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THE FREE INDOLOGICAL
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- The TFIC Team.
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प्रातिहार्ययुक्त जिनप्रतिमा लखनादौन, जिला मिवनी, मध्यप्रदेश
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भगवान् महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में प्रस्तुत
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जैन प्रतिमा विज्ञान
(प्रतिमालक्षण सहित)
बालचन्द्र जैन, एम० ए०, साहित्यशास्त्री उपसंचालक, पुरातत्त्व एवं संग्रहालय
मध्यप्रदेश
जबलपुर
कर दिया ... जबलपुर
वोर निर्वाण संवत् २५००
ईस्वी १९७४
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( चार )
प्रकाशक
मदनमहल जनरल स्टोर्स
राइट टाउन जबलपुर ४८२००२
पंद्रह रुपये
मुद्रक सिंघई प्रिटिंग प्रेस मढ़ाताल, जबलपुर
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निवेदन
लगभग दस वर्ष पूर्व, मैंने इस पुस्तक के हेतु मूल सामग्री का संग्रह करना प्रारम्भ किया था। पर, दुर्भाग्यवश ऐसी कुछ अननुकूल परिस्थितियां प्रायी कि कार्य बीच में रुक गया।
___ गत वर्ष १९७३ में, मेरे अनेक मित्रों और स्नेहीजनों ने मुझे पुन प्रेरित किया और भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में पुस्तक प्रकाशित किये जाने का आग्रह भी किया। उन्ही हितैषीजनों के सतत प्रदन उत्साह और प्रेरणा के फलस्वरूप जैन प्रतिमा विज्ञान विषयक पुस्तक इस रूप में प्रस्तुत है । इम में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों के आधार पर देवाधिदेव जिन और विभिन्न प्रकार के देवों की प्रतिमानो के संबंध में विचार किया गया है ।
पुस्तक के प्रथम अध्याय में जन प्रतिमा विज्ञान के अाधारभूत ग्रन्थों का वर्णन है । द्वितीय अध्याय में प्रतिमा घटन द्रव्य तथा पूज्य, अपूज्य और भग्न प्रतिमानों के संबंध में परम्परागत विचार प्रकाशित किये गये हैं। तृतीय अध्याय में तालमान की चर्चा है । चौथे अध्याय में प्रेमठ गलाका पुरुषों का विवरण देते हुये चविंशति तीर्थकरों से संबंधित जानकारी प्रस्तुत की गयी है । तत्पश्चात् भवनवामी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और विशेष कर उन के इन्द्रों के स्वरूप का वर्णन है ।
___सोलह विद्या देवियों और शासन देवताओं को जैन देववाद में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । उनके लक्षण छठे और सातवें अध्यायों में वर्णित हैं। आठवें, नौवें, दमवें और ग्यारहवें अध्यायों में क्रमशः जैन मान्यतानुमार क्षेत्रपाल, अप्ट मातृकानों, दस दिक्पालों और नव ग्रहों की चर्चा है । यद्यपि कुछेक जैन ग्रन्थों में चौसठ योगिनियों, चौगमी सिद्धों और बावन वीरों के नामोल्लेख
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( छह )
उपलब्ध हैं, पर उन्हें इस पुस्तक में सम्मिलित नहीं किया जा मका । प्रतीक पूजा के उपकरण, विभिन्न यन्त्रों और मांडना तथा भौगोलिक नकगो आदि को इस दृष्टि में छोड़ दिया गया है क्योंकि जैनों की प्रतीक पूजा एक स्वतंत्र ग्रन्थ का विषय बनने योग्य है ।
प्रतिमा विज्ञान केवल कठिन ही नहीं अपितु अगाध विषय है । मैं अपनी अक्षमता को समझता हैं । पुस्तक में त्रुटिया मर्वथा संभाव्य है। विशेषज्ञ जन उन के लिये मुझे क्षमा करेंगे ।
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्बमन्यः क इच्छति जनः महमा ग्रहीतुम ।
महावीर जयन्ती, १६७४
बालचन्द्र जैन
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विषय सूची
प्रथम अध्याय
मंगल और लोकोत्तम, पूज्य, पूजा के प्रकार, जैन बिम्ब निर्माण की प्राचीनता, जैन प्रतिमा विज्ञान के द्वितीय अध्याय
११ – १८
जैन मंदिर और प्रतिमाएं, मंदिर निर्माण के योग्य स्थान, प्रतिमा घटन द्रव्य, गृह पूज्य प्रतिमाए अपूज्य प्रतिमाएं, भग्न प्रतिमाएं, जिन प्रतिमा लक्षण, अर्हत्, सिद्ध, प्राचार्य और माधु की प्रतिमाएं |
१ - १०
स्थापना पूजा,
आधार ग्रन्थ ।
तृतीय ग्रध्याय
१९–२७
तालमान, विभिन्न इकाइया, दगताल प्रतिमाएं, कायोत्सर्ग प्रतिमाएं, पद्मासन प्रतिमाएं, मिहासन का मान, परिकर का मान, प्रातिहार्य योजना |
चतुर्थ ग्रध्याय
२८-४८
काल रचना, चौदह कुलकर, त्रिपष्टि शलाका पुरुष, चतुर्विंशति तीर्थकर, पञ्चकल्याणक तीर्थकरों के लालन, दीक्षावृक्ष, समवशरण, प्रतीहार, निर्वाणभूमि, नवदेवता, भ्रष्ट प्रातिहार्य, अष्ट मंगल द्रव्य । ४५-५२
पचम ग्रध्याय
चतुर्निकाय देव, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक |
पष्ठ अध्याय
श्रुतदेवता, सरस्वती पोडा विद्यादेवियां ।
५३–६५
सप्तम अध्याय
६६ – ११२
शासन देवता, चतुविशति यक्ष, चतुविशति यक्ष, शासन देवताओ की उत्पत्ति, हिन्दू और बौद्ध प्रभाव, विशिष्ट यक्ष, मनावृत यक्ष, सर्वा यक्ष, ब्रह्मशान्ति यक्ष, तुम्बरु यक्ष, शान्तिदेवी, कुबेरा यक्षी, पण्ठी, कामचण्डाली |
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(पाठ)
अष्ट म अध्याय
११३-११४ क्षेत्रपाल, विभिन्न रूप, गणपति । नवम अध्याय
११५-११७ अष्ट मातृकाएं । दशम अध्याय
११८-१२१ दम दिक्पाल, वाहन, आयुध, दिक्पालों की पत्नियां, दिक्कुमारिकाएं। एकादश अध्याय
१२२-१२४ नव ग्रह । परिशिष्ट एक
१२५–१३६ तालिकाएं। परिशिष्ट दो
१३७–२०० जैन प्रतिमालक्षण देशना
२०१–२११ ग्रन्थ निर्देश
२१२-२१५ शुद्धि पत्र रेखाचित्र फलक
अन्त में
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प्रथम अध्याय जैन प्रतिमाविज्ञान के प्राधारग्रन्थ अर्हत्, सिद्ध, साधु और केवली-प्रज्ञान धर्म, इन चार को जैन परम्परा में मंगल और लोकोत्तम माना गया है। साधु तीन प्रकार के होते हैं, १. प्राचार्य, २. उपाध्याय और ३. सर्व (साधारण) साध । उसी प्रकार केवली भगवान् के उपदेश को जिनवाणी या श्रुत भी कहा जाता है । उपर्युक्त पञ्च परमेष्ठियों और श्रृतदेवता की पूजा करने का विधान प्राचीन जैन ग्रन्थों मे मिलता है । ' किन्ही प्राचार्यों ने पूजा को वैयावृत्त्य का अंग माना है, जैसे समन्तभद्र ने रत्नकरंड श्रावकाचार म, और किती ने इस सामयिक शिक्षाव्रत में सम्मिलित किया है, जैसे सोमदेवसूरि ने यशस्तिलक चम्पू मे। जिनसेन प्राचार्य के आदिपुराण में पूजा, श्रावक के निरपेक्ष कर्म के रूप में अनुशंसित है।
पूजा के छह प्रकार बताये गये है, १. नाम पूजा, २. स्थापना पूजा, ३. द्रव्यपूजा, ४ क्षेत्रपूजा, ५. काल पूजा और ६. भावपूजा । २ इनमे से स्थापना के दो है, मद्भाव स्थापना गोर असद्भाव स्थापना । प्रतिष्ठेय की तदाकार सागोपाग प्रतिमा बनाकर उसकी प्रतिष्ठा करना सद्भाव स्थापना है और शिला, पर्णकुंभ, अक्षत, रत्न, पुप्प, ग्रासन आदि प्रतिष्ठेय से भिन्न आकार की वस्तयों में प्रतिष्ठेय का न्यास करना असद्भाव स्थापना है । 3 असद्भाव म्यापना पजा का जैन ग्रन्थकारो न अश्मर निषेध किया है क्योकि वर्तमान काल में लोग लिग मति में मोहित होते है, और वे अमद्भाव स्थापना से अन्यथा कल्पना भी कर सकते है । ४ वमुन्दि न कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओं की पजा का ही स्थापना पृजा कहा है। १. जिणमिद्धमूरिपाठय साहण ज मुयम्स विहवण । कीरइ विविहा पजा वियाण त पूजणविहाण ।।
वसुनन्दिश्रावकाचार, ३८० । २ वहीं, ३५१ । ३ भट्टाकल ककृत प्रतिष्ठाकल्प । ४. वसुनन्दि श्रावकाचार, ३८५; अाशाधर कृत प्रतिष्ठासारोद्धार, ६१६३. ५. एवं चिरतमाणं कट्टिमाट्टिमाण पडिमाण । जं कीरइ बहुमाण ठवणापुज्जं हि तं जाण ।।
वमुनंदि श्रावकाचार, ४४६ ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
प्राणियों के आभ्यंतर मल को गलाकर दूर करने वाला और आनंददाता होने के कारण मंगल पूजनीय है। पूजा के समान मंगल के भी छह प्रकार जैन ग्रन्थकारों ने बताये हैं। वे ये हैं, १. नाम मंगल, २. स्थापना मंगल, ३. द्रव्यमंगल, ४. क्षेत्र मंगल, ५. काल मंगल और ६. भाव मंगल ।' कृत्रिम और अकृत्रिम जिन बिम्बों को स्थापना मंगल माना गया है। प्रवचन सारोद्धार और पद्मानंद महाकाव्य में जिनेन्द्र की प्रतिमाओं को स्थापना जिन या स्थापना अहंत की संज्ञा दी गयी है । जयमेन के अनुसार, जिन बिम्ब का निर्माण कराना मंगल है। भाग्यवान् गृहस्थों के लिए अपने (न्यायोपात्त) धन को सार्थक बनाने हेतु चैत्य और चैत्यालय निर्माण के बिना कोई अन्य उपाय नही है।
जिन प्रतिमा के दर्शन कर चिदानंद जिन का स्मरण होता है । अतएव जिन बिम्ब का निर्माण कराया जाता है। बिम्ब में जिन भगवान् और उनके गुणों की प्रतिष्ठा कर उनकी पूजा की जाती है । जन मान्यता है कि प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथ के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने कैलास पर्वत पर बहत्तर जिन मंदिरों का निर्माण करवाकर उनमें जिन प्रतिमाओं की स्थापना कराई थी और तब से जैन प्रतिमाओं की स्थापनाविधि की परम्परा चली।
स्थापनाविधि या प्रतिष्ठाविधि का विस्तार से अथवा संक्षिप्त वर्णन करने वाले पचासों ग्रन्थ जैन साहित्य में उपलब्ध है । यद्यपि वे सभी मध्यकाल की रचनाएँ है, पर ऐसा नही है कि उन ग्रन्थों की रचना से पूर्व जन प्रतिमाओं का निर्माण नहीं होता था। अतिप्राचीनकाल से जैन प्रतिमाओं का निर्माण और उनकी स्थापना होती रही है, इस तथ्य की पुष्टि निश्शंक रूपेण पुरातत्त्वीय प्रमाणों और प्राचीन जैन साहित्य के उल्लेखों से होती है । आवश्यक चूणि ग्रादि ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर के जीवनकाल मे, उनके दीक्षा लेने से पूर्व, उनकी चन्दनकाप्ठ की
१. तिलायपण्णत्ता, १/१८. २. वही, १/२०. ३. प्रवचनसारोद्धार, द्वार ४२; पद्मानन्द महाकाव्य, १/३. ४. जयसेन कृत प्रतिष्ठापाठ, ७१५. ५. वही, २२. ६. वही, ६२-६३.
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भाधार प्रन्थ
प्रतिमा निर्मित की गई थी। हाथी गुंफा प्रशस्ति में नन्दराज द्वारा कलिग की जिन प्रतिमा मगध ले जाये जाने का उल्लेख है। कुछ विद्वान हडप्पा की कबन्ध प्रतिमा को जैन प्रतिमाओं का प्राद्यरूप स्वीकार करते हैं । लोहिनीपुर से प्राप्त और वर्तमान में पटना संग्रहालय में प्रदर्शित जिन प्रतिमाएँ तथा खंडगिरि (उड़ीसा) और मथुरा में उपलब्ध विपुल शिल्प, प्रतिमाएँ और अायागपट्ट आदि, जैन प्रतिमा निर्माण के प्राचीनतर नमूने हैं। कंकाली टीले से प्राप्त कलाकृतियों में विभिन्न जिन प्रतिमानों के अतिरिक्त स्तूप, चैत्यवृक्ष, ध्वजस्तंभ, धर्मचक्र, और अष्टमंगलद्रव्य प्रादि का भी रूपांकन मिला है । देवी सरस्वती और नैगमेष की प्राचीन प्रतिमाएँ भी मथुरा में प्राप्त हुई है । प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय की पाश्र्वनाथ प्रतिमा लगभग इक्कीस सौ वर्ष प्राचीन अाँकी गई है ।
उपलब्ध जैन आगमों के पूर्ववर्ती विद्यानुवाद नामक दसर्व और क्रियाविशाल नामक तेरहवें पूर्व में शिल्प और प्रतिष्ठा संबंधी विवेचन का होना बताया जाता है पर वे ग्रन्थ विच्छिन्न हो गये है। सूत्रकृतोग, समवायांग कल्पसूत्र आदि में जैन प्रतिमाओं के संबंध में कुछ प्राद्य-सूचनाएं मिलती है। समवायांग में ५४ महापुरुषों के विवरण हैं । पिछली परम्परा में इन महापुरुषों या शलाकापुरुषों की संख्या ६३ मानी गयी है किंतु समवायाग की सूची में ६ प्रतिनारायणो की गणना नहीं किये जाने के कारण उनकी संख्या ५४ ही है। शलाकापुरुषो में सर्वाधिक श्रेष्ठ और पूजनीय २४ तीर्थकरों को माना गया है । तीर्थकर जैन प्रतिमा विधान के मुख्य विषय है । मध्यकालीन जैन साहित्य में तीर्थकरों के चरितग्रंथो मे उनके शासन से संबंधित देवताओं के रूपों का भी वर्णन मिलता है। हेमचंद्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, शीलांकाचार्य का प्राकृत भाषा मे रचित चउपन्नमहापुरिमरिन, पुप्पदन्त का अपभ्रंश भाषा का तिट्टिमहा पुरिसालंकार, ग्रागाधर का संस्कृत भाषा में त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र और चामुण्डराय का कन्नड भाषा का त्रिपष्टिलक्षण महापुराण, ये सभी सुप्रसिद्ध चरितग्रंथ है । वर्द्धमानमूरि के ग्रादिणाहचरिउ, विमलमूरि के पउमरिउ, रविषंणाचार्य के पद्मचरित, जिनमेनाचार्य के हरिवंशपुराण और महापुराण, अमरचन्द्र सूरि कृत पद्मानंद महाकाव्य या चतुविंशति जिनेन्द्रचरित, गुणविजय मूरि कृत नेमिनाथ चरित्र, भवदेवसूरि कृत पार्श्वनाथ चरित्र तथा अन्य पुराणों और चरित्रकाव्यों में विभिन्न तीर्थकरो और उनके समकालीन महापुरुषों का
१. उमाकांत परमानंद शाह : स्टडीज इन जैन पार्ट, पृ०४ ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
विवरण दिया गया है और उसके साथ प्रतिमा पूजा संबंधी जानकारी भी दी गयी है।
प्रथमानयोग के पुराण और चरितग्रन्थों के अलावा करणानुयोग साहित्य के ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न द्वीप, क्षेत्र, पर्वत आदि स्थानों में स्थित जिनालयों और जिनबिम्बों का वर्णन है । उन्ही स्थानों में निवास करने वाले चतुनिकाय देवों के संबंध में भी करणानुयोग साहित्य में विस्तार से जानकारी मिलती है। उमाम्वाति के तत्त्वार्थमूत्र को दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में मान्यता प्राप्त है । इस सूत्रग्रंथ के तृतीय और चतुर्थ अध्याय में अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक का वर्णन है । पद्मनन्दि के जंबूदीपपण्णत्तिसंगहो, यतिवृषभ के तिलोयपत्ति, नेमिचन्द्र के बिलोकसार तथा जंबू द्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपसमास, क्षेत्रममास, संग्रहणी प्रादि की विपयभूत सामग्री से भी जैन प्रतिमा-विज्ञान के विभिन्न अंगों का प्रामाणिक ज्ञान होता है ।
तीर्थकरों और सरस्वती, चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती आदि देवियों की स्तुतिपरक स्तोत्र, प्राचार्यों और पंडितों द्वारा रचे गये थे । यह स्तोत्रसाहित्य जैन प्रतिमाशास्त्र के अध्ययन के लिये भी मूल्यवान् है । प्राचार्य समन्तभद्रका स्वयंभूस्तोत्र इस विषयक प्राचीनतर कृति है । पाँचवी-छठी शताब्दी में मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र और कुमुदचंद्र ने कल्याणमंदिर स्तोत्र की रचना की। इनमें क्रमशः आदिनाथ और पाश्र्वनाथ की स्तुति है । दोनों स्तोत्रों का जैन समाज के दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों में प्रचार है । धनंजय कवि ने सातवीं शताब्दी में विषापहार स्तोत्र की, और वादिराज ने ग्यारहवी शताब्दी में एकीभाव स्तोत्र की रचना की थी। जिनसहस्रनाम स्तोत्रों में भगवान् जिनेन्द्र देव को ब्रह्मा, विष्ण आदि नामों से भी स्मरण किया गया है । सिद्धसेन दिवाकर के जिनसहस्रनाम स्तोत्र का उल्लेख मिलता है। नौवी शताब्दी ईस्वी में प्राचार्य जिनसेन ने, तेरहवी शताब्दी में आशाधर पंडित ने, सोलहवी शताब्दी में देवविजयगणि ने और सत्रहवीं शताब्दी में विनयविजय उपाध्याय ने जिनसहस्रनाम स्तोत्रों की रचना की थी। बप्पभट्टि, शोभनमुनि और मेरुविजय की स्तुतिचतुर्विशतिकाएं प्रसिद्ध हैं। इन स्तोत्रों और स्तुतियों में जिन भगवान् के बिम्ब का शाब्दिक प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है।
अनेक प्राचार्यों और पंडितों ने सरस्वती, चक्रेश्वरी अम्बिका जैसी देवियों के स्तुतिपरक स्तोत्रों की भी रचना की थी। उदाहरण के लिये, प्राशा
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आधार ग्रन्थ
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घर पंडित रचित सरस्वती स्तुति, जिनप्रभसूरि कृत शारदास्तवन, साध्वी शिवार्या द्वारा रचित पठितसिद्ध सारस्वतस्तवन, जिनदनमूरि कृत अम्बिका स्तुति, और महामात्य वास्तुपाल विरचित श्रम्बिकास्तवन श्रादि के नाम गिनाये जा सकते है । इन स्तुतियों मे उन उन देवियों के वाहन, आयुध, रूप आदि का वर्णन किया गया है ।
तात्रिक प्रभाव के कारण जैनो ने भी तरह तरह के यंत्र, मंत्र, तंत्र, चक्र आदि की कल्पना की । सिद्धान्त रूप से तन्त्रोपेक्षी होने के बावजूद भौ समय की माँग का आदर करने के लिये जैन आचार्यों को भी तात्रिक ग्रन्थों और कल्पो की रचना करनी पडी थी । यह स्थिति मुख्यत नौवी दसवी शताब्दी के साथ आयी । उस प्रवाह मे हेलाचार्य, इन्द्रनन्दि और मल्लिषेण जैसे दिग्गजों ने तात्रिक देवियो की साधना की और लौकिक कार्यसिद्धि प्राप्त की । हेलाचार्य ने ज्वालिनी कल्प की रचना की थी । उल्लेख मिलता है कि उन्होंने स्वयं ज्वालिनी देवी के आदेश से वह रचना सम्पन्न की थी । हेलाचार्य द्रविड संघ के गणाधीश थे । दक्षिण देश के हेम नामक ग्राम मे किसी ब्रह्मराक्षस ने उनकी कमलश्री नामक शिष्या को ग्रसित कर लिया था । उस ब्रह्मराक्षस से शिष्या की मुक्ति के लिये हेलाचार्य ने ग्राम के निकटवर्ती नीलगिरि शिखर पर देवी को सिद्ध किया और ज्वालिनी मंत्र उपलब्ध किया | परम्परागत रूप से वही मंत्र गुणनन्दि के शिष्य इन्द्रनन्दि को मिला किन्तु उन्होंने उस कठिन मंत्र को प्रार्या - गीता छंदो मे रचकर सरलीकृत किया । इन्द्रनन्दि के ज्वालिनी कल्प की प्रतिया उत्तर और दक्षिण भारत के शास्त्र भण्डारा म उपलब्ध है । उनमें दिये गये विवरण से विदित होता है कि ५०० श्लाक संख्या वाले इस कल्प की रचना कृष्णराज के राज्यकाल में मान्यखेट कटक मशक संवत् ८६१ की अक्षय तृतीया को सम्पूर्ण हुयी थी । इन्द्रनन्द द्वारा रचित पद्मावती पूजा की प्रतियाँ भी उपलब्ध हुई है । उनके शिष्य वासवनन्दि की कृतियों का भी उल्लेख मिला है ।
मल्लिपेण श्रीषेण के पुत्र और प्राचार्य जिनसेन के ग्रग्र शिष्य थे । उनके सुप्रसिद्ध मंत्रशास्त्रीय ग्रन्थ भैरवपद्मावतीकल्प का दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदायों में प्रचार रहा है । उस ग्रन्थ मे ४०० श्लोक है । ग्यारहवी शताब्दी ईस्वी के इस माँत्रिक विद्वान् की उपाधि उभयभाषाकविशेग्वर थी । उनके द्वारा रचित विद्यानुवाद, कामचाण्डालिनीकल्प, यक्षिणीकल्प और ज्वालिनी कल्प की प्रतिया विभिन्न शास्त्र भण्डारी में सुरक्षित है । सागरचन्द्र सूरि
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जैन प्रतिमाविज्ञान
के मंत्राधिराजकल्प में यक्ष-यक्षियों तथा अन्य देवताओं की आराधना की गई है। बप्प भट्टि, विजयकीर्ति और उनके शिष्य मलयकीर्ति के सरस्वतीकल्प, भट्टारक अरिष्टनेमि का श्रीदेवीकल्प, भट्टारक शुभचन्द्र का अम्बिकाकल्प, यशोभद्र उपाध्याय के गिप्य श्रीचन्द्रसूरि का अद्भुतपदमावतीकल्प, ये सभी तांत्रिक प्रभावयुक्त हैं । इनमें देवियों के वर्ण, वाहन, प्रायुध आदि का विषरण उपलब्ध होने से वे जैन प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन के लिये उपयोगी हैं । लोकानुसरण करते हुये जैन आचार्यों ने ६४ योगिनियों और ६६ क्षेत्रपालों की स्ततियां और उनकी पूजाविधि मंबंधी कृतियों की भी रचनाएँ की थी।
श्रावकाचार युग में श्रावकाचार ग्रन्थों, संहितानों और प्रतिष्ठापाठों की रचनाएं हुयीं । इन्द्रनन्दि और एकसंधि भट्टारक की जिनसंहितामों की प्रतियां उत्तर भारत में पारा, दक्षिण में मूड बिद्री और पश्चिम में राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हुई हैं। उपासकाध्ययन नामक श्रावकाचार ग्रन्थ का उल्लेख अनेक कृतिकारों ने यथास्थान किया है। पूज्यपाद द्वारा रचित उपासकाध्ययन का भी उल्लेख मिलता है। मोमदेवसूरि के यशस्तिलक चम्पू के एक भाग का तो नाम ही उपासकाध्ययन है । वसुनन्दि ने उपासकाध्ययन का उल्लेख किया है पर उनका तात्पर्य किस विशिष्ट कृति से है यह ज्ञात नही हो सका है । स्वयं वसुनन्दि ने भी श्रावकाचार विषयक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना की थी । चामुण्डराय ने अपने चारित्रसार में 'उक्तं च उपासकाध्ययने' लिखकर एक श्लोक उद्धृत किया है किन्तु वह श्लोक किसी उपलब्ध ग्रन्थ में मूलतः नहीं मिला है।
प्रतिष्ठाग्रन्थों में से जयसेन या वसुविन्दु कृत प्रतिष्ठापाठ मे शासन देवताओं और यक्षों की पूजा का विधान नही मिलता । इस प्रतिष्ठापाठ की प्रकाशित प्रति मे जयसेन कुंदकुंद प्राचार्य के अग्र शिष्य बताये गये हैं । ग्रन्थनिर्माण का उद्देश्य बताते हुये सूचित किया गया है कि कोंकण देश में रत्नगिरि शिखर पर लालाट राजा ने दीर्घ चैत्य का निर्माण कराया था। उस कार्य के निमित्त गुरु की आज्ञा प्राप्तकर, जयसेन ने दो दिनों में ही प्रतिष्ठापाठ की रचना की। विक्रम संवत् १०५५ में रचित धर्मरत्नाकर के कर्ता का नाम भी जयसेन था । किन्तु यह कहना कठिन है कि धर्मरत्नाकर के रचयिता जयसेन और वसुविन्दु अपर नाम वाले जयसेन अभिन्न हैं अथवा नहीं ।
१. श्लोक ६२३-६२६
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माधार प्रन्य
प्रतिष्ठासारसंग्रह के रचयिता वसुनन्दि के श्रावकाचार का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। वे प्राशाधर पंडित और अय्यपार्य से पूर्ववर्ती थे क्योकि इन दोनों ने ही अपने अपने ग्रन्थों मे वसुनन्दि के मत का उल्लेख किया है । प्रतिष्ठासारसंग्रह की रचना के लिये वसुनन्दि ने चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति के साथ महापुराण से भी सार ग्रहण किया था। आशाधर पंडित के प्रतिष्ठासारोद्धार की रचना विक्रम संवत् १२८५ में आश्विन पूर्णिमा को परमार नरेश देवपाल के राज्यकाल में नलकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय में सम्पूर्ण हुयी थी। ग्रन्थ की प्रशस्ति में' उल्लेख किया गया है कि प्राचीन जिनप्रतिष्ठाग्रन्थों का भलीभाँति अध्ययन कर और ऐन्द्र (संभवतः इन्द्रनन्दि के) व्यवहार का अवलोकन कर पाम्नाय-विच्छेदरूपी तम को छेदने के लिये युगानुरूप ग्रन्थ की रचना की गयी। प्राशाधर जी ने वसुनन्दि के पक्षधर विद्वानों के विपरीत मन का भी उल्लेख किया है। आशाधर के प्रतिष्ठासारोद्धार का प्रचार केल्हण नामक प्रतिष्ठाचार्य ने अनेक प्रतिष्ठानो में पढ़कर किया था ।
नेमिचन्द्र का प्रतिष्ठातिलक भी बहप्रचारित ग्रन्थ है । उसमे इन्द्रनन्दि की रचना का उल्लेख है । नेमिचन्द्र जन्मना ब्राह्मण थे । प्रतिष्ठातिलक की पुष्पिका में उन्होने लिखा है कि भरत चक्रवर्ती द्वारा निर्मित ब्राह्मण वंश में से कुछ विवेकियो ने जैन धर्म को नही छोड़ा। उस वंश में भट्टारक अकलंक, इन्द्रनन्दि मुनि, अनंतवीर्य, वीरसेन, जिनसेन, वादीसिह, वादिराज, हस्तिमल्ल (गृहाश्रमी), परवादिमल्ल मुनि हुये । उन्ही के अन्वय में लाकपाल नामक विद्वान द्विज हुअा जो गृहस्थाचार्य था। चोल राजा उसकी पूजा करते थे। लोकपाल राजा के साथ कर्णाटक मे प्रतिदेश पहुंचा । वहा उसकी वश परम्परा में समयनाथ, कवि राजमल्ल, चिंतामणि, अनंतवीयं, संगीतज्ञ पायनाथ, आयुवेदज्ञ पार्श्वनाथ और षट्कर्मज्ञाता ब्रह्मदेव हुये । ब्रह्मदेव का पुत्र देवेन्द्र संहिता शास्त्र का ज्ञाता था । उसके आदिनाथ, नेमिचन्द्र और विजयप ये पुत्र थे । इन्ही नेमिचन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठातिलक की रचना की गयी ।
नेमिचन्द्र की माता का नाम आदिदेविका बताया गया है । नाना विजयपार्य थे और नानी का नाम श्रीमती था । नेमिचन्द्र के तीन मामा थे, चंदपार्य,
१. श्लोक १८-२१ २. प्रतिष्ठासारोद्धार, १,१७५
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जन प्रतिमाविज्ञान
ब्रह्ममूरि और पार्श्वनाथ । उनके ज्येष्ठ भ्राता आदिनाथ के त्रैलोक्यनाथ, जिनचंद्र आदि, स्वयं नेमिचन्द्र के कल्याणनाथ और धर्मशेवर तथा कनिष्ठ भ्राता विजय के समन्तभद्र नामक पुत्र हो ।
प्रतिष्ठानिलक की प्रशस्ति में नमिचन्द्र ने विजयकीर्ति नामक प्राचार्य का स्मरण किया है, पर किम प्रसंग में, यह वहां स्पष्ट नही है । अभयचन्द्र नामक महोपाध्याय से नेमिचन्द्र ने तर्क, व्याकरण और आगम आदि की शिक्षा प्राप्त की थी एवं सत्यगासनपरीक्षाप्रकरण तथा अन्य ग्रन्थों की रचना की थी । प्रतिष्ठातिलक की प्रशस्ति में बताया गया है कि नेमिचन्द्र को राजा से पालकी, छत्र प्रादि वैभव प्राप्त हय थे। उमी प्रगस्ति मे ज्ञात होता है कि उनका परिवार ममद्ध था । नेमिचन्द्र ने जैन मंदिर, मंडप, वीथिका आदि का निर्माण कराया था एवं पार्श्वनाथ मंदिर मे गीत, वाद्य, नृत्य आदि का प्रबंध किया था। नेमिचन्द्र स्थिर कदम्ब नगर में निवास करते थे। पुत्रों और बंधुनों की प्रार्थना पर उन्होने प्रनिष्ठातिलक की रचना की थी।
हस्तिमल्ल के प्रतिष्ठापाठ का उल्लेव अय्यपार्य ने किया है। किन्तु उस ग्रन्थ की प्रमाणित प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। आरा के जैन सिद्धान्त भवन मे मुक्षित प्रतिष्ठापाठ नामक हस्तलिखित ग्रन्थ के कर्ता संभवत. हम्तिमल्ल हो सकते है ? अय्यपार्य का प्रतिष्ठाग्रन्थ जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय के नाम से ज्ञात है । वे हस्तिमल्ल के अन्वय में हुये थे और उनका गोत्र काश्यप था । अय्यप के पिता का नाम करुणाकर और माता का नाम अर्कमाम्बा था । करणाकर गुणवीरमूरि के गिप्य पुष्पसेन के शिष्य थे। अय्यप के गुरु धरसेन प्राचार्य थे । अय्यप के जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय में ३५६० श्लोक हैं। वह रुद्रकुमार के राज्य मे एकरिगलानगरी मे शक संवत् १२४१ में माघ सुदि १० रविवार को मम्पर्ण हुप्रा था ।' अय्यपायं ने स्वयं सूचित किया है कि उन्होंने वीगचार्य, पूज्यपाद, जिनसेन, गुणभद्र, वसुनन्दि, इन्द्रनन्दि, आशाधर और हस्तिमल्ल के ग्रन्थो से सार लेकर पुष्पमेन गुरु के उपदेश से ग्रन्थ की रचना की है।
वादि कुमुदचन्द्र के प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण या जिनसंहिता की प्रतियां कई स्थानो में उपलब्ध है। मद्रास अोरियण्टल लाइब्रेरी में सुरक्षित प्रति
१. जैन ग्रन्थप्रगस्तिमंग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ ११२, दौर्बलि शास्त्री
श्रवणबेल्गुल की प्रति से उद्धृत अंश ।
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माघार ग्रन्थ
