभ्रूक्षेपकटाक्षादिकं च न रतेश्चित्त
रूपरतेरनुकारत्वेन कस्यचिद्भाति, वृत्तिरूपाया अनुकारत्वेन कस्य- जडत्वभिन्नैन्द्रियग्राह्यत्वभिन्नाचित् प्रतिभाति जडत्वेन भिन्ने- धिकरणत्वैस्ततोऽतिवैलक्षण्यात् । न्द्रियग्राह्यत्वेन भिन्नाधिकरणत्वेन च ततो वैलक्षण्यात् ।
४३ (4)
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. ४]
INTRODUCTION APPENDIX A
सोमेश्वर
पृ.
४५ (5) काव्येऽपि च लोकनाट्यधर्मिस्थानीयेन स्वभावोक्तिवक्रोक्त्तयादिप्रकारद्वयेनालौकिकप्रसन्नमधुरौजस्विशब्दसमर्प्यमाणविभावादियोगादियमेव रसना वार्ता | (6) यन्मुनिः काव्यार्थान् भावयतीति भावः । अस्यार्थः । पदार्थवाक्यार्थी रसेष्वेव पर्यवस्यत इत्यसाधारण्यात् प्राधान्याच्च काव्यस्यार्था रसाः । अर्थ्यन्ते प्राधान्येनेत्यर्थाः । नतु अर्थशब्दोऽभिधेयवाची रसादीनां स्वशब्दानभिधेयत्वात् ।
(7) सर्वप्रमातॄणां यो रसनीयः सर्वप्रमातृतावलम्बनेनैव रस्ते, अत एव नाटकमण्डपान्तः प्रविष्टशः सर्वे हृदयसंवादभाजो भवन्तीत्युच्यते ।
(8) साधारण्यमहिना सकलयोग्यत्वसहिष्णुभिः शब्दादिविषयमयैरातोद्यगान विचित्रमण्डपविदग्धगणिकादिभिरुपरञ्जनं श्रितम् ।
मुकुटप्रतिशीर्षकादिना तावन्नटबुद्धिराच्छाद्यते, गाढप्राक्तन संवित्संस्काराश्च काव्यबलानीयमानापि न तत्र रामधीर्विश्राम्यति । तत एवोभयदेशकालत्यागः । रोमाञ्चादयश्च भूयसा रतिप्रतीतिकारितया दृष्टा नटे देशकालनियमेन रतिं गमयन्ति, यस्यां स्वात्मापि तद्वासनावत्त्वादनुप्रविष्टोऽत एव न तटस्थतया रत्यवगमः । न च नियतकारणतया येनार्जनाभिष्वङ्गादिसंभावना न च नियतपरात्मैकगततया येन दुःखद्वेषाद्युदय:, तेन साघारणीभूता संतानवृत्तेरेकस्या एव वा संविदो गोचरीभूता रतिः
४६ (9) संक्षेपश्चायं
[ 35
माणिक्यचन्द्र
पृ.
७५ (5) काव्ये च लोकनाट्यधर्मिस्थानीयेन स्वभावोक्तिवक्रोक्तिप्रकारद्वयेन लोकोत्तरप्रसन्नमधुरौजस्विशब्दसमर्प्यमाणविभावादियोगादियमेव रसवार्ता |
७७ (6) यन्मुनिः 'काव्यार्थान् भावयन्तीति भावाः' इति । असाधारण्य प्राधान्याभ्यां काव्यार्था रसाः, पदार्थवाक्यार्थी तु रसेषु पर्यवस्यतः । अर्थ्यन्ते प्राधान्येनेत्यर्थाः, न त्वर्थशब्दोऽभिधेयवाची । रसादेः स्वशब्देनानभिधेयत्वात् ।
७८ ( 7 ) सर्वप्रमातृतावलम्वनेनैव सरस्यते । अत एव रङ्गमण्डपान्तः प्रविप्रानां सर्वेषां हृदयसंवादभागि त्वमुच्यते ।
( 8 ) साधारण्यमहिम्ना सकलभोग्यत्वसहिष्णुभिः शब्दादिविषयमयैरातोद्यगान विचित्रमण्डपविदग्धगणिकादिभिरुपरञ्जनमाश्रितम् । ८१-८२ (१) तदयमत्र संक्षेपः- मुकुटप्रतिशीर्षकादिना तावन्नटधीराच्छाद्यते । गाढप्राक्तन संवित्संस्काराच्च काव्यवलोपढौक्यमानाऽपि न तत्र रामधीर्विश्राम्यति । अत एवोभयदेशकालत्यागः । रोमाञ्चादयश्च भूयसा रतिप्रतीतिकारितया दृष्टास्तत्रावलोकिता देशकालानियमेन तं गमयन्ति । यस्यां स्वात्माऽपि तद्वासनावत्वादनुप्रविष्टः । अत एव न ताटस्थ्येन रत्यवगममः न च निर्हेतुतया, येनार्जनाभिष्वङ्गादिभावना । न च नियतपरामैकगततया, येन दुःखद्वेषकामित्वादयः । तेन साधार
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
36]
KAVYAPRARASA-JAMKETA
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
४६ (9) शृङ्गारः । साधारणीभावना च
विभा वादिभिः। ४८ (10) अत्रौत्सुक्यादेर्व्यभिचारिणोऽ
नुगतत्वेन 'दूराद', इत्यादिपदार्पितः सहसाप्रसरणादिरूपोऽनुभावः 'प्रेयसि' इति विभावश्च
प्रकाशते। ४८-४९ (11) सकलजातिसुलभत्वेन हृद्य
तया च पूर्व शृङ्गारस्तदनुगामी च ततो हास्यस्तद्विपरीतः करुणः । ततस्तन्निमित्तमर्थप्रधानो रौद्रः । कामार्थयोर्धर्ममूलत्वाद् धर्मप्रधानो वीरः । तस्य भीताभयदानसारत्वात् ततो भयानकः । तद्विभावसाधारण्यसंभावनात् ततो बीभत्स इतीयद् वीरेणाक्षिप्तम् । वीरस्यान्तेऽद्भुतः फलमिति ततोऽ
८१-८२(9) णीभूता संतानवृत्तेरेकस्या एव वा
संविदो गोचरीभूता रतिः शृङ्गारः
साधारणीभावनादिभिरिति । ८३.८४ (10) अत्रौत्सुक्यादिव्यभिचार्यनु
गतत्वेन दूरादित्यादिपदेभ्यः सहसा प्रसारणादिरूपोऽनुभावः, प्रेयसीति पदाच्च विभावो
लभ्यते । ८४-८५ (11) अत्र कामस्य सकलजातिसु
लभतया अत्यन्तपरिचितत्वेन सर्वान् प्रति हृद्यतेति पूर्व शृङ्गारः, तदनुगामित्वाद् हास्यः, तद्वैपरी- . त्यान्निरपेक्षभावाच्च ततः करुणः, ततस्तत्कारणमर्थसारो रौद्रस्य कामार्थप्राधान्येन कामार्थयोश्च धर्ममूलत्वादिति धर्मप्रधानो वीरः, तस्य भीतत्राणसारत्वात्ततो भयानकः, ततस्तद्विभावसाध्यसम्भावनाद्वीभत्सः, इतीयद्वीरेणाक्षिप्ते वीरस्य फलभूतोऽद्भुतः।
५९ (12) अन्ये तु 'अर्थसामर्थ्येन साह
श्यात्मकेन द्वितीयाऽभिधैव प्रतिप्रस्तूयते, ततश्च द्वितीयोऽर्थोऽभिधीयत एव, न ध्वन्यते । तदनन्तरं तु तस्य द्वितीयस्यार्थस्य प्रतिपन्नस्य प्रथमार्थेन प्राकरणिकेन साकं या रूपणा सा तावद् भात्येव । न चान्यतः॥ शब्दादिति सा ध्वननव्यापारात् । तत्राभिधाशक्तेः कस्याश्चिदप्यनाशनीयत्वादिति प्रकृताप्रकृतयोर्वाक्यार्थयोः साम्यं
ध्वन्यत इत्यलंकारध्वनिरित्याह६६ (13) काव्यविशेषो हि विशिष्टार्थप्रति-
पत्तिहेतुः संदर्भविशेषः, काव्यविशेषत्वं च न पदप्रकाशत्वे उपपद्यते. पदानां स्मारकत्वेनावाचक
त्वाद, -- (14) यथा श्रुतिदुष्टानां पेलवादिपदा
१०८ (12) अयं भावः-सादृश्यरूपेणार्थ
सामर्थ्येन द्वितीयाभिधैव प्रतिप्रसूयते । ततश्च द्वितीयोऽर्थ उच्यत एव न ध्वन्यते । तदनन्तरं तु तस्य द्वितीयार्थस्य प्रतिपन्नस्य प्रथमार्थेन प्रकृतेन साकं या रूपणा सा तावद्विभात्येव । न चान्यतः सा शब्दादिति ध्वननव्यापारात्तत्राभिधाशक्तेः कस्याश्चिदनाशङ्कयत्वादिति प्रकृताप्रकृतवाक्यार्थयोः साम्यं देवो देव
एवेति रूपं ध्वन्यते । १२१ (13) काव्यविशेषो विशिष्टार्थप्रती
तिहेतुः सन्दर्भविशेषः, काव्यविशेषता चन पदप्रकाश्यत्वे घटेत,
पदानां स्मृतिहेतुत्वेनावाचकत्वा(14) यथा (श्रुति)दुष्टपेलवादिपदाना
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION : APPENDIX A
[37
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
६६ (14) नामसभ्यार्थ प्रति न वाचकत्वं,
तद्वशाच्चआचाररूपं काव्यं श्रुतिदुटम् । तच्च श्रुतिदुष्टत्वमन्वयव्यतिरेकाभ्यां भागेषु व्यवस्थाप्यते, तथा प्रकृतेऽपि पदानां व्यञ्जकत्वमुखेन ध्वनिव्यवहारः॥ न च ध्वनिव्यवहारे वाचकत्वं प्रयोजकं,
व्यञ्जकत्वेन तस्य व्यवस्थानात् ॥ ७३ (15) प्रबन्धप्रतिपाद्यन ह्यर्थेन गृध्रगो
माय्योर्भक्षणाभिप्रायो व्यज्यते । स चाभिप्रायः शान्तरसनिष्ठ एव ।
७४ (16) पदत्रयमेव यावन्न याति तावद्
धृत इति प्रेमातिशयो ध्वन्यते। ७५ (17) सर्वत्र सुवादीनामभिप्रायविशेषा
भिव्यञ्जकत्वम् । स तु अभिव्यतोऽभिप्रायो यथास्वं विभावादि
रूपताद्वारेण रसादीन् व्यनक्ति ॥ ८१ (18) एवमुद्दीपनविभावोबोधितविप्र-
लंभः परस्पराधिष्ठानत्वाद् रतेविभावानां साधारण्यमभिमन्यमान इत एव प्रभृति हृदये प्रियां
निधायैव स्वात्मवृत्तान्तं तावदाह । ८२ (19) रामशब्दार्थध्वनिविशेषावकाश-
दानाय कठोरहृदय-पदम्। यथा 'तद् गेहम्' इत्युक्तेऽपि 'नतभित्ति' इति । अन्यथा राम-पदं दशरथकुलोद्भवत्वकौशल्यास्नेहपात्रत्ववाल्यचरितादिधर्मान्तरपरिणतमर्थ कथं न ध्वनेत् । 'अस्मि' इति स एवाहं भवामीत्यर्थः।
१२१ (14) मसभ्यार्थ प्रति न वाचकत्वं कि
न्तु स्मारकत्वं, तद्वशाच चारुरूपं काव्यं (श्रुति)दुष्टमन्वयव्यतिरेकाभ्यां भागेषु व्यवस्थाप्यते, तथा प्रकृतेऽपि पदानां व्यञ्जकत्वमुखेन ध्वनिव्यवहारः। न च ध्वनिव्यवहारे वाचकत्वं प्रयोजकं, व्यञ्जक
त्वेन व्यवस्थानादिति...। १३३ (15) भारतोक्तगृध्रगोमायुसंवादनाम
प्रबन्धप्रतिपाद्यनार्थेन गृध्रगोमायोर्भक्षणाभिप्रायो व्यज्यते ।
स चाभिप्रायः शान्तरसनिष्ठः । १३५(16) यावत्पदत्रयमपि न याति तावत्
धृत इति स्नेहातिशयो व्यङ्ग्यः । १३६ (17) सर्वत्र सुबादीनामाकूतविशेषव्य
जकत्वम् । स त्वाकूतो व्यक्तः सन् यथायोगं विभावादिरूपता
द्वारेण रसादिकं व्यनक्ति। १४४-१४५ (18) एवमुद्दीपनविभावबोधित
विप्रलम्भोऽन्योन्याश्रयत्वाद्रतेर्विभावानां साम्यं मत्वा इत एव प्रभृति प्रियां हृदि न्यस्यैव खं
वृत्तान्तं रामस्तावदाह ...। १४५ (19) रामशब्दार्थव्यङ्गयविशेषावका
शदानाय कठोरहृदयपदम् । अन्यथा रामपदं दशरथकुलोत्पत्तिकौसल्यानेहपात्रत्वबाल्यचरित्रताटकावधादिधर्मान्तरपरिणमितमर्थ कथं नु ध्वनयेत् । अस्मि स एवाहं भवामीति ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास ५
सोमेश्वर
पृ.
८६ (1) 'पश्यताम्' इत्यनादरे षष्ठी। पश्यतः प्रियाननाद्दत्येत्यर्थः । भावस्येति । शत्रुस्त्रीणां रत्यभावे सैनिकानामनौचित्यप्रवृत्तत्वाद् रसाभासः। शत्रूणां चानुचितं दैन्यादीति द्वितीयेऽर्धे भावाभासः, तौ च राजविषयस्य रतिभावस्याङ्गम् । अत्र अलंकार ऊर्जस्वि । ८७ (2) 'पश्येत् कश्चिद्' इत्याशङ्का । 'चपल रे चल गच्छ' इत्यसूया । 'का त्वरा' इति धृतिः । 'अहं कुमारी' इति स्मृतिः । 'हस्तालम्बं वितर' इत्यौत्सुक्यम् । 'हह' इति श्रमः । 'ह' इति दैन्यम् । 'व्युत्क्रमः' इति विबोधः । 'कासि यासि' इत्यौत्सुक्यम् । एषां पूर्वपूर्वोपमर्देनोपनिबन्धः । शबलताराजविषयरतेरङ्गम् ।
९१ (३) न चात्र विपरीतलक्षणा, यत् उच्चारणकाल एव न कोपादिति दीप्ततारगद्गदसाकाङ्क्षका कुबलाद् निषेध्यमानतयैव युधिष्ठिराभिमतसंधिमार्गाक्षमारूपत्वाभिप्रायेण
प्रतीतिरिति मुख्यार्थबाधाद्य
भावात् ॥
( 4 ) तथा हि गृहकर्मव्यापृताया इत्यन्यपराया अपि वध्वा इति सातिशयलज्जापारतन्त्र्यबद्धाया अपि । अङ्गानीति । एकमपि न तादृग् अङ्गं यद् गाम्भीर्यावहित्थवशेन संबरीतुं पारितम् ॥ सीदन्तीति । आस्तां गृहकर्मसंपादनं, स्वात्मानमपि धर्तु न प्रभवन्ति गृहकर्मयोगे च स्फुटं तथा अलक्ष्यमाणानीति । अस्माद वाच्यादेव स्मरपारवश्यप्रतीतेश्वमत्कार इत्यर्थः ॥ ९४ (5) मात्रग्रहणेनैतदाह 'यथा विधिनिषे
माणिक्यचन्द्र
पृ.
१५२ (1) अत्र पश्यतामित्यनादरे षष्ठी, पश्यतः प्रियाननादृत्येत्यर्थः । भावस्येति । रिपुस्त्रीणां रत्यभावे सैनिकानां हठात् प्रवृत्त्या रसाभासः शत्रूणां च रत्यभावे दैन्याद्यनुचितमित्युत्तरार्धे भावाभासः। तौ च राजविषयरतेङ्गम् । अत्रोर्जख्यलङ्कारः । १५३ (2) पश्येत्कश्चिदित्याशङ्का । चञ्चल चल गच्छेत्यसूया । का त्वरेति धृतिः कुमार्यस्मीति स्मृतिः । हस्तालम्बं वितरेत्यौत्सुक्यम् । हेति श्रमः । हेति दैन्यम् । व्युत्क्रम इति बाधः । क्वासि यासीत्यौत्सुक्यम् । एषां पूर्वपूर्वोपमर्देन वन्धः शबलता नृपविषयरतेरङ्गम् ।
१५९ (3) न चात्र विपरीतलक्षणा, यत उच्चारणकाल एव न कोपादिति दीप्ततारगद्गदसाका काकुबलानिषेधस्य निषेध्यमानतयैव युधिष्ठिरेष्टसन्धेरक्षमणरूपत्वाभिप्रायेण प्रतीतिरिति मुख्यार्थबाधाद्यभावात् ।
१५९-६० (4) गृहकर्मव्यापृतायाः अन्यकमरताया अपि । वध्वाः सातिशयलज्जा परवशाया अपि । अङ्गानीति बहुवचनेनैकमपि न तादृशमङ्ग यदात्मानं संवरीतुं शक्नोति । सीदन्ति आस्तां गृहकर्म, स्वमपि नालं धर्ते, गृहकर्मयोगे च तथा स्फुटमलक्षमाणानीत्यस्माद्वाच्यादेव स्मरपारवश्यप्रतीतेश्वमत्कारः ।
१६२-१६३ (5) मात्रशब्दादेतदुच्यते यद्वि
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.५]
INTRODUCTION : APPENDIX A
[39
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
पृ.
९४ (5) धतदुभयात्मतारूपेण वस्तुध्वनिः
संक्षेपेण सुवचस्तथा न अलंकार
ध्वनिरलंकाराणां भूयस्त्वात् ॥ ९६ (6) साक्षाच्छक्तिविषयत्वेन हि व्यापा
राद् अथोपत्तः कारणता पूर्वयोस्त्वितिकर्तव्यतारूपतेत्यभिप्रायः॥
१६३ (5) धिनिषेधतदुभयात्मतारूपेण व
स्तुनो ध्वनिः संक्षिप्तः, न त्वल
ङ्काराणां, बहुत्वात् । १६५ (6) साक्षाच्छक्तिविषयतया हि व्या
पारादर्थापत्तेः कारणता, पूर्वयोस्त्वितिकर्तव्यतारूपतेति भावः।
१६६ (7) पदानां सङ्केतो गृह्यत इति योगः।
निवृत्तिकारीति । प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो वृद्धव्यवहारः, प्रवृत्तिनिवृत्ती च विशिष्टार्थनिष्ठे, अतो विशिष्ट एवार्थे पदानां सम्बन्धावगतिः।
(7) पदानां संकेतो गृह्यत इति योगः॥
प्रवृत्ति [निवृत्ति कारीति। वृद्धव्यवहाराच्छब्दार्थसंबन्धावसायः । स च वृद्धव्यवहारः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः। प्रवृत्तिनिवृत्ती च विशिष्टार्थनिष्ठे, अतो विशिष्ट
एवार्थे पदानां संबन्धावसायः॥ ९७ (8) विशिष्टा एवेति । अन्वितानां वि
शिष्टानामेव पदार्थानामभिधेयत्वम् । वाक्यार्थो हि क्रियाकारकसंसर्गरूपः । कारकाणां च क्रियासंबन्धोन्मुखतया क्रियाणामपि कारकविरहासहिष्णुत्वेन अन्वितानामेव स्वशब्दरभिधानं भवतीत्यर्थः ॥ न तु पदार्थानामिति। सामान्यभूतत्वेन अभिहितानां पदार्थानां पश्चान्न वैशिष्ट्यमित्यर्थः॥ यद्यपीति ।
संकेतगोचर इति योगः। (9) यानि वाफ्यान्तरे दृष्टप्रयोगाणि॥
व्यतिषिक्तानामिति । वाक्यस्यैव प्रयोगार्हत्वात् पदार्थान्तरैरन्वितानाम् । तथाभूतत्वादिति । सामान्यावच्छादितविशेषरूपत्वात् ॥ सामान्यविशेषरूप इति । सामान्यानि अन्तःकृताशेषविशेषाणि भवन्तीति तत्प्रतीतिनान्तरीयकतयैव विशेषसद्भावः । यदाहुः- निर्विशेषं न सामान्यं भवेच्छशविषाणबत् ॥ ततः सामान्यावच्छादितो विशेष एव संकेतस्य विषयः। तत
(8) विशिष्टा एवेति । विशिष्टा एवान्विताः पदार्थाः पदानामभिधेयाः, न तु पदार्था एव केवलाः। अयमाशयः- वाक्यार्थस्तावत् क्रियाकारकयोगात्मा। कारकक्रियाश्च सम्बन्धाभिमुख्येन मिथो विरहासहिष्णुत्वेनान्विता एव स्वशब्दैरुच्यन्त इत्यर्थः । न त्विति । सामान्यत्वेनोक्तानां पदार्थानां पश्चाद्वैशिष्ट्यं स्यादिति । यद्यपीति । सङ्केतगोचर
इति योगः। १६७-१६८ (9) यानि वाक्यान्तरे प्रयुक्त
दृष्टानि । सामान्यावच्छादित इति । न्यग्भूतसामान्यः । असाविति । पदार्थः । व्यतिषक्तानामिति । 'वाक्यमेव प्रयोगार्हम्' इति न्यायात् पदार्थान्तरैर्युक्तानाम् । तथाभूतत्वादिति । सामान्यावच्छादितविशेषरूपत्वात् । विशेषरूप इति । सामान्यप्रतीतिनान्तरीयका विशेषाः, 'निर्विशेषं न सामान्यं भवेच्छशविषाणवत्' इति न्यायात् ।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
40]
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
सोमेश्वर
पृ.
९७ (१) श्च सामान्यभूतः पदार्थोऽसमितत्वाद् अनभिधेय इत्याह अतिविशेषभूत इति । विशेषमतिक्रान्तोऽतिविशेषः, तं भूतः प्राप्तोऽतिविशेभूतः सामान्यः पदार्थः । यत्र तु सामान्यरूपोऽपि पदार्थो न वाच्यस्तत्र कैव कथा व्यङ्ग्यस्य विध्यादेरर्थान्तरस्य वाच्यतायाम् ॥
९८ ( 10 ) वाक्यार्थस्तु अपदार्थ एवेति योगः । कीदृशो वाक्यार्थोऽन्वितविशेषः । अन्वितविशेषो यत्र स तथा, समग्राङ्गसंपूर्ण इत्यर्थः । aasarisस्ततः पक्षद्वयेऽप्यपदार्थ एव वाक्यार्थः ॥ ( 11 ) यदपीति । अन्विताभिधानवादिभिरेव प्राभाकरैः ॥ नैमित्तिकार्थेति । वाक्यार्थतात्पर्यानुसारेण निमित्तानि पदार्थाः कल्प्य न्ते, ततो नैमित्तिक एवायं न व्यय इति भावस्तेषाम् ॥ अन्वितमात्र इति, सामान्यावच्छादितविशेषरूपे । एवं चेति । निमित्तेषु संकेत इति, नैमित्तिकेऽर्थे संकेताकरणात् कथं तस्य साक्षात्प्रतिपत्तिः, तस्मिंश्चाप्रतिपन्ने कथं पदार्थावगमानां नियतनिमित्त
भावः ।
(12) यथा 'देवदत्तः काष्ठैः स्थाल्यामोदनं पचति' इत्यादौ ओदनपाकश्चेदन्यतः सिद्धस्तदा स्थालयधिकरणत्वमात्रं विधेयं, तस्यैष साध्यत्वात् ॥
[ उ. ५
माणिक्यचन्द्र
पृ.
१६७-१६८ ( 9 ) ततः सामान्यावच्छादितो विशेष एव सङ्केतस्य विषयभूतः, सामान्यं त्वनुतमपि ज्ञायत इत्याह- अतीति । विशेषमतिकान्तो यः स्वभावः सोऽतिविशेषः तं भूतः प्राप्तोऽतिविशेषभूतः सामान्योऽर्थः । केवलप दार्थरूप इति यावत् । यदि वा विशेषमतिक्रान्तः अतिविशेषः, स चासौ भूतश्च स तथा सामान्योऽर्थः । यत्रेति । वाक्ये | यदाऽन्विताभिधानवादे सामान्योऽप्यर्थो न वाच्यस्तदा का वार्ता व्यङ्ग्यस्य वाच्यतायाम् । १६८ ( 10 ) वाक्यार्थस्त्वपदार्थ एवेति योगः । अन्वितविशेषः- सर्वाङ्गसम्पूर्णः केवलविशेषरूपः । एतत् वाक्यार्थविशेषणम्, इति पक्षद्वयेऽप्यपदार्थ एव वाक्यार्थः ।
१६८ - १६९ ( 11 ) यदपीति । अन्विताभिधानवादिभिः प्राभाकरैः । नैमित्तिकार्थेति । वाक्यार्थतात्पर्यनैमित्तिकोऽर्थः । निमित्तानीति । प्रस्तावाच्छब्दाः, ततस्तात्पर्यानुसारेण यदा शब्दाः कल्प्यन्ते तदा व्यङ्गयं वाच्यमेवेति भावस्तेषाम् । अन्वितमात्र इति । सामान्यावच्छादितविशेषरूपे ॥ निश्चितमिति । निमित्तेषु सङ्केतो न नैमित्तिकेऽर्थे तत्कथं नैमित्तिकस्य साक्षात्प्रतीतिः, तदप्रतीतौ कथं पदार्थावगतिर्नियतनिमित्ता स्यादिति ।
१६९ (12) यथा चैत्रः काष्ठैः स्थाल्यामनं पचतीत्यादावन्नपाकश्चेदन्यत स्सिद्धः, तदा स्थाल्याधारत्वमेव विधेयम्, तस्यैव साध्यत्वात् ।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
७.५]
INTRODUCTION : APPENDIX A
[41
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
९९ (13) उक्तस्यैव शब्दस्य संबन्धिन्य-
थेऽभिधेये तात्पर्य न तु निमित्तान्तरेण प्रतीतमात्रे व्यङ्गये
ऽप्यर्थे तात्पर्यावकाशः। १०० (14) यस्य ह्यभिधेयेनार्थेन सह नैक-
ट्यं, स बलीयान् । यस्य च व्यवहितत्वं स दुर्बलः । यदाहुः- 'श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां पददौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात् ।' न च व्यवहितत्वमव्यवहितत्वं वाभिधाव्यापारगम्यं, किं तु निमित्तत्ववैविध्याद् व्यङ्ग्यमेव तच्च यदि नाभ्युपगम्यते तत् कथमेकस्य बलीयस्त्वं, सर्वेषां श्रुत्यादीनामभिधाव्यापारस्य समानत्वात् प्रधाने चाङ्गत्वापादनं श्रुत्यादीनामर्थः। श्रवणं श्रुतिः । यदर्थस्याभिधानं शब्दश्रवण
मात्रादेवावगम्यते। १००-१०१ (15) 'बहिर्देवसदनं दामि' इति।
देवाश्रयदर्भच्छेदनेऽयं मन्त्र इति। 'दामि' इति लवनलिङ्गाद् अनेन मन्त्रेण बहींषि लुनीया. दिति प्रतीयते ॥ वाक्यतो यथा-'श्वेतं छागमालमेत ।' अत्रैकवाक्योपादानाच्द्रुतगुणस्य च्छागावच्छेदकत्वेन क्रियाङ्गभावो गम्यते। यथा वा 'अरुणया एकहायन्या पिङ्गाक्ष्या सोमं क्रीणाति' इत्यत्र अरुणादीनां क्रमेण संबन्धः श्रोतः । अरुणैकहायन्यादीनां परस्परं पुनर्वाक्यीयम् ॥ दर्शपौर्णमासप्रकरणे ‘समिधो यजति तनूनपातं यजति इडो यजति बहिर्यजति स्वाहाकारं यजति' इति पञ्च प्रयाजा उक्ताः, ते च दर्शपौर्णमासयो
१७० (13) उपात्तस्यैव शब्दस्य सम्बन्धि
न्यर्थेऽभिधेये तात्पर्य, न तु हेत्वन्तरेण ज्ञातमात्रे व्यङ्गये
प्यर्थे तात्पर्यप्रसङ्गः। १७२-१७३ (14) यस्याभिधेयेनार्थेन सह
नैकट्यं स बलीयान् । यस्य च व्यवहितत्वं स दुर्बलः । व्यवहिताव्यवहितत्वे च नाभिधागम्ये, किन्तु व्यङ्गये। एतच्च त्वया नेष्यते । तत्कथमेकस्य बलीयस्त्वं, श्रुत्यादीनामभिधाव्यापारस्य समानत्वात् । प्रकृतिप्रत्ययश्रुत्योः स्वार्थाभिधायकत्वेन पदस्य कारकविभक्तीनां च विनियोजकत्वेन लिङ्गादीनां विधिसामर्थ्येन वेति क्रमेणाभिधात्रीविनियोक्रीविधात्रीसंसंशाः तिनः श्रुतयः । यदर्थस्याभिधानं शब्दश्रवणमात्रादे
वावगम्यते सा श्रुतिः। १७३-१७४ (15) 'वर्हिदेवसदनं दामि' अत्र
दामीति लवनलिङ्गादेवाश्रयो दर्भोऽनेन मत्रेणोत्पाद्य इति प्रतीयते । श्वेतं छागमालभते' अत्रैकवाक्योपादानात् श्वेतगुणस्य छागावच्छेदकत्वेन कियाङ्गभावो गम्यते । यथा वाअरुणयैकहायन्या पिङ्गाक्ष्या सोमं क्रीणाति' इत्यत्र अरुणादीनां क्रयेण सम्बन्धः श्रौतः, अरुणैकहायन्यादीनां मिथः पु. नर्वाक्यीयः । दर्शपूर्णमासप्रकरणे, 'समिधो यजति' 'तनूनपातं यजति' 'इडो यजति' 'बर्हिर्यजति', 'स्वाहाकारं यजति' इति पञ्च प्रयाजा उक्ताः । ते च दर्शपूर्णमासयोरेव क्रियन्ते, तदङ्गत्वमवगम्यत इत्यर्थः । 'अग्नेरहं देवयज्यया
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
42]
KÁVYAPRAKASA-SAMKETA
सोमेश्वर
पृ.
स्फुरदोष्ठमुद्र
१००-१०१ (15) रेव क्रियन्ते । तदङ्गत्वमवगम्यत इत्यर्थः ॥ 'अग्निरन्नस्यानपतिस्तस्याहं देवयज्ययान्नस्यान्नपतिर्भूयासम् १' ' दधिरयदर्थो भूयासं तदमुं दभेयम् २' 'अग्नीषोमो वृत्रहणौ तयोर्देवयज्यया वृत्रहा भूयासम् ३' इति मन्त्रत्रयात् आग्नेयो याग उपांशुया अग्नीषोमीयो यागश्चेति यागत्रयं क्रमेण स्थितम् । तत्र प्रथमतृतीयमन्त्राभ्यां देवयज्यालक्षणालिजादु आद्यन्तौ यागौ आक्षिप्येते, द्वितीयेन मन्त्रेण द्वितीयो यागस्तु । आग्नीषोमीयलक्षण उपांशुयाजः स्वरः स्थानवशात् ॥ 'उद्गाताऽध्वर्युहोता' इति । उद्गायतीत्यादिसमाख्ययाऽन्वर्थे संज्ञाबलात् सामयजुर्ऋग्वेदेष्वधिकृत इति निश्चीयते तेष्वङ्गभाव इत्यर्थः । श्रुतिलिङ्गादिविकल्पसंभवे तु श्रुत्यर्थ एव क्रियते, न लिङ्गाद्यर्थोऽर्थविप्रकर्षात्, यथा ऐन्या गार्हपत्यमुपतिष्ठते' इत्यत्रैवैन्या ऋच इन्द्रप्रकाशनसामर्थ्य लक्षणाल्लिङ्गाद् इन्द्रोपस्थापनविनियोगो गार्हपत्यमिति द्वितीयया श्रुत्या बाध्यते, तेन ऐन्द्र्याप्येतया गार्हपत्यस्यैवोपस्थानं भवति ॥ १०२ ( 16 ) पुनर्वाच्यव्यङ्ग्ययोर्भेदं दर्शयन्नन्विताभिधानवादिनां दोषमाह-अपि चेति ॥ निषेधविध्यात्मनेति, स्वरूपस्याभेदेऽपीति योगः । निषेधो वाच्यो विधिश्च व्यङ्ग्यः । संशयश्च शान्तशृङ्गार्यन्यतरनिश्चयश्च, तत्र संशयो वाच्योऽन्यतरनिश्चयश्च व्यङ्गय इति स्वरूपस्य भेदः ॥
[ उ. ५
माणिक्यचन्द्र
पृ.
१७३ १७४ (15) Sन्नादो भूयासम् ' दब्धिर स्यमध्वो भूयासं तदमुं दभेयम्' 'अग्नीषोमयोरहं देवयज्यया वृहा भूयासम् ' । इति मन्त्रत्रयादाग्नेयो यागः उपांशुयागः अग्नीषोमीयो यागश्चेति यागत्रयं क्रमेण स्थितम् । तत्र प्रथतृतीयमन्त्राभ्यां देवयज्यालक्षणालिङ्गादाद्यन्तौ यागावाक्षिप्येते । द्वितीयेन मन्त्रेण द्वितीयो यागः । यागस्तु उपांशुयागः स्फुरदोष्ठमुद्रस्वरस्था नवशात् ॥ उद्गाता अध्वर्युः होतेति उद्गायतीत्यादि समाख्यया अन्वर्थसंज्ञाबलात् सामयजुऋग्वेदेष्वधिकृत इति निश्चीयते I वङ्गभाव इत्यर्थः । ऐन्द्रेत्यत्र ऐन्द्रया ऋच इन्द्रप्रकाशन सामर्थ्यलक्षणालिङ्गादिन्द्रोपस्थापनविनियोगो गार्हपत्यमिति द्वितीयाश्रुत्या वाध्यते तेनैन्द्रयाऽप्येतया गार्हपत्यस्यैवोपस्थापनं भवति ।
१७६ ( 16 ) पुनरप्यन्विताभिधायिनं दूषयति-अपि चेति । तत्र तत्रेति । प्रस्ताववक्तृप्रभृतिविशेषे । विध्यात्मनेति । स्वरूपस्य भेदेऽपि यद्येकत्वमिति योगः । निषेधो वाच्यो विविश्व व्यङ्ग्यः । तथा संशयो वाच्यः, शान्तशृङ्गारिगोरेकतरनिश्चयश्च व्यङ्ग्यः ।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION : APPENDIX A
१.
.
[48 माणिक्यचन्द्र १७८(17) बोद्धमात्रेति । वाच्यवेदी बोद्धा,
व्यङ्ग्य वेदी तु विदग्धः । तथा वाच्योऽर्थःप्रतीतिमात्रं, व्यङ्ग्यस्तु चमत्कारं करोतीति कार्यभेदः।
सोमेश्वर १०३ (17) बोद्धमात्रेति । वाच्यबोद्धा बो-
दे॒वोच्यते, व्यङ्गयबोद्धा तु विदग्ध इति । तथा वाच्योऽर्थः प्रतीतिमात्रकारी, व्यङ्ग्यश्च चमत्कारकारीति वाच्यव्यङ्गय
योः कार्यस्य भेदेऽपि ॥ १०५ (18) अत्र वनवासादिरनवधिल
क्ष्योऽर्थः। (19) अत्र राम-पदं साहसैकरसत्वा
दिलक्ष्यार्थसंक्रमितवाच्यं व्यञ्जकम् ॥ विशेषव्यपदेशेति । यथा व्यङ्गयवोद्भुर्विदग्ध इति व्यपदेशः, तथा लक्ष्यार्थबोद्धरपि लक्षक इति
विशेषव्यपदेश इत्यपि समानम् ॥ (20) नखल्विति । यथा 'गङ्गायां
घोषः' इत्यादौ मुख्येन गङ्गाशब्दार्थेन तटादिर्लक्ष्यते, न तथा वनादिरपि लक्षयितुं शक्यते । व्यङ्गयस्तु विचित्रः प्रकाशते, प्रकरणादिसामग्रीवैचित्र्यात् ।
१८० (18) अत्र वनवासादिरनन्तो
लक्ष्योऽर्थः। १८०-१८१ (19) अत्र रामपदं साहसैक
रसत्वाद्यनन्तलक्ष्यार्थसङ्कमितवाच्यम् । विशेषेति । यथा व्यङ्ग्यवेदी विदग्ध इति व्यपदिश्यते तथा लक्ष्यवेदी लक्षक
इत्यपि तुल्यम्...। १८१ (20) न खल्विति । अनेन तद्यो
गादिकं नियतत्वमुक्तं, यथा गङ्गाशब्दो मुख्येन स्वार्थेन सम्बद्धं तटादि लक्षयति न तथा वनादि लक्षयितुं शक्नोति । ध्वनिस्तु प्रस्तावादिसा
मग्रीवशाद्विचित्रो भाति । १८२ (21) लक्षणानुगमेन ध्वननस्य
दर्शनात् । तदनुगतमेवेति । लक्षणानुगतमेव । तस्येतिध्वननस्य । भावादिति । न हि व्यङ्ग्ये प्रतीयमाने वाच्याद्बुद्धिदूरीभवति । न चोभयेति।अभिधालक्षणारूपमुभयम् । अवाचकेति । अर्थानुपयोगेऽपि कोमलादिवर्णानां रसव्यञ्जकत्वदर्शनात् । अशब्देति । अभिधाव्यापारास्पृष्ट इत्यर्थः । अवलोकनादीत्यादिशब्दात् बाष्पावेशकुचकम्पादि । तस्येति । ध्वननस्य ।
१०६ (21) न हि लक्षणैकरूपमेव ध्वननं
लक्षणानुगमेन ध्वननस्य दर्शनात् । यथा 'गङ्गायां घोषः' इत्यादौ ॥ न च लक्षणानुगतमेव ध्वननं, विवक्षितान्यपरवाच्येऽभिधामूलत्वेन ध्वननस्य भावात् । न हि व्यङ्गये प्रतीयमाने वाच्ये बुद्धिदूरीभवति । न चोभयेति ॥ अभिधालक्षणानुसारेणैव ध्वननमित्यपि नेत्याह-अवाचकेति । ललितपरुषादिवर्णानुप्रासस्यार्थाभिधानानुपयोगिनोऽपि रसं प्रति व्यञ्जकत्वस्य दर्शनात् ॥ न च वर्णमात्रानुसारेणैव ध्वननमित्याह-अशब्दात्मकेति, अभिधाव्यापारेणास्पृष्ट
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
44]
KAVYAPRAKASA-SAMKRTA
माणिक्यचन्द्र
सोमेश्वर १०६ (21) इत्यर्थः । यथा-मय्यासक्त
श्चकितहरिणीहारिनेत्रत्रिभागः' । अत्र गुरुजनमवधीर्यापि यथा तथा साभिलाषगर्वमन्थरं विलोकितवतीति स्मरणे विप्रलम्भोद्दीपनम् । अवलोकनादि' इत्यादिशब्दाच्छब्दव्यतिरिक्ताधोवक्रत्वकुचकम्पनबाष्पावे
शादि ॥ तस्येति ध्वननस्य । १०७ (22) 'व्यञ्जकत्वं शब्दानां गमकत्वं,
तञ्च लिङ्गत्वम् , अतो व्यङ्ग्यप्रतीतिर्लिङ्गिप्रतीतिरेवेति व्यझ्यव्यञ्जकभावो लिङ्गिलिङ्गभाव एव ।'
१८४ (22) व्यञ्जकत्वं शब्दानां गमक
त्वम् , तश्च लिङ्गत्वमेव । अतो व्यङ्ग्यप्रतीतिर्लिङ्गिप्रतीतिरेवे: .. ति, तथा सति लिङ्गिलिङ्गतैव व्यङ्ग्यव्यञ्जकतेत्यर्थः।
-
उल्लास ६
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
पू.
१११ (1) अत्र 'अलकाः खला इव' इति
शब्दश्लेषप्रतिभोत्पत्तिहेतुरुपमा ॥ उद्भटस्तु 'उपमाप्रतिभोत्पत्तिहेतुरर्थश्लेष एवायं "खयं च पल्लवाताम्रा" इत्यादाविव' इत्याह...॥
१९० (1) अत्रालका इव खला इत्युप
मालङ्कारः शब्दश्लेषप्रतिभोत्पत्तिहेतुरिति मम्मटः । उपमाप्रतिभोत्पत्तिहेतुरर्थश्लेषः, 'स्वयं च पल्लवाताम्रभास्वत्करविरा जिनी' इतिवदिति तूद्भटः।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास ७
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
.
१९२ (1) अनङ्गमङ्गलगृहस्यापाङ्गस्य भङ्गया
विच्छित्त्या तरङ्गितैर्युक्त्या ॥
१९९ (2) अत्रैकपदप्रत्याय्योऽप्यर्थः कैर
वात्मा अत्रीत्यादिनानापदार्थालोचनाव्यवधानेन क्लिश्यमानो वाचकस्य क्लिष्टतावहः।
११२ (1) अनङ्गमङ्गलगृहं चासौ अपाङ्ग-
श्च तस्य भङ्गया विच्छित्त्या
तरङ्गितैरुपलक्षितया ॥ ११८ (2) अत्रैकपदप्रत्याय्योऽप्यर्थः कुमु-
दलक्षणोऽत्रीत्याद्यनेकपदार्थपर्यालोचना व्यवहितत्वेन क्लिश्यमानो वाचकस्य क्लिष्टतामा
वहति ॥ १२०-१२१ (3) तस्माद् अस्य नो विधेय-
तया प्रधानस्यानूद्यतयाऽप्रधानेन मुक्ताशब्देन सह न समास इष्ट इति स्थितम् । यदाह-नार्थस्य विधेयत्वे निषेधस्य विपर्यये। समासो नेप्यतेऽर्थस्य विपर्यासप्रसङ्गतः॥
२०१ (3) तस्मादस्य नञो विधेयार्थनिष्ठ
तया प्रधानस्य तथाऽनूद्यमानार्थपरतया तयस्तवृत्तिना मुक्तशब्देन समं वृत्ति वेष्टा । यदाहनर्थस्य विधेयत्वे निषेध्यस्य विपर्यये। समासो नेष्यतेऽर्थस्य विपर्या
सप्रसङ्गतः॥ २०२ (4) भवस्य पत्नी भवानी, तस्याः
पतिरित्युक्ते हरत्यागादन्योऽपि भवेत् , तथा चैत्रपत्नीपतिरित्युक्ते उपपतिर्लभ्यते।
१२१ (4) भवस्य भार्या 'भवानी' । ततो
'भवान्याः पतिः' इत्युक्ते भवं विहाय अन्यस्यापि पत्युः प्रतीतिः । यथा 'चैत्रभार्यायाः प
तिः' इत्युक्ते उपपतौ प्रतीतिः॥ १२७ (4a) नामशब्दोऽक्षमायाम् । 'ये के-
चिदिह प्रबन्धे देशे काले वा अस्माकमवज्ञां कुर्वन्ति ते किमपि स्वल्पं न किंचिल्लोकोत्तरं वा जानन्ति, तान् प्रति नैष प्रकरणनिर्माणविषयो यत्नः, तेषां स्तोकदर्शित्वात् ।' लोकोत्तरं यजानन्तीति व्याख्यातं तत् तेषामुपहासाय । कान् प्रति तहीत्याह-'उत्पत्स्यते तु' इति । 'सारेतरविभाग उत्पत्स्यते
कश्चिद्' इति संभाव्यते ॥ १३८ (5) दलत्कन्दलभागभूमिः सलवा-
म्बुदमम्बरम् । वाप्यः फुल्लाम्बुजयुजो जाता दृष्टिविषं मम ॥
२११ (4a) नामेत्यसृयायाम् । इहेति । प्र
बन्धे देशे काले वा । किमपि स्वल्पं, उपहासे तुलोकोत्तरम् । एष शास्त्रनिर्माणविषयो यत्नः, कान् प्रति हीत्याह उत्पत्स्यते त्विति । सदसयक्तिज्ञो भावी कश्चिदिति सम्भाव्यते।
२२६ (5) दलत्कन्दलभाग्भूमिः सनवा
म्बुदमम्बरम् । वाप्यः फुल्लाम्बुजयुजो याता दृष्टिविषं मम ॥
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
46 ]
KAVYAPRAKASA-SANKETA
[उ.७ सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र १३८ (5) अत्र भजिः सहशब्दो युजि- २२६ (5) अत्र भजिस्सह शब्दो युजिश्चाश्वाधिकाः।
धिकः। १३९ (6) 'घुरी' वाद्यभाण्डविशेषः । २२८ (6) घुरी भाण्डवाद्यविशेषः। घुर्घघुघुरायिता चासौ घुरी च
रायिता चासौ सा च, तद्वतद्वद् घोरः।
द्धोरः। १४३ (7) 'एषोऽहम्' इति । उषानानी २३२-३३ (7)हरगौर्योरुषाख्या सुता केनापि शिवायाः सुता । सा च पुराण
वृत्तान्तेन वाणासुरपुत्रीति वृत्तान्तेन बाणासुरसुतेति लोके
ख्याता । तां च स्मरसुतेन रूढा । सा चानिरुद्धेन काम
अनिरुद्धाख्येन स्वप्ने परिणाय्य सुतेन सह 'स्वप्नलब्धं वरं
कोऽपि खं प्रशंसन्निदमाहप्राप्स्यसि' इति गौर्या दत्तेन
घटनेति । घटनयाऽधिगतमप्रसादेन परिणायिता । स च
भिरूपलक्ष्म्याः फलं ययेति गौरीमुखविनिर्गतो वरः साधि
वृत्तिः । अप्यर्थ इति । अपि ष्ठायकत्वाद् देवतारूपोऽन्येषां
शब्दभावाभावयोरुत्कर्षापकपुर आत्मानं प्रशंसन्निदमाह ।
भ्यां दूरवर्तित्वं स्यादित्यर्थः। अनिरुद्धेन सह या घटना तयाधिगतं आभिरूप्य-लक्ष्म्याः
सुरूपतायाः फलं यया। १४७ (8) स हि यथाप्रक्रममेकरसप्रस- २३६ (8) एष हि यथाप्रक्रममेकरसप्रस्तायाः प्रतिपत्तृप्रतीतेरुद्धात
ताया बोद्धृप्रतीतेः रोधेनैव इव परिस्खलनखेददायी रस
स्खलनखेददायी रसभङ्गाय भङ्गाय पर्यवस्यति।
जायते। १५० (9) 'संप्रति द्वयं च' इति अतिर- २४१ (9) 'सम्प्रति द्वयं च' इत्यतीव चारु, म्यम् । यत् किल पूर्वमेका सैव
यत्किल प्रागेका सैवास्थादुर्व्यसनदूषितत्वेन शोच्या जा
नपातेन शोच्याऽभूत् , इदानीं ता संप्रति पुनस्त्वया तस्याः
तु त्वया तस्यास्तथाविधदुरसहायकमिव आरब्धमित्युपह
ध्यवसायसाहाय्यमिवारब्धम् , स्यते । प्रार्थना-शब्दोऽपि न
इत्युपहस्यते । काकतालीयन्यारम्यः, यतः काकतालीयन्या
येन कपाल्यपि यदि स्यादस्तु न येन तत्समागमः कदाचिन्न वा
पुनः केनापि प्रकर्षणार्थ्यत इति च्यतावहः । प्रार्थना पुनरत्यन्तं
प्रार्थनाऽप्ययुक्ता। कपाल्यर्थे कलङ्ककारिणी । सा च त्वं
तपस्यादिव्याजेनाचेम (?) चेति द्वयोरप्यनुभूयमानपर
नादिकमपि मण्डितमित्यर्थः । स्परस्पर्खिलावण्यातिशयप्रति
'सा च त्वं' चेति द्वयोरपि पादनपरत्वेन उपात्तम् । 'क
लावण्यादिसाम्यप्रतीतये प्रयुलावतः कान्तिमती इति च
क्तम् । 'कलावतः कान्तिमतुप्प्रत्ययेन द्वयोरपि प्रशस्य
मतीति च मतुः प्रशंसा. ता प्रतीयते।
प्रतीतिकृत्।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र.
उ.७] INTRODUCTION : APPENDIX A
[47 सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र १५० (10) 'त्वं शब्दादिति । समुच्चयद्यो- २४० (10) त्वंशब्दादिति । समुच्चयद्योती तको हि चकारः समुञ्चीयमा
हि चकारः समुच्चीयमानार्थादनार्थाद् अनन्तरमेव प्रयोज्य
नन्तरमेव वाच्य इति क्रमः। इति क्रमः। १५० (11) पुनः शब्दो हि व्यतिरिच्यमा- (11) एवं पुनश्शब्दोऽपि व्यतिरिच्या नार्थान्तर्येणैव प्रयोगमहतीति
मानार्थानन्तर्येणैव प्रयोज्योक्रमः।
ऽन्यथा त्वक्रमत्वं वाच्यम् । १५१ (12) श्रीनियोगादिति । तदुक्तम्
२४२ (12) श्रीनियोगादितीति । तदुक्तम्उक्तिस्वरूपावच्छेदकरो यत्रे.
"उक्तिस्वरूपावच्छेदफलो तिरिप्यते।
योतिरिष्यते। न तत्र तस्मात् प्राक् किंचि.
न तत्र तस्मात्प्राक्किश्चिदुक्ते. दुक्तेरन्यत्पदं वदेत् ॥
रन्यत्पदं वदेत् ॥१॥ इतिना नेवेतरेषामप्यव्ययानां
उपाधिभावात्स्वां शक्ति स गतिः समा।
पूर्वत्रादधाति हि। ज्ञेयेत्थमेवमादीनां तज्जातीया
न च स्वरूपावच्छेदः पदस्यार्थयोगिनाम् ॥
न्यस्य सम्मतः ॥२॥ यतस्ते चादय इव श्रूयन्ते यद
इतिनेवेतरेषामप्यव्ययानां नन्तरम्।
गतिस्समा । तदर्थमेवावच्छिन्धुरासमञ्जस्य
ज्ञेयत्थमेवमादीनां तजातीमन्यथा ॥
यार्थयोगिनाम् ॥३॥ यतस्ते चादय इव श्रूयन्ते यदनन्तरम्। तदर्थमेवावच्छिन्धुरासमञ्जस्य
मन्यथा" ॥४॥ इति । १५६ (13) क्रमानुष्टानाभावो वा दुष्क्रमत्वं २४७ (13) क्रमानुष्ठानाभावो वा दुष्कयथा-काराविऊण खउरं गाम
मत्वं, यथा-क्षौरं विधाप्य उडो मजिऊण जिमिऊण ।
स्नानादि भोजनादि विधाय च ॥ नक्खत्तं तिहिवारे जोअसिअं
कश्चिच्चचाल दैवज्ञ प्रष्टुं तिथिपुच्छिउं लग्गो॥
वारकान् । १६० (14) अनभिव्यक्ताकारं जगतोऽपी- ___२५१-२५२ (14) यद्वा-अनुल्लिखितान्ययमीन्द्रियाणि यत्स्वरूपं न निर्णतुं
दृगित्यनिर्णयपराण्यक्षाणि यसमर्थानीति भावः। आभासे
स्येति तत्तथा । उत्कर्षाय नैव मणीकृता अन्येऽश्मानो
प्रतियोगिनः कल्पनं चिन्ता। येन स चासौ सुमणिश्च ।
आभासेनैव मणिकृता अन्याछायामात्रेत्युक्ते हि च्छाय
श्मानो येन स चासौ सुमयैवेति सनियमत्वं सावधारण
णिश्च स तथा । अत्र एव त्वं गम्यते, तच्चात्र नोक्तमिति
शब्दाभावे सनियमत्वं परिनियमे वाच्ये 'तस्याभासे'त्य
वृत्तम् । छायामात्रेत्युक्तौ तु नियम उक्तः।
मात्रशब्दानियमो लभ्यते।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
48]
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
सोमेश्वर
रस्य
तथा हि 'रावणः' इति जग(15) दाकन्दकारित्वाद्यर्थान्तरसंक्रमितवाच्यो जनकस्य धर्मवीरं प्रत्यनुभावतां प्रतिपद्यते । ऐश्वर्य पाण्डित्यं परमेशभक्तिदेशविशेषोऽभिजन इत्येतत्सलोकमवबाधमानस्याधर्मपनार्थ क्रियाकारकमिति तावतोऽर्थस्य तिरस्कारकत्वेनैव रावणचेष्टितं निर्वाहणी - यम् । यत्तु अन्यदुपात्तं 'क्क नु पुनर्' इति तद् यदि ससंदेहत्वेन योज्यतेऽथाक्षे पत्वेनाथापि 'नेहग्वरो लभ्यते ' इति अर्थान्तरन्यासत्वेन तथापि प्रकृतस्य धर्मवीरस्य न कथंचिद् निर्वाहः ॥
१६२-१६३ (16) न हि वाताहारत्वाद् अधिको दम्भस्तोय कणव्रतम् । नापि ततोऽधिकं दम्भवत्त्वं मृगाजिनवसनमिति । व्युत्क्रमेण चोक्तं दम्भप्रकर्षे विधत्ते, न च तथोक्तमिति विध्ययुक्तत्वम् ॥
पृ.
१६१-६२
१६३ ( 17 ) किमस्मत्प्राणान् दमयसीति वि धौ वाच्ये विरहिप्राणदमनेत्य नुवादोऽयुक्तः ।
(18) इहान्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थस्यैव अश्लीलत्वं, पूर्वत्र तु पदवाक्योरिति विवेकः ।
१६४ ( 19 ) विदग्धजनमनोविलोभनक्षमकान्तारत्नोपमानभावेन मालाया उपादानाद् उत्कृष्टपुष्पग्र थितत्वावगमाय प्रयुक्तः । (20) 'त्यज करि-कलभप्रेमबन्धं करि। अत्र करि-शब्दात् ताद्रूप्यावगतिः ।
[ उ. ७
माणिक्यचन्द्र
पृ.
२५३-२५४ (15) अयं भावः- रावण इत्येतत् जगदाकन्दकारित्वाद्यर्थान्तरं वदजनकस्य धर्मवीरं प्रत्यनुभावतामेति । ऐश्वर्य पाण्डित्यं परमेशभक्तिर्देश विशेषोऽभिजन इत्येतत्सर्वं लोकवाक्यवाधेनाधर्मपरस्य निष्फलमिति तावतोऽर्थस्य तिरस्कारकत्वेनैव रावणचेष्टितं निर्वाहणीयम् । यत्त्वन्यदुपात्तं क्व नु पुनरिति तद्यदि ससन्देहत्वेन योज्येत अथाक्षेपत्वेनाद्यापि नेदृग्वरो लभ्यते इत्यत्रार्थान्तरन्यासत्वेन तथाप्यप्रकृतस्य धर्मवीरस्य न कथंचिन्निर्वाह: ततोऽस्थानमुक्तः ।
२५५ ( 16 ) न हि वाताहारत्वादधिको दम्भोऽम्भःकणवतं, नापि ततोधिकं दम्भनत्वं मृगाजिनवसनमिति । व्युत्क्रमोक्तिस्तु प्रकृतस्य दम्भप्रकर्षप्रभावतिरस्कृतगुणानुशोचनमयनिर्वेदस्याङ्गं स्यादेवेति विध्ययुतत्वम् ।
२५६ ( 17 ) अत्र किमित्यस्मत्प्राणान् दमयसीति विधौ वाच्ये प्राणदमनेत्यनुवादोऽयुक्तः ।
(18) इहान्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थ एवालीलः पश्चात्तु पदवाक्ये अलीले इति भावः ।
२५८ ( 19 ) विदग्धविलोभनक्षमकामिन्युपमानभावेन मालाया उपादानादद्भुतपुष्पग्रथितत्वमवगमयतीत्यर्थः ।
( 20 ) ' त्यज करिकलभ ! प्रेमबन्धं करिण्याः' । अत्र करिशब्दाताद्रूष्यावगतिः ।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.७]
INTRODUCTION : APPENDIX A
149
सोमेश्वर
१७३ (21) भवत्वशिथिलः इत्यादिना स-
माप्तेऽपि वाक्ये ख्याप्यते इति वाक्यार्थान्तरमेव उपात्तं, न पुनः प्राच्यस्यैव वाक्यार्थस्य विशेषणतया । यथा 'नववयोलास्याय वेणुस्वनः' इति ॥
माणिक्यचन्द्र २६७ (21) भवत्वशिथिल इत्यादिनासमा
तेऽपि परशुवर्णने येनानेनेति वाक्यान्तरेण पुनस्तस्यैव वर्णनमारब्धं न दुष्टं, वाक्यानन्तर्गतत्वेनोक्तत्वात् । विशेषणत्वेनोतो तु दुष्टत्वमेव । यथा-नवव
यो लास्याय वेणुस्खन इत्यादौ । २६९ (22) न च केवलशृङ्गारादिशब्दान्वि
ते विभावादिप्रतिपादनरहिते काव्ये मनागपि रसवत्त्वप्रतीतिः, यथा-'शृङ्गारहास्यकरुणाः' इत्यादौ । तस्मादन्वयव्यतिरेकाभ्यामभिधेयसाम
झंक्षिप्तत्वमेव रसादेन त्वभिधेयत्वं कथञ्चिदिति स्वशब्दवाच्यता दोष इत्यर्थः । एवं द्वितीय एव पक्षो न्याय्यः । एतेन शृङ्गाराद्याः शब्दाः शङ्गारादेर्वाचकाः इत्युद्भटोक्तं निरस्तम् ।
१७५ (22) न च केवलशृङ्गारादिशब्दमा-
त्रभाजि विभावादिप्रतिपादनरहिते काव्ये मनागपि रसवत्त्वप्रतीतिरस्ति यथा- 'शृङ्गारहास्यकरुणाः' इत्यादौ, तस्माद् अन्वयव्यतिरेकाभ्यां अभिधेय सामर्थ्याक्षिप्तत्वमेव रसादीनां, न त्वभिधेयत्वं कथंचिदित्युक्तम् । ततो व्यभिचारिरसस्थायिभावानां स्वशब्दोक्तिर्दोष इत्यर्थः । एतेन च रसवदर्शितस्पष्टशृङ्गारादिरसोदयम् । स्वशब्दस्थायिसंचारिविभावाभिनेयास्पदम्' इत्यस्य व्याख्यायां 'पञ्चरूपा रसाः' इत्युपक्रम्य 'तत्र स्वशब्दाः शृङ्गारायः शृङ्गारादेर्वाचका'
इति भट्टोद्भटोक्तं निरस्तम् ॥ (23) व्रीडादीनामिति, स्वशब्दोपा.
दानमिति योगः। १७६ (24) यत्रापि स्वशब्देन निवेदितत्व
मस्ति तत्रापि स्वशब्दप्रयुक्त्या विभावादिप्रतिपत्त्यैव रसादीनां प्रतीतिः । स्वशब्देन सा केव
लमनूद्यते। १७८ (25) तथा कादम्बर्या विप्रलम्भबी
जेऽप्युपक्रान्ते तदनुपयुक्ताटवीशबरादेरतिवर्णनम् ॥
२६८ (23) व्रीडादीनामिति । स्वशब्दोपा
दानमिति योगः। २७० (24) यत्रापि स्वशब्दनिवेदितत्वं वि.
भावादिप्रतिपादितत्वमप्यस्ति तत्रापि विभावादिमुखेनैव रसादिप्रतीतिः, स्वशब्देन सा
केवलमनूद्यते। २७२ (25) तथा हि कादम्बर्या 'रूपविला.
से'त्यादिना महाविप्रलम्भबीजमुपक्षिप्य तदनुपयोगिनामटवीशबरेशाश्रममुनिपुरीनृपादी
नाम् । २७३ (26) विस्मृतिरिति । अनुसन्धान
हि सहृदयतायाः सर्वस्वम् ।
(26) विस्मृतिरिति । अनुसंधिर्हि __ सहृदयसपैखम् ।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
50]
KÁVYAPRAKAŠA-SAYKETA
[उ.७ . सोमेश्वर
__ माणिक्यचन्द्र १८२ (27) अवदातमिति सातिशयं कर्म। २७४-७५ (27) अवदानमिति । सातिशयं अधिकं त्विति । अयं भावः ।
कर्म । अधिकमिति । अयं भाकेवलमनुष्यस्य सप्तार्णवल
.वः । स्वःपातालगमनाब्धिल. क्छन्नमसंभाव्यमानतयानृतमिति
वनादिकमदिव्यस्य वर्ण्यमानमहृदये स्फुरदुपदेश्यस्य चतु
सम्भाव्यतयाऽलीकमिति चिवर्गोपायस्याप्यलीकतां बुद्धौ
न्तयन्तो विनेया उपदेशस्य चनिवेशयति ।..... असंब
तुर्वर्गोपायस्याप्यलीकतां कल्पद्धतैवैतेषु शास्त्रेषूच्यते इति
यन्ति सर्वमिदं शास्त्रोक्तमप्रतीतिः स्यादिति।
सम्बद्धमितीति । १८३ (28) जगद् जगदंशाश्च देशः । तत्र २७५ (28) विश्वं, विश्वैकदेशाश्च देशः । सामान्य विवक्षायां जगदेकं,
एकं द्वे त्रीणि सप्त चतुर्दशैकयथा 'जगति सकले न्यासा
विंशतिर्वा विश्वानि स्युः ।.. दीनाम्' इति ॥ भूर्भुवः स्वरि
स्वर्गमर्त्यपातालमहर्जनस्तपःत्यादिविशेषविवक्षया त्वनेकं,
सत्यैः सप्तभिश्च वायुस्कन्धैः यथा
सप्तभिश्च पातालैः। विशेषविनमस्त्रिभुवनाभोगवृत्तिखेदभ
वक्षायामनेकत्वं, सामान्यविवरादिव ॥ महर्जनस्तपःसत्य
क्षायां त्वैक्यम् तत्र भूमध्ये मित्येतैः सह सप्तेत्यन्ये । यथा
जम्बूद्वीपप्लक्षशाल्मलिकुशकोहर्षस्य सप्तभुवनप्रथितोरु
वशाकपुष्कराद्याः सप्तद्वीपाः। कीर्तेः॥ तानि सप्तभिर्वायुस्कन्धैः सह चतुर्दशेत्यपरे। यथा-जयति चतुर्दशलोकवल्लिकन्दः॥ तानि सप्तभिः पातालैः सहैकविंशतिरित्येके । यथा-कीर्तयस्तव लिम्पन्तु भुवनान्येकविंशतिम् ॥ तत्र भूलोंके सप्त जम्बूद्वीपा
दयो द्वीपाः॥ १८४ (29) ते च समुद्रास्त्रयश्चत्वारः सप्त २७५ (29) एकत्रयः चत्वारः सप्ताब्धयो वेति कविसमयः॥
वाच्या इत्यादिकविप्रसिद्ध्या
सर्व घटते। (30) कालः काष्ठादिभेदभिन्नः। २७५ (30) कालः- काष्ठाकलामुहूर्तरात्रि
दिनपक्षमासर्तुवर्षादिभेदभिन्नः १८६-१८७ (31) षयः शैशवादि । जाति- २७५-७६(31) वयः शैशवादिकम् । जातिः ब्राह्मणत्वादिका स्त्रीपुंसादिका
स्त्रीपुंसादिका, ब्राह्मणत्वादिका वा। आदिग्रहणाद् विद्यावित्त
वा आदिशब्दाद्विद्यावित्तकुलाकुलपात्रादयो लभ्यन्ते । वेषः
दयः । व्यवहारादीत्यादिशब्दाकृत्रिम रूपम् । व्यवहारश्चेष्टा ।
दाकारवचनादयः। व्यवहारा
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION : APPENDIX A
उ.७]
[51 सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र १८६-१८७ (13) आदि-शब्दाद् आकारव- २७५-७६ (31) दीति देशादिभिः प्रत्येक चनादयो गृह्यन्ते ॥ वेषव्यवहा
योज्यम् । तेन देशवेषादेरौचिरादीति । देशादिभिः प्रत्येकं
त्येन निबन्धः कार्य इत्यर्थः। संबध्यते, तेन देशे वेषव्यवहा
एवं कालादौ योज्यम्। राकारवचनानामौचित्याद् निवन्धः कार्य इत्यर्थः । यथा कन्यकब्जीयदेशे उद्धतो वेषो दारुणो व्यवहारो भयंकर आकारः परुषवचनमनुचितम् । म्लेच्छेषु तदेवोचितम् । तथा नागरेषु यदुचितं तदेव कनककुण्डलादि ग्राम्येष्वनुचितम् ।
एवं कालादावप्यूह्यम् ॥ १८७ (32) यथौत्सुक्यनामा व्यभिचारी २७६ (32) यथौत्सुक्यनामा सञ्चारी साक्षानिबद्धश्चमत्कारी न तथा
साक्षात् स्वपदेनोक्तश्चमत्कारी तस्यानुभावश्चिन्तादिरूपं कार्य
न तथा तदनुभावश्चिन्तादिरूप्रतीतिकृदिति स्वशब्देनोक्तौ न
पश्चमत्कारीति स्वशब्देनौत्सुदोषः।
क्यनामा संचारी सम्प्रोक्तः। १९१ (33) 'वीराः स्वदेहान्' इत्यादिना २८० (33) 'वीराः स्वदेहान्' इत्यादितदीयोत्साहाद्यवगत्या कर्तृक
नोत्साहाद्यवगत्या कर्तृकर्मणोः मणोः समस्तवाक्यार्थानुयायि
समस्तवाक्यार्थानुयायितया तया प्रतीतिरिति शृङ्गारबी
प्रतीतिरिति मध्यपाठाभावेऽपि भत्सयोरन्तरेऽनिवेशितस्यापि
सुतरां वीरस्य व्यवधायकता । सुतरां वीरस्य व्यवधायकता
प्रतीयत इति भावः। (34) बोधिसत्त्वस्य सिंहीं स्वकिशो- २८१ (34) स्व डिम्भभक्षणप्रवृत्तसिंहिकारभक्षणप्रवृत्तां प्रति निजं श
याः स्वाङ्गं ददतो बुद्धस्य केनारीरं वितीर्णवतः केनचिच्चाटुकं
पि चाटुः क्रियते । पुलकोक्रियते । 'प्रोद्भूतः सान्द्रपु
द्भेदः परार्थसम्पादनसुखालकः' परार्थसंपत्तिजेनानन्द
भ्याम् । रक्तमसृगनुरक्तं च । भरेण यत्र । रक्ते रुधिरे मनो
मुनयश्चोबोधितस्मरावेशाश्चेति भिलाषो यस्याः । अनुरक्तं च
विरोधः जातस्पृहैरिति च मनो यस्याः । मुनयश्चोरोधि
वयमप्येवं कदा कृपालवो भवि तमदनावेशाश्चेति विरोधः ॥
प्याम इति भावः। 'जातस्पृहैः' इति च 'वयमपि यदि कदाचिदेवं कारुणिका भविष्यामस्तदा सत्यतो मुनयः' इति मनोराज्ययुक्तैः।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास ८ सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
पृ. १९६ (1) रसस्यैव माधुर्यादयो धर्माः। २८६ (1) रसस्यैव यन्माधुर्यादि तत्कथं तर्हि कथं 'मधुरा वर्णाः' इति
मधुरौजस्विप्रसन्ना वर्णा इति व्यवहार इत्याह-क्वचित्त्विति ।
प्रतीतिरित्याह- क्वचित्त्विति । आकार एवास्य शूर इति ।
शौर्यादीति । शौर्यादिसंयुक्तयथा शौर्यमुपचारात् तदद्धि
स्य । आकार एवेति । यथा व्यञ्जके शरीरे लोका व्यवह
शौर्यमुपचारात् तद्वयञ्जके रन्ति तथा वर्णेषु माधुर्याद
काये व्यवह्रियते, तथा वर्णानां यः । मधुररसाभिव्यञ्जकेषु
मधुरादिरसव्यञ्जकाना माधुवर्णेषूपचरितं माधुर्यमित्यर्थः ।
र्यादीति भावः। २०१ (2) 'चित्ते' इति । 'चहुट्टदि' निखा- २८८ (2) चित्त इति । चहुदि निखाता ता भवति । 'न खुट्टदि' न न्यू
भवति । खुट्टदि न न्यूनतामेनीभवति । 'विसट्टदि' विक
ति । विसट्टदि विकसति । सति । 'तरट्टी' प्रगल्भा।
तरट्टी प्रौढा। २०१ (3) 'अलंकारा अपि गुणवत्समवेता २८२ (3) शब्दार्थालङ्काराणां गुणवत्सएवेति' केचित्, तन्नेत्याह-अ
मवायेन स्थितिरिति भामहनुप्रासेति । 'उभयेषामपि
वृत्तौ भट्टोद्भटेन भणनमसत् । समवायेन स्थितिः' इत्यभिधाय 'तस्माद् गड्डरिकाप्रवाहेण गुणालंकारभेदः' इति भामहविवरणे यद् भट्टोद्भटोऽभ्यधा
त् तद् असत् । २०५ (4) यद् वामनः 'यस्मिन् सति बहू- २९४ (4) 'मसृणत्वश्लेषः यस्मिन् सति न्यपि पदानि एकपदवद् भास
बहून्यपि पदान्येकपदवद्भान्ती' न्ते ॥' स श्लिष्यत्यनेन पदं
ति वामनः, यथा-- “अस्त्युपदान्तरेण मसृणतयेति श्लेषः,
त्तरस्यां दिशि देवतात्मा"। यथा 'अस्त्युत्तरस्याम्'-1 २०५ (5) आरोहपूर्वोऽवरोहः समाधिः, २९५ (5) तस्मात् “आरोहावरोहक्रमः यथा 'निरानन्दः कौन्दे मधुनि
समाधिः” इति वामनः। परिभुक्तोज्झितरसे'॥ (6) यस्मिन् सति नृत्यन्तीव पदा- (6) यस्मिन् सति नृत्यन्तीव पदानि नीति वर्णना स्यात् ।
इति प्रतीतिरिति वामनः । २०६ (7) पदार्थे वाक्यवचनं, यथा- २९८ (7) पदार्थ वाच्ये वाक्योक्तिर्यथा'अथ नयनसमुत्थं ज्योतिर
चन्द्रपदे वाच्येऽत्रिनयनसमुओरिव द्यौः'। अत्र चन्द्रपद
त्थं ज्योतिरित्युच्यते । वाच्येऽर्थे 'नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेः' इति वाक्यं प्रयुक्तम् ॥
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ.