की उत्थानिका और पुष्पिका से ज्ञात होता है कि कुमुदचन्द्र माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य थे जिनका स्वयं एक प्रतिष्ठाकल्प उपलब्ध है। भट्टाकलंक के प्रतिष्ठाकल्प, ब्रह्मसूरि के प्रतिष्ठातिलक, भट्टारक राजकीर्ति के प्रतिष्ठादर्श, पंडिताचार्य नरेन्द्र सेन के प्रतिष्ठादीपक, पंडित परमानन्द की सिंहासनप्रतिष्ठा आदि आदि रचनाओं की हस्तलिखित प्रतिया पारा, जयपुर तथा अन्य स्थानों के शास्त्रभण्डारों में अद्यावधि सुरक्षित हैं । ये सभी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के सकलचन्द्र उपाध्याय का प्रतिष्ठापाठ गुजराती अनुवाद सहित प्रकाशित हुआ है । उसमें हरिभद्र सूरि, हेमचन्द्र, श्यामाचार्य गुणरत्नाकरसूरि और जगच्चंद्र सूरीश्वर के प्रतिष्ठाकल्पो का उल्लेख किया गया है । श्वेताम्बर परम्परा के ही प्राचारदिनकर में प्रतिष्ठाविधि का बड़े विस्तार से वर्णन है । ग्रंथकर्ता वर्धमान सूरि ने दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों शाखाओं के शाखाचार का विचार कर आवश्यक में उक्त प्राचार का ख्यापन किया है। उन्होंने चन्द्रमुरि का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उनकी लघतर प्रतिष्ठाविधि को आचार दिनकर में विस्तार से कहा गया है । वर्धमानमूरि ने प्रार्यनन्दि, क्षपक चंदननन्दि, इन्द्र नन्दि और वचम्वामी के प्रतिष्ठाकल्पों का अध्ययन किया था। प्राचार दिनकर की रचना विक्रम संवत् १४६८ में, कार्तिकी पूणिमा को अनंतपाल के राज्य में जालंधरभूषण नन्दवन नामक पुर में पूर्ण हुई थी।'
श्वेताम्बर गाग्वा का निर्वाण कलिका नामक ग्रन्थ जैन प्रतिमा विज्ञान के अध्ययन के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति ह । सका प्रतिगालक्षण स्पष्ट और सुबोध है । ग्रन्य पादलिप्तमूरिकृत कहा जाता है किन्तु वे पश्चात्कालीन प्राचार्य थे । निर्वाणकलिका के अतिरिक्त नेमिचन्द्र के प्रवचनमारोद्धार और जिनदन मूरि के विवेकविलाम में भी जैन प्रतिमाशास्त्रीय विवरण मिलते हैं।
दिगम्बर शाखा के बोधपाहुड, भावसंग्रह (देवमेन) यशस्तिलकचम्पू, प्रवचनसार, धर्मरत्नाकर, आदि ग्रन्थों में जिन पूजा का निर्देश मिलता है। सातवी शताब्दी ईस्वी में जटासिहनन्दी द्वारा रचित पौराणिक काव्य वरांगचरित के २२-२३ वें सर्ग में जिनपूजा और अभिषेक का वर्णन है
१. ग्रन्थप्रगस्ति, पन्ना १५० ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
किन्तु उसमें दिक्पालादिक के आवाहन का नामोल्लेख भी नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि जैन पूजा-विधान में दिक्पालादिक को पश्चात्काल में -१० वीं-११ वीं शताब्दी के लगभग–महत्त्व दिया गया। सोमदेवसूरि और पाशाधर के ग्रन्थों में दिक्पालादिक को बलि प्रदान करने का विधान है । जान पड़ता है कि सोमदेव के समय में दक्षिण भारतीय जैनों में शासन देवताओं की बड़ी प्रतिष्ठा थी । इसी कारण, मोमदेव को अपने उपासकाध्ययन के ध्यान प्रकरण में स्पष्ट उल्लेख करना पड़ा कि तीनों लोकों के दृष्टा जिनेन्द्रदेव और व्यन्तरादिक देवताओं को जो पूजाविधानों में समान रूप से देखता है, वह नरक में जाता है ।' सोमदेवसूरि ने स्वीकार किया है कि परमागम में शासन की रक्षा के लिये शासन देवताओं की कल्पना की गयी है । अतः सम्यग्दृष्टि उन्हें पूजा का अंश देकर उनका केवल सम्मान करते हैं।
जैन प्रतिमाशास्त्र के अध्ययन के लिये हरिभद्रसूरि कृत पञ्चवास्तुप्रकरण और ठक्कर फेरु रचित वास्तुसारप्रकरण विशेष उपयोगी ग्रन्थ हैं । जिनप्रममूरि के विविधतीर्थंकल्प से भी जिनमंदिरों और जिनबिम्बों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
अनेक जैनेतर ग्रन्थों में जैन प्रतिमाशास्त्रीय ज्ञान सन्निहित है । गुप्त कालीन मानसार के ५५ वें अध्याय में जैन लक्षण विधान है । वराह मिहिर को बृहत्संहिता में जैन प्रतिमानों के लक्षण बताये गये हैं । अभिलषितार्थ चिन्तामणि, अपराजितपृच्छा, राजवल्लभ, दीपाव, देवतामूर्ति प्रकरण और रूपमंडन में भी तीर्थकरो और शासन देवतायो की प्रतिमानों के लक्षण बताये गये हैं।
आधुनिक काल म जेम्स बर्जेस, देवदत्त भण्डारकर, बी० भट्टाचार्य, टी० एन० रामचन्द्रन, डाक्टर सांकलिया, डाक्टर उमाकांत परमानन्द शाह, बाबू छोटेलाल जैन प्रति विद्वानों ने जैन प्रतिमा शास्त्र विषयक अनुसंधानात्मक प्रबंध प्रकाशित किये हैं । डाक्टर द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, प्रार० एस० गुप्ते तथा अन्य विद्वानों ने भी अपने प्रतिमा शास्त्रीय ग्रंथों मे जैन प्रतिमा शास्त्र विषयक जानकारी सम्मिलित की है। ये सभी जन प्रतिमा विज्ञान के माधारभूत है ।
१- श्लोक ६६७-६६६ ।
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द्वितीय अध्याय
जैन मंदिर और प्रतिमाएं मंदिर निर्माण के योग्य स्थान
मंदिर कैसे स्थान पर निर्मित किये जाना चाहिये ? इस जिज्ञासा का समाधान प्रायः सभी ग्रंथकारो ने एक समान उत्तर देकर किया है । जयसेन ने नगर के शुद्ध प्रदेश में, अटवी में, नदी के समीप में और पवित्र तीर्थभूमि में विराजित जैनमदिर को प्रशस्त कहा है।' वसुनन्दि के अनुसार, तीर्थकरों के जन्म, निष्क्रमण, ज्ञान और निर्वाण भूमि में तथा अन्य पुण्य प्रदेश, नदीतट, पर्वत, ग्राममन्निवेम, ममुद्रपुलिन आदि मनोज्ञ स्थानो पर जिनमंदिरों का निर्माण किया जाना चाहिये । अपराजितपच्छा में जिनमंदिरो को शान्तिदायक स्वीकार किया गया है और उन्हे नगर के मध्य में बनाने का विधान किया गया है।
जिनमंदिर के लिये भूमि का चयन करत समय अनेक उपयोगी बातों पर विचार करना होता है, भूमि शुद्ध हो, रम्य हो, स्निग्ध हो, सुगंधवाली हो, दूर्वा से पाच्छादित हो, पाली न हो, वहा कीड़े-मकोड़ो का निवास न हो पोर श्मशान भूमि भी न हो ।४ भूमि का चयन मदिर निर्माण विधि का सर्वाधिक मसत्वपूर्ण अंग है । योग्य भूमि पर निर्मित प्रासाद ही दीर्घकाल तक स्थित रह सकता है।
विभिन्न ग्रंथकारो ने भूमिपरीक्षा के दो उपाय बताये है । जिम भूमि पर मंदिर निर्मित करने का विचार किया गया हो, उसमे एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा जावे और फिर उस गड्ढे को उसी में से निकली मिट्टी से पूग जावे । ऐसा करने पर यदि मिट्टी गडढे से अधिक पड़े तो वह भूमि श्रेष्ठ मानी गई है । यदि मिट्टी गढे के बराबर हो तो भूमि मध्यम कोटि की होती है और यदि उतनी मिट्टी से गड्ढा पुनः पूरा न भरे तो वह भूमि अधम जाति की
१. प्रतिष्ठापाठ, १२५ । २. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ३/३,४ । ३. अपरा० १७६/१४ । ४. आशा० १/१८; वसुविन्दु, २८ ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
होती है । वहां मंदिर का निर्माण नहीं करना चाहिये । ठक्कर फेरु ने यह उपाय भी बताया हैं कि उत्खात गड्ढे को जल से परिपूर्ण कर सौ कदम दूर जाइये । लौट कर आने पर यदि गड्ढे का जल एक अंगुल कम मिले तो भूमि को उत्तम, दो अंगुल कम मिलने पर मध्यम और तीन अंगुल कम होने पर अधम समझना चाहिये । २ निर्वाणकलिकाकार ने गड्ढे के सम्पूर्ण भरे रहने पर भूमि को श्रेष्ठ, एक अंगुल खाली होने पर मध्यम और उससे अधिक खाली हो जाने पर निकृष्ट कहा है ।"
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प्रतिष्ठाग्रंथों तथा वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों में मंदिरों के प्रकार आदि का विवरण मिलता है किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ का विवेच्य विषय नही होने के कारण तद्विषयक विवेचन यहां नही किया जा रहा है ।
प्रतिमा घटन द्रव्य
प्राचीन काल में मंदिरों में प्रतिष्ठा करने के लिये प्रतिमाओं का निर्माण किया जाता था । वे दो प्रकार की होती थी, प्रथम चल प्रतिमा और द्वितीय अचल प्रतिमा । अचल प्रतिमा अपनी वेदिका पर स्थिर रहती है किन्तु चल प्रतिमा विशिष्ट विशिष्ट अवसरों पर मूल वेदी से उठाकर अस्थायी वेदी पर लायी जाती है और उत्सव के अन्त में यथास्थान वापस पहुंचायी जाती है । अचल प्रतिमा को ध्रुवंवंर और चल प्रतिमा को उत्सववेर कहा जाता है । इन्हें क्रमश: स्थावर और जंगम प्रतिमा भी कहते हैं ।
वसुनन्दि के श्रावकाचार में मणि, रत्न, स्वर्ण, रजत, पीतल, मुक्ताफल और पापाण की प्रतिमाएं निर्मित किये जाने का विधान है। जयसेन ने स्फटिक की प्रतिमाएं भी प्रशस्त बतायी है ।" काष्ठ, दन्त और लोहे की प्रतिमानो के विषय मे विभिन्न प्राचार्यो में मतभेद है । कुछ आचार्यो न काष्ठ, दन्त र लोहे की प्रतिमात्र के निर्माण का किसी भी प्रकार से उल्लेख नही किया है। कुछ ने इन द्रव्यों से जिनबिम्ब निर्माण किये जानेका स्पष्ट निषेध किया है
१. आशा० १।१६ ; वसुविन्दु २६ ; वास्तुसारप्रकरण १३, निर्वाण कलिका, पन्ना १० ।
२. वास्तुसारप्रकरण १।४.
३. निर्वाणकलिका, पन्ना १० ॥
४. श्रावकाचार, ३६० ।
५. प्रतिष्ठापाठ, ६६ ।
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मंदिर और प्रतिमाएँ
जबकि कुछ ने ऐसे बिम्बों की प्रतिष्ठाविधि का वर्णन किया है । भट्टाकलंक ने मिट्टी, काष्ठ और लौह से निर्मित प्रतिमाओं को प्रतिष्ठेय बताया है।' वर्धमानसूरि ने काप्ठमय, दन्तमय और लेप्यमय प्रतिमानो की प्रतिष्ठाविधि का वर्णन किया है किन्तु कामे, शीसे और कलई की प्रतिमानो के निर्माण का निषेध किया है । जयसेन आदि प्राचार्यों ने मिट्टी, काप्ठ और लेप से बनी प्रतिमाओं को पूज्य नही बताया है ।' यद्यपि जीवन्तस्वामी की चन्दनकाष्ठ की प्रतिमा निर्मित किये जाने का प्राचीन ग्रन्थो में उल्लेख मिलता है पर ऐसा प्रतीत होता है कि काष्ठ जैसे भंगुर द्रव्यों से जिनप्रतिमाएं निर्मित किये जाने की विचारधारा को जैन परम्परा में कभी स्थायी मान्यता प्राप्त नही हो सकी। पाषाण की प्रतिमाएं निर्मित किया जाना सर्वाधिक मान्यताप्राप्त एवं व्यावहारिक रहा ।
प्रतिमा निर्माण के लिये शिला के अन्वेषण और उसके गुण दोषों के विचार के विषय में भी प्राचीन ग्रन्थो मे विवेचन मिलता है । प्राशाधर ने लिखा है कि जब जिन मंदिर के निर्माण का कार्य पूरा हो जावे अथवा पूरा होने को हो तो प्रतिमा के लिये शिला का अन्वेषण करने शुभ लग्न और शकुन में इप्ट शिल्पी के साथ जाना चाहिये । वसुनन्दि ने श्वेत, रक्त, श्याम, मिश्र, पारावत, मुद्ग, कपोत, पद्म, मोजिष्ठ, और हरित वर्ग की शिला को प्रतिमा निर्माण के लिये उत्तम बताया है। वह शिला कठिन, शीतल, स्निग्ध, सुम्वाद सुस्वर, दृढ़, सुगंधयुक्त, तेजस्विनी पीर मनोज्ञ होना चाहिये । बिन्दु और रेखानों वाली गिला प्रतिमा निर्माण कार्य के लिये वज्यं कही गयी है। उसी प्रकार, मृदु, विवर्ण, दुर्गन्धयुक्त, लघु, रूक्ष, घूमल और निशब्द शिलाएं भी प्रयोग्य ठहरायी गयी है।'
१. तद्याग्य : मगुगद्रव्य निर्षिः प्रौढशिल्पिना । ___ रत्नपापाणमृद्दामलौहाद्यैः साधुनिमितम् ।। २, आचार दिनकर, उदय ३३ । ३. प्रतिष्ठापाठ, १८३ । ४. उमाकात परमानन्द गाह : स्टडीज इन जैन प्रार्ट, पष्ठ ४ । ५. प्रतिष्ठासारोद्धार, १।४६ । ६. प्रतिष्ठासारसं ह, ३१७७ । ७. वही, ३१७८ । प्रतिष्ठामारोद्धार ,११५०,५१ । ८. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ३१७६ ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
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गृह पूज्य प्रतिमाएं
निवास गृह में पुज्य प्रतिमानों की अधिकतम ऊँचाई के विषयमें जैन ग्रन्थकारों में किञ्चित् मतभेद दिखायी पड़ता है। दिगम्बर शाखा के वसुनन्दि ने द्वादश अंगुल तक ऊंची प्रतिमा को घर में पूजनीय बताया है।' किन्तु ठक्कर फेरु ग्यारह अंगृल तक ऊँची प्रतिमा को ही गृह पूज्य कहते हैं । इस का मुख्य कारण यह है कि ठक्कर फेरु ने सम अंगुल प्रमाण प्रतिमाओं को अशुभ माना है । प्राचारदिनकरकार भी विषम अंगुल प्रमाण की ही प्रतिमाएँ निर्मित किये जाने का विधान और सम अंगुल प्रमाण की प्रतिमाएँ निर्मित करनेका निषेध करते हैं ।३
ठक्कर फेरु ने सिद्धों की केवल धातुनिर्मित प्रतिमानों को ही गृह पूज्य बताया है । सकलचन्द्र उपाध्याय जैसे ग्रन्थकारों ने बालब्रह्मचारी तीथंकरों की प्रतिमानों को भी गृहपूज्य नहीं कहा है क्योंकि उन प्रतिमाओं के हर क्षण दर्शन करते रहने से परिवार के सभी लोगों को वैराग्य हो जाने की प्राशंका हो सकती है । मलिन, खण्डित, अधिक या हीन प्रमाण वाली प्रतिमाएँ भी गृह में पूज्य नहीं है। अपूज्य प्रतिमाएँ
रूपमण्डनकार ने हीनाँग और अधिकांग प्रतिमाओं के निर्माण का सर्वथा निषेध किया है। शुक्रनीति में हीनांग प्रतिमा को, निर्माण कराने वाले को और अधिकांग प्रतिमा को शिल्पी की मृत्यु का कारण बताया है । जैन परम्परा के ग्रन्थों में भी वक्रांग, हीनांग और अधिकॉग प्रतिमा निर्माण को भारी दोष माना गया है । वास्तुसार प्रकरण में सदोष प्रतिमा के कुफल का विस्तार से वर्णन है । टेढ़ी नाकवाली प्रतिमा बहुत दुखदायी होती है । प्रतिमा के अंग छोटे हों तो वह क्षयकारी होती है । कुनयन प्रतिमा में नेत्रनाश और अल्पमुखवाली प्रतिमा के निर्माण से भोगहानि होती है । यदि प्रतिमा की कटि
१. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/७७ २. वास्तुसारप्रकरण, २/४३ ३. प्राचार दिनकर, उदय ३३ । ४. रूपमण्डन १/१४. ५. शुक्रनीति, ४/५०६
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मंदिर भोर प्रतिमाएँ
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हीनप्रमाण हो तो प्राचार्य का नाश होता है। हीनअँधा प्रतिमा से पुत्र और बंधु की मृत्यु हो जाती है । प्रतिमा का प्रासन हीनप्रमाण होने से ऋद्धियों नष्ट होती हैं । हाथ-पैर हीन होने से धन का क्षय होता है । प्रतिमा की गर्दन उठी हुयी हो तो धन का विनाश, वत्रग्रीवा से देश का विनाश और अधोमुखसे चिन्ताग्रो की वृद्धि होती है। ऊँच-नीच मुखवाली प्रतिमासे विदेशगमन का कष्ट होता है । अन्यायोपात्त धन से निर्मित करायी गयी प्रतिमा दुभिक्ष फैलाती है। रौद्र प्रतिमासे निर्माण करानेवाले की और अधिकाग प्रतिमा मे शिल्पी की मृत्यु होती है । दुर्बल अंगवाली प्रतिमासे द्रव्य का नाश होता है । तिरछी दृष्टि वाली प्रतिमा प्रपूज्य है । प्रति गाढ दृष्टि युक्त प्रतिमा अशुभ एव अधोदृष्टि प्रतिमा विघ्नकारक होती है।' वसुनन्दि न जिनप्रतिमामे नामाग्रनिहित, शान्त, प्रसन्न एव मध्यस्थ दृष्टि को उत्तम बताया है । वीतराग की दृष्टि न तो अत्यन्त उन्मीलित हो और न विस्फुरित हो। दृष्टि तिरछी, ऊँची या नीची न हो इमका विशेष ध्यान रखे जाने का विधान है। वास्तसारप्रकरण के ममान वमुनन्दि ने भी अपने प्रतिष्ठासारसग्रह मे सदोष प्रतिमा के निर्माण से होने वाली हानियो का विवरण दिया है ।' प्राशाधर एडित और वर्धमानसूरि ने भी अनिष्टकारी, विकृतॉग और जर्जर प्रतिमानो की पूजा का निषेध किया है।' यद्यपि महाभारत के भीष्म पर्व, बृहत्म हिता, रूपमण्डन आदि ग्रन्थो मे उल्लेख मिलता है कि प्रतिमा के निर्माण, प्रतिष्ठा और पूजन मे यथेष्ट विधि के अपालन के कारण प्रतिमा में विभिन्न विकृतिया उत्पन्न हो जाती है। किन्तु वीतराग भगवान् की प्रतिमामे विकृति उत्पन्न होने का कोई उल्खेख किसी भी जैन ग्रन्थमे नही मिलता। भग्न प्रतिमाएँ
भग्न प्रतिमामा की पूजा नहीं की जाती। उन्हे सम्मान के साथ विसजित कर दिया जाता है । मूलनायक प्रतिमा के मुग्व, नाक, नेन, नाभि और कटि क भग्न हो जाने पर वह त्याज्य होती है । जिनप्रतिमा के विभिन्न प्रग
१. वास्तुमार प्रकरण, २/४६-५१ २. प्रतिष्ठामारसंग्रह, ४/७३-७४. ३. वही, ४/७५-८० ४. प्रतिष्ठासारोद्धार, १/८३; प्राचार दिनकर, उदम ३३ ५. वास्तुसारप्रकरण, २/४०
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जैन प्रतिमाविज्ञान
प्राचीन हो और महा
प्रत्यंगो के भंग होने का फल बताते हुये ठक्कुर फेरु ने कहा है कि नखभंग होने से शत्रुभय, संगुली-भंग मे देशभंग, बाहु भंग होने से बंधन, नासिका भंग होने से कुलनाश और चरण भंग होने से द्रव्यक्षय होता है । किन्तु इन्ही ग्रन्थकार का यह भी मत है कि जो प्रतिमाएँ सौ वर्ष से अधिक पुरुषों द्वारा स्थापित की गयी हो, वे यदि विकलॉग भी हो पूजनीय है । ग्राचार दिनकरकार ने भी यह मत स्वीकार उन्होने उन प्रतिमाओं को केवल चैत्य में रखने योग्य कहा है, गृह में पूज्य नहीं ।"
जावें तब भी किया है, किन्तु
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भग्न प्रतिमा के जीर्णोद्धार के संबंध मे भी विभिन्न ग्रन्थों में उल्लेख मिलते है । रूपमण्डन मे धातु, रत्न और विलेप की प्रतिमाओं के अंगभंग होने पर उन्हे संस्कार योग्य बताया है किन्तु काष्ठ और पाषाण की प्रतिमानों के जीर्णोद्धार का निषेध किया गया है । ठक्कर फेरु केवल धातु और लेप की प्रतिमा के जीद्धार के पक्ष में है, वे रत्न, काष्ठ और पापाण की प्रतिमाओं को जीर्णोद्धार के अयोग्य मानते है ।" प्रचारदिनकरकार भी इसी मत के समर्थक हैं । निर्वाणकलिका मे शैलमय विम्व के विसर्जन की विधि बतायी है। किन्तु स्वर्णबिम्व को पूर्ववत निर्मित कर पुनः प्रतिष्ठेय कहा गया है । " जिन प्रतिमा के लक्षण
जैन प्रतिष्ठाग्रन्थो और बृहत्संहिता, मानसार, समरागणसूत्रधार, अपराजितपृच्छा, देवतामूत्तिप्रकरण, रूपमण्डन आदि ग्रन्थों मे जिन प्रतिमा के लक्षण बताये गये है । जिन प्रतिमाएं केवल दो आसनों मे बनायी जाती हैं, एक तो कायोत्सर्ग ग्रामन जिसे खड्गासन भी कहते है और द्वितीय पद्मासन । इसे कही कही पर्यक ग्रासन भी कहा गया है । इन दो आमनों को छोड़कर किसी अन्य आसन मे जिनप्रतिमा निर्मित किये जान का निषेध किया गया है ।
१. वास्तुसार प्रकरण, २/४४ २. वही २ / ३६
३. प्राचारदिनकर, उदय ३३ ४. १/१२
५. वास्तुमारप्रकरण, २ / ४१
६. उदय ३३
७. पत्र ३५
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मंदिर और प्रतिमाएँ
जयमेन ने जिन विम्व को गॉन, नासाग्रदृष्टि, प्रशस्तमानोन्मानयुक्त, ध्यानारूढ एवं किञ्चित् नम्रग्रीव बनाया है । कायोत्सर्ग आसन में हाथ लम्बा - यमान रहते है एवं पदमासन प्रतिमा में वामहस्त की हथेली दक्षिण हस्त की हथेनी पर रखी हुयी होती है। जिन प्रतिमा दिगम्बर, श्रीवृक्षयक्त नखकेशविहीन, परम शान्त, वृद्धत्व तथा बाल्य रहित, तरुण एवं वैराग्य गुण मे भूषित होती है । वसुनन्दि और प्रशाधर पंडित' ने भी जिन प्रतिमा के उपर्युक्त लक्षणो का निम्पण किया है। विवेक विलास मे कायात्सर्ग और पद्यामन प्रतिमाओ के सामान्य लक्षण बताये गये है ।"
सिद्धपरमेष्ठी की प्रतिमाम्रो मे प्रातिहार्य नही बनाये जाते । अर्हत्प्रतिमा म उनका होना आवश्यक है । और सिद्ध, दोनों की मूल प्रतिमाएं बनायी तो समान जाता है पर अष्ट प्रातिहार्यो के हान सवा न होने की अवस्था में उनकी पहचान होती है । ग्रर्हत् अवस्था की प्रतिमा म प्रातिहार्यो के साथ दाये और यक्ष, बाने प्रोर यक्षी और पादपाठ के नीचे जिनका लालन भी दिखाया जाता है । निलोयपण्णत्ती में भी गिलमन तथा यक्षयुगल मे युक्त जिन प्रतिमाया का वर्णन है। ठाकर फेंक ने तीर्थकर प्रतिमा के ग्रासन और परिकर का विस्तार से वर्गान किया। मानमार में भी जिन प्रतिमाम्रो क परिकर आदि का वर्णन प्राप्त है । अपराजितपच्छा मे यक्ष-यक्षी, लाछन और प्रातिहार्यो की योजना का विधान है । सूत्रधार मंडन के दानो ग्रन्थो मे जिन प्रतिमा को छत्रत्रय, अशोकद्रुम, देवदुन्दुभि, निहासन, धर्मचक्र यादि मे युक्त बताया गया है ।
१ प्रतिष्ठापाठ, ५०
२. प्रतिष्ठासार सँग्रह ४ / १,२,४
३. प्रतिष्ठामारोद्धार, १/६३
४. विवेक विलाम १ / १२८-- १३०
५. प्रतिष्ठासारमग्रह, ४।७०
६. प्रतिष्ठामारोद्धार, १ / ७६-७७
१७
७. वास्तुसारप्रकरण, २/२६--३८ ८. अपराजित पृच्छा, १३३/२६-२:
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जन प्रतिमाविज्ञान
प्रत्येक तीर्थकर प्रतिमा अपने लांछन से पहचानी जाती है । वह लांछन प्रतिमा के पादपीठ पर अंकित किया होता है। किन्तु, कुछ तीर्थकरों की प्रतिमामों में उनके विशिष्ट लक्षण भी दिखाये जाते हैं, जैसे प्रादि जिनेन्द्र की प्रतिमा जटाशेखर युक्त होती है, सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर सर्प के पांच फणों का छत्र' और पार्श्वनाथ के मस्तक पर सातफणों वाले नाग का छत्र होता है ।' बलराम और वासुदेव सहित नेमिनाथ की प्रतिमा मथुरा में प्राप्त हुयी है।
प्राचार्यो और माधुनों की प्रतिमाएं पिच्छिका, कमण्डलु या पुस्तक के सद्भाव के कारण पहचान ली जाती हैं।
१. अति प्राचीन प्रतिमाओं में लांछन नहीं होते थे । मथुरा की कुषाण
कालीन जिन प्रतिमानों में लांछन नही हैं । २. तिलोयपण्णत्ती, ४/२३० ३. पद्मानंदमहाकाव्य, १/१० ४. वही, १/२६
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तृतीय प्रध्याय
तालमान
जैन और जैनेतर शिल्पग्रन्थों में जिन प्रतिमा के मानादिक का विवरण मिलता है । रूपमण्डन जैसे कुछ ग्रन्थों में जिन प्रतिमा का ऊर्ध्वमान दशताल कहा गया है किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि नवताल जिनप्रतिमा के निर्माण विधान की मान्यता प्रायः प्रचलित रही है और शिल्पकारों ने अधिकतर उसी का अनुसरण किया है ।
परमाणु तालमान की सबसे छोटी इकाई है । वह अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूपी है । तिलोयपण्णत्ती में बताया गया है कि परमाणुत्रों के अनंतानंत बहुविध द्रव्य से एक उपसन्नासन्न स्कंध बनता है और आठ उपसन्नासन्न स्कंधों के बराबर एक सन्नासन्न स्कंध होता है ।
सन्नासन्न स्कंध से ऊंची इकाईयों को तिलोयपण्णत्तीकार इस प्रकार बताते है । : --
८ सन्नासन्न स्कंध = १ त्रुटिरेण
त्रुटिरेणु = १ त्रसरेण्
८ त्रसरेणु = १ रथरेणु
८ रथरेण = १ उत्तम भोगभूमि का बालाग्र
८ उत्तम भोगभूमि बालाग्र = १ मध्यम भोगभूमि का बालाग्र
८ मध्यम भोगभूमि वालाग्र = १ जघन्य भोगभूमिका बालाग्र
८ जघन्य भोगभूमि बालाग्र = १ कर्मभूमि का बालाग्र
८ कर्मभूमि बालाग्र = १ लिक्षा
लिक्षा
=
१ जू
८ जूं = १ यव
८ यव = १ अंगुल
१. १ / १०२-१०३ २. १/१०४ - १०६
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जैन प्रतिमाविज्ञान
कौटिल्य के अर्थशास्त्र (२,२०, २--३) में ८ परमाणु =१ रथरेणु और ८ रथरेणु - १ लिक्षा का मान बताया गया है । बृहत्संहिता में रेण और लिक्षा के बीच बालाग्र का भी विचार किया गया है। तदनुसार ८ परमाणु = १ रजांश, ८ रजांश-१ वालाग्र और ८ बालाग्र=१ लिक्षा का क्रम होता है।
आठ यवमध्यों का अंगुल कहते हुये भी अर्थशास्त्रकार ने बताया है कि सामान्यतया मध्यम कद के पुरुष की मध्य अंगुली के मध्य भाग की मोटाई एक मंगुल का मान है।
तिलोयपण्णत्तीकार ने तीन प्रकार के अंगुल बताये हैं, उत्संधांगुल, प्रमागांगुल और अात्मांगुल ।' उन्होंबताया है कि जो अंगुल उपयुक्त परिभाषा से सिद्ध किया गया है वह उन्मेधसूच्यंगुल है। प्रमाणांगुल पाँच सौ उत्सेधाँगुल के बराबर होता है तथा भरत और ऐगवत क्षेत्र में उत्पन्न मनुष्यों के अपने अपने काल के अंगुल का नाम प्रात्मागुल है।
उपयुक्त तीन प्रकार के अंगुलो में से पांच मौ उत्मेधमूच्यंगुल के बराबर वाले अंगुल के मान में प्रतिमानों का निर्माण किया जा सकना वर्तमान काल के लिये असंभव तो है ही, पर पाठ यवमध्य वाले अंगुल और स्वकीय अंगुल के मानवाली प्रतिमाओं का निर्माण भी शास्त्रीय मानयोजना के अनुसार अव्यावहारिक था । स्वकीयागुल मान से यह स्पष्ट नहीं होता कि वह मूति निर्माण कराने वाले का अंगुल होना चाहिय अथवा शिल्पी का अंगुल । दोनों के अंगुल की मोटाई में ग्राधिक्य और न्यनता की संभावना हो सकती है। ऐसी स्थिति में, यह प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में प्रतिमा निर्माण कार्य के लिये न तो पाठ यव वाले अंगुल क. मान को और न शिल्पकार अथवा निर्माता के अंगुल वाले मान को ही सुनिश्चित मान माना जा सका था। एक ही समय में और संभवतः एकली शिल्पी द्वारा निमित भिन्न-भिन्न प्रतिमाएं छोटी और बड़ी मिलती है। यदि उपर्युक्त मानयोजना के अनुसार वे निर्मित की गयी होती तो उनका मान एक सा होना चाहिये था । इसलिये यह मानना पड़ेगा कि उपयुक्त मानो के अतिरिक्त एक और मान को वास्तविक मान्यता प्राप्त थी
१. अर्थशास्त्र, २,२०,७ २. तिलोयपण्णी , १११०७
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तालमान
जिसका उपयोग प्राचीन प्रतिमा निर्माण में किया जाता था। वह मान है प्रतिमा का मुख ।
वसुनन्दि ने ताल, मुख, वितस्ति और द्वादशांगुल को समानार्थी बताया है और उस मान से बिम्ब निर्माण का विधान किया है। प्रतिमा के मुख को एक भाग मानकर सम्पूर्ण प्रतिमा के नौ भाग किये जाने चाहिये । तदनुसार वह प्रतिमा नौ ताल या १०८ अंगुल की होगी। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि नवताल प्रतिमा का नवा भाग एकताल और उसका १०८ वां भाग एक अंगुल कहलावेगा।
वमुनन्दि ने नवताल मे बनी ऊर्ध्व (कायोत्सर्ग आसन) जिन प्रतिमा का मान इस प्रकार बताया है :मुख
१ ताल (१२ अगुल) ग्रीवाध.भाग
४ अंगुल कण्ठ से हृदय तक १२ अंगुल हृदय स नाभि तक १ ताल (१२ अंगुल) नाभि से मेढ़ तक १ मुख (१२ अंगुल) मेढ़ से जानु तक १ हस्त (२४ अंगुल) जानु
४ अंगुल जानु से गुल्फ नक १ हस्त (२४ अंगुल) गुल्फ से पादतल तक ४ अंगुल
योग १०८ अंगुल-६ ताल'
प्रतिष्ठागारमग्रह (वसुनन्दि) ने प्रतिमा के अंग-उपॉगो के मान का विस्तार से विवरण दिया है ।' द्वादशागुल विस्तीर्ण और अायत केशान्त मुख के तीन भाग करन पर ललाट, नामिका और मुख (वचन) प्रत्येक भाग ४-४ अंगुल का होता है । नासिकारंध्र ८: यव प्रौर नासिकापाली ४ यव होना चाहिये। ललाट का नियंक अायाम आठ अ गुल बताया गया है । उसका प्राकार प्रचन्द्र के समान होता है । पाच अंगुल पायत केशस्थान मे उष्णीष दो अंगल
१. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ४-५ २. रूपमण्डन की नवताल प्रतिमा का भी यही मान है। ३. परिच्छेद ४
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जैन प्रतिमाविज्ञान