उ.८] INTRODUCTION : APPENDIX A
[53 सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र २०६ (8) वाक्यार्थे पदाभिधा यथा- २९८ (8) वाक्याथै पदोक्तिर्यथा-दि'दिव्येयं न भवति किं तर्हि मा
व्यैषा न स्यात् किन्तु मानुनुषी' इति वाच्ये 'निमिषति' पीतिवाच्ये निमिषतीत्युक्तिः ।
इत्युक्तम् । २०७ (9) घटनारूपः श्लेषः। क्रमकौटि- २९९ (9) नेत्रपिधानादेर्यः क्रमो यश्च ल्यानुल्बणत्वोपपत्तियोगश्च
कौटिल्यं तयोरनुल्बणत्वेनाघटना। नेत्रनिमीलनादीनां
ग्राम्यत्वेनोपपत्त्या युक्ततया क्रमः परिपाटी। कौटिल्यं वैद
यद्योजनं योगस्तद्रूपा घटना ग्ध्यम्। तयोरनुल्बणत्वेनाग्रा
या तदात्मा श्लेषः । यथाम्यत्वेनोपपत्त्या युक्ततया योजनं
दृष्दैकासनसङ्गते प्रियतमे पश्चाश्लेषः। यथा-'दृष्टूकासन
दुपेत्यादरात् । एकस्या नयने संगते प्रियतमे पश्चादुपेत्याद
पिधाय विहितक्रीडानुबन्धराद्' इति ।
च्छलः। ईषद्वक्रितकन्धरः सपुलकस्वेदोल्लसन्मानसामन्तर्हासलसत्कपोलपुलको धू
तॊऽपरां चुम्वति। २०८ (10) छन्दोविशेषविशेष्या गुणसंप- ३०१ (10) स्रग्धरादावोजः इन्द्रवज्रादौ त्तिरिति केचित् । तथा हि स्र
प्रसादः मन्दाक्रान्तादौ माधुग्धरादिप्वोजः, इन्द्रवज्रादिषु
र्यम्, शार्दूलादौ साम्यम् , समता, विषमवृत्तेष्वौदार्य,
विषमवृत्तेष्वौदार्यमिति छन्दोतच्च सव्यभिचारम् ॥
विशेषसाध्या गुणाः इत्येके ।
तदप्यसत्। २११ (11) एकं धर्मादिपुरुषमुद्दिश्यानन्त- ३०५ (11) एकं पुमर्थमुद्दिश्य प्रकारभङ्गया वृत्तान्तवर्णनप्रधाना शूद्रकादि
भूरिवृत्तान्तवर्णनारूपायां परिवत् परिकथा ॥ मध्याद् उपा
कथायां त्वितिवृत्तस्य न्यासे न्ततो ग्रन्थान्तरतः सिद्धमिति
भरः कार्यों न रसानाम् । वृत्तं यस्यां वर्ण्यते सा खण्ड
मध्यादुपान्ततो वा ग्रन्थान्तरकथा।
प्रसिद्धमितिवृत्तं यस्यां वर्ण्यते सा खण्डकथा । पूर्णकथा तु
प्रसिद्धा। २१२ (12) तत्र मुक्तकेषु रसबन्धाश्रयेण (12) तत्रैषां मध्ये मुक्तकेषु रसबन्धादीर्घसमासा रचना, अन्यथा तु
श्रयेण न दीर्घा वृत्तिः कार्या । कामचारः। सन्दानितकादिषु
अन्यथा तु खेच्छा । सन्दानिविकटबन्धौचित्याद् मध्यमस
तकादौ विकटबन्धत्वेन वृत्त्य- . मासादीर्घसमासे एव रचने ।
भावस्त्याज्यः । प्रबन्धाश्रिते प्रबन्धाश्रितेषु तु मुक्तकादिषु
तु मुक्तकादौ यथोक्तप्रबन्ध'त्वामालिख्य' इत्यादिषु यथो
विशेषा आराध्याः। पर्याबन्धेषु
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
54]
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
सोमेश्वर
[उ. माणिक्यचन्द्र ३०५ (12) तु दीर्घा वृत्तिस्त्याज्या। कदा
चिद्रौद्रादिविषये दीर्घायामपि • वृत्तौ परुषाग्राम्ये वृत्ती त्याज्ये।
२१२ (12) क्तप्रबन्धविशेषौचित्यम् । पर्या-
बन्धे तु असमासा-मध्यमसमासे एव, कदाचिद् रौद्रादिविषये दीर्घसमासायामपि घटनायां परुषा ग्राम्या च वृत्तिस्त्याज्या । परुषोपनागरिकाग्राम्याणां वृत्तीनां चौचित्यं यथाप्रबन्धं यथारसं चानुसर्तव्यम्।
उल्लास ९
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
३०६ (1) नारीणां स्त्रीणाम् । भङ्गे तु न
अरीणाम् । वामाः स्त्रियः प्रतिकूलाश्च । हितदिति । हितं करोति कृन्तति च । बलं शक्तिर्बलो दैत्यश्च तद्भावेनाप्रसिद्धात्मा दुर्बलो बिडौजाश्च ।
२२३ (1) 'नारीणां स्त्रीणां, न अरीणाम्'
इत्यन्यथा प्रयुक्तम् । 'जानासि' इत्येकस्योक्तिः । 'कश्चेतनः' इत्यन्यस्य । 'वामानाम्' प्रतिकूलानां स्त्रीणां च। 'हितकृद्' इत्यादि पुनराद्यस्योक्तिः। हितं करोति कृन्तति च । 'अबलानाम्' स्त्रीणां दुर्बलानां च । 'बलाभावेन प्रसिद्धात्मनो' दुबलस्य दैत्यस्य विनाशेन प्रसि
द्धात्मन इन्द्रस्य । २२४ (2) यायावरीयस्तु 'अभिप्रायवान्
पाठधर्मः काकुः स कथमलंकारी स्याद्' इति न काकुव
क्रोक्तिमाह। २२६ (8) अत्र यत् पूर्वार्धे दवदहनत्वं
विधेयं . तुहिनदीधिति]त्वं चानुवाद्य, तद् द्वयमप्युत्तरार्धे विपरीतं शेयम्।
३०८ (2) "अभिप्रायवान् पाठधर्मः का
कु: स नालङ्कारी स्यादिति"
तु यायावरीयः। ३१२ (8) अत्र पूर्वार्थे दवदहनो विधेयः ।
तुहिनदीधितिरनुवाद्यः । एतदेवोत्तरार्धे विपरीततया नेयम्।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
७.९]
INTRODUCTION APPENDIX A
सोमेश्वर
पृ.
२२८ (4) 'उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च' इत्यादौ च पौनरुक्त्यदोषाभावेऽपि न यमकत्वम् ।
२४० (5) प्राकृतेऽन्योऽर्थः । 'मम देहि रसं धर्मे तमोवशां तमः परिभूतामाशां गमागमात् संसाराद् हर । ण इति नः । तथा हे हरवधु शम्भुपत्नि शरणं त्वम् । चित्तमोहोऽपसरतु मे सह'सा' | 'चित्तमोह' मिति 'गुणाद्या: की' इति प्राकृते नपुंसकत्वम् । एवं संस्कृतमागध्योः संस्कृतपैशाच्योः संस्कृतशौर'सेन्योः संस्कृतापभ्रंशयोः श्लेषो ज्ञेयः । (a) संस्कृतप्राकृतयोर्योगः, यथा - सरले सहास - रागं परिहर रम्भोरु मुञ्च संरम्भम् । विरसं विरहायासं वोढुं तव चित्तमसहं मे ।
२४१ (6) 'सहस्रम् ' इति क्रियाविशेषणम् । 'स्यां स्याद्' इति च । नन्दतीति 'नन्दिता' नन्दिनो गणविशेषस्य च भाव इति तृच्-त-प्रत्यययोः श्लेषः ।
(7) 'हे हर सर्वस्य त्वं सर्वस्वम् ।
भवः संसारः, तच्छेदनिष्ठः । नयोपकारयोः सांमुख्यं शरीरवर्तनम् । आयासि [आ] गच्छसि' ॥ अपरोऽर्थः । 'हर अपहर, भव संपद्यस्व, नय निवारय । आयासि खेदकारि । वर्तनं वृत्तिं विस्तारय' । अत्र स्यादित्याद्योर्विभक्तयोः । वचनश्लेषे तूदाहृतम् ॥
[55
माणिकेचन्द्र
पृ.
३१५ (4) “उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एव" इत्यादौ तत्र पौनरुक्त्यदोषाभावाद्यमकत्वं प्रसज्येतेत्यर्थ ...
......
३२२-२३ (5) प्राकृतपक्षे तु हे हरवधु । शम्भुपत्नि मम देहि रसं धर्मे तमोवशामाशां गमागमात् भवात् हर स्फुटय । तथा नोऽस्माकं शरणं त्वं । चित्तमोहोsपसरतु मे सहसा बलेन । प्राकृतत्वाच्चित्तमोहमित्यत्र क्लीत्वम् । एवं संस्कृतस्यापभ्रंशादिभाषाश्लेषोऽपि ज्ञेयः ।
३३१ ( 5a ) तत्र संस्कृतस्य प्राकृतभाषया श्लेषो यथा-सरले सहासरागं परिहर रम्भोरु ! मुञ्च संरम्म् ।
विरसं विरहायासं वोढुं तव चित्तमसहं मे ।
३२३ (6) क्रियाविशेषणं सहस्रशब्दो बाहुल्यार्थः । स्यां स्यादिति च । नन्दतीति नन्दिता । नन्दिनो गणविशेषस्य भावो नन्दितेति चाख्यातकृत्तद्धितप्रत्ययानां भेदः ।
(7) हे शम्भो त्वं सर्वस्य सर्वस्वं । त्वमेव संसारोच्छेदतत्परस्सन् नयोपकारयोः साम्मुख्यं शरीरवर्तनमायासि आगच्छसि । अन्यच्च हर स्फोटय । भव सम्पद्यस्व । नय निवारय । आयासि खेदकारि वर्तनं तनु प्रथयेति । सुप्तिङ्गविभक्त्योभैदः ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
KÁVYAPRAKASA-SAMKETA
पृ.
माणिक्यचन्द्र ३२३ (8) अत्र प्रकरणादिना नियमाभावे
श्लेषो न तु ध्वनिः।
सोमेश्वर २४१ (8) प्रकरणादिना चाभिधाया अनि-
यन्त्रितत्वात् श्लेष एव, न तु
ध्वनिः। २४३ (9) किसलयवद दीपमानाभ्यां
कराभ्यां शोभते । सुखेनातुं यन्न शक्यं फलं तत्र तु
लुब्धानामीहितं प्रददाति । (10) अभङ्गत्वमात्रेण अर्थश्लेषत्वं
नोपपन्नमित्यर्थः तर्हि अर्थश्लेषस्य निर्विषयत्वमित्याह-अर्थश्लेषस्येति । अर्थश्लेषः, यथा
'स्तोकेनेति । (11) सह कलकलेन वर्तन्ते, सकलाः
कला यस्य च। २४४ (12) 'इहापि' इति शब्दालंकारम-
ध्ये । न च साधारणधर्मप्रयोगशून्ये उपमा भविष्यति, मनोज्ञत्वादिसाधारणधर्मसहिते तु श्लेष इति वाच्यम्, यतः पूर्णोपमाया निर्विषयत्वं स्यात् ॥ तर्हि यदाऽस्माकं मते पूर्णोपमाया निर्विषयत्वं तथा भवतां श्लेषस्य निर्विषयत्वमि
त्याशङ्याह-'देव त्वम्' इति । २४५ (13) न चेति । यथा विरोधाभासो
विरोधः, न तथा श्लेषाभासः श्लेषः। उभयार्थप्ररोहे हि
श्लेष इत्यर्थः॥ २४५ (14) एवमत्रापि वर्ण्यमानस्य मुक्ता-
मणित्वरूपणान्यथानुपपत्त्या वंशस्य कुलस्य वेणुत्वरूपणमनुक्तमपि गम्यते, एकदेशविवतित्वं च पूर्ववद् उद्भावनीयमेकस्मिन् देशे विशेषेण वर्तनात् । एकदेशविवर्तिरूपकस्य चास्य परंपरितरूपकत्वं काव्यप्रकाशकारमते।
(9) पल्लववदाताम्रभास्वद्भयां करा
भ्यां शोभते । सुखेनाप्तुं यन्न शक्यं फलं तत्र लुब्धानामी
हितं प्रदत्ते। (10) अभङ्ग इति । अर्थश्लेषतयोद्भ
टस्य यस्सम्मतः। न त्विति । न ह्यभङ्गत्वमात्रमालङ्कारताहेतुः किन्त्वन्वयव्यतिरेको । अर्थश्लेषस्य तर्हि को विषय
इत्याह-स्तोकेनेति। ३२६ (11) सह कलकलेन वर्तते यत् ,
सकलाः कला विद्यन्ते यत्र । ३२७ (12) इहापीति । शब्दालङ्कारप्रकर
णे। एतेन शब्दमात्रसाम्येऽप्युपमात्वं सिद्धम् । शून्य इति । चारुत्वादिधर्माप्रयोगे उपमा तत्प्रयोगे श्लेष इति परस्याशयः । ननु यदि पूर्णोपमायाः निर्विषयत्वभिया भवद्भिः शब्दसाम्येऽप्युपमात्वं स्मृतं तर्हि श्लेषस्य निर्विषयतेत्याह
देवेति । ३२८ (13) न चेति । यथा विरोधाभासो
विरोधो न तथा श्लेषाभासः श्लेष इत्यर्थः।
३२९ (14) भामहोक्तैकदेशविवर्तिरूपकस्य
मम्मटमते परंपरितसंज्ञा ॥ अत्र वर्णनीयस्य राज्ञो मुक्तामणित्वरूपणान्यथानुपपत्त्या वंशस्य गोत्रस्य वेणुत्वरूपणं साक्षादनुक्तमपि श्लेषबलावगम्यत इत्येकदेशविवर्तित्वम् । सद्वंशेत्यत्रैकदेशविवर्तिरूपकम् ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.९]
INTRODUCTION : APPENDIX A
[57
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
३३० (15) शब्दश्लेष इति । य एवेति
शब्दोऽर्थो वा । सैवेति । विचित्रता । एतेन स्वयं चेत्यादौ शब्द एव कविप्रतिभासंरम्भगोचर इति परमतेऽपि शब्दश्लेषता न त्वर्थश्लेषतेत्युक्तम् ।
२४६ (15) शब्दश्लेष इति । य एवेति,
शब्दोऽर्थो वा । तत्रैवेति शब्दे. ऽर्थे वा । 'वैचित्र्यम्' इत्यत्र 'स्वयं च पल्लवाताम्रा' इत्यादावपि शब्द एव कविप्रतिभासंरम्भगोचर इति शब्दालंकारतैव । न चार्थमुखप्रेक्षित्वमेव शब्दानामर्थालंकारनिबन्धनमि
त्याह(16) यद्यपि लिप्यक्षराणां खङ्गादि-
संनिविष्टत्वं, तथापि श्रोत्राकाशसमवेतवर्णात्मकशब्दाभेदेन तेषां लोके प्रतीतेर्वाचकशब्दालंकारत्वम्।
२४७ (17) तथा हि द्राढिकान्तरे साधा-
रणो मा-शब्दः । तस्य दक्षिणतोऽधः क्रमेण वर्णाश्चतुर्दश न्यस्येत् । ततः शिखायां साधारणः सा-शब्दः । ऊर्ध्वक्रमेण वामतश्चतुर्दशैव याव न्मा-शब्दः साधारणः। एतत् फलम् ॥ तस्यैव मा-शब्दस्य दक्षिणपार्श्वे निःसरणक्रमेण वामतश्च प्रवेशक्रमेण वर्णाः सप्त सप्त । एषा द्राढिका । ततो मा-शब्दाद ऊर्ध्वक्रमेण गण्डिकायां कार्या वर्णत्रयी । उपरि मा-शब्दः साधारणः । तस्य दक्षिणतो वामतश्च तथैव चत्वारो वर्णाः । एतच्च कुलकम् । ततस्तस्य मा-शब्दस्य उपरि वर्णद्वयम् । एतद् मस्तकम् । सा-मा-मा-शब्दा द्विपश्च
कृत्वो द्विरावृत्ताः॥ २४७ (18) एष मुरजबन्धः । तथा हि
पादचतुष्टयेन पतिचतुष्टये कृते प्रथमादिपादेभ्यः प्रथमपादायक्षराणि चत्वारि, चतुर्थादि
३३१ (16) लिपयः। तासामेव खड्गाद्या
कारोल्लासनासम्भवात्; लिपीनां च श्रोत्राकाशसमवेतवर्णात्मकशब्दाभेदेन प्रतीतेरत्र वाचकशब्दालङ्कारता न
लिप्यलङ्कारता। ३३१-३३२ (17) स्थापना यथा- दाढि
कान्तरे साधारणो माशब्दः, तस्य दक्षिणतोऽधःक्रमेण वर्णाश्चतुर्दश । शिखायां साधारणः साशब्दः । ऊर्ध्वक्रमेण वामतस्तावन्त एव यावन्माशब्दः साधारण एव तत्फलम् । तस्यैव माशब्दस्य दक्षिणतो निस्सरणक्रमेण वामतश्च प्रवेशक्रमेण वर्णास्सप्त सप्त । एषा द्राढिका । ततो माशब्दादूर्ध्वक्रमेण गण्डिकायां वर्णत्रयमुपरि माशब्दः साधारणः । तस्य दक्षिणतो वामतश्च तथैव चत्वारश्चत्वारो वर्णाः । एतच्च कुलकम् । ततस्तस्य माशब्दस्योपरि वर्णद्वयमेतन्मस्तकम् । सामामाशब्दाः द्विः पश्चकृत्वो द्विरावृत्ताः॥
३३२-३३३ (18) स्थापना यथा-पादचतु
ष्टयेन पङ्क्तिचतुष्टये कृते प्रथमादिपादेभ्यः प्रथमाद्यक्षराणि चत्वारि चतुर्थादिपादेभ्यः पञ्च
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
58]
KAVYAPRAKASA-SAMKRTA
[उ.९
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
३३२-३३३ (18) मादीनि च चत्वारि गृहीत्वा
प्रथमः पादः । द्वितीयात्प्रथम प्रथमाद द्वितीयतृतीये द्वितीयतृतीयाभ्यां चतुर्थे चतुर्थातृतीयद्वितीये तृतीयात्पादात् प्रथममक्षरं गृहीत्वा द्वितीयः पादः। द्वितीयादष्टमं प्रथमात्सतमषष्ठे द्वितीयतृतीयाभ्यां पञ्चमे चतुर्थात् षष्ठसप्तमे तृतीयादष्टमं च गृहीत्वा तृतीयः पादः। चतुर्थादिभ्यः प्रथमादीनि प्रथमादिभ्यः पञ्चमादीनि पादेभ्योऽक्षराणि गृहीत्वा चतुर्थः पादः।
पृ. २४७ (18) पादेभ्यः पञ्चमादीनि चत्वारि
गृहीत्वा प्रथमपादः । द्वितीयपादाद् आद्याक्षरं, द्वितीयतृतीयपादाभ्यां चतुर्थपञ्चमाक्षरे, चतुर्थपादात् तृतीयद्वितीये, तृतीयात् पादात् प्रथमंचाक्षरं गृहीत्वा द्वितीयपादः। द्वितीयाद् अष्टमं, प्रथमात् सप्तमषष्ठे, द्वितीयतृतीयाभ्यां पञ्चमे, चतुर्थात् षष्ठसप्तमे, तृतीयाद् अष्टमं गृहीत्वा तृतीयपादः । चतुर्थात् प्रथम, तृतीयाद् द्वितीयं, द्वितीयात् तृतीयं, प्रथमात् चतुर्थपञ्चमे, पुनर्द्वितीयात् षष्ठं, तृतीयात् सप्तमं चतुर्थाद् अष्टमं च गृहीत्वा
चतुर्थः पादः ॥ २४८ (19) एषोऽष्टदलपद्मः । तथा भा
शब्दः कर्णिकास्थाने, ततोऽक्षरद्वयेनैकं दिग्दलं निर्गमप्रवेशाभ्यां भा-शब्दं यावत् । ततो, ऽक्षरद्वयेन विदिग्दलं निर्गमेण तावतैव दिग्दलं प्रवेशेन भाशब्दं यावत् । पुनर्भा-शब्दो निर्गमेण च तदेवाक्षरद्वयमित्यादिना क्रमेण दलाष्टकमुत्पाद्यम् । एवं दिग्दलानि निर्गमप्रवेशाभ्यां उत्पाद्यानि, विदिग्दलानि तु प्रवेशेनैवेति दिग्दलवर्णानां द्वि-भाशब्दस्य चाष्टकृत्व
आवृत्तिः प्रस्तारे ॥ २४८ (20) तत्र हि प्रथमादिपादाद्यक्षराणि
चतुर्थतृतीयद्वितीयप्रथमपदाटमाक्षराणि च प्रथमाः प्रथमपादः। प्रथमादिपादद्वितीयाक्षराणि च चतुर्थादिपादसप्तमाक्षराणि च द्वितीयपादः । एवं तृतीयषष्ठाक्षरैस्तृतीयः पादः चतुर्थपञ्चमैश्चतुर्थः
३३३ (19) स्थापना यथा-भाशब्दः कर्णि
कास्थाने । ततोऽक्षरद्वयेनैकं दिग्दलं निस्सरणक्रमेण विदिग्दलं चाक्षरद्वयेन प्रवेशक्रमेण । ततः स एव भाशब्दस्ततोऽक्षरद्वयेन दिग्दलं निर्गमप्रवेशाभ्यां भाशब्दं यावत् । ततोऽक्षरद्वयेन विदिग्दलं निर्गमेण तावतैव दिग्दलं प्रवेशेन भाशब्दं यावत् । पुनर्भाशब्दो निर्गमेण च तावदक्षरद्वयमित्यादिना क्रमेण दलाष्टकमुत्पाद्यमिति दिग्दलवर्णानां द्विः
भाशब्दस्य चाष्टकृत्व आवृत्तिः। ३३४ (20) तत्र हि प्रथमादिपादानां प्रथ
मैः चतुर्थतृतीयद्वितीयप्रथमपादानां अष्टमैश्चाक्षरैः प्रथमपादः। एवं द्वितीयसप्तमैः तृतीयषष्ठेश्चतुर्थपञ्चमैश्च द्वितीयतृतीयचतुर्थपादाः । इह च सवत्र तदेवोपलभ्यत इत्यर्थभ्रमस्याप्यवस्थानात् सर्वतोभद्रम् ।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.९]
INTRODUCTION : APPENDIX A
[59
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
२४८ (20) पादः । इह च सर्वे [त] दैव
उपलभ्यत इति अर्धभ्रमस्या
प्यवस्थानात् सर्वतोभद्रम् । २४९ (21) अन्ये इति, मुशलधनुर्वाणश-
क्तिहलशूलस्वस्तिकनागपाशचक्रादयः। स्वरव्यञ्जनस्थानगतिनियमेऽन्येऽपि चित्रप्रका
राः संभवन्ति । २५० (22) वर्णच्युतं यथा--
• सितनृशिरःसजा [च] रविमौ. लिशिरोमणिभूषणैस्तया शिखिरुचिरार्धदृक् पृथुललाटतटे तिलकक्रिया च सा। स्फुटविकटाट्टहासललितं वदनं स्मितपेशलं च तद् अभिनवमीश्वरो वहति वेषमहो तुहिनाद्रिजार्धयुक् ॥ अत्र गौरीश्वरवर्णने सिद्धिच्छन्दसि प्रतिपादमाद्याक्षरद्वयपातेऽन्त्याक्षरसतकच्युतौ चेश्वररूपवर्णनमेव प्रमिताक्षरावृत्तेन, यदि वा आद्याक्षरसप्तकच्युतौ अन्त्याक्षरद्वयपाते च गौरीवर्णनं द्रुत
विलम्बितवृत्तेन ॥ २५१ (23) आमुखे इति, न पुनः परमा-
र्थतः पर्यवसानेऽन्यार्थत्वमित्यर्थः॥
३३३-३३४(21) खड्गादित्यादिशब्दान्मुसल
धनुर्बाणचक्रशक्तिशूलहलस्वस्तिकादयः । तथैकद्वित्रयादिव्यञ्जनस्थानपादाश्लिोकगतप्र
त्यागतादयश्चित्रमेदा ज्ञेयाः। ३३४-३५ (22) स्खं वर्णच्युतं यथा-नृपदि
तिजामरप्रभुनतात्रियुगो जलदद्यतिर्विभः, प्रथभजगाधिपस्फुटफटासुभगः कमठारिजित्तथा । शिवसुखसंपदेव्ययविलासगृहं निखिलैनसां हरो, धनविधुता वनीं हरतु सकलः कलिलावनी जिनः ॥ अत्र श्रीपार्श्ववर्णने सिद्धिच्छन्दसि प्रतिपादमाद्याक्षरद्वयस्यान्त्याक्षरसप्तकस्य च च्युतौ प्रमिताक्षरावृत्तेन, तथाऽऽद्याक्षरसप्तकस्यान्त्याक्षरद्वयस्य च्युतौ द्रुतविलम्बितवृत्तेन तस्यैव वर्णनम् ।
३३५ ।।
आमुख इति । न तु परमार्थतः। एतेन पर्यवसानान्यथात्वं लब्धम् ॥
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास १० सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र २५३ (1) उपमैव प्रकारवैचित्र्येण अने- ३३८ (1) तत्रापि प्रकारवैचित्र्येणानेकाकालंकारबीजभूतेति प्रथम
लङ्कारबीजमिति पूर्वमुपमोनिर्दिष्टः [ष्टा] ॥
च्यते। २५३-५४ (2) उप समीपे मीयते क्षिप्यते (2) उप समीपे मीयते क्षिप्यते खसादृश्यप्रापणाद् उपमेयं
सर्वसादृश्यप्रापणादुपमेयं येन येन तत् प्रसिद्धम् उपमानम् ।
तदुपमानं, तथा तेन यत्तु समीयत्तु तेन समीपे क्षिप्यते सौन्द
पे क्षिप्यते गुणद्वारेण तदुपमेयं, र्यादिगुणयोगित्वेन तत्र प्रक
हृद्यतया कविना यदुत्कृष्यते रणेऽप्रसिद्धं वदनादि तद् उप
तदुपमानम् , अन्यदुपमेयं, न तु मेयम् । 'इन्दुमुखी' इत्यादौ
प्रसिद्धमप्रकृतं चोपमानमन्यदुप्रसिद्धं चन्द्रादि उपमानं, अ
पमेयम् । एवं हिप्रसिद्धं तु मुखादि उपमेयम् ॥
"ततः कुमुदनाथेन कामिनीगननु च
ण्डपाण्डुना” इत्यादौ चन्द्रादेः ततः कुमुदनाथेन कामिनीगण्ड
प्रसिद्धस्योपमेयत्वं गण्डादेरप्रपाण्डुना। नेत्रानन्देन चन्द्रेण माहेन्द्री
सिद्धस्योपमानत्वं न स्यात् ।
प्रकृताप्रकृतत्वेपि कविविववादिगलंकृता॥ इत्यादौ कामिनीगण्डादेरप्रसि
ङ्गीकार्या । चन्द्रगण्डयोरुपमाद्धस्याप्युपमानत्वं, चन्द्रादेश्च
नोपमेयत्वप्रसिद्धौ सत्यामपि उपमेयत्वं दृश्यते । सत्यम्,
प्रसिद्धिविपर्यासेनौपम्यस्य कअत्रापि कामयते प्रियमिति
ल्पितत्वाद्विपर्यासोपमा । यौगिकत्वाश्रयेण कामिनीशब्दात् प्रतीयमानहृदयस्थितदुर्लभमनोहारिप्रियतमाया गण्डश्चन्द्रादपि अधिकचमत्कारितया प्राधान्येन प्रसिद्ध इति कविविवक्षावशादेव प्रसिद्ध्यप्रसिद्धी अङ्गीक्रियेते । येऽपि प्राकरणिकमुपमेयं, अप्राकरणिकमुपमानमिति आद्रियन्ते तैरपि कविप्रसिद्धिरङ्गीकार्यैव । तेन सत्त्वज्ञेयत्वप्रमेयत्वादिसाधये नोपमा । तथा 'कुम्भ इव मुखम्' इत्यादि शृङ्गारादौ च । हास्यादौ तु न दोषः । कार्यकारणादिकयोः साधर्म्यस्य असंभवाद् उपमानोपमेययोरेव साधर्म्य भवतीति तयोरेव समानधर्मेण संबन्धे उपमा ।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १० ]
INTRODUCTION: APPENDIX A
सोमेश्वर
पृ.
२५५ (३) उपमानादिचतुष्टयं यत्र प्रयुज्यते सा पूर्णोपमा ।
1
२५५-५६ ( 4 ) तथैव अयं यथा-इवादि रुपमानोपमेययोरेकतरस्मिन्नपि अविश्रान्तः श्रीतेन रूपेणोभयाधारमुपमानोपमेयभावं द्योतयतीति श्रौती । तत्सद्भावे, यथा-इव-वा-सद्भावे। तथैवेति, 'श्रौती' त्यर्थः । इवार्थे वतेर्विहितत्वाद् इव शब्दवच्छ्रतेन रूपे णोभयानुयायितयोपमानोपमेयत्वावगतिः । 'तेन' इति चन्द्रेण तुल्यं मुखम् " तद्' इति चन्द्रविम्बं तुल्यं मुखस्य ॥ 'इदं च' इति चन्द्रबिम्बं च मुखं च तुल्यम् । साम्यपर्यालोचनयेति । सममेव साम्यं साधारणो धर्मः । तुल्यता द्विष्ठरूपं सादृश्यम् । न तु तुल्यादिशब्दादेव साम्यप्रतीतिः, अपि तु अर्थात्, तुल्यादीनां पदानामुपमानोपमेययोरेकतरत्रैव विश्रान्तेः, तु तद्गतसादृश्यपर्यालोचनया तत्संबन्धित्वावगतिः ।
अन्यत्र
२५७ (5) 'सुरतरुणा सदृश' इति सहश-शब्देनोपमेये विश्रान्तेन उपमेयगतं सादृश्यं स्वकण्ठेनाभिहितम् । उपमाने च तस्यार्थात् प्रतिपत्तिः, उपमेयवर्तिसादृश्यविचारेण उपमानोपमेयत्वावगतेः । बहुव्रीहौ तु उपमाने विश्रान्तेरुपमानगतसादृश्यपर्यालोचनया उपमेयस्य उपमेयत्वावगतिः ॥
[ 61
माणिक्यचन्द्र
पृ.
३३९ (४) उपमानमुपमेयं साधारणधर्म उपमाप्रतिपादकश्च यत्र स्युः पूर्णा ।
1
३४०-४१ ( 4 ) तथैवायमिवादिरुपमानोपमेयोरेकत्राप्यविश्रान्तः श्रुत्या द्विष्टं उपमानोपमेयभावं वक्तीति । तत्सद्भावे यथेवादिभावे । श्रौती । तथैवेति । श्रौतीत्यर्थः । इवार्थे विहितो वतिरिववत् शेयः । तेनेति । चन्द्रेण । तत्तुल्यमिति । चन्द्रबिम्बं तुल्यं मुखस्य । इदं चेति । मुखं च चन्द्रबिम्वं च तुल्यम् । उभयत्रापीति । क्रमेणेति शेषः । पूर्वस्योस्वेकत्रैवेति भावः तुल्यादिति । तुल्यप्रकारशब्दानाम् । साम्येति । सममेव साम्यम् । समानो धर्मः । द्विष्ठरूपं सादृश्यं तुल्यता । अयं भावः- उपमानोपमेययोः साम्यप्रतीतिर्न तुल्यादिशब्दादेव, किन्त्वर्थातू, तुल्यादिपदानामेकत रत्रैव विश्रान्तेः । अन्यत्र तु साम्यालोचनया सादृश्यप्रतीतिः ॥
३४३ ( 5 ) अत्र सुरतरुणा सदृश इति
सदृशशब्द उपमेय विश्रान्तस्तद्गतं सादृश्यं साक्षाद्भूते । अन्यत्र तु सादृश्यं अर्थात्प्रतीयते, बहुव्रीहौ तूपमाने सदृशशब्दो विश्राम्यति । ततस्तत्र सादृश्यं साक्षादपरत्र तु अर्थात् । इयं समासे आर्थी पूर्णोपमा ॥
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
62] KAVYAPRAKA6A-SAMR ETA
[उ. १० सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र २५७ (6) तद्धिते श्रौती पूर्णा, यथा-'गा- ३४३ (G) गाम्भीर्येति। तद्धिते श्रौती पूर्णेम्भीर्येति । भुजंगवद् ‘इत्यत्र'
यमिति योगः भुजङ्गवदित्यत्र तत्र तस्यैव इत्यनेन वतेस्त
इवार्थे वतिः, ततः । श्रौतीत्वं । द्धितस्य विहितत्वात् श्रौती ।
भुजङ्गः कामी । स चार्थात्सभुजंगः कामुकः, स चात्र
मुद्रः । अम्बररत्नं रविस्तेन अब्धिः । अम्बररत्नं सूर्यः ।
तुल्यः, तुल्यार्थे वतिः। स तथा 'सूर्य' उपमानं, 'स' इति
चोपमेये साक्षात् विश्रान्तः, उपमेयः, 'दुरालोकत्वं' साधा
उपमाने तु साम्यपर्यालोचनरणो धर्मः।अम्बररत्नेन तुल्यः।
योपमानताप्रतीतिरितीयं तद्धि'तेन तुल्यं क्रिया चेत् वतिः'
ते पूर्णाऽऽर्थी ॥ इत्यनेन क्रियातुल्यत्वे विहितो वतिरुपमेये शाब्देन वृत्तेन विश्रान्तस्तुल्यत्वपर्यालोचनया उपमानस्य उपमानत्वं गमयतीति।
३४३-३४४ (7) स्वाधीनेति । अयं भाव:ध्वनिव्यवहारः, अथ अस्फुटं
प्रतीयमानं चेद्यक्तं तदा ध्वतदा गुणीभूतव्यङ्ग्यव्यवहार
निव्यवहारः, अथास्फुटं तदा इत्याशयेनाह-स्वाधीनेति ।
गुणीभूत व्यङ्गयव्यवहारः॥ अलंकारान्तरं चेति। तद्धि
अलङ्कारान्तरं चेति। तद्ध्यनुअनुप्रासादिश्लिष्टतरमपि का
प्रासादि श्लिष्टतरमपि काव्ये व्ये यदि अव्यभिचारितयैव
यद्यव्यभिचारितयैव गण्येत, गण्यते, तदा तेन सहोपमा
तदा तेन सहोपमादीनां सङ्करदीनां संकरसंसृष्टी स्याता
संसृष्टी स्यातामिति केवलतयैमिति केवलतयैव एषां विना
वैषां विषयो नावकल्पेत । तदिवकल्पेत ॥ तदिति । स चा
ति । स चास्फुटतरो रसास्फुटतरो रसादिरर्थस्तथा
दिरर्थः। तच्चालङ्कारान्तरमिति 'अलंकारान्तरम्' इति नपुंस
नपुंसकैकशेषः। संस्पर्शपदाकैकशेषः। अस्फुटश्च रसादि
दत्र रसादिरस्फुटतरो ग्राह्यः । र्गुणीभूतविषय इति अस्फुट
अस्फुटातिस्फुटस्य तु गुणीतरोऽत्र गृह्यते, इति 'संस्पर्श
भूतव्यङ्गयता ॥ तद्रहितत्वेनेपदेनात्र ध्वनितम् । तद्रहित
ति। रसाधलङ्कारान्तररहितत्वेनेति रसाचलंकारान्तराभ्यां
त्वेन । विना वैरस्यं वहन्तीति न विरोधः ॥ लुप्तामाह-तद्वदिति ।। पूर्णोपमावद् लुप्तोपमापि वाक्यसमासयोः श्रौत्यार्थी चेति द्विद्विमेदाः तद्धिते तु आर्युव, न श्रीती।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १०]
INTRODUCTION : APPENDIX A
68
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
पृ.
२४९ (8) समासे आर्थी यथा- 'अमृतो- ३४५-४६ (8) समासे आर्थी यथा-अमृ. पमा' इति । अत्र 'माधुर्यादि'
तोपमेति । अत्र माधुर्यादिलोधर्मलोपः ॥ तद्धिते आर्थी,
पः । तद्धिते आर्थी यथायथा- 'विषकल्पम्' इति ।
विषेति । यदि वेत्सि तज्जीव'यदि वेत्सि तद् जीवसि' इति
सीत्यन्वयः। अत्र दारुणधर्मसंबन्धः । अत्र दारुणधर्मलोप
लोपः । ईषदपरिसमाप्तं विषं इवार्थश्च कल्पप्प्रत्ययेन सा
मन इत्युक्त्या आमुखे रूपकाक्षाद् अभिहितः । 'ईषद् अप--
वभासः । निर्वाहे तु विषसरिसमाप्तं विषम्' इति वचन
दृशं मन इति प्रतीत्या प्रातीवृत्त्या सामानाधिकरण्यरूपया
तिकेन रूपेणोपमैव । ईषदपयद्यपि रूपकच्छायां भजते,
रिसमाप्तिविशिष्ट प्रकृत्यर्थसतथापि प्रातीतिकेन रूपेण उ
दृशेऽर्थे कल्पवादीनां स्मरपमैव । तथा हि अत्र 'विषस
णात् । ईषदपरिसमाप्तं विषं दृशं मनः' इत्ययमर्थः प्रतीयते,
विषकल्पशब्देनोच्यते । न तु 'ईषद् अपरिसमाप्तं विषमेव' इति ईषदपरिसमाप्तिविशिष्ट प्रकृत्यर्थसदृशेऽर्थे कल्प
बादीनां स्मरणात्। २६० (9) अत्र यद्यपि सदृशशब्दाभि- ३४७ (9) अत्र सदृशशब्दवाच्यस्योत्कृष्टधेयस्य उत्कृष्टतरगुणत्वेन अ
त्वेन बलादुपमानत्वं तच्च सरिप्राप्यताप्रतिपादनाद उपमा
समिति विशेषणेनाक्षिप्यते, नत्वं बलाद् आयातं, तथापि
नात्र साक्षात्प्रतीयते इत्युपमातस्य साक्षाद् अनिर्देशाद् उप
नानुपादानं...। मानस्य लोपः। २६१ (10) सदृक्षशब्दाभिधेयस्य उत्कृ- ३४९ (10) सदृक्षशब्दवाच्यस्योत्कृष्टगुणटतरगुणत्वप्रतिपादनाद् बलाद्
त्वेन बलादुपमानत्वं इत्युपमाआगतस्य उपमानस्य साक्षाद्
नस्यैव लोपः। अनिर्देशाद् उपमानस्यैव लोपः। २६२ (11) विलासाय विलब्धो दत्तो वि- ___३५० (11) विलासाय विलब्धो दत्तो विग्रहो यया । विशरारितं वि
ग्रहो यया सा। तथा मृगनभिन्नम् । 'स्मरशरविशरांचि
यने इव नयने यस्या इति 'सप्तत' इति पाठान्तरम् । 'मृगस्य
म्युपमान' इत्यादिनोपमानपूनयने' इति प्रथमं तत्पुरुषः,
वस्य समासः उत्तरपदलोपश्च । ततो 'मृगनयने इव नयने य
अत्र धर्मस्येवादेरुपमानस्य च स्थाः' इति सप्तम्युपमानोपमा
लोपः। यदा मृगशब्द एव नपूर्वस्य समास उत्तरपदलो
लक्षणया मृगनयनवृत्तिः। तदा पश्चेत्यत्र गुणद्योतकोपमानानां
मृग एव नयने यस्या इति त्रयाणां लोपः। यदा तु मृग
रूपकसमासस्यैष विषयः। न शब्द एव लक्षणया मृगनयन
तूपमासमासस्य।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
64]
KAVYAPRAKASA-SA MKETA
सोमेश्वर
पृ.
२६२ ( 11 ) वृत्तिः, तदा मृग एव नयने यस्या इति रूपकसमासस्यैष विषयः, न त्वस्य उपमासमास्येति ।
२६४ ( 12 ) 'विलासायुधः कामः, लासः क्रीडनम् ।' अत्र 'सैव नितम्बिनीव' इति 'तद्विलासा इव' इत्येतच्च भेदाभावाद् उपमानतया विश्रान्तिमलभमानमन्यव्यावृत्तौ लक्षणयावतिष्ठते । ( 13 ) अत एवान्यधर्माणां स्वधर्मभूताद् वस्तुन उत्कलितानां रसभावाद्यनुगुणतया वस्त्वन्तराध्यस्तत्वेन लब्धप्रकर्षाणामीक्षणम् उत्प्रेक्षा । सा च मन्ये- प्रभृतिभिद्यत्यते ।
२६६ (14) अकालसंध्यामिव धातुमत्ताम् । आवर्जिता किंचिदिव स्तनाभ्यां वासो वसाना तरुणार्करागम् ।
सुजातपुष्पस्तव कावनम्रा संचा रिणी पल्लविनी लतेव ॥ अचिराभामिव [च]घनां ज्योनामिव कुमुदबन्धुना विकलाम् ।
रतिमिव मन्मथरहितां श्रियमित्र हरिवसः पतिताम् ॥ स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः । हिरण्मयी साssस लतेव जं
गमा ॥
च्युता दिवः स्थारिवाचिरप्रभा || बालेन्दुवक्राण्यविकाशभावाद् बभुः पलासान्यतिलोहितानि ।
सद्यो वसन्तेन समागतानां नखक्षतानीव वनस्थलीनाम् ॥ इत्यादि उत्प्रेक्षैव । धातुमत्ता
पृ.
माणिक्यचन्द्र
[ उ. १०
३५३ ( 12 ) विलासायुधः कामः लासः क्रीडा, अत्र नितम्बिनी नितम्बिनी वेति, विलासा विलासा इवेति भेदाभावादुपमानतयाऽनुपपद्यमानमन्यव्यावृत्तौ लक्षणयाऽवतिष्ठते ।
३५४ ( 13 ) अन्यधर्माणां स्वधर्मिभूताद्वस्तुन उत्कलितानां रसभावाद्यभिव्यक्त्यनुगुणतया वस्त्वन्तराध्यस्तत्वेन लब्धप्रकर्षाणामीक्षणमुत्प्रेक्षा । तस्याश्च मन्ये शङ्के ध्रुवमिवाद्या व्यञ्ज
काः ।
२५५ (14) “अकालसन्ध्यामिव धातुम
""
ताम्
""
स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः " "भूगतामिव कौमुदीम्” " रम्भामिव भुवं गताम्' इत्यादि तूत्प्रेक्षैव । धातुमत्तादेहि प्रत्यक्षेणैव कालसन्ध्यादिसादृश्यमुपलभ्याकाले सन्ध्या न स्यादित्यसम्भाव्यवस्त्वध्यवसायस्य सम्भावना क्रियते अकालसन्ध्यामिवेति । प्रत्यक्षोपलम्भे च न युक्तयन्तराकाङ्क्षा । उपमानस्यासम्भवान्न तूपमा ।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १० ]
INTRODUCTION: APPENDIX A
सोमेश्वर
पृ.
२६६ ( 14 ) दीनां हि प्रत्यक्षत एव अकालसंध्यादिसादृश्यमुपलभ्य अकाले संध्या न भवतीति असंभाव्यमानवस्त्वध्यवसायस्य संभावना क्रियते । 'अकालसंध्यामिव' इति प्रत्यक्षोपलब्धौ च न युक्त्यन्तरं मार्ग - णीयम्, न तु उपमा, उपमानस्य असंभवात् ।
२६६-६७ ( 15 ) न हि भवति 'भारं वहतीव पुंगवः', 'पयो ददातीव स्त्रीग at' इत्युत्प्रेक्षा ।
२६८ (16) अत्र 'स खलु तुरगैः' इत्यादिवद्भेदकं किमपि नोक्तं, 'चन्द्रो ह्येवंविधः' इत्यादेरभणनात् । 'नामितं नु गगनं स्थगितं नु' अत्र उत्प्रेक्षाश्रयेण संदेहः, तथा हि तिमिरकर्तृकायां शैलगगनादिव्याप्तौ रञ्जितत्वमुत्प्रेक्षितं, गगनानमितत्वाद्युत्प्रेक्षान्तरसंभवात् संदेहमागतम् । अन्ये तु 'नुशब्दः संभावनाद्योतक इत्युत्प्रेक्षैवेत्याहुः ॥
( 17 ) अभेदप्राधान्ये त्वाह- तद्रूपकमिति । रूपयति एकतां नयतीति रूपकम् ।
२६८ (18) तथा मुखं चन्द्र इत्यादिरूपके चन्द्रेण स्वगुणा लक्ष्यन्ते । तैर्मुखगुणाः तैरपि मुखम् । ततश्च सामानाधिकरण्यं मुखचन्द्रयोर्गुणद्वारेण ताद्रूप्यादिप्रतीत्योपपद्यते । अत एव च भेदेऽप्यभेदप्रतीतिः ॥
२६९ (19) 'चन्द्र एव मुद्राकपालम् ॥ अत्र पादत्रयमिति । समस्त
0
पृ.
माणिक्यचन्द्र
[ 65
३५६ ( 15 ) " भारं वहतीव पुंगवः" "पयो ददातीव स्त्रीगवी " तु हृद्यत्वाभावान्नोत्प्रेक्षा ।
इत्या
३५८ ( 16 ) अत्र च स खलु तुरगैरित्या - दिवन्न भेदोक्तिः । चन्द्रादयो ह्येवंविधा इत्यनुक्तेः । उत्तराधेन सन्देहनिर्वाहाच्च शुद्धत्वम् । तथा" रञ्जिता नु विविधास्त रुशैला नामितं तु (? नु) गगनं स्थगितं नु” अत्र ध्वान्ताद्यैः तर्वादि न व्याप्तं । किन्तु रञ्जितमित्याद्युत्प्रेक्षितं सन्देहद्वारेणेत्युत्प्रेक्षाश्रयेण सन्देहद्योती तु (? नु) शब्दः । अन्ये तु तु (? नु) शब्दः संभावनाद्योतकत्वादुत्प्रेक्षामेवाहेत्याहुः ।
( 17 ) रूपयत्येकतां नयतीति रूपकम् । अभेद इति भणनादभेदप्राधान्ये रूपकं स्यादिति ल ब्धम् ।
३५८ ( 18 ) तथा मुखं चन्द्र इत्यादि रूपके चन्द्रेण स्वगुणा लक्ष्यन्ते । तैर्मुखगुणाः तैरपि मुखम् । ततश्च सामानाधिकरण्यं मुखचन्द्रयोर्गुणद्वारेण ताद्रूप्यादिप्रतीत्योपपद्यते । अत एव च भेदेऽप्यभेदप्रतीतिः ।
३५९ ( 19 ) ज्योत्स्नेति । चन्द्र एव मुद्राकपालम् । अत्र पादत्रये समस्त
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
66]
KAVYAPRAKASA-SAMKKTA
सोमेश्वर
पृ.
२६९ ( 19 ) वस्तुविषयस्य उदाहरणमित्यर्थः । चतुर्थपादे तु आरोपपूविकाहुति [:]
२७० (20) साङ्गमेतदिति सूत्रम् । न केवलं यत्र तस्यैव रूपणं, अपि तु तदङ्गस्यापि ।
२७०-२७१ ( 21 ) 'प्रेमलतिका' मिति । अत्र hatsaa लतालक्षणो रूपितः, न पुनस्तदवयवाः पत्रादय इति शुद्धत्वम् । 'प्रेमैव लतिका' इति मयूरव्यंसकादित्वादेव शब्दलोपी समासः । ननु, व्याघ्रादिद्वारेण इव-शबदलोपी समासो दृश्यते, लुप्तोपमायां सोऽपि स्यादिति संदेहसंकरः प्राप्नोति । सत्यम् । यत्रान्यतरपरिग्रहे साधकप्रमाणाभावस्तदितरस्य परिहारे न स्याद्वाधकं प्रमाणं, तत्रैव उभयप्रसङ्गः, स एव च संदेहसंकरः, इह तु लतायाः सेचनमानुकूल्याद् आरोपितधर्म एवेति रूपकपरिग्रहे साधकमिति न संकरः ।
वा
२७२ (22) ननु, मानसशब्दपरिवृत्तौ पर्यायान्तरे सति नालंकार इति शब्दालंकारत्वं, अवरस्मिंस्तु परिवर्तितेऽपि सति न स हीयत इत्यर्थालंकारता । ततश्च शब्दालंकारः परंपरितरूपकं, न तु अर्थालंकार, इत्याशङ्कयाह यद्यपीति ॥ मिति शब्दश्लेषे पुनरुक्तवदाभासे च । वक्ष्यत इति संकरालंकारे ॥ एकदेशेति । परंपरितमेव उद्भटादिभिरेकदेशवृत्तीत्युच्यते ।
उक्त
२७६-७७ (23) द्वयोरप्यर्थयोः प्राकरणि
कतया
विवक्षितत्वादिति
[ उ. १०
माणिक्यचन्द्र
पृ.
३५९ ( 19 ) वस्तुविषयं रूपकम् । चतुर्थे पादे त्वपहुतिः ।
३६१ (20) साङ्गमेतदिति । न केवलं यत्र तस्यैव रूपणं अपि तु तदङ्गस्यापि ।
( 21 ) प्रेमेति । अत्र लताङ्गिनी (ङ्गी) रूपिता न तु तदङ्गं पत्रादीति शुद्धम् । प्रेमैव लतिकेत्यत्रान्यत्रापि रूपकसमासे मयूरव्यंसकादित्वादेव शब्दलोपः । उपमासमासे तु सर्वत्र व्याघ्रादित्यादिवशब्दलोपः । अत्र तु लतायाः सेचनमानुकूल्यादारोपितधर्म एवेति रूपकस्य साधकं प्रमाणमिति न सन्देहसङ्करः ।
1
३६३ ( 22 ) यद्यपीति । अयं भावः - मानसादीनामन्वयव्यतिरेकाभ्यां अपरावृत्तिसहत्वे हंसादीनां तत्सहत्वे उभयालङ्कारः परम्परितरूपकम् । उक्तमिति । पूर्व शब्दश्लेषपुनरुक्ताभासयोः । वक्ष्यत इति । सङ्करालङ्कारे । अन्यैरिति । उद्भटाद्यैः परम्परितमेकदेशविवर्तिनाम्नोचे । तथा 'त्वमेव हंस' इत्याद्यारोपणपूर्वको मानसमेव मानसमित्याद्यारोप इत्यन्ये ।
३६८ (23) वक्ष्यमाणार्थसूचाभिप्रायेणोक्तौ न श्लेषः द्वयोरर्थयोः प्रकृतत्वे
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION : APPENDIX A
[67.
सोमेश्वर
माणिकेचन्द्र
वक्तुमनिष्टत्वात् किन्तु वस्तुध्वनिरेव । यथा-"यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य इति" अत्र प्रकृतत्वेनार्थो न्यायनिष्टपुंवृत्तिः, सूचाभिप्रायेण तु रामादिवृत्तिः।
२७६-७७ (23) भावः । यत्र तु वक्ष्यमा
णोपक्षेप्यर्थनिष्ठमुपक्षेपपराभिधासंसू चकत्वं यथा-यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यश्चोऽपि सहायताम् । अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति॥इत्यादौ, तत्र न श्लेषोऽर्थद्वयस्य प्रकृतत्वेनाभिधेयतया वक्तुमनिष्टत्वात् , किं तु अर्थशक्तिमूलो वस्तुध्वनिरेव । तथा हि प्रकृते न्यायवतः पुंसस्तियश्चोऽपि सहायाः, सूचनीयार्थविषयत्वेन तु राम-सुग्रीवादि
वृत्तत्वम् ॥ २७७-७८ (24) वामनोक्ता तु उपमेयस्या-
नुक्तौ समानवस्तुन्यासः समा
सोक्तिरप्रस्तुतप्रशंसैव॥ २८३ (25) 'अकथनीयमेतत् श्रूयमाणं हि
निर्वेदाय स्यात् तथापि तु यद्यनुबन्धस्तत् कथयामि । 'वैराग्याद्' इति काका 'दैवहतकम्' इत्यादिना च वैराग्यसूचा । 'साधु विदितम्' इत्युत्तरम् । 'कस्माद' इति वैराग्ये हेतुप्रश्नः । 'इदं कथ्यते' इत्यादि सनिर्वेदस्मरणोपक्रम[:] कथं कथमपि निरूप्यतयोत्तरम् । 'वामेन' इति अनुचितेन कुलादिना उपलक्षित इत्यर्थः । अत्र [? अ] चेतनेन वृक्षविशेषेण सहोक्तिप्रत्युक्ती न संभवत इति असंभवति वाच्ये समृद्धासत्पुरुषसहवासिनो निर्धनस्य कस्यचिन्मनस्विनः परिदेवितं प्रतीयमानमध्यारोपेण स्थितं चेतनवृत्तान्तमारोप्य इत्थं कविना वर्णितत्वात् ।
३६९. (24) "उपमेयस्यानुक्तौ समानवस्तु
न्यासः समासोक्तिः" इति तु वामनः। तन्मतेऽप्रस्तुतप्रशं
साऽन्यथा ज्ञेया। ३७७ (25) श्रूयमाणं निर्वेदकृदपि तवानु
बन्धात्कथ्यते । कस्मादिति वैराग्यहेतुप्रश्नः । कथ्यत इत्यादि सनिवेदस्मरणोपक्रम कथंकथमपि निरूप्यते । वामेनेति । कुकूलादिनोपलक्षितः। वट इति । फलदानशून्यश्छायामात्रकरणादेव गर्विष्ठः । छायाऽपीति । श्मशानाग्निदग्धपल्लवादिस्तरुविशेषो हि शाखोटकः । मार्गः सतां पन्था अपि । अत्र वृक्षेण सहाचेतनत्वादुक्तिप्रत्युक्त्यसम्भवे तु श्रीमत्पुरुषसेवया खेदवान् दरिद्रमनस्वी कश्चित्युमान् प्रतीयमानतयाऽध्यारोप्यते ।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
68]
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
सोमेश्वर
पृ.
1
२८३-८४ (26) 'रसनाविपर्ययो गजानां शापहेतुतोऽसत्यभाषित्वमपि । चापलमश्रोतव्यश्रवणमपि मदो गर्वोऽपि । शून्यकरत्वमदातृत्वमपि ।' अत्र वाच्येऽर्थे रसनाविपर्ययशून्यकरत्वयोरसेवने हेतुत्वं न संभवतीति अध्यारोपोऽवसेयः । कर्णचापलं तु असेवने हेतुः । मदश्व सेवने प्रतीयमानश्च कुस्वामिसेवकः । एवं च अप्रस्तुतस्य वाच्यत्वे प्रस्तुतस्य गम्यत्वेऽप्रस्तुतप्रशंसा । लिप्रविशेषणैः प्रस्तुतस्य वाच्यत्वे प्रस्तुतस्य गम्यत्वे तु समासोक्तिः । प्रस्तुता प्रस्तुतयोरपि वाच्यत्वे विशेष्यस्यापि लिष्टत्वेऽर्थश्लेषः । एषान्योक्तिरिति अन्ये ।
२८४ (27) बहिरविद्यमानस्यार्थस्य संभावनामात्रेण उपनिबन्धे संबन्धेऽप्यसंबन्धो असंबन्धेऽपि संबन्ध इत्यर्थः । संबन्धेऽप्यसंबन्धः, यथा- 'राकायाम्' इति । अत्र पार्वणशशाङ्कस्य निष्कलङ्कत्वं बहिरसंभवदपि कविप्रजापतिना स्वप्रतिमानात् संभवद्रपतया उक्तम् । इत्थं च प्रकृतस्य मुखस्य उपमानाभावो, नास्त्यन्यत् किंचिदस्योपमानमिति । अत एव संभाव्यमानार्थनिराचिकीर्षया शङ्कायोतकश्चेच्छब्दः । आशङ्का हानिश्चितस्वभावे वस्तुनि स्यात् ॥ इयमुत्पाद्योपमेति रुद्रटः, अद्भुतोपमेति दण्डिप्रभृतयः । असंबन्धेऽपि संबन्धः, यथा - पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यान्मुकाफल वा स्फुटविद्रुमथम् ।
[ उ. १०
माणिक्यचन्द्र
पृ.
३७७-७८ ( 26 ) सोऽपूर्व इति । रसनाविपर्ययो गजानां शापजोऽलीकजोऽपि । चापलं खलवचश्श्रवणे साम्मुख्यमपि । शून्यकरत्वमातृत्वमपि । हेतुरिति । तेन वाच्ये ऽर्थे प्रतीयमानस्य कस्यापि कुस्वामिसेवकस्याध्यारोपः कार्यः । चापलमसेवने मदश्च सेवने हेतुः । प्रस्तुता प्रस्तुतयोः वाच्यत्वे विशेष्यस्यापि लित्वे अर्थश्लेषः । विशेषणानां स्वे प्रस्तुतस्य वाच्यत्वे अन्यस्य तु गम्यत्वे समासोक्तिः । अप्रस्तुतस्य वाच्यत्वे प्रस्तुतस्य गम्यत्वेऽप्रस्तुतप्रशंसेति विवेकः ।
३७९-८० ( 27 ) राकेन्दोर्निर्लक्ष्मत्वस्य बहिरसम्भवेऽपि कविना सम्भवद्रूपतयोक्तावास्यं निरुपममित्यर्थः । एषोत्पाद्योपमेति रुद्रटः । अद्भुतोपमेति दण्डिमुख्याः । अयं सम्बन्धेऽप्यसम्बन्धरूपस्तृतीयः । कचिदसम्बन्धे सम्बन्धो यथा
"पुष्पं प्रवालोपहितम्" इति अत्रासम्बन्धे सम्भावनया स
म्बन्धः ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
[69
उ. १०]
INTRODUCTION : APPENDIX A सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र २८४ (27) ततोऽनुकुर्याद्विशदस्य तस्या
स्ताम्रीष्टपर्यस्तरुचः स्मितस्य ॥ अत्र असंबन्धे संभावनया
संबन्धः । २८५ (25) वस्तुप्रतिवस्तुभावेन तु सामा- ३८० (28) वस्तुशब्दस्य वाक्यार्थवाचिन्य धर्मस्य सन्निर्देशे दीपक
त्वे प्रतिवाक्यार्थमुपमा साम्य
मित्यन्वर्थत्वाश्रयणात् केवलं तुल्ययोगिते ॥ वस्तुशब्दस्य वाक्यार्थवाचित्वे प्रतिवस्तु
काव्यसमयात्पर्यायान्तरेण
पृथनिर्देशः । अयं भावः-साप्रतिवाक्यार्थमुपमासाम्यं य
मान्यधर्मस्येवाद्यनुक्तौ सकृस्यामिति अन्वर्थः।
निर्देशे दीपकतुल्ययोगिते । २८६ (29) पुनः-शब्दः पूर्वस्माद् व्यति- ३८१-८२ (29) अत्र पुनश्शब्दः पूर्वस्मारेके। व्यतिरेकश्च बिम्बप्रति
द्विशेषकः । विशेषश्च बिम्बप्रबिम्बभाव एव ।
तिबिम्बभाव एव । (30) निश्चयश्च विशेषादेव संभव- ३८२ (30) निश्चयो यत्रेति भणनाद्यत्र तीति विशेषरूप एवासौ, तेन
विशेषेण विशेषो बिम्बप्रतिबियत्र विशेषस्य विशेषेण सम
म्बभावे सति समर्थ्यते स र्थनं बिम्बप्रतिबिम्बभावे सति
दृष्टान्तः। निश्चयस्य विशेषास दृष्टान्तः । दृष्टान्तस्य हि
देव सम्भवात् विशेषरूपतयैव विशेषरूपतयैव प्रतिबिम्बभा
दृष्टान्ते बिम्बप्रतिबिम्बभावयोवः संगच्छते । यत्र तु विशे
गात्। विशेषस्य सामान्येन षस्य सामान्येन समर्थ्यसम
समर्थने त्वर्थान्तरन्यासः। र्थकभावः सोऽर्थान्तरन्यास
. इति विवेकः। २८६-८७ (31) 'यथा चन्द्रालोके कुमुदि- (31) यथा कुमुदिन्याश्चन्द्रालोके न्याश्चन्द्रगुणपक्षपातित्वेन कु
तहणपक्षपातित्वेन कुमुदं विकमुदं विकसति तथा त्वदर्शने
सति तथा त्वदर्शने गुणपक्षत्वगुणपक्षपातित्वेन तस्या मनः
पातात्तस्या मन इति सर्वप्रतिकामाग्निज्वलितमुपशाम्यति ।
बिम्बनम्। २८७ (32) अत्र [वि]शरारुतागमनादे[:] ३८२-८३ (32) अत्र विशरारुतागमनादीनां स्थिरताधानादिना वैधयेण
स्थिरत्वाधानादिवैधर्येण प्रतिप्रतिबिम्बनम्॥
विम्बनम् । दृष्टान्ते साधारणननु, साधारणधर्माणां प्रति
धर्माणां वस्तुवृत्त्या हमेद एव। विम्बितत्वेन नियतनिष्ठतया
परं शब्दान्तरेणोक्तत्वात् प्रतिकथं साधारणधर्मतेति चेद,
बिम्बने भेदाभास इति बिम्बने न, वस्तुतो हि तेषां धर्मा
नियतनिष्ठतया तेषां साधारणामभेद इति साधारणता,
णता न स्यादिति नाशङ्कयम् । शब्दान्तरेण प्रतिपादितत्वात्तु प्रतिबिम्बनमिति न कश्चिद् विरोधः॥
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
10]
KAVYAPRAKA6A-SAMRETA
[उ. १०
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
पृ.
२८७ (33) एकत्र स्थितः समानो धर्मः ३८३ (83) एकत्र स्थितः क्रियादिः समाक्रियादिः प्रसङ्गेन अन्यत्रोप
नो धर्मः प्रसङ्गे नान्यत्रोपकाकाराद् दीपनाख्याद् दीपसा
रादीपनाख्याद्दीपकम् । अत्र दृश्येन दीपकालंकारः । प्राकर
प्रकृताप्रकृतत्वयोर्वास्तवत्वादणिकाप्राकरणिकत्वाभ्यां च
र्थानामौपम्यं सत्यं परं गम्यं न तेषामर्थानामुपमानोपमेयभावो
श्रौतम् । अतो नोपमा। गम्यमानो न श्रौत इत्युपमातो
ऽस्य भेदः। २८८-२८९ (34) क्रियापदस्य हि दीपकत्वे ३८४ (34) तथा क्रियायाः सर्वत्र वाक्ये सर्व काव्यं सालंकारमिति
प्रयोगात्तद्दीपत्वे सर्व वाक्यं नार्थोऽनेन ग्रन्थेन । सत्यम् ।
सालङ्कारं स्यादतो न क्रियान क्रियापदमा दीपकं, किंतु
मात्र दीपकं, किन्तु भूयोभिबहुभिः समानजातीयैः कारक
स्सजातीयैः कारकैस्सम्बध्यविशेषैरभिसंबध्यमानम् । तस्य
मानं, तस्य चानेकेष्वर्थेषु साचानेकेष्वर्थेषु अभिसंबध्यमा
धारणतया सम्बध्यमानस्य बनस्यार्थवदन्वयि रूपं यत्
लादौपम्यगर्भत्वम्। तत्साम्यमुच्यते। (35) एकावली तु पूर्वस्य पूर्वस्योत्त- (35) एकावली तु पूर्वस्योत्तरोत्तरेरोत्तरेण उत्कर्षहेतुत्वे स्यादिति
णोत्कर्षहेतुत्वे स्यादिति विवेमेदः।
का। २९१ (35a) तथा श्लेषेऽपि द्वादश भेदः। ३८७ (35a) श्लेषेऽपि द्वादशभेदा इत्यर्थः । तत्तस्मात् श्रीन् वारान् अष्ट
त्रिरष्टेति । त्रीन वारान् अष्ट मेदाश्चतुर्विंशतिरित्यर्थः।।
चतुर्विंशतिः। २९१.९२ (36) आर्थादौ चतुष्कपञ्चकेऽपि ३८. (36) आर्थादावपि चतुष्कपश्चके ददर्शितदर्शिना उदाहरणैरन्यद्
र्शितदृष्टान्तान्यत्रिभेदी स्वेनोभेदत्रयं द्रष्टव्यमित्यर्थः ॥ आ
ह्या । आर्थसाम्ये यथा-अर्थेन साम्ये, यथा--'असिमा
सीति । अत्राप्युत्कर्षापकर्षहे'ति । अत्रापि उत्कर्षापकर्ष
त्वोईयोरुक्तिः। हेत्वोयोरुक्तिः। २९२ (37) अत्र उपमेयगतोत्कर्षापमानग- ३८९ (37) अयमुपमानगनिकर्षहेत्वनुक्तातनिकर्षकारणोपादाने आर्थोप
वार्थीपम्ये श्लेषव्यतिरेकस्य तृम्ये श्लेषव्यतिरेकस्य प्रथमो
तीयमेदः।
मेदः।
२९३ (88) 'मधु कर्तृ तृष्णां जहार, न
मुखम् ।' अत्र तृष्णाया हरणेऽहरणे च नोपात्तौ हेतुरिति उभयानुपादानाच्चतुर्थोऽयं भेदः श्लेषव्यतिरेकान्त्य
३९०-९१ (38) मधु तृष्णां जहार न मुख
मिति योगः । अत्र तृष्णाहरणाहरणयोः कारणे नोपात्ते इति द्वयानुक्तिरित्युभयानुक्तौ श्लेषव्यतिरेकान्त्यचतुष्कस्या
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १०]
INTRODUCTION : APPENDIX A
[71
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
२९३ (38) चतुष्कस्य ॥ शेष द्वयमूह्यम् ॥ ३२०-२१ (38) न्त्यो भेदः। द्विमेदी खेनोह्या।
'एवमन्येष्वपि द्रष्टव्यम्' इति । एवमन्येष्वपि द्रष्टव्यमित्युवचनात् प्रतिचतुष्कमेकः ।
त्या प्रातिचतुष्कमेकः कश्चिकश्चिद् मेदो वक्तुं संमत इति
द्भेदो वाच्य इति स्थितेऽपि यद् 'हरवद्' इति ‘स्वच्छात्मता'
ग्रन्थकृता हरवदिति स्वच्छाइति च उदाहरणद्वयं ग्रन्थका
त्मतेति दृष्टान्तद्वयमूचे तदेकत्र राभिप्रायेण न भवति ।
व्यतिरेकमालात्वमन्यत्रार्था
श्लिष्टत्वं विशेष ज्ञापयितुम् । २९३-९४ (39) यथा-या शशिरी श्री. ३९१ (39) यथोद्भटकुमारसम्भवे गौरीस्तपसा मासेनकेन बिभ्रती ।
स्तुतौ। तपसा तां सुदीर्पण दूराद् वि
“या शैशिरी श्रीस्तपसा मासेदधतीमधः ॥ 'तपो माघमा
नैकेन विश्रुता। सः, अन्यत्र तु अभ्युदयहेतुः
तपसा तां सुदीर्घेण दूराद्विदकृच्छ्राचरणम् ।' इवादय अनु
धतीमधः" ॥ पात्ता अपि सामर्थ्यगम्याः ।
तपो माघमासोऽपि । एकेनेति अत्र 'तपसा' इति श्लिष्टोक्ति
सुदीर्घेणेति हेतुद्वयोक्तिः। अत्र योग्यं पदं पृथगुपात्तम्'।
तपसेति श्लिष्टोक्तियोग्यं पदं
पृथगूचे। २९४ (40) अत्रापि लियोक्तियोग्यस्य ३९१-९२ (40) अत्रापि श्लिष्टोक्तियोग्यपदस्य पृथगुपादानम् ॥ एवम
पदस्य पृथग्भावः। अन्येऽपीन्येऽपि एकादश भेदाः ॥ ननु
त्येकादश भेदाः। नन्वत्र श्लेश्लेषव्यतिरेकयोरन्यत्र लब्ध
षोपकाराञ्चमत्कारी व्यतिरेक सत्ताकत्वात् श्लेषोपकृतत्वे
इति तयोरङ्गाङ्गिभावे संकरः व्यतिरेकस्याङ्गाङ्गिभावे संकर
स्यात् , न, द्वययोगे हि संकरोत्वं स्यात् । सत्यम् । श्लेषग
न चात्र द्वयमस्ति । एवंविध(कारेण व्यतिरेकलक्षणमंश
श्लेषस्यैव व्यतिरेकापरनाममाश्रित्य एवंविधे श्लेषव्यतिरे
त्वात् । परं व्यतिरेकरूपमात्रकापरनामत्वान्न संकरः । तत
माश्रित्य व्यतिरेकप्रमेदतया स्तदनुचरणार्थमेवैष प्रकारो
श्लेषव्यतिरेकरूपयोक्तम् । व्यतिरेकप्रकारतया व्यवस्थाप्यते ॥ (41) हेतुरूपेति । क्रिया हि कार्य ___ ३९४-९५ (41) हेतुरूपेति । हेतवोऽपि निष्पादयतीति सैव हेतुः ।
क्रियामुखेन कार्य कुर्वन्तीति सर्वेषां फलभूतानां क्रियैव
सैवाव्यवहितो हेतुः। कार्य अव्यवहितं कारणं, क्रियामु
क्रियायाः फलमिति वैयाखेन कारणेभ्यः कार्योत्पत्तेः ।
करणा एव मन्यन्ते नान्ये । अन्यैश्च 'क्रियाफलमेव कार्यम्'
फलेति । कार्यस्य कविना इति वैयाकरणैरेव अभ्युपग
प्रतिपादनं न तु भवन, हेतुं
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
72]
KAVYAPRAKABA-SAMKHTA
[उ. १०
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
२९५-९६ (41) म्यते, न सर्वैरिति क्रिया-
पदस्थाने कारणग्रहणं कृतम्, सामान्येन विशेषमनपेक्ष्य फलप्रकाशनमिति कार्यस्य कविना प्रतिपादनं, न तु भवनकारणमन्तरेण कार्योत्पत्तेरसंभवाद् ॥ इह कारणान्वयव्यतिरेकानुविधानात् कार्यस्य कारणमन्तरेण असंभवः। यदि तु कयाचिद् भङ्गया तथाभावोपनिबन्धः, तदा विभावना। सा च भङ्गिः प्रसिद्धतरकारणानुपलब्धिः अप्रसिद्धं तु कारणं वस्तुतोऽस्त्येव । अस्याश्व न विरोधरूपत्वं, विरोधे द्वयोरपि समानवलयोःपरस्परबाधात् । अत्र तु कार्योत्पत्तिरेव कारणप्रतिषेधेन बाध्यमाना प्रतिभाति, न तु कारणप्रतिषेधस्य कार्योत्पत्त्यापि बाधः। कारणप्रतिषेधस्य हि बाधः प्रतिभासमानोऽपि ज्ञप्त्यपेक्षो, शप्तिश्च उत्पत्यपेक्षया दवीयसी न विभावनां प्रयोजयति ॥ 'सप्त्यपेक्ष' इति यथा हि कार्यमुत्पद्यमानमेव कारणप्रतिषेधेन बाध्यत इति भवत्युत्पत्त्यपेक्षस्तत्र बाधस्तथा नोत्पद्यमान एव कारणप्रतिषेधः कार्योत्पत्त्यापि बाध्यते, अपि तु उत्पन्नस्य तस्य बाधस्तया शाप्यत इति कारणप्रतिषेधवाधो ज्ञप्त्यपेक्ष एव ॥ 'ज्ञप्तिश्च' इति कारणप्रतिषेधबाधज्ञानं च । 'दवीयसी' इति पश्चाद्भावित्वेन ॥भवतु वात्रापि सामान्येन परस्परं बाधस्तथापि न विरोधरूपत्वं हेतुफलभावं विशेषमाश्रित्य प्रवर्तनाद् अस्या
३९४-९५ (41) विना, कार्योत्पत्त्यसंभवात् ।
अत्र प्रसिद्धतरहेत्वनुपलब्धेहेत्वभावः, अप्रसिद्धस्तु हेतुर्वस्तुतोऽस्त्येव । अत एव विशिष्टतया प्रसिद्धतरहेत्वनुपलब्धिरूपया कार्यस्य भावना पर्यालोचना विभावना, हेतुनिषेधेन चेहोपाक्रान्तत्वाद्वलवता कार्यमेव बाध्यत्वेन प्रतीयते न तु तेन हेतुनिषेध इत्यन्योन्यबाधकत्वानुप्राणिताद्विरोधालंकारानेदः। हेतुनिषेधबाधप्रतीतिस्तु शत्यपेक्षा ज्ञप्तिस्तूत्पत्त्यपेक्षया नासन्नेति न विभावनाप्रयोजिका । अयं भावःयथा कार्य भवदेव हेतुनिषेधेन बाध्यत इति भवति तत्र भवनापेक्षो बाधः। तथाभवन्नेव हेतुनिषेधः कार्योद्भवनेनापि न बाध्यते किन्तु भूतस्य तस्य बाधः तथा ज्ञाप्यते इति हेतुनिषेधवाधो शप्त्यपेक्ष एवेति ज्ञप्तिर्भवनापेक्षया पश्चाद्भावित्वेनानासन्नेति । यद्वा सामान्येन मिथो वाधे सत्यपि हेतुफलभावविशेषेणास्याविरोधाद्वेदः।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १०
INTRODUCTION : APPENDIX A
[78
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
३९५ (42) अत्र नलिन्यजिनी पद्मिन्या
ख्या स्त्री च । तथा घातादिहेत्वभावेऽपि रुगादिकार्यमुतं, तत्र वियोगित्वं कारणं गम्यमतोऽनुक्तनिमित्तेयम् । उक्तनिमित्ताऽप्येषा यथा"अनासवाख्यं करणं मदस्य" अत्र यौवनं निमित्तम् । मत्तताहर्षवाचकत्वान्मदस्य द्वैविध्येऽप्यतिशयोक्त्या ह्यभेदः । अतिशयोक्त्यनुप्राणिता चैषा ज्ञेया। एकगुणहानौ विशेषोक्तिरित्येके । अरोपितवैशिष्टयं रूपकमेवान्ये इमां मन्यन्ते।
२९५-९६(41)-स्तदपवादत्वात् ॥ एवं विशे
षोक्तो कार्यभावेन कारणसत्ता एव बाध्यमानत्वमुन्नेयम् । येन सापि अन्योन्यबाधत्वानुप्राणि
ताद् विरोधाद् भिद्यते । २९६ (42) अत्र कुसुमितलताहननादीनां
कारणानामभावेऽपि रुग्धारणादीनि कार्याणि प्रकाशितानि । तत्र विरहित्वलक्षणं निमित्तं गम्यमानम् ॥ उक्तनिमित्ता यथा-असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टेरनासवाख्यं करणं मदस्य । कामस्य पुष्पव्यतिरिक्तमस्त्रं बाल्यात्परं साथ क्यः प्रपेदे ॥ अत्र द्वितीयपादे मदस्य यद् आसपाख्यं करणं प्रसिद्धं तदभावेऽपि यौवनहेतुकत्वेन उपनिवन्ध उक्तः। 'मदो मत्तता हर्षश्चेति' । मदस्य द्वैविध्येऽपि अभेदाध्यवसायकत्वमिति अतिशयोक्त्यनुप्राणिता विभावना । 'असंभृतं मण्डनम्' इति 'कामस्य पुष्पव्यतिरि तमस्त्रम्' इत्यत्र च संभरणस्य पुष्पाणां च मण्डनमस्त्रं च प्रति कारणत्वात् तदभावे विभावना॥ 'एकगुणहानौ विशेषोक्तिरियम्' इति वामनीयाः । 'रूपकमेव अधिरोपितवैशिष्ट्यम्' इति अन्ये । 'आरोग्यमाणस्य मण्डनादेः प्रकृते वयसि संभवात्
परिणाम' इति तु अद्यतनाः॥ २९७ (43) 'स एकः' इति । अत्र तनु-
हरणे कारणे सत्यपि बलहरणस्य कार्यस्य अनुक्तौ निमित्तमचिन्तनीयमेव । प्रतीत्यगोचरत्वात् । 'अतैलपूराः सुर. तप्रदीपाः' इत्यादि तु रूपकम् । 10
३९६-९७(43) अत्र तनुहरणस्य हेतोः फलं
बलहरणं परं नोक्तम् । निमित्तं वा प्रतीत्यगोचरत्वादचिन्त्यम् । "एकगुणहानिकल्पनायां साम्यदाढर्य विशेषोक्तिः” इति यदन्यैरस्या लक्षणं कृतं साऽस्म
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
KÁVYAPRAKASA-SAMKETA
[उ. १०
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
(44) संख्योपलक्षितक्रमानतिक्रमण
पदार्थानामन्वयसमाश्रयात् । अन्ये तु इमं क्रमसंज्ञमाहुः॥ ऋमिकाणामिति बहुवचनमतन्त्रम् । तेन द्वयोरपि अर्थयो
र्यथासंख्यम्। ३०० (45) रुद्रटस्तु 'नित्यमेव द्रव्याश्रि-
तत्वाद् जातेर्न जातिद्रव्ययो
विरोध' इति नव भेदानाह । ३०१ (46) [य]न्मार्गणा एव अनर्गलः
शातपातः । अम्भोजदलाभिजातः' इति अम्भोजदलप्रख्यो जातः । अत्र दृषदृढत्वलक्षणगुणस्य अम्भोजदलस्वरूपद्रव्येण विरोधः॥ 'जडयति शीतलयति व्यामोहयति च । ताप उष्णत्वं खेदश्च । अत्र जडीकरणतापकरणयोः क्रिययोर्विरोधो वस्तुसौन्दर्येण तदप्राप्तिपर्यवसानेन
परिहियते ॥ ३०१ (47) 'श्लेषगर्भत्वे विरोधप्रतिभोत्प-
त्तिहेतुः श्लेषः' इति उद्भटः। मतान्तरे तु संकरः, यथा'संनिहितबालान्धकारा भावन्मूर्तिश्च' इत्यादौ विरोधेन द्वयोरपि श्लिष्टत्वे । एकस्य च श्लिष्टत्वे' कुपितमपि कलत्रवल्लभम् , इत्यादौ विरोध एवे
ष्यते। ३०२ (48) वस्तुनो हि सामान्यस्वभावो
लौकिकोऽर्थोऽलंकार्यः कविप्रतिभासंरम्भविशेषस्तु लोकोत्तरोऽर्थोऽलंकरणमिति।
३९६-९७ (43) न्मते रूपकभेद एव । यथा
"अतैलपूराः सुरतप्रदीपाः" · इति। (44) सङ्ख्योपलक्षितक्रमानतिक्रमण
पदार्थानामन्वये यथार्थ यथासङ्घयं क्रम इति यावत् । ऋमिकाः क्रमवन्तः । बहुवचनमतन्त्रम् । तेन द्वयोरप्यर्थयोः
यथासङ्ख्यम् । ४०० (45) नित्यमेव द्रव्याश्रितत्वाजातेन
जातिद्रव्ययोर्विरोध इति ब्रुवन् .
रुद्रटो नवमेदं मन्यते । ४०१-२ (46) यन्मार्गण एवानर्गळः शातः
पविः । अत्र दृढत्वरूपगुणदलरूपद्रव्ययोर्विरोधः। परीति । जयति शीतलयति मोहयति च । तापः खेदोऽपि । अत्र जडीकरणतापकरणरूपे क्रिये विरुद्ध वस्तुसौन्दर्येण तदप्राप्तिपर्यवसानेन परिहियेते।
४०२ (47) "कुपितमपि कलत्रवल्लभम् ,
इत्यादौ श्लेषगर्भसङ्कर इति कश्चित् । उद्भटस्तु विरोधप्रतिभोत्पत्तिहेतुं श्लेषमाह । श्लेषवशादेव लब्धात्मलाभत्वाद्विरोधस्य न श्लेषेण सह संकरः ।
४०३ (48) कविप्रतिभागोचरस्य त्वत एव
तन्निमित्तस्यैव वस्तुस्वभावस्योक्तिरलङ्कारः।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १० ]
INTRODUCTION APPENDIX A
सोमेश्वर
पृ.
३०६ ( 49 ) 'मृगेति । तया हि प्राग्मोहितः किमपि नाशासीत् । 'सुहृदा' इति । अकल्याणमित्रं हि तस्यासीत् । अत्राशोभनावपि शोभनावुक्तौ । विना शब्दमन्तरेणापि विनार्थविवक्षा दृश्यते यथा सहोतौ सहार्थविवक्षा । तेन - 'निरर्थकं जन्मगता नलिन्या यया न दृष्टं तुहिनांशुविम्वम् । उत्पत्तिरिन्दोरपि
निष्फलैव
दृष्टा विनिद्रा नलिनी न येन ॥ इत्यादी विनोक्तिरेव तुहिनांशुदर्शनं विना नलिनीजन्मनोऽशोभनत्वप्रतीतिः ।
३०७ ( 50 ) न चेयं सुन्दरवस्तुस्वभाववर्णनात् स्वभावोक्तिः, तस्या लौकिकवस्तुगतसूक्ष्मधर्मवर्णने सर्वसाधारण्येन हृदय संवादसंभवात् इह तु लोकोत्तराणां वस्तूनां स्फुटतया ताटस्थ्येन प्रतीतिः नापि अद्भुतपदार्थदर्शनाद् अतीतानागतप्रत्यक्षत्वप्रतीतेः काव्यलिङ्गमिदं लिङ्गलिङ्गिभावेनाप्रतीतेः ॥ ३०८ ( 51 ) अत्र पादत्रयार्थोऽनेकवाक्यार्थरूपश्च तुर्थपादार्थहेतुत्वेन उक्तः । अत्र चानुमानसद्भावेऽपि न तेन सह वाक्यार्थीभूतस्य हेतोः संसृष्टिव्यवहारः, उभयोरपि
भिन्नदेशत्वाभावात् । अनुमानं तु हेतोरुत्थापकतया उपकारकमिति भवत्यङ्गाङ्गिसंकरः, किं तु हेतुलक्षणमत्रास्तीति एतदभिसंधाय हेतोरिदमुदाहृतम् । अनमनं ापराधद्वयस्य जनकं, तदेव चापराधतया परिणतं, यथा घटकारणं मृद् घटरूपतया परिणमति ।
[75
माणिक्यचन्द्र
पृ.
४०६ ( 49 ) मृगेति । तथा हि प्रायोहितः किमपि नाशासीत् । सुहृदेति कूटमित्रं स तस्यासीत् । विनाशब्दं विनाऽपि विनार्थविवक्षा स्यात् यथा सहोतौ सहार्थ विवक्षा । तेन
" निरर्थकं जन्म गतं नलिन्या या न दृष्टं तुहिनांशुबिम्बम् । उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलैव
विनिद्रा नलिनी न येन" ॥ इत्यादी विनोक्तिरेव । तुहिनांशुदर्शनं विना नलिनी जन्मनोऽशोभनत्वप्रतीतेः ।
४०८ ( 50 ) स्वभावोक्तौ कविप्रतिभाविशेतिलौकिकवस्तु स्वभाववर्णने सर्वसाधारण्येन चित्तसंवादसम्भवोऽत्र तु लोकोत्तरवस्तूनां स्फुटत्वेन तटस्थतया प्रतीतिरिति चारुवस्तुस्वभाववर्णनान्तैषा स्वभावोक्तिः । न चेदमद्भुतपदार्थदर्शनाद्भुतभाविप्रत्यक्षत्वप्रतीतौ काव्यलिङ्गम्, लिङ्गलिङ्गिभावेनाऽप्रतीतेः । ४०९ ( 51 ) अत्र पादत्रयार्थोऽनेकवाक्यारूपोऽन्त्यपादार्थस्य हेतुः । तथा वपुःप्रादुर्भावादित्यु
तयाऽनुमानमप्यत्रास्ति, परं तेन सह भिन्नदेशत्वाभावाद्वाक्यार्थीभूतस्य हेतोर्न संसृष्टिः, किन्त्वनुमानस्यो - स्थापकतया वाक्यार्थीभूतहेतुं प्रत्यङ्गभावे सङ्करः । सम्प्रति त्वां नमन्मुक्तः सन् अग्रेऽपि भाविनि काले निस्तनुस्सननतिमानित्यर्थः । यथा घटकारणं मृद्घटरूपेण परिणमति तथाऽपराधद्वयस्य जनकमनमनमपराधतयाऽत्र परिणतम् ।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
76]
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
[उ. १०
- सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
३०९ (52) व्यङ्गयमपीति योग्यतया नि- ४११ (52) व्यङ्गयमपीति । योग्यतया निदेशः ॥ शब्देनोच्यत इति ।
देशः । शब्देनोच्यत इति । भङ्गयन्तररचितशब्दैरभिधान
मदेन मानेन निवासप्रीतिरुम् । तेनेति । यद् भङ्गयन्तरे
ज्झितेतिरूपमङ्गयन्तरप्रोक्तेनेति णोच्यते तद् व्यङ्ग्यम् ॥ यथा
(?)। तेनेति । भङ्गयन्तरेण । त्वेकघनरूपतात्मकप्रकारेण व्य
यथेति । येन प्रकारेण शब्दझ्यं प्रतीयते, न तथा वक्तुं
संसर्गात् सहात्मनैकघनरूपताशक्यते, क्रमभाविविकल्प
त्मना वा व्यङ्ग्यं प्रतीयते न प्रभवानां शब्दानां तथाभि
तथा शब्देनोच्यते, क्रमभाविधानशक्तेरभावाद् ।
विकल्पप्रभावः शब्दस्तथाऽ
भिधातुं न शक्त इत्यर्थः।। ३१० (53) स्वभावोक्तौ भाविके च यथा- ४१२ (53) इदमैश्वर्यलक्षितस्य वस्तुनो स्थितवस्तुवर्णनमैश्वर्यलक्षित
वर्णनया स्वभावोक्तिभाविकामुदात्तालंकारः। न चेयमतिश
भ्यां भिद्यते । योक्तिः अन्यस्यान्यतयाध्यव
सायाभावात् । (54) ननु, अङ्गिभूतरसादिविषये ४१३ (54) वीररसेऽङ्गीभूते रसध्वनिः रसादिध्वनिरुक्त इत्याह-न
स्यात् इत्याशङ्कयाह । न चेति । चेति । तस्येति । वीररसस्या
वीररसो नाङ्गीत्यर्थः । एतदेङ्गत्वाद् अप्रधानत्वात् ॥ तर्हि
वाह तस्येति । वीररसाश्रयो अङ्गभूतरसादिविषये रसवदा
रामस्तावदिहाङ्गं किं पुना रसः। द्यलंकारा उक्ता इत्युदात्तालं
ननु रसस्याङ्गत्वे रसवदलङ्काकारविषयश्चिन्त्यः, तद्विषयस्य
रः स्यात् ? अस्योदात्तस्य तदरसवदादिना व्याप्यत्वात् ।
पवादत्वात्। तदपवादत्वाऽसत्यम् , अङ्गत्वेऽपि न रसवद.
कल्पने निर्विषयमुदात्तम् । लंकारोऽस्योदात्तस्य तदपवाद
त्वात् ॥ (55) तुल्यकक्षतामपेक्ष्यैव समुच्चयनं ___ ४१३-४ (55) अत्र तुल्यकक्षतया हेतवो समुच्चय इति व्युत्पत्ते स्य
मिलिताः कार्य साधयन्ति। समाध्यलंकारान्तर्भावः। यत्र
समाधौ त्वेकस्य हेतोः कार्य होकस्य कार्य प्रति पूर्ण साधक
प्रति पूर्णे साधकत्वेऽन्यस्तु त्वमन्यस्तु कार्याय काकताली
कार्याय काकताळीयन्यायेन येनापतति तत्र तुल्यकक्षता
आपततीति न तत्र तुल्यकभावे समाधिर्वक्ष्यते । यत्र तु
क्षतेत्यनयोर्भेदः समुच्चयनं हि खले-पोतिकया बहूनामवतर
तुल्यकक्षाणामेव स्यात् । स्तुल्यकक्षतया तत्र समुच्चय
इत्यनयोर्भेदः। ३१२ (56) अत्रापि 'कामिनी' इति सत्, ४१५ (56) नृपाङ्गणगतो राशः प्रसाद'गलितयौवना' इत्यसत् । एव
वित्तः ? पुमान् स तद्रूपस्सन् ।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १० ]
INTRODUCTION APPENDIX A
सोमेश्वर
पृ.
३१२ (56) मुत्तरत्रापि । इह विशेष्यस्य शोभनत्वं प्रक्रान्तं, विशेषणस्य तु अशोभनत्वम् । 'नृपाङ्गनगतः खलः' इत्यत्र तु नृपाङ्गनगतत्वेन विशेषणस्य शोभनत्वं विशेष्यस्य खलत्वेन अशोभनत्वमिति विपर्ययात् प्रक्रमभङ्गो दोषः । न त्वत्र कश्चित् समुच्चीयमानः शोभनः, अन्यस्तु अशोभन इति सद- सद्योगो व्याख्येयः । तथा ह्यत्र शोभनस्य सतोऽशोभनत्वविवक्षा, 'दुर्वाराः स्मर' इत्यत्र तु अशोभनानामेवेति विवक्षितम् । अत एव 'कथं सोढव्यः' इति सर्वथा दुष्टत्वाभिप्रायेण उपन्यस्तमिति अस्त्यनयोः प्रकारयोर्भेदः ।
३१२ ( 57 ) रुद्रटेन तु -
व्यधिकरणे वा यस्मिन् गुणक्रिये चैककालमेकस्मिन् । उपजायेते देशे समुच्चयः स्यात् तदान्योऽसौ ॥ 'धुनोति' इति । तत्र एकाधिकरणक्रिययोः च्चयः ॥ 'कृपाणे 'त्यादि कृपाण - पाणित्वं साधुवादश्च गुणौ, तयोः क्षितिसुरालयौ भिन्नौ देशौ ॥
समु
[77
माणिक्यचन्द्र
पृ.
४१५ (56) खलतया चासन् । अत्र शशी स्वयं सन् धूसरत्वेनासन् । कामिनीति सत् गलितयौवनत्वमसत् । एवमग्रेऽपि विशेष्यद्वारेण सत्ता विशेषणद्वारेणासत्तैकस्य वस्तुनः सर्वत्र ज्ञेया । इह विशेष्यस्य सत्त्वं विशेषणस्य चासत्त्वं प्रक्रान्तं, ततो नृपाङ्गणगत इतिविशेष्यतया सद्व्याख्येयं खल इति विशेषणतया चासत् । अन्यमताभिप्रायेण विशेषणविशेष्ययोरत्र वैपरीत्ये प्रक्रमभङ्गः । तथा नृपाङ्गणगतः खल इत्यसत् अन्ये तु सन्त इति समुच्चीयमानस्य सतस्तादृशेन सता योग इति व्याख्यायां तु सहचरभिन्नोऽर्थो दुष्ट इतिरूपः प्रक्रमभङ्गः । तथाऽत्र सत (?) एवसतोऽसत्त्वमेकस्यैव वस्तुन इति विवक्षितम् । एव चारुत्वेनान्तः प्रविष्टान्यपि राश्यादीनि शल्यानीति प्रकारेण व्यथाहेतुत्वेनोक्तानि । 'दुवराः स्मरेत्यत्र तु कथं सोढव्य इति सर्वथा दुष्टत्वाभिप्रायेणोपन्यास इति विवेकः ।
अत
४१६-१७ ( 57 ) धुनोतीत्यत्रैकाधिकरण्यं क्रिययोः । कृपाणपाणित्वसाधुत्वादौ सिद्धरूपत्वाणौ तयोः क्षितिस्स्वर्गश्च भिन्नो देशः । न वाच्यमिति यथोक्तं रुद्रटेन ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
78]
KAVYAPRAKASA-SANKETA
सोमेश्वर
पृ.
३१४ (58) सकलरत्नसारतुल्यो बिम्बाधर इति तेषां बहुमानो वास्तव एवेति प्रतीयमानोपमापि ।
३१५ ( 59 ) धर्मिणि पर्वतादौ अयोगव्यवच्छेदोऽस्तित्वं वह्नयादेः साध्यम् |
व्यापकस्य
३१७ (60) 'पुष्टार्थपदं न प्रयोज्यम्' इति पुष्टार्थानि विशेषणान्युपात्तानि अत्रेति दोषत्यागमात्रं, न त्वलं - कार इत्याशङ्कयाह- यद्यपीति । ३१७ (61) न चैषेति । क्वचित्प्रकृतनिष्ठ साम्यं, यथा- सदयं बुभुजे महाभुजः सहसोद्वेगमियं व्रजेदिति । अचिरोपनतां स मेदिनीं नवपाणिग्रहणां वधूमिव ॥ इति समुच्चितोपमायाम् ।
(62) उद्भटेन तु व्याजोक्तयनभिधानाद अत्रापि अप तिका ॥
३१८ (63) 'युवतिरेव कामास्त्रम् ।'
३१९-२० (61) अत्र तु रुद्रटोदाहृते 'काव्यत्वमनुप्रासादेव' इत्याह कोमलानुप्रासेति । यद्यपि अव्यभिचारितयैव विकासादीनां नैरन्तर्येण जननमिहोपचारप्रयोजने व्यङ्ग्यं तद् असुन्दरमपि गुणीभूतव्यङ्ग्यनिबन्धनं भवतीति प्राक्प्रतिपादितमेव, तथापि अलंकारचिन्तायाः प्रक्रान्तत्वात् तद् अपह्नुत्यैवाव
[ उ. १०
माणिक्यचन्द्र
पृ.
४१८-१९ (58) बिम्बाधरस्सकलरत्नेभ्योऽधिक इति व्यङ्ग्यव्यतिरेको ऽपि । अन्ये तु सकलरत्नसारतुल्योऽधर इति तेषां तत्र प्रीतिर्वास्तवीति व्यङ्गयोपमामाहुः ।
४२० ( 59 ) धर्मी शैलादिः, तत्रास्तित्वमयोगव्यवच्छेदः । व्यापकस्येति अग्न्यादेः ।
४२१ ( 60 ) ननु पुष्टार्थग्रहणाद्दोषत्यागमात्रमेतदित्याशङ्कयाह । यद्यपीति ।
४२२ (61) न चैषेति । अयं भावः- अपहृतौ किलोभयनिष्ठं साम्यं अत्र तु प्रकृतस्यैव सद्भावात्प्रकृतनिठमेव साम्यं,
"ये कालतां कुटिलतामिव न त्यजन्ति" इति समुच्चितोपमावत् अत्रापि प्रकृतनिष्ठमेव साम्यम् ।
(62) उद्भटमते व्याजोक्त्यभावादत्रापहुतिः
४२४ (63) युवतिरूपं कामास्त्रमिति वि
ग्रहः ।
४२५ (64) भामहोगटाद्याः । अव्यभिचारितया विकासादेर्नैरन्तर्येण करणमिहोपचारात्प्रयोजनं व्यङ्गयं तच्च गुणीभूततया महित्यत्रैवकारेण प्रतिपाद्यते । अस्म- न्मते काव्यलिङ्गमेव हेतुः । रुद्रटस्तु भिन्नमूचे ।
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUOTION : APPENDIX A
[79
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
पृ.
३१९-२०(64)धारणगर्भमिदमभिहितम् ।अत
एव तटस्थतयैव उक्तं 'समानासिषुः' इति उद्भटादयः प्रत्यपादयन्निति ह्यत्रार्थः । काव्यलिङ्गमेवेति । काव्यलिङ्गस्यैव यदि परं हेतुरिति नाम, यद् भामहः हेतुश्च सू [क्ष्मो] लेशोऽथ ना
लंकारतया यतः॥ ३२२ (65) उत्कर्षे सारस्य पुंसि स्मरन्ति
४२९ (65) न्याय्य एवार्थे सारशब्दः • कवयस्तु नपुंसकेऽपीति।
क्लीबोऽन्यत्र तु चिन्त्यः । ३२८ (66) अत्र दृक्तरलत्वादिना स्वाभा
४३६ (66) अत्र दृष्टितरलत्वादिकं सहज विकेन लक्ष्मणा मदोदयकृतं
मदोदयकृतस्य दृष्टितरलत्वादेदृक्तारल्यादि तिरोहितम् ॥
स्तिरोधायकम् । तत्रापीति । तत्रापीति । मदोदयेऽपि दृक्ता.
मदोदयेऽपि । एतस्येति । दृष्टि__ रल्यादिदर्शनात्।
तरलत्वादेः। ३२९ (67) दृष्ट इति । दृशिरत्र उपलब्धि- ४३७-३८ (67) दृष्टे इति । उपलब्धिमात्रेऽत्र मात्रवचनः । तद्भवैः प्लाविता
दृशिः । तद्भवैरिति । प्लाविताम्भोभवैः कुहरुतैः कुहकुहश
म्भोभवैः। कुहरुतानि । कुहब्दैः नाभ्यादिनिम्नदेशोत्थैः।
शब्दाः निम्ननाभिदेशोत्थाः। स्मारिता इति घटादिपाठे स्मर
स्मारिता (?) इति द्वस्वप्राप्तिः। तेर्मानुबन्धत्वेऽपि 'न ह्रखो व्य
सादृश्यं विना स्मृतिर्नालङ्कारः। वस्थितविभाषितस्य वा' इत्यस्यानुवृत्तेः। सादृश्यं विना तु
स्मृतिर्न स्मरणमलंकारः। ३३२ (68) अत्र मलयजरसविलेपादीनां ४४१ (68) तथाऽत्र श्रीखण्डाङ्गरागादेश्वचन्द्रप्रभयाऽविभाव्यतां गता
न्द्रांशुभिः सहाविभाव्यतां गता इति भेदाप्रतीतिर्दर्शिता । अत्र
इत्यभेदेनोक्तिः। अष्टाविंशतिअष्टाविंशतिभिर्मात्राभिर्द्विपदी
मात्रं द्विपदीच्छन्दः। च्छन्दः। ३३३ (69) अत्र एकस्या योषित एकेनैव ४४३ (69) अत्रैकैव स्त्री एकेनैव वसनरूवसनस्वभावेन हृदयादौ युग
पेण युगपच्चित्तादौ वर्तते । पद् अवस्थानम् ॥ ३३५ (70) अत्र दृष्टिलक्षणेन उपायेन । ४४६ (70) अत्र दृग्रूपोपायेन येन हरः स्मरस्मरस्य हरेण दाहविषयत्वं
मधाक्षीत् तेनैव कान्ताः तमजीनिष्पादितं मृगनयनाभिः पुन
जिवन् । दाहस्य च जीवनीस्तेनैवोपायेन तस्य जीवनीयत्वं
यत्वं विपक्षः, तेन निष्पादिक्रियते । तच दाहविषयत्वस्य
तवस्तुव्याहतिहेतुत्वाद्वयाधाप्रतिपक्षभूतम्, तेन व्याघा
तता। विरूपाक्षस्येति वामलो
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
80]
KÁVYAPRAKÁSA-SAMKKTA
[उ. १०
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
४४६ (70) चना इति च व्यतिरेकगी
शब्दौ । जय(यि)नीरिति व्यतिरेकोक्तिरिति अत्र व्यतिरेकनिमित्ततादृग्रूपोपाययोः भेदेऽप्यभेदातिशयोक्तिरपि । रसवदाद्यलङ्काराः प्रागुक्ताः । आशी स्तु नालङ्कारः प्रियोक्तिमात्रत्वात् । स्नेहात्मरत्याख्यभावत्वे भावध्वनित्वाद्वा।
३३५ (70) तोऽलंकारः । सोऽपि व्यतिरे-
कनिमित्तत्वेन अत्रोक्तः ॥ 'विरूपाक्षस्य' इति 'वामलोचनाः' इति च व्यतिरेकगर्भावेव वाचकी, 'जयिनीः' इति व्यतिरेकोक्तिः । रसभावतदाभासतत्पशमानां गुणीभूतव्यङ्गयावसररसवत्प्रेयऊर्जविसमाहितानि तथा भावोदयभावसन्धिभावशबलताश्च पृथगलंकाराः प्राक् प्रतिपादिताः ॥ आशीश्च अप्राप्तप्राप्तीच्छारूपमाशंसनप्रियोक्तिमात्र, अथवा स्नेहनिर्भरतया प्रतीयत इति
भावध्वनिरेव नालंकारः। ३३६ (71) तत्रैषा तिलतण्डुलन्यायेन
मिश्रत्वे शब्दालंकारगतत्वेना
र्थालंकारगतत्वेन उभयगतत्वेन च त्रेधेति त्रिविधां संसटिमाह-सेप्टेति ॥ यथासंभवमिति न सर्वेषां लक्षितानां, अपि तु केषांचित् , तत्रापि तेषां मध्ये क्वचिद् द्वयोः क्वचित् त्रिचतुराणामिति यथायोगम् । संसृष्टेश्च विषयभेदेन त्रिरूपत्वेऽपि संसृष्टया चैकरूपयेति प्रागुक्तं न विरुध्यते, नैरपेक्ष्यलक्षणस्य रूपस्याभिन्नत्वात् । वक्ष्यमाणसंकरस्तु स्वरूपेणैव नानात्वेनावभासत इति युक्तस्तत्र त्रिरूपताव्यवहारः:॥ सापि सजातीययोर्विजातीययोर्वालं
कारयोः स्यात् । ३३६ (72) यमकानुप्रासाविति विजा
तीयौ । अत्रैव 'लकलो-लकलो' इति तथा 'कलोल-कलोल' इति सजातीययोर्यमकयो[:] संसर्गः॥ तथाविधे परस्पर
४४६ (71) न सर्वेषामेवालङ्काराणां किन्तु
केषांचित् । तत्रापिक्वचिद् द्वयोः क्वचित्रयाणामित्यादि । शब्दार्थोभयालङ्कारविषयत्वेन त्रिरूपत्वेऽपि संसृष्टेरेकरूपत्वमेव मिथो नैरपेक्ष्यरूपस्वरूपस्यैकत्वात् । निरपेक्षतया इत्युक्त्या तिलतण्डुलन्यायेनालंकाराणां योगे संसृष्टिः । सङ्करस्तु स्वरूपेणैव नानात्वेनोक्तत्वात् त्रिधैव । तत्र नैरपेक्ष्याभावात् क्षीरनीरन्यायेनालङ्काराणां योगः।
४४९ (72) अत्र यमकानुप्रासाविति विजा
तीयालङ्कारसंसृष्टिर्यथा तथा लकलो लकलो इति कलोल कलोल इति च सजातीययमकालङ्कारसंसृष्टिरपि । तथा
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
.१०]
INTRODUCTION : APPENDIX A
[1
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
३३६ (72) निरपेक्षे॥ उपमोत्प्रेक्षे इति
विजातीये ॥ अत्रैव 'लिम्पतीव' इति 'वर्षतीव' इत्युत्प्रेक्षयोः सजातीययोः संसृष्टिः॥
४४७ (72) विधे इति । मिथो निरपेक्षे।
उपमोत्प्रेक्षे इति । उत्तरपूर्वार्धगे विजातीये । लिम्पतीवेति वर्षतीवेत्युत्प्रेक्षे सजातीये,
तयोरत्र संसृष्टिः॥ ४५० (72a) शब्दवच्छब्दालङ्कारयोः अत्रा
गाङ्गिभावाभावान्नरपेक्ष्ये संसप्टिरेवेत्याह
३३८ (72a) ननु, अत्र यमकचित्रयोः
शब्दालंकारयोः शब्दवदुपकार्योपकारकत्वाभावेन अङ्गाङ्गिभावाभावात् संसृष्टिरेव पर
स्परनिरपेक्षेत्याह। ३३९-३४०. (73) एतयोरिति मुखबिम्बयोः।
'बिम्बं प्रसीदति' इत्येतच्च 'मुखं प्रसीदति' इति ॥ एकक्रियायोगे एकस्य प्रकृतत्वेऽन्यस्य अप्रकृतत्वे दीपकं तुल्ययोगितेति यदि द्वयोरपि प्रकृ
तत्यमेव वा ॥ ३४० (74) अत्र 'वक्रं शशीव' इत्युपमा।
ननु, 'वक्रमेव शशी' इति रूपकम् इत्याह-मुख्यतयेति । हासद्युतेः प्रकृतत्वात् ज्योत्स्नापेक्षया मुख्यता । सा च वक्त्रस्यैव अनुगुणेति उपमायाः साधकं प्रमाणम् ॥ न तथेति । शशिन्यपि हासद्युतेः शुक्लतया मनागानुकूल्यमस्तीति भावः॥
तस्या इति हासद्युतेः ॥ ३४०-४१ (75) बाधत्वे यथा- राजनारा
यणम्' इति । 'राजैव नारायणः' इति मयूरव्यंसकादित्वाद् रूपकसमासः, ततश्च उपमानस्य नारायणस्य प्राधान्यम् । तं प्रति लक्ष्मीप्रयुक्तमालिङ्गनं घटत इत्यालिङ्गनमुपमाया बाधकं प्रमाणम् । उपमायां हि उपमेयस्य राज्ञः प्राधान्यं, तत्रैव चित्तविश्रान्तेः। न च स्वभर्तृसदृशमन्यं प्रेयसी काचिद् आलिङ्गति ॥ सदृशमिति, राजानम् ॥ 11
४५१-५२ (73) एतयोरिति वक्रविम्बयोः ।
समुच्चयेति । बिम्बं मुखं चैतत्प्रसीदति इति भङ्गया एकस्य प्रकृतत्वेऽन्यस्याप्रकृतत्वे दीपकम् । द्वयोरप्रकृतत्वे तुल्य
योगिता। ४५२ (74) अत्र वक्त्रं शशीवेत्युपमा, न तु
वक्रमेव शशीति रूपकमित्याहमुख्यतयेति । हासद्युतिः प्रकतत्वान्मुख्या। सा च वक्रानुगुणेत्युपमासाधिका । तस्या इति । हासद्युतेः। एतस्याश्च शुक्लतया चन्द्रेऽपि किञ्चिदानुकूल्यमस्तीत्यतो न बाधकत्वम् ।
४५३ (75) वाधकत्वेनाह । राजेति । राजैव
नारायण इति रूपकसमासः। उपमानप्राधान्ये रूपकमुपमेयप्राधान्ये उपमेति सर्वत्र ज्ञेयम् । सदृशमिति । राजानम् । प्रेयसी लक्ष्मीः । निजपतितुल्यमन्यं कान्ता नालिङ्गतीत्यर्थः।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
82]
KAVYAPRAKASA-SANKETA
सोमेश्वर
पृ.
३४१ (76) रूपकविधानच्छेदिनो बाधकस्य मञ्जीरशिञ्जितस्य यद्यपि साधकत्वं बाधकत्वं चोभयमपि अस्ति, तथापि 'बाधकत्वेनैव व्यपदेशा भवन्ति' इति न्यायात् बाधकत्वस्यैव प्राधान्यं, साधकत्वापेक्षया बलीयस्त्वेन उत्कटतया प्रतीतेः ॥ ३४२ ( 77 ) यद्यपि सावयवमिदं रूपकमखिलवाक्यव्यापि तथापि प्रतिपदं रूपकसद्भावात् तथाव्यपदेश इत्येकपदानुप्रवेशो न विरुद्धः ॥ त्रिप्रकारतयैवेति । एतेन - शब्दार्थवर्त्यलंकारा वाक्य एकप्रभाविनः ।
संकरो वैकवाक्यांशप्रवेशाद वाभिधीयते ॥ इति भट्टोद्भटोक्तः संकरः संसृष्टावन्तर्भावित इति त्रेधै
वायम् ।
३४२-४३ (78) ननु, पुनरुक्तवदाभासस्य तावच्छब्दस्य वैचित्र्यमुत्कटमिति उभयालंकारत्वमनपेक्ष्यैव शब्दालंकारत्वेनोक्तिः कृता, परंपरितरूपकादीनां तु किमर्थालंकारेषु पाठ इत्याह- अर्थस्य त्विति । वस्तुवृत्त्या तु भिन्नाः प्रतिपादयितुमुचिता इति
भावः ।
३४४ (79) 'अकुण्ठे 'ति । अत्र शृङ्गारप्रतिकूला वर्णाः । शृङ्गारे हि उपनागरिका वृत्तिरुचिता ॥
३४५ (80) अन्यरूपमिति । उपमानरूपमुपमेयरूपं वा ॥ तस्येति धर्मिणः ॥ प्रतीयमानेनापीति । शब्देन अनुपात्तेन उभयानुगमक्षमेण शब्दोपात्तच्युतत्वादि •
७. १०
माणिक्यचन्द्र
पृ.
४५४ (76) यद्यपि मञ्जीरशिक्षितं रूपकविधिच्छेदेन बाधकं पादानुकुल्यादुपमां प्रति साधकं च स्यात्, तथाऽपि बाधकत्वेन व्यपदेशः । 'प्रधानेन व्यपदेशा भवन्ति' इति न्यायात् । साधकत्वापेक्षया बलिष्ठत्वेनोत्कया प्रतीतेर्बाधकत्वं प्रधानम् । ४५४ ( 77 ) शब्दार्थवृत्त्यलङ्कारस्तूद्भटोक्तः संसृष्टिरेवेति त्रिधैव ।
४५५-५६ ( 78 ) वस्तुतया परम्परितरूपकादेरुभयालङ्कारतया भिन्नत्वेन वक्तुं युक्तावर्थालङ्कारेषु तत्पाठोऽर्थस्योत्कटतया वैवश्यात् ॥
४५७ (79) अकुण्ठेति । शृङ्गारे छुपनागरिकी वृत्तियोंग्या |
४५९ (80) अन्यरूपमिति । उपमेयरूपमुपमानरूपं वा ॥ तस्येति । धर्मिणः । प्रतीयमानेन । शब्दानुक्तेनोभयानुगमक्षमेण शब्दोक्तसमानधर्मव्यतिरिक्तेन केना पीत्यर्थः ।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १० ]
INTRODUCTION APPENDIX A
सोमेश्वर
पृ.
३४५ (80) धर्मव्यतिरिक्तेन केनचिदित्यर्थः ॥ अनिर्वाहादिति । सविशेषणत्वं निर्विशेषणत्वं वा यद् उपमेये प्रक्रान्तम् उपमाने तस्य अनिर्वाहादित्यर्थः ॥
३४५ (81) अत्र च्युतत्वमुपमानोपमेययोः साधारणो धर्मस्तस्यान्यरूपत्वं नपुंसकस्य उपमेयविशेषणत्वे पुंस्त्वं, तत उपमेयस्य साक्षाद्धर्मसमन्वयः, उपमानस्य तु प्रतीयमान इति शब्देन धर्मेण प्रक्रमे भग्नप्रक्रमत्वम् । यदि तु विपरिणामेन लिङ्गवचसोरपरस्यापि संबन्धस्तदा अभ्यासलक्षणो वाक्यभेदः स्यात् । द्वे वाक्ये स्यातामित्यर्थः । एवं च व्यवधानेन प्रकृतोऽर्थो न प्रतीयेत विपरिणामश्च शास्त्रीकाव्येषु न 'युक्तः 11 ३४६ ( 82 ) तद्विदां प्रसिद्धेन प्रकारेण ॥
३४८ (83) केवलस्येति, असमासस्थस्य । समासे तु असौ योग्यताद्यपि प्रतिपादयति ॥ तस्य चेति, साधर्म्यस्य ॥ तत्रेति, संभावनवाचकत्वे ॥
३४८-४९ (84) व्यर्थ एवेति । उत्प्रेक्षामात्रमेवात्रोचितं, न त्वर्थान्तरोपन्यासस्तत्समर्थनार्थ इति तात्पर्यम् । समासोक्तिदोषानाहसाधारणेति । मानः परिमाणमभिमानश्च । चिरयायिदिनो दीर्घाहा निदाघः ॥ यथा सहशविशेषणेति । रवेः करैः इति सदृशमनुकूलं विशेषणं, दिनश्रियास्तु 'विजृम्भिततापया' इत्यादि सदृशं विशेषणम् । व्यक्तेर्लिङ्गस्य विशेषः पुंस्त्वं
[83
माणिक्यचन्द्र
पृ.
४५९ (80) भग्नेति । उपमेयस्य विशेषणादिकमुपमाने चेन्न निर्व्यूढं तदा
क्रमभङ्गः ।
४५९-६० (81) अत्र च्युतत्वादिको धर्म उपमानोपमेययोः प्रत्येकमन्यलिङ्गवचन इति प्रक्रमभङ्गः । लिङ्गवचनविपरिणामेन यद्यपरस्यापि सम्बन्धः तदा व्यासरूपवाक्यभेदे वाक्यद्वयी । तथा सति प्रतीतिः व्यवधीयते, विपरिणामश्च साहित्येन स्यात् ।
४६० ( 82 ) न तथेति कोविदप्रसिद्धप्रका रेण ।
४६३ (83) केवलस्येति । असमासस्थस्य, समासस्थस्तु योग्यताद्यर्थवादी स्यात् । तस्य चेति । साधयस्य । अस्यामिति । उत्प्रेक्षायाम् । तत्रेति । सम्भावनाभिधाने ।
४६४-६५ (84) व्यर्थ एवेति । उत्प्रेक्षामात्रमेवात्र युक्तं न तत्समर्थकोऽर्थान्तरन्यासः । दिवाभीतश ब्दस्योलूकार्थत्वेन समुचितोपमाख्यायां नैतद्दोषावतारः । तस्येति उपमानविशेषस्य । 'स्पृशतीति । तापः खेदोऽपि । मानशब्दः परिमाणाभिमानयोः । चिरयायिदिनः दीर्घाहो निदाघः । सदृशेति । रवेः करैरिति सदृशमनुकूलं विशेषणम् । दिनश्रयास्तु तापयेति
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
84]
KAVYAPRAKASA-SANKETA
सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र
४६४-६५ (84) विशेषणम् । व्यक्तिर्लिङ्गम् ।
तद्विशेषः पुंस्त्वं स्त्रीत्वं च। नायकतयेति । नायकश्च नायिका चेत्येकशेषः। ननु यथा प्रियां स्पृशन्तं प्रियं दृष्ट्वा अन्यस्यास्तापः स्यात्तथाऽर्के दिशः स्पृशति सति ग्रीष्मश्रियोऽपि ताप इति श्लेषोपमेयमिति दयितयेति युक्तमित्याह ।
४६६ (85) अन्येऽपीति । यथा-वचित्काले
प्रसरता क्वचिदापत्य निघ्नता। शुनेव सारङ्गकुलं त्वया भिन्नं द्विषां बलम् ॥ अत्रोपमायां शुनोपमानेन प्रकृतार्थकथनेऽनु चितार्थता क्वचिदिति सामान्येन निष्पाद्य पश्चात्कालेन योगः।
३४८-४९ (84) स्त्रीत्वं च ॥ नायकतयेति।
नायकश्च नायिका चेति एकशेषः ॥ ननु, यथा दयिते दयितां करैः स्पृशति सति दयितान्तरस्य तापो भवति तथा रवः करैः ककुभः स्पृशति सति चिरयायिदिनधियोऽपि ताप इति श्लेषोपमेयमिति उपादेयमेव 'दयितया' इति
पदमित्याह । ३५० (85) अन्येऽपीति। यथोपमायां
हीनपदत्वे- क्वचित्काले प्रसरता क्वचिदापत्य निघ्नता। शुनेव सारंगकुलं त्वया भिन्नं द्विषां वलम् ॥ -अत्र शुनोपमानेन च कृतार्थकदर्थनेऽनुचितार्थत्वम् । 'क्वचित्काल' इत्यत्र क्वचिदर्थस्य सामान्येनोपक्रान्तस्य कालल
क्षणेन विशेषेण योगः ॥ (86) निन्दायां प्रोत्साहने चानुचि
तार्थत्वं गुणः। यथा-कुशलसखीजनवचनैरतिवाहितवासरा विनोदेन । निशि चण्डाल इवायं मारयति वियोगिनी
श्चन्द्रः॥ (87) निर्मोकमुक्तिमिव गगनोरगस्य
लीला ललाटिकामिव त्रिविष्टपविटस्य ॥ अत्र रूपकेणैव साम्यस्य प्रतिपादितत्वाद्
'इव' शब्दोऽधिकः ॥ ३५१ (88) अत्र राजशब्द एवोभयार्थत्वा
च्छशिनमाहेति श्लेषस्यायं विषयो युक्तः। यस्तु पृथक्त्वमुपादाय राजशशिनोरुपमानोपमेयभावनिबन्धः सोऽधिकः सह्यार्थ एव तद्विदां स्वदते न शाब्दः॥ एवम्
(86) प्रोत्साहनिन्दादाघनुचिताऽर्थ
ताऽपि न दोषः, यथा-हनूमानिव प्रेषणे प्रेष्य एषः।। "वियोगे . मारकः स्त्रीणां चण्डाल इव चन्द्रमाः" इत्यादौ
४६७ (87) “निर्मोकमुक्तिमिव गगनोर
गस्य” इत्यादौ रूपकेणैव साम्यस्योक्तत्वादिवप्रयोगेऽधिकपदत्वं दोषः।
(88) इत्यादौ राजशब्दस्योभयार्थ
त्वेन श्लेषनिष्पत्त्या स्वार्थसिद्धौ यदौपम्यकल्पनं तदधिकम् । औपम्यं ह्यार्थमेव हृद्यं व्यङ्ग्यत्वान्न शाब्दम् । एवं। "दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव" इत्यत्र राजेति
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १० ]
INTRODUCTION APPENDIX A
सोमेश्वर
पृ.
-इत्यत्रापि
३५१ ( 88 ) दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव । श्लेषस्य विषये रूपकमासूत्रितमनादृत्य उपमानुरागिणा कविना सैवोपनिबद्धा | न चासौ ताभ्यां स्पर्धितुमुत्सहते तयोः । यथा पूर्व प्रतीयमानार्थ संस्पर्शातिरेकात् तदनुविधायिनः सहृदयैकसंवेद्यस्य चमत्कारस्य संभवादिति उपमाधिक्यम् ।
३५१ (89) विरोधस्य असंभवः, यथा - या धर्मभासस्तनयापि शीतलैः स्वसा यमस्यापि जनस्य जीवनैः । कृष्णापि शुद्धेरधिकं विधातृभिर्विहन्तुमंहांसि जलैः पटीयसी ॥ अत्र विरोधस्यैकाधारतयैव उपपत्तिरित्युक्तम् । ततो धर्मभास्तनयात्वादीनां च धर्माणां भिन्नाधारतयोक्तौ विरोधस्य असंभवः ॥
३५१-५२ (90) तरंगय दृशोऽङ्गणे पततु चित्रमिन्दीवरं स्फुटीकुरु रदच्छदं वजतु विद्रुमः श्वेतताम् । क्षणं वपुरपावृणु स्पृशतु काश्ञ्चनं कालिकामुदञ्चय मना
खं भवतु च द्विचन्द्रं नभः ॥ अत्र उपमानानामिन्दीवरादीनां निन्दाद्वारेण नयनादीनामुपमेयानां यस्तेभ्यो ऽतिशयो वकुं प्रक्रान्तः स मुखचन्द्रयो 'र्भवतु च द्विचन्द्रं नभः' इति साहूइयमात्रप्रतिपादनाद् न निर्व्यूढम् । 'भवतु लक्ष्यलक्ष्मा शशी' इति तु युक्तम् । ३५२ (91) इत्येष इति । एष मार्गोऽद्भुतं वर्त्म विद्वदादीनां ध्वनिकारादीनां नानाग्रन्थतया विभिन्नो
[ 85
माणिक्यचन्द्र
पृ.
४६७ (88) लेवं हित्वेन्दुः क्षीरनिधाविवेत्युपमारागिणा राजेन्दुरिति
रूपकमुक्तम् । न चोपमा व्यङ्ग्यार्थाधिक्यवतोः श्लेषरूपकयोः समा स्यात् व्ययार्थस्पर्शाभावात् । तस्मादत्रोपमाऽधिका ।
४६७ (89) तथा ---
""
या धर्मभासस्तनयाऽपि शीतलैः स्वसा यमस्यापि जनस्य जीवनैः । कृष्णाऽपि शुद्धेरधिकं विधातृभिः विहन्तुमंहांसि जलैः पटीयसी ॥" अत्र नद्याः पयोभिः परमार्थादैक्येऽपि शब्दार्पितनानात्वानुभवाद्विरोधस्य भिन्नाधारत्वं, तच्चासम्भवि, विरोधस्यैकाधारत्वेनोक्तत्वादित्यसम्भवो दोषः । ४६८ (90) " तरङ्ग्य दृशोऽङ्गणे पततु चित्रमिन्दीवरं " इत्यत्रोपमानभूतेन्दीवरादेरपकर्षणद्वारेण नेत्रादीनां व्यतिरेको वक्तुं प्रक्रान्तः । स च " भवतु च द्विचन्द्रं नभः " इत्युक्त्या साम्यमात्रप्रतीतौ न निर्व्यूढ इति व्यतिरेके भग्नप्रक्रमत्वम् । "भवतु तद् द्विचन्द्रं नभः" इति तु युक्तम् ।
४६८-६९ (91) इत्येष इति । एषोऽद्भुतो - ऽलङ्काराध्वा । विभिन्नोऽपीति । नानाग्रन्थगतत्वेन पार्थक्येन
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
86]
KAVYAPRAKAŚA-SAMKETA
[उ. १० सोमेश्वर
माणिक्यचन्द्र ३५२ (91) ऽप्यनेकरूपोऽपि एकरूपतया __४६८-६९(91) स्थितोऽपि यदेकरूपो भाति यद् भवति तत्र संघटना-विशं
तत्र संघटना विसंस्थुलस्य स्थलस्य सुखप्रतीत्यर्थमेकत्र सं
सुखबोधायैकत्र संग्रहणं हेतुः। ग्रहः, सैव हेतुः,तद्वशाद् एका
ग्रन्थास्सर्वेऽप्यत्रान्तर्मना इत्यत्मताप्रतीतेः । तत्तगन्थाना
र्थः। अथ चायं ग्रन्थोऽन्येनारमत्र अन्तर्भाव इतिभावः॥
ब्धोऽपरेण च समर्थितः इति अथ च सुधियां विकासहेतु
द्विखण्डोऽपि संघटनावशादग्रन्थोऽयं कथंचिदपूर्णत्वाद्
खण्डायते । सुघटं छलक्ष्यअन्येन पूरितशेष इति द्विख
सन्धि स्थादित्यर्थः। ण्डोऽपि अखण्ड इव यदु भाति तत्रापि संघटनैव संनिमित्तम्॥
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
Appendix B Parallelisms in the Samketas of Rucaka and Someśvara,
N.B.-The references of the Samketa of Rucaka are to the pages of the text published in the Calcutta Oriental Journal Vol. II, nos, 6 & 12.
उल्लास १ रुचक
सोमेश्वर (1) न चेति तिक्तादयो हि न हृद्याः। १ (1) न चेति तिक्तादयो हि न हृद्याः। (2) रसाङ्गभूतव्यापारेति - उक्तं हि ३ (2) रसाङ्गेति । रसस्याङ्गिनो योऽहृदयदर्पणे
ङ्गभूतो व्यञ्जनात्मा व्यापारस्तशब्द to काव्यधीर्भवेदिति ॥
निष्ठतया विसदृशम् । यद्भट्टनायकः
शब्द to काव्यगीर्भवेत्। ४ (3) Afterrefuting तुल्ययोगिता, ७ (3) यः कौमारेति । अत्र वरादेः
दीपक and समुच्चय, R says . कारणस्य सामध्ये सत्यपि तस्माद् रिक्तमेतत् । इह 'यः
निधुवनविधेः कार्यस्थानुक्तेकौमारहर' इत्यादीन्यनुत्कण्ठा
विशेषोक्तिरलङ्कारः केवलमकारणानि, तेषु सत्स्वपि सानो
स्पष्ट इत्याह ।। त्पन्ना तद्विरुद्धाया उत्कण्ठाया उत्पादात् अतश्च विशेषोक्तिरियम् । सा च कार्यस्य साक्षानिषिध्यमानत्वेनाप्रतीतेर-स्फुटा । etc. (4) निःशेषेत्यादि-(च्यु)तंन तुक्षा- ९ (4) निःशेषेति च्युतं चन्दनं न तु लितं, निर्मष्टो न तु किञ्चिन्म
क्षालितम् । निर्मुष्टो न तु किश्चि ष्टः । दूरमनञ्जने निकटे तु सा
न्मृष्टः । दूरमनाने निकटे तु अने, पुलकिता तन्वीत्युभयं व्य
साञ्जने । पुलकिता तन्वीति झ्यपक्षे। अधमपदन्तु व्यञ्जकम्।
चोभयं विधेयं व्यङ्गयपक्षे, अधएतच्चोदाहरणं वैदग्ध्येन युग
मपदं च व्यञ्जकम्। पन्निषेधे विधौ च वाच्ये विधि निषेधयोर्व्यङ्ग्ययोर्मतम् ।
+N. B. the point to be noted is that both R.& S. take this as अस्फुटविशेषोक्ति R's discussion, however, is more elaborate. He takes this as अस्फटविभावना also.
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
११
पृ. १२
१३
उल्लास २
रुचक
(1) व्यभिचाराच्चेति यत्र व्यक्तौ संकेतः सा व्यवहारकाले व्यभिचरति ।
(2) पारिभाषिकमिति-अन्यथा जातिशब्दत्वं स्यात् । न खलु स्वयं परमाणुर्नाप्यपरमाणुः, परमाणुत्वसम्बन्धात्तु परमाणुरिति ।
( 3 ) भद्रेति-भद्रा कल्याणप्रकृतिः, भद्रा हस्तिनां विशिष्टा जातिश्च । वंशः पृष्ठनाडिश्च । शिलीमुखा याचका (सायकाः ) भ्रमराश्च । परान् वारयतीति परवारणः, परः प्रकृष्टो वारणो हस्तीति । च दानं त्यागो मदश्च ।
रुचक
(1) यद्यपि सन्ध्यायामवकाशो भवत्येवेति विवक्षितम्, तथापि तदुच्यमानं परस्य लक्षणीयं भवतीति तथा नोक्तम् । अत्र चान्यः तटस्थः परपुरुषः ।
(2) मिथः संयोग इति । तत्र वक्तबोद्धव्ययोगे यथा अत्ता इति ।
पृ.
१३
( 3 ) महमिति निपात आवयोरित्यर्थे । ममेति तु व्याख्यायमाने व्यङ्गयस्याभिधेयत्वमिव स्यात् । अत्र वक्तृवोद्धव्य (भोद्धव्य) पर्यालोचनया शेष्व (शेध्य ) इति विधिरूपव्यङ्ग्यार्थप्रतीतिः । एवमन्येऽपि द्विकभेदास्त्रिकादिभेदाश्च स्वयमल्यूह्याः ।
१४
उल्लास ३
२९
पृ.
३३
३४
३४
सोमेश्वर
(1) व्यभिचाराच्चेति । यदि व्यक्तौ संकेतः स व्यवहारकालं व्यभिचरति बाल्यादिविशेषात् । (2) पारिभाषिकमिति । ततो न जा तिशब्दत्वम् । अन्यथा न खलु स्वयं परमाणुर्नाप्यपरमाणुः परमाणुत्व संबन्धात् तु परमाणुरिति ।
(3) भद्रेति भद्रः कल्याणप्रकृतिः । भद्रा हस्तिनां विशिष्टजातिश्च । वंशः पृष्ठनाडि [ रन्वय ]श्च । . शिलीमुखाः शरा भ्रमराश्च । परान् वारयति । परः प्रकृष्टो वारणो हस्ती च । दानं त्यागो मदश्च ।
सोमेश्वर
(1) यद्यपि संध्यायामवसरो भवत्येवेति विवक्षितं, तथापि तदुच्यमानं परस्य लक्षणीयं भवतीति तथा नोक्तम् ।
( 2 ) मिथः संयोग इति । तत्र वक्तबोद्धव्ययोगे यथा अत्ता इत्थ नु मज इति ।
( 3 ) मह इति निपात आवयोरित्यत्रार्थे न तु ममेति ॥ एवं हि विशेषवचनमेवाशङ्काकारि भवेदिति प्रच्छन्नोऽभ्युपगमो न स्यात् । ततश्च व्यङ्गयस्याभिधेयत्वमेव स्यात् । अत्र निषेधे वाच्ये वक्तबोद्धव्यपर्यालाच - नया शेष्वेति विधिरूपव्यङ्गयाप्रतीतिः । एवं द्विकयोगान्तरे त्रिकादियोगे च स्वयमूह्यम् ।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास ४
रुचक
सोमेश्वर
२० (1) तस्मात् सर्वप्रमातृणां यो रस-
नीयः [स] सर्वप्रमातृतावलम्बनेन रस्यते । अत एव नाटकमण्डपान्तःप्रविष्टाः सर्वे हृदय
संवादभाजो भवन्तीत्युच्यन्ते । २१ (2) प्रेमाः इत्यनुवादेन परिचयादु
द्गाढरागोदया भवेयुरिति विधेयम् । लयस्तन्मयत्वम् । निशान्तोऽन्तःपुरम् । सख्युर्भावः सख्यम् , तेनोपदेशः। जीवितप्रियेत्यामन्त्रणपदद्वयम् , प्रियेति तु सुहृद्विशेषणत्वे प्रियसखैरित्यश्र(स)विशेषणं न
वाच्यम्। २२ (3) मरणम[ ? मा दीर्घकालप्रत्या-
पत्तिरितिकेचित् । मृङ्ग प्राणत्यागे इतिधात्वर्थविचारा विष
भक्षणपाशकरणादीनीत्यन्ये । २२ (4) सुप्त इवेति प्रार्थनापराङ्मुखः। ३१ (5) संस्तरस्तृणादिशय्या। प्रस्तरः
पाषाणः । एवमपि चेन्मेघभयं तद्वस । व्यङ्ग्यं तु प्रहरचतुष्टयमप्युपभोगेन नात्र निद्रां कर्तुमुपलभ्यते, सर्वत्र ह्यत्राविदग्धाः, तदुन्नतपयोधरां मामुपभोक्तुं यदि वससि तदास्खेति वस्तु । अत्र वाच्यबाधनेन व्यङ्गयस्य स्थितित्वात् तयोर्नोपमानोपमेयभावः।
४५ (1) सर्वप्रमातृणां यो रसनीयः
सर्वप्रमातृतावलम्बनेनैव रस्यते, अत एव नाटकमण्डपान्तःप्रविष्टाः सर्वे हृदयसंवादभाजो
भवन्तीत्युच्यते। ५०-५१ (2) प्रेमार्दा इत्यनुवादेन परिच
याद् उद्गाढरागोदया भवेयुरिति विधयेम् । लयस्तन्मयत्वम् । निशान्तोऽन्तःपुरम् । सख्यु
र्भावः सख्यम् , तेनोपदेशः । जीवितप्रिय इत्यामन्त्रणपदद्वयं प्रियेति सुहृद्विशेषणे। प्रियसखैरिति अस्रविशेषणं न
वाच्यम्। ५४ (3) मरणमिति आदीर्घकालप्रत्याप
त्तिरिति केचित् । मृङ्माणत्याग इति धात्वर्थविचाराद्
विषभक्षणपाशबन्धादीत्यन्ये। ५९ (4) सुप्त इवेति प्रार्थनापराङ्मुखः । ६०-६१ (5) संस्तरस्तृणादिशय्या । मणं
मनागपि । प्रस्तराः पाषाणाः। एवमपि चेन्मेघभयं तद वस। उन्नयेति, उन्नतं मेधं प्रेक्ष्येत्यर्थः। व्यङ्ग्यं तु प्रहरचतुष्टयमप्युपभोगेन नात्र निद्रां कर्तुं लभ्यते। सर्वे ह्यत्राविदग्धाः , तदुन्नतपयोधरां मां दृष्टा उपभोक्तुं यदि वससि तदास्वेति वाक्ये वस्तुमात्रम् । अत्र वाच्यबाधेन व्यङ्गयस्य स्थितत्वात् तयोनॊपमानोपमेयभाव इति नालङ्कारो व्यङ्गयः।
12
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास ५
रुचक
सोमेश्वर
४० (1) पश्यतामिति पश्यतः अनाहत्ये-
त्यनादरे षष्ठी। (2) अद्याप्यहमुपेक्षित इत्यसह-
नत्वं तपसः। अभियुक्त उद्योगेनाक्षिप्तः।
८६ (1) पश्यताम् इत्यनादरे षष्ठी ।
पश्यतः प्रियाननादृत्येत्यर्थः। ८७ (2) तपो मुञ्चत्वेषा इति भगवतो
पेक्षितमित्यसहनत्वं तपसः। विश्रब्धजल्पितमस्याः । शृणो. मीति च रसिका अभियुक्त उ
द्योगेनाक्षिप्तः। ८८ (3) जनस्थाने इति जनानां स्थानं
दण्डकारण्यं च । कनकमृगे तृष्णा भ्रान्तिश्च । वैदेही सीता, 'वै देहि' इति च पदद्वयम् । लंकाभर्तुः रावणस्य, अलं ईषद्रूपत्वात्, कुत्सितस्य भर्तुश्च । वदनेषु दशसु, इषुघटना शरयोजना विचित्रोक्तिपरंपरासुच। कुशलवौ सुतौ यस्याः सा सीता, शुभधनता च ।
(3) जनस्थानं दण्डकारण्यञ्च।
कनके मृगतृष्णा भ्रान्तिश्च । वैदेही सीता, वै देहीति पदद्वयम्। णस्य, अलम् (अल) ईषद्रूपत्वात्? कुत्सितरूपस्य च भर्तुः। वदनेषु दशसु इषुघटनाशरयोजनादि, चित्रोक्तिपरम्परासु च [घटना] । कुशलवौ सुतौ यस्याः सा सीता,
शुभधनता च। ४०-४१(4) अध्यारोपेणैव स्थित इति । न-
ह्यत्र वाच्य इव प्रतीयमानोऽर्थों वाक्यार्थतां लभते, विशेषार्थाभिधायिनो (धानयो) रुभ
यार्थप्रतिपादकत्वाभावात् । ४१ (5) एकान्तस्थितोऽप्युदासीन इत्य
च्युतपदद्योत्यम् । दर्शनेन किं तृप्तिरुत्पद्यते उपभोगेनैवोत्पद्यते । हतजन इति लोकस्तावदन्यथा मन्यते । तत्र क्रिमात्मानं वञ्चयावः? आमन्त्रणं ज्योक
रणम्। (6) हर्षशोकादीनामिति ते हि वा-
क्यार्थप्रतिपत्त्या क्रियन्ते, न च शापकस्य शब्दस्य कारकत्वं भवति ।
८९ (4) अध्यारोपेणैवेति। न ह्यत्र वाच्य
इव प्रतीयमानोऽर्थी वाक्यर्थतां लभते विशेष्याभिधायिनोरुभयार्थप्रतिपादकत्वाभावात् ।
९० (5) अच्युतः विष्णुः अक्षरणश्च ॥
'दर्शनेन' इति सुरतसेवाविकलेन । जनस्तावदेकान्तस्थयोरन्यथा मन्यते भवांस्तु अच्युत उदासीनः, तत् किमात्मानं वदयावः (? वञ्चयावः)। आ
मन्त्रणं ज्योत्करणम् । १०० (6) हर्षशोकादानामिति । ते हि
वाक्यार्थप्रतिपत्त्या क्रियन्ते, न च ज्ञापकस्य शब्दस्य कारकत्वं भवति । 'पुत्रस्ते जात' इ. त्यतो वाक्यार्थसामर्थ्याद् हर्षो जायत इति जननव्यतिरिक्तं ध्वननम् ॥
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. ५ ]
INTRODUCTION : APPENDIX B
रुचक
पृ.
-४१ (7) श्रुतीति । " ऐन्द्रया गार्हपत्यमुपतिष्ठत" इत्यत्र गार्हपत्योपस्थाने ऐन्द्या विनियोगस्तुती या प्रतिपादित इति श्रौतः । (8) " बर्हिर्देवसदनं दामी" ति देवाश्रयदर्भच्छेदनेऽयं मन्त्रो दामी ति लिङ्गादङ्गात् प्रतिपाद्यते ।
४२
(9) आश्रयाश्रयिणोर्वाक्यान्नियमस्त्ववतिष्ठते (?) इति अरुणयैकहायन्या पिङ्गाक्ष्या सोमं क्रीणातीत्यत्रारुणादीनां परस्परं पुनर्वाक्यीयः ।
प्रयाजा
( 10 ) दर्शपूर्णमासप्रकरगे उक्ता इति प्रकरणाद् दर्शपूर्णमासयोरेव क्रियन्ते । "अग्निरनस्यान्नपतिस्तस्याहं देवयज्य - याsन्नस्यान्न पतिर्भूयासमि" ति मादाय याग उपांशुयागोमयागश्चेति यागत्रयं क्रमेण स्थितम् । तत्र प्रथमतृतीयाभ्यां मन्त्राभ्यां लिङ्गाद्यदाद्यन्तौ यागावाक्षिप्येते द्वितीयेन मन्त्रेण द्वितीयो यागस्तत्स्थानवशात् । उद्गाता ऋत्विगध्वर्युरित्यादेरुद्गाते त्यादिसमाख्यावशात् सामवेदादावधिकृत इति निश्चीयते । 'ता' इति । उद्गायतीत्यादिसमाख्ययाऽन्वर्थे संज्ञाबलात् सामयजुऋग्वेदेष्वधिकृत इति निश्चीयते तेष्वङ्गभाव इत्यर्थः ।
[ 91
सोमेश्वर
पृ.
अत्र
१०० ( 7 ) ' ऐन्द्र्या गार्हपत्यमुपतिष्ठते ।' गार्हपत्योपस्थाने ऐन्द्या ऋचो विनियोगस्तृतीयाप्रतिपादित इति श्रौतः । ऐन्या अङ्गभावः प्रतिपाद्यत इत्यर्थः ॥ (8) 'बर्हिर्देवसदनं दामि' इति । देवाश्रयदर्भच्छेदनेऽयं इति । 'दामि' इति लवनलिङ्गाद् अनेन मन्त्रेण वहींषि लुनीयादिति प्रतीयते ॥
मन्त्र
१००-१०१ (9) वाक्यतो यथा- 'श्वेतं छागमालभेत ' अत्रैकवाक्योपादानाच्देवगुणस्य च्छागावच्छेदकत्वेन क्रियाङ्गभावो गम्यते । यथा वा 'अरुणया एकहायन्या पिङ्गाक्ष्या सोमं क्रीणाति' इत्यत्र अरुणादीनां क्रमेण संबन्धः श्रौतः । अरुणैकहायन्यादीनां परस्परं पुनर्वाक्यीयम् ॥ १०१ ( 10 ) दर्शपैौर्णमासप्रकरणे 'समिधो यजति तनूनपातं यजति इडो यजति बर्हिर्यजति स्वाहाकारं यजति' इति पञ्चप्रयाजा उक्ताः, ते च दर्शपौर्णमासयोरेव क्रियन्ते तदङ्गत्वमवगम्यत इत्यर्थः ॥ 'अग्निरन्नस्य' etc. 'दधिरस्यदर्थो' 'अग्नीषोमौ' etc. इति मन्त्रत्रयात् आग्नेयो याग उपांशुयाज (ग) आग्नीषोमीयो यागश्चेति यागत्रयं क्रमेण स्थितम् । तत्र प्रथमतृतीयमन्त्राभ्यां देवयज्यालक्षणाल्लिङ्गाद् आद्यन्तौ यागौ आक्षिप्येते, द्वितीयेन मन्त्रेण द्वितीयो यागस्तु, आश्रीषोमीयलक्षण उपांशुयाजः स्फुरदोष्ठमुद्रस्वरः स्थानवशात् ॥ उद्वाताऽध्वर्युर्होता ।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
92]
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
रुचक
पृ.
४२ ( 11 ) अत्र सखीविषयं वाच्यम् । अस्या भ्रमरेण दष्टाधरेयं न परपुरुषेणेति सखीकृतसमर्थनरूपं व्यङ्गयं पतिविषयम् । अद्य मया समर्थितं पुनः प्रकटेऽङ्गे त्वया खण्डनादि न कर्तव्यमि - त्युपपतिविषयम् । प्रियायाः सवणमधरं दृष्ट्रा रोषो भवति, अप्रियायास्तु दृष्ट्रा परिहास - हेतुरानन्दो भवति, तद्धर्षो मा युष्माकं भूदिति (भूयादिति) सपत्नीविषयम् । अत्रार्थ इदानीमेष किञ्चिद् वदति त्वं कुप्यसि ततः पादपतनादिना यदि प्रार्थ्य से तत् सहस्व शोभवेत्यर्थ इति सखीविष यम् । नान्यथाऽस्याः संभावनीयमिति प्रातिवेश्मिकविषयम् । युक्तया मया संवृतोऽपराधः सख्या इति स्ववैदग्ध्यख्यापनं विदुग्धविषयम् । अद्य मया समर्थितं, पुनस्त्वया सावधानया भवितव्यमिति सखीविषयमेव, अनया विना त्वं न भवसि तव हीयं प्रिया, तदर्थापराधोद्घाटनं न कार्यमिति पत्यु वैदग्ध्ये सति तद्विषयम् ।
सोमेश्वर
पृ.
१०४ (11) 'सहस्वेदानीं' इति वाच्यमविनयवतीविषयं, भर्तृविषयं तु अपराधो नास्तीत्यावेद्यमानं
उल्लास ६
[ उ. ५
व्यङ्ग्यम् । तत्सपत्न्यां च तदुपालम्भतदविनयप्रहृष्टायां सौभाग्या तिशय ख्यापनम् 'प्रियाया' इति शब्दबलादिति सपत्नीविषयं व्यङ्ग्यम् । सखीमध्ये इयता खलीकृतास्मीति लाघवमात्मनो न ग्राह्यं, प्रत्युतायं बहुमानः । सहस्व शोभस्वेदानीमिति सखीविषयं सौभाग्यख्यापनं व्यङ्ग्यम् । अद्येयं तव प्रच्छन्नानुरागिणी मयेत्थं रक्षिता, पुनः प्रकटदशन रदनविधिर्न कार्य इत्युपपतिविषयं व्यङ्ग्यम् । नान्यथास्यां संभावनीयमिति प्रातिवेश्मिकविषयं व्यङ्ग्यम् । युक्तया मया संवृतोऽपराधः सख्या इति स्ववैदमध्यख्यापनं विदग्धविषयं व्यङ्ग्यमित्याह ।
There is no Samketa of Rucaka on this Ullasa,
I
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास ७
रुचक
सोमेश्वर
४५ (1) उपहतेति-तथा चोक्तम्- १३५ (1) उपहतेति ॥ यदाह कुतुकः"अत्रालुप्तविसर्गान्तः पदैः
अत्रालुप्त to रिच्यते ॥ प्रोतैः परस्परम् । ह्रस्वैः संयाग
पूर्वैश्च लावण्यमतिरिच्यते ॥ (2) संहितामिति (संहितेति) 'सं. (2) 'संहितैकपदवत् पादे स्वर्धान्तहतैकपदवत् पादेष्वर्धान्तवर्ज
वर्जम्' इति काव्यसमय इत्याह म्' इति काव्यसमयः
संहितामिति ॥ ४६ (3) रावण इति जगदाक्रन्दकारि- १६१ (3) तथा हि रावण इति जगदाक्रन्दत्वाद्यर्थान्तरसंक्रमितवाच्यः।
कारित्वाद्यर्थान्तरसंक्रमितवा
च्यो ..... (4) रक्ता सानुरागा प्रसाधिता (प्र- १६९ (4) रक्ता सानुरागा प्रसाधिता असादिता) अजिता भूयः, रक्तेन
र्जिता भूः यैः, रक्तेन मण्डिता मण्डिता भूश्च यैः । विग्रहो वैरं
भूश्च यैः । विग्रहः वैरं 'शरीरं' शरीरञ्च । स्वस्थाः कुशलिनः
च । स्वस्थाः कुशलिनः स्वर्गस्वर्गस्थाश्च । पृथुकानां वालानां
स्थाश्च । पृथुकानां बालानां ये ये आर्ताः स्वरास्तेषां पात्रं,पृथूनि
आर्ताः स्वरास्तेषां पात्रम् । कार्तस्वरस्य सुवर्णस्य पात्राणि
पृथूनि कार्तस्वरस्य स्वर्णस्य भाजनानि च यत्र । भुवि उपि
पात्राणि भाजनानि यत्र । भुवि तो भूषितोऽलङ्कृतश्च । विलस
उषितो भूषितोऽलंकृतश्च । कैः गर्तसम्बन्धिभिः पांशुभि
विलसत्कैर्गर्तसंबन्धिभिः । पांर्गहनं विलसन्तीभिः करेणुभि
सुभिर्गहनम् । विलसन्तीभिः याप्तम् (व्याप्तञ्च).
करेणुभिाप्त च। ४७ (4a) [आत्मारामा इति]. देहबुद्धि- १६९ (4a) 'आत्मारामेति । देहवुद्धिप्राणप्राणशून्यरूपमितप्रमातृतानिम
शून्यरूपमितप्रमातृता निमज्जनेन जनेनापरिमितबोधरूपे आत्मनि
अपरिमितबोधरूपे आत्मनि ये ये रमन्ते । भेदसंसर्गाम्यां
रमन्ते । मेदसंसर्गाभ्यां ज्ञानं ज्ञानविकल्पस्तस्मान्निष्क्रान्तः*
विकल्पः तस्माद् निष्क्रान्तः । "योगमेकत्वमिच्छन्ति वस्तुनो
*भेदज्ञानमिदं ध्येयमेततद्गुणऽन्येन वस्तुना" इत्युपपादित
मेतक्रियमिति, यथा 'गौःशुक्ल
श्चलः' इति । प्रत्यक्षमेवैकं तत्र दिशा ध्येयेन सह समापत्तिः समाधिः। तमः अशुद्धोऽध्वा,
व्याप्रियत इत्यर्थः-'योगमेकत्वज्योतिः शुद्धोऽध्वा । पुराणो
मिच्छन्ति वस्तुनोऽन्येन वघटादिसिद्धः पूर्वसिद्धेः, आ
स्तुना' इत्युपपादितदृशा ध्येयेन नन्दरूपतया प्रकाशमानश्च ।
सह समापत्तिः समाधिः । तमः अशुद्धोऽध्वा, ज्योतिः शुद्धोऽध्वा । पुराणः घटादिसिद्धेः पूर्व सिद्धः । अनिदं प्रथमतया
प्रकाशमानश्च ॥ * This passage in s. is to be noted for its elaboration from भंदज्ञानं to इत्यर्थः
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
94]
रुचक
...