उन्नत होता है । जयसेन (वसुविन्दु) के प्रतिष्ठापाठ में भी जिनप्रतिमा के तालमान संबंधी विवरण उपलब्ध हैं। वे प्रायः वसुनन्दि के समान ही हैं। जयसेन ने भ्रू-लना को ४ अंगुल आयत, मध्य में स्थूल, छोर में कृश अर्थात् धनुषाकार कहा है । नेत्रों की पलकें ऊपर-नीचे नदी के तटों के समान होती हैं। प्रोष्ठ का विस्तार ४ अंगुल, जिसका मध्यभाग १ अंगुल उच्छित होता है। चिबुक ३३ अंगुल, उसके मूल से लेकर हनु तक का अन्तर ४ अंगुल । कर्ण पोर नेत्र का अंतर भी ४ अंगुल । प्रादि आदि
पद्मासन जिनप्रतिमा का उत्सेध कायोत्सर्ग प्रतिमा से आधा अर्थात् ५४ अंगुल बताया गया है। उसका तिर्यक् आयाम एक समान होता है। एक घुटने से दूसरे घटने नक, दायें घुटने से बायें कंधे तक, बायें घुटने से दायें कंधे तक और पादपीठ से केशांत तक चारों सूत्रों का मान एक बराबर बताया गया है। वसुनन्दि के अनुसार, पद्मासन प्रतिमा के बाहयुग्म के अंतरित प्रदेश में चार अंगुल का ह्रास तथा प्रकोष्ठ से कूपर पर्यन्त दो मंगुल की वृद्धि होती है।'
वास्तुसारप्रकरण के द्वितीय प्रकरण में पद्मासन और कायोत्सर्ग जिन प्रतिमानों के मान संबंधी विवरण श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार दिये गये हैं । वास्तुसारप्रकरण के रचयिता ठक्कर फेरु पद्मासन प्रतिमा को समचतुरस्र संस्थान युक्त कहते हैं । तदनुसार उसके चारों सूत्र बराबर होते हैं किन्तु उनके अनुसार पद्मासन प्रतिमा ५६ अंगुल मान की होती है जो इस प्रकार हैं :
भाल ४ अंगुल नासा ५ अंगुल वचन ४ अंगल ग्रीवा ३ अंगुल
१२ अंगुल नाभि १२ अंगुल गुह्य १२ मंगल जानु ४ अंगुल
योग ५६ अंगुल' १ प्रतिष्ठासारसंग्रह, ४/६८ २. वास्तुसारप्रकरण, २/८
हृदय
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तालमान
ठक्कर फेर ने कायोत्सर्ग प्रतिमा को नवताल अर्थात् १०८ अंगल की बताया है। उन्होंने ऊध्वं (कायोत्सर्ग) प्रतिमा के अंगविभाग के ग्यारह स्थान बतलाये हैं जो निम्न प्रकार हैं:
ललाट ४ अंगुल नासिका ५ अंगुल वचन (मुख) ४ अंगुल ग्रीवा ३ अंगुल हृदय १२ अंगुल नाभि १२ अंगुल गुह्य १२ अंगुल जंघा .४ अंगुल जानु ४ अंगुल पिण्डी २४ अंगुल चरण ४ अंगुल
योग १०८ अंगुल =६ ताल'
ठक्कर फेरु द्वारा दिये गये अन्य विवरण ये हैं :'
कानों के अंतराल में मुख का विस्तार १४ अंगुल गले का विस्तार
१० अंगुल छाती प्रदेश
३६ अंगुल कटि प्रदेश का विस्तार
१६ अंगुल शरीर की मोटाई
१६ अंगुल कान का उदय
१० भाग
१. वास्तुसारप्रकरण, २१५ २. वही, २।६-७। पाठान्तरमें ललाट, नासिका, वचन, स्तनसूत्र, नाभि, गुह्य, उरु, जानु, जंघा और चरण, ये दस स्थान क्रमशः:
४,५,४,१३,१४,१२,२४,४,२४,४ अंगुल प्रमाण बताये गये हैं। ३. वास्तुसारप्रकरण, २।६-२५
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कान का विस्तार कान की लौंडी कान का प्राधार आँख की लम्बाई आँख की चौड़ाई अांख की काली पुतली भ्रकुटि कपाल नागिका का विस्तार नासिका का उदय नासिकाग्र की मोटाई नासिका गिखा अधर की दीर्घता अधर का विस्तार श्रीवत्स का उदय श्रीवत्स का विस्तार स्तनवटिका का विस्तार नाभि का विस्तार श्रीवत्स और स्तन का अन्तर रतनटिका और कक्ष का अन्तर स्कंध
३ भाग २३ भाग
भाग ४ भाग १३ भाग १ भाग २ भाग ६ अंगुल ३ भाग २ भाग १ भाग
३ भाग
५ भाग १ अंगुल ५ भाग ४ भाग १३ अंगुल १ भाग ६ भाग ५ भाग
भाग ७ अंगुल ४ अंगल १२ भाग ८ भाग ४भाग १२ भाग ६ भाग १ अंगुल ४ अंगुल ६ अंगल
on wo is a
कुहनी
मणिबंध जंघा जानु एड़ी स्तनसूत्र से नीचे भुजा स्तनसूत्र से ऊपर स्कंध हाथ और पेट का अन्तर उत्संग का विस्तार उत्संग की लम्बाई
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तालमान
एड़ी से मध्य प्रांगुली तक
एडी से अंगूठे
क
एड़ी से कनिष्ठिका तक
चरण की दीर्घता
चरण का विस्तार
चरण का उदय
दायें मोर यक्ष
बाये और यक्षी
सिह
गज
जिनप्रतिमा के सिहासन और परिकर के मान का भी ठक्कर फेरु ने विवरण दिया है | प्रतिमा की अपेक्षा सिंहासन दीर्घता मे डेवढ़ा, विस्तार में आधा और मोटाई मे चतुर्थाश होना चाहिये । उस पर गज, सिह आदि नौ या सात रूपक होते है । सिंहासन के दोनो श्रोर यक्ष-यक्षिणी, एक-एक सिह, एक-एक गज, एक-एक चामरधारी और उनके बीच मे चत्रधारिणी चक्रेश्वरी देवी बनाने का विधान है । इनका मान इस प्रकार है :
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चामरधारी
चक्रेश्वरी
१५ अंगल
१६ अंगुल
१४ अंगुल
१६ अंगुल
अंगुल
४ अंगुल
१. वास्तुसारप्रकरण, २ /२७
२. वही,
३. वही,
२/ २८
२/ ३०
२५
१४ भाग
१४ भाग
१२-१२ भाग
१०-१० भाग
३-३ भाग
६ भाग
तदनुसार सिहासन की कुल लम्बाई ८४ भाग धर्मचक्र, और उसके दोनो मोर एक-एक हरिण तथा चिह्न बनाया जाता है ।"
परिकर के पखवाड़े का उदय कुल ५१ भाग होता है ।" उसमे आठ भाग चामरधारी का पादपीठ, ३१ भाग चामरधारी और तदुपरि १२ भाग तोरण के शिर तक । चामरधारी देवेन्द्रो की दृष्टि मूलनायक प्रतिमा के स्तनमूत्र के बराबर होती है । परिकर के छत्रवटा मे, १० भाग अर्धछत्र, १ भाग कमलनाल, १३ भाग मालाधारी, २ भाग स्तंभिका ८ भाग दुदुभिवादक, (तिलक
चक्रेश्वरी देवी के नीचे मध्यभागमे तीर्थंकर का
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के मध्य में घण्टा), २ भाग स्तंभिका, ६ भाग मकरमुख, इस प्रकार एक ओर ४२ भाग होने से दोनों तरफ का छत्रवटा ८४ भाग होता है।'
छत्र २४ भाग होता है। तदुपरि छत्रत्रय का उदय १२ भाग, तदुपरि शंखधारी ८ भाग, तदुपरि वंशपत्रादि ६ भाग । इस प्रकार छत्रवटा का उदय ५० भाग का होता है। छत्रत्रय का विस्तार २० अंगुल, निर्गम दस भाग, भामण्डल का विस्तार २२ भाग और प्रसार ८ भाग।' दोनों प्रोर के मालाधारी १६--१६ भाग के, तदुपरि हाथी १८--१८ भाग के ।
___हाथी पर हरिनगमेष, उनके सम्मुख दुन्दुभिवादक और मध्य में छत्रोपरि शंख फूकने वाला होता है।'
परिकर के पखवाड़े में दोनों चामरधारियों और वंशी--वीणाधारियों के स्थान पर कायोत्सर्ग जिन प्रतिमाएं स्थितकर परिकर मे पंचतीर्थो की योजना की जा सकती है।"
प्राचार दिनकर में सिंहासन और परिकर का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है । जिन बिम्ब के सिंहासन पर गज, सिंह, कीचक का अंकन, दोनों पार्श्व में चामरधारी और उनके बाह्य की ओर अञ्जलिधारी । मस्तक के ऊपर छत्रत्रय, छत्रत्रय के दोनों ओर सूड में स्वर्णकलश लिये श्वेतगज, तदुपरि झांझ बजाते पुरुष, तदुपरि मालाधारी, शिखर पर शंख फूंकने वाला और तदुपरि कलश ।' प्राचार दिनकर कार ने सिंहासन के मध्य भाग में दो हरिणों के बीच धर्मचक्र और धर्मचक्र के दोनों ओर ग्रहों की प्रतिमाएं बनाने का भी मत प्रकट किया है।'
नेमिचन्द्र, वसुनन्दि तथा अन्य दिगम्बर लेखकों ने भी जिनप्रतिमा के साथ सिंहासन, दिव्यध्वनि, चामरेन्द्र, भामण्डल, अशोकवृक्ष, छत्रत्रय, दुदुभि
१. वास्तुसार प्रकरण, २/३२--३३ २. वही, ३/३४ ३. वही, २/३५ ४. वही, २०३६ ५. वही, २०३८ ६. प्राचार दिनकर, उदय ३३ ७. वही, उदय ३३ ८. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५१७४-७५; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ५७६--५८१
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तालमान
२७
और पुष्पवृष्टि इन पाठ प्रातिहार्यों की योजना किये जाने का उल्लेख किया है। प्रातिहार्य योजना का निर्देश अपराजितपुच्छा' और रूपमण्डन' में भी मिलता है । रूपमण्डन के अनुसार जिन की प्रतिमाएं छत्रत्रय और त्रिरथिका से युक्त होती हैं । वे अशोक द्रुमपत्र दुन्दुभिवादक देवों, सिंहासन, असुरादि, गज, सिंह से विभूषित होती हैं । मध्य में कर्मचक्र (धर्मचक्र) होता है और दोनों पावों में यक्ष-यक्षिणी । परिकर का बाह्य विस्तार दो ताल और दीर्घता मूल प्रतिमा के बराबर बनाना चाहिये । इनके ऊपर तोरण होना चाहिये । बाह्य पक्षमें गोसिंहादि से अलंकृत वाहिकाएं मौर द्वारशाखा से युक्त प्रतिमा बनानी चाहिये तथा उसमें विभिन्न देवताओं की मूर्तियां बनी होना चाहिये । रथिकाओं के नाम रूपमण्डनकार ने ललित, चेतिकाकार, त्रिरथ, बलितोदर, श्रीपुञ्ज, पञ्चरथिक और आनन्दवर्धन ये सात दिये हैं । रूपमण्डन के अनुसार रथिका में ब्रह्मा, विष्णु, ईश, चण्डिका, जिन, गौरी, गणेश, अपने-अपने स्थान पर होते हैं।'
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।।
१. २२१/५७ २. ६/२७ ३. रूपमण्डन, ६/३३-३६
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चतुर्थ प्रध्याय चतुविशति तीर्थकर
प्राचार्य हेमचन्द्र ने ग्रभिधान चिन्तामणि के प्रथम काण्ड को देवाधिदेवकाण्ड नाम दिया है और उसमें वर्तमान वर्मार्पणी कालके चतुर्विंशति तीर्थकरों के नाम, उनके कुल, माता-पिता, लाछन, वर्ण प्रादि का विवरण दिया है ।
जैन सिद्धान्त की मान्यता है कि मँमारी जीव अपने कर्मबंधन के कारण देव, मनुष्य, तिर्यच और नरक इन चार गतियों में भ्रमण करता रहता है । कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त होने पर जीवात्मा सिद्ध अवस्था प्राप्त करती है और लोक के प्रप्रतम भाग में जाकर स्थिर हो जाती है । तव उसे संसार मे पुन: नही आना पडता । इन सिद्ध आत्माओ की संख्या अनन्तानन्त है | सभी सिद्ध आत्माएँ मनुष्य योनि से ही सिद्ध अवस्था का प्राप्त करती है । तीर्थकर भी उसी प्रकार सिद्ध अवस्था प्राप्त करते है । वे देवजानिके नही होते पर क्योकि मानव शरीर धारण करते हुये भी वे देवताओ द्वारा पूजित होते है, इसलिये उन्हे देवाधिदेव कहा गया है ।
कालरचना
जैन मान्यता के अनुसार संसार अनादि और अनंत है । अवस और उत्सपिणी रूप से कालका चक्र घूमता रहता है परि तदनुसार हास एवं वृद्धि है | यह कम केवल भरत और ऐरावत क्षेत्र में चलता है अन्य एक सा युग रहता है ।
सपिणो और उस परणी में प्रत्येक के ग्रह-छह ग्रारे हुआ करते है । वर्मा के आरो के नाम है, सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा दुषमासुषमा दुषमा र दुषमादुपमा । उत्सर्पिण के आरे विपरीत मसे होते है -- श्रर्थात् दुषमादुषमा, दुषमा, दुषमासुषा गृपमादुपमा, मुषमा और मृषमासुमा । इस समय अवसर्पिणी कालका पंचम आश दुषमा चल रहा है ।
१ तिलोयपण्णत्ती, ४/३१६-१९
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चतुर्विशति तीर्थकर
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अवसर्पिणी के प्रथम तीन प्रारों में उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की रचना होती है । भोगभूमि में मनुष्य अपनी अन्नवस्त्र आदिकी प्रावश्यकताएं कल्पवृक्षों से पूरी करते है । वे कृषि, उद्योग, व्यवसाय आदि से अनभिज्ञ होते है । कल्पवृक्ष न तो वनस्पति होते है और न कोई देव । वे पृथिवीरूप होते हुए भी जीवों को उनके पुण्य का फल देते है ।' कल्पवृक्ष दस प्रकार के होते है, तेजाँग, तूर्याग, भूषणॉग, वस्त्राग, भोजनॉग, आलयाग, दीपाग भाजनांग, मालाग और तेजांग ।।
सुषमादुषमा नामक तीसरे पारे के अंतिम भाग में भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त होकर कर्मभूमि की रचना होने लगती ।। उम गमय कमश: चौदह कुलकर होते है जो मनुष्यो को कर्मभूमि संबंधी बाते समझाते हे । चौदह कुलकर
वर्तमान काल के चौदह कुलकरों के नाम ये बताये गये है-प्रतिथति, सन्मति, क्षेमकर, क्षेमंबर, मीमंकर, सीमंधर, विमलबाहन, चक्षामान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मम्देव, प्रमेनजित्, और नाभि । प्रथम कुलकर के समय मे तेजाग नामक कल्पवृक्षो की किरणे मन्द पड़ा और इस कारण चन्द्र-सूर्य के दर्शन होने लगे। द्वितीय कुलकर के समय में तेजाग कल्पवृक्ष सर्वथा नाट हये और उसस ग्रह, नक्षत्र, तारागण भी दिखाई पड़ने लगे । तृतीय कुलकर क्षेमकर के समय मे व्याघ्रादिक पशुप्रो में क्रूर भाव उत्पन्न होने लगे। चौथे कुलकर के समय तक वे मनुष्य तथा अन्य प्राणियो का भक्षण करने लगे थ । पाचवे कुलकर के समय में कल्पवृक्षो से सम्पूर्ण आवश्यकताएं पूरी नहीं होती थी। वे सीमित मात्रा में ही आवश्यकताएं पूरी कर पाते थे। इसलिये मनुष्यो में लोभ उत्पन्न हुआ, व झगडन लगे । तब मीमकर नामक पंचम कुलकर न वस्तुएं प्राप्त करने की मीमा बाधी । सीमा का उल्लंघन करने वाला के लिये 'हा' दण्ड की व्यवस्था की गयी । छठे कुलकर के समय म कल्पवृक्ष विरल होते गये । फल भी अल्प प्राप्त होता था, इसलिये भिन्न-भिन्न लागों के लिये भिन्नभिन्न वक्षसमूहादि निश्चित कर उन्हे ही चिह्न मान कर मीमा नियत की गई। सप्तम कुलकर के समय में लोगों ने गमनागमन के लिये गज यादि का प्रयोग करना सीखा । पाठवे और नौवे कुलकरो के समय में पुत्रजन्म, नामकरण,
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१. तिलोयपण्णत्ता, ८१३५४ २. ही, ४।३४२
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जन प्रतिमाविज्ञान
बालकों के रुदन का कारण और रोकने का उपाय श्रादि सीखा गया । दसवें कुलकर के समय तक 'हा' के अलावा 'मा' दण्ड भी चल चुका था ।
ग्यारहवें कुलकर के समय में शीत तुषार वायु चलने लगी थी । बारहवें कुलकर के समय तक बिजली चमकने लगी, मेघ गरजने लगे । उस समय मनुष्य ने नौका और छत्र का उपयोग सीखा । तेरहवें कुलकर के समय में बालक तिपटल ( जरायु) से वेष्टित जन्मने लगे । चौदहवें कुलकर नाभि थे । उनके समय में बालकों का नाभिनाल लम्बा होने लगा था । उन्होंने उसे काटने का उपदेश दिया । नाभि अन्तिम कुलकर थे । उन्होंने ही लोगों को धान्य खाने और आजीविका के तरीके सिखाये । नाभि की पत्नी का नाम मरुदेवी था । प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ इन्ही के पुत्र थे ।
त्रिषष्टि शलाका पुरुष
चौबीस तीर्थंकर, द्वादश चक्रवर्ती, नव बलराम, नव नारायण, और नव प्रतिनारायण, इन त्रेसठ विशिष्ट पुरुषों की गणना शलाका पुरुषों में की जाती है । इन शलाकापुरुषों ने अपने विशिष्ट कार्यों द्वारा महत्त्व का स्थान प्राप्त किया था ।
तीर्थकरों के संबंध में हम भागे विवरण देंगे । वर्तमान अवसर्पिर्णी के चतुर्थकाल में हुये बारह चक्रवर्ती ये हैं- भरत, सगर, मधवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुन्थु, अर, सुभीम, पद्म, हरिषेण, जयसेन श्रौर ब्रह्मदत्त । चक्रवर्ती पटखण्ड भरतक्षेत्र के अधिपति होते है । उन्हें चौदह रत्न और नवनिधि का लाभ होता है । सेनापति, गृहपति, पुरोहित, गज, तुरंग, वर्धकि, स्त्री, चक्र, छत्र, चर्म, मणि, काकिनी, खड्ग और दण्ड ये चतुर्दश रत्न बताये गये हैं । काल, महाकाल पाण्डु, माणवक, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न ये नव निधि है ।" प्रथम चक्रवर्ती भरत आदि तीर्थकर ऋषभदेव के पुत्र थे । उनका अपने भ्राता बाहुबली से युद्ध हुआ था जिसमें बाहुबली विजयी हुये पर इस घटना से उन्हें
१. प्रागे आने वाले उत्सर्पिर्णी काल में जो कुलकर होंगे उनके नाम तिलोय पण्णत्ती ४ / १५७०-७१ में दिये गये हैं ।
२. तिलोयपण्णत्ती, ४५१५-१६
३. वही ४।७३६
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चतुविशति तीर्थकर
संसार के प्रति वैराग्य हो गया और वे साधु हो गये । शान्ति कुन्थु और पर ये तीन चक्रवतों तीर्थंकर भी हुये हैं ।
बलराम नारायण के ज्येष्ठ भ्राता होते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी में विजय, अचल, सुधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दो, नन्दिमित्र, राम, और पद्म ये नी बलराम या बलदेव हुये । इनमें से अन्तिम दो सुप्रसिद्ध हैं।
नारायण को विष्णु भी कहा गया है । वर्तमानकाल के नौ नारायण ये हैं, त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुण्डरीक, पुरुषदत्त, नारायण और कृष्ण'। इनमें से अष्टम नारायण को लक्ष्मण भी कहा जाता है ।
प्रतिनारायण नारायण के विरोधी हुमा करते हैं। उनकी सूची इस प्रकार है, अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुकैटभ, निशुम्भ, बलि, प्रहरण या प्रहलाद, रावण और जरासंध ।' किन्हीं-किन्हीं ग्रन्थों में प्रतिनारायणों की गणना शलाकापुरुषों की सूची में नहीं की गयी है ।
___उपर्युक्त महापुरुषों के अतिरिक्त एकादश रुद्रों और नव नारदों का भी विवरण जैन ग्रन्थों में मिलता है। भीमावलि, जितशत्रु, रुद्र, विश्वानल, सुप्रतिष्ठ, अचल, पुण्डरीक, अजितंधर, अजितनाभि, पीठ और सात्यकीपुत्र ये एकादश रुद्र' तथा भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, दुर्मुख, नरकमुख भोर अधोमुख, ये नव नारद हैं।' तीर्थकर
तीर्थकरों समेत सभी शलाकापुरुष चतुर्थ काल में हुआ करते हैं, यह ऊपर बताया गया है किन्तु वर्तमान अवसपिणी हुण्डा अवसर्पिणी होने के कारण
१. बाहुबली की प्रतिमाएं बनायी जाती हैं। कर्नाटक की सुप्रसिद्ध ___ गोम्मटेश्वर प्रतिमा बाहुबली की है। २. तिलोयपण्णत्ती, ४।५१७ । एक अन्य सूची में अचल, विचल, भद्र,
सुप्रम, सुदर्शन, मानन्द, नन्दन, पद्म और राम ये नाम मिलते हैं । ३. वही, ४१५१८ ४. तिलोयपण्णत्ती, ४/५१६ ५. वही, ४/५२०-२१ ६. वही, ४/१४६६
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जैन प्रतिमाविज्ञान
इसमें कुछ अपवाद भी हुये । इसके तृतीय काल (सुषमादुषमा) के चौरामी लाख पूर्व, तीन वर्ष, पाठ मास और एक पक्षके शेष रहने पर प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव का जन्म हुमा । ऋषभनाथ के निर्वाणके पश्चात् तीन वर्ष और साढ़े तीन माम का समय व्यतीत होने पर चतुर्थ काल दुषमामुपमा प्रविष्ट हुप्रा ।' अन्य तेईम तीर्थंकर चतुर्थकाल में ही हुये। अंतिम तीर्थकर महावीर. स्वामी के निर्वाण के पश्चात् तीन वर्ष और साढ़े पाठ मास का समय और बीत जाने पर पंचमकाल (दुषमा) प्रारंभ हुआ जो प्रभी चल रहा है । पंचम मोर षष्ठ काल में भी तीर्थकर नहीं होते।
___अतीत उत्सपिगी और अनागत उत्सर्पिणी में हुये और होने वाले २४-२४ तीर्थकरों की सूची जैन ग्रन्थों में मिलती है। वर्तमान अवसर्पिगी के २४ तीर्थंकरों को जोड़कर ७२ तीर्थकर होते हैं । जैन ग्रन्थों में अक्सर ७२ जिनालयों या जिनबिम्बों का उल्लेख मिलता है । इन बहत्तर नीर्थकरों की जैन मंदिरों में नित्य पूजा-अर्चा की जाती है । जमा कि उपर बताया जा सका है, ये भरतक्षेत्र के तीर्थकर हैं । भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्र में कर्मभूमिया होती है । अन्य क्षेत्रों में कुछ भूमि-देवकुम और उत्तरकुरु-होने से वहाँ तीर्थकर नहीं होते । विदेह क्षेत्र में सदैव कर्मभूमिकी रचना रहने के कारण वहा तीर्थकर सदैव विद्यमान रहते है। विदेह क्षेत्रके विद्यमान २० तीर्थकरों की पूजा भी जैनमंदिरों में नित्य की जाती है । पंच कल्याणक
तीर्थकरों के जीवन की पांच मुख्य घटनाओं को पंचकल्याणक कहा जाता है । वे हैं, तीर्थकर के जीव का माता के गर्भ में आना, तीर्थकर का जन्म होना, तीर्थकर द्वारा गृह त्यागकर तप ग्रहण करता, चार घातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करना और अन्त में शेष चार अघातिया कर्मो का भी सम्पूर्ण रूपसे क्षय करके निर्वाण प्राप्त करना । इस प्रकार गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक, तपकल्याणक, ज्ञान-कल्याणक और निर्वाणकल्याणक ये पंचकल्याणक होते है । इन कल्याणकों के प्रवसर पर देवतानों द्वारा उत्सव मनाये
१. तिलोयपण्णत्ती ४/१२७६ २, वही, ४/१४७४ ३. तिलोयपण्णत्ती महाधिकार ४; प्रवचनसारोद्धार द्वार ७, गाथा
२६०-६२, २६५-६७ तथा अन्य अनेक ग्रन्थ ।
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चतुर्विशति तीर्थकर
जाते हैं। भगवान की गर्भावस्था में रुचक वासिनी छप्पन देवियां तीर्थकरजननी की सेवा किया करती हैं। जन्मकल्याणक के अवसर पर इन्द्रों द्वारा भगवान् का जन्माभिषेक किया जाता है । तपकल्याणक के समय स्वयंबुद्ध प्रभु की स्तुति लौकान्तिक देव करते हैं। ज्ञानकल्याणक के समय धनपति द्वारा समवशरणकी रचना की जाती है। निर्वाणकल्याणक का समारोह भी सभी प्रकार के देवों द्वारा प्रायोजित किया जाता है । वर्तमान अवसर्पिणी के तीर्थकर
वर्तमान अवसर्पिणो में जो चौबीस तीर्थकर हुये हैं उनके नाम ये हैं :
१. ऋषभ २. अजित ३. संभव ४. अभिनंदन ५. सुमति ६. पद्मप्रभ ७, सुपार्श्व ८. चन्द्रप्रभ६. पुष्पदन्त १०. शीतल ११. श्रेयास १२. वासुपूज्य १३. विमल १४. अनंत १५. धर्म १६. शान्ति १७. कुन्थु १८. अर १६. मल्लि २०. मुनिसुव्रत २१. नमि २२. नेमि २३. पाव २४. महावीर
इन नामों के साथ अक्सर 'नाथ' पद लगाया जाता है। ऋषभनाथ को वृषभनाथ और आदिनाथ भी कहा जाता है । अनंतनाथ को अनंनजित, पुष्पदन्त को सुविधिनाथ, मुनिसुव्रत को सुव्रत, नेमिनाथ को अरिष्टनेमि और महावीर को वर्धमान, वीर, अतिवीर, सन्मति, चरमतीर्थकर, ज्ञातृनन्दन, नाथपुत्त, देवार्य आदि कई नामों से स्मरण करते है ।' तीर्थकरों के कुल
अभिधानचिन्तामणि के अनुसार मुनिसुव्रत और नेमिनाथ हरिवंश में उत्पन्न हुये थे, शेए तीर्थकर इक्ष्वाकु कुलमें । नेमिचन्द्र ने मुनिसुव्रत और नेमिनाथ को गौतम गोत्र का तथा अन्य को काश्यपगोत्रीय बताया है।'
१. अभिधानचिन्तामणि, १/२६-३० २. वही, १/३५ ३. प्रतिष्ठानिलक, पृष्ठ ३८६ ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
तिलोयपण्णती ने शान्ति, कुन्य और प्रर का वंश कुरु, मुनिसुव्रत और नेमि का वंश यादव या हरि, पार्श्वनाथ का उग्र, महावीर का नाथ (ज्ञातृ) और शेष तीर्थकरो का वंश इक्ष्वाकु बताया है । तीर्थकरों के वर्ण
अभिधानचिन्तामणि' के अनुसार, पद्मप्रभ और वासुपूज्य रक्तवर्ण, चन्द्रप्रभ और पुष्पदन शुक्लवर्ण, मुनिसुव्रन और नेमि कृष्णवर्ण, मल्लि और पार्श्वनाथ नीलवर्ण तथा शेष तीर्थकर स्वर्ण के समान पीते वर्ण के थे। तिलोयपण्णत्ती मे, पद्मप्रभ और वासुपूज्य को मूगे के समान रक्त वर्ण सुपाव और पार्श्व को हग्त् िवर्ण, चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त को श्वेतवणं, मुनिसुव्रत और नेमि को नीलवर्ण तथा अन्य सभी को स्वर्ण वर्ण बताया गया है । प्राशाधर' के अनुसार मुनिसुव्रत और नेमि श्यामल एवं सुपार्श्व और पार्श्व मरकतमणि के समान प्रभावाले है । वसुनन्दि' ने पद्मप्रभ को पद्म के समान, वामुपूज्य को विद्रुम के समान, सुपार्श्व और पार्श्व को हरित्प्रभ तथा मुनिसुव्रत और नेमि को मरकतमदृश कहा है। अपराजितपृच्छा' मे पद्मप्रभ और धर्मनाथ लाल कमल के समान, सुपार्श्व और पार्श्व हरित्, नेमि श्याम और मल्लि नील वर्ण है । वर्णो की योजना अक्सर चित्रकर्म मे की जाती है । चन्देरी के जैनमदिर की चौबीसी प्रतिमाएं तीर्थकरो के वर्णो के अनुसार निमित करवाकर प्रतिष्ठित की गयी है । तीर्थकरे। के माता-पिता
चतुर्विशति तीर्थकरो के माता-पिता के नाम जैन ग्रन्थो मे निम्न प्रकार मिलते है। तीर्थकर
माता
पिता १ ऋषभनाथ
मरुदेवी २ अजितनाथ
विजया ভিনয়
नाभि
१. १/४६ २. प्रतिष्ठासारोद्धार, १/८०-८१. ३. प्रतिष्ठासारसग्रह, ५/६६-७० ४. २२१/५-६ ५. अभिधानचिन्तामणि, १/३६-४१ तथा तिलोयपण्णत्ती, निर्वाणकलिका,
प्रतिष्ठासारोद्धार, प्रतिष्ठातिलक आदि के माधार पर ।
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चतुविशति तीर्थंकर
४
५
७
८
ह
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१६
२०
२१
२२
२३
२४
तीर्थकर
संभवनाथ
अभिनंदननाथ
सुमतिनाथ
पद्मप्रभ
सुपार्श्वनाथ
चन्द्रप्रभ
पुष्पदन्त
शीतलनाथ
श्रेयांसनाथ
वासुपूज्य
विमलनाथ
अनन्तनाथ
धर्मनाथ
शान्तिनाथ
कुन्थुनाथ
भरनाथ
मल्लिनाथ
मुनिसुव्रतनाथ
नमिनाथ
नेमिनाथ
पार्श्वनाथ
महावीर
माता
सुषेणा या सेना
सिद्धार्था
मंगला या सुमंगला
सुसीमा
वसुंधरा या पृथिवी
लक्ष्मणा
रामा
सुनन्दा या नन्दा
विष्णु या वेणुदेवी
विजया या जया
सुगलक्ष्मी या श्यामा
सुयशा या सर्व यशा
सुव्रता या सुप्रभा ऐरा या अचिरा
श्रीमतीदेवी
मित्रा या देवी
प्रभावती
पद्मा या प्रभावती
वप्रा
शिवा
वामा या ब्रह्मा त्रिशला या प्रियकारिणी
पिता
जितारि
संवर
मेघ या मेघप्रभ
धरण
सुप्रतिष्ठ
महासन
सुग्रीव
दृढ़रथ विष्ण
वसुपूज्य
कृतवर्मा
सिहरान
भानु
विश्वसेन
सूर या सूर्यसेन
सुदर्शन
कुम्भ
सुमित्र
विजय
३५
समुद्रविजय
अश्वसेन
सिद्धार्थ
जैन ग्रन्थों में, तीर्थंकरो के माता के गर्भ में ग्राने की तिथि, नक्षत्र, जिस स्वर्ग विमान से च्युत होकर आये उसका नाम, जन्म का निथि, जन्मनक्षत्र जन्मराशि आदि के विवरण भी उपलब्ध है । किन्तु उनका उल्लेख यहा नही किया जा रहा है ।
जिन माता के स्वप्न
तीर्थकर के माता के गर्भ में आनेके समय जिनेन्द्रजननी कुछ स्वप्न देखती हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार वे सोलह हैं और श्वेताम्बर परम्परा के
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जैन प्रतिमाविज्ञान
अनुसार चौदह । इन स्वप्नों का अंकन शिल्पकृतियों में भी मिलता है। खजुराहो के जैन मंदिरों में गर्भगृह के प्रवेशद्वार पर ही ऊपर माता के स्वप्नों का शिल्पांकन है । स्वप्न ये हैं :
१. ऐरावत हस्ती ४. गजलक्ष्मी ७. सूर्य १०. कमल १३. देवविमान १६. निधूम अग्नि ।'
२. वृषभ ३. सिंह ५. मालायुग्म ६. चन्द्र ८. मीनयुग्म ६. पूर्णकुम्भयुग्म ११. सागर १२, सिंहासन १४. नागविमान १५. रत्नराशि
श्वेताम्बर परम्परा में मीनयुग्मके स्थान पर महाध्वज तथा सिंहासन पोर नागविमान ये दो स्वप्न कम होते हैं ।' पद्मानन्द महाकाव्य के सप्तम सर्ग में वृषभ, गज, सिंह, गजलक्ष्मी, माला, चन्द्र, सूर्य, ध्वज, कुम्भ, सरोवर, सागर, देवविमान, रत्नपुज्ज और अग्नि, इस प्रकार क्रम बताया गया है । यही क्रम त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में भी मिलता है। स्वप्नदर्शन के पश्चात् तीर्थकर का जीव माता के वदनमें प्रवेश करता है।
तीर्थंकरों के जन्मस्थान
तिलोयपण्णत्ती में तीर्थंकरों के जन्मस्थानों की सूची निम्न प्रकार दी गयी है ।१. ऋषभनाध
अयोध्या २. अजितनाथ
अयोध्या ३. संभवनाथ
श्रावस्ती ४. अभिनंदननाथ अयोध्या ५. सुमतिनाथ
अयोध्या
१. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३६३-४०३ । २. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ११, १६-२१; उत्तरपुराण,
पर्व ४८; सकलचन्द्र कृत प्रतिष्ठाकल्प, पन्ना २४ प्रादि ।
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चतुविशति तीर्थकर
६. पद्मप्रभ
७.
८.
सुपार्श्वनाथ
चन्द्रप्रभ
ε.
पुष्पदन्त शीतलनाथ
१०.
११. श्रेयांसनाथ
१२. वासुपूज्य
१३.
विमलनाथ
१४.
अनंतनाथ
१५.
धर्मनाथ
१६. शान्तिनाथ
१७.
कुन्थुनाथ
१८.
प्ररनाथ
१६. मल्लिनाथ
मुनिसुव्रतनाथ
२०.
२१. नमिनाथ
नेमिनाथ
पार्श्वनाथ
२२.
२३.
२४. महावीर
तीर्थकरों के लांछन
कौशाम्बी
वाराणसी
चन्द्रपुरी
काकन्दी
भद्दलपुर
सिंहपुरी
चम्पापुरी
कंपिल्लपुर
अयोध्या
रत्नपुर
हस्तिनागपुर
हस्तिनागपुर
हस्तिनागपुर
मिथिला
राजगृह कुशाग्रपुर
मिथिला
शौरीपुर
वाराणसी
कुण्डलपुर
३७
प्रारम्भ में तीर्थंकरों की प्रतिमानों पर उनके अलग
अलग लांछन या चिह्न नही बनाये जाते थे । उन प्रतिमात्रों पर उत्कीर्ण किये लेखों से ही तीर्थकरों की पहचान होती थी । मथुरा की कुषाण कालीन प्रतिमानों पर तीर्थंकरों के चिह्न नही मिलते हैं। इतना अवश्य है कि कुछेक तीर्थंकर प्रतिमाएँ अपने विशेष स्वरूप के कारण भी पहचानी जाती थी । ऋषभनाथ की प्रतिमाएँ जटामुकुटरूपशेखर से या कन्धों पर लहराते केशगुच्छसे', सुपार्श्वनाथ की प्रतिमाएं पञ्चफण सर्प से और पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं सप्तफण सर्पके छत्र से पहचान ली जाती थी ।
१. रविषेण कृत पद्मपुराण: वातोद्भूता जटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तयः । धूमालय इव ध्यानबह्निसक्तकर्मणः ।।
तिलोयपण्णत्ती ४/२३०
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जैन प्रतिमाविज्ञान
राजगृह के वैभार पर्वत की एक नेमिनाथ प्रतिमा' ( जो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय की है) ऐसी सर्वप्राचीन प्रतिमा जान कि तीर्थंकर का चिह्न भी प्राप्त हुआ है । इससे पूर्व की प्रतिमाओं पर चिह्न परिलक्षित नहीं किये जा सके हैं ।
पड़ती है जिसपर अभी तक प्राप्त
३८
वसुविन्दु (जयमेन ) ने उल्लेख किया है कि चिह्न तीर्थंकरों के सुखपूर्वक पहचान लिये जाने और अचेतनमें संव्यवहार सिद्धि के लिये स्थापित किये जाते है ।` तिलोयपण्णत्ती' की सूची के अनुसार चतुर्विंशति तीर्थकरों के चिह्न निम्न प्रकार है :
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
६.
१०
११.
१२.
१३.
१४
१५.
१६.
१७.
ऋषभनाथ
अजितनाथ
संभवनाथ
अभिनन्दननाथ
सुमतिनाथ
पद्मप्रभ
सुपार्श्वनाथ
चन्द्रप्रभ
पुष्पदन्त
शीतलनाथ
श्रेयांसनाथ
वासुपूज्य
विमलनाथ
अनंतनाथ
धर्मनाथ
शान्तिनाथ
कुन्थुनाथ
१८. अरनाथ
वृष
गज
२. प्रतिष्ठापाठ, ३४७
३ ४/६०४-६०५
प्रश्व
वानर
कोक
पद्म
नंद्यावर्त
अर्धचन्द्र
मकर
स्वस्तिक
गण्ड
महिष
वराह
सेही
वज्र
हरिण
छाग
तगरकुसुम ( मत्स्य ? )
१. आकं० सर्व आफ इण्डिया, वार्षिक प्रतिवेदन, १९२५-२६, पृष्ठ १२५
इत्यादि ।
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चतुर्विशति तीर्थकर
३४
मल्लिनाथ
कलश मुनिसुव्रतनाथ कर्म नमिनाथ
उत्पल नेमिनाथ
शंख २३. पार्श्वनाथ
अहि २४. वर्धमान
सिंह तिलोयपण्णत्ती ने उपर्युक्त प्रकार सातवें तीर्थकर का चिह्न नन्द्यावर्त और दसवें तीर्थकर का चिह्न स्वस्तिक बताया है जबकि दिगम्बर परम्परा के पश्चात्कालीन ग्रन्थों में सातवें तीर्थंकर का चिह्न स्वस्तिक और दमवें तीर्थंकर का चिह्न श्रीवृक्ष मिलता है । तिलोयपण्णत्ती में अठारहवें तीर्थकर का चिह्न तगरकुसुम कहा है जिसका अर्थ हिन्दी टीकाकार ने मीन लिया है । नेमिचन्द्र ने अठारहवें तीर्थकर का चिह्न तगर, वमुनन्दि न पाठोण और जयमेन ने कुसुम बताया है।
अभिधानचिन्तामणि मे मातवें तीर्थकर का निह्न दिगम्बरों के समान स्वस्तिक, दमवे तीर्थंकर का चिह्न श्रीवत्स, ग्यारहवें का ग्वङ्गी (रूपमण्डन में खङ्गीग, अन्यत्र गण्टक), चौदहवे तीर्थकर का श्येन और अठारहवे तीर्थकर का चिह्न नन्द्यावर्त कहा गया है । दीक्षा और दीक्षावृक्ष
दिगम्बर परम्परा के अनुसार वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पाश्वं प्रौर महावीर इन पाँच तीर्थकरों ने कुमार अवस्थामे ही तप ग्रहण कर लिया था।' श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि महावीर ने विवाह किया था ।' नेमिनाथ ने द्वारावती (द्वारिका) में जिनदीक्षा ग्रहण की पर अन्य सभी नोर्थकरो ने अपने अपने जन्मस्थान मे ही तप ग्रहण किया था ।५ चौबीस
१. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/७२-७४; प्रतिष्ठापाठ, ३४६-४७; प्रतिष्ठा
सारोद्धार, १/७८-७६; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ५८१-८२ तथा अन्य । २. १/४७-४८ ३. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ५०३; तिलोय० ४/६७०. ४. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमें उन्हें कृतोद्वाह किन्तु अकृतगज कहा है। ५. तिलोयपण्णत्ती, ४/६४३
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जैन प्रतिमा विज्ञान
१
तीर्थंकरों मे से शान्ति, कुन्थु औौर पर ये तीन चक्रवर्ती सम्राट् थे 'वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पाखं प्रोर महावीर इन्होने राज्य नही किया, अन्यों ने किया था ।
४०
जिन वृक्षो के नीचे तीर्थंकरों ने दीक्षा ग्रहण की थी अथवा जिन वृक्षों के नीचे तपस्या करते हुए उन्हे केवलज्ञान प्राप्त हुआ, वे दीक्षावृक्ष और केवलवृक्ष कहे जाते है । इन वृक्षो को जैन प्रतिमाशास्त्र मे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है । तिलोयपण्णत्तीकार ने बताया है कि ऋषभादि तीर्थंकरों को जिन वृक्षों के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था वे ही प्रशोकवृक्ष हैं । इसलिए तीर्थंकर प्रतिमाम्रां के साथ अशा वृक्ष बनाने की परम्परा है, भले ही तीर्थकर ने किसी भी जाति के वृक्ष के नीच केवलज्ञान प्राप्त किया हो ।
वृक्षों की सूची निम्न प्रकार है' :
१. न्यग्रोध
२. सप्तपर्ण
५. प्रियंगु
८. नाग
४. सरल
७. शिरीष
१०. धूली (मालि )
११ पलाश
१३ पाटल
१४. पिप्पल
१६ नन्दी
१७. तिलक
१६. कंकेलि ( श क ) २०. चम्पा
२२. मेषशृंग
२३. धव
३. शाल
६. प्रियंगु
६. प्रक्ष ( बहेडा )
१२. तेंदू
१५ दधिप
१८. प्राम्र
२१. बकुल
२४. साल
जयसेन' और नेमिचन्द्र द्वारा दी गयी सूचिया भी प्राय: उपर्युक्त प्रकार की है ।
समवशरण
तीर्थंकर नामक कर्म प्रकृति के उदय से अर्हत् अवस्था में भगवान् जीवमात्र के कल्याण हेतु उपदेश दिया करते है । उपदेश सभा या समवशरण
१. तिलायपण्णत्ता, ४ / ६०६ २. ४/१५
३. तिलोयपण्णत्ती, ४/६१६-६१८
४. प्रतिष्ठापाठ, ८३५ ।
५. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ५१२
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चतुर्विशति तीर्थकर
४१
की व्यवस्था देवों द्वारा की जाती है । सौधर्मेन्द्र के आदेश से धनपति अपनी विक्रिया के द्वारा समवशरण की रचना करता है।' समवशरण सभा के १२ कोष्ठों में सभी प्रकार के प्राणियों के बैठने की व्यवस्था होतो है । मध्य में गंधकुटी होती है। गंधकुटी में स्थित सिंहासन पर तीर्थंकर अंतरीक्ष विराजमान होते हैं। उनके मस्तक पर त्रिछत्र होता है । प्रहंत अवस्था में तीर्थकर के चौदह अतिशय होते हैं। प्रशोकतरु, चामरधारी, देवदुंदुभि,, देवतानों द्वारा पुष्पवृष्टि, प्रभामण्डल, आदि का अंकन तीर्थकर प्रतिमा में पाया जाता है । समवशरण के प्रतीहार
जिनेन्द्र पूजा विधान के अवसर पर मण्डप के रक्षक प्रतीहारों की स्थापना की जाती है। जिनपूजामण्डप वस्तुतः समवशरण की प्रतिकृति होता है जिसकी रक्षा व्यन्तर जाति के देव किया करते हैं।
प्रतीहार देवतानों में से जया, विजया, अजिता और अपराजिता ये चार देवियां क्रमशः पूर्वादि द्वारों की प्रतीहारिणी होती हैं। इन देवियों के चार-चार हाथ बताये गये हैं। उन हाथों के प्रायुध, पाश, अंकुश, अभय मोर मुद्गर हैं । जंभा, मोहा, स्तंभा पोर स्तंभिनी, ये देवियां विदिशाओं में स्थित होती है। इसी प्रकार प्रभा, पद्मा, मेघमालिनी, मनोहरा, चंद्रभाला, सुप्रभा जया, विजया और व्यक्तांतरा ये देवियां अपने अपने वर्ण की अर्थात अरुण, कृष्ण, श्वेत आदिक ध्वजाएं ग्रहण करती हैं।'
___ मंडप के द्वारपालों का कार्य कुमुद, अंजन, वामन और पुष्पदन्त, ये चार प्रतीहार करते है । कुमुद पूर्व द्वार पर स्थित होता है, अंजन दक्षिण द्वार पर, वामन पश्चिम द्वार पर और पुष्पदन्त उत्तर द्वार पर स्थित हाता है । 'कुमुद पंचमुख होता है, उसका पासन स्वस्तिक है । कुमुद हाथ में हेमदण्ड धारण करता है।'
१. तिलोयपण्णत्ती, ४/७१०. २. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ५७८-५७६ तथा अन्य ३. प्रतिष्ठासारोदार, ३/२१६-२२५ ४. प्रतिष्ठासारोबार, ३/२०८-२०६; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २०६-११ ५. प्रतिष्ठासारोदार, २/१३६-१४२ ६. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ६५८
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जैन प्रतिमाविज्ञान
उपर्युक्त प्रकार विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार देव भी क्रमशः प्राची, अपाची, प्रतीची और उदीची दिशाओं में स्थित होते है ।' ये देव व्यन्तर निकाय के हैं । वे जम्बूद्वीप की चार दिशाओं मे स्थित इन्ही नाम के द्वारों के रक्षक हैं । द्वारों के नाम पर ही इनके नाम पड़े हैं । अनावृत और तुम्बरु नामक यक्षों के संबंध में आगे विवरण दिया जावेगा।
जया, विजया, जयन्ती और अपराजिता का विवरण विष्णुधर्मोत्तर' में भी मिलता है । वहां ये देवियां चतुर्वक्त्रा और द्विभुजा बतायी गयी है । प्रत्येक के बायें हाथ में कपाल किन्तु जया के दायें हाथ में दण्ड, विजया के दायें हाथ में खड्ग, जयन्ती के दायें हाथ में अक्षमाला भोर अपराजिता के दायें हाथ में भिन्दिपाल बताया गया है । जया का वाहन नर, विजया का कोशिक, जयन्ती का तुरग और अपराजिता का मेघ । जया का वर्ण श्वेत, विजया का रक्त, जयन्ती का पीन और अपराजिता का कृष्ण है । इन्हें मातृ कहा गया है । इनके बीच मे महादेव तुम्बर (श्वेतवर्ण) स्थित होते है जो चतुर्मुख और वृषारूढ़ है । जया और विजया की स्थिति तुम्बरु के दक्षिण ओर तथा जयन्ती और अपराजिता की उनके वाम मोर कही गई है । हेमचन्द्र प्राचार्य ने तुम्बरु को समवशरण के अन्त्य वप्र के प्रतिद्वार में स्थित बताया है । वह जटामुकुटयुक्त, खट्वागी और नरमुण्डमालाधारी होता है ।'
रूपमण्डन' में इन्द्र, इन्द्रजय, माहेन्द्र, विजय, धरणेन्द्र, पद्मक, सुनाभ और सुरदुन्दुभि ये आठ वीतराग जिनेन्द्रदेव के प्रतीहार कहे गये है। इन्द्र और इन्द्रजय के प्रायुध फल. वज्र अंकश और दण्ड, माहेन्द्र और विजय के दो हाथो में वज, और दो मे फल और दण्ड, सुनाभ और दुन्दुभि निधिहस्त तथा धरणेन्द्र और पद्मक विफण या पचफण मर्पछत्रधारी है । तीर्थकरों को निर्वाणभूमिया
आयु कर्म के उदय की अवधि समाप्त होने पर तीर्थकर सभी प्रकार के अधातिया कर्मो गे भी मुक्त होकर सिद्ध अवस्था प्राप्त करते है । ऋषभनाथ,
१ प्रतिष्ठामारोद्धार, ३/१९५-१६६ २. जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो, १/३८-३६,४२; तिलोयप० ४/१-१२,७५ ३. तृतीय खण्ड, अध्याय ६६, ५-११. ४. विषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १ सर्ग १ ५. ६/२८-३३
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चतुर्विशति तीर्थकर
नेमिनाथ और महावीर पद्मासन मुद्रा में स्थित अवस्था से मुक्त हुगे, शेष सभी तीर्थकरों ने कायोत्सर्ग प्रासन से निर्वाण प्राप्त किया ।' तीर्थकरों के निर्वाण स्थलों की वंदना-पूजा जैन लोग किया करते हैं । वे निर्वाण भूमियां निम्न प्रकार हैं :-- ऋषभनाथ
कैलाश या अष्टापद वासुपूज्य
चम्पापुरी नेमिनाथ
ऊर्जयन्तगिरि महावीर
पावापुरी अन्य तीर्थंकर
सम्मेद शिखर नव देवताराधन
नेमिचन्द्र आदि ग्रंथकारों ने नवदेवताराधन का एकत्र उल्लेख किया है । तदनुसार अप्टदलकमल की प्राकृति का निर्माण कर उसके मध्य की कणिका पर अर्हत् परमेष्ठी की स्थापना की जाती है और चारों दिशाओं में स्थित पत्रों पर सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन चार परमेष्ठियों की तथा कोणस्थ दलों पर जिनधर्म, जिनागम, जिनविम्बों और जिनमंदिगे की स्थापना करके पूजा की जाती है । वस्तुतः जैन लोग इन्ती नौ की अष्ट द्रव्य गे सम्पूर्ण पूजा किया करते हैं । यक्षादि की अष्टद्रव्य पूजा नहीं की जाती । उन्हें पूजा का अंश भेंट किया जाता है । जिनमंदिगे और जिनबिम्बा की पूजा में कृत्रिम और अकृत्रिम जिनालयों, नंदीश्वरद्वीप के ५२ जिनालयों, ज्योतिप्क, व्यन्तर और भवनवासी देवों के प्रासादो में प्रतिष्ठित जिनालयों, पंचमेरु स्थित, कुलपर्वतों पर स्थित, जंबूवृक्ष, शाल्मलिवृक्ष और चैत्यवृक्षों पर स्थित, वक्षारमप्यादि में, इष्वाकार गिरि में और कुण्डलद्वीप आदि में स्थित जिनालया और जिनविम्बा की पूजा जैनमंदिरों में हुमा करती है। विशिष्ट शिल्पांकन
बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ और तेईसवे तीर्थकर पाश्वनाथ के. जीवनकाल से संबंधित दो घटनाओं का अंकन भी शिल्प में किया जाता
१. निलोयपण्णत्ती में ऋषभ, वासुपूज्य, और महावीर का पल्यंकबद्ध
प्रासन (पद्मामन) से मुक्त होना बताया गया है। २. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ७३
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४४
जैन प्रतिमाविज्ञान हैं। अरिष्टनेमि के विवाह की पूरी तैयारियां हो चुकी थीं । वे बारात लेकर पहुंच भी गये थे कि पशुओं के बंधन देखकर उन्हें संसार से बैराग्य हो गया । तीर्थंकर पार्श्वनाथ की तप अवस्था में पूर्व बैर वश कमठ नामक देव ने उन पर भीषण उपसर्ग किया था।
ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली की प्रतिमाएं भी निर्मित की जाती है । उन में उन्हें कठोर तपस्या में रत दिखाया जाता है। बाहुबली की प्रतिमाएं केवल कायोत्सर्ग प्रासन की होती हैं ।
अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां वनभवनगतानां दिव्यवैमानिकानाम् । इह मनुजकृतानां देवराजाजितानां जिनवरनिलयानां भावतोऽहं स्मरामि ।।
अष्ट प्रातिहार्य
सिहासन, दिव्यध्वनि, चामरेन्द्र, भामण्डल, प्रशोकवृक्ष, छत्रत्रय, दुंदुभि पोर पुष्पवृष्टि ये प्रष्ट प्रातिहार्य हैं। अष्ट मंगलद्रव्य
श्वेतछत्र, दर्पण, ध्वज, चामर, तोरणमाला, तालवृन्त (बीजना), नंद्यावर्त और प्रदीप ये अष्ट मंगलद्रव्य हैं। इनकी स्थापना जिनपूजा विधान में की जाती है । मथुरा के प्रायागपट्टों पर इनकी प्रतिकृतियां उपलब्ध हुयी हैं । तिलोयपण्णती में भृगार, कलश, दर्पण, ध्वज, चामर, छत्र, बीजन और सुप्रतिष्ठ ये आठ मंगलद्रव्य गिनाये गये है।
१. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ६/३५-३६ प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३६६ २. ३/४६
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पंचम अध्याय चतुर्निकाय देव
जैन परम्परा में लोक के तीन भाग बताये गये हैं, ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक मोर धोलोक । मध्यलोक में हम निवास करते हैं । यह पृथ्वी गोलाकार है मौर प्रसंख्य द्वीप समूहों से वेष्टित है । बीच में जम्बू नामक द्वीप है । उसे वलयाकृति लवणसमुद्र वेष्टित किये हुये है ।
जम्बूद्वीप में छह कुलपर्वत होने से उसके सात क्षेत्र बन गये हैं । दक्षिण से क्रमश: हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह कुलाचल हैं। क्षेत्रों के नाम हैं भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत मौर ऐरावत | विदेह क्षेत्र के मध्य में मेरुपर्वत स्थित है ।
भरतक्षेत्र के बहुमध्य भाग में विजयार्ध पर्वत है । हिमवान् पर्वत से निकलनेवाली पूर्वगामिनी गंगा और पश्चिमगामिनी सिन्धु नदियों तथा विजयार्ध के कारण भरतक्षेत्र के छह खण्ड हो गये हैं । विजयार्धं पर्वत के कूटों पर व्यन्तर जाति के देवों के प्रासाद हैं । उनके नाम भरत, नृत्यमाल, माणिभद्र, वैताढ्य, पूर्णभद्र, कृतमाल, भरत और वैश्रवण हैं । गंगानदी के मणिभद्रकूट के दिव्य भवन में बला नामक व्यंतर देवी का और सिन्धु के बीच प्रवना या लवणा व्यंतर देवी का निवास है । उत्तर भरत के मध्यखण्ड के वृषभ गिरि पर वृषभ नामक व्यंतर रहता है
जम्बूद्वीप के चारों और चार गोपुर द्वार हैं । उनके नाम विजय, वैजयन्त, जयन्त र अपराजित है। ये नाम क्रमश: पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में स्थित द्वारों के हैं । इन द्वारों के अधिपति व्यन्तर देव हैं । द्वारों के जो नाम हैं, वे ही नाम उन देवों के हैं ।
मध्यलोक से सात राजु ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है । मध्यलोक से घोलोक है | ऊर्ध्वलोक में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारों की स्थिति है । उनके ऊपर स्वर्ग, ग्रैवेयक श्रौर अनुत्तर विमान हैं जिनमें देवों का निवास है । अधोलोक में भी देवों का निवास है ।
१. जंबूदीवपण्णत्ति संग हो, १ / ३५-३६ तिलोयपण्णत्ती, ४/४१-४२ २ . वही, १ / ४२ ; वही ४/७५
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जैन प्रतिमाविज्ञान
देव चार प्रकार के माने गये हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पभव । ये चतुनिकाय देव कहे जाते हैं। इन देवों में इन्द्र, सामानिक पायस्त्रिंशत्, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषिक ये उत्तरोत्तर हीन पद होते हैं। (व्यंतर देवों में त्रायस्त्रिंशत् और लोकपाल नहीं होते) भवनवामी और व्यन्तर देवों में दो-दो इन्द्र होते हैं। भवनवासी देव
___ मध्यलोक में नीचे अधोलोक में रत्नप्रभा नामक पृथ्वी के खर और पंकबहुल भाग में भवनवासी देवों के प्रासाद हैं । भवनवासी देवों के दस दस विकल्प हैं । वे भवनों में रहते हैं अतएव भवनवासी कहलाते हैं । उनकी जातियों के नाम असुर, नाग विद्युत्, सुवर्ण, अग्नि, वात, स्तनित, उदधि, द्वीप
और दिक् हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ कुमार पद लगा रहता है यथा दिवकुमार । भवनवासी देवों के वर्ण और मुकुट चिह्न निम्न प्रकार बताये गये है :
नाम
वर्ग
कृष्ण
मुकुटो में चिह्न वृडामणि सर्प
वज्र
अमरकुमार नागकुमार विद्युत्कुमा सुपर्णकुमार अग्निकुमार वातकुमार स्तनितकुमार उदधिकुमार द्वीपकुमार दिक्कुमार
कालश्यामल विद्युत् श्यामल अग्निज्वाल नीलकमल कालश्यामल कालश्यामल
गरुड कलश तुरग वर्धमान (स्वस्तिक) मकर हस्ती सिह
श्यामल
श्यामल
भ-नवासी देवों के इन्द्र अणिमादिक ऋद्धियों से युक्त एवं मणिमय कुण्डलो से अलंकृत होते हैं । इन्द्रों का किरीटमकट और प्रतीन्द्रों का साधारण
१. पकबहुल भाग में राक्षसो और असुरकुमारों के । खरभाग में शेष
व्यन्तरो और भवनवासी देवों के । २. तिलोयपण्णत्ती, ३/८-६; ३/११६-१२१
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चतुनिकाय देव
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मुकुट होता है । प्रत्येक इन्द्र के पूर्वादिक दिशाओं के रक्षक सोम, यम, वरुण
और धनद, ये चार-चार लोकपाल होते हैं । भवनवासी देवों के इन्द्रों के नाम तिलोयपण्णत्ती' में ये बताये गये हैं :
दक्षिण इन्द्र
उत्तर इन्द्र
चमर
भूतानंद
देण,
जलप्रभ
असुर कुमार नागकुमार सुपर्णकुमार द्वापकुमार उदधिकुमार स्तनितकुमार विद्युत्कुमार दिक्कमार अग्निकमार वायुकुमार
वैरोचन धरणानंद वेणधारक वशिष्ट जलकान्त महाघोष हरिकान्त अमितवाहन अग्निवाहन प्रभंजन
घोष
हरिषण अमितगति अग्निशिखी बेलम्ब
अश्वत्थ, मप्तपर्ण, शाल्मलि, जामुन, बेत, कदंब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रम, ये दम चैत्यवृक्ष क्रमशः इन भवनवासी देवो के कुलचिह्न होते है।' अमुरकमार देवा के सिकतानन आदि अनेक भेद होते हैं । वे अधोलोक में तीसरी पृथ्वी (बालुकाप्रभा) तक जाकर नारकी जीवों को लड़ाते रहते है और उससे मन में संतुष्ट होते है ।५
पाशाधर' और नेमिचन्द्र ने भवनवासी दवा के इन्द्रो के वाहन, मुकुट
२. वही, ३१७१. ३. वही, ३।१३--१६
वही, ३।१३६ ५. वही, २।३५० ६. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३१८६-६२ ७. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३०१--०४
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जन प्रतिमाविज्ञान
चिह्न प्रस्त्र और सेना आदि के संबंध में निम्नप्रकार विवरण दिया है:इन्द्र वाहन मुकट चिह्न प्रस्त्र सेना असुरेन्द्र लुलाय चूडामणि मुद्गर महिषादि सप्तानीक नागकुमारेन्द्र कमठ नागफण नागपाश नागादि सप्तानीक सुपर्णकुमारेन्द्र द्विरद सुपर्ण दण्ड सुपर्णादि सप्तानीक द्वीपकुमारेन्द्र तुरंग द्विप
द्विपादि उदधिकुमारेन्द्र वारीभ मकर वडिदण्ड मकरादि स्तनितकुमारेन्द्र मृगेन्द्र वन खड्ग खड्गादि विद्युत्कुमारेन्द्र वराह स्वस्तिक तडित् करमादि दिक्कमारेन्द्र दिक्कुंजर सिंह परिघा सिंहादि अग्निकुमारेन्द्र महास्तंभ कुंभ उल्का शिबिकादि वातकुमारेन्द्र तुरंग तुरंग वृक्ष तुरंगादि
भैरवपद्मावतीकल्प में प्राठ प्रकार के नाग बताये गये हैं; अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोट,पदम, महासरोज, शंखपाल और कुलिक । वासुकि ओर शंख को क्षत्रियकल का तथा रक्तवर्ण एवं धराविष कहा गया है । कर्कोटक और पद्म शूद्रकुल के, वृ.ण्णवर्ण एवं अब्धिविष हैं। अनन्त और कलिक का कुल विप्र और वर्ण चन्द्रकान्त के समान है, वे अग्निविष हैं । तक्षक और महासरोज वश्य हैं, पीतवर्ण एवमरुद् विष हैं । घराविष से गुरुता और जड़ता पाती है, देह में सन्निपात होता है । प्रब्धिविष से लालाकण्ठ निरोध होता है, दंशस्थान गलता है । बह्निविष के दोष से गंडोद्गम और दृष्टि अपटु होती है । मरुद् विष के दोष से प्रास्यशोषण बताया गया है । पद्मावती कर्कोट नाग पर प्रासीन होती हैं। व्यन्त र देव
व्यन्तर देवो के आठ विकल्प बताये गये है। उनके भी क्रमशः दस, दस, दस, दस, बारह, सात, सात मौर चौदह भेद होते है। जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, व्यन्त र देव मध्य लोक में भी रहते हैं और अधोलोक की प्रथम पृथ्वी के भाग में भी । जम्बूद्वीप के चार गोपुरद्वारों के रक्षक विजय, वैजयन्त. जयन्त और अपराजित व्यन्तरों के संबंध में ऊपर कहा जा चुका है।
१. तिलोयपण्णत्ती, ६।२५ २. वही ६/३३.-५०
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चतुनिकाय देव
व्यंतर देवों के किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये आठ विकल्प हैं। इनके इन्द्रों के वाहन और आयुधों का विवरण नेमिचन्द्र ने प्रतिष्ठातिलक में दिया है। जैसे किन्नरेन्द्र का वाहन अष्टापद और प्रायुध नागपाश ; राक्षसेन्द्र का वाहन सिंह और प्रायुध भाला।
स्वर्गीय डाक्टर हीरालाल जी जैन ने इन जातियों के संबंध में लिखा है
__ "राक्षस, भूत, पिशाच आदि चाहे मनुष्य रहे हों अथवा पोर किसी प्रकार के प्राणी, किन्तु देश के किन्ही वर्गों में इनकी कुछ न कुछ मान्यता थी जिसका प्रादर करते हुए जैनियों ने इन्हें एक जाति के देव स्वीकार किया है ।"२
___ यहां यक्षों के द्वादश भेद बता देना आवश्यक है, वे हैं माणिभद्र, पूर्णभद्र, शैलभद्र, मनोभद्र, भद्रक, सुभद्र, सर्वभद्र, मानुष, धनपाल, स्वरूपयक्ष, यक्षोत्तम
और मनोहरण । इनके माणिभद्र और पूर्णभद्र नामक दो-दो इन्द्र और उन इन्द्रों के कुन्दा, बहुपुत्रा, तारा और उत्तमा नामक देवियां होती हैं ।' उल्लेखनीय है कि पूर्णभद्र, मणिभद्र, शालिभद्र, सुमनभद्र, लक्षरक्ष, पूर्णरक्ष, सर्वण, प्रादि यक्षों का उल्लेख भगवतीसूत्र (३-७) में भी मिलता है । ज्योतिष्क देव
इन्हें पटलिक भी कहते हैं। इनके पांच समूह हैं, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे । चन्द्र इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र । प्रत्येक चन्द्र के अठासी ग्रह हैं, उनमें से प्रथम पांच बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल और शनि है । प्रत्येक चन्द्र के अट्ठाईस नक्षत्र हैं जिनकी सूची वही है जो सामान्यतया अन्य ग्रन्थों में मिलती है । नक्षत्रों का प्राकार निम्न प्रकार बताया गया है ।
बीजना, गाड़ी की उद्धिका, हिरण का मस्तक, दीप, तोरण, छत्र, बल्मीक, गोमूत्र, शरयुग, हस्त, उत्पल, दीप, प्रधिकरण, हार, वीणा, मोंग, बिच्छू, दुष्कृतवापी, सिंह का मस्तक, हाथी का मस्तक, मुरज, गिरता पक्षी, सेना, हाथी का पूर्व शरीर, हाथी का ऊपरी शरीर, नौका, घोड़े का मिर, चूल्हा ।'
१. पृष्ठ ३०६ स ३०८ । २. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृष्ठ ५। ३. तिलोयपण्णत्ती, ६/४२-४३ ४. वही, ७/७ ५. वही, ७/१४-२२ ६. वही, ७/२५-२८ ७. वही, ७/४६५-६७
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जन प्रतिमाविज्ञान
प्रत्येक चन्द्र की चन्द्रला, सुसीमा, प्रभंकरा और अचिमालिनी ये चार' और प्रत्येक सूर्य की द्युतिरुचि, प्रकरा, सूर्यप्रभा और अचिमालिनी ये चार अग्रमहिषी' हुआ करती हैं। वैमानिक देव
इनके मुख्य भेद दो हैं, कल्पोपपन्न और कल्पातीत । तिलोयपण्णत्ती (८/१२-१७) में कुल प्रेसठ इन्द्रक विमान बतलाये गये हैं। उनमें से बावन कल्प मौर ग्यारह कल्पातीत । कल्पवासी देवों में इन्द्र, सामानिक प्रादि दस उत्तरोत्तर हीन पद रूप कल्प होते हैं। तिलोयपण्णत्ती (८/११५) में कहा गया है कि कोई बारह कल्प और कोई सोलह कल्प (स्वर्ग) मानते हैं । इसी भेद के कारण श्वेताम्बरों ने कुल इन्द्रों की संख्या ६४ और दिगम्बरों ने १०० बतायी है।
दिगम्बरो में सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, गतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, ये सोलह स्वर्ग माने गये हैं। उनमें से ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, महाशुक्र,
और शतार कम कर देने से वह संख्या द्वादश हो जाती है । इन स्वगों तक कल्प हैं । इनके ऊपर कल्पातीत पटल हैं; नौ अंवेयक, नो अनुदिश और पांच प्रकार के अनुत्तर विमान ।