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
पृ.
४७ (4b) षडधिकेत्यादि-शक्तीनामिच्छाज्ञानक्रियाणां ब्राह्म्यादीनां वामादीनां भूचर्यादीनां करणेश्वरीणा ( ? ) मकारादिरूपामृतादीनामेवंविधानामन्यासामपि फलभेदादारोपितभेदपदार्थवपुषां नाथः प्रभुर्न्यभवद्भावात् । आक्षिप्तनमस्कारो जयत्यर्थ इति । देहादिमितप्रमातृता निमज्जनात् प्रबोधप्रमातृभावोन्मजनेन समाधि (वि)गामी ( शामी ) त्यर्थः । न च शक्तयः परस्परपरिहृतवपुषोऽपि त्वेकैकस्याः शक्तेः सर्वशक्त्यात्मतेत्याह- शक्तिभिः परिणद्ध इति परितः समन्ताद वद्ध:, तेनेशिवादिदशायामपि शोत्रादिवपुः । न चासौ दूर भवतीत्याह - षडधिकेति । षड़भिरधिका दश षोडश या नाड्यस्तासां यत् चक्रं हृत्स्थानचक्रवन्नाड्यादिरूपेण स्वरूपं तन्मध्ये स्थितः स्थितिमान् विश्रान्त आत्मा अ (म ) विकलं चिदात्मरूपं यस्य । उक्तं नन्दशिखायाम् । " हृद्योगं देवि वक्ष्यामि विस्तरेण शृणुष्व तम् । विन्दुर्नादः शिवचैव तत्रैव निवसन्ति ते" त्यादि अथवा हृदये (?) ( ततः ) लक्षयेच्चक्रं ( चक्र ? ) " राजानमेकं तत् षोडदारक" मित्यादि । इडा to वायुसमाश्रिता इत्यादि o (4c) हृदि हृच्चक्रे विशिष्टं निहितं स्वातन्त्र्येणोल्लासितं रूपं ज्योतिरादिरूप आकारो येन । एवस्वरूपोऽसावित्येतत् प्रतिपादनञ्च न विफलमित्याह - सिद्धिद इति । तं विदन्ति यथावज्जानते तथाभूतप्रकाशात्मना प्रकाशन्ते ये तेषाम् । सिद्धीः परापरमुक्ति
[ उ. ७
सोमेश्वर
पृ.
१६९ (4b) 'षडधिके' त्यादि । 'शक्तीनां' इच्छाज्ञानत्रियाणां ब्रह्मण्यादीनां वामा - ( पृ. १७० ) - ज्येष्ठादीनां परादीनां भूचर्यादीनां करणेश्वरीणां अकारादिरूपामृतादीनां, एवंविधानामन्यासामपि फलभेदाद आरोपित भेदपदार्थवपुषां 'नाथो' न्यग्भावनोद्भावनप्रभुः । जयति आक्षिप्तनमस्कारार्थी जयत्यर्थः । देहबुद्धिप्राणपुर्यष्टादिमितप्रमातृतानिमज्जनात्मबोधप्रमातृभावोन्मज्जनेन समाविशामीत्यर्थः ॥ न च शक्तयः परस्परपरिहृतवपुषः, अपि तु एकैकस्याः शक्तेः सर्वशक्त्यात्मतेत्याह - 'शक्तिभिः ॥ परिणद्धः परितः समन्ताद् वद्धः । तेनेशित्रादिदशायामपि ज्ञात्रादिवपुः । न चासौ दूरे भवतीत्याह 'षडधिके'ति । षभिरधिंका दश षोडश या नाड्यः, तासां यच्चक्रं हृत्स्थाने । चक्रं च नाभ्यारादिरूपेण स्वरूपं तन्मध्ये स्थितः स्थितिमान् विश्रान्त आत्माऽविकलं शिवात्मकं रूपं यस्य । यदुक्तम् इडा to वायुसमाश्रिताः ॥ इत्यादि *
१७० (4c) हृदि हच्चक्रे विशिष्टं निहितं स्वातन्त्र्येणोल्लासितं रूपं ज्योतिरादि [य] रूप आकारो येन ॥ एतत्प्रतिपादनं च न निष्फलमित्याह - सिद्धिद इति ।
१७० ( 40 ) सिद्धीः परापरभुक्तिमुक्तिरूपा ददाति यः । तं विदन्ती यथावजानते तेषाम् ॥ न चासावाग
* In R. the explantion is further elaborated by quotations etc. pp. 48, 49, 50. This means that S. has taken only as much as is necessary for explanation, and not put in the whole Tantra lore, as R. does.
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. ७ ]
रुचक
INTRODUCTION : APPENDIX B
पृ.
५० ( 40 ) भुक्तिरूपा ददाति यः । न चासावागमोपपत्तिभ्यामेव सिद्धो यावत् स्वप्रकाशप्रत्यभिज्ञातोऽपीत्याह- अविचलितेति (अविचलित इति) Quotations about चत्वारो योगिनः पृ. ५०१. तेनावचलितमनन्यध्ययं मनश्चित्तं येषां तैः साधकैः सिद्धतमं पदं साधयितुमुद्यतैर्मृग्यमाणः साक्षात्क्रियमाणः यद्यपि प्रमात्रै कवपुषः स्वप्रकाशस्यानुपपद्यमानमिवानुपयुज्यमानं प्रमाणं यस्य तस्यास्य दर्शनक्रियाकर्मभावो न भवति तथापि दृश्यमान घटादिपदार्थवंदपरोक्षता प्रतिपादनार्थमुपचारेणाक्तम् ।
उल्लास ८
रुचक
पृ.
५३ ( 1 ) ( श्रव्यत्वमिति ) श्रव्यमिति भासते तद्युक्तं " श्रव्यं नातिसमस्तार्थशब्दं मधुरमिष्यते ।" *
५४ ( 2 ) आख्यायिकायामिति - विकटबन्धप्रधाना आख्यायिका सुकुमाररचनाप्राया तु कथेत्यनयोर्भेदः ।
[95
सोमेश्वर
पृ.
१७० (4c) मोपपत्तिभ्यामेव सिद्धो, यावत्स्वप्रकाशः प्रत्यभिज्ञातोऽपीत्याह अविचलितेति । अविचलितमनन्यध्येयं मनश्चित्तं येषां तैः साधकैः सिद्धतमपदसाधयितुमुद्यतैर्दृश्यमानः साक्षात् क्रियमाणः ॥
सोमेश्वर
पृ.
२०३ ( 1 ) श्रव्यत्वमिति 'श्रव्यं नातिसम स्तार्थशब्दं मधुरमिष्यते' इति भामहोक्तं माधुर्यलक्षणमोजःप्रसादयोरप्यस्तीति सजातीयव्यावृत्त्यभावाद् न तल्लक्षणं माधुर्यस्य ।
२११ (2) आख्यायिकायामिति । विकटबन्धप्रधानाऽनागतार्थशंसि वापरवकादिनोच्छ्वासादिना संस्कृतगद्येन च युक्ता आख्याfurent,....
सुकुमाररचनाप्राया गद्येन पयेन वा सर्वभाषा धीरशान्तनायका कथा ।
* Note 5. “ Bhāmaha's Kāvyālañikara II. 3. The printed editions read श्रव्यं नातिसमस्वार्थ कान्यं मधुरमिष्यते । This line, it appears, is differently read by different commentators and annotators..."
The point to be noted is that here both R. & S. agree in the reading.
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास ९
रुचक
पृ.
१५५ ( 1 ) सन्नारीति-सती [:] साध्वीर्ना - बिभर्ति पोषयति या उमा तां याति सम्बध्नाति यः सन्ना अभा शत्रूणां गजा यत्र तथाभूतो रणो यस्य, तथा अमायो मायाशून्यः, ततः सार्वभौमो भवति । (2) विना अयं etc.
५६ ( 3 ) सत्वारम्भेति ( सम्बन्धतेति ) स तु महापुरुषः आरं etc. ( 4 ) यस्यानतः etc.
(5) सरस्वती वागीश्वरी etc. (6) ससार जगाम सा कंदर्पेण etc. भ्रमराणां राज्य । [ पराजित ]परिभूतं etc. *
५७ (8) अन्यदिति यथा- विविधधवना
etc.
(9) विधाविति -विधुर्विधिश्चेत्युकारेकारयोः श्लेषः ।
(10) पृथुकानां बालानां etc. ( 11 ) भक्तीति-नीते हितप्राप्तये etc.
(12) महदे उत्सवदे, सुरैः सन्धा
यत्र [ मे मम ] तम् अव रक्ष, समासङ्गम् आगमाहरणे आम्नाय स्वीकारे, हर निवारय, बहु प्रभूतं [सरणं] प्रसरणं यत्र तम्, चित्तस्य मोहमज्ञानम्, अवसरे काले उमे
पृ.
२३६
सोमेश्वर
( 1 ) सन्नारीति । सतीः साध्वीर्नारीबिभर्ति पोषयति या उमा तां याति संबध्नाति यः शिवः । तथा सन्ना अरीभाः शत्रुगजा यत्र तथाभूतो रणो यस्य । अमायो निर्दम्भः । संदंशः ।
। कश्चित्
(2) विना अयमिति कंचिदाह यमेन etc. (3) सत्वेति etc.
२३८
( 4 ) यदानतः यस्या आनतः etc. (5) सरस्वतीति वागीश्वरि etc. (6) ससारेति ससार प्रववृते etc. (7) भ्रमरपङ्कयापराभूतं etc. * २३९ ( 8 ) अन्यदिति यथा- विविधधव [व]
Here the whole verse and its explanation. 8 Only a part quoted; no further explanation.
( 9 ) नानानागर्द्धनाने त्यादौ च । अत्र स्थाणुपक्षे विधुश्चन्द्रो वि धिश्च दैवमित्युकारैकारयोरक्षरयोर्भङ्गेन श्लेषः । (10) पृथुकानां बालानां etc. ( 11 ) भक्तीति । अत्र 'नीता' इति ईहितप्राप्तये etc.
२४० (12) तत्र संस्कृतप्राकृतयोः, यथा - महेति । कश्चिद् ध्यानानीतां गौरीं प्रत्याह । महेदे उत्सवप्रदे सुरे सन्धा प्रतिज्ञा यत्र, देवविषयमित्यर्थः । मम तमुत्कृष्टम् । अव रक्ष । समासङ्गं अभिप्रेतं आगमाहरणे आगमस्वीकारे । तथा हर निवारय । बहु प्रभूतं सरणं प्रसरणं यत्र तं चित्तस्य मोहमज्ञानं अवसरे
* Similarities in 1-7 are usual and to be expected, and therefore not very useful
as evidence.
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. ९]
INTRODUCTION : APPENDIX B
[97
रुचक
सोमेश्वर
५७ (12) गौरि सहसा झगित्येव । अ- २४० (12) काले उमे गौरि सहसा झगिस्यार्थः मम देहि रसं धर्म तमो
त्येव ॥ प्राकृतेऽन्योऽर्थः । मम वशाम् (उमेवशाम् । आशां,
देहि रसं धर्मे तमोवशां तमः गमागमात् संसारात् , हरणः,
परिभूतामाशां गमागमात् संहरवधु शम्भुपत्नि, शरणं त्वं
साराद् हर । ण इति नः। तथा चित्तमोहः अपसरतु मे, सहसा
हे हरवधु शम्भुपत्नि शरणं बलेन ।
त्वम्। चित्तमोहोऽपसरतु मे
सहसा। (13) वक्ष्यतीति धारयिष्यति कथ- (13) वक्ष्यतीति । धारयिष्यति कथयिष्यतीति चेति वहिवच्यो
यिष्यति च । अत्र वहिवच्योः। रूपम् । कृदिति कृन्तति
कृन्तति-करोत्योश्च प्रकृत्योकरोति च।
भङ्गः। (14) ....सहस्रमिति क्रियाविशेष- २४१ (14) 'सहस्रम्' इति क्रियाविशेषणम् । स्यां स्यादिति च नन्दय
णम् । 'स्यां स्याद्' इति च । यी ? ती]ति नन्दितानन्दिनो
नन्दतीति। नन्दिता नन्दिनो गणविशेषस्य भावः इति तद्धि
गणविशेषस्य च भाव इति तकृत्प्रत्यययोः।
तृच-त-प्रत्ययोः श्लेषः। ५८ (15) हे हर त्वं etc.
(15) हे हर etc. (16) गोत्रशब्दः कुलपर्वतयोः etc. (16) गोत्रशब्दः कुलपर्वतयो etc. (17) सहकलकलेन ete.
२४३ (17) सहकलकलेन etc. (18) इहापीति शब्दालङ्कारमध्ये ।
२४४ (18) 'इहापि' इति शब्दालंकारमध्ये। (19) पाता रक्षिता etc.
(19) पाता अलं पर्याप्तं etc. (20) मारारिहरः ete. अनेन श्लोक- २४६-४७(20)मारारिः शिवः etc. द्वयेन खगबन्धः प्रस्तारो
एतेन श्लोकद्वयेन खड्गः। यथा...*
तथा हि द्राढिकान्तरे etc. (21) सरलेति ete. । एष मुरजः।
(21) सरलेति etc.। एष मुरजबंधः। तथा हि पादचतुष्टयेन पंक्ति
तथा हि पादचतुष्टयेन पङ्किचचतुष्टये कृते etc.
तुष्टये कृते etc. ६० (22) अत्र न केवलमधोऽधःक्र- २४८ (22) अत्र न केवलमधोऽधःक्रमेमेण स्थितानां पादानां प्राति
ण स्थितानां पदानां प्रातिलोम्येन व्यवस्थितिर्यावदर्ध
लोम्येनापि स्थितिर्यावद् अर्धभ्रमस्यापि । तत्र हि प्रथमादि
भ्रमस्यापि । तत्र हि प्रथमादिपादाद्याक्षराणि चत्वारि चतु
पादाधक्षराणि । चतुर्थतृतीयऑदिपादान्त्याक्षराणि चेति
द्वितीयप्रथमपदाष्टमाक्षराणि च प्रथमः पादः। प्रथमादि यावद
प्रथमाः प्रथमपादः । प्रथ* F. N. 18 "A blank covering six lines of 26 to 28 syllabes each is shown here in the Ms. Manikyacaudra and Sridhara who have in this place reproduced verbatim the remarks of Rucaka help us in restoring the blank portion which would be like this :- द्राढिकान्तरे etc."
13
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
98]
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
[उ.९
रुचक
सोमेश्वर
६० (22) द्वितीयाक्षराणि चत्वारि चतु- २४८ (22) मादिपादद्वितीयाक्षराणि च ऑदिपादसप्तमा(सप्ता)क्षराणि
चतुर्थादिपादसप्तमाक्षराणि च चेति द्वितीयः पादः ।
द्वितीयपादः । एवं तृतीयप्रथमादि यावत्तृतीयाक्षराणि
षष्ठाक्षरैस्तृतीयः पादः, चतुएवं चतुर्थादि यावत् षष्ठाक्ष
र्थपञ्चमैश्चतुर्थः पादः । इह च राणि तृतीयः पादः । चतुर्थ
सर्व [त] देव उपलभ्यत इति पञ्चमौ चतुर्थः पादः। इह च
अर्धभ्रमस्याप्यवस्थानात् सर्वतदेवोपलभ्यते इत्यर्धभ्रमस्या
तोभद्रम्। यदुक्तम्-तदिष्टं प्यवस्थानात् सर्वतोभद्रम् ।
सर्वतोभद्रं भ्रमणं यदि सर्वतः॥ (23) अरीणां वधं ददती ईहा येषां ___ २५१ (23) अरिवधदा ईहा चेष्टा येषाम् , तादृशाः शरिणो धानुकास्ता
एवंभूतान् शरिणो धानुष्कान नीरयन्ति ये, सूता बन्दिनः,
ईरयति यः। सूतो बन्दी । सतासतामानत्येत्युक्ततया स्थिरता
मानत्या हेतुभूतया स्थिरतायां यामगः पर्वततुल्यः । अङ्ग
सत्यामगः पर्वततुल्यः। अङ्गनेष्वारामा उपवनानि ।
नेषु आरामा उपवनानि ॥ अत्रैकार्थतया प्रतिभातौ देहश
अत्रकार्थतया प्रतिभातौ देहरीरशब्दौसार्थको सभङ्गो सार
शरीरशब्दो अनर्थको सभङ्गो, थिसूतशब्दौ सार्थकावभङ्गो'
सारथि-सूतशब्दौ तु सार्थको दानत्यागशब्दावनर्थको सभङ्गो
अभङ्गो । तथा दानत्यागशब्दो अङ्गना रामा इत्येतावनर्थकाव
अनर्थको सभङ्गो, अङ्गना रामा भङ्गो, देहशरीरवदिह शब्दयो
इत्येतो त्वनर्थको अभङ्गो, देहर्भङ्गाभावात् (भङ्गभावात्) ।
शरीरादिशब्दवन्निजेनैव रूपे. णावस्थिततयोरनयोर्भङ्गाभा
वात् । (24) उपलभ्यमानसुपामपि शब्दा- (24) उपलभ्यमानसुपामपि शब्दानामुपरि पौनरुक्त्यं प्रतिभासते
नामामुखे पौनरुक्त्यं प्रतिभाइत्यभिसन्धायोदाहृतं तथेति ।
सत इत्यभिसंधाय तस्य' इत्युसुमनसः शोभनचित्तस्य राज्ञः,
दाहृतम् ॥ सुमनसः शोभनसुमन्सो देवा विबुधाश्च । तत
चित्तस्य । सुमनसो देवा विबुएवात्रैकार्थताभ्रमः।
धाश्च । त एवेत्येकार्थताभ्रमः। (25) तनु स्वल्पं, करिकुञ्जरा वारण- २५२ (25) तनु स्वल्पम् । करिकुञ्जरा श्रेष्ठाः “वृन्दारकनागकुञ्जरैः
गजश्रेष्ठाः। 'वृन्दारकनागकुपूज्यमानमिति समासः। रक्ता
अरैः पूज्यमानम्' इति समासः। श्छुरिताः । बहुलमपि पुनरुक्त
बहूनामपि पुनरुक्तवदाभासो वदाभासे (क्तावभासे) लक्ष्य
लक्ष्यते 'तेज' इति । तेजसो त इत्युक्तं तेज इत्यादि-तेजसो
धामानि आश्रयाः तेजस्विनः, धामाश्रयस्तेजस्विनस्तेषां मह
तेषां मह उत्सवः। इन्द्रः उत्सवः, इन्द्रः स्वामी, हरिः
स्वामी हरिःसिंहः जिष्णुर्जयसिंहः, जिष्णुर्जयनशीलः।
नशीलः।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लास १०
रुचक
सोमेश्वर
६०
(1) यथा षष्ठीवत् उत्तरा तदेव
विशिनष्टि । श्रुत्यैव च सम्बन्धमुभयाधारमभिधत्ते । तयैवायं यथेवादिः । सममेव साम्यं साधारणो धर्मः । तुल्यता द्विष्टरूपसादृश्यम् ।
२५५ (1) यथा षष्ठी यत उत्तरा तदेव
विशिनष्टि श्रुत्यैव संबन्धमभयाधारमभिधत्ते, तथैव अयं यथा इवादिः... ............ सममेव साम्यं साधारणो धर्मः। तुल्यता द्विष्ठरूपं सादृश्यम् ।
२५८ (2) अलंकारान्तरं चेति । तद्धि अनु
प्रासादि श्लिष्टतरमपि काव्ये यदि अव्यभिचारितयैव गण्यते, तदा तेन सहोपमादीनां संकरसंसृष्टी स्यातामिति केवलतयैव एषां विनावकल्पेत ।
६१ (2) अलङ्कारान्तरञ्चेति। तद्ध्यनुप्रा-
सादि(द) श्लिष्टतरमपि, काव्ये यद्यव्यभिचारितयैव तद्व्यवहारो गण्यते तदा तेन सहोपमाऽऽदीनां संकरसंसृष्टी स्यातामिति केवलतयैषां विषयो
नावकल्प्येत । (3) तदिति (तदेति) स चास्फुट
तरो रसादिरर्थः, तथालङ्कारान्तरमिति-"नपुंसकमनपुंसकेने"त्यनेन नपुंसकैकशेषः । अस्फुटश्च रसादिर्गुणीभूतव्यङ्गयगृहीत इत्यस्फुटतरोवगृह्यते इति संस्पर्शपदेन ध्व
नितम्। ६१ (4) मनो विषकल्पं विषसदृश
मित्यर्थः । न तु विषमेव प्रकृत्यर्थसदृशेऽर्थे कल्पबादीनां स्मरणात् । उपमाया एव हीदमुदाहरणं, न तु रूपकस्य, प्रत्ययादमुतो समारोपाप्रतिपत्तेः ।*
(3) तदिति । स चास्फुटतरो रसा
दिरर्थस्तथा 'अलंकारान्तरम्' इति नपुंसकैकशेषः । अस्फुटश्च रसादिर्गुणीभूतविषय इति अस्फुटतरोऽत्र गृह्यते, इति 'संस्पर्श'पदेनात्र ध्वनितम् ।
२५९ (4) 'विषकल्पम्' इति। ... ...
'ईषद् अपरिसमाप्तं विषम्' इति वचनवृत्त्या सामानाधिकरण्यरूपतया यद्यपि रूपकच्छायां भजते, तथापि प्रातीतिकेन रूपेण उपमैव। तथाहि अत्र विषसदृशं मनः इत्ययमर्थः प्रतीयते, न तु ईषद् अपरिसमाप्तं विषमेव इति ईषदपरिसमाप्तिविशिष्टे प्रकृत्यर्थसहशेऽर्थे कल्पबादीनां स्मरणात् ।
* Here the change in order as well as wording is mora significant than similarity in words and order. The same is true as belween S. & M.
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
100]
KAVYAPRAKASA-SAMEETA
[उ. १० .
रुचक
सोमेश्वर
६२ (5) असितेति - अत्रोपमानोपमेय- २६० (5) असितेति । अत्रोपमानोपमेययोरेकपदानुप्रवेशः। पूर्वत्र वर्तते
योरेकपदानुप्रवेशः, पूर्वत्र तु पृथनिर्दिष्ट इति विशेषात् पुन
ते पृथग निर्दिष्टे इति विशेषात् रुदाहरणम् ।
पुनरुदाहृतम्। (6) ... कुसुमेन सदृक्षमिति सह- (6) 'मालतीकुसुमसदृशम्' इति क्षशब्दाभिधेयस्योत्कृष्टतरगुण
सदृक्षशब्दाभिधेयस्य उत्कृष्टत्वेनाप्राप्यताप्रतिपादनादुपमा
गुणत्वप्रतिपादनाद् बलाद् नत्वं बलादायातं, तस्य च सा
आगतस्य उपमानस्य साक्षाद् क्षादनिर्देशादुपमानस्यैव लोपः।
अनिर्देशाद् उपमानस्यैव लोपः। (7) मृगनयनेति-मृगनयने इव न- २६२ (7) मृगस्य नयने इति प्रथमं तत्पुयने यस्याः । अत्र गुणद्योतको
रुषः, ततो 'मृगनयने इव पमानशब्दानां त्रयाणां लोपः ।
नयने यस्याः' इति सप्तम्युप.....................
मानोपमानपूर्वस्य समास उत्तयदा तु मृगशब्द एव लक्षणया
रपदलोपश्चेत्यत्र गुणद्योतकोपमृगनयनवृत्तिस्तदा मृग एव
मानानां त्रयाणां लोपः। यदा नयने यस्या इत्युष्टमुखवद्रूप
तु मृगशब्द एव लक्षणया मृगकसमासस्यैव विषयो न त्वस्यो
नयनवृत्तिः , तदा मृग एव पमासमासस्येति नास्ति स्थान
नयने यस्या इति रूपकसमामुपमायास्त्रिलोपिन्याः । अत
सस्यैष विषयः, न त्वस्य उपमाएवोक्तं यदेति ।
समासस्येति नास्ति स्थानमुपमायास्त्रिलोपिन्याः । अत एवोक्तं 'यदा समासलोपौ'
इति । cf. मा. (11). p. 350. (8) उपमेयेनोपमानधुराऽधिरूढेन २६४ (8) उपमेयनोपमानधुराधिरूढेन करणात्मना उपमा, उपमान
करणात्मना उपमा, उपमानस्योपमेयतापादन उपमेयोपमा।
स्योपमेयतापादनं उपमेयोपमा। ६३ (9) सांगमिति-न [केवल] मत्र __ २७० (9) साङ्गमेतदिति सूत्रम् । न केवलं तस्यैव रूपणमपि तु तदङ्गस्या
यत्र तस्यैव रूपणं, अपि तु पि-अङ्गमत्रोपकरणमात्रं न
तदङ्गस्यापि अङ्गमत्रोपकरणत्वारम्भकमेव, लक्ष्याव्याप्तिप्र
मात्र, न तु आरम्भकमेव सङ्गात् ।
लक्ष्याव्याप्तिप्रसङ्गात् । (10) एवमिति
२७६ (10) एवमिति । आरोपपूर्वकोऽपह्नविलसदमर to श्रियं वः।
वोऽपह्नवपूर्वको वा आरोपः । तथा चोक्तम् - इदन्ते केनोक्त
क्रमाद् यथामित्यादि।
विलसदमर to श्रियं वः।
इदं ते केनोक्तम् इत्यादि । (11) श्लिष्टेः समानैः ।।
२७७ (11) श्लिष्टैःश्लेषवद्भिःसमानः. It † M. & J. have not given GAR:
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION : APPENDIX B
उ. १०]
रुचक ६३ (12) राजशुकः कश्चिदुत्कृष्टजाति-
शाली शुकः। (13) मुखादिति-लोकप्रसिद्ध्यात्र
मुखमाकृतिःअपेक्षितक्रियश्चैतदपादानम् । जात्यावेदकमेतच्छ
रीरादेतदल्पतरं जातमित्यर्थः । (14) प्रतियातनं संशोधनम् ।। ६४ (15) श्लेष इति-विशेष्यपदस्थापि
.श्लिष्टता । समासोक्तिरिति
समानविशेषणत्वम् । साहश्यमात्रमिति-प्रतीयमानेनापि
केनचिद्धर्मेणानुगुण्यम् । (16) पुंस्त्वं पुरुषस्य धर्मः, तस्यैव
चारुत्वञ्च । अधः [पातालं, निकृष्टा गतिश्च] प्रणयनं याजानिमित्तम् । न महानपि स्वल्पोऽपि पुरुषोत्तमो विष्णुः, सत्पुरुषश्च । एष न शब्दश्लेषः, अभिधाया एकत्रनियमानियत्रितत्वात् । नापि विशेष्यपदस्य । श्लिष्टत्वे शब्दशक्तिमूलो ध्वनिः । भगवदृत्तान्तस्यात्र वाच्यत्वात्, तस्य चाप्रक्रान्तत्वात्। प्रस्तुतार्थमुखेन यत्राप्रस्तुतोऽर्थो विशेष्यद्वारेणावगम्यते स तस्य ध्वनेविषय इत्युक्तम् । सत्पुरुषचरितमेवात्र वाच्यं प्रस्तुतञ्च, तन्मुखेन चेतरार्थप्रतिपत्तिः। ततः शब्दशक्त्युद्भव एवायमिति चेत्, न; तस्य वाच्यत्वासंभवात् । न ह्युत्कृष्टतमस्यापि पुरुषस्य सत्यत एवास्ति शक्तिर्विश्वमुद्धतुम, आक्षिप्यमाणस्य तु तस्य गुणस्य गुणवृत्त्या तद्वर्णनमविरुद्धं गुणभूतत्वादित्यप्रस्तुतप्रशंसवैषा।
[101 सोमेश्वर २८० (12) राजशुकः कश्चिदेव उत्कृष्टजा
तिशालीशुकः। M. different
राजशुको वरशुकः। (p. 373) २८१ (13) मुखाद् इति । लोकसिद्धयात्र
मुखमाकृतिः । अपेक्षितक्रियं चैतदपादानम् । एतत् तच्छ
रीरादल्पतरं जातमित्यर्थः। (14) प्रतियातनं शोधनम् । (15) श्लेष इति । विशेष्यपदस्थापि
श्लिष्टता । समासोक्तिरिति । समानविशेषणत्वम् । सादृश्यमात्रमिति । प्रतीयमानेनापि
केनचिद् धर्मेणानुगुण्यम् । २८१-८२(16) पुंस्त्वं पुंसो भावस्तस्यैव चा
रुकृत्यं च । अधः पातालं निकटा गतिश्च । प्रणयनं to एकत्र नियन्त्रित्वाद् । to श्लिष्टत्वेऽपिशब्द° to इति झुक्तम्।सत्पुरुष° to पुरुषस्य विष्णोरिव विश्वोद्धरणशक्तिःसत्यत एवास्ति । आक्षिप्यमाणस्य तु तस्य गुणवृत्त्या to °सैवेयम् । पुरुषोत्तमस्य विशेष्यस्य विशेषणानां च लिष्टत्वात् श्लेषगर्भ. त्वम् ।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
102]
KAVYAPRAKASA-SAMERTA
[उ. १०
रुचक
सोमेश्वर
६४ (17) पादा रश्मयः, पादौ चरणौ २८२ (17) पादा रश्मयश्चरणौ च । जडधाजडधामता शीतलतेजस्त्वं,
मता शीतलतेजस्त्वं मूर्खास्पदमूर्खास्पदता च ।
त्वं च। (18) आहो इति यद्यर्थे । कल्पः (18) आहो इति यद्यर्थे। कल्पः प्रौढः।
प्रौढिः। (19) रसनाविपर्ययः असत्यभाषि- २८३ (19) रसनाविपर्ययो गजानां शापहेत्वमपि । चापलं शब्दोऽश्रोत
तुतोऽसत्यभाषित्वमपि । चापव्यश्रवणमपि । मदो गर्वोऽपि ।
लमश्रोतव्यश्रवणमपि । मदो शून्यकरत्वमदातृत्वमपि ।
गर्वोऽपि । शून्यकरत्वमदातृत्व
मपि। (20) एवमिति यथा व्यतिरेके । २८६ (20) एवमिति । यथा व्यतिरेके । तत्र ह्येकस्य बहुभ्यो व्यतिरेक
तत्र ोकस्य बहुभ्यो व्यतिरेके । माला। व्यतिरेकतो यथा-हर
मालाव्यतिरेकता, यथा 'हरवन्न to कदाचिदसि ॥ इति ॥*
वन्न विषमदृष्टिः' इति ॥ ६५ (21) तस्य च श्लिष्टत्वं भास्वरत्वस्य
(21) 'भास्वता' इत्यस्य श्लिष्टत्वं,भासमारोपात् रवित्वस्य प्रतिपा
स्वतेव भास्वतेति भासुरत्वस्यादनात्।
रोपगत्या रवित्वस्य च प्रतिपा
दनात् । (22) निषेध इवेति । न तु निषेध २९४ (22) निषेध इवेति । न तु निषेध एव, प्रधानस्य निषेधमुखेन
एव, किंतु प्राकरणिकस्यार्थस्य विशेष एव तात्पर्यात् । अन्यत्र
प्रस्तुत्वादेव प्रधानस्य वक्तुमिचोक्तम्-'प्रतिषेध इवेष्टस्य यो
प्रस्य विशेषप्रतिपत्तये निषेधाविशेषविधित्सयेति ।'
भासः ।' विधानार्हस्य निषेधः कर्तुं न युज्यत इति निषेधमु
खेन विशेष एव तात्पर्यमित्य
- र्थः। ६६ (23) तस्याः फलस्य प्रकाशनं कवि- २९५-९६(23) सामान्येन विशेषमनपेक्ष्य फना प्रतिपादनं न तु भावनम् to
लप्रकाशनमिति कार्यस्य कविशप्तिश्चोत्पत्त्यपेक्षया दवीयसी
ना प्रतिपादनं, न तु भवनकारन विभावनां प्रयोजयति ।
णमन्तरेण कार्योत्पत्तेरसंभभवतु वाऽत्रापि सामान्येन
वात् to शप्तिश्चोत्पत्त्यपेक्षया परस्परं बाधः, तथापि न विरो
दवीयसी न विभावनांप्रयोजयधरूपत्वं, हेतुफलभावविशे
fa. In (23) many phrasषमाश्रित्य प्रवर्तनात्, अस्या
es are identical, but the स्तदपवादत्वात् ।
whole is a sort of expa* P. 65. See note 15. In the text R. discusses the order of verses. S.follows the later version.
+ F. N. Bhāmaha's Kāvyālamkāra II. 68. § Paraphrase of the verse of Bhämaha.
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.१०]
INTRODUCTION : APPENDIX B
[103
रुचक
सोमेश्वर
६६ (24) गलिः कर्मण्यकुशलोऽत्यन्त-
मलीमसः (°मलसः)। (25) धाराधरः खड्गः। अनुरज्यत ।
इत्यनुरागः शोणितकृतं शोणत्वमपि। स्नेहो रुधिरार्द्रत्व
मपि। (26) जडयति शीतलयति व्यामोह-
यति च। (27) कश्चिदिह प्रभेदः श्लेषवशादेव
समासादितस्वभाव इति विरोधप्रतिभोत्पत्तिहेतुः श्लेषात्मक एव । ततः श्लेषण सहास्य सङ्करत्वशङ्का न कार्या, भेदाभावात् । एवम. न्यत्रापि परीक्ष्यम्।
nded paraphrase. Then in what follows 'ज्ञप्त्यपेक्षः, alat: and patterit are explained in the style of a commentary as 'ज्ञप्त्यपेक्ष इति, 'ज्ञप्तिश्चेति,' 'दवीयसी' इति । This is interesting because it suggests that S. after taking the passage from R. comments upon the difficult words (p. 296). भवतु वात्रापि सामान्येन परस्परं बाधस्तथापि न विरोधरूपत्वं हेतुफलभावं वि
शेषमाश्रित्य प्रवर्तनाद् अस्यास्तदपवादत्वात् । (ef. मा. 41
P.394-5) २९९ (24) गली (? लिः) कर्मण्यकुशलो
ऽत्यन्तमलसः । ३०० (25) धाराधरः खड्गः । अनुरज्यत
इत्यनुरागः । शोणितकृतं शोणत्वं च । स्नेहो रुधिरा
त्वमपि। ३०१ (26) जडयति शीतलयति व्यामोह
यति च। ३०२ (27) श्लेषवशादेव हि समासादित
स्वभावः श्लेषात्मक एव विरोधस्ततः श्लेषेण सहास्य संकरत्वाशङ्का न कार्या, भेदाभावात् । एवमन्यत्रापि परीक्ष्यम् । This is preceded by a discussion with a quotation from उद्भट (p.309). This is in fact an elucidation of as remarks
adopted by सो. (28) द्राघयित्वा दीर्घाकृत्य । प्रोथो
ऽश्वस्य मुखाग्रम् । तुण्डं मुख
६७ (28) दायित्वा दीर्घाकृत्य "प्रिय-
स्थिरे"त्यादिना द्राघादेशः ।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
104]
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
[उ. १०
रुचक
सोमेश्वर
६७ (28) प्रोथोऽश्वस्य
तुण्डं मुखम् ।
मुखाग्रम्।
३०२ (28) म् । The point here is
that S. takes only as many words for explanation as are taken by
३०६ (29) विप्रलम्भो भ्रान्तिरपायो वा। ३०८ (30) अत्र चानुमानसद्भावेऽपि to
हेतोरिदमुदाहृतम् । (cf. मा. (51) p. 400.)
(29) विप्रलम्भो भ्रान्तिरपायो वा। (30) अत्रानुमानसद्भावेऽपि न तेन
सह वाक्यार्थीभूतस्य हेतोः सं. सृष्टिव्यवहारः, उभयोरपि भिनदेशत्वात् । अनुमानन्तु हेतोरुत्थापकतयोपकारकमिति भवत्यङ्गाङ्गिसङ्करः, किन्तु हेतुलक्षणमत्रास्तीत्येतावदभिस
न्धाय हेतोरिदमुदाहृतम्। (31) तदेवेति-पटीयस्त्वादनुभावस्य
तदाकारतयैव तस्योत्पत्तेः। (32) निरंशस्य वस्तुनो भेदसंसर्ग
योरभावात् । तौ हि विकल्पस्यैव व्यापारः । स हि अभिन्नमपि वस्तु गौः शुक्लश्चल इत्येवं भिनत्ति, भिन्नमपि पदार्थजातमयं गौरयमपि गौरित्येवं
संसृजति । (33) तस्येहाङ्गत्वादिति । अङ्गत्वे-
ऽपि न रसवदलङ्कारः, अस्योदात्तस्य तदपवादत्वात् ।
३०९ (31) एतदीयत्वाद् अनुभवस्य तदा
कारतयैव तस्योत्पत्तेः। (32) निरंश to संसृजति।
३१० (33) तस्येति after पूर्वपक्ष-सत्यम् ,
अङ्गत्वेऽपि न रसवदलंकारोऽस्योदात्तस्य तदपवादात् ।
(cf. मा. (54) p. 413.) ३११ (34) न पृथगिति।रुद्रटोहि त्रेधान्यः
सदसतोर्योग इति सद्योगादिना रूपान्तरेण पृथगलक्षयन्न तथात्रेति भावः।
(34) न पृथगिति - रुद्रटो हि-
यत्रैकानेक वस्तु परं स्यात् सुखावहाद्येव । ज्ञेयः समुच्चयो- . ऽसौ त्रेधान्यः सदसतोर्योगः॥ इति सद्योगादिना रूपान्तरेणामुं
पृथगलक्षयत् । ६७ (35) असतामिति तत्र नववयःप्र
भृतेः सत्यपि सत्त्वे सर्वेषामपि सत्त्वाकथनमसत्त्वेनैव विरहिज्या भावितत्वात् ।
(35) नववयःप्रभृतेश्च सत्यपि शोभ
नत्वे सर्वेषामपि अशोभनत्वकथनं, अशोभनत्वेनैव विरहिण्या भावितत्वात् ।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १०] INTRODUCTION : APPENDIX B
[105 रुचक
सोमेश्वर ६७ (36) तत्रेति-[तत्र] शशिनः शोभ- ३११ (36) तथा हि शशिनः शोभनत्वं नत्वं प्रकृतिसौन्दयात् । अशो
प्रकृतिसौन्दर्यात् । अशोभनत्वं भनत्वं धूसरत्वोपादानात् । एव
तु दिवसधूसरत्वादिति 'शशी ञ्चास्य सदसद्रूपस्य तादृशेनैव
दिवसधूसरः' इत्यस्य सदसद्रूव्यापारेण योगादिह सदस
पस्य तादृशैरेव 'गलितयौवना द्योगः। शशिनि धूसर इति
कामिनी' इत्यादिभिः सदसद्रूपैः शोभनाशोभनत्वमुपदेर्शितम् ।
समुच्चयः। ६८ (37) न वाच्यमिति । रुद्रटेन ह्युक्तम् ३१२ (37) रुद्रटेन तुव्यधिकरणे वा यस्मिन् to सा
व्यधिकरणे to सौ विति ।
इति यदुक्तं तन्न वाच्यमित्याह । (38) क्रमेणेति प्रतीकानन्तरं- ३१३ (38) क्रमेण उदेति (उदा इति) अन"श्रोणीबन्ध to यौवनेने"ति*
न्तरम् । पाठः । आद्यार्धमेव श्लोकस्यो
श्रोणीबन्धः to यौवनेन ॥* दाहरणम्।
इत्ययं पाठः । 'तनुतामेव मध्यभागः सेवते' अत्र एकस्य तनुतादेये वृत्तिदर्शिता । आद्या
र्धमेव च श्लोकस्योदाहरणम् । ६९ (39) निवेशितं चुम्बनैकसक्तं कृतम्। ३१४ (39) बिम्बाधरे निवेशितम् । चुम्ब
नादिसक्तं कृतम् । (40) अञ्चित-आकृष्टः।
३१५ (40) 'अश्चित-आकृष्टः'। (41) प्रकृतेति-क्वचित् प्रकृतनिष्ठं ३१७ (41) न चैषेति । क्वचित्प्रकृतनिष्ठं साम्यं यथा
साम्यं, सदयं बुभुजे to वधूमिव ॥ इति समुच्चितोपमायाम् । क्व
सदयं बुभुजे to वधूमिव ॥ चित्[अप्रकृतनिष्ठं यथा कस्या
इति समुचि( ? चि)तोपमाश्चित् तुल्ययोगितायां, क्वचि
याम् । क्वचिद् अप्रकृतनिष्ठं च्च तदुभयनिष्ठं यथाऽपहृत्यां,
यथा कस्यांचित् तुल्ययोगितातच्चेह नास्ति, प्रकृतस्यैव सद्भा
याम् । अपहृतौ तु प्रकृताप्रकृतवात् ।
निष्ठं सादृश्यम । न च तथे
हास्ति, प्रकृतस्यैव सद्भावात् । (42) व्यासङ्गो विरोधस्तस्माद् भङ्गो (42) व्यासङ्गो निरोधः, तस्माद्भङ्गो भयम्।
भयम् । (43) अवगतं प्रतिपाद्येन ज्ञातम्। ३१७-८ (43) °प्रमाणान्तरावगतं प्रतिपाद्येन
ज्ञातं । (44) आर्यचरितं-शिष्टैरनुष्ठितम् । ३१८ (44) 'आर्यचरितम्' इति शिष्टैरनु
__ष्ठितम्। ६९ (45) युवतिरेव कामस्यास्त्रमायुधम् । ३१८-९(45) युवतिरेव कामास्त्रम् ।।
* It seems, ace to R&S. the verse 'श्रोणीबन्ध' etc. should precede नन्वाश्रय in K, P. See note 28 in R's Samketa, p. 68. +Cf. M. (63)424.
14
यथा
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
1061
KAVYAPRAKASA-SANKETA
[उ. १०
रुचक
सोमेश्वर
9.
६९ (46) गौणे ह्युपचारे सादृश्यसम्प्रत्य- ३१९ (46) ततो गौणलक्षणायां सादृश्ययाद्वैचित्र्यम्। न तु शुद्धे, तद्वि
संप्रत्ययादवैचित्र्यं, यथा इयं पर्ययात् ।
गेहे लक्ष्मीः etc. इत्यादौ अतिशयोक्तौ । यत्र तु आयुधृतं to पूजनम् । इत्यादी कार्यकारणसंबन्धोपचारे शुद्धलक्षणासद्भावः । तत्र सादृश्याभावेन हेतुमात्रस्य वैचित्र्याभावान्न
हेतुरलंकारः।* (47) कोमलेति । यद्यप्यव्यभिचारि- (47) कोमलानुप्रासेति । यद्यपि अतयैव च विकाशादीनां नैरन्त
व्यभिचारितयैव विकासादीनां र्येण जननमिहोपमानप्रयोजनं
नैरन्तर्येण जननमिहोपचारव्यङ्ग्यं तदसुन्दरमपि गुणीभूत
प्रयोजने व्यङ्ग्यं तद् असुन्दर व्यङ्ग्यनिबन्धनं भवतीति च
मपि गुणीभूतव्यङ्गय निबन्धनं प्राक् प्रतिपादितमेव, तथाप्य
भवतीति प्राक् प्रतिपादितमेव, लंकारचिन्तायाः प्रक्रान्तत्वाद
तथापि अलंकारचिन्तायाः पहुत्यैवावधारणगर्भमिदमभि
प्रक्रान्तत्वात् तद् अपहत्यैवावहितम्, अत एव तटस्थत
धारणगर्भमिदमभिहितम् । अत येवोक्तम् । समाम्नासिषुरिति
एव तटस्थतयैव उक्तम् 'समाउद्भटादयः प्रत्यपादयन्निति
म्नासिषुः' इति उद्भटादयः ह्यत्रार्थः।
प्रत्यपादयन्निति.ह्यत्रार्थः। ७० (48) अतिशयेनेति-अतिशयः कार- ३२३ (48) अतिशयेनेति । अतिशयश्च णस्य कारणान्तरतो विलक्ष
कारणस्य कारणान्तरतो वैलक्षणता।
ण्यम्। (49) सिंहिकासुतः सिंहो राहुश्च । ३२५ (49) सिंहिकासुतः सिंहो राहुश्च, न अत्र न परं शशेनात्मरक्षा समा
परम् । शशेनात्मरक्षा न समासादिता यावदेष स्वयमेवाधि
सादिता यावदेष स्वाश्रयबागतमहाबाधः, स्वाश्रयबाधेना
धेन आश्रयणक्रियाध्वंसात् श्रयणक्रियाध्वंसात् ।
स्वयमेवाधिगतमहानर्थश्च ।। (50) विपुलेनेति-अत्र हीनेन गुरुकार्य ३२६ (50) विपुलेनेति । अत्र हीनेन गुरुकृतमिति विषमत्वम् । एवम
कार्यकरणाद्, विषमत्वम् । धिकोऽपि यः स्वल्पमपि प्रयो
इत्यादावपीति, अपिशब्दाद, जनं न विदधाति तदपि विषम
यथायथा
किं ददातु to त्रितयमात्रके ॥ किं ददातु to त्रितयमात्रके ॥
अत्र अधिकेनापि स्वल्पकार्यकरइति।
णाद् विषमत्वं ज्ञेयम् । (51) माति वर्तते - अनेनाश्रयस्य म- (51) 'माति' इति वर्तते अनेनाश्रयहीयस्त्वमुक्तमन्यथा मानस्या
स्य महीयस्त्वमुक्तमन्यथा मानसम्भवात्।
स्यासंभवात् । * This passage is an elaboration of रु.
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ. १० ]
रुचक
INTRODUCTION APPENDIX B
पृ.
७० ( 52 ) सम्बन्धीति सम्बन्धि वक्रं, तेनेन्दोः सम्बन्धः समत्वात् । ( 53 ) अपाङ्गेति । अत्राङ्गकेन etc.
७०-७१(54) दृष्ट इति- दृशिरत्रोपलब्धिमात्रवचनः । स्मारिता इति घटादिष्वपठितस्य स्मरतेर्मित्वेऽपि "मितां ह्रस्वः” इति [ ह्रस्वः ] तद्विधौ " वे” त्यस्यानुवृत्तस्य व्यवस्थितविभाषात्वात् ।
७३ ( 55 ) अनयैव रीत्येति-अनेन बहुप्रकारं वैचित्र्यमस्य दर्शितम् । तेनोपमानस्योपमेयतोऽनुकम्प्यतामाप्रतिपादनमपि प्रतीपम् । यथा - वदनमिदं to कज्जलवादति ॥ (56) धवलः कामुकोऽपि, रञ्जितं जनिताभिषङ्गं रागप्रसक्तिरपि । अत्र पूर्वार्धे विरोधः न तूत्तरत्र, भिन्नाधारतयैव रक्तारक्तत्वयोः प्रतीतेः ।
७२ ( 57 ) अङ्गेत्यभीष्टामन्त्रणे, सैव नान्यादृशीया न चीयत इत्यध्याहतेन यदा समन्वयः । (58) यथासम्भवमिति - न सर्वेषामेव लक्षितानामपि तु केषाञ्चित् । तत्रापि तेषां मध्ये कचिद् द्वयोः क्वचित् त्रिचतुर्णामिति यथायोगम् । संसृष्टेश्च विषयभेदेन त्रिरूपाया अपि संसृष्ट्या चैकरूपयेति प्रागुक्तभिधानं न विरुध्यते, नैरपेक्ष्यलक्षणस्य रूपस्याभिन्नत्वात् । सङ्करस्तु स्वरूपेणैव नानागतत्वेनावभासत इति युक्तस्तत्र त्रिरूपतया व्यवहारः ।
[107
सोमेश्वर
पृ.
३२७ ( 52 ) संबन्धि वक्त्रं तेन हीन्दोः संब न्धः समत्वात् ।
३२८ (53) अपाङ्गेति । अत्र दृक्तरलत्वादिनr etc. t
३२९ (54) दृष्ट इति । दृशिरत्र उपलब्धिमात्रवचनः । तद्भवैः प्लाविताम्भोभवैः कुहरुतैः कुहकुहशब्दैः नाभ्यादिनिम्नदेशोत्थैः । स्मारिता इति घटादिपाठे स्मरतेर्मानुबन्धत्वेऽपि 'न खो व्यवस्थितविभाषितस्य वा' इत्यस्यानुवृत्तेः ।
३३१ ( 55 ) अनयैवेति । अनेन अस्य बहुप्रकारं वैचित्र्यं दर्शितम् । तेन उपमानस्य उपमेयताधानं विनानुकम्पनामात्रे प्रतिपादनमपि प्रतीपम् । यथावदनमिदं to कज्जलवत् ॥ ३३४ (56) 'धवलोsसि' इति । रञ्जितं जनिताभिष्वङ्गमपि । रागः प्रसक्तिरपि । अत्र पूर्वार्धे विरोधोऽनन्तरं भिन्नाधारतयैव रक्तारक्तत्वयोः प्रतीतिः ।
३३५ ( 57 ) अङ्ग इतीष्ामन्त्रणे । सैव नान्यादृशी या न चीयते ।
३३६ ( 58 ) यथासंभवमिति न सर्वेषां लक्षितानां, अपि तु केषांचित्, तत्रापि तेषां मध्ये क्वचिद् द्वयोः कचित् त्रिचतुराणामिति यथायोगम् । संसृष्टेश्व विषयभेदेन त्रिरूपत्वेऽपि संसृष्ट्या चैकरूपयेति प्रागुक्तं न विरुध्यते, नैरपेक्ष्यलक्षणस्य रू पस्याभिन्नत्वात् । वक्ष्यमाणसंकरस्तु स्वरूपेणैव नानात्वेनावभासत इति युक्तस्तत्र त्रिरूपताव्यवहारः ।
+ Here the passage is different in wording but is taken by M. ( 66 ) p. 436. This shows that M. also borrows from S.
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
108
KAVYAPRAKASA-SAMKETA
[उ. १०
रुचक
सोमेश्वर
७२ (59) पूर्ववदिति - तथा ह्यत्र उपमा-
श्लेषस्योत्थापकतयोपकारिणी, श्लषोऽपि तथैव, रूपकोत्प्रेक्षयोस्तैस्तु समस्तैः साक्षात् पारम्पर्येण च यथासम्भवमुपमोपकृता, तत्समकक्षतया, एवं तस्याः सचेतसां प्रचुरच
मत्कृतिहेतुत्वात्। ७२-७३(60) मुख्येऽपीति-उपमापक्षे कल
ङ्क उपचार एवेति । न तदाश्रयणं युक्तं,तस्यागतिकत्वात् । अतिपातिनो जवेन वजन्तः सारावाः सशब्दा नदा यत्र तादृशीयं तटी भासते। अभिहतो दानवानां रासः सिंहनादो येनेति शम्भोः सम्बो. धनम् । सा चेयं गजसंहतिः यूथमतिपाति विशेषेण परित्रायते । अविरतेन सन्ततेन दानेन मदेन वरा श्रेष्ठा, सारा स्थिरा, वनं दयते रक्षति या [दा] देङ रक्षणे अवनं
रक्षणं ददाति या। ७३ (61) अभिधीयत इति - यद्यपि सा-
धकत्वं बाधकत्वं चोभयमस्यास्ति तथापि प्रधानेन व्यपदेशा भवन्तीति न्यायाद बाधकत्वेनैवास्य तु व्यपदेशो न्याय्यः, बाधकत्वस्य बलीयस्त्वेनोत्कट
तया प्रतीतः। (62) स्पष्टेति । यद्यपि साङ्गमिदं रू-
पकमखिलवाक्यव्यापि तथापि प्रत्यवयवं रूपकस्य सद्भावात्तु तथा व्यपदेश इत्येकपदानुप्रवेशोऽस्य न विरुध्यते।
३३८ (59) पूर्ववदिति । तथा ह्यत्र उपमा
श्लेषस्य उत्थापकतया उपका. रिणी । श्लेषोऽपि तथैव रूपकोत्प्रेक्षायाः (क्षयोः) । तैस्तु समस्तैः साक्षात् पारंपर्येण च यथासंभवमुपमा उपकृता । तदुपकृतैव सा सचेतसां चम
त्कृतिं करोति। (60) मुख्येऽपीति। उपमापक्षेकलङ्के।
उपचार एवेति । न च तदाश्रयणं युक्तं, तस्य अगतिकगतित्वात् । अतिपातिनोजवेन व्रजन्तः सारावा नदा यत्र । तादृशीयं तटी भ्राजते । अभिहतो दानवानां रासः सिंहनादो येनेति शम्भोः संबोधनम् । सा चेयं गजतायूथं गजसमूहम् । अतिपाति परित्रायते अविरतिना संततेन दानेन । वरा श्रेष्ठा । सारा स्थिरा । वनं दयते रक्षति या, अवनं रक्षणं वा ददाति ।
३४१ (61) ... ..यद्यपि साधकत्वं बाध
कत्वं चोभयमपि अस्ति, तथापि 'बाधकत्वेनैव व्यपदेशा भवन्ति' इति न्यायात् बाधक त्वस्यैव प्राधान्यं, साधकत्वापेक्षया बलीयस्त्वेन उत्कटतया
प्रतीतेः। ३४२ (62) यद्यपि सावयवमिदं रूपकम
खिलवाक्यव्यापि तथापि प्रतिपदं रूपकसद्भावात् तथा व्यपदेश इत्येकपदानुप्रवेशो न विरुद्धः।*
* Cf. M. (77) p. 454.
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION : APPENDIX B
109
सोमेश्वर ७३ (63) तत्प्रभेदानामिति (प्रमेदेति) ३४२ (63) तत्प्रभेदेति । तस्य संकरस्य तस्य प्रभेदास्त्रयः प्रकारास्तेषां
प्रभेदात्रयः प्रकाराः, तेषां मेभेदास्तत्तदलङ्कारयोगेनावान्त
दास्तदलंकारयोगेन अवान्तररविशेषा उत्प्रेक्षावयवादयः।
विशेषाः। (64) विशिष्टस्येति-यत्राश्रयस्य नित्य- ३४३ (64) विशिष्टस्येति । यत्र आश्रयनिता नास्ति नित्यत्वेऽपि हि
त्यता नास्ति नित्यत्वं हि यस्य न [तस्य] न तस्यान्वयव्यतिरेको
तस्य अन्वयव्यतिरेको निबन्धनिबन्धनम् , नित्यस्य व्यतिरे
नमित्यस्य व्यतिरेकाभावात् । काभावात्। ७४ (65) रमणमन्दिरं रतिवेश्म, रमण- (65) 'रमणमन्दिरं रतिवेश्म' । 'रमस्य प्रेयसो मन्दिरमिति तु व्या
णस्य प्रेयसो मन्दिरम्' इति ख्यायाम् अकारणमित्यसङ्गतं
व्याख्यायां तु 'अकारणं' इति स्यात्।
असंगतं स्यात् । (66) एकतरस्येति । यदि तु विपरि- ३४५ (66) यदि तु विपरिणामेन लिङ्गवपामने लिङ्गवचसोऽपरस्याभि
चसोरपरस्यापि संबन्धस्तदा सम्बन्धस्तदाऽऽभ्यासलक्षणो
अभ्यासलक्षणो वाक्यमेदः वाक्यमेदः स्यात् । एवञ्चाव्य
स्यात् । द्वे वाक्ये स्यातामिवधानेन प्रकृतार्थो न प्रतीयते ।
त्यर्थः । एवं च व्यवधानेन
प्रकृतोऽर्थो न प्रतीयेत। ७४ (67) असदृश इति-कान्तत्वादेकव- ३४६ (67) 'असदृश' इति टगन्तत्वाद् चनत्वं क्विबन्तत्वाद् बहुवचना
एकवचनान्तं, विबन्तत्वाद् न्तञ्च । मधुरत्वतया भृतो धृतः,
बहुवचनान्तं च । 'मधुरतया मधुरताश्च बिभ्रति । दधत इति
भृतो धृतः मधुरतां बिभ्रती दध धारणे इत्यस्य दधातेश्च य
च'। 'दधते' इति एकवचनथाक्रममात्मनेपदैकवचनबहुव
बहुवचनाभ्याम् । Elaboraचनया रूपम्।
tion of the point (68) मन्जनं स्नानं ब्रुडनश्च । स्फुरन्नं- (68) मजनं स्नानं ब्रुडनं च । स्फुरशुकस्यान्तो यस्याः, स्फुरद्भिरं
नंशुकस्य अन्तो यस्याः, स्फुरशुभिः कान्ता (च)। मकरके
द्भिरंशुभिश्च कान्ता । मकरकेतनः कामः समुद्रश्च ।
तनः कामः समुद्रश्च । (69) उच्चारितमिति-शब्दतः प्रादुर्भू- (69) उच्चारितमिति शब्दतः प्रादुतं यथा प्रत्यग्रेत्यत्र विविक्तका
भूतं, यथा 'प्रत्यग्रे'त्यत्र विविन्तत्वादि।
तमूर्तित्वादिति। (70) केवलस्येति असमासस्थस्य, ३४८ (70) केवलस्येति, असमासस्थस्य । समासत्वेऽसौ योग्यताद्यपि प्र.
समासे तु असौ योग्यताद्यपि तिपादयति।
प्रतिपादयति। (71) व्यक्तेर्लिङ्गस्य विशेषः पुंस्त्वं ३४९ (71) व्यक्तेर्लिङ्गस्य विशेषः पुंस्त्वं स्त्रीत्वञ्च । नायकतयेति (नाय
स्त्रीत्वं च । नायकतयेति । कनायिकातयेति ) नायकश्च
नायकश्च नायिका चेति एकनायिका चेत्येकशेषः ।
शेषः॥
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
110 KAVYAPRAKASA-SAMKETA
[उ. १०
सोमेश्वर ७४ (72) अन्येऽपीति - तद्यथा विरोध- ३५०-५१ (72) अन्येऽपीति । स्यासम्भवो यथा।
N. B. after giving eight या धर्मभानोः to पटीयसी॥
illustrations of other 37इत्यत्र धर्मभानोस्तनयात्वादी
लंकारदोष S. gives the नां शीतलत्वादीनाञ्च धर्माणां
one given by रु. पृ. ३५१ भिन्नाधारतया विरोध उक्तः।
विरोधस्य असंभवः यथास च न सम्भवत्येकाश्रयतयैव
या धर्मभासस्तनया to पटीतस्योत्पत्तेः, अन्यथाऽतिप्रस
यसी॥ तः स्यात् । यद्यपि यमुनायास्त.
अत्र विरोधस्यैकाधारतयैव उजलादानाच्च तात्त्विकमेकत्वं त
पपत्तिरित्युक्तम् । ततो धर्मथापि शब्दसमर्पितमेतेषां ना.
भास्तनयात्वादीनां शीतलत्वानात्वमन्वभिभूयते । अयं च
दीनां च धर्माणां भिन्नाधारविरोधः शाब्द एवेष्यते । तथा
तयोक्तौ विरोधस्य असंभवः॥ च तेषां भिन्नाश्रयतया तदवस्थ
ननु तस्या नद्या जलानां च एव तस्यासम्भवात्। स चा
तत्त्वत एकत्वमिति न दोषः । भिहितवाच्यत्व एव पर्यवस्य
सत्यम्, शब्दसमर्पितं नानाति, एकाश्रयतया विवक्षिता
त्वमनुभूयतेऽयं च विरोधः नां तेषाममुना वाक्येनाभिधा
शाब्द एवेष्यते ॥ नादिति ।।
+ These parts of the Samketas of R.S. and M. are interesting as showing a progre ssively intelligent way of finding new illustrations.
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
7
∞o a
ABC
B
1
B
2 B
3
8
9
Palm-leaf ms, of Jesalmer.
Paper ms. of Gujarat Vidyasabha, Ahmedabad. Kavyaprakāśā with the Samketa of Manikyacandra, A. S. S. 1920, Poona. D = Kāvyaprakāśa ed by Jhalkikar 4th edition 1921, B. O. R. I. Poona.
A
B
A
4 C. D.
5
B
6
C. D.
=
=
C. D.
B
B
C
B
10 B
11 B
B
C. D.
12 C
13
in the middle of the
board काव्यप्रकाशालङ्कारः
काव्यप्रकाशः
ॐ० ॥ ॐ नमो गणपतये ।
श्रीगणाधिपतये नमः ।
नुचिरां
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
धर्मादि
insert araft between
तैः and ब्रह्मणो
एवमाह
भूतः
विशेषः कश्चित्
मात्मनोवृत्त 'मात्मकलो
Read no. 7 on वृत्त
खड्गादे
दीनां च विम
separates the sandhi
'वा उप
विमर्शायुत्पत्तिः
प्रवृत्तिः । इति श्रयः
व्यत्यस्ताः
उल्लासः १
14
15
ਚ
A also might have in
the beginning 'अधम
शब्देन like B
1
a का० प्र० 1
अत्र तदन्तिकमेव
16
17
1234567 OLE
8
9
10
11
12
34567
13
14
15
16
प्राधान्येनाधमपदेन व्य
भिद्या
Read no. 15 on मिद्यादु
a
B
C
A. B. drop fait
D
drops eft
उल्लासः २
रूपं
नां परस्परसमन्व
घरोवभरं
तुमए
B. C. सुहअं
B
मज्जु
A
a
a
B. C.
B. C.
C
B. C.
B
B
0
B
B
C
B. C.
adds वाच्यचित्रं यथा । विनिर्गतं
B. C.
17 B
C
कए
विरइअं
तुमए
मम
उव
णिप्पन्दा
णिष्कंदा
. बिसिणी
बलाआ
णिम्मल
मरगम
परिडिमा
परिट्ठमा
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशाचनायाः पाठान्तराणि 18 B.O. सुत्तिव्य
51 0 °करणत्वसि 19 A निःस्पंद
520 मिश्रितत्वात् 20 B omits च
53 B प्रतिपत्ती 21 C कयाचित्
54 B साध्यवसानिका 22 B. C. स्वरूपमाह
55 A... थोऽमि 23 B adds पुरुषस्य after 56 B. adds the following as संकेतस्य
the first line-मानांतर24 B शब्दार्थविशेषप्रतिपत्तेर
विरोधे तु मुख्यार्थस्य परिग्रहे 25 A. B. चलतीत्यादीनां for चलो 57 0 तथात्वे डित्थ इत्यादीनां
58 B. C. सिद्धेर्लक्ष 26 B
drops च 27 0 द्विविधः
०ण पूर्व आरोपा 28 A पि द्विविधः सिद्धः
क्षण पूर्वमारोपा 29 C द्विविधः
61 B योश्चान्य 300 पदार्थप्राणदो
62 प्रयोजनम् 31 c तत्र
63_B. C. °न्द्रार्था स्थूणेन्द्रः 32 B drops are
64 B क्वचित्तु स्व' 33 A. B. पेण न गौ.
adds from अनायासेन to 34 A नांगौ
प्रतीयते। 35 B drops तु
66 B. C. भव्यङ्ग्या, गूढव्यङ्गया, 36 B drops Alte
अगूढव्यङ्गया च। 37 B. C. ज्ञारूपो यह
67 B चेति 38 B. C. परमाण्वादीनां
68 c क्षणयाशब्द drops a
'प्रतीतिरपि इत्यमिन्ना
70 B बाधा इत्याचभिन्ना
71 B तदा । तंडुलपाकादि
बाधा . पाकत्वादि
एवमपि 43 B drops च
प्रतिपत्ति 44_A. B. 'द्यमाने डित्थाद्यर्थे वा -
75c व्यंजनयेत्याह Read no. 44 on डित्थाद्यर्थेषु
व्यंजनेनेत्यत आह has the same reading
76 c निगदेन as A except a in- 77 B drops ये stead of at
78 B... 'ध्वनन द्योतनादि 45 B प्रदर्शित
79 B दशा 46 0 घोषाद्याधारत्वा
drops इत्युच्यते घोषाधिकरणत्वा
81 B 'रथी 47 A drops घोष
82 B पुरारेरिति 48 0 न तथा
830 चित्रभानुर्विभातीति 49 0 श्रुतिसंचोदितम
B चित्रभानुर्विभातुर्विभातीतिदि 50 B drops
84 B
72 B
दिवा
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. ३-४ ]
85
86 B
87 A. C.
88 B
C
89 B
90 B
91 B
92 B
93 C
1 2 3 4 5 6 7 8
POEERLE
ABO
12
13
15
REBEL 222 22
C
18
B
"भाषणीए
C
"भाइणीओ 9 BO निमि
C
21
B. C. अपिहुलं तुरिअं
B. C. अस
23
24
10 BC. एहि
14 B
B
11 B C स चेअ
O.D. सि
इव न
"मेतत्थणिया
"त्यणिना
'वस्था
हिं दिन हिं
हिदि हिं
adds आदिशब्दात् after
नयादयः
16 C
17
B
तरेमधाय
नियंत्रिते
यत्किञ्चिद
च
2
उल्लासः ३
ओणि
no variant.
B. C. कबोला
A
कदलि
रत्यर्थ
C
B
B. C.
25 0
अणद्दमणा
B अणोलमना
0
19 B. C. एमेअ
20
0
B
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
सअलम्मि
संज्ञाए
'साइ होइन बहोह
"ति कयाचिक
प्रदेश 'स्त्वयाऽभिसार्यतामि
'विद्योत्यते ( for निवेद्यते )
'भाइणी
अहर्क
26
जेम्ब
27 B मुसि 28 C तदाहं
29
30 B
31
A
32 C
33 A
12345678
34 B
35
B
36 B
37
B
38
B
39
B
40 B
DOL24 C∞
10
11
B
B
C
B
C
9 B. C.
12
13
०
14
B. C. समासादितं
15
B
17
B
C
उल्लासः ४
A. C. सत्येवाविवक्षितं
B
B
C
18 B
C
a
B drops अप
B. C. बाधे
B
16 B
19 B
तच्च
drops one पुनः
भेदेनानेन
drops from द्विकमेदे to हिसि ।
A
drops from द्विकमेदे to यथा and retains the
verse.
एत
दिवस
पुलोएहि
अंधभ
महणु
drops ft drops
drops
समुदायो
कचित्पुनरनुपयमानत्वादयेतं
यत्र
'मेव सखे सदा
लाघवान्
'प्रेयस्विदर्जस्वित्समा° 'प्रेयऊर्जस्वित्समा
रसस्वरूपमाह "भावाथ कथ्यन्ते
'सस्य निष्पति' कृतो
drops समूहकर्पूर
[3
गता
मद्य
तरलायत
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
22222
20 B
21 C
B
23 B
C
B. C.
222222228
24
25
26
27
29
30
31
34
AAOA B
B.C 30.
47
48
B
C
32 C
33 A
C
प्रमातृता
ब्रह्मास्वाद
B 'पितत्संभव'
OOOA
0
C
35 a
36 B.C.
37 C
38
B
39 B
40
41
42
C
43 B
44 B
45
B
46
B
0
B
B. C.
०
AB
B
49 B
50 A
51 B
वासनया
'दादिभिः स्थास्यनुमाने'
कारकत्वादि
मैन
मैन शत्रोरेवैते
संबंधि
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
नियमानध्यवसायासा
तस्यासंभवात्
लौकिक सिद्ध अवबाधशालि
'शालिपरिमित
वेद्यान्तरसंस्पर्श'
प्रत्येयोऽभिधी'
च प्रमाणं न
सविकल्पकम्
'भावरूपस्य
"तामवगमयति करुणभयानकयोः
"लिता एव
कान्तः instead of पाण्डुः
प्रचलितं
विभावानुभावानामौत्सु
drops =
णां च
केवलानामत्र
करुणा
omits °लिङ्गनाधर
'स्वरालोकनालिंगनपान
instead no. 47 read
no. 48.
स्वली
omits "हरणानि
A seems to write उदाहरणानि in an abbreviated form like उदा
सहला
52
C
53 B
54 C
55
56
B
57 B
58
A
59 B
60
61
62
63
64
65
66
67
B
B. C.
B
A
C
A
a
A
B
70 C
71
A
68
69
B. C. B. 0
A
C
B
B. C.
72 B
73 C
74 A
R
B
75
76
प्रथमापराधसमये 'पोलपालिगलितैः 'लोलोदर'
A. B.
B. O
no variant.
सर्वैः
प्रस्थितं
omits "हरणानि
प्रहित
देवताः
विजहति
विजहित
सायकाः संपर्वतः
किंचिद्रभङ्गलीला '
a
बन्ददृष्टिः
दर्भे
B. C.
B
B
77 A
78 B. C. यदि मे न रोचते
79
0
80
81
82 d
लुतित्वा पृथ्च्छोप भूषांसि पृथुत्सेधभूयांसि भान्तस्त्राज्यंत्रनेत्रात् भातः पर्यस्तनेत्रः
बताधिकारः
बतावरातः
प्रबोधो
निर्वेदः स्थायिभावः शान्तोऽपि
नवमोऽस्ति र निर्वेदस्थायिभावः
शान्तोऽपि
नवमोऽस्ति रसः
Read no 71 on निर्वेद
स्त्रेणे
यान्ति
in the margin कदारण्ये
पुण्ये
'पुण्येण्ये
drops one शिव
व्यक्तः
[ उ. ४
उदा० B उदाहरणे
अजित व्य०
ततः instead of पुरः
चाटुशतके
दरिद्रीकृतः
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.४]
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
-
83 A. B. omita 84 A स्मेर. B स्मैरयोवन. ० सस्मेर 85 B °दाहर्तव्याः 86 B. C. युग instead of तट 87 0 संश्लिष्टा •880 -शात्तन्व्या च
सद्यो मानपरिग्रहग्लपि स्तत्क्षणं
121 B
ऐष
संधिः दोषाणामुपशांतये श्रुत दोषाणां प्रशमाय नः omits शबलता gives शबलत्वं in the
margin 95 B क्ता चोदाहृताच 96 B ommits from जान to °दिना। 97 B. C. भावशा 98A
omits from अर्थशक्ति to
व्यंग्य 99 A कृष्णकरवालनवाम्बु' 100 A 'त्कहर्षदः 101 A पांत्थियण 102 B. C. एत्थ 103 B उण्णय
cउण्ण 104 B पयोहरेपे० 105 B तदास्वेति 106 B व्यज्यते 107 B
द्भवे 108 B after मक: B writes
अर्थो द्विविधः स्वतः संभवी इदं
प्रथमकल्पितश्चेति । तत्र स्वतः।.. 109 B प्रतिभानमात्रेण 110 A. B. . 'रमणी' Read no. 110
on रोमणि 111 B अग्गिमो 112 B मऊ 113 A. B. इस 114 B ममैव भोग्य 1150 प्रणिहिते तु करे
1160 रेकालंकारः-.. 117 A कवाट 118 B संक्रान्ति 119 B अष्ठविद्रुम' 120B निवर्त्यतामिति
क्ष्यत इत्युत्प्रेक्षा वा । एy
°त इत्युप्रेक्षा चेति। 122 B शङ्काः 123 A मोडिए तेण समरम्मि
B तेण समरम्मि 124 A.C. जब 125 B कंदरांहि
कंदरा हि 126B तस्सदिलं कण्ठसम्मि 127 B यः पलाय्य 123 C हेतुरलंकारो 129 A. B. पलाय्य 130 B सुज मम्मि 1310 माण सिणीण 132 B 'पोलणभीऊब्व
c पीलणभीरुव्व 133 B तत्र जंभत इति 134 B. C. ठे 135A
कयिव 1364 भुवण 137A 138 0 adds व्यञ्जकः 139 B संभोमखिण्णोरई
मेखलासु खलिआ संभोमखि
पणोरयी 140 B कबलणे पत्ता
कवलणे पत्ता 141B दरित्तणं 1428 एहि मलयाणिला
एहि मलआणिला 143 संवग्गिविणो
णीणांसाससंम्पक्कियो 144 B विय विभ 145 A. B. omit वायवः 146 0 कुर्वन्तीति 147 B पिय
चिम
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
61
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
भव
148 B खणखणम्मि 149 B उसरिअं 150 B drops of 151 B. C. 'दर्शनस्य 1520 153 B . उल्लोल्ल ओल्लोल्ल 154 B एहि तुह एहिं तुह 155 B लोअणेसु महदिणं
लोअणेसु मह दिण्णम् 156 B पसाऊ. ० पसाओ 1578 'मिया। 158 B गोपायसि 159 B भरितए 160 B अमायंती 161 B अणु 162 B कम्मा 163B 164 B drops वक्त 165 B drops यथा 166 A. B. drop अनोपमा व्यङ्गया 167 B अस्य ध्वनेः 1680 भेदत्वेन 1690 °दशेत्यत माह 1708 "म्भश्चेति
दर्शन instead of अवलोकन
drops अवलोकन 172A दय ऋतुषड्वर्ण
°दयतुषट्सवर्ण 'भेद इत्येकस्यै °भेदा
°णनान्येषां 175 no variant 176 A. B. drop अपि 177 A प्रकाशत्वे 178 B यंत्रणव Read no. 178
on नियन्त्रणी 1790 दिभिरर्थान्तरसं' 1800 जहवि तहवि धीराणम् 181 0 हिमअवअस्स 182 B वयसा 183A.O. ज्वरोपमम्
184A प्रकाशत्वे 1850- नृपभीम 186 B निष्यंदं 187 0 समालेपितं 188 B . विस्रब्ध 189 B परिचयात् 190 B. C. क्लान्तासीति 191 A परं 192 B. O. रुपभोक्तव्यानि Read no.