जन प्रतिमाशास्त्र में मुख्यतः सौधर्म और ईशान स्वर्ग के इन्द्रों का प्रसंग पाता है। लौकान्तिक देव केवल तीर्थकर के वैराग्य (तपकल्याणक) के समय पृथ्वी पर पाते हैं। उनके नाम सारस्वत, प्रादित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट हैं । तीर्थकर के जन्मकल्याणक के समय सोधमन्द्र भगवान को गोद में लेता है, ईशानेन्द्र छत्र धारण करता है, सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र चंवर ढौंरते हैं । शेष इन्द्र जय जय शब्द का उच्चारण करते हैं। सौधर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र ही भगवान् का अभिषेक करते हैं तथा धनपति को सेवार्थ नियुक्त करते हैं ।
१. तिलोयपण्णत्ती, ७/५८ २. वही, ७/७७
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चतुनिकाय देव
माचारदिनकर (उदय ३३, पन्ना १५५) में सौधर्मेन्द्र पौर ईशानेन्द्र का स्वरूप निम्न प्रकार बताया गया हैसौधर्मेन्द्र
ईशानेन्द्र वर्ण काञ्चनवर्ण श्वेतवर्ण भुजाएं चतुर्भुज
चतुर्भुज वाहन गजवाहन
वृषभवाहन वस्त्र
पंचवर्णवस्त्राभरण : नीललोहितवस्त्र, जटाधारी मायुध दो हाथ अंजलिबद्ध दा हाथ मंजलिबद्ध
एक हाथ अभयमुद्रा में एक हाथ में शूल एक हाथ में वज एक हाथ में चाप
__ पद्मा, शिवा, सुलसा, शची, अंजु, कालिंदी, श्यामा और भानु, ये आठ सौधर्मेन्द्र की अग्रदेवियां और श्रीमती, सुसीमा, वसुमित्रा, वसुन्धरा, ध्रुवसेना, जयसेना, सुषेणा और प्रभावती ये अाठ ईशानेन्द्र को अग्रदेवियां बतायी गयी हैं।
तिलोयपण्णत्ती, जंबू दीपपण्णत्तिसंगहो और त्रिलोकसार के अनुसार सोलह स्वर्गों के इन्द्रों के वाहन, प्रायुध और मौनिचिह्न का विवरण नीचे दिया जा रहा है -
वाहन __ प्रायुध मोलिचिह्न
जंबू० तिलोय. त्रिलो० १. सौधर्मेन्द्र गज गज गज वज्र शूकर २. ईशानेन्द्र वृषभ गज अश्व त्रिशूल मृग ३. सनत्कुमारेन्द्र सिंह सिह सिंह तलवार महिष ४. माहेन्द्रेन्द्र अश्व अश्व वषभ परशु मत्स्य
१. जबूदोपपण्णात्तसगहा, ११/२५७ २. वही, ११/३१३ ३. ५/८५-८७ ४. ५/६३ आदि ५. गाथा ४८६, ४८७, ९७४, ९७५
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जैन प्रतिमाविज्ञान
५. ब्रह्मेन्द्र ६. ब्रह्मोत्तरेन्द्र ७. लान्तवेन्द्र ८. कापिप्ठेन्द्र ९. शुक्रेन्द्र १०. महाशुक्रेन्द्र ११. शतारेन्द्र १२. सहस्रारेन्द्र १३. मानतेन्द्र १४. प्राणतेन्द्र १५. पारणेन्द्र १६. अच्युतेन्द्र
हंस हंस सारस मणिदण्ड कर्म वानर कोच सारस पाश दर्दुर सारस सारस पिक धनुर्दण्ड तुरग मकर मकर पिक कमल कुञ्जर चक्रवाक चक्रवाक हंस पूगफलगुच्छ चन्द्र पुष्पक तोता हस गदा सर्प कोयल कोयल कोक तोमर - गरुड गण्ड कोक हलमूसल गेंडा
गरुड गरुड श्वेतपुष्पो की माला छगल कमल कमल मकर कमलमाला बषभ नलिन कुमुद मयूर चम्पकमाला कल्पतरु कुमुद मयूर पुष्पक मुक्तामाला कल्पतरु
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षष्ठ अध्याय
विद्यादेवियां श्रुतदेवता सरस्वती
तिलोयपण्णत्ती में अनेक स्थलों पर श्रुतदेवी (सरस्वती) के रूप (प्रतिमाओं) का उल्लेख मिलता है।' मथुरा के जैन शिल्प में प्राचीनतम सरस्वती प्रतिमा प्राप्त हुई है जो लेखयुक्त है। बीकानेर तथा अन्य कई स्थानों की जन सरस्वती प्रतिमाएं सुप्रसिद्ध हैं।
श्रुतदेवता या सरस्वती की प्रतिमानों के निर्माण और उनकी पूजा की परम्परा जैनों में अति प्राचीन कालसे चली आ रही है। सरस्वती द्वादशांग श्रुतदेव की अधिदेवता है । भगवान् जिनेन्द्र के वस्तुतत्त्वनिरूपण को उनके गणधरों ने बारह अंगों में संग्रहीत किया था जिसे द्वादशाग पागम या श्रुत कहा जाता है। जिनेन्द्र की वाणी होने के कारण श्रत जिनेन्द्र के समकक्ष प्रामाणिक और पूज्य माना जाता है। इसलिये श्रुत को भी देव की संज्ञा प्राप्त हो गयी । कालान्तर मे श्रत की अधिदेवता के रूप में श्रतदेवता या सरस्वती के मूर्त रूप की कल्पना हुयी। सरस्वती को भारती, वाणी प्रादि अनेक नामों से स्मरण किया जाता है।
जैनों की सरस्वती प्रतिमा जैनेतरों की सरस्वती प्रतिमा से विशेष भिन्न प्रकार की नही होती। प्राचीन कालमे भारत के सभी धर्मावलम्बियों में सरस्वती की एक समान प्रतिष्ठा थी । मल्लिषेण ने अपने भारतीकल्प' में सरस्वतीवन्दना करते हुये लिया है कि हे देवि, साम्य, चार्वाक, मीमांसक, सौगत तथा अन्य मत-मतान्तरों को मानने वाले भी ज्ञानप्राप्ति के हेतु तेरा ध्यान करते है । मल्लिषेण ने वाणी (सरस्वती) को त्रिनेत्रा और जटाभालेन्दुमण्डिता कहा है । वर्ण श्वेत होता है और वह सरोजविष्टर पर आसीन होती है । सरस्वती के चार हाथों में से एक हाथ अभय मुद्रा में होता है और दूसरा हाथ ज्ञानमुद्रामें । शेष दो हाथों के आयुध क्रमशः अक्षमाला और पुस्तक हैं।'
१. ४/१८८१ तथा अन्यत्र । २. जैन सिद्धान्त भवन पारा का हस्तलिखित ग्रन्थ क्रमांक झ/८० ३. पही
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५४
जन प्रतिमाविज्ञान
सरस्वती की स्तुतिमें अनेक जैन प्राचार्यों और पंडितों ने कल्प, स्तोत्र प्रोर स्तवन रचे हैं । मल्लिषेण की रचना का उल्लेख ऊपर किया गया है । बप्पभट्टि का सरस्वतीकल्प, साध्वी शिवार्या का पठितसिद्धसारस्वतस्तव, जिनप्रभसूरि का शारदास्तवन और विजयकीर्ति के शिष्य मलयकीर्ति का सरस्वतीकल्प कुछेक प्रसिद्ध रचनामों में से हैं । मलयकीति ने सरस्वती को कलापिगमना और पुण्डरीकासना बताया है।' उन्होंने भी सरस्वती को त्रिनयना और चतुर्भुजा कहा है । प्राचारदिनकर में श्रुतदेवता को श्वेतवर्णा, श्वेतवस्त्रधारिणी, हंसवाहना, श्वेतसिंहासनासीना, भामण्डलालंकृता और चतुर्भुजा बताया गया है। देवी के बायें हाथों में श्वेतकमल और वीणा तथा दायें हाथों में पुस्तक पौर मुक्ताक्षमाला का विधान किया गया है किन्तु प्राचारदिनकर के ही सरस्वती स्तोत्रमें देवी के बायें हाथों के प्रायुध वीणा और पुस्तक तथा दायें हाथों के आयुध माला और कमल कहे गये हैं । निर्वाणकलिका में भी सरस्वती के रूप का वर्णन मिलता है । इस ग्रन्थ के बिम्बप्रतिष्ठाविधि स्थल में सरस्वती को द्वादशांग श्रुतदेव की अधिदेवता कहा गया है। निर्वाणकलिका के अनुसार श्रुतदेवता के दायें हाथों में से एक हाथ वरद मुद्रा में होता है और दूसरे हाथ में कमल होता है । बायें हाथों के प्रायुध पुस्तक और अक्षमाला बताये गये हैं।' विद्या देवियां
अभिधानचिन्तामणिमें विद्यादेवियों के नामों का उल्लेख करते हये उन्हें वाक्, ब्राह्मी, भारती, गो, गी, वाणी, भाषा, सरस्वती, श्रुतदेवी, वचन, व्याहार, भाषित पोर वचस् भी कहा गया है । इससे प्रतीत होता है कि जैनों की विद्यादेवियां वस्तुतः अपने नामके अनुसार वाणी की विभिन्न प्रकृतियों के कल्पित मूर्त रूप हैं । विद्यादेवियों का स्वरूप बताते समय प्रायः सभी ग्रन्थोमें उन्हें ज्ञान से संयुक्त कहा गया है ।
१. सरस्वतीकल्प, जैनसिद्धान्त भवन पारा का हस्तलिखित ग्रन्थ क्रमांक __ख/२३६ । २. उदय ३३, पन्ना १५५ । ३. निर्वाणकलिका. पन्ना १७ ४. वही, पन्ना ३७ ५. देवकाण्ड (द्वितीय)
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विद्यादेवियां
५५
विद्यादेवियां सोलह मानी गयी हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं, ९. रोहिणी, २. प्रज्ञप्ति, ३. वज्रशृंखला, ४ वज्रांकुशा, ५. जाम्बूनदा, ६. पुरुषदत्ता, ७. काली, ८. महाकाली, ६. गौरी, १० गांधारी, ११. ज्वालामालिनी, १२. मानवी, १३. बेरोटी, १४. अच्युता, १५ मानसी प्रोर १६. महामानसी । यह सूची दिगम्बर परम्परा के अनुसार है। श्वेताम्बर परम्परा में पांचवीं विद्यादेवी श्रप्रतिचत्रा या चक्रेश्वरी कही गयी है । श्रभिधानचिन्तामणि में' चक्रेश्वरी नामसे प्रौर पद्मानन्द महाकाव्य' में प्रतिचका नामसे उसका उल्लेख मिलता है । प्राठवी विद्यादेवी का नाम हेमचन्द्र ने महापरा बताया है' किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थ उसे महाकाली ही कहते हैं ।" ज्वालामालिनी का उल्लेख श्वेताम्बर ग्रन्थों में ज्वाला नाम से मिलता है । उन्ही ग्रन्थों में वैरोटी को वैरोट्या और अच्युता को अच्छुप्ता कहा गया है ।
विद्यादेवियों की सूची का शासन देवताओं की सूची से मिलान करने पर विदित होगा कि इन देवियों मे से प्रायः सभी को शासन यक्षियों की सूची
स्थान प्राप्त है यद्यपि शासन यक्षी के रूप में इनके प्रायुध, वाहन प्रादि भिन्न प्रकार के होते हैं। गौरी, वखाकुशी, वज्रशृंखला, वज्रगांधारी, प्रज्ञापारमिता, विद्युज्ज्वालाकराली जैसी देवियों की मान्यता बौद्ध परम्परा में भी रही है । वस्तुतः वज्रशृंखला और वज्जाकुशा जैसे नाम बौद्धों की तांत्रिक परम्परा से अधिक प्रभावित जान पड़ते है ।
रोहिणी
पोडश विद्यादेवियों में रोहिणी प्रथम है । यद्यपि दिगम्बर श्रौर श्वेताम्बर दोनों परम्पराम्रों में इसकी इसी नाम से मान्यता है, पर दोनों परम्पराम्रो
१. दवकाण्ड (द्वितीय) |
२. १ / ८३-८४ ।
३. अभिधानचिन्तामणि देवकाण्ड / आचारदिनकर ( उदय ३३) में भी महापरा नाम मिलता है ।
,
४. निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ ।
५. दिगम्बर परम्परा के विद्वानों द्वारा भी ज्वालिनीकल्प नाम से रचनाएं की गयी हैं ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
में देवी के वर्ण, वाहन और प्रायुषों के संबंध में मतवैषम्य है । दिगम्बरों के अनुसार रोहिणी स्वर्ण के समान पीत वर्ण की है जबकि श्वेताम्बर ग्रन्थों में उसे धवल वर्ण कहा गया है। दिगम्बरों के अनुसार यह विद्यादेवी कमलासना है' पर श्वेताम्बर परम्परा गोवाहना कहती है । रोहिणी चतुर्भुजा है । दिगम्बर ग्रन्थों में उसके हाथों के प्रायुध कलश, शंख, कमल और बीजपूर बताये गये हैं। इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा की रोहिणी दायें हाथों में अक्षसूत्र
और बाण तथा बांये हाथों में शंख और धनुष धारण किये रहती है।' प्राचारदिनकर ने इस देवी को 'गीतवरप्रभावा' कहा है। दिगम्बर परम्परा में द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ की शासन यक्षी का नाम भी रोहिणी है पर वह लोहासना होती है और उसके प्रायुध शंख, चक्र, अभय और वरद होते हैं। प्रज्ञप्ति
द्वितीय विद्या देवी का नाम प्रज्ञप्ति है । इसे दिगम्बर ग्रन्थ श्याम वर्ण की और श्वेताम्बर ग्रन्थ कमलपत्र के समान अथवा धवल वर्ण की बताते हैं .. दिगम्बरों के अनुसार इसका वाहन प्रश्व' पर श्वेताम्बरों के अनुसार मयूर है ।" दिगम्बर परम्पराके ग्रन्थों में प्रज्ञप्ति के चार हाथ बताये गये हैं जबकि श्वेताम्बर परम्परा के प्राचारदिनकर के अनुसार, वह द्विभुजा और निर्वाणकलिका के अनुसार चतुर्भुजा है । प्राचार दिनकर ने शक्ति और कमल ये दो आयुध कहे है किन्तु निर्वाणकलिका के वर्णन के अनुसार प्राप्ति के दायें हाथों में से एक तो वरद मुद्रा में होता है और दूसरे हाथ में शक्ति होती है तथा बायें हाथों में वह मातु. लिंग और पुतः शक्ति धारण करती है।" दिगम्बर परम्परा में प्रज्ञप्ति के चक्र,
१३.५ प्राशाधर, ३/३७; नामचन्द्र, पृष्ट २८४. २.४.६. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२; निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ । ७. वसुनन्दि/६ ८. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२; निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ । ६. प्राशाधर १०. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२; निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ ११. उदय ३३, पन्ना १६२ १२. पत्रा ३७
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विद्यादेवियां
खड्ग, कमल और फल, ये चार प्रायुध बताये गये है । दिगम्बरों ने तीसरे तीर्थकर की यक्षी का नाम भी प्रज्ञप्ति कहा है किन्तु वह यक्षी पक्षीवाहना और षड्भुजा होती है। वज्रशृंखला
तृतीय विद्यादेवी वशृखला का वर्ण सोने के समान पीत है । दिगम्बर ग्रन्थों में उसका वाहन हाथी कहा गया है पर श्वेताम्बरों के अनुसार वह पद्मवाहना है । प्राचार दिनकर में वजशृंखला के केवल दो प्रायुधो का नामोल्लेख किया गया है, वे हैं शृंखला मोर गदा किन्तु निर्वाण कलिका' के अनुसार देवी के चार हाथों मे से उपरले दोनों हाथो में शृखला होती है और निचला दाया हाथ वरद मुद्रा में तथा निचला बायां हाथ पद्म धारण किये होता है। दिगम्बर परम्परा के प्रतिष्ठातिलक के वर्णनके अनुसार, वज्रशृखला, शंख, कमल और बीजपूर ये चार वशृखला विद्यादेवी के प्रायुध है। आशाधर ने वज और शृखला इन दोनों को भिन्न भिन्न आयुध बताया है । वमुनन्दि ने शृंखला का तो नामोल्लेख किया है पर अन्य आयुधो का विवरण नही दिया । केवल यह सूचित किया है कि देवी चतुर्भुजा होती है। दिगम्बर परम्परा म चतुर्थ तीर्थकर की यक्षी का नाम भी वज्रशृंखला है किन्त उस यक्षी का स्वरूप भिन्न है । वज्राँकुशा
चतुर्थ विद्यादेवी का यह नाम भी बोद्धा में प्रभावित प्रतीत ता है । वसुनन्दि न वज्राकुशा का वर्ण अंजन के समान काला बताया है पर अन्यत्र उसे मोने के सगान पीतवर्णवाली कहा गया है। दिगम्बर परम्परा के अनुमार इस देवी का वाहन पुष्पयान है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा म वह गज माना गया है । वज्राकुशा के चार हाथ होते है । दिगम्बर ग्रन्थकारा मे से न तो वमुनन्दि ने, न पायाधर ने और न ही नेमिचन्द्र ने सभी प्रायुधो के नाम लिये है।
१. नेमिचन्द्र, पृष्ठ ३८४ २. उदय ३३, पन्ना १६२ ३. पन्ना ३७ ४. नेमिचन्द्र, पृष्ठ २८५ ५. निर्वाणकलिका, पन्ना ३७; प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२ ६, वही
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जैन प्रतिमाविज्ञान
वसुनन्दि ने देवी को अंतुजाहस्ता कहा है। प्राशाघर ने एक हाथ का प्रायुध वीणा बताया है, शेष प्रायुध नही बताये। नेमिचन्द्र ने अंकुश, कमल और बीजपूर इन तीन प्रायुधों का नामोल्लेख किया है।' चौथे प्रायुध का उल्लेख नही किया। यदि नेमिचन्द्र द्वारा गिनाये गये तीन आयुषों में प्राशाधर द्वारा बताया गया चतुर्थ प्रायुध वीणा जोड़ दिया जावे तो दिगम्बर परम्परा के अनुसार वजांकुशा के चारों हाथों में क्रमशः वीणा, अंकुश, कमल और बीजपूर ये चार प्रायुध होना चाहिये । निर्वाणकलिकाकार ने दायें हाथों के आयुध वरद और वज तथा बायें हाथों के आयुध मातुलिंग और अंकुश कहे हैं ।' प्राचार दिनकर में खड्ग, वज, फलक (ढाल) और कुन्त (भाला) ये चार पायुष बताये गये हैं। जाम्बूनदा /अप्रतिचका
" पंचम विद्यादेवी का नाम दिगम्बर परम्परा में जाम्बूनदा और श्वेताम्बर परम्परा में अप्रतिचक्रा या चक्रेश्वरी मिलता है। अप्रतिचक्रा को प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ की शासनदेवता भी माना गया है । पद्मानन्द महाकाव्य (१/८३-८४) में कहा है कि चक्रेश्वरी सभी देवतामों में अधिदेवता है और वही देवी विद्यादेवियों में अप्रतिचक्रा के नाम से प्रसिद्ध है।
जाम्बूनदा पौर प्रप्रतिचका दोनों का ही वर्ण स्वर्ण के समान पीत बताया गया है । जाम्बूनदा का वाहन मयूर है और अप्रतिचक्रा का गरुड । अप्रतिचक्रा के चारों हाथों में चक्र होते हैं। जाम्बूनदा के आयुध खड्ग, कुन्त, कमल और बीजपूर हैं।" पुरुषदत्ता
छठी विद्यादेवी पुरुषदत्ता को दिगम्बर ग्रन्थ श्वेतवर्ण की और श्वेताम्बर ग्रन्थ पीतवर्ण वाली कहते हैं । दिगम्बरों के अनुसार उसका वाहन कोक है' और श्वेताम्बरों के अनुसार महिषी (भेस) । दिगम्बर परम्परा के अनु
१. प्रातष्ठातलक, पृष्ठ २८५ । २. निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ । ३. उदय ३३, पन्ना १६२ । ४. निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ । ५. नेमिचन्द्र, पृष्ठ २८५ । ६. माशापर/३-४२ ७. निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
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विद्यादेवियां
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सार यह विद्यादेवी चतुर्भुजा है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के प्राचारदिनकर पौर निर्वाणकलिका में देवी की भुजामों की संख्या के विषय में भिन्न मत प्रकट किये गये हैं । प्राचारदिनकर के कथनानुसार पुरुषदत्ता द्विभुजा है' किन्तु निर्वाणकलिकाकार उमे दिगम्बरों के समान चतुर्भुजा ही कहते हैं । प्राचारदिनकर में खड्ग और ढाल इन दो आयुधों का उल्लेख है जबकि निर्वाणकलिका के अनुसार इस देवी के दायें हाथों में से एक वरदमुद्रा में होता हैं और दूसरे हाथ में तलवार तथा बायें हाथों में मातुलिंग और खेटक होते हैं । २ दिगम्बर परम्परा में वज्र, कमल, शंख और फल ये चार प्रायुध बताये गये हैं । ३ दिगम्बर परम्परा में ही पुरुषदत्ता पंचम तीर्थंकर की यक्षी का भी नाम बताया गया है किन्तु उसका स्वरूप भिन्न प्रकार का है। काली
___ सप्तम विद्यादेवी काली का वर्ण श्वेताम्बरों के अनुसार कृष्ण और दिगम्बरों के अनुसार पीत है । दिगम्बरों के अनुसार इसका वाहन हरिण है पर श्वेताम्बर कमल पर आसीन कहते हैं। देवी चतुर्भुजा होती है । प्राचार दिनकर ने गदा और वज्र ये दो ही आयुष बताये हैं पर निर्वाणकलिका में दायें हाथों में प्रक्षसूत्र और गदा का तथा बायें हाथों में वज्र और अभय का विधान है ।" नेमिचन्द्र ने मुशल, तलवार, कमल और फल, ये चार प्रायुध कहे हैं । श्वेताम्बरों की सूची में चतुर्थ तीर्थंकर की और दिगम्बरों की सूची में सप्तम तीर्थकर की यक्षी का नाम भी काली है किन्तु उनके लक्षण इस विद्यादेवी से भिन्न प्रकार के हैं । महाकाली
__ अष्टम विद्यादेवी महाकाली को अभिधानचिन्तामणि में महापरा तथा प्राचारदिनकर में महापरा और कालिका दोनों कहा गया है । यह संभवतः
१. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२ २. निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ । ३. नेमिचन्द्र, पृष्ठ २८६ । ४. उदय ३३, पन्ना १६२ । ५. पन्ना ३७ । ६. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २८७ ।
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जन प्रतिमाविज्ञान
सप्तम विद्यादेवी काली के साथ 'महा' पद जोड़े जाने का निर्देश है । दिगम्बर माम्नाय में महाकाली का वणं श्याम या नील माना जाता है जबकि प्राचार दिनकरकार ने उसे चन्द्रकान्त मणि के समान उज्ज्वल वर्ण की और निर्वाणकलिकाकार ने तमाल वणं की बताया है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महाकाली की सवारी शरभ है पर श्वेताम्बर परम्परा में इस विद्यादेवी को नरवाहना माना गया है । देवी की चार भुजाएं हैं। पाशाधर और नेमिचन्द्र ने धनुष, खड्ग, फल और वाण ये चार प्रायुध बताये हैं ।' वसुनन्दि ने देवी को वज्रहस्ता और चतुर्भुजा कहा है पर अन्य प्रायुधों का नामोल्लेख नहीं किया । निर्वाणकलिका में देवी के दायें हाथों में अक्षसूत्र और वज्र का तथा बायें हाथों में से एक में घण्टा और दूसरा अभय मुद्रा में होने का विधान है । आचार दिनकर के अनुसार तीन हाथों में अक्षसूत्र, घण्टिका और वज्र तो होते हैं किन्तु चौथा हाथ अभयमुद्रा में न होकर फल धारण किये होता है । शोभन मुनि की चतुर्विशतिका में भी इस देवी के वज्र, फल,अक्षमाला और घण्टा यही चार प्रायुध बताये गये हैं। महाकाली नाम तीर्थंकरों की यक्षियों की सूची में भी मिलता है। श्वेताम्बरों की सूची में वह पंचम तीर्थकर की और दिगम्बरों की सूची में नवम तीर्थंकर की यक्षी है किन्तु वहां यक्षी के पायध, वाहन आदि भिन्न प्रकार के बताये गये हैं। गौरी
नौवीं विद्यादेवी गौरी को श्वेताम्बरों ने गौर वर्ण और दिगम्बरों ने पीत वर्ण बताया है। निर्वाणकलिकाकार ने इम कनकगोरी कहा है । गौरी का वाहन गोधा है । चार भुजाओं वाली इस विद्यादेवी का मुख्य आयुध कमल है । वसुनन्दि ने इसे चतुर्भुजा और पद्महस्ता कहा है । उनका वर्णन अपूर्ण है । प्राचार दिनकर में भी सहस्रपत्र (कमल) मात्र का नामोल्लेख है, अन्य आयुधों का नही । पर निर्वाणकलिका में चारों हाथों के प्रायुध कहे है । तदनुसार गौरी के दायें हाथों में से एक वरदमुद्रा में, दूसरे में मूसल तथा बायें हाथों में अक्ष
१. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २८६ २. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ६ ३. पन्ना ३७ ४. उदय ३३, पन्ना १६२
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विद्यादेविया
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माला और कुवलय (कमल) होते है ।' गौरी का नाम शासन देवताओं की सूची में भी है। दिगम्बरों के अनुसार ग्यारहवे तीर्थंकर की यक्षी का नाम गौरी या गोमेधकी है किन्तु वह मृगवाहना होती है । गांधारी
दसवी विद्यादेवी गांधारी है जिसे दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही आम्नाय भ्रमर और अंजन के समान कृष्ण वर्ण की मानते है । दिगम्बर प्राम्नाय मे गांधारी को कच्छपासीन किन्तु श्वेताम्वर प्राम्नाय मे उसे कमलासीन माना गया है । यद्यपि प्राचार दिनकर मे इस देवी के केवल दो आयुधोंमूसल और वज्र-का नामोल्लेख है किन्त निर्वाण कलिका मे चारो हाथों के प्रायुध गिनाये गये हे । २ वे इस प्रकार है, दाये मोर का एक हाथ वरदमुद्रा मे, दूसरे हाथ में मूमल, वाये ओर का एक हाथ अभयमुद्रा में और दूसरे हाथ मे वज्र । दिगंबर परम्परा में भी गाधारी को चतुर्भुजा कहा गया है। वसुनन्दि ने केवल एक प्रायुध, चक्र, का उल्लेख किया है पर चतुर्भुजा कहा है। आशाधर और नेमिचन्द्र ने चक्र और खड्ग, इन दो प्रायुधो के नाम बताये हैं, शेष दा के नही।
गाधारी का नाम भी शासन देवियो की सूची में मिलता है। दिगम्बर परम्परा मे बारहवे तीर्थंकर को यक्षी का नाम गाधारी है। कुछ ग्रन्थो के अनुमार वह सत्रहवे तीर्थंकर की यक्षी है। श्वेताम्बर परम्परा मे इक्कीमवे तीर्थकर की यक्षी का नाम गाघारी बताया गया है किन्तु वह यक्षी हसवाहना होती है। ज्वालामालिनी | ज्वाला
दिगम्बरो में ज्वालामालिनी के नाम से और श्वताम्बरो मे ज्वाला के नाम से मान्य ग्यारहवी विद्यादेवी का श्वतवर्ग का माना गया है। इसक वाहन क संबध म मतवैषम्य है । शोभन मुनि कृत चतुविंशतिका में वरालक, प्राचारदिनकर में मार्जार, निर्वाणकलिका मे वराह, प्रतिष्ठासारोद्धार मे महिष और नमिचन्द्र क प्रतिष्ठातिलक मे लुलाय वाहन का उल्लेख है। दिगम्बर ग्रन्थ इस देवी की अष्टभुजा बताते है । निर्वाणकलिका न असंख्य भुजा कहा है पर प्रायुधो के नाम नही गिनाये । माचारदिनकर के अनुसार
१. पन्ना ३७ । २. पन्ना ३७-३८ ३. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २८७ ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
यह देवी दो हाथों में ज्वाला धारण करती है।' वसुनन्दि इसके अष्टभुजा होने का उल्लेख तो करते हैं पर केवल चार प्रायुध, धनुष, खड्ग, बाण मोर
खेट गिनाकर छोड़ देते हैं । २ नेमिचन्द्र ने धनुष और बाण इन दो प्रायुधों का उल्लेख किया है, शेष छह का नहीं ।' माशाधर ने भी धनुष, खेट, खड्ग और चक्र इन चार का उल्लेख कर मादि आदि कहा है। वसुनन्दि की सूची में वाण है जो नेमिचन्द्र की सूची में नहीं है । वह मिला देने से पांच प्रायुधों की निश्चित जानकारी संभव है । इनके अलावा एक-एक हाथ अभय पौर वरदमुद्रा में भी हो सकते हैं। ज्वालामालिनी को दिगम्बर परम्परा में अष्टम तीर्थकर की यक्षी भी माना गया है। वह्निदेवी के नाम से ज्ञात इस विद्यादेवी को यक्षी के रूप में भी श्वेतवर्णवाली, महिषवाहना और अष्टभुजा कहा गया है । ज्वालामालिनी यक्षी के जो प्रायुध प्राशाधर मोर नेमिचन्द्र ने बताये हैं, वे इस प्रकार हैं, दायें हाथों में त्रिशूल, बाण, मत्स्य और खड्ग; बायें हाथों में चक्र, धनुष, पाश मोर ढाल । वसुनन्दि ने दो आयुध तो नही बताये पर शेष छः प्रायुधों का उल्लेख किया है जिनमें से एक वज्र भी है । बाकी पांच बाण, त्रिशूल, पाश ,धनुष और मत्स्य ये हैं। ज्वालामालिनी कल्प में खडग और ढाल के बदले फल और वरद का विधान है। मानवी
बारहवी विद्यादेवी का वर्ण नील माना गया है । केवल निर्वाणकलिका कार ने उसे श्याम वर्ण कहा है जो नीले के लिये भी प्रयुक्त होता है। दिगम्बरों के अनुसार मानवी शूकरवाहना है, किन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थों में उसे नील सरोज (कही साधारण सरोज)पर आसीन बताया गया है । दोनों परम्परात्रों में मानवी को चतुर्भुजा माना गया है पर वसुनन्दि ने केवल एक प्रायुध-विशूल का, आशाधर ने त्रिशूल और मत्स्य का, · मिचन्द्र ने मत्स्य, त्रिशूल, और खड्ग इन आयुधों का नाम बताया है । चौथे आयुध का उल्लेख नेमिचन्द्र ने भी नहीं किया। प्राचारदिनकर ने देवी के हाथ में वृक्ष बताया है । चारों हाथों के प्रायुधों का विवरण निर्वाणकलिका में उपलब्ध है। उसके अनुसार बायें हाथ में प्रक्षसूत्र और वृक्ष तथा दायें हाथों में से एक हाथ में पाश और दूसरा हाथ
१. उदय ३३, पन्ना १६२ । २. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ६ । ३. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २८७ । ४. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २८८ ।
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विद्यादेवियां
वरद मुद्रा में ।' यक्षियों की सूचियों में मानवी का नाम दिगम्बर परम्परा में सातवें और दसवें दोनों तीर्थंकरों के साथ मिलता है किन्तु कहीं कहीं उन तीर्थकरों की यक्षियां क्रमशः कालो मोर चामुण्डा भी कही गयी हैं । श्वेताम्बर परम्परा में ग्यारहवें तीर्थकर की यक्षी का नाम मानवी बताया गया हैं । वरोटी | वैरोट्या