192 on रुपभोग्यानि
दुष्कृत 1938 विनियोग 194A चिंतानाहादा. 0 चिन्ताहादा' 195B 196 A. सर्वपदाद्योत्यं 197 B.C. इस 198 B. C. वअणं. ० कुणह 199 , रूपकेण तथा त्वयास्य 200 B drops en 201 c च 202 B. C. राईसुललिअ 203A 204 A विअभंतं ,
विभंतो 205 No variant 206 B अपि. भवन्ती 207 B कात्थिएण. ( कदथिएण 208 B °वअंसएणं विरुद्धजाई चलसे... 209 A. C. लक्षणहेत्व 2100 इति ण चलइपदद्योत्यं वस्तु 211 B खंधाहु. Cखंधाहि 212
सुरअसंगरे 213 B
'ण मुहुराकर्षणे तथा 214 C खन्धपद 2150 मिअङ्कस्स सुहम 216 B को तुं 217 B 218 B. C. ण वेत्यादि 219 B पउसे 220 A. C. व्यज्यत . 221 B. C. णिहुवण
चिन
171 A
113B
174 B
पउसर
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशवाचनांयापार
चुंबिअं
222 B अङ्कपाली 223 A. B. सहीए 224 B णिवारिऊच्चिभ. कणिवारिओन्विअ 225B उच्चेरंतो. उच्छेरन्तो 226 B तदा कहिं 227 B हारछेदानंतर' 228 A. C. कहंपदगम्यः 229 A पलोइऊण. B पुलोविऊण 2300 खन्धे 231 B णत्थोत्ति कणोत्ति 232 B कित्ति 233 A. B. तदपरं 234 B कित्तिपदव्यंग्य
द्योत्यम् instead of व्यंग्यम् 235c 236 B कुडेन 237 B दिछी 2380 . 'मिसेण 239 A गरुओत्ति. । गरुऊत्ति 240 C पाडिअ 2411. B. विभिण्णो 242 B नदीतीरे 243 A. B. द्वारोपघात 244 c पूर्वक 245 c स्पर्शन 246 C जोहाइ 247 B. 0. विदण्ण 248 0 पणउसुअ 249 B बुढ्यु वि. बहुअहहहरइसवहिअयं
cणवोढविभ 250 B चामानु 251 A. C. परबहु 252 A. B. वाक्यप्रकाशे 253A प्रकाशो 254 B. Between 9.4 aad 95
sutras B. adds कंकाल
बहले घोरे सर्वप्राणिभयङ्करे। 255 B After sūtra 95 B.adds
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यः -256. A . . स्त्यज्यध्व
कथं मूढास्त्यजध्व
°ला अत्यक्ष्यध्वमशङ्किताः .. The reading of A bas been accepted in the text after emending i. e. changing
त्यज्यध्वम into त्यजध्वम 257 B चेकादश 258 B.C ग्रंथविस्तरभया 259C लक्षणतो 260 B अणि C
ERA
रइकेलिहिअणि 261 A. C. 'लअरुद्धण' 262 A. C.
'पब्वयि परि विअं. 263c रेणैव व्यापारेणास्य . 264 B gives 21 instead of
यथा वा B प्रेयान्सा 265c. द्वाराणीति 266 C पुरि पुरि विनिवृत्ता . 267 A instead of अत्र लिख ...
इति, भूमिमिति A writes अत्र न लिखतीत्यपि तु प्रसादपर्यतमास्त इति । तथा आस्त इति नत्वासित इति, भूमिमिति। B. writes अत्र न लिखतीत्यपि तु प्रसादपर्यंतमास्त इति । तथा तिङा आस्त इति नत्वासित
इति भूमिमिति । ..., 2680 पूर्वकमपरं किं ...... 269 drops संबन्धस्य यथा 270 c रुहम्मि
B गामानुअम्मि 271 0 'महे 272 B. O. ताणं.. कंठाण' 273 B. C. ताण भणिआणं 274 B एरिसि 275A. B. निपातस्य 276 B....प्राधान्यं गम्यते 277 B..... अत्र हि दिवसेनेति तृतीया
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशवाचनीयापाठान्तराणि
278 B ललितलुलित
ललितललितै 279 B धोत्यस्य च 280A 281 0 सर्वनामप्रातिपदिक' 282 B drops व्यञ्जकत्वं 283 B मौलिमयं 284 B drops इति 285 B
धनः 286 0 वसतीति त्वादि 287 A एषां. B°प्येषां 288A drops प्रामोति 289 B निरूपणे 290A भेदाः ॥४२॥ 2910 योजने 292c निरूपेण 293A दिग्मात्र 294 B खण पा' 295 B देअर जायाए सुहम
देभर जाआए सुहम 296 B.C. भणिमा 297 0 वलहीधरम्मि 298 B अनुणिज 299 B. C. वराई 300 B. C. लक्षणेर्थी 301 B omits तथा 302 B कठोरहयो 303B सह 304 B 'ध्वन्यो । संकरः॥ 305A दाहार्य ४३
6 A मूलानुष्ठान रूपस्य-अनुष्ठान
seems to be a clerical
mistake for अनुस्वान 7 B युक्तः पाठः 8 C in the bracket वाक्यार्थी
भूतस्य 9 B रसादिरनुरण 10 B adds een after al 11 c रसनो 12 B समिद्धये 13 A. B. drop भावस्य 14 A. B. स्मृत्यौत्सुक्यसमदैन्यविबोधौत्सु
क्यानां 15 B. C. 'दयभावसंधिभावशबल' 16 B प्रधानेन 17 A व्यपदेशो भवतीति
तृष्णाकुलधिया 19 A "भूलोनुरणनोपमो रामेण 20 B भुजगरूपणस्य वाच्यसिद्धिकृत 21 B खेदाहसमाश्लिष्य 22 B मंत्रणेति वाच्यस्य
विश्लेषभीरुता
Read no. 23 on विच्छेद 24 A कुर्यादिति श्लिष्ट. B कुर्या इति
श्लिष्टं
25 26 27 .
0
अन्नाधरं किं वा विलो ‘णं वाच्यं drops काकाक्षिप्तं यथा
संधि
31
B
1 2
A. C. B
उल्लास: ५ रेत्य सूचीय॑ध. सूचीन्यध' छटाम' instead arouri, there is स्वार्थस्य तिरस्कृतस्वार्थस्य instead प्रापितः there is लंमितः-लोकान्तरलंभितः।
adds असुन्दरं यथा
रिकुडुंगु 32 A उण 33 A. C. घट 34 B. C. बहुए 35 B अंगाइ 36 B omits दत्त 37 A. B. 'श्रयादिति 38 A कदशा B क्तदशा 39 B ध्र्व नैस्तै Read no. 39 on
ने
5
B
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि 40 A सच प्रभेदैः
74 B इत्यम्रतद्गृहे 41 B पुनरप्युद्योतते बहुधेति।
75 B drops अत्र तात्पर्य 42 A. B. भेदप्रभेदगणने
व्यमिति स एव 43 A. B. drop तु
76 A. B. °स्य कृद्वाक्यत्वे. 44 B. C. विचित्र विचित्रं चेति ।
77 B यावानर्थोवगम्यते तावति अविचित्रं वस्तुमात्रम् ।
शब्दस्यैवाभिधैव 45 B drops Teen
79 C °स्ततः कथं 46 B. C. वाच्ययोर्वस्तु
80 C
कस्माल्लक्षणा 47
81 A. B. दीर्घदीर्घाभिधाB °ले तु नियंत्रणे (i.e.drops
82 c कस्माच्च अभिधाया)
83 B विधेरेव सिद्ध 48 B drops च
84 B त्येक्वंतवर्तिनी °मूले तु विशेषे° .
85 B तदसाधु योग्यतासंनिधिक्शात्परस्परं
86 B. C. °वाचकभावव्यति संसर्गे। Read no. 50 on
व्यंजकाश्रयणे °निधियोग्यता
88 B सपत्नः 51 B यत्रापदार्थो विशेषरूपो
वर्तामाह 52 A बुद्धेः शक्ति B बुद्धे छक्तिं
90 B तोद्य प्रेयानि °पत्या संबुध्यन्ते
B. C. °णामुत स्मरस्मेरविलासिनीनाम् पत्त्यावबुध्यन्ते
92A. C. न्यतर °दशा देवदत
93A निहितो दृशा देवदत्त
94.0 शब्दतदेकदेश 55 B नयेत्युत्तमवृद्ध
°स्य शब्दानुशासन 56 A. C. प्रयोगाद्देशा
°पदेश्ययोः 57 B . नयत्यनेनास्माद्वाक्या
97 c ण...पिआइ 58 B लक्षणं
B
ण होइ रोसो पियाए दट्टण 59 B drops देवदत्त गां'
सव्वणं 60 B प्रत्ययेन तान्ये
°पउपमघारिणि वारिअवामे सहसु 61 B इत्यविशेषभूतो
एण्हि 62 A. C. प्रकाशत्वान्न
पडमग्याइणि वारिभवामे सहस 63 B त्वं ज्ञातस्य कथं
एणूहिं64_A. C. °कानुसारेण
99 A नीलानीलादौ 65 A. B. दीर्घदी? व्यापार
100 B. C. तु न तदपेक्षत्वमिति 66 B तदतात्पर्ये ज्ञास्तात्पर्य
Read no. 100 on तु 67 B. क्रियाभिर्निर्वर्तक .
1010 कुडङ्गित्यादौ B क्रियासंबंधात्सा.
1020 तामिति 69 B प्राप्नुवन्तीति
103A नियतसंबंध भनियत 70_A. C. णांतरात्सिद्धे
104 B drops संबद्ध 71 A.C. कारणत्व.
°बन्धः संबन्धश्च 72 B परार्थेपि
105 B.C. एत्थ 73 c भुझ्व
106 B णुमजइ का०प्र०2
98
B
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
101
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
[उ. ५-७
उल्लासः६ 1 B तिश्चित्रार्थशब्दयोः
Read no. 1 on स्थितिः
न इति। 3 A. C. 'तामिव न त्यजन्ति 4 B omits रस
व्यंग्यमेव तत् काव्य
6
C
.
107 B दिअसलं पुलोएहि
दिअसम पलोएहि 108 B. C. पहिल 109 B रत्तिअंधा
रतिअंध 110 A णुमजिहि
महणुमजिसि मह 111 B वाच्य 112 B drops न 113 A. C. वलम्बनेनापि 114 B प्रसिद्धेः अभिधा 115_B.C. बह्म 1160 कमलट्ठम् 117A.C. अणं 118 B.C. सूर्यात्मकता 119 B सूर्यास्तमयेन पद्मस्य.
सूर्यास्तमयः । तेन पद्मस्य 120 B स्यदर्श 121 B दर्शनेन नियंत्रण
दर्शनेनानिये1220 मिति 123 A. B. drop ननु
Read no. 123 on ननु 124 B drops a
Read no. 124 on च 125 B बंधाव्यंग्य
Read no.125 on संबद्धाद् 126 B भावोभवत्यप्रतिबंधे 127 B. C. ङ्गिज्ञान 128 B. C. वीसद्धो 129 B सुणऊ' मारिऊदेण 130 B निर्देशन 131B
गेणान्येनैवं भृतेन 132 B धीरत्वेन 133B प्रमाणमस्ति 134 B अर्थेनातिप्रबंधा 135 B °सिद्धिश्च 136 B अत्रश्चात्रैव 137 B हायानामेव व्यंजक 138 B
चाधमत्वं 139 B इति वादिनो व्यक्तिवादिनः
उल्लास: ७ 1 A, B. कष्टं instead of दुष्ट 2 B
has bracket for व्या... हीनं
पांडुर 5A अत्र नाथत इति
पदं विहितम् अत्र याचनार्थः अत्र तु याचनमर्थः । तस्मात् 'अनुनाथति स्तनयुगम्' इति
पठनीयम् 8
No variant.
इति पुंस्यानातोऽपि 10
No variant. .. °लीकरणरूपो omits पाद'
a instead of a 14 0 मित्यर्थे 15 c दित्यर्थे 16 B.C. °थवा नति ___A तदा instead of भवान्
किं वा नम यत्केवले in the bracket न्धनम्
B
B
omits यत्
मुखम् । क तपनीय 24 A. B. नेयार्थ काश्चिन्नैव स्वशक्तित
इति । यन्निषिद्ध.. नेयार्थ ("निरूढा लक्षणाः काश्चिसामर्थ्यादभिधानवत् । क्रियन्ते सांप्रतं काश्चित्काश्विनैव त्वशतितः।")
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.७ ]
25 c
26 C
27
28
29 B
31
"गलग
30 B. C. °°
यथा वा
'म्बादवरोपयन्ती पुनः पुष्पकाचीम्
88888
32
33 B
36
37
38
39
34 C
OAAAAAAO
35 C
41
B
42
43
B
45
B. C.
46
C
40 B
S
C
B
B
B
C.
GAGGA
C
44 C
C
B
AB
47
A
48
C
49 B
50 C
51 B
52 B
53 B
चपेटापातनेन
यतः in the bracket
omits चन्द्रस्य
भास
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
अत्र द्वितीयत्वामात्रमुत्प्रेक्ष्यम् ।
मौयाँ द्वितीयामिति युक्तः पाठः ।
यथा वा
Read no. 35 on च
यथा वा
न नाम शरासनम्
वादेनात्र किञ्चि० "ग्रस्ततानुवादेना"
तत्वाधन
म गोपनादि
प्राप्त
यथा वा
संतानशून्यात्मन
Read no. 43 on संतान has इन्द्रवरुणभवेत्यादिना पुंयोगम्यत्ययेन भवस्य पक्षी
भवानी ।
गोदा ॥
येष्ट
Read no. 46 on ध्यैष्ट
अनेडमूकबधिरो
इन्द्रः । अनेडमूको मूकबधिरः
यकादि शब्दाः
यशः पर्यायाः
वनझास्त
शरत्-ज्योत्स्ना
"तार्थं
Read no. 53 on 'चितार्थ: धामापि
54
55
56 B
57 B C तत्तव्प्रहरणोत्साह
B
A. B. omit भ्राड्
च पत्राणामवाचकाः
58
59 A
60
B
61 B
62 C
63 B
64 B
65 A
66
B
67
A
68
A
69
B
70
B
RHEILULARNY
71
B
72
A B
73 B. C.
74 c
C
75
76
B. C.
C
78
79
77 B
B
0
80
81
82 B
83 B
84
B
85
86
c
B.0
B. C.
B
ROC
87
88 c
89 B
90 C
91 c
92
B. C.
A. B.
B. C.
प्रहरण
प्रबन्धनं
● मिति विव
omits f
सुरकम्पनामार्गणभूतिशब्दा किं वा मंदिरा
मात्रप्रतीतत्वादप्रतीताः ।
भल्लादयः
रजस्तमा
वेदय
हततमाः
वीक्ष्य
उच्छूनतामा
उच्छ्रनत्वमा
विलासवेलनम्
क्रमेणोदा |
श्वापदचेष्टितं
वाक्यानुगत
वाक्यानुगत
यथा
'पदयो'
नेपि द्वयमपि सामर्थ्यात्
कचिद् द्वयमपि गम्यते
तेऽस्ति
यात्
स्वात्ममात्र परिपूरिते
drops
drops fit
●स्तच्छब्दः
महसा
महसां भाजनं विश्वमू
पुष
भृशं धेहि
इत्यत्र
यथा वा
विरुद्वामतिकृद्यथा
विरुद्धार्थप्रतीतिः
गोदा
संगमेनाङ्गनायाः
93
94
95 B
अथवा
96 40 ° मर्योत्तर
[11
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
12]
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि 97 A भव्य instead of लभ्य
131 A. B. क्रमेणोदा। 98 B कष्टं
132 0 मधुरमधिकं 99 0 क्षीबार्थे
Read no. 132 on मधुरमथ 100 B भल्लाना
133 0 स्यादित्यश्रव्यम् 101 B drops शामिति
134 C अत्र हारिशब्दः 102 B अनर्थकम्
135 B.C. मनसामस्राणि 1030 न च । अलसवलितैः and
136 B गुरुत्वं gives the whole verse
Read no. 136 on गुरुता (202).
137 B सदसि B न चालसवलितरित्यादि
1380 अविरुद्ध A. B. drop verse (202).
Read no. 138 on अनि104 B पदमनर्थकं 105 B फलस्याभावात्
139 B युक्तिः 106 A.G. शण्ठः
140 B.C. जरास्वपि 107 0 दावुत्तरपदमेव
141 B omits कृतं 1080 °दौ पूर्वपद
1420 कथितपदं 109 B दर्शिता
143 B परिमलन 110 B. C. मममतपरार्थ
144 B कथय सुतनु कस्य 111 B तद्विपरीतत्वं
Read no. 144 on सुतनु 1120 प्रतिकूलवर्णम्
145 B 113 B. C. रौद्रे यथा
146 B 'श्रुगर्भः 114 B. C. मे instead of नो .
1470 धूभिर्वीक्षिता शिक्षिता च 115 B द्रोणाय निःक्रोधनः
148, 149 c has brackets 116 B omits
150 B omits तत् 117 C विसंधि संधे
151 B. C. किं तैस्त्व 118 C तत्राचं
152C न्वयेन यै 119 B आद्यो
153 B. C. omit तु 120 B. C. दधाति
154 B. C. omit ] Read no. 120 on °द्युति 1550 णमागतेन 121B उचितार्थवृत्ती
156 B. C. कीर्तिरतुला 1220 पदमेत्य
1570 gives the whole verse 123 B उदात्त
no 231 124 B नयः
1580 हतो दुंदुभिः 125a B. C. स्वेच्छया
159 B omits अत्र Read no. 124 a on स्वेच्छा
Read no. 159 on अत्रा125A हेतुकत्वेन 126 B अत्र द्वयोरश्लीलता
1600
यथा वा 127 B वाली
Read no. 160 on तथा 128 B
161B omits from भर्तृ... 129 B No variant.
भवान्याः । and after भृङ्गः 130 B omits तद्धत्तवृत्तम्
adds इत्यादि
शेष
ध्वर
पर्वते
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. ७]
162 c
163 A B
164 B. C.
165 B
166 B
172 c 173 BC B. C. 174 c
176 A C
177 c
1780
179 B
C
180 a
181 B
182 B
183 B
C
184 c
185 B. C.
186 A
भवान्याः
यथा चा
167 c 168 B. C. निधानुपाहितां
169 c
170 BC.
171 B. C.
187 c
188 B
189 B
C
भुतमहतस्य
190 B
वीर शिशु
175 B. गतेत्यम्बुधि
वाक्यत्वेन
Read no.
वाक्यगत
"कृष्ण
Read
"भिरूप"
वस्तुषु प्रोद्
'क्षणात्
वाक्यान्तरस्य पदान वाक्यान्तरमनुपवि मुञ्च इति
no.
Read no.
गतेवाम्बुधिं भणितादि
अन्र
विशेषे
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
एकपदद्विप्रयोग
यथा हि
क्रियते
ततः पदान्तर
तदा पदान्तर
अन्न... प्रयोगात्
बेति युक्तम्
'यन्ति
नियता लघुता
भजतो
165
'मिति चेहोतेः कथमे'
मिति चेोकं तत्कथ
166
175
on
on
on
लघुताभाङ्गपदमिति तु युक्तं लघुतावान पदं नृपक्षिय इति
युक्तम्
निःश्रीकाः काशिदंतर्दिश एव
दधिर इति कम्पमाना...
191 B
192 c
193 B
194 B
195 B
196 c
197 B
198 B
199 o
200 BC.
201 BO B.
202 c
203 A
B
204 B
a
205 B
206 B
207 B
208 B
209 c
210 c
211 B
212 c
213 B
214 B
215 AD
216 d
217 B
218 d
219 B
220 C
221 B
222 B
223 B
224 B
225 B
226 B
omits
'भ्यस्वताम्
विश्रब्धं
बराहततिभिर्मुस्ता विश्रांतिं लभता
वरामुस्ताक्षतिमित्य'
यत्राप्यनुस
omits यथा
"दनन्तरं चकारो
पुनः
न्याय्यं तथा ल
पदयुक्तः
गोदा ॥
गोदाहरणं
निष्वंद सरखा
निवन्दसुरसा
स्फुरति
मध्यात्मक
कथं प्रसन्ना भवन्तु भवत्विति
संक्षेपार्थइति कष्टम्
gives the whole verse no 259
Read no. 210 on कृतमनु omits क्षत्र
धुरं
omits पुनरुन्धः
"स्य प्रथमनिर्देशो
रूपर्क instead of कूर्परं
gives the whole verse
no. 263
"स्पासीच
[ 13
अद्वितीयशस्त्र
omits यथा वा
has अत्र पादा'
omits न पुनरङ्कुरोगमः
येना
"रूपतया कथितेति
रागं विना
'शास्त्रविरुद्वम्
omits E
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
14]
• काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
विहितमिति omits एतत्कामशास्त्रेण
227 0 228 B 229 0 230 B 2310 232 0 233 B
234 B 2350
236 B 237 B 238 0 239 B 240 B 241 B
2420 2430 244 c 2450
omits ततः संप्रज्ञातसमाधिः पश्चा has एतद्योगशास्त्रेण विद्यांतरेपि Read no. 233 on विद्यान्तरै० संप्रीणिताः °ताक्षरं हि निखिलं Read no 235 on °खिताक्षमेव वक्त्राम्भोजे स्मितं instead of श्रियम् ज्योत्स्त्रीमिति मकराकर omits अत्र इत्यत एवात्र समाप्यं इत्यन्तमेव श्रुतादिभिरु सहचरिते. has विनयेन.. युक्तः gives the whole verse no 281 मुपैतु Read no. 246 on 'मपैतु सुखेन युक्तम् after इति विधेयम्
रण मधुपश्रेणि' °गयेत्यत्र विदितं... omits उद्यतस्य परं हन्तुमेव प्रवृत्तस्य स्तब्धस्य' यथाशु जायते omits प्रतीतिः प्रकाशितस्तत्र स्वात्तव्यकाशनं संनिकर्षादिक बोधार्थी तेत्यर्थमस्याः प्रतीत्यर्थाः
260 B. C. लक्केश्वरेणोषितमा 261 c इत्यत्र केवलो
Read no. 262 on इति 262 B रत्नानामिश्रत्व
Read no. 262 on रखामि 263 B कान्ताकर्षति
Read no. 263 on कामा 2640 पुष्पविषये पुष्पशब्दः 265 B °ण त्वेनापि
Read no. 265 on विशे.
षणत्वे266 B. C. °णत्येऽपि 267 B प्रतीतो गतार्थ 268 B drops क्वचित् । 2690 युक्तम् 270 B
युक्तं त्वेवं 271 B
°मतिद्रुतम् . 2720
व्रजन्नेष 273 B खिद्यत 274 B
इत्युदाहाय 275 c has सर्वेषां श्रुति 276 B. C. मद्राक्षमित्यादि
Read no, 276 on °क्षुष
मद्राक्षी 277 A drops क्वचिन्न दोषो न गुणः 2780 च instead of वा 279 B रौद्रे च रसे 280A ०णोदा .
°णोदाहरणं 281 किङ्प्रत्यय
विप्प्रत्यय
Read no. 281 on
क्षित्प्रत्यय 282 B भूरिभीषण 283 B. C. प्राग्भार 284 B पोद्भुतं 2850 वाच्यवशायथा 2860 पुरः instead of शनैः 287 B वाताभिभूतं शिरः 288 B घटयत्येष उल्ला 2890 श्लेषादावदुष्टौ
Read no. 289 on श्लेषादौ
246 B
2470
वयम्
248 B 249B 250 B 251 A. B. 252 B 253B 254 B 255 B 256 B 257 B 2580 2590
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.७]
काव्यप्रकाशवाचनाया पाठान्तराणि
[15
पुह्मासिमि
विभइ
290 A omits ताम्बूल.."स्याम्
Read no. 290 on ताम्बूल 291 B. C. लौडिते. 292 c सूचकम् 293 B. C. प्रतीतिकृत्त्वेन व्याज... 2940 प्रतीत 295 B विहितमतयो 296 B सत्त्वोद्रेका
ज्ञानोद्रेका 297 B वेत्तु 298 B. 0. मुंग्यमाणः instead of
दृश्यमानः 299 0 3000 कमलङ्करणिहं वहन्ति 301 B सिंदु 3020 दे instead of ते 3030 °दस्त 304 0 . 'दे instead of ते 305 B विइइ
C 306 B नतरं 307 B इत्यन्तै 308 B. C. यथा वा 3090 क्वचिद्गुणो 310 B.C. स्यानुवाद्यत्वे
Read no. 310 on fans. . तस्यान 311 A णोदा 312 A. B. धरणीधव 313 A.O. जाअन्ति 314 A. B. एहि
Read no. 314 on सहि
अएहि . 314a B. C. धेप्पन्ति 315 B. C. रइ 316 B. C. हिआई
_Read no. 316 on °हियाइ 317 B वाक्यार्थान्तरमेव 318 B. C. अपदस्थसमासं 319 0 तुमम्मि 320 B. C. पत्तिहि
3210 3220 लक्ष्याल्लक्ष्यम् 323 B omits रसदोषानाह
Read no.323 on रसदोषा 324 B स्वपदोपादानं
Read no. 324 on
स्वशब्दो 325 B वाच्यत्वे 326 B °मूलबीक्षितां 327 B तरङ्गणमातनोति 328A कणकारैः
झणत्कारैः 329 A कृप्ति
Read no.329 on क्लप्ति 330 B अनुभावाः पर्य
Read no. 330 on
अनुभाव 331 B लतितरां परिवर्तते
Read no. 331 on भृशं' 332 B यत्नप्रतिपाद्यः 333 B.C. णिहुअर 334 B.C. लोअण 335 B. C. हिमा
Read no. 335 on
°हियआ 336 B रतिविलापेषु
Read no. 336 on रति 337 B वेणीसंवरणे द्वितीये 338 B drops ofte
Read no. 338 on afte Omit no. 338 on page
178, line 5 339A वृत्ते 3400 वर्णनम् । 341 A. B. drop अकाण्डे 342 A उत्तमाधममध्यमाश्च 343 B °माश्च एवंस्थिते तत्र इति... 344 B
रूपो 345A 3460 तः क्रोधः सद्यः फलदः
Read no. 346 on affia:
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
161
347 B. C.
348 B
3490
350 B
351 d
352 B
353 B
354 C
355 B
356 c
357 d
358 B
a
363B. C.
364 c
365 B
366 B
367 B
368 c
369 B
370 B. C.
371 B
स्वर्गपाताल
गमर्न
372 B
378 B
सा
drops
वदानं
निबंध Read no. 352
on निबद्धव्यम् सत्यत्वप्रतिभासेन
"मप्यन्यथा
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
374 B
नित्याद्युत्तमे नाधमेन
359 B
360 c
चकृतं वसन्त
361 B
नायकको पोपवर्णनम् 362 A B प्रसिद्धौचित्यबंधस्तु
Read
औचित्यो
अप्येते
इत्युच्यन्ते
संरोहफुलका
"दुत्सुकमागत इत्यादी
पत्तिकारणा
र्न परमदोषः
भट्टारकेति नोतमेन
Read no. 356 on भट्टार
केति
drops परमेश्वरेति न मुनिप्रभृतौ
Read no 357 on परमेवरेति
Omit no. 357 on प्रकृति
● दिसमुचित
● दिकमुचित
निबंदस्य
वदनं हृदन्ते
डु 'वेनोम्
no.
362
Read no. 368 on नोर्नि
after कुछ adds भूयोपि दृश्येत सा दोषाणामुपशांतये श्रुतमहो कोपेषिकांत मुखमित्यादी
on
375 B. C.
376 B
377 B. C.
378 B
C
379 B 380 B C
C.
381 B
382 B
383 c
384 B
385 A
386 B
387 c
388 B
1c
20
3 B
4c
5 c
6. C.
7 B
8B
9
10 B 11 B
C
12 B
13 B
14 B. C.
●लमति
Read no. 374 on far
त्वमिति
न्तर्येण यो रसः
शृङ्गारयोवीररसोंतर्निवेशितः ।
०
[ उ. ७-८
यथा
● कर्षीत्यादि
has the whole verse
no. 337
पोषयति चमत्कार कारीणि 'लोकयत्स्पृह
"देता "रशो मुनय
विषया या रतिः प्रतीयते
'थिभिरिति
साखनेप्रो०
तथा शर
नाव स्थायिभाव
Read no. 388 on 'शब्दे
नात्र
उल्लासः
'रस्य तथा
गुण
● दिरसव्यंजक
सुकुमारादिवर्णानां
मधुरादिव्यव विभ्रान्तप्रतीति
संश्रिताः instead of जातु
चित्
ये वाच्यवाचकलक्षणा°
'रसव्यक्तिलोकवैचित्र्य' 'पर्यवासिताः
writes and omits
कम उदाहरणानि
यथाक्रम उदाहरणानि
दूरमेव मनोरोगलीव
न मां त्रातुं तातः
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशवाचनायोः पाठान्तराणि
८-९] 15 B
बहुदृदि ।
विहट्टदि
गुणेसु
सेजासु
सज्जासु
लुट्टदि __B. C. म्मुहसुं
पयट्टदि
टुट्टदि 23 B सन्नां 24 0 सारसम् 25 B . वक्रांकेन 26 B.C. कण्ठे. 27 B गुणालंकारभेदः 28 B. C. भेदः । ओजःप्रभृतीनामनु
प्रासो... 29 B गडरिकाप्रवाहेणैषां
० गडुलिका 30 B. C. वस्त्वलंकारा 31 B drops ta: 32 B. C. समस्तैर्गुणैः 33 B. C. गोडी 34 B तदद्रावत्र ____B. omits सत्सु
व्यवहारस्य प्रवर्तको
वृत्योपचारेण दुष्टत्वाभिधान स्वीकृते
वाक्यरचना 41 B. 0. प्रौढिास...
प्रौढिाससमासौ च
साभिप्रायत्वमस्य च। 42 B omits च
त्वरूपोदारता . Read no. 43 on ववपुरु
48 B नास्तेषां 49 B वर्जाः 500 योगेण रचना 51 A. B. उदा instead of उशहरणम् 52 0 चिन्तनानि 53 c भ्यामन्त्ययोस्तद्धि 54 B.C. वा instead of च 55 C संबन्धष्ट
Read no. 55 on संबन्धः 56 B दीर्घः 57 A. B. उदा
शब्दात्तु
यत्रार्थप्रत्ययो 60 B गुणो भवेत्
गुणो मतः 61 c रसानां संघटनानां i.e. omits
समासानां 62 A. B. उदा 63 B परिवलन
रचनायाः 65 B प्रतुकुह 66 0 कुहरचलन्म
Read no.66 on 'रवलन्म ताडितोसौ धेयार्थे
उद्धतरचनादयः 70 B नपेक्षया प्रबंधौ
चित्यादेवते 72 B. C. मसृणवर्णादयः
Read no. 72 on मसृणा
67 0 68B
रूपं
उल्लासः ९ 1 B. C. पदभङ्गश्लेषण 2 B. C. अभङ्गश्लेषण
गुरुपर °तया बत
तया बत दूरं देश B रसाद्यनुगुणः 6 A. B. उदा 70 रिकोच्यते
न्यस्य प्रस्तावे 46 B वक्तुं न्याय्याः instead of
वाच्या वक्तव्याः 47 0 गुणाश्च ये
का० प्र०3
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
°चोपमा
पमा
23
A
181
काव्यप्रकाशवांचनायाः पाठान्तराणि 8 B दूरमेव
47 A कार उच्यते । उच्यते 9 A. C. गौडी
48 c विराजिता इत्यभङ्गः 100 रीतयो मताः
49 B भङ्गपदश्लेषश्चेति 11 B भेदेपि तात्पर्यमात्रभेदात् ।
50 B. C. यथा स्तोके 12 B लभत्वाल्लाटानुप्रासः
सदृशी चेष्टा तुला 13 A. B. उदा
52 B चेति 14 A. B. उदा 15 A. B. उदा
Read no. 53 on चायमु16 A धरणीधव 17 B प्रथमश्चतुर्थे द्वितीयस्तृतीये प्रथमो 54 c सुधांशु द्वितीये तृतीयश्चतुर्थे इति द्वे
Read no. 54 on सितांशु 18 0 तृतीयश्चतुर्थे प्रथमश्चतुर्थे
55 A इत्यादि 19 B. C. प्रथमपादादिभागः
56 B.C. इत्यादिः नासौ
Read no. 56 on इत्यादौ °नुसरणे नेकभेद
57 B चोपमाद्यलंकार नुसारेणानेक
58 B. C. विविक्तोऽस्ति 22 0 आद्यन्तिकम्
59 B इत्युपपत्तिपर्या' मध्यान्तेकं
60 श्लेषाभास इव श्लेषः मादिममध्यांतकं तेषां ।
61 0 तदेवमादिषु स्थान आवृत्ति
62 B अहो देवगतिश्चित्रा काव्येन्तर्गडु
तथापि न समागमः। काव्यान्तर्गडु
अहो दैवगतिश्चित्रा 26 A. B. °नं चोदाहियते
तथापि न समागमः। 27 0 °माय ततस्त्वं
Read no. 62 on अहो 28 A °वस्यमबलं
63 B देवगति 29-30 B °दावानल
लक्ष. 31-32 B क्षेत्रे
65 B वोच्यते 33 B वनं
omits = 34 B विचित्रत्वसहस्त्रैः
67 B प्रेक्षित्वमेषां ___B ब्दा युगपदुच्चारणे
व्यपेक्षित्वे 36 A. B. क्रमेणोदा
69 B. C. सादीनामलंकारता करोटी परिजनो
पेक्षयैव स्थिति लावण्यस्य महानिधी
पेक्षयैव व्यवस्थिति .. युष्माकं तनुतां
प्रसज्यतामित्येव 40 B एषवचन
'स्वयं प्रयोज्यं प्रथम
73 B कष्टकाव्य 42 A. B. उदा
74 A. B. उदा No variant.
75 B तदर्ति तदभावादभिन्न
76 A, B. दुमादिजा 45 0 धोप्यर्था
0 दुमादिमा मध्ये गणितो
77 A. B. omit बन्धः
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
B
उ. ९-१०]
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि 'पद्मः and omits बन्धः
27 A. B. उदा 48 and omits appa:
28 c चरितानि 79 B सर्वतोभद्रः
29 B एतयोयोधर्म 80 B न्ये भेदाः
30 A. B. उदा B. C. न प्रदर्श्यन्ते
B संपराय 82 B एकार्थतेव शब्दस्य भिन्नरूप
A. B. उदा 83 B र्थत्वेनेव मुखेव भासमानं
ढुंढुलंतो 84 A. B. उदा
दुण्टुण्णन्त 85 A. B. उदा
मरिहिसि 86 c तनुवपुरजघन्योसौ
35c कण्टअकलि
आई उल्लास: १०
37 B. C. वणाई 1 B .omits तु
38 B. C. ण 2 B यथेव वा शब्दा
39 B पाविहिसि B.O. विशेषणान्ये ते
40 B कुसुमेन पादाने श्रौती।
41 B.0. सममिति ___A तुल्य
आसो निरासः । उदा। राति... B. 'तुल्यमित्यादा
43 0 gives प्रयाणां वादिधर्मोपमाना. ___B रिति तत्र साधर्म्य
नाम् after उदा। तुल्यं क्रिया चेद्वतिः इत्यनेन
44 B विशरा 8 C इवेन नित्यसमासो
45 0 राचितांतरा 9 B शब्दप्रयोगे
46 0 A. B. क्रमेणोदा
भवतः तदेदमुदाहरणम् Read no. 10 on क्रमेणो'
°ध्यवसानादयः 11 8 लक्ष्मीनिवास
49 A त्रिलोपे इयमुपमा Read no. 11 on लक्ष्मी
50 c सा च विषा 12 B. स्वाधीनभर्तृका कांत
51 c
इहामिने 13 B कान्तं यथा भजमाना
°साधारणधर्म ____B रसादिरूपस्तु
53 B सुधेव instead of सुरेख 15 B वैवैतदलं. 16 A. B. उदा
C भिन्न च तस्मिन् 17 B सयल
55 B.O. °मानत्वे पूर्व 18 P. C. सम्मइ
56 B. C. सभा 19 B. C. समेत्तेण
57 B रसनोपमा A. B. omit समासेन
58 A, B. उदा B. कर्मण्यधि .
Read no. 58 on B करणे चोत्पन्ने क्यचि.
उदाहरणम् ___A.0. क्यचा
59 B
उपमानोपमेययोः 24 0 कर्तुः
60 B नोपमेत्युपमेयो 25 A क्यङ । च
61 B यो न मम सहते 0 क्यङ । कर्म
62 C असत्पुरुषसेवेव 26 A.C. मुला
दृष्टिविफलतां गता।
हरते
48
B
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
20]
देश
°लयम्
B
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
[उ.१० 63 B पादत्रयं
980 omits अर्थस्या' 64 A. B. omit इति
990 omits सा च 65 B . °करशंका
1000 निपतद्धाराश्रुणा 66 B adds अथवा । न्यस्त लांछन- 101 C कुत्रोड्डीय
मंजनं कुमुदिनी प्रोल्लाससिद्धि- 102 c . ममत्व प्रदमिति चतुर्थः पादः । एवं च
Read no. 102 on महत्त्व रूपकेणैव निर्वाहः ॥ श्रौता...
1030 प्रशमयसि after कार्या
Read no. 103 on शमयसि 67 B
104 B तदात्वमेव 68 B
तत्त्वमेव 69 B देश
105 B तुल्यांतरस्याक्षेपहेतुः 70 B °पमाया इवैकस्मिनिह बहव
तुल्यात्तुल्यस्य 710 बाणाः instead of प्राणाः 106 B स्थालेपहेतुः दुर्गाणामामार्गण
107 B लज्यते यः पराभव
108 B विस्फुज्यते 74 B देशवृत्ति ही
विस्फुर्जसे 75 B.C. भुजः
109 B onits hafa 76 B वाच्यकुञ्जर
110 B. 0. यथा । अब्धे... 77 B. C. भुजस्या
Read no. 110 after 78 B कैर्भवानिति
Hara. Omit no. 110 on °मतिवर्तित
स्थगितभुवना 80 B च मालारूप
111 B अब्धेरणः °मानं यत्सत्यतया स्थाप्यते
Read no. 111 on भब्धे 82 A, B. सापहुतिः
112 B.C. °पाया इह 83 A स्पन्द
113 B अंभो रिक्तः 84 B. C. रोद्भासि
114 B काचित्वध्यारो भक्त्यं त
कचिदध्या. 86 A दिग्मालिन्यं
115 B °कारकरणी 87 0 °पादकवाक्येन
1160 क्वचिदंशेष्व 880 तस्यार्थस्या
117 B यत्र तदे 89 B जीए
118 B. O. तण तीए
119 B.O. अण्णा जयलछी
120 B. C. विभ 91 0 हुजला
121 B घि 92 B वंशतरणमित्यु
वि 93 B. C. मायां पर्यवस्यति
1220 च्छामा Read no. 93 on A1°
123 B 'पणपयाव 94 0 स्वस्वरूप
1240
°वइणो न्धोवगम्यते
1250 होई 96 0 ब्रुवन्
126 B °चेच्छब्देनोक्तौ omits a
127 B कथितपदस्य
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
चाति
केसराइ
उ.१०] काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
[21 128 B दुष्टताया
161 0 मालाप्रतिवस्तूपमावन्मालाव्यति129 B यथा । स्वयि...
रेकोपि संभवति तस्यापि भेदा. 130 B कुमुदं
एवमूह्याः। दिल्यानं चोदाहियते । 131 B. c. करं
Read no. 161 on श्लिष्टः 132 B किअणाण
1620
यथा किवणाण
1630 133 B णाआण
164 B अत्राक्षिप्तवोपमा। णाआण
अत्र ह्याक्षिप्तवोपमा भास्वतेति 134
श्लिष्टः केसराई
Read no. 164 on यथा 1350 सीहाणं
165 B अत्रेवादेस्तु 136 B आण
अत्रेवादीनां तुल्या आण
166 B omits a 137 B अथणा
167 B. C. एवंनातीयकाः थणआ
168 B योग्यपदस्य 138A. B. कत्तो
169 B. C. तेऽपि 1390 अमुआणम्
170 B. C. दिशा दृष्टव्याः 140 B . • नवपरिणयता
A दृशा 141 B 'नोतरोत्तरं
171 B पसर्जनीयकार्य 142 B संगतेन
172 B कपि 1430 देवाकर्णय येन येन सहसा
173 B. C. णिविव यद्यत्समासादितम् ।
174 B.C. ण Read no. 143 on संप्राप्ते
175 B कपूरः 1440 बेन त्वं भवता च कीर्तिरतुला
176 B. C. कार्यस्थाकथनं कीयां च लोकत्रयम्।
177 B सुंदरमपि भाति 145 B पुनः instead of वपुः omits 'नील'
178 B. C. सुहृदः 146 B 147 B सदाननस्य
Omit no. 178 on गौर्गली 148 B योपि वर्धते
179 B omits अपि 1490 नित्यं
Read no. 179 on °धेऽपि 150 B
180 No variant. 1510 उपमानगतमपकर्ष
181 B द्वाभ्यामपि द्रव्यं 152 B अर्थेन
182 B संगररंगसक्त 1530 आर्थेन च क्रमेणो.
183 B संततमुस 1540 °शतिभेदाः
184 B सतत्त्वविदों 155 B. C. हायोपि
185 B निःशंकतरं 1560 महाधतिः
निस्यन्दतरङ्गि 157 0 अत्र तुल्यार्थे
186 B. C. °चूडापगापि 158 B अत्रेवाहि तुल्या
187 B. C. पश्चादंघी 159 B विरहे माक्षिस
188 B सटाधूलिध्रमा Read no. 159 on. विरहेणाक्षि 189 B दिअहणिसाहिं 1600 श्लिष्टः । शाब्दमौपम्यम् ।
दिअहणिसाई
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
22]
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
[उ.१०
190 B. C. एहिं 191 A तीइओब्वेविरीए 192 B तीए उब्वेविरीए 193 B जीवितासा 194 B. C. तु सहार्थ 195 B. C. सन्ननेतरः 196 B यथा instead of उदाहरणम् 197 B °भ्रमिमुदित
Read no. 197 on भ्रमि
रुदित 198 B omits अत्र 199 B यथा instead of उदाहरणम् 200 B अत्राद्यधैं 201 B. 0. पुरारे न प्रायः क्वचिदपि 202 B. C. संप्रत्यहमतनुरग्रेप्यनवतिभार 203 B. 0. पततु 204 B जन्मनोरमननं भुज 205 B मुक्तरूपं च हेतुः 206 0 यद्वचः instead of वस्तु यत् 207 B. C. यतोऽभिन्ना 208 A जनीभिः कृताः 209 B. C. बालाकि 210 B. C. संभवन्ति 211 B श्रुतिशालिनी
Read no. 211 on ya.
शालिनी 212c निरापतत्वरम्यैः 213 B. C. सोदरश्रि 214 B ___°एकस्मिंश्चदेश इति 215 B 'कस्मिन्नपि भवति 216 B °वा यत्सपर्यायः
Interchanges the verses 513 and
514 217 B श्रोणीभागस्त्यजति 218 B तु instead of च 219 B.O. णिवेसिअं| 2200 कुसुमबाणेन 221 0 मोहहेतुमन्तर्गत 222 B.0. समारोपितः 223 B व्यतिरेकत्वेन
Read no. 223 on cufat
रेक 224 B योगव्यवच्छेदो 2250 विकल्पेन किंचिद्वैचित्र्यमिति तथा 226 B °न भिन्नवृत्तयः 227 B
°पुष्टार्थस्य स्वी 228 B प्रतिभिन्नं 229 B °स्येहाभावात् 230 B यथा instead of उदा. 2310 विसंष्ठुला 232 B यत्प्रकल्यते 233 B अत्र कथनं प्रश्नपूर्वकं च तदन्यथा 234 B सलिलमनवद्य 235 B.O. दोषः 236 B जनानुरागप्रभवा 237 B कांचिदहति ।
Read no. 237 on कदा 238 B तु instead of पुनर्
0 पुनर्हेत्व 239 यथा instead of उदा. 240 B. C. सरेहि
Read no. 240 on सरोहि 241 B. C. हंसेहिं .. 242 B. C. अण्णोणं 243 B. C. विध 244 B णवर.
0 णवार 245 B. C. अन्ति 246 0 कल्प्यते 247 यथा instead of उदाहरणम् 248 B. C. वाणिअम 2490 कुत्तो 2500 वग्धकित्ती 251 B. C. अ 2520 जाव 253 B लुलियालयमुही 254 B परिसुक्कए 255 B 0
सोहळा 2560 ता मूल्येन 257 0 क्रेतुर्वच
सुह्यो
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
७. १०)
258 B
B
259 o
260 c
261 B
262 B
C
263 B. C.
264 a
265 C
266 B
267 B
268BO
269 B. C.
270 B. C.
271 B 0.
272 B
CA
C
275 B
276 B
277 B
278 c
279 B
280 B
281 B
282 B
283 a
284 B
बहुए
बहूएँ
273 B वेनणा
C
क्षणा
274 B सवत्तीए
सवत्तीणम्
चैव
285 B
286 B
287 BO
288 B
289 B
290 c
291 B
292 C
293 B
a
यथा
दिव्व गई
देव गई
किंदुलहं
गुणग्राही
सोख
सोक्ख
दुक्खंगं
ष्टा
कृपाणपाणिता
यथा instead of उदा
वसुधायां पत्तनं पुरे
फलरूपयोरपि
वेक्षणा
अलिभम्
कवोले
C
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
मधमाधीयते
दिष्ट्यैतदुदीर्ण तत्सयोगेऽसयोगे च
नुपमे
चेत्तदेत
प्रतिपद्यते
यच्चापि किंचिदा
विषयमासा
समाह
पुरः
'योगमनुमंतव्यं सितुमशक्तेन
केनापि तमेव प्रतिपक्ष
विजेय इत्यर्थः
● शयादिव कामः
omits मुख
यत्किचित्
चिदिह वस्तु
नवस्तु
Read no. 293 on नचिदिद्द
294 B
295 A
296 B
297 B
298 B
299 B. C.
300 B
301 d
302 B
C
303B O B. C.
304 C
305 B
306 BO
307 A 308 B C
C.
309 C
310 B
C
311 B
312 BO
313 B
323 C
324 B. C.
3250
326 B. C.
327 C
328 B
329 B
"मंगमुंग
"कृतमदो
'लत्वादि
C
330 B. C.
331 c
तुकतया तत्प्रभ
नता च
पूर्व पूर्व
यत्रोत्तरस्य
यत् स्थापन रेकावली गण्यते कावली भय प्रतिषेधेप्येवं
314 C
योक्तिर्वा
315 B C वस्तुतो
C.
316 B
317 B
318 B
319 c
320
321 B
922 BO
यदा
यथा instead of उदाहरणम्
कुहरेषु
चलदृशा
संभरिन
पञ्ज
जण्णस्स
अण्णस्स
कण्णस्स
तदिति अन्यदप्राकरणिकं
'रूपकमुपमावातिशयोक्ति'
'चार्थानुगमने संज्ञा' कपोले
विभ्रमयति
निबंधना
No variant,
यदि वा
कल्प्यते
●पमानप्रतिकूल
वणिजम्
अमिजइ
[28
व अजिम्
व्यस्त
युगलेन वहसि किं
मुग्धे
'भद्रे
रीत्या
"हल मा म वात
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
24]
काव्यप्रकाशवाचनायाः पाठान्तराणि
बुध्यते
332 B 333 B °पि लक्षितुं 334 B यदप्रस्तुतपदार्थेन 3350 संपृक्तमप° 336 B तत्सामान्यम् । उदा 337 B. C. निबन्धनात्सामान्य 338 B omits रस 339 B रन्यूनातिरिक्ततया 340 B भावेन नानयोरुप 341 B विशिष्ट 3420 वअणेसु 3430 अह्नारि
Read no. 343 on अम्हा 344A उवास
उवासं ओआसो
Read no. 344 on उवासो 3450 णत्थि
Read no. 345 on कत्थ 3460 पावाणम्
Read no. 346 on qatur 347 B. C. यद्दपि किंचि 348 B सोप्यपरो 349 0 सखी 3500 त्वां वद किं 351 B सर्वत्र चैवंविधे विषये
सर्वत्रैवंविध 352 B °लंकाररूपत्वायोगात् 3530 सर्वत्र
Read no.353 on सर्वैव 354 B कविना कार्यः 355 B.O. रुचारुचं 356 B. C. प्रगुणवर्णता 357 B omits तत् 358 c जहवि 359 A • तए
B. C. तुए 360 B हिभयं
हिअअम् 361 B.C. राम
3620
सुअहणि 363B अत्रातिरिक्तेनापि 364 B omits प्रकृतेन 365 B drops इति 366 B. C. गाङ्गमम्बु 367 B जिगीषुतया 3680 यदेकत्र 3690 संसृष्टिर्यथा 3700 कुसुमसौरभ 3710 संसृष्टिस्तु 372 B दृष्टिनिष्फलतां 373 B omits तु .
Read no. 373 on °योस्तु 374 B. C. एत्थ 375 B. C. एवं 376 B. C. लाअण्णम् 377 C परिसप्पन्ती 378 c णिवारेइ 3790 एत एव यदात्म 3800 सीमन्तरले 381 B. C. ताटङ्क 382 0 °चेतसां प्रभूतचमत्कृति 383 B. C. मित्खनयोरङ्गा 384 B मिति च रूपक 385 B रूपकत्वेन तिरो
Read no. 385 on
रूपकत्वे. 386 - B omits रूप 387 B योग्यतया 3880 शशाङ्केन केवलं कलाकस्य 389 B पि दृश्यते 390 B. C. °विरत 391 B लोमं प्रतिलोमं च 392 B. C. युगपदवस्थानम् । न 393 B परिहारे वा बाधक 394 0 एव परिगृह्येत 3950 गहिरो 396 B रमण
0 रअण्ण 397 B. C. णिम्मल 398 B
तह किं
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
डम्बरः
3.१०] काव्यप्रकाशवाचनीयाः पाठान्तराणि
[25 399 0 एसो . .
435 B. C. रुचे 400 B. C. जलणिही
436 B. C. °ल्लासिनि 401 0 ण किमओ
437 B. C. मे 402 B प्रतीतिरियम
438 B सिञ्जा प्रतीतेरियम
439 c इत्यपुष्टा 4030 रुद्धाशमविशीर्ण
440 B पुष्टार्थतयैवानु° 404 B उत तद्वदनस्य
441 c अत्र शृङ्गारे 405 B चैत
442 C 406 B अथैतयोः
443 0 क्तरित्या 407 B °मानहसितद्युति
444 B. C. नुप्रासोऽत्र 408 B इत्युपमायां
4450 तैव वृत्ति 409 B. C. साधकम्
446 B यमनप्रयुक्तत्वं 410 B omits शशिनिअंबाधकता 447 C चेतः प्रसभं स 411 B भ्युद्गत इत्य°
448 B °पमानगतस्य जाति 412 B. C. कस्य साधक
449 c °गतन्यूनत्व 413 B पर प्रेयसी
450A पदतां च 414 A, B. omit आनन्द:"सुरस्य
B. C. पदत्वं च c has first two lines as 451 B मिव ते नाभिस्तनौ भानन्दमन्थरपुरंदरमुक्तमाल्यं
4520 प्रतीयमानेन धर्मेण मौलौ हठेन निहितं महिषासुरस्य 453 B drops stra 415 B सिंजि.
454 A. B. लिङ्गवचसोः - 416 B सिंजि.
455 B. C. रनध्यैः 417 B. C. बाधकम्
456 A. B. इवेति
c drops इति 418 B विध्युपसंमर्दिनो
457 B 419 B.C. अभिन्ने एव पदे ।
भेदेन न तथा
458 B रूपतया न विश्रान्ति 420 0.. स्फुटतया
459 B वपि भिनप्रक्रम 421 B व्यवस्थिततां
460 B. C. परभागस्या 422 B omits च
461 B. C. कश्चित्का 423 B. C. त्रिप्रकार एव
462 B. 0. अवगम्यते 424 B पुनरेष प्रतिनियमो
463 B सत्यवादीति । तत्र 4250 यदीयान्वयव्यतिरेकावनुविधते
464 B drops सत्यवाद्ययं 426 B व्यवस्थित इति
सत्यवाद्ययं सत्यं 427 B. C. भासः
465 B न च 428 B . न्यासादयोपि द्रष्टव्यः
466 B रयिपौषं 429 A
467 0 °ष्ठिर इव सत्य' 4300 वाच्यालंकारमध्ये
468 B सत्यवचने सत्य 431 B. C. परस्परव्यति°
469 B वस्तुतस्तुप्रतीतिविघातादिति 4320 प्वन्तः भवन्तीति
470 B गृह्णाति 433 B पुष्टार्थतां
471 B. C. निपेतु 434 B नातिकामंति
472 B संभावनायां ध्रुवे का०प्र०4
।
प्रष्टव्याः
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
26] काव्यप्रकाशवाचनायोः पाठान्तराणि
[उ.१० 473 0 वक्तुं सहन्ते
493 B.0. रुचम् 474 B drops इति
494 C अत्राचेतनस्य प्रभो० 475 B कत्वदोषः
495_B. C. पूर्वोक्तयैव 476 B चातुत्वशंका
496 B. C. जात्यान्त विता 477 B वर्जितत्वात्तनिरुपा
A . ends समाप्तोयं काव्यप्रकाशः Read no. 477 on परिवर्जितत्वा
काव्यलक्षणं । कृती राजानकम 478 B यदर्थोत्तरन्यासो°
म्मटालकयोः । संवत् १२१५ 479 B. C. न्यासोपादा
अश्विन शुदि १४ बुधे अद्येह 4800 शिरसामतीव
श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजा4810 संभवतीति
वलीविराजितमहाराजाधिराजपर482 B एतत्प्रयोजित
मेश्वरपरमभट्टारक उमापतिवरल483 B वितेन स्वरूपेण
ब्धप्रसादपौढप्रतापनिजभुजविक्र484 B र्थनाय यत्नः .
मरणांगणविनिर्जितशाकंभरीभूपा485 B शेष प्रतिपादयतीति
लश्रीकुमारपालदेवकल्याणविजय. तस्यात्र
राज्ये पण्डित श्रीलक्ष्मीधरेण प्रतिनायकत्वेन
पुस्तकं लिखापितमिति । प्रतिनायकात्वेन
B ends समाप्तोयं काव्यप्रकाशः । . 487 A. B. प्रदेति
शाके चन्द्रविलोचने(?न्दु)शशिभिः क्लुप्ते खरे वत्सरे - C omits afat
ज्येष्ठे मासि सितेदले गुरुयुते पंचम्यभिख्ये तिथौ ॥ 488 0 रीत्या
साधूनां परितोषपोषविधये श्रीविष्णुभट्टात्मजे489 B कदर्थनान्नेयं
नायं लक्ष्मणसूरिणा विलिखितः काव्यप्रकाशःस्वयं । कदर्थतां 490 B drops यथा
शुभमस्तु । सं. १५३६ वर्षे श्री अहम्मदावाद491 0 मध्ये वा रिधि वा
नगरे वा. दयासागरगणिभिः परिगृहीता प्रति492 B विशस्तृण
रियम् ॥
486 B
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ. पं.
१ ११
२ २५
३ १७
२७
१९
39
४
५ १५
१६
33
"
६ १४
१५
"
39
39
७
23
२०
२७
""
९ .२३
१०
१९
१५
१७
२४
१६
"
२६
२१
A
११
१६
११ २७
१४ ३०
प्रथम उल्लासः प्रतीक
८
१७
काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य पाठान्तराणि
N. B. - Pratikas are followed by various readings.
रूपा वक्ष्यमाण C पा च
वक्ष्यमाण
प्रभुसंमिते प्रचुसं लोके ० लोकि
● वैदग्ध्यशाल
वैदस्य
'वपीहामो A वपीच्छामो
० वपीछामो विशाख ० विश्वा खि 'मोक्षाः B मोक्षो
कामोपचारनैपुणम् नैपुणम्
चक्षुरादेर° C चक्षुरादिर शिवचन्द्रस्य बालत्वं, कामस्य
C शिवचन्द्रज्ञातास्तत्त्वं, का स्वदन्ते
घटेत ० घटते
तदन्ते
II
B omits
'न्याद्यव्यभि° C न्याव्यभि शाकटिक वा B शाक वा
स्वदते
सूदते
भमेति
द्वितीय उल्लासः अर्थोऽपि के ० ° पीति के तदन्वितपदे 4. C. तदन्वितः उपचयापचययो B omits
A भ्रमेति
पामङ्गल A. B. C. प्रामङ्गल तात्पर्य मनपेक्ष्य
B. तात्पर्यायामनपेक्ष्य
चा भिद्यमानेष्व° Bomits भिद्यमानेष्व
शब्दार्थ B शब्दार्थे ० शब्दो
पृ. पं.
१६
99
२४
39
39
२४
१७ ६
28:
१७ १३
१९
२०
२०
१९ २८
२१ १४
१७
२२ १२
२.२ २२
رو
२२ २४
२३ १९
२३ २६
२४
२४
"
33
२५
در
१०
१६
१८
२३
१५
१८
२५ २९
प्रतीक
शब्दे लक्षणा ० शब्दलक्षणा
● क्षणोऽर्थः B लक्षणस्य
पारिमाण्ड ° B. पारिमंड २७-२८ बाधितो ... शब्देन B omits बाधितो ...शब्देन
भाई B omits भाई
'ब्दव्या C ब्दस्य व्या अभिधेयेन संबन्धाद् B. omits.
A adds afterwards. प्रतिपत्तिस्तेषां B. omits "मिश्रां B. मिश्रा
यत्रा A rubs out from ना with हरताल
B writes यत्र
तरिति A. B. न्त इति ।
स्वाभिधान माणिक्य writes स्वाभिमान
चतुर्थकक्षायां B. चतुर्थकक्ष्यायां गौरनुबन्ध्य B
र्थ्यादिति इन्द्रार्थेति राजकीय इति
A omits इतिs. 0. यत् इ° न प्रयोजनम् A adds न afterwards.
B. C. omit न
बद्धास्पदत्व A वद्वा... Bomits बद्धास्पदत्व
यत्र B अत्र
ढो
रा
तद्वारेण B omits a
बटु° A. B. टु
●यितव्ये B. omits ज्ये गतिरवबोधन B. गतिरे' A यति
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
28]
पृ. पं.
२६ १६
२६
39
२७
२७
१७
= 8
२८
२१
२५
२६
२८ २१
२८.
33
२९ १६
२९ १९
२४
"
३० २५
5
३१ १८
३१ २२
३१ २५
३२ १८
39
२६ ३२ २७
काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य पाठान्तराणि
प्रतीक
इति भट्टश्री ० इति श्रीभ°
३३ २७
प्रतीक
गमयितव्ये B गमय्यतव्य ।
यति ये
व्याच A व्याचष्टे Here
A.
is rubbed out
प्रयोजने
जन
अञ्जनमिति Bomits अञ्जनमिति A adds afterwards.
संसर्गिणो B संसर्गिणा
विशेषप्र ० ° शेषे प्र०
यथा C यथा
स वस्तुनि कथाप्र श्रन्तरप्र°
C °स्तुप्र
न्तरे प्र
[ रन्वय ] A. B. omit [ रन्वय] मानिक्य has this reading. पोल
'पाल असंबद्ध° B. संबद्ध
A corrects afterwards
तृतीय उल्लासः
पेक्षणीयमित्याह B' क्षेपणीयत्व
मित्याह
A rubs out त्व
अपिहुलमिति मनि पिहुलमिति
सहि Bomits सहि
A adds afterwards
सहदेवे B सहदेवो कपोलौ ० कपालौ
वाच्यविशेषात् यथा ॥ omits A adds afterwards
३३ २४-२५ प्रस्ताव 'सुब्वाइ' इति B omits
and A adds afterwards, आश्वस्तां...पाति
B omits and
A adds afterwards.
३४ १०-११ प्रोला ति...भवतीति omits
and A adds afterwards
पृ. पं.
३५ १०
३६
१४
१५
१८
२१
"
३७ ११
२४
39
39
39
33
३८ १३
""
91
36
33
४४
६
१६
"
३९ २७
४० १६
२२
सामाजिक: 8 सामजिक:
२९ तेनानुभावैः B writes तेन विभावे
""
33
४५
=
चतुर्थ उल्लासः
A has corrected "arg
४३ २-३ प्रतीयते... स B omits प्रतीयते...स
[ उ. ३-४
निर्णय: A. B. निर्नयः
विविध A विविध
विशेष repeats विशेष
वक्रोक्त्तय Bवाच्या
एवालंकारा omits एवा
स्पत् ॥ स्वातं 'परिणतोऽ''परिणतः अर्था
१२
१३
१९
፡
यद् अप यदु while
A has corrected and writes
२७
९
१४
४-५ तथाहि... युक्तम्
writes
मूले द्वि° ० मूलं द्वि°
घोड़ि बाहि
जायन्ते । ज्ञायन्ते
१३
४४ २४
प्रतीत्यादि B प्रीतिरित्यादि
” २६-२७ निनोवाऽसन् वा रसः B नित्येव ।
सवारसः
५
७ नरगतं 0 नटगतं
"भाषि ॥ भाव
कथं न B omits न
शंकुको° C संकुको
परगतो 0 परमनो
'धा योगो धा भागो
B omits तथाहि :.. युक्तम्
यथैव भसौ
यथैव मसौ
वस्त्वतिताण्यव° 3 वस्त्वितिव्यव निर्वेदादिभिश्व B omits 'भ
रसना वार्ता
रसनार्ता
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य पाठान्तराणि [29 पृ. पं. प्रतीक
पृ. पं. प्रतीक ४५ १४ यन्मुनिः B ये
corrected as मोह , १४ भावयतीति भावः B भावयंतीति ५३ २० व्यभिचारी जुगु भावाः
c°चारिणी जुगु पदार्थ B पादार्थ
" २८ °वर्तन्ते A C repeat वर्तन्ते कक्ष्या B. कक्षा
५४ १५ लोचो B °लोको योग्यत्व भोग्यत्व
, २२ दम्भस्या B तस्या २९ रुपरञ्जन A °रूपरञ्जन
५८ २७ वस्तुमान मात्रग्रहणेन ०°मात्रं १२ म्बी अत B इत्यत
ग्रहणेन १५-१६ °दिना तावन्नटबुद्धि B omits.
रसः काव्य° C रसः स काव्य २२ च Bच्च
७ शत्रुविषये B शत्रुविषय ४८ २१ भावस्यानु B omits
, १२ र्वननव्या° B°निव्या भावस्थानु
, २६ यत्र B यत्रा। रीतः क° रीतस्ततः क ६. १७-१८ मधुरा...यस्य A has added ४९ ९ °स इतीयद् 0 °स यद्
____afterwards; B omits " ११ स्य आनन्द-A स्यानं
" १८ प्रयोजनं B प्रयोजन B°स्यामं
६० २४ माद्यलंकार° B omits ध " १६ °समस्यो B omits °त्तमस्यो २८ उन्नतं B उन्नत २२ न चेद् B च चेद्
६१ १५ तदास्स्वेति A. B. तदास्वेति , २३
, २८ निष्पन्नः B निष्पन्नः एव B omits एव
६२ २४ जाता B जा २३-२४ तथा ह्यमि° C तथा भि°
" २७ रिति B omits ,, २४ गतं A has only one गतं
६३ २८ फणा B फेणा while B has two
२२ क्रान्ते B क्रान्ताः ५१ १७ न वाच्यम् न चान्यम्
२५ वर्तमानत्वे B°वमानत्वे ५१ २१ जातैर्हसिता B °जातैईसितो. २६ विशेषोत्यलं B°विशेषोक्ता while A his written
६५ २३ इत्यष्टादश° A इत्याष्टादश° first oat and then corre- ११ न पदे यथाउ° B omits न cted as °ता
पदे यथा उ° , २१ तापहसिता A तापहिसिता ।
१८ संदर्भविशेषः B संदर्भः विशेषः c drops अपहसिता
, २२ पदद्योत्येन B पदद्योतेन अस्थानं । स्वस्थान
विमुह्यन्ति B omits विमुह्यन्ति पादचर पाइमर
६७ १२ व्यवसायां° A व्यवसाया स्थैर्यगांभीर्य य धैर्यगां°
प्रेक्ष्यपूर्वका B प्रेक्षापूर्वका रौद्र ममता 0 रौद्रे ममता
असावपि आप्यायिका A असौ च BC चा A has written
अप्यायिका B असौ आप्यायिका first at then corrected ६९ १९ माहात्म्याद A °महात्म्याद् as च
चलयन् B वलयन् ५२ २९ चलद् दृष्टि A. B. चलदृष्टि ७० २५ चलयन् । वलयन् ५३ २० मोह° B मोद° A has wri- ०२९ स्मरः सुरतसंगरे जयति B स्मरो tten first at and then
जयति
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
80] काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य पाठान्तराणि
[उ.५ पृ. पं. प्रतीक
पृ. पं. प्रतीक १७ साभिलाष° B सहाभिलाष
निषध्य वर्णानामपि B वर्णानाम
९२ १२ पारितम् A. B. पारितां २९ संपाद्यते B संपद्यते
ध्वन्यङ्गता° B ध्वन्यङ्गता १८ गमशंकया माशं.
, २५ गुणीभूतव्यङ्गयेन Bomits भूत° , २१ ध्वन्यत C ध्वन्यते
९३ ३-४ नां हिना B omits , २६-२७ करणानां मान° 0 °णानां मानि- ९४ १५-१६ न्योन्यम...अन्यो Bomits नीना मान
२० मात्रमिति B omits ७४ २७,२८ किरण° B करण
२९ वा B ता ७५ २०-२१ परिपोषः ततः B परिपोषभूतः ९५ १४ एतेन संवेदन C °न स्वसं ७५ २६ °च्यते च्येत
५५ २८-२९ "नि अं B omits , २८ ज्यते ज्येते
९६ १६ श्ववृद्धा B omits ७६ १९-२०-२१ हि वाक्यार्थ...चञ्चल Bomits ,, २३ विषये 3 °विषयो ७७ २३ °मुपांशु : °मुपंशु
शब्दकारि° B °शब्दकारणि° ७८ २४ स्यातिव° 0 °स्याप्यतिव° , १७ पदार्था । शब्दार्था' ७९ १२ स्य सुयोधन B omits °स्य
पदार्थान्तरै A त्वापदार्थान्तरै सुयोधन
B त्वादर्थान्तर , १८ वेन नि° Cord नि०
९८ १४ °न्वितवि. c°न्वितावि० २४ प्रतिभाषते भासते
९८ २१ इपुरुरच्छदमुरश्च B इषुरुरदमुरश्च १३ रतिभोगार्थ B रातिभोगार्थ
२८
अवमतं C अवगत १७ सागरिकायाः रिकया
२९ क्षणमनु° A. B. क्षणमानु २७ स्वप्रभेदै B स्वभेदै.
, ३० प्रतिपत्त्या A. B. C. प्रतिपत्ता ,, २९-३० शुद्धाभेदै° शुद्धभेदै०
देतद् गृहभोजन B°देत इह ८१ ११ परितोष्यताम् B परितोषिताम्
भोजन १३-१४ कोप...बाध° Bomits कोप... १०.१५-१७ स दुर्बलः' 'व्यापारगम्यं बाध
o drops , १५ माणभा° 0 °माणामा
१७ वैविध्यात् वैचित्र्यात् ८२ ८ परिणत° B परिपात ,, २५ तिष्ठते B तिष्ठति , २२ कान्तेः B कान्तः
, २९ छागमालभेत B छागमालभते ८३ १७ र्थसहाय°A. B. °र्थसाहाय° १०. ६ क्रमेण C क्रयेण
दधिरस्यदर्थों B दधिरस्यदयो पश्चम उल्लासः
तेष्वङ्गभाव B तेद्यङ्गभाव
, २० अर्थविप्रकर्षात् B omits अर्थ ८६ १८ रतितरां B omits रतितरां
,, २२ द्वितीयया B द्वितीया ८७ २८ पमर्दैनो- B omits
१०२ २२ कष्टत्वादीनामिति A, B.drop ना ८८ २१-२२ ध्वन्यते तथापि B omits
तेन B drop तेन ८९ १५ वृत्तान्तमपेक्षेते...नायिका
, २२ वेद्यते drops B omits
१०४ २५ कक्ष्यायां B°कक्षायां , २१ वाक्यमात्रां 6 वाच्य मात्रा , २७ . दृष्टनष्टदिव्य° Bइष्टदिव्य ९१ २४ बलानिषेध्य° °लानिषेधस्य .१०६ ३ र्व्यञ्जनात्मनो B यंञ्जनो
१९
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८ विशेयर
उ. ६-७] काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य पाठान्तराणि [81 पृ. पं. प्रतीक
पृ. पं. प्रतीक १०७ १९ वाक्यार्थमतये B वाक्यार्थमितये
क्यिाथमतय B वाक्याथमितये १२६ १७ विधेयत्वप्रतीति° B विधेयत्वा १०८ २१-२३ गोदावरी...कुडङ्गवासिणा इति १२६ १८ निदेशेनो० ०°निर्देशनो०
B adds afterwards. १२७ २८ 'ब्दानन्तरो A °ब्दानं [२] रो १०९ १८ प्रतीतानां B°प्रतीतीनां
___B°दानांतरो
१२८ २३ यत्रैव B omits यत्रैव षष्ट उल्लास:
१२९ २१ सा च बहु° C drops च १११ १८ मुपजनयति B °मुपरंजयति
१३० २ सिद्धस्थो B सिद्धस्तो १९ अत्र चेति A omits
, २२ परिवर्ति B°परिवर्स , २४ रिपुस्त्रीणामिति च B omits
, २५ यद् B यदिद् . सप्तम उल्लासः
विधेयत्वं चैतत्प्रा B omits ११३ १७ तदपाण्डु° C तदापाण्डु
१३१ १७ क्लिश्नातु A. B. क्लिस्नातु , २२ प्रसिद्धत्वालोकमात्र Cdrops , १८-१९ यथा सौधादु° B omits ११४ २६ भंगेपि ० भंगोपि
२३ कर्तृकानेका B °कर्तृकानेक ११५ २१ जानुनोरध° A. B. C. जानुध° , २७ बह्ववकर B बढ़कर र्भावाद् A. C. र्भावात
, २८ अनुरक्त B मुरक्त B°र्भावाता
२१ मतिविकासा° B omits मति ११६ २१ भिधानुकारः भिधानानुकार:
,, २७ वर्णत्वेन B°वर्णने " २५ °मर्थोनुकार° C °मर्थानु
१३५ १५ कुतुक: C कुन्तकः , २८ न च तत् B न चेतत्
१३५ १६ अत्रा B अत्र ११७ २६ भासः ०°लाभः
, २७ त्वविधाने B त्वं विधाने ११८ २१ तन्नेयार्थ. 0 तन्नयार्थ शब्दार्थस्य B शब्दार्थ
मणि° B omits ११९ २५ शून्ये शून्यो
, २७ विद्जन° B व्यंज° १२१ २८ बीभत्से चन्दनादयो B omits १३८ १८ द्वितीयाधै C द्वितीये) १२२ २३ युष्मभ्यं B युष्म
, १९ विश्वा ...निमित्तं c drops पटूकरोषि B पटूकरोपि
१-२२ पुत्रा"ददासि c omits सरितो B omits सरितो
१५ मर्थाना B ommits १२४ १७ कालने कालं नै
, १९ °चारिभिः B चारिणाभि °सेवितो 0 °सेविता
प्रधानेन B प्राधान्येन १२५ २१.२२ °तः तीव...भिलाषव.
१४१ २२ प्रति इत्युत्तराध° C onits B omits.
, २६. कोदण्डादिर्येन B. कोदण्डादि येन २३ वस्नेत्यादि B omits २४,२५ क्षतं...रजःपरा )
१४३ १९ °नुक्तेः ० °नुक्तैः २६,२७ वेदय...अपूर्व-S Bomits
, २६ इत्याहु B इहु बन्धेति ।
gfa starfa: B omits १२५ २२ भाष्य° C महाभाष्य
१४८ २८ समाला A सामासा " २६ लोकप्र° 0 लोके प्र° १५० १८ सहाय° A. B. साहाय
१३६
MUM
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
[उ,७
१७९
४
32] काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य पाठान्तराणि पृ. पं. प्रतीक
पृ. पं. प्रतीक १५१ १८ श्वानुभूत B. श्वानुभूयत १७६ २५ प्रत्युक्त प्रयुक्त - २२ यत्त उद्देशिना B यद्देशिना १७७ १५ निवेशन B निवेशने
१७८ २० मोहवं मोहितत्वं १५३ . १६ स्त्रियाश्च B स्त्रियश्च
१७२ ३ धीरोदातादि० ० उत्तमादि० १५३ २२ तञ्च आर्थ° 0 तत्त्वार्थ
१७९ ९ क्सृप्ता° B कृष्टा १५४ २-३ बहुव्रीहि...त्वर्थीभ्यां B drops
लेहिनाम् B°लेहिताम् " ६ यत्र च B drops च
१२ भावे द्वितीया भावे च द्वि० ११-१२ तव प्रसादात्...
°निहतं B निहितं पिनाकपाणेः B drops १८१ ७ नैपुण्याभ्यां A °नैपुणाभ्यां " १४ अथ यथा B drops
" १३ कलहान्तरिता B omits , १५ सप्तम्युत्त° सप्तस्युत्त
प्रभावा° प्रभव कटो ८ घटा
पुण्डू B मुद्र १५५ तुरंगम् A. B. तुरगम्
" १३ केरल° B°करेल. १५७ २८ भङ्गनं B अङ्गणं
" १६ वजरातुङ्ग B वक्षुरात्वंग मासनप्राणायाम B°मासनायाम
__ पीलु B वीलु चित्तस्वरूपा° B भिन्नस्वरूपा
, २१ वानायु° B°व भायु " २१ काकुश्राव B काकिश्राव
लम्पाक B लम्पाका , २८ जातिभिन्न B जातेभिन्न
°कीरत्तङ्गण° B °कीरत्तगण° १५९ २८ मयोर्विशेषयोः ०°मयोर्विशेषा
कुहूदे B कुह्वदे विशेषयोः
वैदूर्या A. B. वैडूर्या १६० २९ वाच्ये ८ विशेषे वाच्ये १८५ ९ शिलीन्ध्र B °सिलीन्ध्र १६१ २४ पदान° C पदादन
१८५ १४ क्षितिरोधः B °क्षिरोधः लोकमवबाध° B लोकमपबाध
१ च्युत° B युत १६४ २५ मालाया B मालया
B omits १६५ १८ प्रत्युक्त° 0 प्रयुक्त
चिरोर्जितं Bचिरोजित १६६ २५ समुद्भूत° B सद्भूत
११ सेविते सेवते १६६ २६ दिधीङ् इति ० देधीडिति
१८७ २३ प्रकृतरस° C प्रकृते रस , २९ कष्टत्वं गुणः B. C. oniit
.१८८ १९ °स्थ्यसं° B स्थासं० १६० २१ पीडितवान् । पीठितवान्
१८९ २१ मधमपा...°वितस्या B.omits भेदज्ञान B भेदेन ज्ञानज्ञान
१९० १७ १६९ २४
पप्लवो° B°पप्लवे
भयं B अयं , २५ अयं B omits
१७ °गमनतया B°गमनभया , २७ समापत्ति: B समापत्ति
२२ प्राधान्य° A. B. प्रधान्य , २८ पुराणः B पुराण
१९३ १८ ताडनं B ताडन १७० १० नाथो B नाथ
१९४४ प्रतिपद्यमानेन B प्रतिपाद्यमानेन १७० १५ भवतीत्याह B भवतीह
१२ 'विरुद्धम् B °निरुद्धम् सिद्धतमपदं B सिद्धतापदं
१९५ १५ समवेतानां B omits विषमबाण° B विषयबाण
, २० भट्टसोमेश्वर B भश्रीसोमेश्वर १७५ २५ °भावाभिनेया००°भावाभिनया N. B. Here ends ms B १७५ २६ शृङ्गारादयः B omits
.
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.८-१०] काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य पाठान्तराणि [38 अष्टम उल्लास:
पृ. पं. प्रतीक पृ. पं. प्रतीक
२४७ १८ शरद्वर्णनोऽयं c omits अयं १९७ २७ लंकारो यथा
२४८ १० तथा भाशब्दः C °लंकारोपकारो यथा
C तथा हि भाशब्दः १९८ २६ भङ्गोऽनपेक्षम् C भङ्गानपेक्षम् २५० ४ भूषणैस्तया भूषणेस्तस्याः २०. २६ °वाध्यारोपाया अनु°
१४ अपुरुषस्य पथेति C°वाध्यारोपरूपाया अनु
0 अपुरुषस्य यथेति २०१ २३ °त्युपमा प्रकृतस्य
२५२ २७ इति भट्टश्रीसोमेश्वर' C°त्युपमया प्रकृतस्य
C इति श्रीभट्टसोमेश्वर २०२ २० वामनोक्तं वामनेनोक्तं २०७ २१ अनायासेनोपपत्तिः C अनायासोपपत्तिः
दशम उल्लास: २०८ १९ शनैर्न दृश्यसे शनैर्न दश्यसे २६५ १० व्यापनादि उत्प्रेक्ष्यते इत्याह व्याप२०९ २१. वान्तैर्मलिन° 0°वान्तैमालेन
नादीति । C व्यापनादि उप्रेक्षा. २१० २३ प्रतीतरप्रयो° 0 प्रतीतिरप्रयो
विषयं लेपनवर्षणक्रिये तु तमो न २१६ ८ संस्फेटो C संस्फुटो
• भोगतत्त्वेनोत्प्रेक्ष्यते इत्याह व्याप२२१ १२ गीतवृत्तयुता C °गीतनृत्तयुता
नादीति ।
१३ क्षलितकपिशे ( ज्वलितकपिशे नवम उल्लास:
२१ असंतोषो दिवाकृष्ट २२९ १३ °संदंशावृति° C °संदंशावृत्ति
C असंतोषादिवाकृष्ट २३० १० ततोऽत्रापि ० ततो वापि
२६६ २७ संभावनाया c संभावनाय २२ पादादिगतान्त्या
२६८ २१ सामानाधिकरण्यमुत्पाद्यते ०°पादादिगान्त्या
C सामाधिकरण्यमुपपद्यते २३३ ६ तत्समुच्चये तत्समुच्चयो २६९ १३ अध्यारोपस्य आरोपः शब्दो २३५ ५ तृतीयौ त्वन्तरितो
C अध्यारोपः शब्दो तृतीयौ त्वंतरितानंतरितो २७० २४ प्रेमलतिकामिति ० प्रेमलतिकेति ६ एते चादिमस्य व्य
२७१ १६ रस्यतया रम्यतया एते चादिमध्यस्य व्य
२५ °मुखः भ्रमरः 0 °मुखः स्मरः २३६ ६ काव्यगडुभूता
२७४ २२ व्योमग्राह्य° 0 व्यामग्राह्य काव्यगडुभूतता
२७६ २१ वागाद्यनेकार्थप्रत्यायने अनेकोऽर्थ ९ तरवक्त्रादिभिदा
इति विभां ० वागायनेकार्थ 0 °तरचक्रादिभिदा
इति विभा २३७ १३ अन्त्वसन्ते° 0 अन्वसंते.
२७९ १८ कारणकार्ययोः C कार्यकारणयोः २३८ २४ असतामहितो असितामहितो
१९-२० समन्वयेन .. भावलक्षण २४० १७ द्विचतुःपञ्चषण्णां
c omits from उपमेयस्या ० द्वित्रिचतुःपञ्चषण्णां
to °सिद्धयर्थत्वेन १८ चतुर्योगे विंशतिः
२८. विशेष प्रस्तुते सामान्यस्य Comits विंशतिः
c omits प्रस्तुते २४२ २७ शब्दगतत्वेन Comits शब्द २८२ २८ वाच्यार्थे वाच्येथे २४३ १३ दीपमानाभ्यां 0 दीप्यमानाभ्यां २८३ २४ अत्र चेतनेन C अत्राचेतनेन
१४ तत्र तु लुब्धा° comits तु २८६ ११ विनावन्तीन न C विनावन्ती न २४५ २२ Cadds the whole verse
२६ प्रतिबिम्बभावः संगच्छते यत्र तु from अनुरागः to समागमः ।
C प्रतिबिम्बत्वेनोपात्तः यथा चंद्राका०प्र०5
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
[उ. १०
३4]
काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य पाठान्तराणि पृ. पं. प्रतीक
पृ. पं. प्रतीक २८६ २६ लोके भावः संगच्छते यत्र तु
। १७ शातपातः 0 सातपतेः २८७ १५ दैवीं ० देवीं
२९ विरोधेन द्वयोरपि २५ असकृवृत्ती C असकृदृत्तांतौ
C विरोधिनोर्द्वयोरपि २८८ २१ तुल्यस्वभावात्
३०२ ८ संकरत्वाशङ्का ( संकरत्वात् शंका तुल्यस्वभावत्वात्
१० जस्सेग्गवणो C जस्से यवणो २९१ १६ विहितवतिना च आक्षिप्ते इति
१८ लंकार्यः कवि 0 °लंकाय कवि० ० विहितवतिना च योयमार्थः
विशेषस्तु C विशेषतस्तु क्रमः सामर्थ्यापरपर्यायार्थशब्द
२७ दोषज्ञैरपुष्ट C दोषज्ञैरनुष्ट लब्ध आकारप्रश्लेषादर्थशब्द- ३०४ १०-११ भणित्वा उन्मूलिता लब्धो वातेन आक्षिप्ते इति ।
भणिन्योन्मूलिता स्मयो यस्य लक्षितः इति
१२ तेनापि 0 केनापि C स्मयोर्यतयमालक्षितः लक्षत इति
१६ तदु[? किं भूपतीनां ० तदुपनीतां चतुष्कपञ्चकेऽपि दर्शितदर्शिना
२० उविग्गिरीए 0 उर्चिविरीए उदाहरणैरन्यद्
३०५ ७ रूपमैव एकाल° 0 रूपमेवैकाल° . C चतुष्कपञ्चकेपि दर्शिते दर्शितो. ३०६ २२ समानोत्कृष्ट° C समेनोत्कृष्ट दाहरणैरप्यन्यद्
३०७ २३-२४ ताटस्थ्येन प्रतीतिः २९४ १५ अत्रापि श्लिष्टो° C अनोपश्लिष्टो
C ताटस्थेन प्रतीतेः
३१० २२ रसादिविषये रसादिध्वनि २९५ २३ सौकर्येणान्यकृतये C सौकणान्यकृतये
cdrops विषये २९६ ११ अपि तु उत्पन्नस्य तस्य बाधस्तया
३१२ १४ अशोभनानामेवेति C अपि उत्पन्नस्य बोधस्तया
C अशोभननो चेदिति १४ प्रवर्तनाद् ( प्रवर्तमानाद्
३१४ २४ चुम्बनादिसक्तं भुवनादिसक्त १५ कारणसत्ता 6 कारणसत्ताया
३१५ १८ धर्मः धर्मी, भिद्यते ८ भिद्येता
३१६ ९ साधनस्येति यथा रुद्रटेनोक्तं २५ अभेदाध्यवसायकत्वमिति
Cआदौ साधनस्योक्तिस्तदनुसाध्यC अभेदाध्यवसायादेकत्वमिति
स्येति यथा रुद्रटेनोक्तं २९७ १३ प्रयोज्यमाना C प्रयुज्यमाना ३१८ २८ परपुरुषे तथा कुचयुगले गतसंबन्धः C गतः क्रमसंबन्धः
C परपुरुषे न वो कुचयुगले १९ घनेन्दुरवी c धनेंदुरीची
३२१ २३ अनयोश्चेति प्रतिवचनयोः __ क्रमसंबन्धावगतिरिति आर्थ
C अनयोश्चेति प्रभप्रतिवचनयोः C क्रमसंबंधात् गतिरित्यार्थ विशेषरूपं क्व.. वैधम्र्येण यथा
३२२ २१ रूपेणाकारेण 0 रूपेणालंकारेण c विशेषरूपं वैधर्येण यथा
३२३ १७ वणो वर्णो जवः सैन्यं च C जवः
३२५ १९ योगेऽनुप° 0ोगोनुप पांशूनामिति सैन्यं च
३३५ २४ व्यङ्ग्यावसररस० जातेनिम्नत्व जातेरनिम्नत्व
C व्यङ्ग्यावसरे रस विश्वंभरावजाते विश्वभरत्वे जाते
३३६ १७ संयोजनेन चारु° 0 संयोजने चारु । त्वमपि अत्र पशूनाम् इति
३५० १२ भक्षुण्टसिति ० भकुंटसिति पांशुत्वजाते.
३५२ १७ वर्म विद्वदादीनां ध्वनि 0 °त्वमपि अत्र पांशुत्वजाते.
० वर्म विदुषां ध्वनि
*N. B.-It need not be pointed out that the A BC mes. of K. D. K.P.S. are different from A. B. C. mss. of K.P. For their sources see Introduction, pp. 4-6.
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
III
काव्यप्रकाशस्य A संज्ञित-ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि।
पृ.
२
प्रथम उल्लास: पृ. पं. प्रतीक १ ३ परामशति note स्मरति
__ जयति note अत्र नमस्कृति
वस्तुध्वनिय॑तिरेकोऽलंकारः (= ग्रंथस्य गीः प्रमाय (1) निर्माप्यत्वाद्भारती उचिता ध्वनि वो
रन(1)) ब्रह्मणो शक्तिविशेषस्तथा २ ४ इह note काव्यालंकारे १ प्रवृत्तिः note अभ्यासः
निर्माणे note असच्छत्याधानद्वारेण समुल्लासे note सच्छक्तिसंस्कारद्वारेण अत्र हि note विशेषोक्तिरखंडेषु कारणेषु फलावच इति वचनात्त
च्छायामात्रमत्र ८ ५ रन्यैः note आनंदवर्धनप्रभृतिभिः
न्यग्भावित note न्यग्भावितं वाच्यं यस्मिन् व्यंग्ये तस्य व्यंजन तरक्षमस्य अह्वाय note झगिति दर्दुरः note मंडूकः
७९
पं. प्रतीक
परमाणुत्वादीनां note वैशेषिकसिद्धांतत्वात् कथं हिम note वाक्यादिरित्यके पक्ष व्याख्याय जातिरेव वेति द्वितीय व्याचष्टे हिमेत्यादि कैश्चिद् note यौगसौगतैः स note स साक्षात्संकेतिते मुख्येऽर्थः तत्र मुख्येऽर्थेऽस्य शब्दस्य यो व्यापार स मुख्य उच्यतेऽभिधा वा मुख्यार्थबाधे note तस्य मुख्यस्यार्थस्य योऽग्रे संबंधेऽनेकप्रकारे लक्ष्येणार्थेन सह लक्षणं note..... लक्षणोक्ता तस्या एतौ भेदौ । रूढिलक्षणायास्तु योगप्राचुर्यान्नास्ति नैयत्याऽतोऽभिधातुल्यैवैषां कुन्ताः note भट्टमुकुलमतमपाकरोति कुन्तादिभिः note स्ववाच्यमत्यजद्भिः स्वसंयोगिनः note अनेन तद्योग उक्तः गौरनुबन्ध्य-note प्रयोजनमत्र पुरुषाणां बाहुल्यप्रतीतिर्न तु भयंकरत्वादि । एवं ह्येतत् गौणी साध्यवसाना स्यात् लक्षणा । गौरयमिति यथा श्रुतार्था note अभिहितान्वयवादिमते उभयरूपा note यत्र वस्तु वस्त्वन्तरे उपचर्यते तत्रोपचारमिश्रणमस्ति यथा गौर्वाहीक इत्यत्र लक्ष्यस्य note तटादेः लक्षकस्य note गंगादेः
१८
९
द्वितीय उल्लासः ११८ योग्यतां note भट्टमतं
°पदार्थोऽपि note अपि-शब्देन पदार्थय वाक्यार्थवाचि प्रभाकर
स्थाक्षेपः। १० वाच्य note पदेनेति विशेषः १२ १५ °संकेतस्य note नरस्य शब्दा
दर्थविशेषप्रतिपत्ते वयवः क्रिया note अवयवक्रियैव रूपं यस्योपाधेः
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
36]
२०
पृ.
१९ १
२१
३०
३०
३१
पं.
३३
प्रतीक
उभयरूपा note यत्र स्वमर्थ सर्वथा त्यजन् शब्दान्यलक्षयति तत्र लक्षणेन लक्षणा यत्र स्वार्थमपि वदन् अन्यमुपादत्ते सोपादानलक्षणा यथा कुंताः प्रविशन्ति । तत्त्व note एकत्व
४
९ सारोपा note यथा गौर्वाहीकः
२
साध्यवसाना note गौरेवार्य
४ गुणौ note गुणा जात्यादयस्तैनिर्वृत्तौ गुणौ
अत्र हि note स्वार्थं गोत्वं तत्सहचारिणो जाड्यादयस्त एवैकार्थ
१
२
८
काव्यप्रकाशस्य A संशित- ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि
प्रतीक
चतुर्थ उल्लासः
यस्तत्र note उत्तरत्र ध्वना
वित्यनुवादात्स ध्वनिरिति योज्यं 'मूल' note लक्षणामूलं च तद्भूढव्यं (?)यं च तस्य प्रासत्यविवक्षितं
४
समवायात्
परार्थ note वाहीक
लक्ष्य
लक्ष्यमाणगुणैः note माणाश्च ते गुणाश्च लक्ष्यमाणस्य गुणा इति वा तत्राद्येन समासेनायौ द्वौ पक्षौ गृह्येते गुणलक्षणाप्रधानत्वात् द्वितीयेन तु तृतीयपक्षोsवच्छिद्यते तल्लक्षणाप्रधानत्वात् ।
८ वृत्तेः note शब्दव्यापारस्य लक्षणा note पूर्वोपात्तोपादान
१०
लक्षणा
३ अर्थान्तर note अर्थान्तरं प्रतिपाद्यार्थलक्षणं प्रतिपादयन्नेव सन् तत्र note शब्दस्य व्यंजकत्वे
तृतीय उल्लासः
४
२ अर्थ प्रोक्ताः note व्यंजकतया अर्थव्यंजकता note अर्थाः कथं व्यंजका भवन्तीति
११ अइपिहुलं note अयि पिहुलमित्यादीन्युदाहरणानि वाच्यमथमपेक्ष्य दृष्टानि (?)
१३ गम्यते note तटस्थेन
१२
गुरु note कालविशेषाद्यथा
पृ.
३७
३८
३९
४२
४४
४५
पं.
ง
३
" वचना note न वचनमात्रं ब्रवी म्यपि त्वाप्ततयोपदेशं ते यच्छामीति समग्रोपि ध्वनिरेव उपदेशरूपतया परिणमतीति अत्र वच्मीत्यनेन नोपदेशदानं लक्ष्यमस्य त्वाप्तत्वं व्यंग्यं ।
२ बहु यत्र note उपकृते
३
१
[ उ. २-४ .
9
'मास्स्व note अत्र म्रियस्वेति ध्वन्यते
२
३
प्रधानतया note इंगितया १ बलाद् note विभावादिकारणरूपाः काव्यबलादनुसंधेयाः । अनुभावास्तु भुजाक्षेपकटाक्षादयः कार्यरूपाः शिक्षातोनुप [1] देया: । ] ( न ह्यशिक्षितो नटः एताननुसंधातुं समर्थः । व्यभिचारिणस्तु सहकारिरूपाः कृत्रिमनिजानुभावार्जन बलादनुसंध ( । तव्याः ॥ ) २ रपि note न हि नाव्यसमये सीतादयो मुख्याः सन्ति ।
७
भावशान्ति note अत्र कार्यतया स्थित इति संबंधः ।
रसाद्यलं note रसवदाद्यलंकाराद्
५
तत्रा note वस्तुनः
६ चर्व्यमाणो note स्वाद्य एव केवलं विदग्धसभ्यानां चाभिघातो note विभावादयो न ममैव नापि परेषामेव किंतूभयसाधारणाः । ततश्च न ताटस्थ्येन नात्मगतत्वेनेति सिद्धं भवति ।
१ अनुमाने note विषये
नियत° note यः शृणोति पश्यति स नियतः ।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ.४] काव्यप्रकाशस्य - संक्षित-ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि [97 पृ. पं. प्रतीक
पृ. पं. प्रतीक ४५ ८ प्रमातृ note प्रमाता हि सामा- ५२ वहः जिकः कश्चिद्विदन्यः भवति
३ घर्घर note घराश्च ता मध्यजानाति "रसस्तथान्येषामपीति
रुद्धाश्च ताः करुणाश्च स्वाकार note प्रमातुरात्मीया
कृतमनुमतं गुरुपातकं note कार एव
द्रोणाचार्य स्वपितरि पांडवैर्मारिते ६ विभावादि note काव्योक्तैनटेन
अश्वत्थामा तत्पुत्र आह प्रकाशितैः
किरीटिना note अर्जुन ४७ १ वबोधशालि note अवबोधः
९ विजहति note पंचमो मध्यमशालि च तत् मितयोगिज्ञानं च
पुरुषस्य तः३ प्रत्येयोऽप्यभि° note ज्ञाप्यः
प्रयाति note मृगः ६ चोभयात्मक° note कार्यज्ञा- ५६ १ हरत्य° note देव विषयात्र रतिः . प्यत्वं
२ योग्यतां note मुनिविषयात्र ११ नैकान्तिक note °एते विभा
३ अन्यद् note गुर्वादिविषयं वाद्याः अस्यैव रसस्येत्येकांतो
११ स्तुमः note पुंश्चली प्रत्याह नास्ति ।
१२ विलेभे note विभाजीचकार सूत्रे° note विभावानुभावे हि
१५ अनेक note शाब्द्या तु वृत्त्या भरतोक्ते सामान्येन
एककामुकविषयमेव ४८ ९ केवलानामेवास्ति स्थितिः note
१६ उपादानं note कर्तृ एते ह्येकैकशोपि शृंगारं न व्यभि
७ कोपस्य note शांतिरिति योगः चरंति
१२ औत्सुक्यस्य note उदयः न्तिकत्वं note संयोगाद्रसनिष्प
१३ पराक्रम° note परशुरामस्य त्तिरित्यस्य
१६ स्निग्धो note संधिः । अत्राद्याधै५० ४ नेत्रोत्सवा note सख्येव नायिकैव
नावेगः । द्वितीयेन हर्षः। नेत्रोत्सवः स्त्रीजनस्य
१८ क्वाकार्य note पुरूरवाः प्रलपति ६ प्रवास note जालिका
क्वाकार्य परिचया note पुनः पुनः करणं ५८ १ भावं note ननु यथा भावस्य परिचयः
शांत्यादयस्तथा भावस्थितिरपि ११ लयः note तन्मयत्वं चेष्टामयत्वं
कैश्चिदुक्ता तत्कथं भवतामित्याह १२ अन्यत्र note अन्यस्यां
भावस्थि १५ वृत्त note अंतःपुरमध्ये । न
मुख्य note नन्वेवं भावादीनाबहिरिति सतीत्वमनेनोक्तं
मपि व्यंग्यत्वान्मुख्यत्वं प्रसक्तं १४ निशान्तान्तरे note संजातः
ततस्तेषामप्यंगित्वात्प्राधान्यं स्या१६ एषा विरह note नाम
दित्याह मुख्ये र । रस एव मुख्यः। १८ वक्रोक्ति note.वलना (? च् )च
परं मुख्य रसेपि कदाचित् भाववक्रोक्तिश्च
प्रशांत्यादयो मुख्या भवंति यथा .५१ ३ गतं note रोदनेनापि गलित
परिणीयमानं भृत्यमनुवर्तते राजेति मित्यर्थः
भृत्यस्य प्राधान्य १२ माकुञ्जय note वक्रीकृत्य
२ कदाचन note पाश्चात्येषू१२ भशुचिं note वाममित्यर्थः
दाहरणेषु ५२ २ अशनि note अशनिनामा हुत- ५८ ३ अंगित्वं note प्राधान्य
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
38] काव्यप्रकाशस्य A संक्षित-ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि [उ.४ पृ. पं. प्रतीक
पृ. पं. प्रतीक ५८ ४ स्वानाभ note अनुस्वानश्चासौ ६९ १ तदप्रा° note एतौ विष्णुपुराणसंलक्ष्य ऋ० स्थितिश्च तत्र
श्लोको वाच्योर्थो घंटाध्वानायते व्यंग्योनु
११ दद्यो note लिंगव्यत्ययः रणनायते
प्राकृतत्वात् ५९ १ देवेन note भव्यता मेघाभिधे
काव्यलिङ्गम् note यन्त्र हेतुरेव येने.. येत्यर्थः इंद्रो वै वर्षतीति
परिचुम्बनादिको वाक्यार्थत्वं भजते ३ °भिधाय note अथ राजा वर्णयितुं
स हेतुः। प्रक्रांतः अथ च मेघाभिधायकः
७. ५ वयस्यराले note तारुण्ये वक्र कश्चिदुच्यते
७ व्यतिकर , मिश्रीभावं योग४ मानो note भवता देवेनेव
पद्येनेत्यर्थः करवालमंबुवाहमिव ऊर्जितेन गर्जि
समुन्मिष , उत्पद्यन्ते तेनेव । धाराभिर्जलैरिवेति।
अवस्थाः , कामिनामिति ६. ३ एकैकस्य note समासापेक्षया
शेषः ऐकपा
१. वारजन्तो, विरहावस्थायां ४ उत्कर्षे note उत्सवैः
हि न प्रतिभाहर्षदः note प्रमोदखंडनः
सते हारः ९ अलंकार्यस्य note ध्वन्यमानत्वेन
१३ °वअस्सएण note स्तनभर एव ६१ ३ कवेस्तेनो note तेन कविना
वयस्यो यस्य सोपि विषमोचतनिबद्धो यः क्वचित्तस्य वा यौढोक्ति
त्वाञ्चलयत्येनं यतः न क्रमति मात्रं तस्मात् ।
१५ सरो note स्मरः किलाभिलाष६२ १४ विरोधा note यो हि निजमप्यधर
मुत्पादयति दशति स कथमरिवधूनामधरा- ७१ १ णवपुण्णि note सोपि क्षणमात्रन्मोचयतीति
मेव रज्यते यतः २२ येषां note दिग्मातंगानां
को तं note केन संबंधेन २२ अर्थाधि note कीर्तिरिय
भ्रातृत्वादिना संबंधः बिसिनीत्याधुल्लेखेन
३ न तत note न तदनंतरं ___ ४ दर्शनात् note हेतुः
६ निवारिओच्चिअ note घनालिं५ तिष्ठन्ती note साध्य
गनाद्वारितः ५ ततः note राज्ञः सकाशात्
उन्वयरंत note अधिकीभवन् ६ त्यजन्ती note कंदराभिः शरणं
स्पर्शविघ्नहेतुत्वात् दत्तमित्यर्थः
रमिअं note तदोक० एतावन्मथेरं...क इव note ब्रह्मा हि जडे
- यापि दृष्टं ततस्तदनंतरे कथं रमितं जलजे उपविष्टः । इयं तु वाणी
त्वयेति कथय सचेतने
१० किं ति note किमिति ६४ १२ अनुदिण note तनोस्तनूकरणं ७२ २ व्याजेन note एवं रूपयाऽपहुत्या विना नान्यत्कर्म यस्याः
१४ संवादादौ note गृध्रगोमायु६६ २ युत्थ note यो यं व्युत्थः स
संवादं भारते प्रकरणं. वाक्य एव । न पदे । क्रिया
१८ स्थितो note न त्वस्तमितः - वच्छिन्नं च वाक्यं सर्वत्र
७४ २ लोकोत्तरेणैव note चुंबनरूपेण
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. ४-५ ]
पं.
पृ.
७४
७५
७८
८१
७६ १.२ ° व्यत्ययस्य note प्रहासो व्यंग्य इत्युत्तरेण योगः
८५
८६
८७
८८
९१
२
१४
९२
५
मन्ये note त्वमेव मन्यसे यथाहमनया सह क्रीडिष्यामीत्यर्थः ३ सर्वनामवचनप्रातिपादिक note एकवचनबहुवचनरूपार्णा व्यंजकत्वमिति योगः ।
● पिणो note व्यंजकत्वं
४
१०
अन्येषां note पदैकदेशानां
२ पडोहर note पश्चाद्भागशून्यगृहे
१०
१६
9
पञ्चम उल्लासः
२ द्रोणाद्रि note यत्र संरोहिण्यो मूलिकाः संति ।
करः note करि अवसः । (?)
रसः note अंग
१३
१५
काव्यप्रकाशस्य 4 संक्षित ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि
पं. प्रतीक
४
प्रतीक
तदेवो note लोचनं
षष्ठ्याः note व्यंजकत्वं इति
योगः
9
१०
भावस्य note रतेः
रसाभास note शृङ्गार भावाभास note रति भासौ note भ
भावप्रशम note भावस्य रसाख्यस्यांगमिति योगः
१५ कंचित् note रत्यर्थिनं पांथं
२
9
४
अत्युच्चाः note पंचाक्षरी ना (?)
कवि देवस्येति ।
अस्माकं note प्रत्यर्थिनां
योक्तानि note प्राक्तनैः कश्चिद् note प्राक्तनादिकः व्यङ्ग्यं note काक्वा क्षिप्तमिति
योगः
एषां note गुणीभूतव्यंग्य भेदानां पूर्ववत् note ध्वनाविव पंचात्रिंशदादयः प्रागुक्ता ये ते
सर्वेपि शुद्धध्वनिवत् गुणीभूतन्यं
येपि भेदा इत्यर्थः ।
ध्वन्यङ्गता note ध्वनिरूपजा
पृ.
९२
९५
९६
९८
७
संकरैः note त्रेधा संकरः अनुग्राह्यानुग्राहकः १ । ससंदेहः २ । एकपदप्रतिपाद्यश्च ३ | उदा० यत्ते सीमंतचिह्न मरकतिनीत्यादि । १ जह गंभीरो जह रयणेत्यादि । २ । स्पष्टोत्थसत्किरणकेसरसूर्यबिंबवि - स्तीर्णेत्यादि ३.
६ व्यंग्यत्वं note इदमत्रैपये । सर्वेपि प्राच्या भेदा गुणीभूतव्यंग्यस्यापि वक्तव्याः । परं वस्तु वालं कृतिर्वेत्यादौ प्रागुक्ते सूत्रे यत्र वस्तुमात्रेणालंकारो व्यज्यते न तत्र गुणीभूतव्यंग्यमिति । यदि तत्र व्यंग्येऽर्थो मुख्यो न भवेत्तदा वस्त्वेव मुख्यं स्यान्न च वस्तुमात्रे काव्यशब्दप्रवृत्तिः । शब्दचित्रत्वेन जघन्यत्वात्
तैः note गुणीभूतव्यंग्यभेदैरिव
स च प्रभेदैः note ध्वनिः 'र्थान्तरसं note त्वामस्मि वच्मि वि...
८
९
२
३
५
[39
तदाश्रयात् note अलंकृतिषु विश्रान्तत्वात्
१०
तिरस्कृत note उपकृतं बहु य मूले note उल्लास्यकलिकरवा नियंत्रणेन note अभिधायादारस्य (?) नैयत्ये वाक्यार्थस्य शब्दस्यैतान
६ ° मूले note अर्थशक्त्युद्भवेऽप्यर्थोयं भेदाः १२ यथा भरससि रमणी इत्यादि ।
८ 'रखण्ड note लोकरूढापेक्षापि... न्विताभिधानवादिनां... ९ दीर्घदीर्घतरो note यथेषुश्चर्म भित्त्वा मांसं भिनत्ति तद्भित्वाsस्थि । तदपि भित्त्वा जीवितं गृह्णाति एवं वाक्यमेव परंपरयाव्यंग्यमभिधत्ते इति तात्पर्यशक्तिवादिनः ।
अत्र note निःशेषच्युतेत्यत्र
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
नात्
40] काव्यप्रकाशस्य A संशित ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि [उ. ५-७ पृ. पं. प्रतीक
प्र. पं. प्रतीक १०२ १८ °ध्यात्मना note स्वरूपस्य ११० ३ काव्यद्वये भेदेऽपीति शेषः
स्थितिः शब्दार्थचित्रयोः note २० किमु स्मरस्मेरविलोकिनीनां note
यत्र शब्द शब्देचित्रप्राधान्य स्त्रीणां
तत्राप्यर्थचित्रं गौणं सम१०३ ५ °स्तुतिवपुषा note रूपेण
स्त्येव । एवमर्थचित्रप्राधान्येऽपि ११ सव्वर्ण note सवर्ण
शब्दचित्रं गौणं । न त्वकै मर्थापेक्षा note संकेतितार्थ
चित्रं क्वापि काव्ये समस्ति । वाचकत्वात् ।
१० तदेतद् note सुप्तिब्युत्पत्ति१०५ ९ शक्यते note तद्योग इति वच
लक्षणं
द्वयं तु नः note भामहस्य १३ महं णुमजिहि note महमित्य
शब्दालंकाराऽर्थालंकाराश्च मता व्ययमावयोरित्यर्थः ।
इत्यर्थः १४ बाधः note यतोयमभिधामूल एवेत्यर्थः।
सप्तम उल्लास: १०६ ३-४ पुच्छभूता note एवं चाभिधा
११२ ३ तदाश्रयाद् note रसस्याश्रय वयवत्वमस्याः
भूतो यतो वाच्यस्ततोसावपि ५ तदनु° note लक्षण
मुख्यः ६ तदनु° note लक्षण
उभय note रसवाच्य तदनुगतमेव note ध्वननं
शब्दाद्या note शब्दवर्णरचना१०७ १ नियतसंबद्धः note नियतेन निय
नामपि रसे वाच्ये चोपयोगसद्भतत्वेन इयत्तयेत्यर्थः संबद्धो नियं
वादोषा वाच्या इत्यर्थः तेषु त्रितः
note शब्दादिषु २ अनियतसंबद्धः note अत्र ह्यनि
७ दुष्टं note पदारब्धत्वाद्वाक्ययतोऽथी व्यंग्यः। कामुकस्यान्यः।
स्यादौ पदोषानाह समीपस्थसखीनां त्वन्यः।
९ मथ note एते क्लिष्टाद्याः ३ ९ वाक्यार्थः note न पदार्थः
समासार्थे वेत्यर्थः वाक्यमेव note न पदं
१०. मेव note एते १६ पददोषाः १. येऽप्या note शब्दब्रह्मवादिनः
१२ रंगितैः note उपलक्षितया ८ १ अनुमान note अनुमानचर्चा- ११२ १३ कार्ताय note कृतार्थत्वं
न्यायप्रवेशतर्कादवगंतव्यः। ११३ २ तिन्दुक note टिंबरूयं तद्रूपःnote व्यंग्योऽर्थ इति योगः
११ दैवतो note अधिष्ठाता ५ गृहे note यत्र सा दुःशीलास्ते ११४ ५ उज्वलीकृत note प्रशोभीकृत ५ भ्रमण note कर्तृ
८ सत्रिभिः note यायजूकैः ६ अभ्रमण note कर्म
११५ २ °दरः note आदरः भयं च १०९ ५ अत्रैव note अत्रापीत्यर्थः
१० गतं note तदप्यवाचक ९ व्यक्तिवादिना note ध्वनिवादिना
१३ नृत्ता° note नृत्यंती झटिति
यत्पादमूर्ध्वं करोत्यसौ दंडशब्दः
१४ विदधत् note बिभ्रत् षष्ठ उल्लास:
११६ ४ अरालितां note वक्रितां ११० ३ तत्र note शब्दार्थचित्र- ११७ २ °कलापो note धनं निविडं
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
3.0]
पू. पं. पं.
११७ २
११८
११९
१२१
१२२
१२३
११
१३
१४
तस्य भावस्तत्र ।
एतत् note हिंसादिकं
योगशास्त्रादौ note योगशास्त्रादौ न तु व्याकरणे
१ निषिद्धं note रूढि प्रयोजनं वा विना
७
9
काव्यप्रकाशस्य संशित- ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि
पं. प्रतीक
५ मोइन note मूच्छी सुरतं शत्रूणामेव भूपतेथ
१० पावका' note पवित्रान्वये ११ "वं note पुपु त्रिधाडली
१५ संदेहः note इति संदिग्धदोषः
9
"प्रतीताः note इत्यप्रतीतदोषः
५
प्रतीक
रुचिरः । स चासौ कलापक्ष अस्य note बर्हिणः
१२
मुभी note रावणः प्राह २०. "मात्र" note न तु मौर्वी साहि धनुष्मतः सामान्येन सिचैव
'मुक्ता note न मुक्ता या प्राग्भवताऽतिप्रियत्वात्
९ तो विं note खेदं विरत्वात् अस्मान् note सखी आह
न त्रस्तं यदि note भार्गवः प्राह
यता note व्याप्त आशयो
यस्य स तथा शुद्धाशय इत्यर्थः
५ इंद्रः । मूकबधिरोऽनेडमूक:
note अप्रयुक्तः
९ प्रसिद्धाः note मतो निहतार्थ दोषः
११
१० कुविन्दस्त्वं note राजपक्षे पृथ्वीलाभयुक्तः । कोलिकधान्यपक्षे पटयसि note पटू करोषि प करोषि गुणाथ ग्रामान सरितश्च नद्यः ता । दवरकसंदोहा तो याः
सरमः । ताम्भः ।
वनस्थाः note किन्नराः । वने जले तिष्ठति वनस्था धीवराः १३ विगता note या हि पटं करोति तद्भार्या कथं विगताच्छादनं भ्रमति
३ 'सर्पति note गच्छेती स्वार्थ गच्छंतीच
कंपना note सेना रागवंशाच ला-च
वामलोचना note वामे शत्री
लोचनं यथा गुलोचना च
ग्रहण note प्रहार
४
का० प्र० 6
ट.
१२३
१२४
१२९
१३०
१३१
१३२
१३४
रजः note क्षतं सत्त्वरजोभ्यां परं तमो यस्यां
६ वेदय note बोधय - रविकिरणेभूमितत्तमाः कृता । जागृहीत्यर्थः ।
तवं
४ प्रतिजहि note स्पेटय
११
१
५
१३३ १२
१२
३ त्वादिति note श्रुतिकटु
४
लभ्य note भविष्यत्येव
१२
निषेक note अपयसां निषेकं
कुरुते दशां कासामिव चेतोभुवो भल्लीनामिव
१३ कुरते note भहिः पाठ्यत इति यसदिन कुरुत इत्यर्थः
शब्दः note एषु त्रिषु वृत्तेषु पेलसप्रेतशब्देकदेशाः श्रीडाउ
गुप्सा अमंगला
"तरां note प्रभवति
१३
१५
t 4i
मात्रा note भरतसंबंधिन्या
उदाहार्य note भविमृष्टविधेयांशं
विरुद्वा प्रतीति: note इति विरुद्धमतिकृदोषः
संदेहः note विवक्षितश्च साधुषु चरतीति ।
२०
'मेव note न क्षमते
६ वाक्यमेव note वाक्य एवैते दोषा इत्यर्थः
१३ घार note कर्मधारयः अाणि note मंत्रायुधानि
१५
अत्र note रोइरसे विकट note कठोर १६ निशुंभ note भंग "विदुः note मुक्तः
४ संधे note परः संनिकर्ष संहिता । सेव चात्र संधि
१३४ १७
१३५
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
42]
पृ.
१३५
१३६
१३७
१३८
१३९
१४०
१४१
१४७
१५०
१५२
पं. प्रतीक
९
१३
२
३
४
६
१३
9
अत्र यदिहान्यत्स्वादु note एवं नाम सुंदरत्वमस्य कामस्य यत्क्षणमपि परिहर्तुं न शक्यतेऽयं च दोषो यस्य विपक्षैरपि ब्रह्मचारिभिः प्रपन्नः । गुण एवेत्यर्थः ।
भकारी note एतौ क्वापि च्छंदसि निषिद्धाविति ज्ञायते ।
कन्या note कुमारीमृत्तिका
संभाराः note संभारा मृदंतक्षेप्या लाव्यादयः
मुग्ध note मुग्धाया विदग्धायाश्च सभायामध्ये र
६ रतं वा note इदमप्यनुचितमक्रमश्चेति योगः
द्वितीया note द्वितीयस्मिन्नर्दे गत एको वाचकशेषः शब्दांशो
यस्य प्रथमार्धस्य तत् ।
१
गुणानां note विशेषणानां
१४
नरपति note युधिष्ठिरः
५ प्रकृतेः note भग्नः प्रक्रम इति
योगः
८ 'जेयं note स्त्रीपक्षे निष्करुणकुलजा
भुज note दोषाकरो यत्कुलं तस्य श्रीः
९ कुट्टनी note महती चासौ कुट्टनी च
१०
सर्वगा note गम्यागम्यगामिनी ३ विशेषा note नियमानियमयोः
विशेष | विशेषयोः परिवृत्तं विनि'यो येषु वाक्यार्थेषु ते तथा
६
७
१२
काव्यप्रकाशस्य A संक्षित-ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि
[ उ. ७
पं.
प्रतीक
५ विध्यनु note विध्यनुवादावयुक्तावनुचितौ यत्र
६ दुष्ट note दुष्टं पदमित्येतदेव दुष्ट इति लिंग विपरिणामेन संध्यत इत्यर्थः
१२ परिमलं note चमत्कारं कमलगंध च
११
८
सपदमेषु note चरितेषु
प्रगृह्य note यत्स्वरेण न संधीयते
तत्प्रगृह्यं पदं
'मुत्तपते note दीप्यते
संघा० note दुड्डी- लण्ड-चिंकु
शब्दाः कस्मीरदेशे वरांगमेढ्योनिमणिवाचकाः
उसावत्र note कष्टत्वं यथा
हतं लक्षणा note छंदोलक्षण
पृ.
१५२
१५३
१५५
१५६
१५७
१५८
१५९
१६०
१६१
१४
६
पस्पश note भालमालप्रायाः (?) । निरर्थकाः ।
३ कर्णालं note कर्ण । कृप । हार्दिक्याः राजविशेषाः ।
१
न्याय्यः note न चेदेकत्र । इति दुष्क्रमो नाम दोषः । २ स्वपिति note सूत्रहठ्यां कोपि वेश्यामाह । ग्राम्यत्वोदाहरणमिदं
१२ इदं ते केनोक्तं note प्रसिद्धिविरुद्धो यथा
१३ हेम्नः note कटकाख्ये
रुचयः note अभिलाषाः किरणाश्च
वस्तुनि
१६ प्रसिद्धं note ́ इति लोकविरुद्धं ३
प्रसिद्धः note न त्वंकुरोगमः । इति कविप्रसिद्धिविरुद्धं
५ महसि note सति
१५
१८
सुदृशि note कामिन्यां
यान्त्यां note उपपतिसमीपे
१५
१६
शास्त्रेण note विरुद्धं
विहितम् note इति कामशास्त्र
विरुद्ध
२ विमुक्तः note मुनि
१०
● विषादिता note अत्र किमद्भुतं । सदैव । प्रकृतिरेव । इत्येतेषां ततः किमित्येक एवार्थः ।
द्वक्त्र note तस्या वक्त्रं ज्योत्स्नामिति note ज्योतिष्मती रात्रिज्योत्स्ना
४ अर्थित्वे note माल्यवान् रावणमातामहः प्राह
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म
उ. ७-८] काव्यप्रकाशस्य A संशित-ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि पृ. पं. प्रतीक
पृ. पं. प्रतीक १६१ ६ परस्य note रामस्य
१८२ ७ वदातं note अवदातं सातिशयं १३ रावणः note जगदानंदकारित्वाद्यौंतरसंक्रमितवाच्यः
९ पूभयथापि note दिव्यप्रति. प्रयत्नपरिबोधितः note अश्व
बद्धमदिव्यप्रतिबद्धं च वर्ण्यमित्यर्थः स्थामा दुर्योधनं प्रत्याह । मा १८९ १ सरसं note एकत्र सामं । अन्यत्र चेद्रोणाचार्यपदे करोति तदाई
सस्नेहं सर्वान् रिपून्हन्मि । ततस्त्वं १८९ ६ मर्धः note शृङ्गारविभावनिश्चिततया रात्रौ सुखं शेषे ततः
प्रतिपादन शयितः सन् स्तुतिभिरेव यदि
प्रसिद्ध note प्रसिद्धेन तेन गुणेन परं बोध्यसे न चिंतया । अत्र शेषे
अधिकत्वलक्षणेन या उपमानता विधेयमयुक्त प्रयत्नेन बोध्यसे
तया उपात्तमस्थिरत्वं · इत्यस्यैव विधेयत्वात्।
१९० ५ रसान्तर° note अविरुद्धं १६ जाल्मो note मूर्खः
१९१ ४ स्मर्यमाण note मर्यमाणः १६४ ७ अन्यत्र note आरूढत्वावगति
शंगारः करुणस्तु साक्षाप्रतीययंत्र नास्ति तत्र केवलो ज्या-शब्द
मानः विरुद्धोपि न दुष्टः । तथा . इति योगः
विरुद्धेन सह साम्येन विवक्षितो १६५ १ समर्थनं note रूढेष्वेवायमप
विरुद्वोपि न दुष्टः वादः
१९४ १ उपोदल्यते note उद्वतबलः १६६ १ दोषाणां note अदुष्टता
क्रियते १६७ ८ वचसि note कष्टत्वं गुणः।
२ गुणः note अप्रधानो रसः १६८ ११ राजते note वीडाश्लीलमिदं
संस्कार note रसांतरेणोपो. १४ अकृमेः note अमंगलाश्लील
द्वलितः १७५ १० वीडा note स्वशब्देनोपादानं
प्रधानं note अंशिनं रसं मील note मीलंत्यो भ्रुवौ यस्याः
तथा note तेन प्रकारेण कृता. १७६१ °दुच्च° note उच्चे भुजमले
स्मसत्कार इत्यर्थः लोक्यते भालोकेन तां
१९५ १ रसस्य note करुणस्य कोमल° note कोमलकपोल
रसान्तरेण note शृंगारेण तलेऽभिषिक्तो रोमांचादिना व्यक्तो
२ रसशब्देन note अंगिन्यंगत्वयोनुरागस्तेन
माप्तौ यौ इत्यत्र अंगिनि रसे ५ मतिवृत्त्य note तारुण्य इत्यर्थः
इत्यत्र शब्देन स्थायिभावो रत्यादि६ तनोति note कोपि स्वजायां
लक्ष्यते । स चांगित्वेनोदाहरणद्वये पश्यन् विकारैरात्मानं मोटयतीति
दर्शित एव तात्पर्य। प्रहारा° note संग्रामे आयुधैः
अष्टम उल्लासः प्रहाराः
१९५ ६ शौर्यादि note शूर इति व्यवह१७७ १३ निहुअर note उपपतौ
रंतीति योगः। १७८ ३ रतिविलापे note तत्र हि करु
विश्रांत° note पृथग्जनाः णस्य पुनः २ प्रकाशनं कृतं
१२ वंध्या note वामनादयः ९ °वधे note तन्त्र हि मूलनायको १९७ १ उपकुर्व note गुणविवेकमु
त्वाऽलंकारविवेकमाह
३
९
न
विष्णुः
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
44] काव्यप्रकाशस्य A संक्षित-ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि [उ. ८-१० पृ. पं. प्रतीक
दशम उल्लास: १९७ ९ "मुखेन note शब्दालंकारतया
पृ. पं. प्रतीक इत्यर्थः १३ भवती note नमनाय यंती
२५३ ३ साधर्म्य note सामान्य १० गुणनिर° note न हि व्यक्तो
भेदे note विशेष गुणोत्र कोपि प्रतीयत इत्यर्थः
२५६ ६ स्थितौ note आर्थी भवति २ गलित note चित्तस्येति शेषः
१० स्वप्नेऽपि note आर्थी ११ शुके note शुष्कंधनस्या
१२ चकित note भार्थीपूर्णा वाक्ये ग्निरिति सः
१४ सरसिज note पूर्णा श्रौती वाक्ये १ गुणः note मुख्यवृत्त्या तु रस
२५७१ अत्यायतै note पूर्णाश्रौती समासे एवेत्यर्थः
५ अवितथ note पूर्णा आर्थी समासे
९ गाम्भीर्य note पूर्णा श्रौती तद्धिते स्पर्शाः note वर्गाः
१० दुरालोकः note पूर्णा आर्थी तद्धिते लघू note लध्वंतरितो
२५८ ९ तद्वत् note तया पूर्णोपमया २०९ ५ शान्ता note शांतमपस्य नतां
तुल्या वर्तते या लुप्तोपमासा तद्वत् गीशरीरव्यतिरिक्तस्य चिंतनं येषु
१० पंच note न तु षट् । वाक्ये ३ कृष्णा note द्रौपदी
समानधर्मलोपे श्रौती काव्य note नाटकादि । तत्र
२५१ ३ करवाल note समासे समानचानुद्धता एव रचनादयः इति
धर्म लोपे श्रौती १ कविसमयः
°पमा note तत्र समास आर्थी १
४ विषकल्पं note तद्धिते धर्मलोपे नवम उल्लासः
आर्थी 'तद्धिते श्रौती निषिद्धा ४ २२३ ६ पदभङ्गे श्लेषेण यथा note वक्रो- २६० १२ रुहरुहि note औत्सुक्यं
क्तिर्हि द्वेधा पदानां भंगेन अभंगे- २६११ विप् note किप आयि लोपः । नेत्यर्थः
समालश्च । तौ गच्छति इति २२४ ६ छेक note छेकाश्च वृत्तयश्च ताः
द्वौ भेदो। गतः प्राप्तः।
९ मरीहसि note मरिष्यसि २२५ १६ शाब्दस्तु note न तु वार्णः २६२ १ त्रिलोपे note धर्म उपमानवादि २२६ १३ एक note तत्रेति व्याचष्टे २६९ २ आरोप note ज्योत्स्रादयः भिन्ने note अन्यत्र । तं व्याचष्टे
आरोप्य note भस्मादयः २४२ ६ कष्टत्वा note शब्ददोषाः शब्द
कापालिकी note रात्रिरेव का गुणाः शब्दालंकाराः अर्थदोषाः
योगिनी अर्थगुणाः अर्थालंकाराः
मुद्रा note मुद्राशब्दः प्रशंसार्थः २४६ ४ य note शब्दोर्थो वा
परिमलशब्दोप्येवं ५ भूमि note तेन स्वयं च पल्लवे
पादत्रये note समस्तवस्तुविषत्यादावपि शब्द एव कविप्रतिभा
यस्योदाहरणं पादत्रयं चतुर्थपादे संरंभगोचर इति शब्दालंकारतैव
स्वपहुतिः।
नियता note नियतस्यारोपण ७ रसादि note अर्थमुखप्रेक्षित्वमेव
तदेवोपायो यस्य । भावयति।
२७२ ५ वैरिञ्च note सहस्त्रं युगपर्यंत
मह ब्रह्मणो विदुः इत्यादि
युक्तेति
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ. १०] काव्यप्रकाशस्य A संक्षित-ताडपत्रादर्शस्य टिप्पणानि [45 पृ. 4. प्रतीक
. पृ. पं. प्रतीक २७२ ९ मारोपण note आरोपणं ३१६ १ पौर्वापर्य note आदौ साध्यनिमित्तं यस्य
निर्देशः। यद्वा भादौ साधनोक्तिः २७६ १२ भूपौ note विभाकरराजाभिधः
पश्चात्साध्योक्तिरिति २७७ १ भेदकैः note विशेषणैः
गूढो note हस्तस्योपगृहं उपगृहनं शिष्टः note समानः
३१८ ९ यदासत्या note येषु प्रागुक्तेषु विशेष्यस्य note उपमेय
आसत्त्या २८५ ३ चरम note पश्चात् अधिष्ठितमिति
दृष्ट्वा भिनं note व्याप्तं २८६ ४ बिम्बनं note ननु प्रतिवस्तूप
वयस्या note विपरीतरतिमायामिवैकार्थमेव साम्यवाचकं
कारिण्याः पदद्वयमिह प्रयुज्यते-परिवारपद
एषा note विरोधः सो विरोधेऽपि परिभोगयोग्यत्वयोरेकरूपत्वात् ।
विज्ञद्वन्द्वेन यद्वच इति बिरोधमन तु निर्वाणमनोभवज्वलम
लक्षणमत्राप्यास्ति विकासौ भिन्नावेकार्थों
३२५ १५ सिंहिकासुत note सिंहः २९१ २ आक्षिप्ते note व्यंग्ये
सुतः note राहुः २९९ ७ अहो हि मे -note विशेषः
३२६ ५ महतो note तनुस्वेप्याश्रयावाच्य° note सुहृदं प्रति
श्रयिणौ यन्महीयांसौ स्यातामिति ८ त एव धन्याः note इदं सामान्य
योगः।
१२ दृष्ट्वैव note वैधयं
अत्र note भनाश्रयस्त्रिजगढूपः ३०१ . सुतत्त्व note परमार्थविदां
तनुरपि महतो यशोराशेर्मात्रैव ३०३ २ व्याजेन note कोथैः श्रौती
मानेनाधिकस्याभवनान्महीयस्त्वेस्तुतिः परमार्थतस्तु निंदेति
°द्विष° note अन मुद माश्रिता३०६ ६ मतं note अभीष्टं
स्तन्व्योपि विधात्रा तनुलक्षणे ३०७ ३ न्यूनेन note प्रहारलक्षणेन
माश्रये ममावान्महीयस्तयोक्ता उत्तमस्य note वसुधारूपस्य
३२७ १२ कृती note उपहासे ३०९ ८ ये प्रेक्ष्य...note हयग्रीवं राजानं
संबंधि note विष्णुसंबंधिना १२ दृष्टे note निर्विकल्पेन
मुखेन संबंधः सादृश्यरूपः। ३०९ १३ यथा दृष्टं note भेदविकल्पो हि
३२७ १४ लक्ष्मणा note कृत्वा विकल्पस्यैव व्यापारः। स झभि
३४३ १५ नियमेन note चक्री कर्ता नमपि वस्तु गौः शुक्लश्चल इत्येवं
चक्रारिपंक्तिमेव स्तौति तान्यदिभिनत्ति । भिन्नमपि पदार्थ...
व्यादिरूपेण गौरित्येवं संसृति
३४६ ९ काकुत्स्थात् note कुशात् ३१. ८ उपलक्षणीये note वर्णनीये
कुमुद्बती note कुशभार्या वाक्यार्थकृत इत्यर्थः
३४७ ६ उपात्तेनैव note न तु गम्यमानेन
नोक्तः
स्तुति पर
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
IV काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य A. B. संज्ञितादर्शयोः
पार्श्वगतानि टिप्पणानि । प्रथम उल्लासः
पृ. पं. प्रतीक पं. प्रतीक
४५ १२ नाट्यं लोकधी । स्वरालंकारसं३ १० शास्त्रं B. note वेदः
युक्तमस्वस्थपुरुषाश्रयं नाट्यं त्याख्यान° B. note दृष्टान्तः
नाव्यधर्मी। पुराणेतिहासयोः
४७ १९ हितपर° A. note मितेतर ७ १४ रेकस्य A. note व्यतिरिक्तत्वेन ५८ ११ रतिर्देवादिविषया A. note व्यक्षालितम् A. note प्रक्षालित
भिचारिभावो ह्यत्र स्थित एव मिति युक्ते न व्यङ्ग्यं प्रतीयते
प्रतीयते, न शान्त्यादिविशेषणक्षालनस्य वाप्यामेव संभवात्
विशिष्टः। निर्मष्टो A. note नितरां
६० १९ पक्षस्याग्रणीः A. note स्वकीय
वर्गस्य द्वितीय उल्लास:
६० २२ लंकारो A. note व्यतिरे१४ १९ विभिन्नेषु A. note वक्ष्यमाणं
__ काख्यः । व्यङ्ग्यो हि व्यतिरेको१६ २३ अन्योऽर्थ A. note गङ्गाशब्देन
ऽत्र । व्यङ्ग्यं चालंकार्यमेव न त्वलंसाक्षात्तटस्यानुक्तेः
कारो भवति इत्यर्थः। २४ लक्षणोऽर्थ A. note °णो योऽर्थ ६३ २६ कुर्वन्तीति A. note मानिन्यः B. लक्षणस्य ।
२५ वर्तमानत्वे A. note विषये १९ १२ यत्र शब्दः A. note यथा गङ्गायां
२६ संबन्धमात्रं A. note गूढं घोषः यथा कुन्ताः प्रविशन्ति
७६ २८ जितमिति A. note फलप्राप्तिः २४ २४ तस्य A. note लक्ष्यस्य
पश्चम उल्लास: तृतीय उल्लासः
८६ २५ ऊर्जस्वि A. note हननवृत्तेः ३४ १३ उदाहृतं A note माए घरोव
२१ असोदेति A. note भावसंधियरणमित्यादिना
भर्भावस्याङ्गं यथा 'असोढेति ।
पश्येत् A. note भावशबलता चतुर्थ उल्लासः
भावस्याङ्गं यथा ३७ २८ धर्मान्तरं B. note आप्तत्वं
२७ व्युत्क्रम A. note विरुद्धोऽयं ४० १३ वासनात्मया A. note जन्मकाले
क्रम इति ऽपि पुरुषेण सहोत्पन्न इति हृदयम्
२७ विबोधः A. note विशिष्टो बोधः ८ भावार्जनं A. note यतो व्यभि- ८९ ११ वाच्यतामिति A. note वाच्याङ्गतां
चारिणां निजानिजानुभावाः सन्ति ९२ २५ स्वे A. note स्वकीया तच्छ° A. note नट
२६ तात्पर्यम् A. note एकत्रैव वृत्ते. तनिष्ठं A. note शरीर
निर्गुणीभूतव्यङ्ग्यं चालंकारश्च प्रतिशीर्षकादि A. note आहा
भवत्येवेत्यर्थः। यानुभाव
९३ २९ कषायवर्णीकृतः A. note प्रियः भुजाक्षेप A. note सात्विक
९७ २६ समितत्वाद् A. note असंकेतिभ्रक्षेपकटाक्षादिकं A. note
तत्वात् उपाङ्गानुभाव
१०. २७ बहिर्देव A. note लिङ्गतो यथा १५ १२ लोकनाट्यधर्मि A. note स्वभा
१०१ १७ उद्गाता A. note समाख्याया वाभिनयोपेतं नानास्त्रीपुरुषाश्रयं
यथा
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
३.५-१०] काव्यादर्शकाव्यप्रकाशसंकेतस्य 4. B. संशितादर्शयोः पार्श्वगतानि टिप्प० [ 47
पृ. पं.
पृ. पं.
१२
१७० २७
१०४
११०
१२५
१३३
१६७
१३ प्रियाया A note प्रियायाः सव्रणमधरं दृष्ट्वा रोषो भवति । अप्रियायास्तु दृष्ट्वा परिहारहेतुरानन्दो भवति । तद्धर्षो मा युष्माकं भूदिति
सखीविषयं A note नायिका
१५
१७०
प्रतीक
अपराधी A note अलिनाsधरः खण्डितो न त्वन्येनेति
षष्ठ उल्लासः
२७ अत्रानुप्रासे A note छेकानुप्रासे शब्दालंकारे
१३६ १८
सप्तम उल्लासः ९ इत्यादी A note असावस्याः स्पर्शो वपुषि बहल श्चन्दनरसः अयं कण्ठे बाहुः शिशिरमसृणो मौक्तिकसरः किमस्या न प्रेयो यदि परमसह्यस्तु विरहः ।
१५१ २६
१६०
२३
२५ अश्लील : A note न फलमद्यापि लभते सा विरहिणीत्वादित्यर्थः । 'संधौ A note डढणपरस्तु इत्यादिरर्ते तद्वर्गपञ्चमं । निशाचरी A note ताडका वस्त्राम्भोज A note भोजराज प्रतिच्छिन्ना वक्ति
२८ तद्विद्य A note सा विद्या
येषां ते
२५ यथावन्नानते A note तथा भूतप्रकाशात्मना प्रकाशन्ते ये ते तथा ।
१७५ २७
१७७
२०
२१२
२२३
२२४
२२६
अष्टम उल्लासः
७
मन्थल्लिका A. note मन (? त ) लिका
१४ पर्याबन्धेषु A note संज्ञायां कनि
२०
प्रतीक
ध्येयं A note अनेन भूसंविदित्वं तस्योक्तम्
२२
२३
१५
पादान A note दोषः
तथात्रेति A note तथाविधच्छायया उक्तेरभावात् । अतोऽत्रानुभावानां कष्टकल्पनव्यक्तिः
३०८ २३
२४
नवम उल्लासः
श्लेषेण A. भभङ्गश्लेषेण च ।
note भङ्गश्लेषेण
A note भने तु
न्यस्य A note द्वितीयस्य
यायावरीयस्तु A note पण्डित
नाम
२३ अनन्वयेन A note अ[न] न्वयनाम्नाऽलंकारेण ।
दशम उल्लासः
२६७ १३ तिकाल A note भाल
३०३ ११
क्रिया A note अंहिप्रसारणअङ्गदीर्घीकरण-कण्ठवक्रीकरण-मुखवक्षलग्नानि संस्थानोक्तयः । घण्टो A. note कापालिकः । शस्त्रम् A note पतति भुजं इत्येत् पदद्वयार्थतया परिणत
इत्यर्थः ।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
अकाण्डे छेदः
अकाण्डे प्रथनम्
अक्रमम्
अगूढव्यङ्ग्यम्
अगूढव्यङ्गया लक्षणा भङ्गस्यातिविस्तृतिः
अङ्गिनोऽननुसंधानम्
अतद्गुणः अतिशयोक्तिः
अत्यन्ततिरस्कृतम्
अद्भुतरसः
अधमकाव्यलक्षणम्
अधिकपदम्
अधिकम्
अनङ्गस्याभिधानम्
अनन्वयः
अनभिहितवाच्यम्
अनवीकृतः
अनियमपरिवृत्तः
मनुचितार्थम्
अनुमानम्
अनुवादायुक्तः
अनुप्रासः
अनुप्रासदोषाः
अनुभावविभावयोः कष्टकल्पनया व्यक्तिः
अन्य शब्दसंनिधिः
अन्योन्यम्
अपदयुक्तः
अपदस्थ पदम्
अपदस्थसमासम्
अपराङ्गव्यङ्ग्यम्
अपस्मारः
अपह्नुतिः
अपुष्टः
मप्रतीतम्
काव्यप्रकाशस्थविषयाणां अकाराद्यनुक्रमः
पृष्ठ
अ
१७८
१७८
१५०
८४
२४
१७८
१७८
१८७
२८४
३८
५२
१०
१३७
२७९
१८७
२६३
१४२
१५९
१६०
११४
१२२
२२४
२९५
१७७
३१५
१६२
२७
३२०
१६२
१४४
१४५
८५
५४
२७५
V
१५२
११७
१२४
११३ |
१२२|
विषय
अप्रस्तुतप्रशंसा अप्रस्तुतप्रशंसादोषाः अभवन्मतयोगम्
अभिधामूलव्यञ्जना अभिधालक्षणम्
अभिनयः अमतपरार्थम्
अमर्षः
अर्थः
अर्थदोषः
अर्थभेदाः
अर्थव्यञ्जकत्वम् अर्थशक्त्युद्भवध्वनिः अर्थान्तरन्यासः
अर्थान्तरे संक्रामितम्
अर्थालंकाराः
अर्धान्तरैकवाचकम्
भलंकारदोषाः
अलंकारलक्षणम्
अलंकार व्यङ्ग्यत्वम् अलंकारस्योपकारत्वम्
अलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यः
अवहित्थम्
भवाचकम्
अविमृष्टविधेयांशम्
भविवक्षितवाच्यः
अविशेषपरिवृत्तः
अश्लीलम्
असंगतिः
असमर्थम्
असुन्दरव्यङ्ग्यम्
असूया
अप्रयुक्तम्
अस्फुटव्यङ्ग्यम्
f Adopted from the Anand&śrama edition of K. P. S. of Manikyacandra.
पृष्ठ
२७९
३०१
१३९
२७
१५
२८
१५१
६४
२७
१५२
११
३१
६१
२४८
३७
२६३
१३९
२९५
१९७
५८
१९७
३८
-५४
११४
१२३
१३३
११८
१२४
३७
१६०
११५
१२३
१३३
१३६
१६३
२७७
११३
५१
५३
९०
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
काव्यप्रकाशस्थविषयाणां अकाराधनुक्रमः
विषय काम्योद्भवकारणानि कोमला
आ.
आक्षेपः भालस्यम् मावेगः माशीः
२२५ ११८ १२४
क्लिष्टम्
खगबन्धः
२४७
१४६
५४
२६४
२०२
Yr mm
३१०
उग्रता उत्तमकाव्यलक्षणम् उत्तरम् उत्प्रेक्षा उत्प्रेक्षादोषाः उदात्तम् . उन्मादः उपनागरिका उपमा उपमादोषाः उपमेयोपमा उपहतलुप्सविसर्गम् उपादानलक्षणा उपाधिभेदाः उभयालंकाराः
गर्भितम् गर्वः गुणभेदाः गुणलक्षणम् गुणालंकारभेदः गुणीभूतव्यङ्ग्यभेदगणना गुणीभूतव्यङ्ग्यभेदाः गूढव्यङ्ग्या लक्षणा गौडी गौणी लक्षणा
२२५ २५३ २९६
2GWOGNEWSM,
२६४
१३५
११७
ग्राम्यम्
-
२५१
ग्लानिः
५३
एकावली
११०
चपलता चित्रकान्यस्वरूपम् चिन्ता च्युतसंस्कृतिः
भोजः
छेकानुप्रासः
२२४
औधिती औत्सुक्यम्
जडता
५४
कथितपदम् करुणरस:
३३४
१५३
काकाक्षितव्यङ्ग्यम् कारणमाला
२७३,२१९
तदुणः तात्पर्यार्थः तुल्यप्राधान्यम् तुल्ययोगिता त्यक्तपुनःस्वीकृतः त्रास: त्रिलुप्तोपमा
२८९
२६२
काव्यफलम् काम्यभेदाः काव्यलक्षणम् काव्यलिङ्गम्
का०प्र०7
दीपकम्
२८७
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
56]
काव्यप्रकाशस्थविषयाणां अकारानुक्रमः
विषय
पृष्ठ
विषय
१५५
२८६
१५३ २५१ २५४
२७
दृष्टान्तः देशः दोषगुणालंकाराणां शब्दार्थगतस्वम् दोषलक्षणम् दोषापवादः
२४२ ११२
पुनरुका पुनरुक्तवदाभासः पूर्णोपमा प्रकरणम् . प्रकाशितविरुद्धः प्रकृतिविपर्ययः प्रतिकूलवर्णनम् प्रतिकूलविभावादिग्रहः प्रतिवस्तूपमा प्रतीपम्
।१८७
१६२ १७९ १३४ १७८
दैन्यम् द्विलुप्तोपमा
ध.
प्रत्यनीकम्
तिः ध्वनिमेदपरिगणनम् ध्वनिभेदाः ध्वनेः संसृष्टिसंकरौ
प्रबन्धगतध्वनिः प्रयोजनलक्षणा
२०२ २१०
२७८
प्रसादः प्रसिद्धिमतिकान्तम् प्रसिद्धिविरुद्धः
१४६
निदर्शना निद्रा निरर्थकम् निर्वेदः निर्हेतुः
१२१ १३२
.१५७
फलस्य व्यङ्ग्यत्वम्
.२५
१५६
निहतार्थम्
[११४ २१२२ (१३२
बन्धः बीभत्सरसः
११७
नेयार्थम्
भग्नप्रक्रमम्
१४७
१२४ (१३३ १३७
न्यूनपदम्
पतव्यकर्षम् पददोषाः पदानुप्रासः पनबन्धः परिकरः परिवृत्तिः परिसंख्या
२२६ २४८ ३१६
भयानकरसः भावः भावशबलता भावशान्तिः भावसंधिः भावस्थितिः भावाभासः भाविकम् भावोदयः भ्रान्तिमान्
३०७
३१७ २२५
पर्यायः पर्यायोक्तम् पाञ्चाली पुनःपुनर्दीप्तिः
३०९ २२५
मङ्गलाचरणम् मतिः
१७८
मदः
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
Indire
मध्यमकाव्यलक्षणम्
मरणम्
मालदीपकम्
मीलितम् मुरजबन्धः
यत्तच्छब्दविचारः यथासंख्यम् यमकदोषाः
यमकम्
रशनोपमा
रसदोषाः
रसदोषापवादाः रसभेदाः
रसस्य शब्दवाच्यता
रसाभासः
रीतयः
रूतिलक्षणा
रस स्वरूपम्
रसादीनां पदेकदेशादिगतत्वम्
रूपकम्
रौद्ररसः
लाटानुप्रासः
लिङ्गम्
लुप्तोपमा
य.
लक्षणलक्षणा
लक्षणामूलव्यञ्जना
लक्षणास्वरूपम्
लक्ष्यार्थस्य व्यञ्जकत्वम्
लाक्षणिकशब्दः
यक्त्रादिवैशिष्टयम्
वक्रोक्तिः
वस्तुव्यङ्ग्यत्वम् वाक्यगतध्वनिः
ल.
काव्यप्रकाशस्थविषयाणां अकाराद्यनुक्रमः
विषय
वाक्यदोषाः
वाचकस्वरूपम् वाच्यसिद्ध्यङ्गव्यङ्ग्यम् वाच्यार्थविचारः
वाच्यार्थस्य व्यञ्जकत्वम्
वामनोका गुणाः
वितर्कः
व.