तेरहवी विद्यादेवी का नाम दिगम्बरों में रोटी मोर श्वेताम्बरों में वैरोट्या प्रचलित है । उसका वर्ण नेमिचन्द्र ने स्वर्ण के समान बताया है किन्तु अन्य दिगम्बर ग्रन्थकार नील वर्ण बताते हैं । श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में से निर्वाण कलिका में इस विद्यादेवी का वर्ण श्याम किन्तु प्राचार दिनकर में गौर कहा गया है । दिगम्बरों के अनुसार रोटी का वाहन सिंह है । प्राचार दिनकर कार भी वैरोट्या का वाहन सिंह बताते है किन्तु निर्वाणकलिका के अनुसार वह अजगरवाहना है ।' रोटी और वैरोट्या दोनों ही रूप में यह विद्या देवी चतुर्भुजा है । वसुनन्दि ने इसे सर्पहस्ता कहा है, अन्य प्रायुषों का उल्लेख नहीं किया । नेमिचन्द्र ने भी सपं का ही उल्लेख किया है। निर्वाण कलिका के अनुसार दायें हाथो में खड्ग और सर्प तथा बायें हाथों में खेटक मोर सर्प होते है ।' आचार दिनकर के विवरण से प्रतीत होता हैं कि देवी के उपरले दोनों हाथों में खड्ग और ढाल तथा निचले हाथों में से एक हाथ में सर्प और दूसरा हाथ वरद मुद्रा में होता है । वैरोटी यक्षी का नाम दिगम्बर परम्परा में तेरहवें तीर्थकर के साथ और वैरोट्या का नाम श्वेताम्बर परम्परा में उन्नीसवें तीर्थकर के साथ मिलता है। उन शासन यक्षियों के लक्षण इन विद्यादेवियों से भिन्न प्रकार के बताये गये हैं। अच्युता/ अच्छुप्ता
चौदहवी विद्यादेवी का नाम दिगम्बर परम्परामें अच्युता और श्वेताम्बर परम्परामें अच्छुप्ता मिलता है । वर्ण दोनों का ही स्वर्ण या विद्युत् के समान बताया गया है । दोनों विग्रहों में यह विद्यादेवी अश्ववाहना और चतुभुजा है । खड्ग इस देवी की खास पहचान है ।
१. निवाणकालका, पन्ना ३८ । २. प्रतिष्ठातिलक, पन्ना २८८ । ३. पन्ना ३८ । ४. उदय ३३, पन्ना १६३
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जैन प्रतिमाविज्ञान
वमुनन्दि ने अच्युता को वचहस्ता कहा है। प्राशापर ने उसके दो हाथी का नमस्कार मुद्रा में बताया है। नेमिचन्द्र ने एक प्रायुध खड्ग कहा है । इस प्रकार दो हाथ नमस्कार मुद्रामे, एक हाथमे खड्ग और चौथे हाथ गे वज्र, यह अच्युता देवी का रूप प्रतीत होता है। निर्वाणकलिका मे देवीके चार प्रायुध इम प्रकार बनाये गये हैं, दाये हाथो में खड्ग और बाण तथा बाये हाथो म खेटक पार सर्प ।' आचारदिनकर के अनुमार दाये हाथो मे बाण और खड्ग तथा बाये हाथो मे धनुष और ढाल इस प्रकार चार प्रायुध होते हैं ।
श्वेताम्बर परम्पगमे छठे तीर्थकर की यक्षी का भी नाम अच्युना है। प्रवचनमारोदार में वही नाम मत्रहवे तीर्थंकर की यक्षी का बताया गया हैं । मानमी
पद्रहवी विद्यादवी मानसी है । उसका वर्ण अागाधर मौर नेमिचन्द्र ने लाल, वसुनन्दि ने रत्नप्रभ, प्राचारदिनकर ने जाम्बूनदप्रभ और निर्वाणकलिका ने धवल बनाया है। दिगम्बरों के अनुसार मानमीका वाहन मर्प है किन्तु प्राचारदिनकर मे वह हसवाहना बतायी गयी है।' निर्वाणकलिका के विवरण के अनुमार' मानमी का दाये प्रोर का एक हाथ वरद मुद्रा में और उसके दूसरे हाथ म वज्र होता है । देवी के बाये हाथो में अक्षवलय और प्रशान होने का उल्लेख मिलता है । दिगम्बर परम्परा के वमुनन्दि और नेमिचन्द्र ने इस विद्यादेवी को नमस्कार मुद्रा युक्त तो बताया है किन्तु अन्य दो हाथो के आयुधो की सूचना नही दी है । दिगम्बर परम्परामे पद्रहवे तीर्थकर की यक्षी का नाम भी मानसी है। महामानसी
__ सालहवा विद्यादेवी महामानसी को दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ रक्तवर्ण और श्वेताम्बर परम्पराके ग्रन्थ धवलवर्ण बताते हैं । दिगम्बरा के अनुसार महामानसा हमवाहना है । इवताम्बर परम्पराके प्राचारदिनकर मे इसे मकरवाहना प्रार निर्वाणलिका मे सिहवाहना कहा गया है। यह विद्यादवी चतुर्भुजा
१. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २८८ । ५. निर्वाण कलिका, पन्ना ३८ । ३ उदय ३३, पन्ना १६३ । ४. पन्ना ३८ । ५. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ६, प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २८६ । ६. उदय ३३, पन्ना १६३ ७. पन्ना ३८
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विद्यादेवियां
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है। दिगम्बर परम्परा के वसुनन्दि ने इसे प्रणाममुद्रायुक्त कहा है किंतु प्रागाधर और नेमिचन्द्र' ने प्रक्षमाला, वरद, माला ओर अंकुश ये चार प्रायुध बताये हैं । प्राचारदिनकरकार ने खड्ग और वरद इन दो प्रायुधों का उल्लेख किया है । निर्वाणकलिका ने दायें हाथों में से एक को वरद मुद्रामें स्थित मौर दूसरे में तलवार तथा बायें हाथों में कमण्डलु और ढाल, इस प्रकार चार मायुध बताये हैं । दिगम्बर परम्परा में सोलहवे तीर्थकर की यक्षी का नाम भी महामानसी है।
१. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २८६ । २. निर्वाणकलिका, पन्ना ३८ ।
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सप्तम अध्याय
शासनदेवता चौबीम यक्षों और उतनी ही यक्षियों की गणना शासन देवताओं के समूह में की गयी है । ये यक्ष-यक्षी तोर्थकरों के रक्षक कहे गये हैं। प्रत्येक तीर्थंकर से एक यक्ष और एक यक्षी मंबद्ध है । तीर्थकर प्रतिमा के दायें और यक्ष की
और बायें प्रोर यक्षी की प्रतिमा बनाये जाने का विधान है ।' पश्चात् काल में स्वतंत्र रूप से भी यक्ष-यक्षियों की प्रतिमाएं बनाई जाने लगी थी । यद्यपि तांत्रिक युग के प्रभाव से विवश होकर जैनो को इन देवों की कल्पना करनी पड़ी थी किन्तु इन्हें जैन परंपरा में सेवक या रक्षक का ही दरजा मिला, न कि उपास्य देव का । प्राशाधर पंडित ने सागारधर्मामृत में लिखा है कि प्रापदायों से प्राकुलित होकर भी दार्शनिक श्रावक उनकी निवृत्ति के लिये शासन देवताओं को नहीं भजता, पाक्षिक श्रावक ऐसा किया करते हैं । सोमदेव सूरि ने स्पष्ट किया है कि तीनों लोकों के इप्टा जिनेन्द्र देव और व्यन्तरादिक देवतानों को जो पूजाविधान में समान रूप से देखता है, वह नरक में जाता हैं । उन्होंने स्वीकार किया है कि परमागम में, शासन की रक्षा के लिये शासन देवताओं की कल्पना की गयी है।
यक्ष यक्षियों की प्रतिमाएं सर्वागसुन्दर, सभी प्रकार के प्रलंकारों से भूषित और अपने अपने वाहनों तथा प्रायुधों से युक्त बनाने का विधान है । वे करण्ड मुकुट और पत्रकुण्डल धारण किये जाय: ललितासन में बनायी जाती है ।
चतुर्विंशति यक्ष शासन-यक्षो का सूचियां तिलोयपण्णत्ती, प्रवचनसारोद्धार, अभिधानचिन्तामणि, प्रतिष्ठासारसंग्रह, प्रतिष्ठासारोद्धार, प्रतिष्ठातिलक, निर्वाणकलिका, माचारदिनकर प्रादि प्रादि जैन ग्रन्थों में तथा अपराजितपृच्छा मौर रूपमण्डन जैसे अन्य वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों में मिलती हैं । तिलोयपण्णत्ती, प्रतिष्ठासारसंग्रह, अभिधान चिन्तामणि और अपराजितपृच्छा में वणित सूचियां यहां दी जा रही है।
१. वसुनान्द, ५/१२ २. उपासकाध्ययन, ध्यान प्रकरण, श्लोक ६६७-६६६ । ३. वसुनन्दि, ४/७१
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त्रिमुख
सुमुख
मांक तिलोयप० प्रतिष्ठासारसं० अभि०चि०
गोवदन गोमुख गोमुख महायक्ष महायक्ष महायक्ष
त्रिमुख त्रिमुख यक्षेश्वर यक्षेश्वर यक्षनायक' तबर तुवर तुम्बरु मातंग
पूष्प विजय मातंग मातंग अजित श्याम
विजय ६ ब्रह्म
अजित अजित ब्रह्मेश्वर
ब्रह्म ईश्वर यक्षेश्वर षण्मुख कुमार पाताल चतुर्मव
षण्मुख किनर पाताल
पाताल किपुरुष किनर किनर १६ गरुड
गरुड
गड १७ गंधर्व
गंधर्व
गंधर्व
प्रप०१० तीर्थकर गोमुख ऋषभ महायक्ष अजित त्रिमुख संभव चतुरानन अभिनंदन तुम्बरु सुमति कुसुम पद्मप्रभ मातग सुपाव विजय चन्द्रप्रभ जय पुष्पदन्त ब्रह्मा शीतल किनरेश श्रेयांस कुमार वासुपूज्य षण्मुख विमल पाताल अनंत किनर धर्म गरुड शान्ति गधर्व
कुन्थ
ब्रह्म
कुमार
कुमार
१ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और अमरकाव्य म यक्षश्वर तथा
प्रवचनसारोद्धार और निर्वाणकलिका में ईश्वर नाम कहा है। २. नेमिचन्द्र ने तुंबरु लिखा है। ३ हेमचन्द्र के ही विपष्टिशलाकापुरुषचरित्र में तथा अन्य मभी श्वेताम्बर
ग्रन्थो में कुमुम नाम मिलता है । ४ प्राशाधर ने ब्रह्मा कहा है । प्राचार दिनकर में भी ब्रह्मा नाम है । ५. विषप्टिशलाकापुम्प रत में ईश्वर और प्राचार दिनकर में यक्षगज ___ नाम मिलता है। ६ नेमिचन्द्र ने प्रतिष्ठातिलक में षण्मुख नाम बताया है । ७. नेमिचन्द्र ने गंधर्वयक्षेश्वर कहा है। ८. प्राचारदिनकर मे गंधर्वराज पौर निर्वाणकलिका मे गंधर्वयक्ष ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
कुबेर
भृकुटि
m
गुह्यक
खेन्द्र यक्षेन्द्र यक्षेश पर १६ वरुण
कुबेर कुबेर कुबेर मल्लि भृकुटि वरुण
वरुण
वरुण मुनिमुव्रत गोमध
भृकुटि भृकुटि नमि पावं
गांमद गोमेध गोमेध नेमि मातंग
धरण पाव पाच पार्श्व
मातंग मातंग मातंग महावीर तिलोयपण्णनी और प्रतिष्ठामारमंग्रह की मूचिया दिगम्बरों द्वाग मान्य हैं । अभिधानचिन्तामणि की मूर्ची ट्वेताम्बर परम्पग की मूवी है । अपगजितपच्छा ने चतुरानन और जय जैसे नये नाम जोड़ दिये है। तिलोयपण्णती की सूची में क्रमांक ५ के पश्चात् एक नाम छट जाने से क्रमभेद हो गया है और उसके कारण मातंग यक्ष चौबीसवें के बजाय तेईसवे स्थान पर प्रा गया है। चौबीस की सूची पूरी करने के लिये तिलोयपण्णत्नी म गुह्यक को अंतिम यक्ष कल्पित किया गया । गुह्यक के नाम के पश्चात् इदि एद जक्वा चउर्बीम उमभपहुदीण का उल्लेख होने से गुह्यक एक नाम ही प्रतीत होता है न कि यक्ष का पर्यायवाची । दिगम्बरो प्रार श्वेताम्बर। की मान्यता न यक्षों के नामां के सबंध में जो भेद है, वह संक्षेप में निम्न प्रकार है :
चौथे तीर्थ कर के यक्ष का नाम निलोय पण्णनी में यज्ञेश्वर किन प्रवचनसारोद्धार में ईश्वर बताया गया है । अपराजित पृच्छा में दिये गये चतुगनन नामका आधार अज्ञात है । छठे यक्ष का नाम दिगम्बर परम्परा में पुष्प और श्वेताम्बर परम्परा में कुसुम प्रसिद्ध है। अभिधानचिन्तामणि मे सुमुख नाम होने पर भी उसके रचयिता प्राचार्य हमचन्द्र ने विष्टि गलाकापुरुषारत्र में कुसुम नाम बताया है । पाठवे यक्ष का नाम दिगम्बरों में श्याम और श्वेताम्बरों मे विजय प्रचलित है । ग्यारहवें यक्ष का दिगम्बर लोग ईश्वर किन्तु श्वेताम्बर यक्षेश्वर कहते है । अठारहवे यक्ष का नाम दिगम्बर ग्रन्थों में खेन्द्र पर श्वेता म्बर ग्रन्थों में यक्षेन्द्र मिलता है । गोमेद नाम दिगम्बरों में अधिक प्रचलित है
१. नामचन्द्र न गामघ नाम दिया है। प्रतिष्ठासारमग्रह में चूक म नाम
रह गया है किन्तु प्राशाधर के प्रतिष्ठासारोद्धार मे गोमेद नाम का
उल्लेख है। २. प्रवचनसारोबार में वामन नाम मिलता है।
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शासन यक्ष
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किन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थो मे सर्वत्र गोमेध नाम ही मिलता है । तेईसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ के यक्ष का नाम दिगम्बर परम्परा ने धरण या धरणेन्द्र है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में पार्श्व । श्वेताम्बर परम्पा के प्रवचनमारोद्धार मे उमे वामन कहा गया है । उपर्युक्त चतविंशति यक्षों के ग्रासन, वाहन, प्रायुध प्रादि का प्रतिमाशास्त्रीय विवरण दोनो परम्पराम्रो के ग्रन्थों के अनुसार नीचे दिया जा रहा है ।
गोमुख
प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ के शासन यक्ष गोमुख का वर्ण स्वर्ण जैसा पीत है" । दिगम्बर परम्परा में इस यक्ष को वषवाहन और श्वेताम्बर परम्परा मे गजवाहन माना गया है । आचारदिनकर में इसे वृषवाहन के साथ द्विरदगोयुक्त श्रौर अपराजित पृच्छा में वृषवाहन कहा गया हे । दिगम्बर परम्परा मे गोमुख को यथानाम तथास्वरूप अर्थात् वृषमुख या गोवाक बताया जाता है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार इसके मस्तक पर धर्मचक्र होता है । रूपमण्डन मे यह यक्ष गजानन है' पर अपराजित पृच्छाकार वृषमुख बताते है ।"
यक्ष गोमुख चतुर्भुज है | श्वेताम्बरों के अनुसार उसके दाय हाथा में से एक वरद मुद्रा में होता है और दूसरा अक्षमालायुक्त | बायें हाथों के श्रायुध मातुलिंग और पाश होते है ।" अपराजित पृच्छा और रूपमण्डन में भी यही आयुध बताये गये है किन्तु वहा दाये और बायें हाथों का अलग अलग उल्लेख नही किया गया है । वमुनन्दि न अलग थलग हाथों के श्रायुधा का उल्लेख न करते हुये परशु, बीजपूर, प्रक्षसूत्र और परद, ये चार प्रायुध बताय है । प्राशाधर' और नेमिचन्द्र' ने उपरले बाये हाथ मे परशु उपरने दाये हाथ में अक्षमूत्र,
१. अपराजित पृच्छा में श्वतव बनाया है, वह भूल है ।
२. प्रशाधर ने वृषचक्रशीर्षम् और नेमिचन्द्र ने मूर्ध्नाधितधर्मचक्रम् कहा है । जान पडता है कि गोमुख को धर्म (वृप) का रूप दिया गया है जो वृषमुख हुआ करता है ।
३. ६/१७
४. २२१/४३.
५. ग्राचारदिनकर, निर्वाणत्र लिका, त्रिषष्टिशलाका प्रपचरित्र आदि मे ।
६. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५ / १३-१४.
७, प्रतिष्ठासारोद्धार, ३ / १२६
८. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३१ ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
निचले बायें हाथमें बीजपूर फल और निचले दायें हाथको वरदमुद्रा में स्थित बताया है। महायक्ष
द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ के महायक्ष नामक यक्ष का वर्ण दिगम्बर परम्परा में मोने जैसा पीत पर श्वेताम्बर परम्परा में श्याम बताया गया है। दोनों परम्प गएं इस यक्ष को चतुर्मुख, अष्टभज और गजवाहन मानती हैं, केवल मायुधों के विषय में मतभेद है । वसुनन्दि ने प्रायुधों का नामोल्लेख नहीं किया है । नेमिचन्द्र ने चक्र, त्रिशूल, कमल, अंकुश, खड्ग, दण्ड, परशु और प्रदान (वरद) ये आयुध बताये हैं।' आगाधर ने चक्र, त्रिशूल, कमल और अंकुश को बायें हाथों के आयुध तथा खड़ग, दण्ड, परशु और वरद इन्हें दायें हाथों का आयुध कहा है ।' श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार दिनकर, निर्वाणकलिका आदि ने बायें हाथों में अभय, मातुलिंग, अंकुश और शक्ति तथा दायें हाथों में मुद्गर, वरद, पाश और अक्षसूत्र इन प्रायुधों का होना बतलाया है।' अपराजितपच्छा में श्वेताम्बर परम्परा का अनुसरण किया है और तदनुसार आठों आयुध गिनाये हैं किन्तु दायें-बायें हाथों के प्रायुध अलग अलग नहीं कहे।" त्रिमुख
तृतीय तीर्थकर संभवनाथ का त्रिमुख नामक यक्ष यथानाम तयारूप अर्थात् तीन मुग्व वाला है। उसके प्रत्येक मुख में तीन प्रांखे होने के कारण प्राचार दिनकर में उसे नवाक्ष भी कहा गया हैं । त्रिमुख का वर्ण श्याम, वाहन मयूर और भुजाएं छह है । दिगम्बर परम्परा में, इस यक्ष के बायें हाथों मे चक्र, तलवार और अंकुश तथा दायें हाथों में दण्ड, त्रिशूल और सितकतिका ये आयुध बताये गये है ।' श्वेताम्बर परम्परा में, वायें हाथों के प्रायुध मातुलिंग, नाग और प्रक्षसूत्र तथा दायें हाथी के प्रायुध नकुल, गदा भौर प्रभय है । त्रिषष्टिशलाका परुषचरित्र में बायें हाथों के प्रायधों में नाग के स्थान पर दाम ( माला ) का
१. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३१३ । २, प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१३ । ३. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४; निर्वाणकलिका, पन्ना ३४ । ४ अपराजिनपच्छा, २२१/४४. । ५. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१३१; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३२ ६. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४ ; निर्वाण कलिका, पन्ना ३४ ।
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शासन यक्ष
उल्लेख मिलता है । अपराजितपृच्छा ( २२१/४५) मे परशु, अक्ष, गदा, चक्र, शंख और वरद, इन प्रायुधो का विधान है किन्तु अपराजितपृच्छा का प्राधार कौन सी परम्परा है, यह समझ मे नही पाता । यक्षेश्वर
चतुर्ष तीर्थकर अभिनन्दननाय के यक्षका नाम यक्षेश्वर है । प्रवचनसारोद्धार और निर्वाणकलिकामे उसे मात्र ईश्वर कहा गया है । अपराजितपृच्छा मे चतुरानन नाम बताया गया। पर उसकी किसी अन्य ग्रन्थ से पुष्टि नही होती। यक्षेश्वर का वर्ण श्याम, वाहन गज' और भुजाएँ चार है। दिगम्बर परम्परा मे इस यक्षके दाये हाथो मे बाण और तलवार तथा बाये हायों मे धनुष और ढाल, ये आयुध कहे गये है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वह दायें हाथो मे मातुलिग और अक्षसूत्र तथा बाये हाथो में अंकुश और नकुल धारण करता है ।' अपराजितपृच्छा द्वारा नाग, पाश, वन और अकुश इन चार प्रायुधो का विधान किया गया है किन्त वह न तो श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार है और न दिगम्बर मान्यता क । तुम्बरु
पंचम तीर्थंकर सुमतिनाथ का यक्ष तुम्बरु ।। कही कही इसे तम्बर भी कहा गया है । तिलोयपण्णती ने तम्बरव नाम स इसका उल्लेख किया है। तुम्बरू का वर्ग दिगम्बरो के अनुसार श्याम और श्वेताम्बरो के अनुमार श्वेत है । इसक। वाहन गाड बताया गया है और भुजाएँ चार । दिगम्बर परपरा के ग्रन्थो मे तुम्बरु यक्ष को सपंयज्ञापवीतधारी कहा है। प्रायुधविचार में, दिगम्बर परम्पग इस यक्ष के दोनो उपरले हाथा मे गर्प, नीचे के एक हाथ का वरदमुद्रायुक्त और दूसरे हाथ में फल (बीजपूर) मानती है जबकि श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार इसके दाये हाथो के प्रायुध वरद और शक्ति तथा बाये
१ अपराजितपृच्छा म हमवाहन । २. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१३२; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३२ । ३. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४ ; निर्वाणकलिका पन्ना ३४ । ८ प्रतिष्ठामारमग्रह, ५/२३-२४; प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१३३;
प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३२ ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान हाथों के प्रायुध गदा और पाश हैं। प्रवचनसारोद्धार और प्राचारदिनकर मेरे पाश के स्थान पर नागपाग का, एवं निर्वाणकलिकामे' बायें हाथो के आयुधों में नाग और पाय का अलग अलग उल्लेख किया गया है। अपराजितपृच्छाने प्रायुध विचार में दिगम्बर परम्पग का अनुमरण किया है । पुष्प । कुमुम
छठे तीर्थकर पद्मप्रभ के यक्ष का नाम दिगम्बर लोग पुष्प बताते है पौर श्वेताम्बर लोग कुमुम । अभिधानचिन्तामणि में इसे सुमुख कहा है परन्तु त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमें कुसुम नाम से ही वर्णन है । वर्ण विचार में दिगम्बर ग्रन्थों में श्याम और स्वेताम्बर ग्रन्थों में नीलवर्ण होने का उल्लेख है । इस यक्षका वाहन मृग है । वसनन्दि और अपराजिनपच्छाकार ने इसे द्विभुज कहा है किन्तु दिगम्बर परम्पराके ही प्राशाधर और नेमिचन्द्र ने श्वेताम्बरों के समान इस यक्ष को चतुर्भज माना है । वमुनन्दि ने प्रायुधों का उल्लेख नही किया। अपराजितपृच्छा में गदा और अक्षमूत्र ये दो प्रायुध कहे गये हैं। प्राशाधर और नेमिचन्द्र ने दायें हाथों के प्रायुध कुन्त और वरद तथा बायें हाथो के प्रायुध खेट और अभय बताये है ।' श्वेताम्बर परम्परामें फल और अभय दायें हाथों के तथा नकुल और प्रक्षसूत्र बायें हाथों के प्रायुध है ।' मातंग
सप्तम तीर्थकर सुपार्श्वनाथ के यक्ष मातंग को दिगम्बर कृष्ण वर्ण का और श्वेताम्बर नील वर्ण का बताते है । वसुनन्दि ने इसे वक्रतुण्ड तथा प्राशाधर और नेमिचन्द्र ने कुटिलानन या कुटिलाननोग्र कहा है। अर्थात् इस यक्ष का मुख वराह जैसा होता है । दिगम्बर इस यक्षको सिंहवाहन और श्वेताम्बर गजवाहन कहते है । अपराजितपृच्छामें मेषवाहन बताया गया है । दिगम्बरों
१. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के अनुमार । २. उदय ३३, पन्ना १७४ । ३. पन्ना ३५ । ४. प्राचारदिनकर की मुद्रित प्रति में तुरंग है किन्तु वह संभवतः कुरंग
(मृग) के स्थान पर मुद्रण की भूल है । ५. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१३४; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३३ । ६. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४; निर्वाणकलिका, पन्ना ३५ ।
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शासन यक्ष
के अनुसार मातंग यक्ष द्विभुज है । अपराजितपच्छा ने भी इसे द्विभुज कहा है पर श्वेताम्बर चतुर्भुज कहते हैं । दिगम्बरों के अनुसार मातंगके दाये हाथ में शूल और बाये हाथमे दण्ड होता है ।' श्वेताम्बर अन्धो मे चार प्रायुध गिनाये गये है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और प्रवचनसारोद्धार में दाये हाथों के प्रायुध बिल्व प्रौर पाश तथा बायें हाथो के आयुध नकुल और अंकुश कहे गये है । निर्वाणकलिका में भी इन्ही का उल्लेख है। किन्तु प्राचारदिनकर मे पाश के स्थान पर नागपाश का और नकुल के स्थान पर वज्र का विधान है' जो विशिष्ट बात है।
श्याम । विजय
अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभ के यक्ष का नाम दिगम्बरो मे श्याम प्रौर श्वेताम्बरो में विजय प्रचलित है । विजय नामक यक्ष का नाम तिलोयपण्णत्ती में भी मिलता है । यद्यपि वह यक्ष सप्तम क्रमाक पर है तो भी इतना तो ज्ञात होता ही है कि पूर्व में विजय यक्ष का नाम दिगम्बरो की सूची में भी था। श्वेताम्बर बिजय यक्ष का वर्ण श्याम या हरित बताते है । दिगम्बरो का यक्ष भी श्यामवर्ण है । सभव है कि श्यामवर्ण होने के कारण यक्ष का नाम ती वैसा प्रचलित हो गया हो। श्याम यक्ष कपातवाहन ता पर विनय का वाहन हस है । श्याम चतुर्भुज है पर विजय द्विभुज । दाना ही मिनत्र है।
वमुनन्दि न श्याम के प्रायुध फल, अक्षसूत्र, परशु और वरद कह है।' पाशाधर पार नमिचन्द्र ने दाये और बाये हाथो के अलग-अलग प्रायुध बताये है । दाये हाथो में अक्षमाला प्रो र वरद तथा बायह था में परशु और फल ।' अपराजितपृच्छा में परशु, पाश, प्रभय पोर वरद, ये प्रायुध कहे गये है ।
१ प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१३५; प्रतिष्ठातिलक पृष्ट ३३३ । २. पन्ना ३५ । ३ उदय ३३, पन्ना १७४ । ४. प्रवचनमारोद्धार मे चतुर्भज । ५. प्रतिष्ठामारमंग्रह, ५/३० ६. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१३६; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ट ३३३
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जन प्रतिमाविज्ञान
प्रवचनसारोबार में दो चक्र और दो मुद्गर । किन्तु अन्य श्वेताम्बर ग्रंथो मे दाये हाथ में चक्र और बाये हाथ मे मुद्गर होने का उल्लेख मिलता है।' पद्मानंद महाकाव्य में दाये हाथ का मायुध खड्ग बताया गया है।' अजित
नौवे तीर्थकर पुष्पदन्त या सुविधिनाथ के यक्ष या नाम अजित है । अपराजितपृच्छा मे उमका वर्णन जय नाम से किया गया है । अजित का वर्ण श्वेत, वाहन कर्म और भुजाएं चार है । दिगम्ब। के अनुमार अजित यक्ष के दाय हाथ अक्षमाला और वरदमुद्रा मे युक्त होते है तथा वाये हाथो में शक्ति और फल होते है ।' श्वेताम्बरी के अनुसार अजित के दाय हाथो में मातुलिग और अक्षमूत्र तथा बायें हाथो मे नकुल और कुन्त (भाला) होते है। आचार दिनकर ने अक्षसूत्र के स्थान पर परिमलयुक्त मुक्कामाला का उल्लेख किया है । अपराजितपृच्छा के प्रायुध विचार मे दिगम्बर ग्रंथो का अनुमरण किया गया है पर दाये और बाये हाथो के आयुध अलग नही कहे गये हे । ब्रह्म
दसवे दीर्थकर शीतलनाथ का यक्ष ब्रह्म श्वेतवर्ण, कमलासन "अष्टबाहु और चतुर्मुख है। श्वेताम्बर ग्रंथो में उसके द्वादशाक्ष होने का उल्लेख है । आशाधर' और नेमिचन्द्र ने उसके दाये हाथो के प्रायुध शर, परशु, खड्ग और वरद तथा वाये हाथो के प्रायुध धनुष, दण्ड, खेट, और वज्र बताये है । श्वेताम्बर ग्रंथों में मातुलिंग, अभय, पाश और मुद्गर ये दाये हाथ। के तथा गटा. प्रका. नकल प्रोर प्रक्षसत्र ये बाये दाथो के प्रायध कहे गये हैं ।
१. निवोणकालका, पन्ना :५; प्राचारोदनकर, उदय ३३, पन्ना १७४ ;
पिप्टिशलाकापुरुषचरित्र । २. अट मजिनचरित्र, १७ । ३. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१३५; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३३ । ४, उदय ३३, पन्ना १७४ । ५. अपराजितपृच्छा मे हंसवाहन । ६ प्रतिष्ठासागेद्धार, ३/१३८ ७, प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३४ । ८. निर्वाणकलिका, पन्ना ३५; प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४ ;
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित इत्यादि ।
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शासन यक्ष
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ईश्वर
ग्यारहवें तीर्थकर श्रेयांसनाथ का यक्ष ईश्वर या यक्षेश्वर है । हेमचन्द्र प्राचार्य ने अभिधानचिन्तामणि में यक्षेश्वर नाम से और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में ईश्वर नाम से इस यक्ष का उल्लेख किया है। प्राचार दिनकर ने यक्षराज और अपराजितपृच्छा ने किनरेश नाम बताया है ।
ईश्वर या यक्षेश्वर का वर्ण श्वेत और वाहन वृष है । वह त्रिनेत्र एवं चतुर्भुज है । दिगम्बर परम्परा का यक्ष दायें हाथों में प्रक्षसूत्र और फल तथा बायें हाथों में त्रिशूल और दण्ड धारण करता है । श्वेताम्बर परम्परा में यक्ष के दायें हाथो मे मातुलिंग और गदा तथा बायें हाथों मे नकुल और प्रक्षसूत्र होते हैं । अपराजितपृच्छा में त्रिशूल, प्रक्षसूत्र, फल और वरद, ये प्रायुध बताये गये है। कुमार
बारहवे तीर्थकर वासुपूज्य का यक्ष कुमार श्वेत वर्ण का है।' उसका वाहन हंस है ।' दिगम्बरों के अनुसार इस यक्ष के तीन मुख और छह भुजाएं होती है किन्तु श्वेताम्बरो ने इसे चतुर्भुज ही कहा है । अपराजितपृच्छा में भी कुमार यक्ष को चतुर्भुज बताया गया है। पडभज की योजना में इसके दायें हाथों के आयुध बाण, गदा और वरद तथा बायें हाथों के प्रायुध धनुष, नकुल
और फल होते है।' अपराजितपृच्छा में धनुष, बाण, फल और वरद का विधान है पर श्वेताम्बर ग्रंथो मे दाये हाथों के आयुध मातुलिग और बाण तथा बाये हायो के आयुध नकुल और धनुष बताये गये है।' पण्मुख चतुर्मुख
तेरहवे तीर्थकर विमननाथ के यक्ष का नाम तिलोयपण्णत्ती मे पण्मुख बताया गया है । श्वेताम्बर परम्परा में भी उसका नाम षण्मुख मिलना है । दिगम्बर परम्पग के नेमिचन्द्र ने षण्मुख नाम से तथा वमुनन्दि और आगाधर
१. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३-१३६ ; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३४ २. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५; निर्वाणकलिका ३५ ३. अमरचन्द्र के काव्य में श्यामवर्ण बताया गया है । ४. अपराजितपृच्छा में शिखिवाहन । ५. प्रतिष्ठासारोदार, ३/१४०; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३४ । ६. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५; निर्वाणकलिका पन्ना ३५
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जन प्रतिमाविज्ञान
ने चतुर्मुम्ब नाम में इसका वर्णन किया है । श्वेताम्बगे ने षण्मुख का वर्ण श्वेत बताया है किन्तु आशाधर चतुर्मुख को हरित वर्ण कहने है। यक्ष का वाहन मयूर है पीर भुजाए द्वादश ।' मुग्यो की योजना में वमुनन्दि और प्रागाधर ने चतुर्मुख पर नेमिचन्द्र ने पण्मुग्व बनाया है अर्थात् जिम ग्रन्थकार ने यक्ष का जो नाम बताया तदनुसार मुखयो ना भी बतायो । प्राचारदिनकर मे द्वादशाक्ष होने के उल्लेग में वह षण्मुख ज्ञात होता है। वमुनन्दि ने प्रायुधों का विवरण नदी दिया। प्रागाधर और नेमिचन्द्र उपरले पाठ हाथा में परशु बताते है और शेष चार हाया मे क्रमश. तलवार, प्रक्षमाला, खेटक और दण्ड ।' श्वेताम्बर परम्परा में दाये हाथा के आयुध फल, चक्र, बाण, खड्ग, पाय और प्रक्षसूत्र तथा बायें हाथो के आयुध नकुल, चक्र, धनुष, ढाल, अंकुश और अभय बताये गये हैं ।' अपराजितपृच्छा म वज्र, धनुष, वाण, फल आर वग्द इन पाच प्रायुधो का · मोल्लेख किया गया है । पाताल
चौदहवे तीर्थकर अनन्तनाथ के यक्ष पाताल वा वर्ग लाल है। वाहन मकर है और तीन मुग्व होते है । दिगम्बर प्राम्नाय में इसके मस्तक पर निफण नाग का होना बताया गया है किन्तु प्राचारदिनकर न पटवागयुक्त पहा है। पाताल की छह भजाए है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार दायं ओर का तीन भजायो मे अकुरा, शूल, और कमल तथा बाये ओर को भजायो म चाबुक, हल, और फल ये प्रायुध होते है। अपराजितपृच्छा मे वज्र, अ कुश, धनुष, बाण, फल और वरद इस प्रकार छह आयुध बताये है । श्वताम्बर परम्पग के ग्रथों म दाये हाथा के प्रायध कमल, खड्ग और पाश तथा बाये हाथो के आयुध नकल, ढाल और अक्षमत्र कहे गये है।'
५. अप गाजत पृच्छा षड्भुज कहती है । प्राशाध र अाटपाणि बताने हे पर
बसुनन्दि न द्वादशभुज लिखा है । २ प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/४१; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ट ३३५ ३ त्रिषष्टिशलाकापुरषचरित्र । निर्वाणकलिका । ग्राचारदिनकर प्रादि । ४. अमरचन्द्र के महाकाल मे ताम्रवर्ण बताया है। ५ प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१४२; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३५ । ६ प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५; निर्वाणकलिका, पन्ना ३६ ; विष्टिशलाकापुरुषचरित्र मादि ।
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शासन यक्ष
किन्नर
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पंद्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ का यक्ष किन्नर है । उसके शरीर का वर्ण लाल है जिसे वसुनन्दि ने पद्मरागमणि के समान और प्रगाधर ने प्रवाल जैसा बताया है | श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी अरुण वर्ण का उल्लेख है । दिगम्बर परंपरा के अनुसार किन्नर का वाहन मीन है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वह कूर्म है । किन्नर के मुख तीन' और भुजाएं छह हैं । दिगम्बरों के अनुसार उसके दायें हाथों के प्रायुध मुद्गर, अक्षमाला और वरद तथा बायें हाथों के आयुध चक्र, वज्र और अंकुश है ।" श्वेताम्बरों ने दायें हाथों में प्रभय, बीजपूर और गदा तथा बाये हाथों में कमल क्षमाता प्रार नकुल ये प्रायुध बताये है। प्राराजित पृच्छा के अनुसार यह यक्ष पाश, अंकुश, धनुष, बाण, फल और वरद इस प्रकार छह ग्रायुध धारण करता है ।
गरुड
सोलहवे तीर्थकर शान्तिनाथ के यक्ष गरुड़ का वर्ण श्याम है । उसक मुख वराह जैसा है । उसका वाहन भी वराह माना गया है किन्तु हेमचन्द्र के अनुसार वह गजवाहन और अपराजित पृच्छा कार के अनुसार शुकवाहन है । दोनो परम्परात्री के अनुसार गरुट यक्ष चतुर्भुज है किन्तु दिगम्बर लोग उसके दायें हाथो मे वज्र और चक्र तथा बायें हाथों में कमल और फल ये श्रायुध बताते है जबकि श्वेताम्बरो के अनुसार गरुड यक्ष के दायें हाथों में बीजपूर श्रीर कमल तथा बाये हाथों में नकुल और प्रक्षसूत्र य चार ग्रायुध होते है। अपराजित पृच्छा में पाश, अंकुश, फल और वरद इस प्रकार ग्रायुध कहे गये है । गधर्व
सत्रहवे तीर्थकर कुन्थुनाथ का यक्ष गंधर्व है । उस गंधर्वयक्षेश्वर, गंधर्वराज यादि भी कहा जाता है । गंधर्व का वर्ण श्याम है । वसुनन्दि और आशा
१. ग्राचारादन करकार पण्नयन का भी मलग से उल्लेख करत है |
२. प्रतिष्ठामागद्वार, ३ / १४३; प्रतिष्ठानिलक, पृष्ठ ३३५ ।
३. त्रिपटिशनाका पुरुषचरित्र, निर्वाणकलिका, आचारदिनकर आदि आदि । ८. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३ / १४४ प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३६
५. आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५; निर्वाणकलिका, पन्ना ३६ ; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि आदि ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
घर के अनुसार गंधर्व यक्ष पक्षियानसमारूढ है किन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थो में उसका वाहन हंस बनाया गया है । अपराजित पृच्छाकार के अनुसार गंधर्व का वाहन शुक है ।
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यह यक्ष चतुर्भुज है । प्रपराजितपृच्छा ने इसके आयुध कमल, अंकुश, फल और वरद ये चार कहे हैं। दिगम्बर परंपरा के ग्रन्थों में उपरने दोनो हाथो में नागपाश और नीचे के दोनो हाथों में धनुष प्रोर वाण होने का उल्लेख है । ' श्वेताम्बरो के अनुसार गंधर्व यक्ष के दायें हाथो में से एक हाथ वरद मुद्रा मे होता है, दूसरे मे पाग होता है तथा वायें भोर के हाथों में मानुर्निंग और अंकुश ये दो प्रायुध हुआ करते हैं ।'
वेन्द्र / यक्षेन्द्र
अटारहवे तीर्थकर श्रग्नाथ के यक्ष को दिगम्बर परम्परा वाले वेन्द्र कहते है श्रौर श्वेताम्बर परम्परा वाले यक्षेन्द्र । उसका वर्ण श्याम श्रौर वाहन शंख है । अपराजित पृच्छाकार ने इस यक्ष को खरवाहन बताया है जा बेतुका जान पडता है । इस यक्ष के छह मुख, प्रठारह प्राखे और बारह भुजाए है । अपराजित पृच्छा मे केवल षड्भुज कहा गया है । दिगम्बर ग्रन्थो में इस यक्ष के दाये हाथों के प्रायुध बाण, कमल, फल, माला, अक्षमूत्र और अभय तथा बाये हाथो के श्रायुध धनुष, वज्र, पाय, मुद्गर, अंकुश और वरद कहे गये है ।' श्वेताम्बर ग्रन्थो में दायें हाथो के आयुध मातुलिंग, बाण, खड्ग, मुद्गर, पाश और प्रभय बताये गये है । बाये हाथों के प्रायुधों के सबघ मे उनमे किञ्चत् मतवैषम्य लक्षित होता है । प्राचारदिनकर और निर्वाणकलिका के अनुसार वे श्रायुध नकुल, धनुष, ढाल, शूल, प्रकुश और प्रक्षसूत्र है । त्रिषष्टि शलाकापुरु षचरित्र मे भी वही आयुष बताये गये है किन्तु अमरचंद्र के महाकाव्य मे नकुल नही, चक्र कहा गया है । ५
१. प्रतिष्ठासाराद्धार, ३ / १४५; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३६
२ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि ।
३. प्रतिष्ठासारोद्वार, ३ / १४६ प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३६ ।
४. आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५; निर्वाणकलिका, पन्ना ३६ |
५ श्ररजिनचरित्र, १७-१८ ।
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शासन यक्ष
७६
कुबेर
उन्नीसवे तीर्थकर मल्लिनाथ का यक्ष कुबेर है। प्रवचनसारोद्धार में इसे कूबर कहा गया है। दिगम्बरों के अनुसार कुबेर इन्द्रधनुष के समान चित्रवर्ण का है। हेमचन्द्र ने भी इसका वर्ण इन्द्रधनुष सा ही कहा है किन्तु प्राचारदिनकर ने इस यक्ष का वर्ण नील बताया है । कुबेर का वाहन गज है।' इसकी भुजाए पाठ पौर मुख चार हैं । निर्वाणकलिका ने इसके मुखो का प्राकार भी गरुड जैसा बताया है । प्राशाधार और नेमिचन्द्र के अनुसार इस यक्षके दाये हाथो मे खड्ग, बाण, पाश और वरद ये प्रायुध तथा बाये हाथो में ढाल, धनुष, दण्ड और कमल होते है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दाये हाथो म वरद, परशु, शूल और अभय तथा बाये हाथो म मुद्गर, अक्षमून, बीजपूर और शक्ति है । निर्वाणकलिका मे दाये मायुधा म परशु के स्थान पर पाश कहा गया है । वरुण
बीमवे तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ का यक्ष वरुण श्वेतवर्ण व वृषभवाहन है। प्राशाधर ने दम यक्षको महाकाय कहा है। निर्वाणलिका, प्रतिष्ठासागद्धार और प्रतिष्ठातिलक के अनुमार वरण जटाजूटधारी है । श्वेताम्बरो के अनुसार वरुण के चार मुग्व और दिगम्बरो के अनुमार पाठ मुख होते है । क्याकि इस यक्ष को त्रिनेत्र बनाया गया है इमलिए प्राचारदिनकर न और स्पष्ट करने के लिए द्वादशलोचन भी कहा है। दिगम्बर परम्परा म वरुण के चार हाथ मान गय है पर श्वेताम्बगे के अनुसार यह यक्ष अष्टभुज है। प्राशाधर और नमिचन्द्र न इसका दायी भुजामा क प्रायुध खेट और खड्ग कहे है । ५ श्राचार दिनकर और निर्वाणकलिका के अनुसार दाये हाथा में गदा, बाण, शक्ति और बीजपूर तथा बार हाथा म धनुष, कमल, परशु और नकुल होत है । पिपष्टिगलाकापुरुषचरित्र और अमरकाव्य म पद्म केग्थान पर प्रक्षमाला का होना बताया
१ अपराजितपृच्छा मे सिह । २. निष्ठासारोद्धार, ३--१४७, प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३७ । ३. प्राचार्गदनकर, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचग्नि आदि । ४. निर्वाण कलिका, पन्ना ३६ । ५. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३११४८, प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३७ । ६. उदय ३३, पन्ना १७५ । ७. पन्ना ३६ ।
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८०
जैन प्रतिमाविज्ञान
गया है । अपगजितपच्छा म पाश, अंकुग, धनु, बाण, सर्प और वज्र केवल ये ही प्रायुध गिनाये गये है, जिसमे प्रतीत होता है कि उस ग्रन्थ के अनुसार यक्ष षडभुज है। भृकुटि
___ इक्कीमवे तीर्थकर नमिनाथ का यक्ष भृकुटि है जो कही भृकुटिराज, कही भृकुट और कहीं भृकुटी भी कहा गया है । इमका वर्ग मोने के समान है। यक्ष का वाहन वृषभ है और मुख चार । श्वेताम्बरो द्वारा इस बिनयन माने जाने के कारण आचार दिनकर ने द्वादशाक्ष कहा है । दिगम्बर परम्परा के प्राशाधर और नेमिचन्द्र तथा श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भृकुटि की पाठ भुजाएं होती है किन्तु वसुनन्दि उसे चतर्भुज कहते है । वमुनन्दि न केवल तीन ही प्रायुधों का उल्लेख किया है, खेट, खड्ग और फल' किन्तु आशाधर और नेमिचन्द्र न अंकुश, कमल, चक्र, वरद, खेट, असि, धनुष और बाण ये पाठ प्रायुध गिनाय है। अपराजितपृच्छा मे शूल, शक्ति, वज्र, खेट और डमरू इनका विधान है। श्वेताम्बरो के अनुसार इम यक्ष के दाये हाथो में मालिग, गक्ति, मुद्गर और अभय तथा बाये हाथो म नकुल, परशु, वज्र और प्रक्षसूत्र हात है।' अमर काव्य में परशु के स्थान पर पाग बताया गया है । गोमेध
बाईमवे तीर्थकर नेमिनाथ के यक्ष का नाम गोमेध है जिसे कही कही गोमेद भी कहा गया है। गोमेध का वरणं श्याम है। श्वेताम्बरो ने इसे नवाहन माना है पर दिगम्बर, नृवाहन के साथ पुप्पयान भी बनाते है । नेमिचन्द्र ने केवल पुप्पकवाहन, प्राशाधर ने नवाहन और पुष्पयान तथा वमुनन्दि ने पुष्पयान के साथ मकरवाहन भी कहा है। गोमेध त्रिमुख है। उमको छह भुजाएं है । वसुनन्दि इसके षड्भुज होने का उल्लेख करते है किन्तु उन्हान अक्षसूत्र और यष्टि केवल इन दो आयुधो का ही नामोल्लेख किया है। प्राशाधर और नेमिचन्द्र ने दाये हाथो में फल, वज मोर वरद तथा बाये हाथो मे द्रुघण (मुदगर), कुठार और दण्ड बताये है।'
१. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/५६ २. प्रतिष्ठासारोदार, ३/१४६; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३७, ३ प्राचारदिनकर पौर निर्वाणकलिका ४. प्रातष्ठासारोदार, ३/१५० मोर प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३७
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शासन यक्ष
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श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यक्ष के दाय हाथों मे मातुलिंग, परशु पौर चक्र तथा बांये हाथों में नकुल, शूल और शक्ति ये आयुध हैं।' जैन ग्रन्यों में सर्वाल या सर्वानुभूति नामक एक यक्ष का उल्लेख बहुन मिलता है। वह गोमेध से अभिन्न हो सकता है । इस संबंध में प्रागे विचार किया जावेगा।
धरण पार्श्व
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के यक्ष को दिगम्बर परम्परा वाले धरण या धरणेन्द्र और श्वेताम्बर परम्परा वाले पार्श्व यक्ष कहते है। प्रवचनसारोद्धार में इस यक्ष का नाम वामन बताया गया है। भैरवपद्मावतीकल्प (जो दिगम्बरों में भी मान्य है) मे पार्श्वनाथ के यक्ष को पार्श्व यक्ष कहा गया है। उम ग्रन्थ में इस यक्ष को न्यग्रोधमूलवामी, श्यामांग और त्रिनयन बताया गया है । तिलोयपानी में भी पार्श्व नामक यक्ष का उल्लेख है।'
धरण और पार्श्व दोनों ही रूप में इस यक्ष का वर्ण श्याम, वाहन कर्म और भुजाएं चार है ।' श्वेताम्बर परम्पग में पाश्वंयक्ष का गजमुख माना गया है । रूपमण्डन में भी उमा प्रकार उल्लेख है। अपराजित पृच्छा में वह सर्परूप है जो दिगम्बरोके अनुकूल है। दिगम्बरो के अनुमार धरण के मौलि में वासुकि (मर्प) का चिह्न होता है । प्राचारदिनकर तथा अन्य श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी पार्श्वयक्ष क मस्तक पर मपंफग का छत्र बताया है। अपगजितपृच्छा में पार्श्व यक्ष के पायुध धनुप, बाण,भृण्डि, मुद्गर, फल और वरद कहे गये हैं दिगम्बरो के अनुमार धरण के उपरले दानों हाथों में वासुकि (मर्प), निचला दाया हाथ वरदमुद्रा में और निचले बाये हाथ मे नागपाश होता है । श्वेताम्बरी के अनुमार पावं यक्ष के बायें हाथों में नकल पोर मर्प ताते है किन्तु दायें हाथों के प्रायुधो के संबंध में उन में किञ्चित् मतभेद है। हेमचन्द्र और निर्वाणकलिकाकार दायें हाथों के
१. निर्वाणकलिका आदि । २. भैरवपद्मावतीकल्प, ३/३८ ३. तिलोयपण्णत्ती, ४, ६३५ ४. अपराजितपृच्छा मे छह किन्तु रूपमण्डन में चार । ५. प्रतिष्ठासारोद्धार, ६/१५१, प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ, ३३८ ।
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जैन प्रतिमा विज्ञान
प्रायुत्र वीजपूर और सर्प बताते है जबकि आचारदिनकर और ग्रमाव्य में सर्प के स्थान पर गदा का उल्लेख है |
मातंग
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अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का यक्ष मातंग है । दिगम्बर उसे मुद्ग ( मृग) वर्ण और श्वेताम्बर श्याम वर्ण कहते है । उसका वाहन गज और भुजाएं दी है | मुख एक है पर दिगम्बरों के अनुसार यह यक्ष अपने मस्तक पर धर्म चक्र धारण किये होता है । श्रायुधविचार में, वसुनन्दि ने वरद और मातुलिंग ये दो प्रायुध बताये है । आगाधर और नेमिचन्द्र ने उनमें से दायें हाथ का श्रायुध वरद और बायें का फल (मातुलिंग ) कहा है । अपराजित पृच्छा ने भी यही विधान किया है । श्वताम्बर परम्परा में दायें हाथ मे नकुल और बाये हाथ में बीजपूर माना गया है" जिसका अनुमरण रूपमण्डन ने किया है ।
चतुविशति यक्षियां
चौबीस शासनदेवियां या यक्षियों की सूचिया तिलोय पण्णत्ती, प्रवचनसारोद्धार, ग्रभिधानचिन्तामणि, प्रतिष्ठासारसंग्रह, प्रतिष्ठासारोद्धार, प्रतिष्ठातिलक, निर्वाणकलिका, आदि आदि जैन ग्रन्थों तथा अन्य वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों में मिलती हैं। यहां पूर्व की भांति तिलोयपण्णनी, प्रतिष्ठासारसंग्रह, अभिधान चिन्तामणि और अपराजित पृच्छा मे वर्णित सूचिया उदधृत की जा रही है.
प्रतिष्ठासारसंग्रह
तीर्थकर
चक्रेश्वरी
ऋषभ
रोहिणी
ग्रजित
क्रमाक तिलोयप०
१. चक्रेश्वरी
२.
रोहिणी
१ त्रिपाष्टशलाका पुरुषचार
निवाणकलिका, पन्ना ३७ ।
आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६ । अमरकाव्य, ६२-६३
अप० पृ०
अभि० चि० चक्रेश्वरो चक्रेश्वरी प्रजितवला रोहिणी
२.
३. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५ ६५-६६
८. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३ १५२; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३८ ।
५.
आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६; निर्वाणकलिका, पन्ना ३७; अमरकाव्य, २४७
६.
७.
८.
अपर नाम चक्रा भी बताया है ।
प्रवचनसारोद्धार में चक्रेश्वरी किन्तु त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, निर्वाणकलिका आदि में प्रप्रतिचका नाम मिलता है ।
प्रवचनसारोद्धार और निर्वाणकलिका में प्रजिता । वसुनन्दि ने भी अपर नाम प्रजिता बताया है ।
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शासन यक्षियां
गमति
क्र० तिलोय० प्रतिष्ठासार० प्रभि.चि० अपराजित० तीर्थकर ३. प्रज्ञप्ति प्रज्ञप्ति' दुरितारि प्रज्ञा संभव ४. वज्रशृंवला वजशृंखला२ कालिका३ वज्रशृंखला अभिनन्दन ५, वज्राकुशा पुरुपदत्ता महाकाली नरदत्ता ६. अप्रतिचक्रेश्वरी मनोवेगा श्यामा मनोवेगा पद्मप्रभ ७. पुरुषदत्ता वाली
शान्ता
कालिका मुपारवं ८. मनवेगा ज्वालिनी भृकुट ज्वालामालिका चन्द्रप्रभ ९. काली महाकाली सुतारका महाकाली पुष्पदन्त १०. ज्वालामालिनी मानवी प्रशोका मानवी गोतल ११. महाकाली गोरी
गोरी १२ गारी गाधारी
चण्डा
गांधारिका वापुज्य ३. गाधारी वरोटी" विदिता" विराटा विमल १४. रोटी अनंतमती अंकुशा तारिका अनन्त ५. अनंतमती मानमी कन्दर्पा अनंतागति धर्म
मानवी।
श्रेयांम
१. अपर नाम नम्रा बनाया है । २. नेमिचन्द्र ने पविशृंखला । वमुनन्दि ने अपर नाम दुरितारि कहा है। ३. प्राचारदिनकर में काली नाम मिलता है। ४. अपर नाम मंमारी कहा गया है । ५. विष्टिगलाकारूषचरित, निर्वाणकनिका, प्राचारदिनकर, प्रवचन
सारोद्धार आदि ग्रन्या में अच्युता नाम है ।
अपर नाम मानवी। ७. निर्वाणलिका, त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र प्रादि मे शान्ति नाम का
उल्लेख है। ८. ज्वालामालिनी नाम भी है। ६. अन्य ग्रन्थों में मुतारा नाम भी मिलता है । १०. अपर नाम गोमेधकी। ११. प्रवचनसारोद्धार में श्रीवत्सा । १२. प्रवचनसारोदार में प्रवरा, त्रिपष्टिशलाकापुरुष ग्त्र में चन्द्रा,
आचारदिनकर और निर्वाणकलिका में प्रचण्डा । १३. नेमिचन्द्र ने प्रतिष्ठातिलक में वरोटिका नाम कहा है। १४. प्रवचनसारोद्धार में विजया नाम है ।
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जन प्रतिमाविज्ञान
क्र० तिलोय० प्रतिष्ठामार० अभि०चि० अपराजित० तीर्थकर १६. मानसी महामानमी निर्वाणी' मानसी शान्ति १७. महामानमी जयदेवी बला
महामानमी कुन्थु १८. जया तारावती धारिणी जया
पर १६. विजया अपराजिता धरणप्रिया' विजया मल्लि २०. अपराजिता बहुरूपिणी नग्दत्ता' अपराजिता मुनिसुव्रत २१. वहुरूपिणी चामुण्डा गांधारी बहुरूपा नमि २२. कृष्मांडी प्राम्रा' अम्बिका' अम्बिका नेमि २३, पदमा पद्मावती पद्मावती पद्मावती पाव २४. मिद्धायिणी मिद्धायिका सिद्धायिका सिद्धायिका महावीर
___ उपर्युक्त सूची मे प्रतीत होता है कि निलोयपण्णत्नी की सूची में कोई एक नाम छुट जाने से परवा-काल में उममें नया नाम जोड़ा गया है. जिसमें मूची में विसंगतता हो गयी । मूल ग्रन्थ में मोलसा अगांतमदी उल्लेख होने पर भी अनंतमती का क्रमांक पन्द्रहवां ही पाता है, सोलहवां नहो । इससे स्पष्ट है कि सूची में भूल है । प्रतिष्ठासारसंग्रह में वसुनन्दि ने इन शामनदेवताग्रो में से प्रत्येक के अपर नामों से भी मंत्रपद कहे है ।
१. ग्राचारदिनकर म निर्वाणा कहा गया है । २. पाशाधर और नेमिचन्द्र ने जया कहा है । ३. प्रवचनसारोद्धार में वैगेटी, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, निर्वाण
कलिका प्रादि मे वरोदया। ४. प्राचारदिनकर में अच्छु प्तिका-नदत्ता । ५. अपर नाम कुसुममालिनी । ६. अपर नाम कूप्माण्डी बताया गया है । ७. प्रवचनसारोद्धार मे अम्बा, त्रिषष्टिशलाकापुरषचरित में कूप्माण्डी
प्रौर निर्वाणकलिका में कूष्माण्डी । शुभचन्द्र ने अम्बा के प्राम्रकू
माण्डी, अंबिला, तारा, गोरी और वजा नाम भी बताये हैं । ८. प्रपर नाम सिद्धायिनी मिलता है। ६. प्रवचनसारोदार में सिद्धा नाम है ।
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शासन यक्षिया
८५
यक्षियो की सूची के विकास के संबध न हम आगे चर्चा करेंगे । पर यहा इतना उल्लेख कर देना उचित होगा कि संभवत: विद्यादेवियो के नामों को लेकर ही यक्षिया का कल्पना विकसित हृयो । दिगम्बरो की सूची तो स्पष्ट रूपेण विद्यादेवियो न प्रभावित है । उम समय तक चक्रेश्वरी को मान्यता बढ चकी थी इलिये उमे यदिया में प्रथम स्थान प्राप्त हो गया और तत्पश्चात् विद्यावियो के नाम वालो पन्ध यक्षियो को स्थान दिया गया। किस प्रकार विद्यादेवियो को यक्षियो म स्थान मिला, इसका अनुमान नीचे दी गयी तालिका से मकता है :ऋ० विद्यादेवी का नाम दिगम्बर आम्नाय म श्वेताम्बर आम्नाय मे
उमी नाम की यक्षा उसी नाम की यक्षो १ राहिणी द्वितीय तीर्थकर को यक्षी २ प्रज्ञप्ति
ततीय तीर्थकर की यक्षी ३ वज्र,ग्वला चतुर्थ तीर्थकर की यक्षी ४ वज्राकुशा
___ चौदहवे तीर्थकर की यक्षी
अकुशा ५ अप्रतिचका या प्रथम तीर्थकर की यक्षी प्रथम तीर्थकर का यक्षी
चक्रेश्वरी (श्वेताम्बर) ६ पुरुपदत्ता पचम तीर्थकर की यक्षी बीमवे तीर्थकर का यक्षी ७ काली
सप्तम तीर्थंकर की यक्षा चतुर्थ तीर्थकर की यक्षी ८ महाकाली (महापरा) नौवे तीर्थकर की यक्षी पाचवे तार्थकर की यक्षी ६ गौरी
ग्यारहवे तीर्थकर की यक्षी १० गाधारी
बारहवे तीर्थकर की यक्षी ५१ ज्वालामालिनी आठव तीर्थकर की यक्षा
(ज्वाला) १२ मानवों
___ग्यारहवे तीर्थकर की यक्षी १३ रोटी, रोट्या तेरहवे तीर्थकर की यक्षी उन्नीसवे तीर्थकर की यक्षी १४ अच्युता
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छठे तीर्थकर की यक्षी १५ मानसी
पंद्रहवें तीर्थकर की यक्षी १६ महामानसी मोलहवे तीर्थकर की यक्षी
हम ऊपर देख पाये है कि यक्षो के नामों के संबंध में दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यतापों मे अपेक्षाकृत कम मतभेद है, पर यक्षियों की सूची में
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जन प्रतिमाविज्ञान
मतभेद अधिक विस्तृत हो गया है। दोनों परम्परामों की यक्षियों के वर्ण, प्रासन, वाहन, प्रायुध आदि के संबंध में अलग अलग विवरण नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। चक्रेश्वरी
प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ की शासनदेवता चक्रेश्वरी को अप्रतिचका भी कहा जाता हैं । पद्मानंद महाकाव्य ( १/८३-८४ ) में उल्लेख है कि चक्रेश्वरी सभी देवताओं में अधिदेवता है और वही देवी विद्यादेवियों में अप्रतिचक्रा के नाम से प्रसिद्ध है। चक्रेश्वरी को कहीं कही चक्रादेवी भी कहा गया है । चक्रेश्वरी देवी की स्तुति में स्वतंत्र रूप से अनेक स्तोत्रों की रचना हुयी है। श्री जिनदत्तमूरि महाराज ने भी चक्रेश्वरी स्तोत्र की रचना की है।
देवी चक्रेश्वरी का वर्ण स्वर्ण के समान पीत है । उसे श्वेताम्बर ग्रन्यों में गरुडवाहना कहा है किन्तु दिगम्बर ग्रन्थो में वह गम्डवाहना होने के साथ पद्मस्था भी है । अपराजिनपृच्छा और रूपमण्डन में भी चक्रेश्वरी को गरुड और पद्म पर स्थित बताया गया है ।
चक्रेश्वरी चतुर्भुजा, अष्टभुजा और द्वादशभुजा है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार जब वह कमलासना होती है तब द्वादाभजा तथा गरुडासन स्थिति में चतुर्भुजा होती है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्राय: अष्टभुजा चक्रेश्वरी का वर्णन मिलता है । अपराजितपच्छा में द्वादशभुजा का विधान है पर रूपमण्डन ने गरुडासीना देवी को तो अष्टभुजा किन्तु कमल अथवा गरुड पर पासीन अवस्थामें उसे द्वादशभुजावाली बताया है। अपराजितपृच्छा चक्रेश्वरी को षट्पाद कहती है ।' किन्तु, इसकी पुष्टि किमी अन्य ग्रन्थ से नहीं होती। आचारदिनकर के अनुसार यह देवी सौम्य प्राशय वाली है; सच्चक्रा होने पर भी परचक्र का भंजन करती है। रूपमण्डनकार ने अप्टभुजा देवी के वर, बाण, चक्र और शूल ये मायुध बताये हैं किन्तु उनके अनुसार द्वादशभुजा अवस्था में वह दो वज, पाठ चक्र, मातुलिंग और अभयमुद्रा धारण करती है । रूपमण्डन ने द्वादशभुजा देवी के प्रायुध अपराजितपृच्छा का अनुसरण करके बताये है । श्वेताम्बर परम्परा में चक्रेश्वरी के दायें हाथों में चक्र, पाश, वाण और वरद तथा बायें हाथों में चक्र, अंकुश, धनुष और वज्र, ये प्रायुध बताये
१. अपराजितपृच्छा, २२१/१५-१६
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शासन यक्षियां