पृष्ठ
५४
२०३
२८९
२६३
३२०
२४७
५३
१२६
२९७
**
२२७
२६३
१७४
१७०
४८
१७५
३९
७३
५६
२२५
२३
२६८
५२
१८
२४
१५
१२
२४
२२५
२८
२५८
३१
२२३
६२
६६
विद्याविरुद्धः
विययुक्तः
विनोक्तिः
विप्रयोगः
विप्रलम्भशृङ्गारः
विबोध
विभावना
विरुद्धमतिकृत्
विरोधः
विरोधिता
विवक्षितान्यपरवाच्यः
विशेषः
विशेषपरिवृत्तः
विशेषोक्तिः
विषमः
विसंधिः
वीररसः
वृष्यनुप्रासः
वैदर्भी
व्यक्तिः
व्ययार्थस्य व्यञ्जकत्वम्
व्यञ्जकशब्दः
व्यअनास्थापनम्
व्यतिरेकः
व्यभिचारिणः शब्दवाच्यता
व्यभिचारिभावाः
व्याघातः
व्याजोक्तिः
व्याजस्तुतिः
व्याधिः
व्याहतः
मीडा
{
[51
पृष्ठ
१२१
१३४
१२
८९
१२
११
२०५
५४
१५७
१६२
३०५
२७
५१
५४
२९५
१२०
१३१
२९९
२७
*
३३३
१६०
२९७
३२५
१३५
५२
२२५
२२५
२७
१२
३०
९५
२९०
१७५
५३
३३५
३१७
२०३
५४
१५३ ५४
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
52 ]
काव्यप्रकाशस्थविषयाणां अकारायनुक्रमः
विषय
पृष्ठ
विषय
३२३
३४८
३१०
शक्तिसंकोचकाः शङ्का शब्दभेदाः शब्दार्थोभयशक्तिमूलध्वनिः शब्दालंकाराः शब्दालंकारार्थालंकारभेदः शान्तरसः शुद्धा लक्षणा शुङ्गाररसः श्रमः
२२३
३४३
२४८ २६७
समाधिः समाप्तपुनरात्तम् समासोक्तिः समासोक्तिदोषाः समुच्चयः सर्वतोभद्रम् ससंदेहः सहचरभिः सहोक्तिः साकाङ्क्षः साधकबाधकप्रमाणानि साध्यवसानलक्षणा सामर्थ्यम् . सामान्यपरिवृत्तः सामान्यम्
१७
१६१ ३०४
११२ २१२१
. ३३९
श्रुतिकटु
(१३२
श्रुतिलिङ्गादिविचारः
१६०
| २३९
२७६ ३४९
- MM
श्लेषोपमा
सारः
संकरः संकीर्णम्
३३७ १४५ (११७
१२३ १५६
संदिग्धः
सारोपलक्षणा साहचर्यम् सुप्तम् सूक्ष्मम् स्थायिनः शब्दवाच्यता स्थायिभावाः स्मरणम् स्मृतिः स्वभावोक्तिः . स्वरः
३३८
संदिग्धप्राधान्यम् संदेहसंकरः संभोगशृङ्गारः संयोगः संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यम् संसृष्टिः सनियमपरिवृत्तः सभङ्गाभगश्लेषः समम्
२०२
हतवृत्तम्
१६०
२४३ ३२४
हास्यरसः हेतुः
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लासः क्रमाङ्कः
पद्यम्
३ १३ अयि पिहुल जलकुंभ अकलिततपस्तेजोवीर्य ●
७
२५२
(महावीरच० अं. २
श्री. ३०)
७
१०
१०
१०
४
१०
७
७
५
३
१०
५
५
७
८
७
७
७ १५९ ५ १२९
२३९
८
१०
२०८अ
५८१
४६७
४५०
७३
५९३
998
३९४
११९
VI
काव्यप्रकाशोदाहृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमः
२०४ अतिपेलवमतिपरिमित
२५६ अतिचितवगगनसरणि
१३७
अत्ता इत्थ णिमज्जह
२३ अत्ता एत्थ णिमज्जइ
३४६
२२४
१४९
अकुण्ठोत्कण्ठया पूर्ण १३४
३४४
२९२
२८४
६४
१४२
३४८
५८०
""
अखण्डमण्डलः श्रीमान्
अण्णं सहसण
अतन्द्रचन्द्राभरणा
अतिथिं नाम काकुत्स्थात्
(रघु० स. १०. १) २४६
१३३
१५२
१०५
३४
२५७
"
११६ अत्रासीत्फणिपाश ०
अत्यायतैर्नियमकारिभि०
अत्युच्चाः परितः स्फुरन्ति ( पञ्चाक्षरी)
( बालरामायणम् अं. १० श्री. २०) अत्रिलोचनसंभूत०
अनङ्गमङ्गलगृहा०
नगरप्रतिमं तद
अननुरणन्मणि०
पृष्ठे
३१
अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा
अद्यापि तनखदुर्ग●
(परावेणी ५ हनुमन्ना० २) १४५
अद्रावत्र प्रज्वलत्यग्निरुचैः २०२ अधिकत
( रुद्रटालंकारः अ. २ श्लो. २३)
९ ३६४ अनन्तमहिमन्यास •
८६
२६९ अनम्यसरी यस्य
१० ४१० अनयेनेव राज्यश्रीः
८५
११८
९०
१३८
११२
२०९
३४४
(आनन्दवर्धनः देवीशतकम्) २३७
१५७
२६३
उल्लासः क्रमाङ्कः
१० ४१२
९
३८२
७
४
७
८
९
१०
७
७
१०
१०
४
१०
४
१०
पद्यम्
अनवरत कनक वितरण •
अनुरागवती सन्ध्या ( ध्वन्यालोकः १ ) २९९ अप्रोतवृहत्कपाल०
१०
२०
३४
२१९
३४२
श्लो. ३९)
९ ( वृ० ) अविन्दुसुन्दरी नि
(महावीरच० नं. १
श्लो. ३५ )
अन्यत्र यूर्व कुसुमावचार्य
३५६
५४७
१८५ अपाङ्गसंसर्गितरति
२८८ अपूर्वमधुरामोद०
२३४
अन्यत्र व्रजतीति का
अम्यास्ता गुणरवरोहण०
अपसारय घनसारं ( कुट्टिनीमतम्
श्लो. १०३ )
४४६
४८२
५७
४३२
९०
33
39
अपाङ्गतरले शौ
अप्राकृतस्य चरितातिशयैः (महावीर अं. २
(उमटलं.) अब्धेरम्भः स्थगित० अभिनवनलिनीकिसलय०
अमितः समितः प्राप्तैः
अमुस्मिल्लावण्यामृत०
अमुं कनकवर्णाभं
( म. भा. शां. प. ) २१६ अमृतममृतं कः संदेहः
पृष्ठे
२६३
( विक्रमो० अं. ४ श्रो. १०)
५८५ अयं पद्मासनासीनः
२४५
१६६
३३
५०
१३७
१९७
२२५
३२८
१२६
१६४
१४२
२४४
२८२
३००
६०
२७५
७३
(वामन सू० ३.२. ) १३६ ५११ अयमेकपदे तया वियोग:
३१२
सरस्वतीकण्डा० परि. १
३४४
श्री. ६१) १० ४१८ अयं मार्तण्डः किं स खलु २६७
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९१
२४१ २६१
54]
काव्यप्रकाशोदाहृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमः उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम्
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् १० ४९० अयं वारामेको निलय०
७ २६० अस्त्रज्वालावलीढप्रति. (भल्लटशतकम्
(वेणी० अं. ३ श्लो. ७) १५५ श्लो. १०८)
७ २८७ अस्याः कर्णावतंसेन १६३ ५ ११७ अयं स रशनोत्कर्षी
१० ४२० अस्याः सर्गविधौ .. (म. भा. स्त्रीप.)
(विक्रमो०
अं. १ श्लो. १०) २६८ ९ ३७३ अयं सर्वाणि शास्त्राणि
१० ५५७ अहमेव गुरुः सुदारुणानां ३३१ ४०८ अरातिविक्रमालोक.
९ ३५३ अहो केनेदृशी बुद्धिः २२३ ३८९ अरिवधदेहशरीरः
१० ५४३ अहो विशालं भूपाल (उद्भटालं. व..) २५१
(काव्यादर्शः १० ४९६ अरुचिर्निशया विना ३०५
परि. २ श्लो. २१९) ३२६ २८४ अरे रामाहस्ताभरण
१० ४८१ अहो हि मे बह्वपराद्ध० १६३
२९९
४५ अहो वा हारे वा ७ २७८ अर्थित्वे प्रकटीकृतेऽपि
(उत्पलः । भर्तृ. वै. श.(1)) ५५ (महावीर. अं. २ श्लो.९)१६१
४ ३८ आकुख्य पाणिमशुचिं ५१ ९ ३६९ अलंकारः शङ्काकर० २३९
१० ३९८ आकृष्टकरवालोऽसौ २५९ ७ १९८ अलमतिचपलत्वात्
५ १२६ आगत्य संप्रति वियोग० ८९ (बिह्नणचरितम् श्लो. ५८) ३१
. २७९ आज्ञा शक्रशिखामणि ७ २०२ अलसवलितैः १३२ ४
(बा. रा. अ. १ श्लो. ३६)१६१ ६१ अलससिरोमणि घुत्ताणं ६१
१० ५७१ आत्ते सीमन्तचिह्न ९४ अलं स्थित्वा श्मशाने
(हनुमत्कविः . . (म. भा. शां. प.)
खण्डप्रशस्तिः) ४२७ अलौकिकमहालोक० २७३
७ ३०८ आत्मारामा विहितरतयो० १४९ अवन्ध्यकोपस्य
(वेणीसं० अ. १ (किरातार्जुनीयम्
श्लो. २३)
१६९ स. १ श्लो. ३३) ११५
३८३ आदाय चापमचेलं २४५ ४३० अवाप्तः प्रागल्भ्यं २७५
४४५ मादाय वारि परितः १० ३९५ अवितथमनोरथपथ० २५७
(भद्देन्दुराजः) २८२ १० ५२७ अविरलकमलविकासः
७ २०१ आदावञ्जनपुअलिप्त १३२ (रुद्रटालं.
४ ९६ आदित्योऽयं स्थितो अ. ७ श्लो. ६०)
(म. भा. शां. प.) ५ १२१ अविरलकरवाल.
१० ५४१ आनन्दममन्दमिमं ७ २७१ अष्टाङ्गयोगपरिशीलन० १५७
(रुद्रटालंकारः अ. ९ ४०२ असितभुजगभीषणा० २६०
श्लो. ४७) ४६३ असिमात्रसहायस्य २९१
७ १६३ आनन्दसिन्धुरति. १० ४६४ असिमानसहायोऽयं २९२
१० ४२६ आलानं जयकुअरस्य २७२ ५ १२३ असोढा तत्कालोल्लसद० ८७
१५५ आलिङ्गितस्तत्र भवान ११७ ७ १९१ असौ मरुञ्चुम्बित
७ ३२३ भालोक्य कोमलकपोल. १७६ (हनुमन्ना०, पद्यवेणी ५) १२८ १. ५०० आसीदअनमत्रेति ३०७
८६
66.6
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
उल्लासः क्रमाङ्कः
१०
७
७
१०
१०
३
७
४
७
७
४
१०
१०
७
३
७
१०
१०
५
१०
8
99 20 20
७
पद्यम्
६०२ माहूतेषु विहङ्गमेषु
४
८
१४
१८८
४३
२२३ इदमनुचितमक्रमश्र
२६५
इदं ते केनोकं कथय
४१९
इन्दुः किं क कलङ्कः
४६५
इयं सुनयना दासीकृत ० (उद्भटालं० )
उ भ णिञ्चल निष्पन्दा
(गाथासस०] स. १गा. ४) १२
३१
१२६
३०५
१४८
काव्यप्रकाशोदाहृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमः
५३
(भल्लटशतकम् ६९ ) ३४९
१३८
१५६
२६७
४३३
२४५
१७
उण्णिदं दोब्बलं
उत्कम्पिनी भयपरि०
उत्फुलकमल केसर ० ( नागानन्दम् अं. १
श्लो. १४ ) उत्सिक्तस्य तपः परा० (महावीरच० अं. २ श्लो. २२)
४२६ उद्यति चिततोर्यरश्मि •
०
(शिशुपाल स. 11 श्री. २०)
पृष्ठे
उस्कृत्योत्कृत्य कृत्ति
(माल. मा. अं. ५ श्लो. १६ ) ५३ उत्तानोच्छूनमण्डूक०
१६८
उदयमयते दिङ्ना लिन्यं
उदेति सविता ताम्रः
उद्देशोऽयं सरसकदली ०
२८६
उद्यतस्य परं
५९८
उच्चयो दीर्घिकागर्भात्
४३८ उसतं पदमवाप्य वो लघुः
११५ उनिकोकनदरेणु०
४१६ उन्मेषं यो मम न सहते
२५ उपकृतं बहु तत्र
२६६ उपपरिसरं गोदावर्याः २१५ उर्व्यसावत्र तर्वाली
२९२
११४
५७
२७८
२७६
१४७
३२ १६३
३४८
२७९
८४
२६५
*
१५६
१३६
५९
६४
२९५
४ ५५ उल्लास्य कृष्णकरवाल ० ७१ उल्लोलकर ०
१०
४७१. ए एहि किंपि की एवि
१०
५५५ ए एहि दाव सुन्दरि
३३१
१० ४७७ एकस्त्रिधा वससि चेतसि २९८
उल्लासः क्रमाङ्कः
४
५२
१०
७
२
७
७
७
७
४
१०
aaaa 99 a
५ १३५
५५३
१०
१०
१०
७
१०
कपाले माजीरः प०
(शार्ङ्ग० भासः) कमलमनम्भसि
१०
४४९
९ ( वृ०) कमलमिव मुखं
७
१०
७
४४१
G
१४३
११
२३५
५
(उषाहरणम् )
३४० हि गच्छ पतोत्तिष्ठ ध्वन्या० ३)
३३० भौत्सुक्येन कृता
२२५
४६
पचम् एकस्मिन् शयने
(अमरुश० लो. २२) एतत्तस्य मुखात्कियत् ( भहटश श्रो. ९४ )
एतन्मन्दविपक्व ०
एद्दहमेत्तत्थणिया
एषोऽहमद्रितनयामुख०
३२५
५१२
१९५
१० ४४७
२०७
१३६
२०४ करिहस्तेन संबाधे
४७५
कर्पूर इव दग्धोऽपि
( बालरामायणम् अं. ३.
श्लो. ११)
कर्पूरधूलिधवल
०
कलुषं च तवाहितेष्व०
कल्याणानां त्वमसि महसां
मा. मा. अं. १ श्लो. ५ )
२७७ कल्लोल वेल्लितदृषत्
[ 35
पृष्ठे
५७
(रत्नावली अं. १लो. २) १८७
9
२८१
११३
२८
काकः कुत्र न घुर्षुरायित० १३९ कण्ठकोणविनिविष्टमीश
( उत्पलः ) कथमवनिप
१४३
कस्मिन्कर्मणि सामर्थ्य
करस व न होइ रोसो
१९२
४१५ कमलेव मतिर्मतिरिव
५५२ करलगहि अजसोमा
३२९
३९९ करवाल इवाचारस्तस्य
२५९
१९२ करवालको सहायो० १२८
१६८
५५
१०३
३३०
२८४
२४३
२६४
२९७
१७६
३१२
१२९
(भलटशतकम् श्लो. ६२ ) १६०
कस्त्वं भो कथयामि
२८३
१३३
१०३
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
२९०
१०
६७
३४७
२७३
561
काव्यप्रकाशोदाहृतपद्यानामकाराधनुक्रमः उल्हासः क्रमाङ्कः पद्यम्
पृष्ठे उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् ७ २५० काचित्कीर्णा रजोभिः
१० ४८८ क्रौञ्चाविरुद्दामदृषद् दृढो० ३०१ (माघ० स. १५
१० ४३५ क्क सूर्यप्रभवो वंशः श्लो. ९६) १४८
(रघु० स. १ श्लो.२) २७८ ७ १८६ कातर्य केवला नीतिः
५४ क्वाकार्य शशलक्ष्मणः (रघु० स. १७ श्लो. ४७) १२६ ७ (वृ०) , ,
१८८ १० ५३० का विसमा देवगई ३२१ ४ ८३ क्षणदासावक्षणदा १० ५२२ किमासेन्यं पुंसां ३१८ ७ ३४१ क्षिप्तो हस्तावलग्नः २४० किमिति न पश्यसि कोपं
(भमरुश० श्लो. २) १९३ (रुद्रटालं. अ.६
६० ४६२ क्षीणः क्षीणोऽपि शशी श्लो. ४१) १४५
(रुद्रटालं. अ. ७ ७ २०८ किमुच्यतेऽस्य भूपाल
श्लो. ९०) १. ४५७ किवणाण धणं णायाण २८७
४१ क्षुद्राः संत्रासमेते ४२९ किसलयकरैर्लतानां
७५ खलववहारा दीसन्ति (रुद्रटालं. अ.८
५९५ गङ्गेव प्रवहतु ते . श्लो. ५०)
१२८ गच्छाम्यच्युतदर्शनेन १० ५२३ किं भूषणं सुदृढमत्र ३१८ १० ५५६ गर्वमसंवाह्यमिर्म ७ १९६ किं लोभेन विलचितः १२९
(रुद्रटालं. अ.८ कुमुदकमलनीलनीर० २९०
श्लो. ७८)
३३१ ४२३ कुरङ्गीवाङ्गानि स्तिमितयति २७०
५६६ गाङ्गमङ्गसितमम्बु ३३५ १० ५०८ कुलममलिनं भद्रा मूर्तिः ३११ ५ ११६ गाढं वक्षसि ताडिते
१७४ कुविन्दस्त्वं तावत्पटयसि १२२ ४ ६४ गाढकान्तदशनक्षत. १९ ४७३ कुसुमितलताभिरहता २९६ ७ ३११ गाढालिङ्गनवामनीकृत ४ ४० कृतमनुमतं दृष्टं वा यैः
(भमरुश० श्लो. ४०) १७१ (वेणी० अं.३ श्लो.२४) ५२
४ ६७ गाढालिंगणरहसुजुमम्मि ६३ २५९ , , , १५३ ४ १०२ गामारुहम्हि गामे ७५ १०९ कृतं च गर्वाभिमुखं
१० ३९६ गाम्भीर्यगरिमा तस्य २५७ (वृ०) कृपाणपाणिश्च भवान्
७ २५१ गाहन्तां महिषा निपान ६६ केसेसु बलामोडिभ
(शाकुन्त० म.२ श्लो. ६) १४८ ४ ६५ कैलासस्य प्रथमशिखरे
१० ४८३ गिरयोऽप्यनुमतियुजो० ३०० ११८ कैलासालयभाल.
१. ४८० गुणानामेव दौराम्यात् २९९ ५२४ कौटिल्यं कचनिचये
५९९ गुणैरनध्यैः प्रथितो. ३४६ (रुद्रटालं. अं.७
३ २१ गुरुभणपरवसपिम ३३ श्लो. ८१)
३१८ ९ ३५४ गुरुजनपरतत्रतया २२४ ७ ३३९ क्रामन्त्यः क्षतकोमला.
_५६३ गृहिणी सचिवः सखी (ध्वन्यालोकः ३) १९२
(रघु०९स.८ श्लो. ६७) ३३३ ७ २२६ ऋकारः स्मरकार्मुकस्य
७ २६४ गृहीतं येनासीः परिभव० . ३२९ क्रोधं प्रभो संहर
(वेणी० अ. ३ श्लो. १९) १५६ (कुमार० स. १३
७ १६९ गोरपि यद्वाहनतां १२१ श्लो. ७२)
१८२ १. ५९६ प्रथ्नामि काव्यशशिनं ३४७
४६१
८५
M०७
1: R
पणाला
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
काव्यप्रकाशोदाहृतपथानामकारायनुक्रमः उल्लास: क्रमाङ्कः पद्यम्
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् १ ३ ग्रामतरुणं तरुण्याः
१० ५३४ जस्से अ वणो तस्से न ३२३ (रुद्रटालं० अ.७ श्लो.३९) ९ १० ५७४ जह गंभिरो जह रमणा० ३३९ . ४२ ग्रीवाभङ्गाभिराम
२१७ जं परिहरि तीरइ (भानन्द(शाकुन्तलम् अं..
वर्धनः पञ्चबाणलीला) १३६ श्लो. ७)
४ ६८ जा थेरं व हसन्ती ६३ ९ ३९० चकासत्यगन्नारामाः २५१ ४ ४८ जाने कोपपराङ्मुखी १० ३९३ चकितहरिणलोललोचनायाः २५६
(सुभा० । शाङ्ग) १० ५७८ चक्री चक्रारपत्रिं
१० ४६६ जितेन्द्रियतया सम्यक् २९२ (सूर्यशतकम् श्लो. ७१) ३४३ ७ ३१७ जितेन्द्रियत्वं विनयस्य १७२ १० ५८३ चण्डालैरिव युष्माभिः
१० ५२६ "
" ३१९ (वामनसू. १२). ३४४
१६५ जुगोपाल्मानमत्रस्तः ७ २३२ चत्वारो वयमृत्विजः
(रघु० स. १ श्लो. २१)१२० (वेणीसं० अ.१
४ ६९ जे लंकागिरिमेहलाहि श्लो. २५)
(कर्पूरमञ्जरी जव. १ ७ २९५ चन्द्रं गता पद्मगुणान्न
श्लो. २०) (कुमारसं० स..
४ ९३ जोहाए महुरसेण ७२ श्लो. ४३)
१६५
२९० ज्याबन्धनिष्पन्दभुजेन ७ २९४ चरणत्रपरित्राण.
(रघु० स. ६ श्लो. ४०) १६४ ७ २०३ चापाचार्यस्त्रिपुर०
१० ४२१ ज्योत्स्नाभस्मच्छरणधवला २६९ (बालरामायणम् अं.२
१० ४७२ ज्योत्स्नामौक्तिकदाम २९५ श्लो. ३७)
१० ४११ ज्योत्स्नेव नयनानन्दः २६१ १४१ ४०७ टुण्डल्लिन्तु मरिहसि
२६१ ८ ३४४ चित्ते चहट्टदि णखुट्टदि २०१
४ ८९ णव पुण्णि मामियं कस्स १ ५३७ चित्रं चित्रं बत बत ३२४
१८ गोल्लेइ अणुल्लमणा ४४ चित्रं महानेष बतावतारः ५३
३ १६ तइमा मह गंडस्थल. ३२ ४ ८२ चिन्तयन्ती जगत्सूर्ति
७ २१३ तत उदित उदारहारहारि १३५ (विष्णुपुराणम्)
१० ४.१ ततः कुमुदनाथेन ५८९ चिन्तारत्नमिव ध्युतोऽसि ३४५
(महाभा० द्रो०५०) ७ १६७ चिरकालपरिप्राप्त. १२०
९ ३५५ ततोऽरुणपरिस्पन्द० २२५ ४ ११२ छणपाहुणिमा
१० ५१६ ते ताण सिरिसहो भर० ७ २५८ जगति जयिनस्ते ते
(आनन्दव०विषमबाणलीला)३११ (माल. माध.
१५ तथाभूतां दृष्ट्वा अं. १ श्लो. ३९) १५३
(वेणीसंहारम् अं.. ७ २९३ जगाद मधुरां वाचं . १६५
श्लो. ११) ७ ११५ जङ्घाकाण्डोरुनालो नख० ११५ ७ २३३ " " , १४२ ४ ८१ तदप्राप्तिमहादुःख. १. ५७२ जटाभाभिर्भाभिः करतः ३३७
(विष्णुपुराणम्) - ५ १२५ जनस्थाने भ्रान्तं
१० ५०६ तदिदमरण्यं यस्मिन् (भट्टवाचस्पतिः)
(रुद्रटालं. भ. ७ ..१० ४२२ जस्स रणन्तेउरए करे २७०
श्लो. १०४) का०प्र०8
१३२
Gmm.
M
८८
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
58]
सासः क्रमाङ्कः
७ १९९
१०
१०
९
७
१०
१०
७
४ १११
४०९
४
४
७
७
७
४
19
७
४
६
७
१०
७
पद्यम्
तद्रच्छ सिधै कुरु
( कुमारसं० स. ३ श्लो. १८ )
५१८ तहं नतभित्ति ( आनन्द
वर्धनः ध्वन्यालोकः ) तद्वेषोऽसदृशोऽन्याभिः तनुवपुरयोऽसौ
तपस्विभिर्या सुचिरेण
५९२
३९॥
१४७
१०
४५६
१८०
५१
१०३
३२२
५६
३१२
काव्यप्रकाशोदाहृतपद्यानामकारायनुक्रमः
पृष्ठे
तस्याः सान्द्रविलेपन ०
( अमरु० लो. २६)
ताण गुणग्गहणाणं
तामनङ्गजयमङ्गलश्रियं ताम्बूलभूत गल्लोऽयं
१८१
३१६ वाला जायन्ति गुणा (आनन्द०
विषमवाणलीला) तिग्मरुचिरप्रतापो
४५५
२३६
तरुणिमनि कलयति
७८
तरुणिमनि कृतावलोकना २६२
तवाहये साहसकर्म
२८७
तस्याधिमात्रोपायस्य
१२३
तिल्कोपास्त्र भाव०
विक्रमो० अं. ३
श्लो. ९)
१४५ तीर्थान्तरेषु स्त्रानेन
८४
तुह वहस्स गोसम्म
१४१
ते दृष्टिमात्रपतिता
१७७
तेऽचैवन्तं सममन्ति
२४७ ते हिमालयमामध्य
( कुमारसं० स. ६ लो. १४)
२२९ स्वमेव सौन्दयां सच
(वामनसू० ३.२.)
त्वयि दृष्ट एव तस्याः त्वयि निबद्धरतेः प्रिय०
(विक्रमोर्व० अं. ४
श्लो. ५५ )
४ ३२ त्वं मुग्धाक्षि विनैव
( अम० श्रो. २७)
५४५ त्वं विनिर्जितमनोभव०
१३२
३१४
३४६
२५२
११४
५७
७५
१७६
१२४
१७२
६०
१७१
११३
६९
१११
१२३
१४७
१४०
२८६
१४३
५०
३२७
उल्लासः क्रमाः पद्यम्
४
४
४
१०
१०
७
१०
20
४
७
९
१०
७
२४
त्वामस्मि वच्मि विदुषां ०
३७ त्वामा लिख्य प्रणयकुपितां
३३८
६३
३३१
१० ५६७
दर्पान्धगन्धगज० दिवमप्युपयातानां
(रुटाल० न. ९ श्लो. ६)
५९९ दिवाकराद्रक्षति यो
५६०
७
२९७
५०७
( मेघदू० उ. मे. श्रो ४२ )
दक्षतानि करजेश्व
३७९
४६२
३० दूरादुत्सुकमागते ( अमरु० श्लो. ४९ ) दूरादुत्सुकम्
शदग्धं मनसिजे (विशालभञ्जिका अं. १ श्लो. २
( कुमारसं० स. १
श्लो. १२ )
देव त्वमेव पाताल ०
देवीभावं गमिता
(रत्नावली ? )
२०९ देशः सोऽयमरातिशोणित •
( वेणीसं० अं. श्लो. ३३)
४ २७ दैवादहमत्र तया
२५३
३
२२
१० ३९७
३४८
दीधीवेवी समः कश्चित् १६६ दुर्वाराः स्मरमार्गणाः
(शार्ङ्ग० प०। शत्रुकः ) ३११
१०
४३७ ५ (०) द्वयं गतं संप्रति
'रुद्रटालं० भ. ७
श्लो. २९) दोभ्यां तितीर्षति तरङ्ग०
( कुमारसं० स. ५ सो. ७१)
१८७ इयं गतं संप्रति
(कुमारसं० )
99
पृष्ठे
३७
"
द्वारोपान्तनिरन्तरे
धन्यस्यानन्यसामान्य०
५१
१९१
६२
३३३
४८
१८७
२३५
२४४
२८६
१३४
४१ २७८
१०२
१२६
१५०
३३
२५८
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशोदाहतपधानामकाराधनुक्रमः
१२४
ms
m
सारसान्चमनाराज्य०
२६१
१२१
१७७
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् १ ६२ धन्यासि या कथयसि
(शाङ्ग । विजिका) ६२ ७ १८३ धमिल्लस्य न कस्य
(वामनसू० २-१) ५६५ धवलोसि जइवि
(गाथासप्त. श. ७ गा. ६५)
३३४ १० ५३६ धातुः शिल्पातिशय ३२४
७ २११ धीरो विनीतो निपुणो० १३५ १० (वृ०) धुनोति चासिं तनुते ३१३ १. ४१४ न केवलं भाति नितान्त. २६३ ४ ९५. न चेह जीवितः कश्चित्
(महाभा० शां. प.) १० ५५० न तज्जलं यन्न सुच्चारु०
(भट्टि स. २ श्लो. १९) ३२९ १६८ न त्रस्तं यदि नाम
(महावीर० अं. २
श्लो. २८) १. ५१३ नन्वाश्रयस्थितिरियं
(भल्लटश० श्लो. ४) ३१३ ५७५ नयनानन्ददायीन्दोः ३३९ ७ १६४ नवजलधरः संनद्धोऽयं
(विक्रमो० अं. ४ श्लो..) १२० २४४ नाथे निशाया नियतेः १० ४९९ नानाविधप्रहरणैर्नृप ३०६ ९ ३५२ नारीणामनुकूलमाचरसि २२३ ९ ३८१ नाल्पः कविरिव स्वल्प० २४५ १. ४७८ निजदोषावृतमनसा० २९८
४६९ नित्योदितप्रतापेन ४७४ निद्रानिवृत्तावुदिते २९७ ५९७ निष्पेतुरास्यादिव तस्य ३४८ ५५१ निम्ननाभिविवरेषु यदम्भः ३२९ ४२८ निरवधि च निराश्रयं च २७३ ५८ निरुपादानसंभार०
(नारायणभट्टः । सब
चिन्तामणिः) ७. ३०६ निर्वाणवैरदहनाः
(वेणीसं० अं. १ श्लो.७) १६८ ४ ८६ निशितशरधिया ... ३२८ निहुभरमणम्मि
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् १ २ निःशेषच्युतचन्दनं
(अमरु० श्लो. १०५ ()) ९ ७ १८४ न्यक्कारो ह्ययमेव मे १२४ ४ १०० पथि पथि शुक चचु. ४ ५९ पंथिम ण इत्थ ७ २४१ परापकारनिरतः ४ १०८ परिच्छेदातीतः
(माल. माध. अं.१
श्लो. ३४) १० ४८९ " ".
३०१ ४०६ परिपन्थिमनोराज्य. २९ परिमृदितमृणालीम्लान०
(मा. माध. अं.१
श्लो. २५) ८ ३४९ परिम्लानं पीनस्तनजघन०
(रत्नावली. अं. २ श्लो. १२)
२१० ७ ३२६ परिहरति रतिं मति
४ ९१ पविसंती घरवारं १० ४९२ पश्चादनी प्रसार्य
. (हर्षचरितम् उछ्वास ३
श्लो. ५) ५ १२४ पश्येत्कश्चिञ्चलचपल ७ ३३२ पाण्डु क्षामं वक्त्रं १० ४६० , , वदनं २८९ १० ५८६ पातालमिव नाभिः
(वामनसूत्र० ४-२) ३४४ १० ५७६ पादाम्बुजं भवतु नो धर्माचार्यः ।
(पञ्चस्तवी घटस्तवः१.) ३४१ ७ १७८ पितृवसतिमहं व्रजामि १२३ १० ५४९ पुराणि यस्यां सवराङ्गनानि
(नवसाहसाङ्क च० स..
श्लो. २२ पा. गृहाणि) ३२० १० ४४३ पुंस्त्वादपि प्रविचलेत् .
(भल्लटश० श्लो. ७९) २८१ ७ ३०७ पृथुकार्तस्वरपात्रं १६९
२३९ ४८७ पेशलमपि खलवचनं १. ४०३ पौरं सुतीयति जनं २६०
३०२
२९३
१७७
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
60
पृष्ठे
११०
१७७
काव्यप्रकाशोदाइतपद्यानामकाराद्यनुक्रमः उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम्
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् १० ५०२ प्रणयिसखीसलील.
१० ५१५ बिम्बोष्ठ एव रागस्ते (माल. माध० अं. ५
(नवसाहसाङ्क० स.६ श्लो. ३१)
श्लो. ६०) १० ५९४ प्रत्यग्रमजनविशेष
५ १३३ . ब्राह्मणातिक्रमत्यागो . (रत्नावली अं.१
(महावीर० अं.२ श्लो. २०) ३४६
श्लो. १०) ६ १४० प्रथममरुणच्छायः
९ ३७१ भक्तिप्रह्लविलोकन (सुभा०।। ४ १०६ प्रधनाध्वनि धीरधनुर्ध्वनि० ७६
भागवतामृतवर्धनः) २३९ ७ २८२ प्रयत्नपरिबोधितः
१० ५२५ भक्तिर्भवे न विभवे ३१८ (वेणीसं० अं.३
१० ५७९ भण तरुणि रमण. श्लो. ३४) १६२
(रुद्रटालं० अ. २ ७ ३२७ प्रसादैर्वर्तस्त्र प्रकटय
श्लो. २२) (शार्ङ्गधर० चन्द्रकः)
२ १२ भदात्मनो दुरधिरोह ४ ३६ प्रस्थानं वलयैः कृतं
५ १३९ भम धम्मिम वीसत्थो (अमरु० श्लो. ३५)
(गाथासप्त० श.२ ७ २१० प्रागप्राप्तनिशुम्भ०
गा. ७५) (महावीरच० अं. २ ___१० ५०३ भस्मोद्धूलन भद्रमस्तु ३०० श्लो. ३३) १३४ ९ ३८७ भासते प्रतिभासार २१८
७९ भुक्तिमुक्तिकृदेकान्त. ७ २९१ प्राणेश्वरपरिष्वङ्ग.
५८२ भुजंगमस्येव मणिः ७ २७२ प्राप्ताः श्रियः सकलकाम
७ १७६ भूपतेरुपसर्पन्ती , (भर्तृह. वै० श.
__ . २६१ भूपालरत्ननिर्दैन्यः श्लो. ६७)
१५९
१०७ भूयो भूयः सविध० ७ १७५ प्राभ्रभ्राड्विष्णुधामा० १२२
(माल. माध. अं. १ ७ २३७ प्रियेण संग्रथ्य विपक्ष
श्लो. १८) . (किरातार्जु० स.८
७ ३३४ भूरेणुदिग्धान् नवपारि. श्लो. ३७) १४४
(ध्वन्यालोक ३) ३३ प्रेमाः प्रणयस्पृशः
५ १२७ मिमरतिमलस० (मा. मा. अं. ५ श्लो. ७) ५०
(ध्वन्यालोकः २. ३.) ८९ ९९ प्रेयान् सोऽयमप्राकृतः
१० ४१३ मतिरिव मूर्तिर्मधुरा २६१ (वामनसू०३)
६ १३२ मनामि कौरवशतं ८ ३५१ प्रौढच्छेदानुरूपोच्छलन०
(वेणीसं.अं.१ श्लो०१५) ९१ (छलितरामम्) २११ ९ ३६८ मधुपराजिपराजित फुल्लुकर कलमकरसम
(हरिविजयम्) (कर्पूरमञ्जरी ज..
१० ५१७ मधुरिमरुचिरं वचः ३१४ श्लो. १९) १७०
८ ३४३ मनोरागस्तीनं विषमिव १० ४३१ बत सखि कियदेतत्
(माल० माध० अं.२ ५ १२० बन्दीकृत्य नृप द्विषां
श्लो. १)
१९७
१७२
१६४
adm
७४
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशोदाइतपद्यानामकाराचनुक्रमः
२६०
१४७
अल्लास: क्रमाङ्कः पद्यम् ८ ३५० मन्थायस्तार्णवाम्भाप्लुति.
(वेणीसं.अ. १ श्लो. २२) २११ १० ५५८ मलयजरसविलिप्त (वामनसू०)
३३२ ७ २२७ मसृणचरणपातं
(बालरामायणम् अं.६
श्लो. ३६) ९ ३७२ महदेसुरसंधमे (मानन्द
देवीशतकम्) २४० ७ २४३ महाप्रलयमारुत.
(वेणीसं० अं.३ श्लो. ४) १४६ ४ ७२ महिलासहस्सभरिए.
(गाथासप्तशती श. २
गा. ८२) ७ २१८ महीभृतः पुत्रवतोऽपि
(कुमारसं० स..
श्लो. २७). १० ५२० महौजसो मानधना
(किरातार्जु० स. १
श्लो. १९) २ ६ माए घरोवयरणं ७ ३०० मातङ्गाः किमु वलिातैः १६६ ९ ३८५ माता नतानां संघट्टः
(रुद्रटालं. अ. ५
श्लो. ७) ५ १३४ मात्सर्यमुत्सार्य
- (भर्तृ. शं.श.श्लो.३६) १०२ . २६३ , , १. ५३५ मानमस्या निराकर्तुं
(दण्डी काम्यादर्शः
परि. २ श्लो. २९९) ३२४ ९ ३८४ मारारिशकरामेभ.
(रुवटालं० अ. ५ श्लो. ६) २४६ ८ १४५ मित्रे कापि गते सरोरुह० २०१ १० ५०५ मुक्ताः केलिविसूत्रहार० ३१० २ ९ मुखं विकसितस्मितं २३ ४ ७७ मुग्धे मुग्धतयैव
(भमस्यातकम् श्लो. ७०) ६७ • १६० मू मुवृत्तकृत्ता०
(हनुमन्नाटकम्) ११८ २९६ मृगचक्षुषमनाक्षी० १६६
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् १. ४९७ मृगलोचनया विना ७ १५४ मृदुपवनविमिनो
(विक्रमो० अं.४
श्लो. २२) १० ४०४ मृघे निदाघधर्मांशु १० ५०४ यं प्रेक्ष्य चिररूढापि
(मेण्ठः हयग्रीववधम्) ३०९ १ यः कौमारहरः (शा.
शिल्लाभट्टारिका) २०५ यः पूयते सुरसरिन्मुख० १३३ ७ १९४ यत्तदूर्जितमत्युग्रं
(वेणीसं० अं.१ श्लो. १३)
१२८ ७ २७४ यत्रानुल्लिखिताक्षमेव १६० १० ५१९
यत्रैता लहरीचलाचलरशः ३१५ १४४ यथाय दारुणाचारः ७ २९८ यदा त्वामहमद्राक्षम् १६६ ३६५ यदानतोऽयदानतो.
(मानन्द० देवीश०) . २७३ यदि दहत्यनलोऽत्र
(आनन्द० देवीश०) १५९ १० ४५३ , , , २८६ १३ यद्वञ्चनाहितमतिर्बहु
(ध्वन्यालोकः ३) ७ २४६ यशोऽधिगन्तुं सुख.
(किरातार्जु० स.३
श्लो. ४०) ७ २०० यश्चाप्सरोविभ्रम०
(कुमारसं० स. १लो. ४) १३२ १. ५४६ यस्य किंचिदपकर्तु.
(माघ० स. १४
१२
श्लो. ७८)
२२६
८४
९ ३५७ यस्य न सविधे दयिता
७४ यस्य मित्राणि मित्राणि ५ १६४ यस्यासुहृत्कृततिरस्कृति० ४३९ याताः किं न मिलन्ति
(अमरु० श्लो. १०) ७ १४६ यावकरसाईपाद०
२८० १ ४
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
62
काव्यप्रकाशोदाहृतपद्यानामकाराधनुक्रमः
२८२
१३९
उल्लासः क्रमाः पद्यम्
पृष्ठे १० ५४४ युगान्तकालप्रतिसंहृता
(माघ० स. १ श्लो.२३) ३२६ १० ५४८ ये कन्दरासु निवसन्ति ३२८ ७ ३०३ येन ध्वस्तमनोभवेन.
(सुभा० । चन्द्रकः) १ ७ १९० ये नाम केचिदिह ।
(माल० माध० अं.१ श्लो. ८)
१२७ १० ४४४ येनास्यभ्युदितेन चन्द्र १० ४४४ येषां कण्ठपरिग्रह ७ २२८ येषां तास्त्रिदशेभदान० ४ १०५ येषां दोबलमेव दुर्बल. ७ १९३ योऽविकल्पमिदमर्थक
(उत्पलाचार्यः) ___ १२८ ३७६ योऽसकृत्परगोत्राणां २४१ ९८ रयिकेलिहिमणियंसण.
(गाथा० श. ५. गा. ५५)
७३ ७ ३०१ रक्ताशोक कृशोदरी व नु १६७
१७३ ३५४ रजनिरमणमौलैः २४१ ९ २८८ रसासार रसा सार०
(रुद्रटालं. अ. ३ श्लो. ३९)
३४८ ४५१ राकायामकलत चेत् ___२८४ १५७ राकाविभावरी कान्त. ११७
५. राकासुधाकरमुखी १० ५७३ राजति तटीयमभिहत.
(हरविजयम् स. ५ श्लो. १३७)
३३८ १. (वृ०) राजनारायणं लक्ष्मीः ३४० १० ४४० राजराजसुता न पाठयति २८०
२१२ राजन्विभान्ति भवतः १३५ ५३३ राज्ये सारं वसुधा
(रुद्रटालंकारः अ. ७
श्लो. ९७) . २५५ राममन्मथशरेण ताडिता
(रघु० स. ११ श्लो. २०) १५१ १. रामोऽसौ भुवनेषु
(राघवानन्दम्) ४. ८५ राईसु चंदधवलासु
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम्। ४ ७८ रुधिरविसरप्रसाधित.. ६८ ४ १०४ रे रे चञ्चललोचनाञ्चित. ७६ ७ २४२ लग्नं रागावृताझ्या
(वेणीदत्तः पद्यवेणी २) १४६ ७ (वृ०) , , ,
१५० ७ २८१ , , , १६२ ७ २८५ , , , १६३
२३८ लग्नः केलिकचग्रह. १४५
४९८ लतानामेतासामुदित० ३०६ १० ४३४ लहिऊण तुज्झ बाहुण्फंसं २७७
__ ७६ लावण्यं तदसौ कान्तिः ६७ १० ५५४ लावण्यौकसि सप्रताप०
(खण्डप्रशस्तिः) ३३१ ४ १०१ लिखन्नास्ते भूमि
(भमरुश० श्लो. ७) ७५ १० ४१७ लिम्पतीव तमोऽङ्गानि
(बा. च. अं. १ श्लो १५ . (मृच्छकटिकम् अं. १
श्लो. ३४) २६५ १. ५६९ , , , ३३६ ७ १५३ लीलातामरसाहतो.
(अमरु० श्लो. ७२) १६ १० ५३१ वक्त्रस्यन्दिस्वेदबिन्दु० ३२२ ७ २७५ वक्त्राम्भोजं सरस्वत्यधिक
(भोजप्र० श्लो. २३० . पृ. ५१)
१६० १० (बृ.) वक्त्रेन्दौ तव सत्ययं ३४० १० ५६८ बदनसौरभलोभ०
(माघ० स. ६ श्लो. १४) ३३६ ९ ३५८ वदनं वरवर्णिन्यास्तस्याः २२६ ७ ३१४ वद वद जितः स शत्रुः
(रुद्रटालं. अ. ६ श्लो. ३०)
१४२ १० ५०१ वपुः प्रादुर्भावादनु० ३०७ ७ १६२ वपुर्विरूपाक्षमलक्ष्य
(कुमार० स. ५श्लो.७२) ११९ ७ १८२ वस्नवैदुर्यचरणैः १२४ १० ५८४ वह्विस्फुलिङ्ग इव
(वामनसूत्र० ४.२), ३४४
द
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशोदाहतपद्यानामकारायनुक्रमः
[68
२४
भो
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम्
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम्
: १० ५२९ वाणियम हस्थिदन्ता ३२०१० ५३८ शिरीषादपि मृद्वङ्गी ५ १३३ वाणीरकुडंगुड्डीण० ९१
(नवसाहसाङ्क. स. १६ २८३ वाताहारतया जगत्
श्लो. २८)
३२५ (भल्लटशतकम् श्लो.८७) १६२
शीर्णघ्राणाङ्गिपाणीन् ४ ८७ वारिज्जन्तो वि पुणो ७०
(सूर्यशतकम् श्लो. ६) १६७ ७ २१८ विकसितसहकारतार०
३१ शून्यं वासगृहं १. ५१० विदलितसकलारिकुलं
(अमरु० श्लो. ८२) ४९ (रुद्रटालं. अ.७
१० ५२१ शैलेन्द्रप्रतिपाद्यमान ३१७ श्लो. २८)
३१२
७ २७६ श्यामां श्यामलिमान ७ २८९ विदीर्णाभिमुखाराति० १६४
(विद्धशाल. अं.३
श्लो. १) १० ४२५ विद्वन्मानसहंस २७२
७ १९७ श्रितक्षमा रक्तभुवः ७ २७० विधाय दूरे केयूर० १५७
१३१
२१. श्रीपरिचयाजडा अपि ७ २०६ विनयप्रणयैककेतनं
१३३ ३६१ विनायमेनो नयता
(सुभा०। रविगुप्तः)
७ २८० श्रुतेन बुद्धिर्व्यसनेन १६२ (रुद्रटालं. अ. ३ श्लो. १५)
१० ५१४ श्रोणीबन्धस्त्यजति ३१३ १ ५ विनिर्गत मानदमात्मा
७ ३०९ षडधिकदशनाडीचक्र. (मेण्ठः हयग्रीववधम् ) १०
(माल. माध० अं. ५ श्लो. १)
१६९ ७ २४९ विपदोऽभिभवन्त्यविक्रम
१० ४०० समलकरणपरवीसाम०, २५९ (किराता. स. २
१० ४७६ स एकस्त्रीणि जयति . २९७ श्लो. १४)
१४८ ९ (वृ०) सकलकलं पुरमेतत्
२४३ ५ १३८ विपरीयरए लच्छी १०७
७७ सख्यैवं प्रतिबोधिता १० ५४२ विपुलेन सागरशयस्य
१० ५९० सक्तवो भक्षिता देव ३४५ (माघ० स. १३
५३२ संकेतकालमनसं ३२२ श्लो. ४०)
३२४
७ २३० संग्रामाङ्गणमागतेन ५६४ विभिन्नवर्णा गरुडा०
(खण्डप्र०। (माघ० स.४ श्लो. १४) ३३७
सदुक्तिकर्णामृतम्) १४१ ७ ३३६ विमानपर्यङ्कतले
२८९ (ध्वन्यालोकः ३) १९६
४८६ सततं मुसलासक्ताः ४. २८ वियदलिमलिनाम्बु० १४
३३३ सत्यं मनोरामा रामाः १८९ १ ९२ विहलंखलं तुअ सहि ७१
९ ३६२ स त्वारम्भरतोऽवश्यक ७ २१४ वेगादुड्डीय गगने
(रुद्रटालं. भ.३ १० ५५९ वेत्रत्वचा तुल्यरुचां ३३२
श्लो. १८) ७ (३०.) व्यानम्रा दयितानने
९ ३६३ सत्वारम्भरतोऽवश्य. ७ २५४ शक्तिर्निस्त्रिंशजेयं तव
(रुद्रटालं.)
२३७ .. ६० शनिरशनिश्च तमुच्चैः ६०
२५७ सदा मध्ये यासामियममृत० १५२ ७ १५८ शरत्कालसमुल्लासिक
२६८ सदा स्नात्वा निशीथिन्यां १५७ १. ५०९ शशी दिवसधूसरो
५४० सद्यः करस्पर्शमवाप्य (भर्तृ० नीतिश०
(नवसाहसाङ्क स. १ श्लो. ४५) ३११
श्लो. ६२)
१३६
१७५
१५०
११८
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
64]
काव्यप्रकाशादाहतपद्यानामकाराधनुक्रमः
है
२५५
२८१
१२२
उल्लास: क्रमाङ्कः पद्यम् ९ ३८० सद्वंशमुक्तामणिः ९ ३६० सन्नारीभरणोमाय०
(रुद्रटालं. अ. १० श्लो. २७)
२३६ ५८८ स पीनवासाः प्रगृहीत० ३४५ १. ४९१ समदमतङ्गजमदजल० ३०१ ५८७ स मुनिलाञ्छितो.
(वामनसू०४.२) ३४५ ७ ३२४ संप्रहारे प्रहरणैः
१७६ ७ १५६ सम्यज्ञानमहाज्योतिः ११७ ९ ३८६ सरला बहुलारम्भ०
(रुद्रटालं. अ. ५ श्लो. १९)
२४७ ९ ३६६ सरस्वति प्रसादं मे
(आनन्द० देवीश०) २३७ ७ १७२ स रातु वो दुश्यवनो १२२ ९ ३७५ सर्वस्वं हर सर्वस्य
२४. १. ४०५ सविता विधवति विधुरपि २६१
१२१ सव्रीडा दयितानने १७५ ७ ३३५ सशोणितैः कन्यभुजा १९० ९ ३६७ ससार साकं दर्पण
(रुद्रटालं. अ.३ श्लो. ३५)
२३८ १० १९५ सह दिअसणिसाहिं
(कपूरमञ्जरी ज.२
श्लो. ९) ४ ९० सहि णवनिहुयणसमरम्मि ४ ७० सहि विरइऊण माणस्स
१२२ साकं कुरङ्गकदृशा ८७ ७ १७० सा दूरे च सुधा० १२१ . १५२ साधनं सुमहद्यस्य
१८९ साधु चन्द्रमसि पुष्करैः ४ ३५ सा पत्युः प्रथमापराध.
(अमरु० श्लो. २९) ७ १७३ सायकसहायबाहोः १२२ ४ ८० सायं स्नानमुपासितं १० ५६१ सा वसह तुज्झ हिभए ३३३
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् २ ७ साहेन्ती सहि सुहयं ७ ३१५ सितकरकररुचिरविभा ९ ३५९ " "
२२७ १० ५३९ सिंहिकासुतसंत्रस्तः .. ३२५
१६६ सुधाकरकराकार १२० ७ १७९ सुरालयोल्लासपरः १२३ ३ १९ सुव्वइ समागमिस्सदि ३३
२६७ सुसितवसनालंकारायां १० ४७९ " " २९९
४४२ सुहृद्वधूबाष्पजल. १० ४८५ सृजति च जगदिदमवति
४ २६ सेयं ममाङ्गेषु सुधारस० १० ५७० सो णत्थि इत्थ गामे ७ १७१ सोऽध्यैष्ट वेदान्
(भट्टिकाव्यम् स. १
श्लो. २) १० ४४८ सोऽपूर्वो रसनाविपर्यय०
(भल्लटश० श्लो. १८) २८३ ८८ सो मुद्धसामलंगो
२९२ सौन्दर्यसंपत् तारुण्यं १० ४२४ सौन्दर्यस्य तरङ्गिणी १० (बृ.) सौभाग्यं वितनोति ४ ४९ स्तुमः कं वामाक्षि ९ ३७८ स्तोकेनोन्नतिमायाति २४३ ४ ११३ स्निग्धश्यामलकान्ति.
(ध्वन्यालोकः २) १० ५७७ - स्पष्टोल्लसत्किरण.
(हरिविजयम् १९) १० ६०० स्पृशति तिग्मरुचौ
(हरिविजयम् ३) ३४९ २२२ स्फटिकाकृतिनिर्मलः १३० १० ५६२ स्फुरदद्भुतरूपमुत्प्रताप० ३३३ १६१ स्वस्तां नितम्बादव०
(कुमार० स. ३ श्लो. ५५) ११८ १ ४ स्वच्छन्दोच्छलदच्छ०१० १० ४७० स्वच्छात्मतागुणसमु० २९३
७ २६२ स्वपिति यावदयं निकटे १५६ १० ३९२ स्वमेऽपि समरेषु त्वां २५६ ९ ३७७ स्वयं च पल्लवाताम० (उद्भटालं.)
२४३
१६४
२७१ ३४०
११६
• G6.6404
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४९
काव्यप्रकाशोदाहतपद्यानामकाराधनुक्रमः उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम्
पृष्ठे उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् १. ६०१ स्वयं च पल्लवातान.
७ १५० हा धिक् सा किल (उनटालं. व. ४
७ २२० हा नृप हा बुध हा कवि. १३७ श्लो. १५)
४ ३९ हा मातस्त्वरितासि ३४७ स्वर्गप्राप्तिरनेनैव
२०२
(नारायणभट्टः) १० ४५८ विद्यति कूणति २८८
४९३ हित्वा त्वामुपरोध० ४ ४७ हरत्यघं संप्रति हेतु०
७ ३२० हुमि भवहत्थिमरेहो (माघ० स. १
(आनन्दवर्धनः विषमश्लो. २६)
बाणलीला) १. ४६८ हरवन्न विषमदृष्टिः
१. ४५२ हृदयमधिष्ठितमादौ १३. हरस्तु किंचित्परिवृत्त.
(कुट्टिनीमतम् पृ. २३ (कुमार० स.३ .
श्लो. ९७) श्लो. ६७)
१० ४९४ हे हेलाजितबोधिसत्व १० ५२८ हंसाण सरोहि सिरी ३२०
(पुअराजः)
२९3
का.प्र.9
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशोदाहृतप्राकृतपद्यानां संस्कृतच्छायासहितानामकाराद्यनुक्रमः ।
पृष्ठे
३
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् १३ अयि पिहुलं जलकुंभं अतिपृथुलं जलकुम्भं गृहीत्वा समागतास्मि सखि त्वरितम् ।
पृष्ठे
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम्
३१
१० ४७१
४५०
श्रमस्वेदसलिलनिःश्वासनिःसहा विश्राम्यामि क्षणम् ॥ अण्णं लडहत्तणणयं २८४ अन्य सौकुमार्यम् अन्यैव च कापि वर्तनच्छाया । श्यामा सामान्यप्रजापतेः रेखैव
१०
५५५
च न भवति ॥ १३७ ( भत्ता इत्थ णिमज्जइ २३ ) श्वश्रूत्र निमज्जति अत्राहं दिवस के प्रलोकय । मा पथिक रात्र्यन्ध शय्या
१०५ ३४
२
६१
1
यामावयोर्निमङ्क्षयसि ॥ ६१ अलससिरोमणि धूत्ताणं अलसशिरोमणिधूर्तीनामग्रिमः पुत्रि धनसमृद्धिमयः । इति भणितेन नताङ्गी प्रफुल्लविलोचना जाता ॥ उअ णिञ्चलनिफन्दा -
१०
५५२
२
८
( गाथासप्त० श० १
१२
गा. ४ ) पश्य निश्चल निष्पन्दा बिसिनीपत्रे राजते बलाका । निर्मलमरकतभाजनपरिस्थिता शङ्खशुक्तिरिव ॥
५
३
३१
१४ उण्णिहं दोब्बलं निद्रयं दौर्बल्यं चिन्ता
लसत्वं सनिःश्वसितम् । मम मन्दभागिन्याः कृते
१० ५३०
सखि त्वामपि अहह परिभवति ॥ ७१ उल्लोल्लकरभरमण ०
६४
आर्द्रार्द्रकरजरदनक्षतैस्तव लोचनयोर्मम दत्तम् । रक्त
१०
५
३
VII
४
४
'शुकं प्रसादः कोपेन पुनरिमे
कान् ॥ ए एहि किंपि की वि ए एहि किमपि कस्या अपि कृते निष्कृप भणामि । अलमथ वा
अविचारितकार्यारम्भकारिणी त्रियतां न भणिष्यामि ॥
एहि दाव सुन्दर ३३१ अयि एहि तावत् सुन्दरि कर्ण
दत्त्वा शृणुष्व वचनीयम् । तव मुखेन कृशोदरि चन्द्र उपमीयते जनेन ॥ ११ एद्दहमेत्तत्थणिया एतावन्मात्रस्त निका
एतावन्मात्राभ्याम
क्षिपत्राभ्याम् । एतावन्मात्रावस्था
एतावन्मात्रैर्दिवसैः ॥
करजुभगहिन जसोभा
करयुगगृहीतयशोदास्तनमुखनिवेशिताधरपुटस्य ।
संस्मृतपाञ्चजन्यस्य नमत
कृष्णस्य रोमाञ्चम् ।
वामे सहस्वेदानीम् ॥
२९५
१३६ कस्स व न होइ रोसो कस्य वा न भवति रोषो दृष्ट्वा प्रियायाः सत्रणमधरम् । सभ्रमरपद्माघ्रायणि वारित
काविसमा देव्वगई का विषमा दैवगतिः किं लब्धव्यं यद् जनो
गुणग्राही । किं सौख्यं सुकलत्रं किं
दुःख यत् खलो लोकः ॥
२८
३२९
१०३
३२१
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्य
तप्राकृतपधानामकारीधनुक्रम:
४
उल्लास: क्रमाङ्कः पद्यम् १. ४५७ किवणाण धणं णायाणं २०७
कृपणानां धनं नागानां फणमणिः केसराः सिंहानाम् । कुलबालिकानां स्तनाः कुतः
स्पृश्यन्तेऽमृतानाम् ॥ ४ ६६ केसेसु बलामोडिअ ६३
केशेषु बलात्कारेण तेन च समरे जयश्रीगृहीता। यथा कन्दराभिर्विधुरास्तस्य
दृढं कण्ठे संस्थापिताः॥ ४ ७५ खलववहारा दीसन्ति ६७
खलव्यवहारा दृश्यन्ते दारुणा यद्यपि तथापि धीराणाम् । हृदयवयस्यबहुमता न खलु
व्यवसाया विमुन्ति ॥ ४ ६७ गाढालिंगणरहसुजमम्मि ६३
गाढालिङ्गनरभसोद्यते दयिते लघु समपसरति । मनस्विन्या मानः पीडनभीत
इव हृदयात् ॥ ४ १०२ गामारुहम्हि गामे
ग्रामरुहामि ग्रामे वसामि नगरस्थितिं न जानामि । नागरिकाणां पतीन् हरामि या भवामि सा भवामि॥ गुरुमणपरवस पिन गुरुजनपरवशप्रिय किं भणामि तव मन्दभागिनी महकम् । अद्य प्रवासं व्रजसि व्रज स्वय
मेव श्रोष्यसि करणीयम् ॥ ८ ३४४ चित्ते चहदि णखुट्टदि
(कर्पूरमञ्जरी ज.२ श्लो. ४) चित्ते विघटते न त्रुटयति । सा गुणेषु शय्यासु लुठति विसर्पति दिङ्मुखेषु । पचने वर्तते प्रवर्तते काव्यबन्धे ध्यानेन त्रुव्यति चिरं तरुणी प्रगल्भा ॥
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम्
पृष्ठे ११२ छणपाहुणिमा देवर
क्षणप्राधुणिका देवर जायया सुभग किमपि ते भणिता। रोदिति गृहपश्चाद्भागवलभी
गृहेऽनुनीयतां वराकी ॥ १. ४२२ जस्स रणन्तेउरए करे २७०
यस्य रणान्तःपुरे करे कुर्वतो मण्डलाग्रलताम्। रससंमुख्यपि सहसा पराङ्मुखी
भवति रिपुसेना॥ १. ५३४ जस्से अ वणो तस्से अ ३२३
यस्यैव व्रणस्तस्यैव वेदना भणति तजनोऽलीकम् । दन्तक्षतं कपोले वध्वाः
वेदना सपत्नीनाम् ॥ १. ५७४ जह गंभिरो जह रअणा० ३३९
यथा गभीरो यथा रत्ननिर्भरो यथा च निर्मलच्छायः। तथा कि विधिना एष सरसपानीयो जलनिधिर्न कृतः॥ ज परिहरिउं तीरइ (आनन्दवर्धनः पञ्चबाणलीला) यत् परिहर्तुं तीर्यते मनागपि न सुन्दरत्वगुणेन । अथ केवलं यस्य दोषः प्रतिपक्षैरपि प्रतिपन्नः॥ जा थेरं व हसन्ती या स्थविरमिव हसन्ती कवि. वदनाम्बुरुहबद्धविनिवेशा। दर्शयति भुवनमण्डलमन्यदिव
जयती सा वाणी ।। ४ ६९ जे लङ्कागिरि मेहलाहि ६३
(कर्पूरमञ्जरी ज. १ श्लो. २०) ये लङ्कागिरिमेखलासु स्खलिताः संभोगखिोरगीस्फारोत्फुल्लफणावलीकवदने प्राप्ता दरिद्रत्वम् । त इदानीं मलयानिला विरहिणीनिःश्वाससंपर्किणो
७५
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
681
उल्लासः क्रमाङ्कः पथम्
४
१०
४
३
३
४
७
१०
जाता झटिति शिशुत्वेऽपि बहलास्तारुण्यपूर्णा इव ॥ ९३ जोह्वाए महुरसेण ज्योत्स्वया मधुरसेन च विती - तारुण्योत्सुकमनाः सा ।
वृद्धापि नवोढेव परवधूरद्दह हरति तव हृदयम् ॥ ४०७ ढुण्डुल्लिन्तु मरिहसि टुटुणायमानो मरिष्यसि
काव्यप्रकाशोदाहृतप्राकृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमः
१०३
३१६
५१६
मालतीकुसुमसरक्षं भ्रमर भ्रमन् न प्राप्स्यसि ॥
८९ णवपुण्णिमामियंकस्य नवपूर्णिमामृगाङ्कस्य सुभग कस्त्वमसि भण मम सत्यम् का सौभाग्यसमा प्रदोषरजनीव तवाद्य ॥
१८ णोलेइ अणुलमणा नुदत्यनार्द्रमनाः श्वश्रूर्मा गृहभरे सकले । क्षणमात्रं यदि संध्यायां भवति
न वा भवति विश्रामः ॥
१६ तहआ मह गंडस्थल ०
कण्टककलितानि केतकीवनानि ।
तदा मम गण्डस्थलनिमग्नां दृष्टं नानैषिरन्यत्र ।
२६१
७२
इदानीं सैवाहं तौ च कपोलौ
न सा दृष्टिः ॥
ताण गुणग्गहणाणं
तेषां गुणग्रहणानां तासामुत्क - ण्ठानां तस्य प्रेम्णः । तासां भणितीनां सुन्दर ईदृशं
तं ताण सिरिसहोअर
( आनन्दव० विषमबाणलीला )
७१
३३
३२
७५
जातमवसानम् ॥ ताला जायन्ति गुणा (आनन्दवर्धनः पञ्चबाणलीला ) १७२ तदा जायन्ते गुणाः यदा ते सहृदयैर्गृह्यन्ते । रविकिरणानुगृहीतानि भवन्ति कमलानि कमलानि ॥
३१४
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम्
४ ८४
१०
७
४
तत्तेषां श्रीसहोदररत्नाभरणे हृदयमेकरसम् । बिम्बाधरे प्रियाणां
निवेशितं कुसुमबाणेन ॥.
७
तुह वलहस्स गोसम्मि
तव वल्लभस्य प्रभाते आसीदधरो
म्लानकमलदलम् । इति नववधूः श्रुत्वा करोति वदनं महीसंमुखम् ॥
५६५ धवलोऽसि जइ वि
( गाथास० श. ७
गा. ६५) धवलोsसि यद्यपि सुन्दर
तथापि त्वया मम रक्षितं
हृदयम् । रागभरितेऽपि हृदये सुभग निहितो न रोऽसि ॥
३२८ निहुअरमणम्मि निभृतरमणे लोचनपथे पतिते गुरुजनमध्ये | सकलपरिहारहृदया वनगमनमेवेच्छति वधूः ॥
५९ पंथिक्ष ण इत्थ पथिक नात्र स्तरमस्ति मनाक् प्रस्तरस्थले ग्रामे । उन्नतपयोधरं प्रेक्ष्य यदि वससि तदा वस ॥
४ ९१ पविसंती घरवारं
प्रविशन्ती गृहद्वारं चिवलितवदना विलोक्य
पन्थानम् ।
स्कन्धे गृहीत्वा घटं
हा हा नष्ट इति रोदिषि सखि किमिति ॥
३१० फुलकर कमलकूर समं
पुष्पोत्करं कलमभक्तनिभं वहन्ति ये सिन्धुवारविटपा
ਬੜੇ
६९
३३४
१७७
६०
७१
१७०
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यप्रकाशोदाहृतप्राकृतपधानामकारायनुक्रमः
उल्लास: क्रमाङ्कः पद्यम्
मम वल्लभास्ते। ये गालिप्तस्य महिषीदन्नः सदृक्षास्ते किं च मुग्धविचकिलप्रसूनपुजाः॥ भम धम्मिम वीसत्थो (गाथासप्त० श.२ गा. ७५)
१०८ भ्रम धार्मिक विश्रब्धः स शूनकोऽद्य मारितस्तेन । गोदानदीकच्छकुञ्जवासिना
दृप्तसिंहेन ॥ ९ ३७२ महदे सुरसेयं मे (आनन्द
.वर्धनः देवीशतक) २४० मम देहि रसं धर्मे तमोवशाम् आशा गमागमात् हर नः । हरवधु शरणं त्वं चित्तमोहो
ऽपसरतु मे सहसा ॥ ४ ७२ महिलासहस्सभरिए
महिलासहरभरिते तव हृदये सुभग सा अमान्ती। अनुदिनमनन्यकर्मा अङ्गं तन्वपि [तनुकमपि]
तनयति ॥ ६ माए घरोवयरण
मातगृहोपकरणमद्य खलु नास्तीति साधितं त्वया। तगण किं करणीयमेवमेव
न वासरः स्थायी॥ ४ ९८ रयिकेलिहिमणियंसण
(गाथा० श. ५ गा. ५५) रतिकेलिहृतनिवसनकरकिसलयरूद्धनयनयुगलस्य । रुद्रस्य तृतीयनयनं पार्वतीपरिचुम्बितं जयति ॥ रायीसु चंद्दधवलासु रात्रीषु चन्द्रधवलासु ललितमास्फाल्य यश्चापम् । एकच्छत्रमिव करोति भुवनराज्य बिजृम्भमाणः ॥
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् १. ४३४ लहिऊण तुज्झ बाहुप्फंसं २७७
लब्ब्या तव बाहुस्पर्श यस्याः स कोऽप्युल्लासः। जयलक्ष्मीस्तव विरहे न
खलूज्वला दुर्बला ननु सा॥ १० ५२९ वाणियम हस्थिदन्ता ३२०
वाणिजक हस्तिदन्ताः कुतोऽस्माकं व्याघ्रकृत्तयश्च । यावत् लुलितालकमुखी
गृहे परिष्वक्ते स्नुषा ॥ ५ १३३ वाणीरकुडंगुड्डीण सउणि ९१
वानीरकुोड्डीनशकुनिकोलाहलं शृण्वन्त्याः । गृहकर्मम्यापृताया वध्वाः सीदन्त्य
ङ्गानि ॥ ४ ८७ वारिज्जन्तो वि पुणो
वार्यमाणोऽपि पुनः संतापकदर्थितेन हृदयेन । स्तनभरवयस्येन विशुद्ध
जातिन चलत्यस्या हारः॥ ५ १३८ विपरीयरए लच्छी
विपरीतरते लक्ष्मीब्रह्माणं दृष्ट्वा नाभिकमलस्थम् । हरेर्दक्षिणनयनं रसाकुला
झटिति स्थगयति ॥ ९२ विहलं खलं तुम सहि
विशङ्खलां त्वां सखि दृष्ट्वा कुटेन तरलतरदृष्टिम् । द्वारस्पर्शमिषेण चात्मा गुरुक इति पातयित्वा विभिन्नः ॥ समलकरणपरवीसाम० २५९ सकलकरणपरविश्रामश्रीवितरणं न सरसकाव्यस्य । दृश्यतेऽथवा निशम्यते सदृशम
शांशमात्रेण । १० ४९५ सह दिनसणिसाहि
(कर्पूरमारी ज.२ को. ९)
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
70]
काव्यप्रकाशोदाहृतप्राकृतॆपद्यानामंकाराद्यनुक्रमः
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् सह दिवसनिशाभिर्दीर्घाः श्वासदण्डाः सह मणिवलयैर्बाष्पधारा गलन्ति तव सुभग वियोगे तस्या उद्विग्नायाः सह च तनुलतया दुर्बला जीवि
ताशा ॥
१० ५७०
४
उल्लासः क्रमाङ्कः पद्यम् ३ १९ सुब्बइ समागमिस्सदि श्रूयते समागमिष्यति तत्र प्रियोऽद्य प्रहरमात्रेण । एवमेव किमिति तिष्ठसि तत् सखि सज्जय करणीयम् ॥ सो णत्थि ३३६ स नास्त्यत्र प्रामे य एनां महमहायमानलावण्याम् । तरुrai हृदयलुण्ठाक परिष्वक्कमाणां निवारयति ॥ सो मुद्धसामङ्गो समुग्धश्यामलाङ्गो धम्मिल्लः कलितललितनिजदेहः । तस्याः स्कन्धाद्वलं गृहीत्वा स्मरः
७१
४
८८
७०
11
९० सहि णवनिहुयणसमरम्मि सखि नवनिधुवनसमरेsङ्कपालीसख्या निबिडया । हारो निवारित एवोच्छ्रियमाणस्ततः कथं रमितम् ॥ सहि विरइऊण माणस सखि विरचय्य मानस्य मम धीरत्वेनाश्वासम् । प्रियदर्शनविशृङ्खलक्षणे सहसेति तेनापसृतम् ॥ सा वसई तुज्झ सा वसति तव हृदये सैवा
8
७०
६४
सुरतसंगरे जयति ॥ ५२८ हंसाण सरोहि सिरी ३२०
१०
हंसानां सरोभिः श्रीः सार्यते अथ सरसां हंसैः ।
१० ५६१
३३३
क्षिषु सा च वचनेषु । अस्माइशीनां सुन्दर अवकाशः कुत्र पापानाम् ॥
अन्योन्यमेव एते आत्मानं केवलं गरयन्ति ॥ ७ ३२० हुमि अवहत्थि ( आनन्दवर्धनः
७
१२
१७३
विषमबाणलीला ) भवाम्यहस्तितरेखा निरङ्कु
साहेती सही सुहयं साधयन्ती सखि सुभगं क्षणे क्षणे दूनासि मत्कृते । सद्भावस्नेहकरणीयसदृशकं तावद्विरचितं त्वया ॥
शोऽथ विवेकरहितोऽपि । स्वप्नेऽपि त्वयि पुनः प्रतीहि भक्तिं न प्रस्मरामि ॥
२
*
पृष्ठे
३३
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
१
२२६
VIII संकेते प्रमाणत्वेनोदाहतानां संदर्भाणामकाराद्यनुक्रमणी । प्रमाण
पृष्ठाकः प्रमाणं
पृष्ठाकः मग्निरमस्यामपतिः
अर्थदोषः स दोषज्ञैः
३०२ [का. सं. ५. १; ३२..]
[व्य. वि. वि. २. श्लो. १२२. अग्निषोमौ वृत्रहणौ
पृ. १०९] [का. सं. ५.१; मा. श्री.
अर्थवदधातुरप्रत्ययः सू. १.४.२.५]
[पा. मष्टा. भ. १.पा. २. सू.४५] भकान्तपात्रैरङ्कास्यम्
अर्थोपक्षेपकैः [द. रू. प्र. १. का. ६२]
[द. रू.प्र.१.का. ५८] अत एवाभिधेयं ते
३०२ अलङ्कारकृतां येषाम् [व्य. वि. वि. २. श्लो. ११५.
[व. जी. उन्मेष. १. का. ११] पृ. १०८]
अलम्बुसा कुहूश्चैव अतिक्रान्तर्तुलिङ्गम्
१८६ अविकृतं भाषाचारम् [का. मी. पृ. १०९]
[ना. शा. अ. १८. श्लो अत्रालुप्तविसर्गान्तः
१३५ असमासा समासेन [व. जी. उन्मेष. १. का. ४७]
[ध्व. उद्दयोत. ३. का. ५.] अनुवाद्यमनुक्त्वैव
१२५ अस्थानहसितम् [व्य. वि. वि. २. श्लो. ९४.
[ना. शा. अ. ६ श्लो. ५८] अनेकनर्तकीयोज्यम्
२२१ आकुञ्चिताक्षिगण्डम् [अ. भा. भ. ४. पृ. १८३] |
[ना. शा. अ. ६ श्लो. ५६] अनौचित्यप्रवृत्तानाम्
आक्रोशवत्यवजानाति
२५५ [उ. का. सा. सं. व. १. का. २०]
[का. द. परि. २. श्लो. ५७] अन्तर्जवनिकासंस्थैः
आत्मानुभूतशंसी
२१७ [ना. शा. अ. १९. श्लो. ११३]
[ना. शा. अ. १८. श्लो. १०८] अपारे काव्यसंसारे
आरोपाध्यावसानाभ्याम् [ध्व. उध्योत. ३. पृ. ४९८]
[अ. वृ. मा. का. ४.५] अप्राधान्यं विधेर्यत्र
१२० आरोह पूर्वोऽवरोहः
२०५ अभिधात्री श्रुतिः काचित्
[वा. का. लं. सू. अधि. ३. [तं. वा. ३१. ११३ पृ. ७००
___ अ. १. सू. १३ वा.] आ. सं. सि.]
आविद्वदङ्गनाबाल
२०३ अभिधा भावना चान्या
[भा. का. लं. परि. २. श्लो. ३] [अ. भा. अ. ६. पृ. २७७ ]
इडा च पिङ्गला चैव
१७० अभिधेयेन सम्बन्धात्
इतिना नेवेतरेषाम्
१५१ [आचार्यभर्तृमित्र
[व्य. वि. वि. २. श्लो. ३५. पृ. ६९] अमृता बहुला नाम
इववद्वायथाशब्दाः
२५५ अरुणया एकहायन्या
१०१ [का. द. परि. २. श्लो. ५.] [ज्योतिष्टोमे श्रुतम् । तं. वा. ३२२॥
ईषद्विकसितैर्गण्डैः ६।१९। पृ. ७६९ बा. सं.सि.]
[ना. शा. अ. ६. श्लो. ५.]
EEEEEEEEEEEEE
१००
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
72] .
संकेते प्रमाणत्वेनोदाहतानां संदर्भाणामकाराधनुक्रमः
प्रमाणं
पृहाङ्क:
२२१
१५३
२५५
१८३
१८३
३०२
..]
२९५ -
२५५
पृष्ठाङ्कः ईहामृगेऽपि तत्स्यात्
[ना. शा. अ. १८. श्लो. ८१] उक्त्यन्तरेणाशक्यम्
[ध्व. उद्योत. १. का. १५]. उक्तिस्वरूपावच्छेदकरः
१५१ [व्य. वि. वि. २. श्लो. ३३. पृ. ६०] उचिते वासके स्त्रीणाम्
[ना. शा. अ. २२. श्लो. २१०] उच्यते वस्तुनस्तावद्
[व्य. वि. वि. २. श्लो. ११४ पृ. १०८] उद्धतपुरुषप्रायः
[ना शा. अ. १८. श्लो. ७९] उपमैव तिरोभूतभेदा
२६८ [का. द. परि. २. श्लो. ६६] एवंविधस्तु कार्यो०
२१६ [ना. शा. अ. १८. श्लो. ९३] ऐन्या गाईपत्यमुपतिष्ठते
१.०,१०० ऋतुवर्णनसंयुक्तं
२२१ [अ. भा. भ. ४. पृ. १८१] क/कौषधवच्छास्त्रं कथाशरीरमुत्पाद्य
[ध्व. उ. ३. परिकरश्लोकः पृ. ३३४] करुणप्रेक्षणीयेषु
२०५ [वा. का. लं. सू. अधि. ३ । भ... सू. ९.] करुणरसप्रायकृतः
२१७ [ना. शा. भ. १८. श्लो. ९५] कर्मधारयमत्वर्थीयाभ्याम्
१५४ [व्य. वि. वि. २. श्लो. ५१. पृ. ८३] कल्पदेशीयदेश्यादि
२५५ [का. द. परि. २. श्लो. ६०] कवितारः सन्दर्भेष्वलंकारान्
२०२ कारकोपनिबन्धः स्यात् काष्ठा निमेषा
[का. मी. पृ. ९८] कैशिकीलक्ष्णनेपथ्या
२२५ [ना. शा. अ. १. श्लो. ४५] गर्भनिर्मिनबीजोऽर्थः
[मा. शा. अ. १९. श्लो. ४२] गान्धारी हस्तिजिह्वा च
१७० गोथे यत्र विहरतः
प्रमाणं ग्रैष्मिकसमयविकासी
[का. मी. अ. १८. पृ. १०९] छसानुरागगर्भाभिः
[अ. भा. अ. ४. पृ. १८१] त एते यौवनोन्माद तच्च न शब्दपुनरुक्तम् तत्पदव्यां पदं धत्ते
[का. द. परि. २. श्लो. ६४] तत्रभवन भगवनिति नाहत्यधमो
[रु. का. लं. ६. १९] तत्रभवन् भगवन्नितिनैवाहत्युत्तमो
[रु. का. लं. ६.२०] तत्रैकमस्य सामान्यम्
[व्य. वि. वि. २. श्लो. ११४. पृ.१ तथा हि दर्शने स्वच्छे
[भट्टतोतः] तदिष्टस्य निषेधत्वम्
[तिलकः] तमन्वेत्यनुबनाति
[का. द. परि. २. श्लो. ६४] तमर्थमवलम्बन्ते
[ध्व. लो. उड्योत. २. का. ६] तस्य चानुकरोतीति
[का. द. परि. २. श्लो. ६५] तस्य पुष्णाति सौभाग्यम् ।
[का. द. परि. २. श्लो. ६३] तात्पर्ययोगः काले च तालुजिह्वाभजिह्वा च . तुल्यसंकाशनीकाश
[का. द. परि. २. श्लो. ५७] तेन सार्धे विगृह्णाति
[का. द. परि. २. श्लो. ६३] दधिरस्यदर्थोभूयांसम् दयितजनरुक्षाक्षराक्षेप दर्शनाद्ववर्णनाचाथ
[भट्टतोतः] दानवीरं धर्मवीरं
[ना. शा. भ. ६. श्लो. ७९] दासविटश्रेष्टियुतम्
[ना. शा.अ.१८ श्लो.५०]
१९६
२५५
२५५
१९८
१७०
२५५
२५५
१८५
१०१
२०५
२२१
२१४
२२१
.
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाण
पृष्ठाङ्कः
१८०
२१३
३
१८०
२१६
२५५
२१६
२७४
संकेते प्रमाणत्वेनोदाहृतानां संदर्भाणामकाराद्यनुक्रमः
प्रमाणं दिव्यपुरुषाश्रयकृतो २१६ प्रकरणनाटकभेदाद्
२१५ [ना. शा. अ. १८. श्लो. ७८]
[ना. शा. भ. १८. श्लो. ५८] देवा धीरोद्धता ज्ञेयाः
प्रकृतमपि यत्र हित्वा
१७४ [ना. शा. अ. ३४. श्लो. १८.
प्रकृतिप्रत्ययमूला व्युत्पत्तिः
११३ चौ. सं. सि.]
[रु. का. लं. अ. ६. का. २७ ] देवासुरबीजकृतः
प्रख्यातवस्तुविषयम् [ना. शा. अ. १८. श्लो. ६३.1
[ना. शा. अ. १८. श्लो. १०] धर्मार्थकाममोक्षाणामुप०
प्रख्यातवस्तुविषयश्च धांशस्तु धैवतन्यासः
[ना. शा. अ १८. श्लो. ९४ ] धीरप्रशान्ता विज्ञेया
प्रख्यातवस्तुविषयः प्रख्या० [ना. शा.अ. ३४. श्लो. १९
[ना. शा. अ. १८. श्लो. ८४] चौ. सं. सि.]
प्रतिपक्षप्रतिद्वन्द्वि
२५५ धूर्तविटसंप्रयोज्या०
[का. द. परि. २. श्लो. ५८] [ना. शा. अ. १८. श्लो. ११०]
प्रतिबिम्बप्रतिच्छन्द न च दिव्यनायककृतः [ना. शा. अ. १८. श्लो. ९२]
[का. द. परि. २. श्लो. ५९] नर्थस्य विधेयत्वे
प्रतिभाति न सन्देह
१२१ [व्य. वि. २. श्लो. ५. पृ. ३९]
[अ. भा. अ. ६. पृ. २७३ ] न पर्यन्तो विकल्पानाम्
प्रधानगुणभावाभ्याम् [का. द. परि. २. श्लो. ९६]
[ध्व. उद्द्योत. ३. का. ४१] नानाविभूतिभिर्युतम्
२१३
प्रधानत्वं विधेर्यन्त्र [ना. शा. अ. १८. श्लो. ११]
प्रयोजनमनुद्दिश्य नानाच्याकुलचेष्टः
२१७
[श्लो. वा. सू. ५. श्लो. ५५. [ना. शा. अ. १८. श्लो. ९६]
- पृ. ६५३ चौ. सं. सि.] नानृषिः कविरित्युक्तम्
प्राधान्येऽन्यत्र वाक्यार्थे [भट्टतोतः]
बहवश्च तत्र पुरुषा निरूढा लक्षणाः काश्चित्
[ना. शा. अ. १८. श्लो. ९१] [तं. वा. ३१.६।१२।
बहवोऽर्था विभाज्यन्ते पृ. ८३. आ. सं. सि.]
[ना. शा. अ. ७. श्लो..] निर्घातोल्कापातैः [ना. शा. अ. १८. श्लो. ८६]
बहुशो यच्छुतममिहितम्
[ना. शा. अ. १६. निर्विशेषं न सामान्यम् [श्लो. वा. सू. ५. आकृतिवाद. श्लो.
श्लो. १०४] १०. पृ. ५४८ चौ. सं. सि.]
बहूनां समवेताना
१९५ नोदात्तनायककृतम्
[ना. शा. अ. ७. श्लो. ११९ a.] [ना. शा. अ. १८. श्लो. ४९]
बीजस्योद्घाटनं यत्र
२२१ परवचनमात्मसंस्थैः
[ना. शा. अ. १९. श्लो. ४०] [ना. शा. अ. १८. श्लो. १०९]
बीजार्थयुक्तिमानको
२१८ परिपाच्या फलाथै वा
[ना. शा. अ. १९. श्लो. ११५] [ना. शा. अ. २२. श्लो. २०९]
भगवत्तापसविप्रैरन्यैरपि पृथग भावा भवन्त्यन्ये
[ना. शा. अ. १८. श्लो. १०३] [द. रू. प्र. ४. का. ४]
Prose sūtra form in Samketa का० प्र० 10
m
-
२१६
१८१
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठाङ्कः
२२३
१५४ ३०२
१८६
74]
संकेते प्रमाणत्वेनोदाहृतानां संदर्भाणामकाराद्यनुक्रमः प्रमाणं
पृष्ठाङ्कः
प्रमाणं भावनाभाव्य एषोऽपि
वक्राभिधेयशब्दो [अ. भा. अ. ६. पृ. २७७ ]
[भा. का. लं. परि. १. श्लो. ३६] मण्डलेन तु यद् नृत्तं
२२१ वक्रोक्तिरनुप्रासो [अ. भा. अ. ४. पृ. १८१].
[? रु. का. लं. भ. २. का. मन्ये शङ्के ध्रुवं प्रायो
२६४ वणेः कतिपयैरेव [का. द. परि. २. श्लो. २३४]
वस्तुमात्रानुवादस्तु मायेन्द्रजालबहुलो
[व्य. वि. २. श्लो. १२२. [ना. शा. अ. १८. श्लो. ८७ ]
पृ. १०९] यतस्ते चादय इव
१५१ वाच्यात् प्रतीयमानोऽर्थः [व्य. वि. २. श्लो. ३६.
[व्य. वि. २. श्लो. ३९. पृ. ७३]
वाक्यार्थमतये हि यत्र कविरात्मशत्तया
२१४ [श्लो. वा. अधि. ७ श्लो. [ना. शा. अ. १८. श्लो. ४५]
३४३. पृ. ९४३. चौ. सं. सि.] यत्रैककर्तृकानेका
विचकिलकेसर [व्य. वि. २. श्लो. २२. पृ. ५५]
[का. मी. पृ. ११०] यदनार्षमनाहाय
२१४ विच्छित्तिशोभिनैकेन [ना. शा. अ. १८. श्लो. ४६]
[ध्व. लो. उ. ३. परिकरश्लोक. यद्यदाकाङ्कितं योग्य
११ पृ. ३०२] यन्नाटके मयोक्तं
२१४ विज्ञानं वेदना संज्ञा [ना. शा. अ. १८. श्लो. ४७]
विडम्बयति संधत्ते यमकानुलोमतदितरं
[का. द. परि. २. श्लो. ६२] यस्य पदार्थाभिनयं २२२ विधेयोद्देश्यभावोऽयं
, यस्मिन् कुलाङ्गना पत्युः
[व्य. वि. २. श्लो. ९५. पृ. ९७] यः संयोगविभागाभ्यां
विप्रवणिक्सचिवानां [भर्तृहरिः]
[ना. शा. अ. १८. श्लो. ४८] यस्मिन् सति नृत्यन्तीव
२०५ विभागे सति साकाङ्कम् . [वा. का. लं. सू. अधि ३.
[जैमिनि. मी. द. भ. २. पा. १. अ. १. सू. २३ वार्तिक]
अधिः १४. सू. १६. यस्मिन् सति बहून्यपि
पा. भे. अर्थैकत्वादेकवाक्यं साकाङ्क्ष [वा. का. लं. सू. अधि. ३.
चेद्विभागे स्यात् म. १. ११. वार्तिक]
विरुद्धबुद्ध्यसभेदाद् योगमेकत्वमिच्छन्ति वस्तुनोऽन्येन वस्तुना १६९
[अ. भा. अ. ६. पृ. २७३] रङ्गं प्रसाद्य मधुरैः
२१९
विशिष्टमस्य यद्रूपं [द. रू. प्र. ३. का ४.]
[व्य. वि. २. श्लो. ११६] राजोपचारयुक्ता
२१५
विशेषणवशादिच्छेद [ना. शा. अ. १८. श्लो. ६०]
[व्य. वि. २. श्लो. ५३. लवणो रसमयः सुरोदकः
१८४ [का. मी. पृ. ९१]
पृ. ८३] वंशस्थकादिचरणान्तनिवेशितस्य
११९
विष्कम्भकप्रवेशकरहितो वक्ता हर्षभयादिभिः
१७२ वृत्तयः काव्यमातृकाः [रु. का. लं. भ. ६. का. २९]
[ना. शा. अ. १८. श्लो. ४.]
१६७ २५५
२३६
१२५
२१४
1
२०५
३०२
१५४
२१८ २२५
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
संकेते प्रमाणत्वेनोदाहृतानां संदर्भाणामकाराद्यनुक्रमः
[75
प्रमाणं
प्रमाणं
२१७
३१२
२२६
२५५
पृष्ठाङ्कः वृत्तवर्तिष्यमाणानां
२१८ [द. रू. प्र. १. का. ५९] वेश्याचेटनपुंसकं
[ना. शा. अ. १८. श्लो. १०५ व्यङ्गयस्य यत्राप्राधान्य व्यञ्जकत्वं शब्दानां गमकत्वं
१०७ व्यधिकरणे वा यस्मिन्
[रु. का. लं. अ. ७. सू. २२] व्यायोगस्तु विधिज्ञैः
[ना. शा. अ. १८. श्लो. ९.] शब्दप्रवृत्तिहेतो .
[रु. का. लं. भ. ६. का. ६] शब्दव्यापारतो यस्य
१५ [अ. वृ. मा. का..] शब्दार्थवर्त्यलङ्कारा०
३४२ [उ. का. लं. सा. सं. व. ५. का. २२] शब्दार्थशासनज्ञानमात्रेणैव
[ध्व. उड्योत. १. का. ७] शषाभ्यां रेफसंयोगैष्टवर्गेण
[उ. का. लं. सा. सं. व. १. का. ६] शृङ्गारहास्यवर्जम्
२१६ . [ना. शा. भ. १८. श्लो. ८५] शृङ्गारे कैशिकी
२२१ [द. रू. प्र. २. श्लो. ६२] श्रव्यं नातिसमस्तार्थशब्द
२०३ . [भा. का. लं. परि. २. श्लो. ३] श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां १००
[मी. द. अ. ३. पा. ३. अधि. ७. सू. १४] श्लेषगर्भत्वे श्वेतं छागमालभेत
१०० षाड्जीवैवार्षभी चैव
[ना. शा. अ. २८. श्लो. ४२.] षोडशनायकबहुला
२१७ [ना. शा. अ. १८. श्लो. ८८] स एव सत्कविगिराम्
[व्य. वि. २. श्लो. ११६. पृ. १०८] स एव सर्वशब्दानाम्
[व्य. वि. २. श्लो. ११५. पृ. १०८] संस्कृतप्राकृतमागध°
२४० [रु. का. लं. अ. २. श्लो. १२.
पा. मे. प्राकृतसंस्कृत ]
पृष्ठाङ्कः सत्त्वे निविशतेऽपैति [पा. म. भा. सू. (IV. I. 44)
वोतो गुणवचनात् ] सहक सदृशसंवादि
२५५ [का. द. परि. २. श्लो. ५८] सन्ति तत्र यो मार्गाः
१५२ [कुन्तकः व. जी. उन्मेष. १. का. २४.
पा. मे. संप्रति तत्र ये.] समासश्च बहुव्रीहिः
२५५ [का. द. परि. २. श्लो. ६१] समासोक्तिः सहोक्तिश्च
. ३०५ समिधो यजति
१०१ सर्गश्च प्रतिसर्गश्च
[पुराण १, १, ३७-३८, वायुमत्स्यादयः] सर्वरसलक्षणाच्या
२१८ [ना. शा. अ. १८. श्लो. ११२] सलक्षणसदृक्षाभाः
२५५ [का. द. परि. २. श्लो. ५९] सवर्णतुलितौ शब्दौ
[का. द. परि. २. श्लो. ६०] सामान्यान्यथासिद्धेः साम्यरूपा विवक्षायां
[भामहोत्प्रेक्षालक्षणे २] सुप्तिङन्तचयो वाक्य
२८८ [अ. को. का. १. व. ६ श्लो. २.
पा. भे. तिङ्सुबन्त] स्त्रीप्राया चतुरका
२१५ [ना. शा. भ. १८. श्लो. ५९] स्थानाभिधानभाञ्जि
२३४ [रु. का. लं. अ. ३. का. ५२] स्थायिनोऽर्थे प्रवर्तन्ते
१५९ स्पर्धते जयति द्वेष्टि
[का. द. परि. २. श्लो. ६१] हास्यप्राय प्रेरणं तु
[अ. भा. भ. ४. पृ. १८१] हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं
१८४ [का. मी. पृ. ९४] हेतुश्च सूक्ष्मो लेशोऽथ
[भा. का. लं. परि. २. श्लो. ८६] हृदयानुप्रवेशेन
१०
२५५
३०२
२२१
३२०
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
IX
संकेतोदाहृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमणी
पद्यं
अकालसन्ध्यामिव धातुमत्ताम् [ कु. सं. स. १. लो. ४ ]
अक्षराणामकारोऽहम्
[सु. श्लो. २४६० ]*
अप्रादपि मध्यादपि
[प. प्रा. स्थापना. लो. ४. पृ. २] अचिराभामिव
[ कु. म. लो. २५८ ] अत्रानुगोदं मृगयानिवृत्त ' [र. वं. स. १३. लो. ३५ ]
अथ नयनसमुत्थं
[र. वं. स. २. श्लो. ७५ ]
अथ पक्त्रिमतामुपेयिवद्भिः अथ भूतानि वार्त्रघ्नः शरेभ्यस्तत्र ०
[ कि. स. १५. लो. १] अदादिन्द्राय कुण्डले अनेन कल्याणि करे गृहीते [र. वं. स. ६. लो. ६३ ] #
अनेन सार्धं विहराम्बुराशे [र. वं. स. ६. लो. ५७ अन्ययान्यवनितागत चित्तं
1
[शि. व. स. १०. लो. २८ ] अध्यवस्तुनि कथाप्रवृत्तये
[ कु. सं. स. ८. लो. ६ ] roधति एव वानर भटैः
[ Quoted in भ. स. पू. ७२] अभिनवकुश सूचि
पृष्ठाङ्कः
२६६
१४२
२०८
२६६
३२९
२०६
२७५
१५४
१६४
१०१
३०५
२९९
२८
२८७
१८६
[ का. मी. पृ. १११]
* Attributed to Bhāskarasena. The reading is somewhat different: 'विष्णुः स्वयं ब्रुवन्। भवता सोऽपि यत्सत्यमाकारेण लघूकृतः ॥
पा. मे. मूलादपि मध्यादपि विटपादप्यकुरादशोकस्य । पिशुनस्थमिव रहस्यं समन्ततो निष्कसति पुष्पम् ॥
+ पा. भे. अनेन पाणौ विधिवद् गृहीते
पद्यं
अरण्यानी क्यम्
[ नवसाहसाङ्के पल्लवस्य$
न. सा. स. ५. लो. ८१ ] अलंकृतजटा चक्रम् भलोलकमले चित्तम्
[ दे. श० लो. ७४ ] अवैमि तदपध्यानात् अश्वीयसंहतिभिः असामहितो महितः
[ रु. का. लं. अ. ३. श्लो. ५५ ]
असंतोष (? षा ) दिवाकृष्ट ० असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टेः
[ कु. सं. स. १. लो. ३१]
अस्त्युत्तरस्याम्
[ कु. सं. स. १. लो. १ ] अहिणवकमलदलारुणि
[ रु. का. लं. पृ. ६०] आकाशयानतटकोटिकृतैकपादाः [ का. मी. पृ. ४३] आगामिनीं जगृहिरे
[ शि. व. स. ५. लो. १४ ] आचार्यस्य त्रिभुवनगुरोः
[वे. सं. अं. ३. लो. २० ]
आनन्दमन्थरपुरन्दर
[ चन्द्रचूडचरिते ]
नदी पुण्यम् आवर्जिता किंचिदिव
[ कु. सं. स. ३. लो. ५४ ] आश्वपेहि मम सीधुभाजनात् आसीनाथ पितामही तव इतः स दैत्यः प्राप्तश्रीः
पृष्ठाङ्कः
३२५
२०२
२४०
१४१
१५३
२३८
२६५
२९६
२०५
२५०
१७९
१५३
२१८
३४१
३१९
२६६
२०८
३०४
२८
[ कु. सं. स. २. लो. ५५ ] इदं तेनोक्तम् इन्दुर्लिप्तमिवाञ्जनेन
[ बा. रा. अं. १. लो. ४२ ]
$ परिमलापरनानः पद्मगुप्तस्य according
to B. s. s. edition
२७६
२८०
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
[77
पर्छ
पृष्ठाङ्कः
१८३
३५० २००
३५० २४९
११६ ११७ २६५
२०२
२३८
संकेतोदाहृतपधानामकारायनुक्रमणी पृष्ठाङ्कः
पद्यं उत्क्षिप्तं सह कौशिकस्य
कीर्तिप्रतापौ भवतः उत्तिष्ठन्त्या रतान्ते भरमुरगपतौ
१३० कीर्तयस्तव लिम्पन्तु [वे. सं. अं. १. श्लो.३]
कुशलसखीजनवचनैः उदन्वच्छिन्ना भूः सच
१४८
कोपात्कोमललोलबाहुलतिका [बा. रा. अं. १. श्लो..]
[अ. श. श्लो. ९] उदाररचनारोचिर्भासुरा राजते कथा २२८ क्वचित्काले प्रसरता उदेति सविता ताम्रः
२२८
क्षितिविजितस्थिति [सु. श्लो. २२० क्षेमेन्द्रस्य]
[का. द. प. ३. श्लो. ८५] उद्दामोत्कलिकाम्
१९९ क्षुण्णं यदन्तःकरणेन वृक्षाः [र. अं. २. श्लो. ४]
क्षुण्णं यदन्तःकरणेन नाम उद्यता जयिनि कामिनीमुखे
१५० गतासु तीरं तिमिघट्टनेन उन्नत्यै नमति.प्रभु
३२६
[न. सा. स. १. श्लो. ५२] [सु. श्लो. ३२३५]
गतोऽस्तमर्को भाति उपोढरागेण विलोलतारकम्
[का. द. प. २. श्लो. २४४] [सु. श्लो. १९६९. पाणिनेः]
गर्भग्रन्थिषु वीरुधाम् एकत्रासनसङ्गते
१८०
[का. मी. पृ. १०८] [अ. श. श्लो. १९]
घनाघनायं न नभा एकस्मिन् शयने पराङ्मुखतया
[रु. का. लं. अ. ३. श्लो. ५४] [म. श. श्लो. ८३]
चकाशे पनसः प्रायः एकाकिनी यदबला
३२७
चकासतं चारुचमूरुचर्मणा [सु. २२३४. रुद्रटस्य]
[शि. व. स. १. श्लो. ८] कटस्थलपोषितदानवारिभिः
११४
चकोरा एव चतुराः कदा नौ सङ्गमो भावी
चञ्चद्भुजभ्रमित
[वे. सं. अं.१.श्लो. २१] [का. द. परि. २. श्लो, २६१]
चन्दनासक्तभुजग कपोलफलकावस्थाः
२६५
चन्द्रबिम्बादिव विषम् [उ. लं. ल. वृ. ३]
[का. द. प. ३. श्लो. ३९] कण्ठस्य तस्याः स्तनबन्धुरस्य
३२०
चलापाङ्गां दृष्टिं स्पृशसि [कु. सं. स. १. श्लो. ४२]
[म. शां. अं. १. श्लो. २०] कष्ट कथं रोदिति थूस्कृतेयम्
चारुता वपुरभूषयदासाम् कष्टा वेधव्यथा नित्यम्
१४५
[शि. व. स. १०. श्लो. ३३] [अ. रा. अं. १. श्लो. ४०]
च्युतसुमनसः कुन्दाः काराविऊण खउरम्
१५६
[औ. वि. च. पृ. १४६. कालिङ्गं लिखितमिदं वयस्य
मालवकुवलयस्य किं वृत्तान्तः परगृहकृतैः ।
च्युता दिवः स्थास्नुरिवाचिरप्रभा [सु. श्लो. २५४४ मार्तण्डदिवाकरस्य]
जयति क्षुण्णतिमिरः किं ददातु किमश्नातु भर्तव्य
जयति चतुर्दश भरणाकुलः
३२६ जयमदन गजदमन किमित्यपास्याभरणानि यौवने ।
जहि शत्रुकुलं कृत्वम् [कु. सं. स. ५. श्लो. ४४]
[का. द. प. ३. श्लो. १३१]
P
१५४
२८६
२६६
१९८
१४९
३०३
२६६ २२७ १८३
२४९
१५३
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५३
१७३
.
.
m
२२८
संकेतोदाहृतपद्यानामकारायनुक्रमणी पचं पृष्ठाङ्कः
पृष्ठाङ्कः जालेन सरसि मीना २८८ दशरश्मिशतोपमद्युतिम्
२२७ [रु. का. लं. अ. ८. श्लो. १०४]
[र. वं. स. ८. श्लो. २९] ज्योत्स्नापूरप्रसरविशदे
१७९ दामोदरकराघातः [का. मी. पृ. ४३]
[सु. र. भाण्डागारे बाणस्य ] तं कृपामृदुरवेक्ष्य भार्गवं
११९ दारुणरणे रणन्तम्
२०९ . [र. वं. स. ११. श्लो. ८३]
दाहोऽम्भः प्रसूतिं पचः ततः कुमुदनाथेन
[वि. शा. भ. अं. २. श्लो. २१ पा. भे. तापो] [म. भा. द्रो. प. अ. ८.
दिग्मातङ्गघटा विभक्ताचतुरा श्लो. ४०८]
[औ. वि. च. पृ. १३८. तत्पादनखरत्नानां
२७८
भट्टप्रभाकरस्य] तदीयमातङ्गेति १५४ दिलीप इति राजेन्दुः
३५१ तद्वकं यदि मुद्रिता.
३५२
। [र. वं. स. १. श्लो. १२] [बा. रा. अं. २. श्लो. १७]
दिव्येयं न भवति किन्तर्हि मानुषी २०६ तद्वक्रचन्द्रे नवयौवने
दी/कुर्वन्पटुमदकलम् [वि. शा. भ. अं. १. श्लो. १४]
[मे. दू. श्लो. ३.] तनुमतोऽनुमतः सचिवैः
दुग्धोदधिशैलस्थौ
२९८ तरङ्गय दृशोऽङ्गणे
३५१
[रु. का. लं. अ. ७. श्लो. ३७] [बा. रा. अं. ३. श्लो. २५]
दूरागाधभवान्ध
२२४ तव कुसुमशरस्वम्
१४९
[संकेतकारस्य सोमेश्वरस्य] [अ. शा. अं. ३. श्लो. ३]
दृढतरनिविष्टमुष्टेः
१४२ तव प्रसादात् कुसुमायुधोऽपि
दृष्ट्या केशव गोपरागहृतया [कु. सं. स. ३. श्लो. २०]
धुवि यद् गामिनी तस्यारिजातं नृपतेः
२२८ तापोऽम्लः प्रसूति (see दाहोऽम्भः)
[कि. स. १५. श्लो. ४३] तीवा भूतेशमौलिस्रजम् ।
द्रविणमापदि भूषणमुत्सवे
३५० २७४
[भ. श. श्लो. ५] [अ. रा. अं. ५. श्लो. २]
द्वयं गतं संप्रति शोचनीयताम् । तीर्थे तदीये गजसेतुबन्धात्
[कु. सं. स. ५. श्लो. ७१] [र. वं. स. १६. श्लो. १३]
द्विषतां जहि निःशेषम्
२२८ तुरङ्गकान्ताननहव्यवाह [शि. व. स. ३. श्लो. ३३]
द्विषतां मूलमुच्छेत्तुम् तेषां गोपवधूविलाससुहृदाम्
द्विषद्भ्यस्त्रस्यसि कथम्
२२८
२१९ त्यज करिकलभ
द्वीपादन्यस्मादपि
१६४ त्वत्काटाक्षावलीलीलाम्
[र. अं. १. श्लो. ६] त्वतारवी निवसनं मृगचर्मशय्या १२५
धूलीकदम्बपरिधूसर
१८६ [बा. रा. अं. ६. श्लो. ४०]
[का. मी. पृ. १०९]
न मया गोरसाभिज्ञम् त्वगुत्तरासङ्गवतीमधीतिनीम्
२५० १५४ [कु. सं. स. ५. श्लो. १६]
[का. द. परि. ३. श्लो. १०८] त्वमेवं सौन्दर्येति
नमस्त्रिभुवनाभोग [वा. का. लं. सू. अधि. ३.
[का. मी. पृ. ९०] अ. २. सू. १३]
नयाशु च रथम्
२२८ दलत्कन्दलभाग्भूमिः
नववयोलास्याय वेणुस्वनः
२
CS
१४३
२२८
१७३
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद्यं
नवीनविभ्रमोभेद० नानाकारेण कान्तभ्रूः
निनामिमुख (:) नियतमगम्यदृश्यम्
[ रु. का. लं. अ. ५. लो. २८ ] निरर्थकं जन्म गतं नलिन्या
[ बि. का. लो. ३२] निरानन्दः कौन्दे मधुनि
[ कि. स. ३. लो. २१]
[ वा. का. लं. । अधि. ३. अ. १ सू. १३ निरीक्ष्य संरम्भनिरस्तधैर्यम्
निर्णेतुं शक्यमस्तीति
संकेतोदाहृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमणी
[ का. द. परि. २. लो. २१८ ] निर्मोकमुक्तिमिव ० निवेदितं निःश्वसितेन
[ कु. सं. स. ५. श्लो. ४६ ] न्यञ्चत्कुञ्चितमुत्सुकम् न्यस्ताक्षरा धातुरसेन यत्र
[ कु. सं. स. १. श्लो. ७ ]
पतिते पतङ्गमृगराज
[ शि. व. स. ९. लो. १८] पत्युः शिरश्चन्द्रकलामनेन
[ कु. सं. स. ७. लो. १९] पयस्विनीनां धेनूनां पर्याप्तपुष्पस्तबकस्तनीभ्यः
[ कु. सं. स. ३. लो. ३९] पशुपतिरपि तान्यहानि
[ कु. सं. स. ६. श्लो. ९५] पश्चात्पर्यस्य किरणानुदीर्ण
[ का. द. परि. २. लो. २५७ ] पाण्डोर्नन्दन नन्दनम्
[ का. मी. पृ. ४२ ] पाण्डत्योऽयमंसार्पितलम्बहारः
[र. वं. स. ६. लो. ६० ] पातालमेतन्नयनोत्सवेन
पृष्ठाङ्कः
२९२
२२८
२६४
२४९
[ न. सा. स. १४. श्लो. २३] पायात् स शीतकिरणाभरणो भवो वः पिबतो वारि तवास्याम्
[ रु. का. लं. अ. ५. लो. ३० ]
३०६
२०५
१५५
३१६
३५०
२९
३१२
३१६
३५०
८८
२५१
५६
३१६
१७४
१७९
१६४
२६५
१५४
२५०
पद्यं
पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यात्
[ कु. सं. स. १. लो. ४४ ] रसगुणैर्मू
प्रत्याख्यातरुषः कृतं समुचितं प्रभ्रस्यत्युत्तरयत्विषि प्रसीदत्यालोके
[ धनिकस्य द. रू. प्र. २. सू. ७ ] प्राचेतसो मुनिवृषा प्रथमः कवीनाम्
[म. च. अं. १. लो. ७ ] बर्हिर्देव सदनं दाि बाले नाथ विमुञ्च मानिनि
[अ. श. श्लो. ५७ ] बालेन्दुवक्राण्यविकाशभावात् [ कु. सं. स. ३. श्लो. २९] बिभ्राणः शक्तिमाशु
[ सू. श. श्लो. २५] बिसकिसलयच्छेदपाथेयवन्तः [ मे. दू. श्लो. ११] भर्तृदारिके दिष्ट्या वर्धामहे
[ मा. मा. अं. १. पृ. ५४ ] भाति पतितो लिखन्त्याः
[र. अं. २. लो. ११]
भैरवाचार्यस्तु दूरादेव
[ ह. च. उ. ३. पू. १०५ ] भ्रमरद्रुमपुष्पाणि मदो जनयति प्रीति
[ भा. का. लं. परि. २. लो. २७] मधु द्विरेफः कुसुमैकपात्रे
[ कु. सं. स. ३. लो. ३६] मधुपराजिपराजितमानिनी मधुसुरभिणि षट्पदेन
[ कि. स. १०. लो. ३४ मध्ये व्योम त्रिशङ्कोः शतमखविमुखः मनीषिताः सन्ति गृहेऽपि
[ कु. सं. स. ५. लो. ४] मनुष्यवृत्त्या समुपाचरन्तम् मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा [ पा. शि. ५२. म. भा. वॉ. १. पृ. २ ] मय्यासक्तश्चकितहरिणीहारिनेत्रविभागः
[ 79
पृष्ठाङ्कः
२८५
१७
१०५
७७
१८०
२१९
१००
११३
२६६
१३१
१५४
२८
४२
३५०
२२९
२८८
५७
२२७
२७१
११९
३०८
७७
२८
१०६
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
80]
पचं
०.
J०
संकेतोदाहृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमणी पृष्ठाङ्क: पद्यं
पृष्ठाङ्क: मरुल्लास्यं त्यजति
रक्तस्त्वं नवपल्लवैरहमपि महदपि परदुःखं शीतलं
[सु. श्लो. १३६४. श्रीयशोवर्मणः ] [विक्र. अं. ४. श्लो. २३]
रघुर्भृशं वक्षसि तेन महेश्वरे वा जगताम्
[र. वं. सः ३. श्लो. ६१] . [भ. वै. श. श्लो. ८४]
रविसंक्रान्तसौभाग्य मा गाः पातालमुर्वि
[रा. अ. का. स. १६. श्लो. १३ ] [का. मी. पृ. ४३] मालाकार इवारामे
रागस्यास्पदमित्यवैमि मूर्खत्वात् पाशवेन इन्द्रः
[ना. अं. १. श्लो. ५] मूर्धा जाम्बवतोऽभिवाद्य
लाक्षालक्ष्यललाटपट्टम् मृग्यश्च दर्भाङ्कुरनिर्व्यपेक्षाः
[अ. श. श्लो. ६०]
लावण्णुजलङ्गु [र. वं. स. १३. श्लो. २५]
लीलावधूतपद्मा मैनाकः किमयं रुणद्धि
२२० [हनु. अं. ४. श्लो. ९]
[र. अं. २. श्लो. ८] यथा रन्ध्र व्योम्नश्चलजलद.
३१५ वदनमिदं सममिन्दोः यदुवाच न तन्मिथ्या यद्
१२६ [रु. का. लं. अ. ८. श्लो. ७७ ] [र. वं. स. १७. श्लो. ४२]
वदामि भवतस्तत्त्वम्
१४६ यद्यप्य (न) नुपचरितः २९४ वल्लीवल्कपिनद्धधूसरशिराः
३०३ यमिन्द्रशब्दार्थनिषूदनम्
११६ वस्त्रायन्ते नदीनाम् [शि. व. स. १. श्लो. ४२]
[वा. का. लं. सू. अधि. ४. भ. १. सू. १०] यः स्थलीकृत
१३०
वागर्थाविव संपृक्ती याते द्वारवतीं तदा मधुरिपौ
[र. वं. स. १. यातो विक्रमबाहुरात्मसमताम्
२२० वाताहारतया जगद् र. अं. ४. श्लो. २०
[भ. श. ८७] पा. भे. नीतो विक्रम.] वारणागगभिरासा
२४९ या धर्मभासस्तनयापि०
३५१
[शि. व. स. २९. श्लो. ४४] [शि. व. स. १२. श्लो. ६७
विकसति सति तस्मिन् पा. भे. या धर्मभानोः] विभजन्ते न ये भूपम् ।
१२३ यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य २७७ विराटस्यास्माभिः
१३८ [अ. रा. अं.१. श्लो. ४]
[वे. सं. अं. १. श्लो. ११] या शैशिरी श्रीस्तपसा
२९४ विलसदमरनारीनेत्रनीलाब्जखण्डा. २७६ यां दृष्ट्वापि समुत्सुके मनसि मे०
विवृद्धात्माप्यगाधोऽपि ये सन्तोषसुखप्रबुद्धमनसः
विशन्तु वृष्णयः शीघ्रम्
३५० [भ. वै. श. २९]
विश्वामित्रः श्वमांसं श्वपच इव योगपट्टो जटा जालम्
[ना. अं. ४. श्लो. १४] यो यः शत्रं बिभर्ति
वेग हे तुरगाणाम् [वे. सं. अं. ३. श्लो. ३२
वीडायोगानतवदनया रक्तच्छदत्वं विकचा वहन्तः
२४२
[सु. श्लो. १३३५ यशःस्वामिनः] [सु. श्लो. १८१७ शकवृद्धेः]
शक्या भङ्खण्टसिति (१)
२२७
२५५
१७६
१९९
१७९
ur
०
२०३
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
संकेतोदाहृतपद्यानामकाराद्यनुक्रमः
[81
पृष्ठाङ्कः
१७२
२२४
२६५ १४९
३२३
२३६
२५०
२७४ १३१
पृष्ठाक शश्वदर्शनलोपि संतततमः
१३१ [संकेतकारस्य सोमेश्वरस्य] शिशिरमासमपास्य गुणोऽस्य
१५४ [शि. व. स. ६. श्लो. ६५] शीतांशोरमृतच्छटा यदि कराः
१७४ शीर्णपर्णाम्बुवाताश
[उ. का. लं. २. पृ. ३७] श्यामास्वकं चकितहरिणी
२०० [मे. दू. श्लो. ४१] श्रवणैः श्रव्यमनेकैः .
२१९ [बा. रा. अ. ३. श्लो. १२] श्रियः पतिः श्रीमति शासितुम्
१७९ [शि. व. स. १. श्लो. १] श्रीहर्षों निपुणः कविः
२१९ [र. अं. १. श्लो. ५, प्रि. द. अं. १. श्लो. ३
नागा. अं. १. श्लो. ३] श्रुतिसमधिकमुच्चैः
१५८ [शि. व. स. ११. श्लो. १] श्रुत्वापि नाम बधिरः
१५५ श्रोणीबन्धस्त्यजति तनुताम् संचारपूतानि दिगन्तराणि
२८८ [र. वं. स. २. श्लो. १५५] स त्वं सम्यक् समुन्मील्य
२५२ स दक्षिणापाङ्गनिविष्टमुष्टिम्
[कु. सं. स. ३. श्लो...] सदयं बुभुजे महाभुजः
३१७ [र. वं. स. ८. श्लो..] समतया वसुवृष्टिविसर्जनैः
१४९ [र. व. स. ९. श्लो. ६] समुस्थिते धनुर्ध्वनी
[अर्जुनचरिते] सम्पदो जलतरङ्गविलोला स रणे सरणे न
[रु. का. लं. भ. ३. श्लो. ५३] सर्वकार्यशरीरेषु
[शि. व. स. २. श्लो. २०]
पचं सर्वक्षितिभृतां नाथ
[वि. क्र. अं. ४. श्लो. ५१] सर्वाशारुधि दग्धवीरुधि सदा
[सु. श्लो. १७०८ भट्टबाणस्य] सवः पायाविन्दुः सस्नुः पयः पपुरनेनिजः
[शि. व. स. ५. श्लो. २०] सा बाला वयमप्रगल्भ.
[म. श. श्लो. ३४] साम्यं सम्प्रति सेविते
[वि. शा. भ. अं. १. श्लो. २५] सा रक्षतादपारा ते
[दे. श. श्लो. १६] सितनृशिरस्त्रजा (च) सौजन्याम्बुमरुस्थली. सौधादुद्विजते त्यजत्युपवनम्
[वि. शा. भ. अं. ३. श्लो. २] स्तनयुगमश्रुनातम्
[का. श्लो. २१. पृ. २६] स्त्रीणां केतकगर्भ स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः . [कु. सं. स. १. श्लो. १] स्नेहं समापिबति कज्जलमादधाति स्वस्तः स्रग्दामशोभाम्
[र. अं. १. श्लो. १६] स्वचरणविनिविष्टैः स्वञ्चितपक्षमकवाटम्
[भासस्य] स्वीकृत्य कल्पतरुतो
[संकेतकारस्य सोमेश्वरस्य] हन्त हन्तररातीनाम् हरेः कुमारोऽपि कुमारविक्रमः
[र. वं. स. ३. श्लो. ५५] हर्षस्य सप्तभुवनप्रथितोरुकीतः हा वत्सा खरदूषणप्रभृतयः
[म. च. अ. ४. श्लो. ११.] हिरण्मयी साऽऽस लतेव जङ्गमा
[भ. का. स. २. श्लो. ४७ ] हृदि विगतरजोविकारे
२०६
२६६
१३१ १९८
२०५
२००
३५२
२२९
२२०
२६६
२५२
का० प्र० 11
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
संकेतोदाहतानां प्राकृतपद्यानां संस्कृतच्छाया
सहितानामकाराद्यनुक्रमः। पद्य पृष्ठाङ्कः
पंचं
पृष्ठाङ्क: अहिणवकमलदलारुणि णमोणु २५०
नक्खत्तं तिहिवारे जोमसिहं फुरन्तेण केण ।
पुच्छिउं लग्गो॥ जाणिजइ तरुणीमणहु णिद्धा भणु,
[कारयित्वा क्षौरं ग्रामवृद्धो मंत्वा अहरेण ॥ [अभिनवकमलदलारुणेन मौन
भुंक्त्वा । स्फुरता केन ।
नक्षत्रं तिथिवारौ ज्यौतिषकं प्रष्टुं ज्ञायते तरुण्याः स्नेहः स्निग्ध !
लग्नः ॥] भण, अधरेण ॥]
लावण्णुजलनु घरि ढोलु पइट्ठा। काराविऊण खउरं गामउडो मजि
[लावण्योज्वलाङ्गो गृहे धवः. ऊण जिमिऊण।
प्रविष्टः।]
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
XI संकेतस्थानां विशिष्टानां शब्दानामकाराद्यनुक्रमः
पृष्ठाङ्क:
अघोरघण्ट
२१९ १८४ १८४ १८४
पृष्ठाङ्क: उत्तरायण
१८५ उत्सृष्टिकाङ्क (रूपकभेद) उपकथा (कथाभेद)
२१२ उपनागरिका (काव्यालंकारवृत्ति) १८७,२२४ उपमा
२५३ उपलावती (नदी)
१८४ उर्वशी उषा
१४३
ऊर्जः
१८५
१४३ १८० २३१ २४० १८१ १५३ १५७
१८४
१८४
२३२
अङ्ग (जनपद) अगुरु (उत्पाद) अजिन (उत्पाद) अधीरा (नायिका) अनिरूद्ध (कामसुत) अनुकूल (नायक) अन्तादिक (यमक) अपभ्रंश (भाषा) अभिसारिका (नायिका) अर्जुन अर्थ (शास्त्र) अर्धपरिवृत्तिसंज्ञ (यमक) अर्बुद (गिरि) अवरुद्धा (स्त्री) अवलोकिता अश्मक (जनपद) अश्व (उत्पाद) अश्वत्थामन् आख्यान (लक्षण) आख्यायिका आग्नीषोमीय (याग) आग्नेय (याग) आत्मीया (स्त्री) आद्यन्तक (यमक) भानर्त (जनपद) भारभटी (वृत्ति) भार्यावर्त आवृति (यमक) आश्वयुज इतिहास (लक्षण) इन्दुकील (गिरि) इन्द्रद्वीप इभमुख (विनायक)
१८४ १८१ २१८ १८४
१८४ १५३,१५६,१६२
३,२१२
२११ १०१
२११. १८१ १८७ १८४ १८४ १८४ १८४ १८४ १८१
२१२
१८४
ऊर्जस्विन् (बन्ध) ऐराक्ती (नदी) कच्छीय (जनपद) कथा कनिष्ठा (नायिका) कन्यकुब्जीय (देश) कपिमा(? शा) (नदी) कम्बोज (जनपद) करतोया (नदी) करभ (उत्पाद) करीर (उत्पाद) कलहान्तरिता (नायिका) कला (चतुःषष्टि) कलापक (काव्यभेद) कलिङ्ग (जनपद) कलिन्द (गिरि) कविप्रसिद्धि कविसमय कसे(रु)मत् (द्वीप) कस्सीर (देश) कस्तूरिका काकतालीय (न्याय) काञ्ची (यमक) कादम्बरी[? कामन्दकी] कामरूप (गिरि) काम (शास्त्र) कामशास्त्रभाषा कामसुत (अनिरुद्ध) कावेरी (नदी) काव्यगिर (लक्षण) काष्ठा (निमेषा दशपञ्चैव)
१८४ १५७ १८४
१८४
१८४
१८०,२२१
१८४ २२९,२३०
१८५
१३६ १८४ १५० २३५ २१८ १८४ १५७ १२३
१८४ १८४
१४३
.१८४
ईहामृग (रूपकभेद) उत्कल (जनपद) उत्तरापथ
.
१८४
१८५
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
84]
संकेतस्थविशिष्टशब्दानामकाराद्यनुक्रमः
पृष्ठाङ्कः
पृष्टाङ्क:
१८४
१८४
१८५ १८४ २४९ .२३२
१८४
१८४
१८४
१८४
घुरी (वाद्य) चकोर (गिरि) चक्र (काव्यप्रकार) चक्रक (यमक)(काव्यप्रकार) चतुःषष्टि (गीतनृत्तनाव्यचित्र
कर्मादिका) चन्द्रभागा (नदी) चन्द्राचल (गिरि) चमर (उत्पाद) चम्पू (वासवदत्तादिवत्) चातुर्वर्ण्य चारी (नृत्त) चारुदत्त
२१२ १८४ १८४
१८४
१८४
१८४ २१२
१८४
१८४ १८४ २५४
१८४ १८०,१८७,२२१
१८४ १८४ १८४
१०१,१३६
६०
किंपुरुष (वर्ष) कीरत् (जनपद) कुङ्कुम (उत्पाद) कुण्डल (जनपद) कुभूत (,) कुमारीद्वीप कुलक (काव्यभेद) कुहू (नदी) कृष्णवेणी (नदी) केकय (जनपद) केरल (जनपद) केशव कैशिक (जनपद) कैशिकी (वृत्ति) कोकण (जनपद) कोल्लगिरि कोसल (जनपद) ऋथ (जनपद) क्षुद्रकथा (कथाभेद) खड्ग (यमक) खड्गादिसन्निविष्टत्व खण्डकथा खण्डिता (नायिका) खजूर (उत्पाद) गङ्गा (नदी) गन्धर्व (द्वीप) गर्भ (यमक) गभस्तिमत् (द्वीप) गाङ्ग (देश) गिरिनगर गीत (कला) गीतविरुद्ध गुग्गुल (उत्पाद) गेय (काव्य) गोदावरी (नदी) गोवर्धन गौरी प्रन्थि (उत्पाद)
चित्तवृत्तिविशेष (रसादि) चित्र (कला) चित्रकर चित्रकलाविरोध चेरल (जनपद) चेष्टाविशेष-रसोचित (वृत्ति)
२१२
२४७
२४६
चैत्र
१८४ २२५ १८५ १८४ २२५
२११
११ १८४
१८४
१८४
२३०
१८४ १८३,१८४
१५८ १८४ १९२
१८४
१८४
१८४ ५,१५७
[चोड (जनपद) छेकानुप्रास जनक जनपद जम्बूद्वीप जाति (अष्टादश) जालन्धर (गिरि) जिन (दन्तक्षत) ज्येष्ठा (नायिका) डिम (रूपकप्रकार) तङ्गण (जनपद) तपस् तपस्य ताण्डव (नृत्त) तापी (नदी) ताम्रलिप्त (जनपद) ताम्रपर्णी (नदी) ताम्रपर्ण्य (द्वीप) अवण (जनपद)
२१३
१८४ १८५ १८५ १५९
१८४
१८४ २२१ १८४ १८४ १५९ १८४ १८७ १८५
.
.१८४
ग्राम्य
१८४
ग्रीष्म
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
संकेतस्थविशिष्टशब्दानामकारावनुक्रमः
[85
पृष्ठाङ्कः
१८४ १८४ १८४
२१३
१८४
.
४५
तुगभद्रा (नदी) तुरुष्क (जनपद) तुवार (,) तोटक (काहलाधुक्त) तोसल (जनपद) दक्षिण (नायक) दक्षिणपाद (गिरि) दक्षिणापथ दक्षिणायन दण्डक (जनपद) . दण्डनीति दर्दुर (गिरि)
१८०
१८४ १८४ १८५ १८४ १५७ १८४.
दाशरथि
२२१
.
दासेरक (जनपद)
दुर्योधन
दुष्यन्त ..
१६२ १९८ १८४ १८४
१८४
पृष्ठाङ्क: नर्मदा (नदी)
१८४ नागपाश (चित्रकाव्यप्रकार)
२४९ नागर
१८७ नाटक
१५९,१८१,२१९ नाटकमण्डप नाटकादिनाट्य
१५९ नाटिका (रूपकभेद)
२१३ नाट्य
१५७,१५९ नायक
.१८१ नायिका
१८१ नासिक्य (जनपद)
१८४ निदर्शन (कथाभेद)
२१२ निर्वहण (संधि) नृत्त
५,१५७,१५९ नृत्तकलाविरोध
१५९ नेपाल (जनपद) पशि (यमक)
२२९,२३०,२३५ पञ्चाङ्ग पताका (अर्थप्रकृति)
२१९ पत्रविद् (मानायः)
१५९ पद्यमयी (कथा)
२११ पयोष्णी (नदी) परस्त्री (नायिका)
१८१ परिकथा (कथाभेद) परिवृत्त (यमक)
२२९ परिवृत्ति (यमक)
२३० पर्णक (उत्पाद)
१८४ पर्या (काव्यभेद)
२१२ पल्लव (जनपद)
१८४ पश्चाद्देश
१८४ पाटलिपुत्र
२५४ पाण्डव
१९४ पाण्डवादिकथा
१८३ पाण्ड्य (जनपद)
१८४ पादसमुद्रक (यमक)
२३४,२३७ पाश (चित्रकाव्यप्रकार)
२४९ पिशाच (भाषा)
२४० पीलु (उत्पाद)
१८४ पुच्छ (यमक)
२२९,२३० पुण्डू (जनपद)
१८४
१८५ १८४ २१३ १५५ ३३२
देवदार देवसभ (गिरि) देविका (नदी) दैवज्ञ द्राक्षा (उत्पाद) द्रुतविलम्बित (छन्दः) द्रोणाचार्य द्विपदीच्छन्दः धनुः (चित्रकाव्यप्रकार) धर्म (शास्त्र) धर्मार्थकाममोक्षशास्त्र (विद्या) धीरप्रशान्त (नायक) धीरललित (नायक) धीरा (नायिका) धीराधीरा (नायिका) धीरोद्धत (नायक) धीरोदात्त (,) धृष्ट (नायक) नगद्वीप नभस् नभस्य नरकासुर नरवाहनदत्तादिचरित
२४९
१५७ १५७ १८० १८०
१८१
१८१ १८०
१८० १८० १८४ १८५ १८५ २८१ २१२
१८४
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
86]
.
संकेतस्थविशिष्टशब्दानामकाराद्यनुक्रमः
पृष्ठाङ्क:
२६८
पुलवस् पुष्पिताया (छन्दः) पुनरुक्ताभास (शब्दालंकार)
१३७ २५२
पुराण , (लक्षण)
१७२
१८४
१८४ २१३,२१४
२१९
१८४ १८४
२५४
२१९ २१२
२१९ २१९ १२३ २१३
२१२
२५१
पूर्वदेश पृथूदक प्रकरण (रूपकभेद) प्रकरी (अर्थप्रकृति) प्रतिनायक प्रतिभान प्ररोचना (भारतीवृत्त्यङ्ग) प्रवलिका (कथामेद) प्रवृत्ति (वेषविन्यासादि) प्रवेशक प्रस्तावना प्रहणन प्रहसन (रूपकभेद) प्रहेलिका प्राकृत (भाषा) प्राग्ज्योतिष (जनपद) प्रेक्ष्य (गेयकाव्य) प्रोषितभर्तृका (नायिका) प्रौढा (नायिका) बर्बर (जनपद) बाण (चित्रकाव्यप्रकार) बाणासुरसुता बाह्रीक (जनपद) बिन्दु (अर्थप्रकृति) बीज (अर्थप्रकृति) बृहत्कथा बृहद्गृह (गिरि) ब्रह्मोत्तर (जनपद) ब्राह्मणवाह ब्राह्मणश्रमण भगवदादि (प्रहस्यमान) भरत (जाति) भरतप्रसिद्ध (वृत्ति) भरद्वाज (कुलोत्तंस)
२४० १८४ २२१ १८१
पृष्ठाङ्कः भाण (रूपकभेद) भारत (वर्ष)
१८१,१८४ भारती
१८०,२२१ भारत्यङ्ग
२१९ भार्गव भावकत्व भृगुकच्छ (जनपद)
१८४ भैमरथी (नदी) मगध (जनपद) मठ, मठहर (?)(जनपद) १८४ मथुरा मध्य (यमक)
२३२,२३५,२३९ मध्यदेश
१८४ मध्या (नायिका)
१८१ मधु (मास)
१८५ मन्थल्लिका (कथाभेद) मलय (गिरि)
१८४ महाकाव्य
२१३,२१९ महाचारी (नृत्त)
१५९ महायमक
२२९ महाराष्ट्र (जनपद)
१८४ मही (नदी)
१८४ महेन्द्र (गिरि) मागध (भाषा)
२४० माधव (मास)
१८५ माधव
१५३,१८०,३०८ माधवचारुदत्तादि मालती
१५३,३०८ माला (यमक)
२३५ माल्यशिखर (गिरि)
१८४ माहिष्मक (जनपद) माहिष्मती
१८४ मिश्रा (वृत्ति)
२२१ मुक्तक (काव्यभेद)
२१२ मुख (यमक)
२२९,२३० मुग्धा (नायिका) मुद्रक मुरजबन्ध (चित्रकाव्यभेद)
२४७ मुरल (जनपद)
१८४
१८१
१८४
२४९
१४३ १८४ २१९ २१९ २१२
१८४
१८४
१८४
१८४
२१७
१८१
१८४
१८७ ३५२
१८४
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुरारि
मुशल ( चित्रकाव्यभेद ) मुशलिन् (बलराम ) मूलदेव
मूलप्रति (हस्तलिखित मेकल (गिरि)
मेरु ( " )
मोक्ष (शास्त्र)
म्लेच्छ ( जाति)
यमक
यमुना (नदी)
वन (जनपद)
युग्मक (यम)
रङ्गद्वार
रमठ ? (जनपद)
रसमय (समुद्र)
राम (बलराम )
राम ( दाशरथि)
रामचरित
राम-युधिष्ठिर (नायक)
रावण
रावणगङ्गा (नदी)
रावण दुर्योधन (प्रतिनायक )
रूपक
लक्षणा (पञ्चधा )
लक्ष्मण
लण्ड
लम्पाक (जनपद) लवण (समुद्र)
लवली
लाटानुप्रास
लाटी
लेखक वैगुण्य
लोहितगिरि
लोहित (नद)
लोकयात्राविद्
वंश ( यमक ) - ( यमक )
संकेतस्थ विशिष्टशब्दानामकाराद्यनुक्रमः
पृष्ठाङ्कः
१८७
२४९
२४६
२१४
२३१
१८४
१८४
१५७
१८७
२५२
१८४
१८४
२३०
१५९
१८४
१८४
२४६
२७७
३१०
१८१
२००
१८४
१८१
२१४
१७
१२९
१३६
१८४
१८४
१८४
२२५,२२६
१८६
२३१
१८४
१८४
१८५
२३१,२३२
२३५
वजुरा (नदी)
वत्सराज
वरुण (द्वीप)
वर्षां
वसन्त
वसन्ततिलकादि (छन्दः)
वानवासिक (जनपद)
वानायुज (,, )
वाराणसी
वानी (नदी)
वासकसज्जा (नायिका)
वासवदत्ता
वासुदेव (भगवद्)
वितस्ता (नदी)
विदेह (जनपद)
विन्ध्य (गिरि)
विपाशा (नदी)
विप्रलब्धा (नायिका)
विरहोत्कण्ठिता (,, )
विशेषक (काव्यभेद )
विष्णु
वीथी (रूपकभेद )
वृत्ति (लक्षण)
वृत्यनुप्रास
वृष्णि
वेणी (नदी)
वेश्या (नायिका) वेषविन्यासादि
वैतालीयादि (छन्दः
वैदर्भ (जनपद)
वैदूर्य
वैयाकरण
वक्तृ
व्यस्त ( यमकभेद )
व्यस्तरूप (,, )
शक (जनपद)
शकुन्तला
शक्ति (चित्रकाव्यभेद )
शठ (नायक)
[- 87
पृष्ठाङ्कः
१८४
५०, १२६, १९९
१८४
१८५
१८६,२५४
११९, २१३
१८४
१८४
१८४
१८४
१८१
१७८
१९४
१८४
१८४
१८४
१८४
१८१
१८१
२१२
१५९,२८१
२१३
२२५
२२५
१९९
१८४
१८१
२२१
२१३
१८४
१८४
८,१६६ १.६६
२३१,२३२
२३४
१८४
१९८
२४९
૧૦૦
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
88]
संकेतस्थविशिष्टशब्दानामकाराधनुक्रमः
पृष्ठाका
पृष्ठाङ्कः १८४ २१७
१८५
१८५
.१८०
शतहदा (नदी) शाक्य शार्दूलविक्रीडितादि (छन्दः) शास्त्र (लक्षण) शिखा (यमकभेद) शिव शिवा-सुता (उषा) शिशिर
२३५
सहस्य सहृदय सह्य (गिरि) सात्वती (वृत्तिभेद) सात्त्विक (भाव) सागरिका सिंहल (जनपद) सिन्धु (नदी) सीता
१५९ १४३
१८५
१९९,२१९
१८४ १८४ १४४ २७७ १८४ १८४
शुचि
१८५
सुग्रीव
१८४
१८४ १८४ १८४ २१८ १८४ १८४
सुब्रह्म (जनपद) सुराष्ट्र (,) सुरोदक (समुद्र) [? सुह्म] (जनपद) सूरक (,) सैन्धव (उत्पाद) सौदामिनी सौम्य (द्वीप) सौवीर (उत्पाद) स्रग्धरादि (छन्दः) स्रोतोञ्जन (उत्पाद) स्वस्तिक (चित्रकाव्यभेद) खस्त्री (नायिका) स्वाधीनपतिका (,) हयग्रीव हर (१)(जनपद) हरहूर (?) जनपद हरिणी हरिवर्ष
२१३
शूद्रकादिवत् (परिकथा)
२११ शूरसेन्यादिभाषा
२१९ शूल (चित्रकाव्यभेद)
२४९ शोण (नद) शौरसेनी (भाषा)
२४० श्रव्य
२०३ श्रावण
१८५ श्रीगदितादि (गेयप्रेक्ष्यकाव्यप्रकार)
२२१ श्रीपर्वत
१८४ श्लोकावृत्ति (यमक)
२३७ श्वभ्रवती (नदी)
१८४ संस्कृत (भाषा)
२४० सकलकथा (कथाभेद)
२११ सट्टक (रूपकभेद)
२१३ सत्यभामा
१७८ सन्दंश (यमकभेद)
२२९,२३० संदष्टक (यमकभेद) २३०,२३५ सन्दानितक (काम्यभेद)
२१२ सप्तद्वीप
१८३ समवकार (रूपकभेद) समस्त (यमकभेद) २३१,२३२,२३७ समुद्क (यमकभेद) २२९,२३०,२३५ समुद्र
१८४ समुद्रदत्त
२१४ सरल (उत्पाद)
१८४ सरस्वती (नदी)
१८४ सर्वाङ्गना (वेश्या) सर्वतोभद्र (चित्रकाव्यभेद)
२४८ सहस्
१८४ २४९
१८१ १७८ १८४ १८४
१८४ १७८
२१३
हरि
२११
हल (चित्रकाव्यभेद) हिडिम्बा (नदी) हिमवत् (गिरि) हिमालय (गिरि) हूण (जनपद)
२४९ १८४ १८४ १८४ १८४
१८४ १८५,२५४
हेमन्त
१८५
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
XII संकेते निर्दिष्टानां ग्रन्थानामकारायनुक्रमः ।
पृष्ठाक:
पृष्ठाङ्कः २१२ २१२ १९० -१५७
१८२
१०१ ५,१२३
१८. ४७
१७८,२११
१८०
३५२
२१२
१८२,२११
२१२
अनङ्गवती (मन्थल्लिका ) अभिज्ञानशकुन्तला अर्जुनचरित अर्थशास्त्र आयुर्वेद उदात्तराघव ऋग्वेद कामशास्त्र कादम्बरी काव्यकौतुक
, (तवृत्ति) काव्यादर्श (नामक का. प्र. सं.) कुट्टनीमत कुमारसम्भव गीता गोरोचना (मन्थलिका) गोविन्द (आख्यान) चन्द्रचूडचरित चाणक्यादि चेटक (प्रवलिका) ज्योतिःशास्त्र तवृत्ति (काव्यकौतुकवृत्ति) तर्क तापसवत्सराज (नाटक) दण्डनीति दर्शपौर्णमासप्रकरण धतुर्वेद धातुवाद नवसाहसाङ्क नामानन्द पञ्चतन्त्र . पशवाणलीलाकथा पुराण
२१२ ३४१
बालरामायण
२१९ बृहत्कथा
२१४ भट्टिकाव्य
१२२ भामहविवरण मधुमथनविजय मयूरमार्जार (निदर्शन)
२१२ महाभारत
१९४ मालतीमाधव मुनिसूत्र (मरतमुनि) मूलदेवचरित
२१४ मृच्छकटिक यजुः (वेद)
१०१ रतिप्रलाप (रघुवंश स०८) रत्नपरीक्षा रनावली
५०,७९ राघवानन्द (नाटक) रामायण
१५१,१८२,१९५ लीलावती
२१५ वात्स्यायन (कामशास्त्र)
१२३ वासवदत्ता (चम्पू)
२१२ विषमबाणलीला
१७२,१७३ वेणीसंहार
८०,१५३
१५१ वेदवाक्य वृत्ति (अमिनवगुप्तकृता काव्यकौतुकवृत्ति) ५५ शूद्रक (परिकथा)
२११ सप्तशतक
२१२ साम (वेद) सामयजुग्वेद सेतुबन्ध
२१३ हयग्रीववध हरिविजय .
१७८,३२२ हर्षचरित
२१२
वेद .
.१५७
१०१
SSS
१०१
२१३ २१२ १३६
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
XIII संकेते निर्दिष्टानां वादिनां ग्रन्थकृतां च अकाराद्यनुक्रमः
पृष्ठा
नायक (भट्ट) नैयायिकादि
प्रभाकर प्राभाकर
११,२६
९८
बौद्ध मह
१५
भट्टकुमारिल भट्टतोत भट्टनायक भट्टमुकुलादि भट्टोनट
१७५,२०१,३४२ भरत
. ३४,८०,२०५ (see मुनि) भर्तृमित्र (आचार्य) भामह २०,३६,११०,२०३,२८८,३२०,
४९
१३५
पृष्ठाङ्क: अद्यतन
२७४,२९६ अनुमानवादिन् अन्य ८,५४,५९,२३१,२३५,२६८,२९६,२९७ अन्विताभिधानवादिन्
९६,९८,१०० अभिनवगुप्त
४७,५५ अभिहितान्वयवादिन् अमरक
२१२ अलङ्कारकार आचार्यभर्तृमित्र आनन्दवर्धन उद्भट ३६,१११,१७५,२०१,२४२,२४३,२४४,
२४६,२७२,२७९,३१७,३२०,३४२ कपिलमुनि
२७४ कापिल काव्यप्रकाशकार
२४५ (see ग्रन्थकृत् & कार) काहल
२१३ कुसुक
१५२ कुमारिल (मह) केचित् ५९,२०१,२०४,२२८,२३१,२४२,
२५१,२६२,२७८ केनचित् कैश्चित्
३०२ ग्रन्थकार (काव्यप्रकाशकार)
२९३ ग्रन्थकृत्
२३५ चन्द्रिकाकार चिरन्तन जैमिनि
९९,१४० तात्पर्यवादिन्
९८ तिलक
२९५ तोत (भट्ट) दण्डिन्
२०५ दण्डिप्रभृति
२८५ धनिक
५५ ध्वनिकार
३६,१८९ ध्वनिकारादि
३५२
कुन्तक
.
भाष्यकार (पतञ्जलि) १२५,४३ भोजराज मम (सोमेश्वर) मीमांसक
१८,१०० मीमांसकादि मुनि (see भरत) ४३,५१,५२,५६,१५८
२१३,२१५ मुनि (वाल्मीकि) मुरारि .
૮૭ मुकुलादि (भट्ट) यायावरीय
२२४ रत्नाकर
३२२. रुद्रट ३६,१५२,१५७,२३४,२८५,२९०,३००,
३११,३१२,३१६,३१९ लोल्लट
२३६ लोल्लटादि वक्रोक्तिजीवितकार वयम् (सोमेश्वर) वाक्पतिपाद वामन
३६,१७५,२०५,२७७,३०५
३४३
१४४ २७७
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
संकेते निर्दिष्टानां वादिनां प्रन्थकृतां च अकारानुक्रमः
पृष्ठाङ्कः
१९६,२२६
२९६
६७, १९५
Ч
५
२६२
२६,२९२
jee मुनि)
वैयाकरण
वैशेषिक
व्यक्तिविवेककार
व्यास
शक
शब्दालङ्कारैकान्तवादिन्
श्रीहर्ष
[91
पृष्ठाहर
८,२९५
१५
३७
१९५
४१, ४३
११०
२१९
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
XIV : संकेतावतरणानां संपादकेन समुपलब्धानां मूलग्रन्थानामकाराद्यनुक्रमः। पृष्ठाङ्कः
पृष्ठाङ्क: अनर्घराघव
१४५,२७४,२७७ बालरामायण (नाटक) १२५,१४८,२१९, अभिधावृत्तिमातृका १५,२२
२८०,३२२,३५१ भभिनवभारती
४१,४४,२२१
ब्रह्माण्डपुराण अभिज्ञानशाकुन्तल
१४९,१९८
बिहणकाव्य भमरकोश
२८८ भल्लटशतक
१९९,३५० अमरुशतक ९,४९,११३,१८०,३२३ भट्टिकाव्य
२६६ अलङ्कारसर्वस्व
२८७ भर्तृहरिवैराग्यशतक.
२०४,२०५ उद्भटकाव्यालङ्कारसारसंग्रह ८६,२२५,२६५, भामहकाव्यालङ्कार २०३,२८८,३२०,३३४ २९१,३४२ महावीरचरित
२१९,२२० औचित्यविचारचर्चा १७३,१८६ मानवश्रौतसूत्र
१०१ काठकसंहिता
मालतीमाधव कादम्बरी
१३० मीमांसादर्शन
९९,१०० काव्यमीमांसा १७९,१८३,१८४,१८५,१८६ मेघदूत
९३,१५४,२०० काव्यादर्श (दण्डिन्) २९,१५३,१७४,२०२, रघुवंश १०१,११९,१२६,१४९,१५१,१६४, . २४९,२५०,२५५,२६४,२६६,२६८,
२०६,२१९,२२७,२५५,२८८,३०४, २७४,३१६
३०५,३०८,३१७,३२९,३५१ किरातार्जुनीय १५४,१५५,२५०,२७१
४२,१९८,१९९,२९९,२२० कुमारसंभव २८,२९,५६,५७,८८,१४३,१५४,
रामायण २०५,२६६,२८५,२९६,३०२,
रुद्रटकाव्यालङ्कार ११३,१३३,१७२,१८३, ३०३,३०६,३०८,३१६
२२३,२३४,२३८,२४०, कुट्टनीमत
२४९,२५०,२८८,२९८, तंत्रवार्तिक १६,१००,१०१
३१२,३३१ दशरूपक १८०,२१८,२१९,२२१ वक्रोक्तिजीवित
१३५,१५२,३०२
वामनकाम्यालङ्कारसूत्र १२३,२०५,२०७,२२७ देवीशतक
२३६,२४० विक्रमोर्वशीय
११६,१७२ द्रोणपर्व (महाभारत)
२५३
विद्धशालभञ्जिका १३१,१८६,२८५,३३९ ध्वन्यालोक १,१०,६६,७९,८३,१०३,१९६,
वेणीसंहार ७९,१३०,१३८,२०३,२१८
व्यक्तिविवेक नवसाहसाङ्कचरित
१२१,१२५,१३१,१५१,१५४, २६५,३२५ नागानन्द १३८,१९०,२१९
३०२,३५१ नाट्यशास्त्र ४०,५१,५२,१५९,१८०,१८१,
शिशुपालवध १६,११६,१४९,१५३,१५४, १९५,२०५,२१३,२१४,२१५,
१५८,१६७,१७९,२४९, २१६,२१७,२१८,२२१,२२५
२९९,३५०,३५१ पद्मप्राभृतक (चतुर्भाणी)
२०८ श्लोकवार्तिक .
२,९७,१०७ पाणिनीयाष्टाध्यायी
२२६
सुभाषितावली ७९,१४२,१७७,१९९,२२४, पाणिनीयशिक्षा
२८
२२८,२४२,३०३,३२१,३२६ पातालमहाभाष्य
१३
सूर्यशतक प्रियदर्शिका
२१९
हर्षचरित
रत्नावली
"
(धनिक)
२०४
३५०
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page
ADDITIONS AND CORRECTIONS
INTRODUCTION Line 24 Read प्रतिरियं for प्रतिरियं
Read A and B and C mss. for A. and B mss Read Māņikyacandra for Māņikycandra.
7
TEXT
Page
line 13 .18
Read
नार्या
निबटुं शक्यम्। प्राप्तकालयोः
24
नार्यो निबढे । शक्यम् प्राप्त कालयोः स्वादे भतृमित्रेण
12
त्वादेः
इमिति
14
भर्तृमित्रेण इति यत्र नेति आयुघृतम् माश्रित स्तद्व्यञ्जकः सकलभोग्यत्व दूराद्
होकघनशोक निद्रा अलस
.28
यत्रानेति आयुर्घतद् मत्याश्रित स्तदव्यञ्जकः सकलयोग्यत्व राद् °कघमशोक निद्रा अरस
11 .29
व्यापारस्य वाच्यो ध्वनि मुख्येऽर्थ कयेण °तिप्रिय 'नूद्य गोप शोच्या निकृष्ट पुंज्यानं पुनरुक्तं
१२० १५०
व्यापारस्यै वाक्योर्ध्वनि मुख्येऽथ क्रमेण तिप्रय नूद्यगोप शोभ्या निकृष्ट व्यञ्जनं
पुनरु न त्वेत. कलिङ्गकासल स्रोताञ्जन प्रत्यमेव
१६२
१६८
१७२
नन्वत
१७३ १८४
कलिङ्गकोसल स्रोतोञ्जन प्रत्यगेव
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 94 ) Page 186 Read for 194 197 204 207 208 क्रान्ततुलिङ्गं 'मवश्यमङ्गी अलंकार्यत्वाभावात् विषयमोजः द्रुमाः 212 213 218 219 221 236 237 241 244 दश्यसे श्रयेण [न] दीर्घ उत्सृष्टिकाङ्क अङ्कान्त .. सोऽवलग्न स्त्रीगीतनृत्तयुता तृतीययोरावृत्ती उपक्षिणोति °वच्योः / कृन्त यथाऽस्माकं पूर्णोपमाया विरूपा सा-मा-मा नन्वयोत्प्रेक्षास विरोधयुक् °नुमानतः प्रथम भावस्तस्यैव भिधायकस्य सरोभिः प्रश्नप्रतिवचनयोः सहमुंडमाला नयवसरे रस 'तारापरिकर प्रेक्षयोः क्रान्तर्तृलिङ्गं मवश्ममङ्गी अलंकार्यत्याभावात् विषयभोजः द्रुमः दृश्यसे श्रयेण दीर्घ °उत्सृष्टिका-अङ्क अङ्गान्त साऽवलम्न स्त्रीगीतवृत्तयुता योरावृत्ती उपक्षिणो °वच्योः कृन्त यदाऽस्माकं पूर्णोषमाया त्रिरूपा सा-मा-म नन्ययोप्रक्षो ससंदेहा विरोधमुक °नुतानतः प्रथम भाघस्तस्यैव भिधेयकस्य साराभिः प्रतिवचनयोः सहजमुडमाला जयावसररस 'तारापरिर प्रेक्षायोः कलकाऽक्ष 253 281 320 321 338 कलङ्काक्ष 349 रवेः