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गये हैं। प्राचारदिनकर मे बाये हाथों के प्रायुधोंमे चक्रके स्थान पर चाप कहा गया है किन्तु वह भूल प्रतीत होती है क्योकि बाये हाथों का एक प्रायुध धनुष वहीं अलग से गिनाया गया है। दिगम्बर परम्परा की कमलासना देवी दो हाथो मे वज, आठ हाथा मे चत्र और शेष दो हाथों में से एक हाथ मे (दायें) वरद तथा दूसरे (बायें ) मे फल धारण करती है। गरुडासना देवी के दो हाथो में वज, होते है और शेष दो हाथो में से दाया हाथ वरदमुद्रामे तथा बाया हाथ फल धारण किये होता है ।
चक्रेश्वरी को स्वतंत्र प्रतिमाए अनेक स्थानों पर प्राप्त हुयी हैं । इससे उसकी मान्यता पौर प्रतिष्ठा का अनुमान होता है । रोहिणी अजिता |अजितवला
द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ की यक्षी का नाम दिगम्बर परम्परा के अनुमार रोहिणी है जो विद्यादेवियो की सूचो में भी उपलब्ध है। श्वताम्बर लोग उमे अजितवला या अजिता कहते है । ध्यान देने की बात है कि दिगम्बर परम्पग के वमुनन्दि ने रोहिणी का पर्याय नाम अजिता बताकर उस नाम से मन्त्रपद कहा है । राहिगी का वर्ण स्वर्ग मा पीत है पर प्रजिनवला श्वेत वर्ण की बतायी गयी है। प्रागजितपदाकार ने गहिणो को श्वेतवर्ण कहा है। दिगम्बर नथो में रोहिणी को लोहामन पर स्थित बताया गया है । अपराजितपच्या उमे लाहामन पर रथारूढ कहती है। श्वेताम्बर परम्परा के निर्वाणकलिका तथा अन्य ग्रन्थ भी अजितबला को लोहामना बताते हैं पर प्राचारदिनकर के अनुमार वह यक्षी गागामिनो है। गहिणी पोर अजितबला दोनो चतुर्भमा है। अपराजित पच्छा म अभय, वग्द, शंख और चत्र प्रायुधो का विधान ? जिन्हें देवी क्रमगः निचल ग्रार उपरले हाथा में धारण करती है । वमनन्दि, ग्रागाधर और नमिचन्द्र ने भी चारा प्रायुधो की स्थिति उपर्यवत प्रकार बतायी है।
१. निर्वाणकलिका, पत्रा ३४ तथा अन्य ग्रन्थ । २. प्राचारदिनकर, उदय ३६, पन्ना १७५ । ३. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/१५-१६; प्रतिष्ठामारोद्धार, ३/१५६ और
नेमिचन्द्र, पृष्ठ ३४० । ४. प्रनिष्ठामारमग्रह, ५/१८; प्रतिष्ठामा रोद्धार, ३/१५७, प्रतिष्ठा
तिलक, पृष्ठ ३४१ ।
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८८
जैन प्रतिमा विज्ञान
श्वेताम्बरो की अजितबला के दाये हाथों में वरद और पाश तथा बाये हायो मे बीजपूर और अंकुश होते हैं ।' प्राप्ति दुरिमारि
तृतीय नीर्थकर मंभवनाथ जी की यक्षी का नाम दिगम्बरों के अनुमार प्रज्ञप्ति प्रोर श्वेताम्बरो के अनुसार दुरिनारि है । अपगजिन पृच्छा मे इमे प्रज्ञा कहा गया है जबकि वमुनन्दि ने इम यक्षी का पर्याय नाम नम्रा भी बताया है। प्रज्ञप्ति विद्यादेवियों में भी द्वितीय स्थान पर है । वसुनन्दि के मिवाय अन्य सभी ग्रन्थकार इम यक्षी को गौर वर्ण कहते है । वमुनन्दि के अनुमार वह स्वर्ण वर्ग की है। दिगम्बरो ने प्रज्ञप्ति को पक्षिवाहना किन्तु श्वेताम्बरो ने दुरितारि को मेषवाहनगामिनी माना है, केवल ग्राचारदिनकर मे उमे छागवाहना बताया गया है। प्राप्ति पड्भजा है किन्तु दुरितारि चतुर्भुजा । अपराजिनपच्छा मे षड्भजा का उल्लेख है । वसुनन्दि, पाशाधर और नेमिचन्द्र ने देवी की छह भुजाप्रो मे क्रमश अर्धचन्द्र, परशु, फल, तलवार, कमनु और वरद ये आयुध बनाये है ।२ अपराजितपृच्छाकार की सूची भिन्न प्रकार की है । तदनुमार, अभय, वरद, फन, चन्द्र, परशु, और कमल, इन प्रायुधो का विधान है । श्वेताम्बर प्रन्यो में में निर्वाणकलिका और प्राचारदिनकर मे दाये हाथा मे वरद और अक्षसूत्र तथा बाये हाथो में अभय और फल का विधान है। किन्तु विषष्टिशलाकापुरुषचरित्र और अमरकाव्य में फल के स्थान पर सप का उल्लेख किया गया है । वज्र खला कालिका
चतुर्थ तीर्थकर अभिनन्दननाथ को यक्षी का नाम अपराजितपच्छा में वजशृखला है । वही नाम दिगम्बर परम्पग मे भी मिलता है किन्तु श्वेताम्बरो में काली या कालिका नाम को देवी नृतीय तीर्थकर को शासन देवता है । वमुनन्दि ने वजशृखला का पर्याय नाम दुरितारि बताया है जो संभवत: भूल है । वजशृखला का वर्ण साने जैसा है किन्तु कालिका काले वर्ण की है । दोनो के
१. निर्वाण कलिका, पन्ना ३४; प्राचारदिनकर, उदय ३३ पन्ना १७६ । २. प्रतिष्ठासार संग्रह, ५/२०; प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१५८ प्रौर नेमिचन्द्र पृष्ठ
३४१ । ३. निर्वाणकलिका, पन्ना ३४; प्राचारदिनकर,उदय ३३, पन्ना १७६ । निर्वाण
कलिका में प्रक्षमूत्र के स्थान पर मुक्तामाला बतायी गयी है।
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शासन यक्षियां
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वाहन भी भिन्न भिन्न हैं । वज्रशृखला हंसवाहना है पर काली पद्मासना । भुजाएं दोनों की चार ही हैं । अपराजितपच्छा में उनके प्रायुध नागपाश अक्षसूत्र,फलक (ढाल ) और वरद बनाये गये हैं जबकि दिगम्बर ग्रन्थ फलक के स्थान पर फल कहते है ' जो ठीक जान पड़ता है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार कालिका के दायें हाथों में वरद और पाश तथा बायें हाथों में नाग पोर अंकुश हुप्रा करते हैं । पुरुष दत्ता महाकाली
पंचम तीर्थकर सुमतिनाथ की शासनदेवी का नाम दिगम्बर पुरुषदत्ता और श्वेताम्बर महाकाली बताते है । वसुनन्दि ने पुरुषदत्ता का अपर नाम संसारी देवी कहा है । प्राशाधर ने खङ्गवरा और मोहनी नामो का प्रयोग किया है । अपराजिनपृच्छा में नरदत्ता नाम है । तिलोयपण्णत्ती में पंचम स्थान वज्राकुशा का है और पुरुष दत्ता सप्तम स्थान पर है।
पुरुपदत्ता और महाकाली, दोनों का वर्ण स्वर्ण के समान पीत है । पुरुष. दत्ता गजवाहना है और महाकाली पद्मासना । दोनों ही रूप में यक्षी चतुर्भुजा है। पुरुपदत्ता के दायें हाथों में चक्र और वरद तथा बायें हाथों में वज्र और फल होते हैं।' महाकाली के दायें हाथों में वरद और पाश तथा बायें हाथों में मातुलिंग और अंकुश बताये गये हैं।" मनोवेगा/ अच्युता
उठे तीर्थकर पदमप्रम की यक्षी का नाम अमिधान-चिन्तामणि में श्यामा कहा गया है किन्तु हेमचन्द्र के ही त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में वह अच्युता है । सामान्यतया दिगम्बरों के अनुसार मनोवेगा और श्वेताम्बरों के अनुसार अच्युता छठे तीर्थकर की यक्षी है । वमुनन्दि ने मनोवेगा का अपर नाम मोहिनी भी बताया है।
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१. वमुनन्दि, प्राशाधर और नेमिचन्द्र आदि । २. निर्वाणकलिका, प्राचारदिनकर, अमरकाव्य और त्रिषष्टिशलाकापुरुष
चरित्र। ३. प्रतिष्ठातिलक,पृष्ठ ३४२; प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१६०; प्रतिष्ठासार
संग्रह, ५/२४-२५ ४. निर्वाणकलिका, पन्ना ३५; प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७;
अमरकाव्य, सुमतिचरित्र, १९-२० प्रादि ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
मनोवेगा का वर्ण स्वर्ण के समान है पर अच्युता श्याम है। मनोवेगा का वाह्न श्रश्व है । प्रच्युता नरवाना है । दोनों देवियां चतुर्भुजा हैं । भ्रपराजिन पृच्छा में वज्र, चक्र, फल और वरद, ये मनोवेगा के प्रायुध बताये गये हैं । नेमिचन्द्र ने ढाल, फल, तलवार और वरद ये चार प्रायुध कहे हैं ।' निर्वाणकलिका में दायें हाथों में वरद और बाण तथा बायें हाथों में धनुष और प्रभय का क्रम है किन्तु प्रचारदिनकर तथा ग्रन्य ग्रन्थों में वाण के स्थान पर पाश का उल्लेख है । 8
काली / शान्ता
मातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथकी यक्षी दिगम्बरों के अनुसार काली और श्वेताम्बरों के अनुसार शान्ता है । वसुनन्दि ने काली का अपर नाम मानवी भी कहा है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र श्रौर निर्वाण कलिका में शान्ता को शान्तिदेवी कहा है । अपराजित पृच्छा के अनुसार कालिका कृष्ण वर्ण की है पर दिगम्बर प्रन्थ उसे श्वेत कहते हैं । शान्ता देवी का वर्ण पीत है। दिगम्बरों ने काली को वृषवाहना किन्तु प्रपराजितपृच्छा ने उसे महिषवाहना कहा है जबकि शान्ता या शान्ति का वाहन गज है । ग्रपराजितपृच्छा के अनुसार कालिकादेवी प्रष्टभुजा है और त्रिशूल, पाश, अंकुश, धनुष, बाण, चक्र, प्रभय और वरद इस प्रकार प्रायुध धारण करती है । नेमिचन्द्र के अनुसार उसके श्रायुध बायें उपरले हाथ से प्रारंभकर क्रमश: घण्ग, फल, शूल, श्रौर वरद ये चार हैं । यही ग्रायुध वसुनन्दि और प्राशाधर ने भी कहे है ।" श्वेताम्बर परम्परा में दाये हाथो में वरद और प्रक्षसूत्र तथा बायें हाथों में शूल और प्रभय श्रायुध माने गये है । ज्वालामालिनी / भकुटि
अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभ की यक्षी ज्वालामालिनी को तंत्र में बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त रही । उसके ज्वालिनी, ज्वाला, ज्वालामालिका आदि अन्य नाम मिलते हैं । इन्द्रनन्दि के ज्वालिनीक १७ मे उन वह्निदेवी या शिखिमद्देवी भी
१. नेमिचन्द्र कृत प्रतिठातिलक, पृष्ठ ३४२ । २. निर्वाणकलिका, पत्रा ३५ ।
३. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७ ।
४. नेमिचन्द्र, पृष्ठ ३४२ ।
५. वसुनन्दि, ५ / २६ ; श्राशाधर, ३/१६१ ।
६. निर्वाणकलिका, पन्ना ३५; म्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७॥ प्राचार दिनकर ने प्रक्षसूत्र के स्थान पर मुक्तामाला कहा है ।
७, जैन सिद्धान्त भवन हस्तलिखित ग्रन्थ क्रमाक ८१ / झ
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शासन यक्षियां
कहा गया है । हेलाचार्य, मल्लिषण और अपराजितपृच्छाकार ने ज्वालामालिका नामका प्रयोग किया है । श्वेताम्बर परम्परा के प्रवचनसारोद्धार में भी ज्वाला नाम मिलता है पर अन्य श्वेताम्बर ग्रन्थों में अष्टम तीर्थकर की यक्षी का नाम भृकुटि ही बताया जाता है।
___दिगम्बर ग्रन्थों में ज्वालादेवी को श्वेतवर्ण बताया गया हैं। जबकि प्रपराजिनपच्छा के अनुसार वह कृष्ण वर्ण है । भृकुटि का वर्ण पीत है । दिगम्बर लोग ज्वाला यक्षी को महिषवाहना मानते हैं । अपराजितपृच्छा ने उसे पद्मासना और वृषारूढ़ा कहा है। भृकुटि के वाहन के विषय में श्वेताम्बर अन्यों में किंचित् मतवैषम्य है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पौर अमरचन्द्र के महाकाव्य में उसे हंसवाहना,प्राचारदिनकर मे विडालवाहना प्रौर निर्वाणकलिका में वराहाहना कहा गया है ।"
अपराजितपृच्छामें धंटा, त्रिशूल, फल प्रोर वरद ये प्रायुध बताये गये हैं । वसुनन्दि ने पूरे प्रायुध नही गिनाये, केवल वाण, वन, त्रिशूल, पाश, दो पाश, धनुष पोर मत्स्य का नामोल्लेख किया है । इन्द्रनन्दि ने ज्वालिनीकल्प में त्रिशूल, पाश, मत्स्य,धनुष, बाण,फल. वरद और चक्र ये प्रायुध बताये हैं।" माशाधर और नेमिचन्द्र ने दायें हाथों में त्रिशूल या गूल, वाण, मत्स्य और तलवार तथा बायें हाथों में चक्र, धनुष, पाश और ढाल इस प्रकार कुल पाठ मायुध कहे हैं । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भृकुटि के दायें हाथों मे तलवार और मुदगर तथा बाये हाथों में ढाल और फरसा होते हैं।' महाकाली | मुतारा
नौवे तीर्थकर पुष्पदन्त या सुविधिनाथ की यक्षी दिगम्बरों के अनुसार महाकाली और श्वेताम्बरों के अनुमार सुतारा है। वसुनन्दि ने इसे भृकुटि भी कहा है पर वह भूल है । अभिधान चिन्तामणि में मुतारका और अपराजितपृच्छा में महाकाली नाम है । महाकाली कर्म पर मवारी करती है पर सुतारा
१-२. ज्वालिनीकल्प, श्लोक २ तथा अन्य ग्रन्थ । ३. विडाल के स्थान पर वराह भूल प्रतीत होती है । ८. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/३१ ५. श्लोक ३ ६. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१६२, प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ, ३४३ । ७. प्राचारदिनकर, उदय, ३३, पन्ना १७१; निर्वाणकलिका, पन्ना ३५
तथा प्रन्य।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
वृषभ पर । दोनों चतुर्भुजा हैं । प्रागजितपृच्छा ने चारों हाथों के आयुध वज्र, गदा, वरद और अभय बनाये है । वसुनन्दि ने वज्र, गदा, मुद्गर, और कृष्ण फल इन तीन का ही उल्लेख किया है, वे चौथे वरद को छोड़ गये हैं। प्राशाघर और नेमिचन्द्र के अनुमार महाकाली के दाये हायो में मुद्गर और वरद तथा बायें हाथों में वज्र और मातुलिंग होते है ।२ श्वेताम्बर परम्पग के अनसार सुतारा दायें हाथों में वरद और प्रक्षमूत्र तथा बाये हाथों में कलश और मंकुश धारण करती है।' मानवी / अशोका
दमवें तीर्थकर गीतलनाथ की यक्षी का नाम दिगम्बर मानवी और श्वेताम्बर अशोका कहते है । वमुनन्दि ने मानवी का पर्याय नाम चामुण्डा भी कहा है।
अपराजितपृच्छा में मानवी को श्यामवर्ण किन्तु दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उसे हरितवर्ण कहा गया है । श्वेताम्बर परम्परा के प्राचारदिनकर में अशोका को नीलवर्ण माना है पर त्रिप्टिशलाकापुरुषचरित्र, निर्वाणकलिका आदि में मुद्ग (मूग) वर्ण कहा गया है । मानवी कृष्णशूकरवाहना है और अशोका पद्मवाहना । दोनो की ही चार-चार भुजाएं हैं । मपराजितपृच्छा के अनुसार आयुध, पाश, अंकुश, फल और वरद हैं । वसुनन्दि ने केवल तीन प्रायुधों का नामोल्लेख किया है, मत्स्य, फल और वरद, चौथे प्रायुध का नाम नही लिखा । पाशाधर ने दायें हाथों के प्रायुध माला और वरद तथा बायें हाथों के आयुध मत्स्य और फल बताये हैं। ५ नेमिचन्द्र ने बायें उपरले हायमें मत्स्य, बायें निचले हाथ में फल, दायें उपरले हाथ में माला और दायें निचले हाथमें वरदमुद्रा होना कहा है ।' श्वेताम्बर परम्परामें अशोकाके दायें हाथों में वरद प्रार पाश तथा बांयें हाथों में फल मोर अंकुश होते हैं।
१. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/३३. २. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१६३; प्रनिष्ठातिलक, पप्ठ : ४३ ३. निर्वाणकलिका पन्ना ३५; प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १.७ तथा
अन्य । प्राचारदिनकर में अक्षसूत्र को रसजमाला कहा गया है। ४. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५-३५ । ५. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१६४ ६. नेमिचन्द्र, पृष्ठ ३४३ । ७. निर्वाणकलिका, पन्ना ३५ ।
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शासन यक्षियां
गौरी/मानवी
ग्यारहवें तीर्थकर श्रेयांसनाथ की यक्षी दिगम्बरो के अनुसार गौरी प्रौर श्वेताम्बरों के अनुसार मानवी नामवाली है । वसुनन्दि ने गौरी का पर्याय नाम गोमेधको कहा है पर वह किसी अन्य उल्लेख से पुष्ट नहीं होता । प्रवचनसारोद्धार में मानवी के स्थानपर श्रीवत्सा ? नाम मिलता है। प्राचारदिनकरकार ने भी मानवी का अपर नाम श्रीवत्सा बनाया है। गौरी का वर्ण सोने जैसा पीत और मानवी का वर्ण गौर । गौरी की सवारी मग' है पर मानवी का वाहन सिंह है। दोनों की भुजाएं चार-चार है । अपराजित पृच्छा मे गौरी के आयुध पाश, अंकुश, कमल और वरद बताये गये है । वसुनन्दि ने केवल दो-कमल और वरद-पायुधों का उल्लेख किया है। प्रागाधर और नेमिचन्द्र ने मुद्गर, कमल, अंकुश और वरद ये चार प्रायुध बताये है। प्राचारदिनकर और निर्वाणकलिका के अनुसार मानवो दाये हाथों में वग्द और मृद्गर तथा बायें हाथों में कलश और अंकुश धारण किया करती है।' गांधारी | नण्डा
____ बारहवें तीर्थकर वासुपूज्यकी यक्षी दिगम्बरो के अनुसार गांधारी और श्वेताम्बरों के अनुसार चण्डा है । वमनन्दि ने गांधारी का पर्याय नाम विद्यन्मालिनी बताया है । गांधारी को प्रवचनसारोद्धार में प्रवरा, प्राचारदिनकर में प्रवरा और चण्डा दोनों, निर्वाणकलिकामें प्रचण्डा और त्रिषष्टिशलाकापुरुष. चरितमें चन्द्रा कहा गया है। गाधारी का वर्ण हरिद है पर अपराजितपृच्छा उमे श्यामवर्ण बताती है। चण्डा श्यामवर्ण की है। गांधारी का वाहन मकर और चण्डा का वाहन अश्व है । अपराजितपृच्छा में गांधारीको द्विभुजा किन्तु दिगम्बर प्रौर श्वेताम्बर ग्रन्थों में गांधारी और चण्डा दोनों को चतुर्भुजा बताया गया है। अपराजितपृच्छा के अनुसार गांधारी के दाये हाथ मे कमल और बायें हाथ में फल होता है । वमुनन्दिने केवल तीन हाथों के प्रायुध बताये हैं अर्थात् मुशल और दो कमल, चौथे प्रायुधका उल्लेख नहीं किया। प्राशाधर
१. अपराजितपृच्छा में कृष्ण मग २. प्रतिष्ठासारमंग्रह, ५/३७ ३. प्रतिष्ठासारोदार, ३/१६५ और प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३४४ ४. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७; निर्वाणकलिका, पन्ना ३५ । ५. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/३६
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१४
जन प्रतिमाविज्ञान
और नेमिचन्द्र के वर्णन को एक साथ पढन पर गाघारीके दाये उपरले हाथ में कमल, दाया निचला हाथ वरदमुद्रामे, बायें उपरले हाथमे कमल और वायें निचले हाथ मे मुशल का होना ज्ञात होता है ।' चण्डा के दाये हाथ में वरद और गक्ति तथा बाये हाथो म पुप्प और गदा होती है । वैरोटी / विदिता
तेरहवे तीर्थकर विमलनाथ की यक्षी को दिगम्बर वरोटी और श्वेताम्बर विदिता कहते है । अपगजिनपन्छा" उसका नाम विगटा और नेमिचन्द्र के प्रतिष्ठातिलक मे वगेटिका मिलता है। वमुनन्दि ने रोटी का पर्याय नाम विद्या भी बताया है । विदिता के स्थान पर प्रवचनसारोद्धारमे विजया नाम मिलता है । वैरोटी हरित वर्ण है पर अपराजितपृच्छामे उमे श्यामवर्ण कहा गया है। विदिता के वर्ण के विषय में भी मतवैषम्य है । त्रिषष्टिशलाकापुम्षचरित्र और निर्वाणकलिकामे वह हरितालद्यति है पर प्राचार दिनकर और अमरचन्द्र के महाकाव्य म स्वर्ण वर्ण । दिगम्बरो के अनुसार वरोटी अजगर पर सवारी करती है । विदिता पद्म पर प्रामीन है । वैरोटी और विदिता दोनो चतुर्भजा है। पर आपराजितपृच्छा ने वैगेटी को षडभुजा कहा है । उसके अनुसार यक्षीके दो हाथ वरदमुद्रामे रहते है और शेष चार हाथों मे वह खड्ग, खेटक, धनुष और वाण धारण करती है । वमुनन्दि ने प्रायुधो मे मे केवल दो सो का ही उक्लेख किया है । प्राशाधरके अनुसार दाये और बाये प्रोर के एक एक हाथ मे सर्प तथा दाये ओर के दूमरे हाथ मे बाण और बाये ओर के दूसरे हाथ मे धनुष होता है ।' नेमिचन्द्र ने दाये ओर के दोनो हाथों मे सर्प बताया है और बाये ओर के हाथो मे बाण और धनुष । विदिता देवी के दाये हाथो मे बाण प्रौर पाश तथा बाये हाथो मे धनुष और नाग होते है ।'
१. प्रतिष्ठासारोद्धार ३ '१६६ ; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३४४ २ निर्वाणकलिका, पन्ना ३५; प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७
तथा अन्य ग्रन्थ । ३. प्रतिष्ठामारोद्धार, ३/१६७ ४. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३४४ ५. निर्वाणकलिका, पन्ना ३६; प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७
तथा अन्य ग्रन्थ
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शासन यक्षियां
अनन्तमती / अंकुशा
चौदहवें तीर्थकर अनन्तनाथ की यक्षी दिगम्बरों के अनुसार अनन्तमती और श्वेताम्बरों के अनुसार अंकुशा है । वसनन्दि ने अनन्तमती का अपर नाम विज़म्भिणी भी कहा है । अपराजितपृच्छामे चौदहवी यक्षी का नाम तारिका बताया गया है। अनंतमती/तारिका हंसवाहना है पर अंकुशा पद्म पर स्थित होती है । अनंतमती और अंकुशा दोनों का वर्णन चतुर्भुजा यक्षी के रूप में मिलता है । अमरकाव्य के अनन्तजिनचरित्र (श्लोक १६-२०) में अंकुशा के दो ही प्रायुध बताये गये है, जिससे प्रतीत होता है कि अमरचन्द्र उसे द्विभुजा मानते है । उन्होंने दायें हाथ में फलक और बायें हाथ मे अंकुश बताये है। अपराजितपृच्छा ने तारिका के प्रायुध धनुष, बाण, फल और वरद कहे है । ठीक यही प्रायुध वसुनन्दि, प्राशाधर और नेमिचन्द्र के ग्रन्थों में पाए जाते है। श्वेताम्बर परम्परा में सामान्यतया अंकुशा के दायें हाथो में पाश और तलवार तथा बायें हाथों में अंकुश और ढाल इस प्रकार प्रायुध होते है ।२ मानसी कन्दर्पा
दिगम्बरों के अनुमार पंद्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ की यक्षी मानमी है पर श्वेताम्बरो के अनुमार कन्दर्पा । वसुनन्दि ने मानमी का पर्याय नाम परभृता भी कहा है । अपराजिनपच्छा ने इस यक्षी का नाम अनंतागति बताया है जिसका तिलोयपण्णत्ती की अनंतागति मे साम्य प्रतीत होता है। प्रवचनसारोद्धार मे पन्नगगति या पनगा नाम है । प्राचारदिनकर ने भी कन्दर्पा का अपर नाम पन्नगा कहा है । अपराजितपृच्छा ने अनंतागति को रक्तवर्ण, दिगम्बरों ने मानमीको प्रवालवर्ण और श्वेताम्बरो ने कन्दर्पा को गौरवर्ण माना है । मानसी का वाहन शार्दूल या व्याघ्र है और कन्दर्पा का मीन । मानमी और अपराजित पृच्छा की अनतागनि षड्भुजा हैं । कन्दर्पा की भुजाएं चार कही गई हैं । अपराजितपृच्छा न अनंतागति के त्रिशूल, पाश, चक्र, हमा, फल और वरद, ये छह प्रायुध बताये हैं। प्राशाधर और नेमिचन्द्र के अनुसार मानसी कमल, धनुष, वरद, अंकुश, बाण और कमल इस प्रकार प्रायुध धारण करती
१. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/४३; प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१६८; प्रतिष्ठाति
लक, पृष्ठ ३४५। २. निर्वाणकलिका, पन्ना ३६; प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७
तथा अन्य ग्रन्थ ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान
है। कन्दा दायें हाथों में कमल और अंकुश तथा बायें हाथों में से एक में पुनः कमल धारण करती है और उसका दूसरा बायां हाथ अभय मुद्रा में होता
महामानसी /निर्वाणी
_____ सोलहवें तीर्थकर शान्तिनाथ की यक्षी दिगम्बरों के अनुसार महामानसी और श्वेताम्बरों के अनुसार निर्वाणी है। वसुनन्दि ने महामानसी का पर्याय नाम कंदर्पा बताया है । अपराजितपुच्छा में तिलोयपण्णत्ती का अनुसरण करके मानसी नामही बताया है। प्राचारदिनकर में निर्वाणी के स्थानपर निर्वाणा नाम माना है । महामानसी का वर्ण सोने के समान पीत है । निर्वाणी को गौर वर्ण कहा गया है, पर प्राचारदिनकर ने उसे भी मुवर्ण के समान वर्ण वाली बताया है।
अपराजितपृच्छा की मानमी पक्षिराज पर सवारी करती है पर महामानसी का वाहन मयूर है । निर्वाणी पद्मपर स्थित होती है ।
दोनों प्रकार से सोलहवें तीर्य कर की यक्षी चतुर्भुजा है। अपराजितपृच्छा ने उसके हाथों में वाण, धनुष, वज्र और चक्र ये प्रायुध बताये हैं। वसुनन्दि के अनुसार,फल, ईढि (तलवार),चक्र और वरद ये चार प्रायुध है ।' प्राशाधर और नेमिचन्द्र ने दायें तथा बायें हाथों के प्रायुध अलग अलग गिना दिये हैं । तदनुसार महामानमी के दायें हाथों में ईढि और वरद तथा बायें हाथों में चक्र और फल होते हैं । निर्वाणी के दाये हाथों में पुस्तक और उत्पल (कमल) तथा बायें हाथों में कमण्डलु और कमल होते है ।" प्राचारदिनकर ने पुस्तक के लिये कल्हार और कमण्डलु के लिये कारक पद का प्रयोग किया है।' जया बला
____ सत्रहवें तोयंकर कुन्थुनाथकी यक्षो का नाम दिगम्बर और श्वेताम्बर परभरामों में क्रमशः जया पौर बला है । वसुनन्दि ने जया देवी को गांधारी भी कहा है । तिलीयपण्णत्ती और अपराजितपृच्छा में उसका महामानसी नाम मिलता है जबकि प्रवचनसारोद्धार में अच्युता नाम से उल्लेख है।
१. प्रतिष्ठासारोदार, ३/१६६; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३४५ २. निर्वाणकलिका, पन्ना ३६; प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७ ।
प्रतिष्ठासारसंग्रह ५/४७ ४. प्रतिष्ठासारोदार ३/१७०; प्रतिष्ठातिलक,पृष्ठ ३४५ । ५. निर्वाणकलिका, विषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, अमरचंद्र प्रादि । ६. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७
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________________ शासन यक्षिया जया सुवर्ण के समान पीत वर्ण है। बला गौर है, पर प्राचारदिनकर ने उसे प्रतिपीत वर्ण कहा है / जया का वाहन कृष्ण शूकर और बला का वाहन मयूर है। दोनों चतुर्भुजा हैं किन्तु अपराजित पृच्छा की यक्षी षड्भजा है। अपराजिनपृच्छा ने यक्षी के प्रायुध वज, चक्र, पाश, अंकुग, फल और वरद बताये है / वसुनन्दि के अनुसार जया के प्रायुध शंख, तलवार, चक्र और वरद ये चार है / ' आगाधर और नेमिचन्द्र ने दायें हाथों में तलवार और वरद तथा बाये हाथों में चक्र और शख आयुध बताये है / ' बला के प्रायुधों के बारे में मनवैषम्य है / त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र, अमरमहाकाव्य और निर्वाण कलिका में उसके दायें हाथों में बीजपूर और शूल तथा बायें हाथों में मुपण्डा और कमल बताये गये है किन्त प्राचारदिनकर मे शूल के स्थान पर विगूल और दोनों बायें हाथों में भरॉडि का उल्लेख है जो संभवतः मुषण्ढी होना चाहिये / ' तागवती/धारिणी अठारहवें तीर्थकर अरनाथ की यक्षी दिगम्बरों के अनुमार नारावती और श्वेताम्बरों के अनुसार धारिणी है / वमनन्दि ने तारावती का पर्याय नाम काली भी कहा है / तिलोयपण्णत्ती का अनुमरण करते हुये अपराजितपृच्छा में उसका नाम जया बताया गया है / प्रवचनमारोद्धार में धारिणी के स्थान पर धरणी नाम मिलता है / यक्षी तारावती मोने के समान पीतवर्ण की है। किन्तु धारिणी को प्राचारदिनकर, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि में नीलवर्ण बताया गया है जबकि निर्वाणकालिका के अनुमार उमका वर्ण श्याम है / तारावती का वाहन हम है / अपराजितपृच्छाके अनुमार उसके प्रायुध वज्र, चक्र, फल और सर्प हैं / वमुनन्दि ने सर्प, वज्र, मृग और वरद ये चार प्रायुध बताये है / ' उनमें से वज्र और वरद को प्राशाधर और नेमिचन्द्र ने दायें हाथों के, नथा सर्प और मृग को बायें हाथों के प्रायुध बताया है / ' धारिणी के 1. प्रतिष्ठासारसंग्रह, 5/46 2. प्रतिष्ठासारोद्धार, 3/171; प्रतिष्ठानिलक 345-46 / 3. निर्वाणकलिका, पन्ना 36 / 4 प्राचारदिनकर, उदय, 33, पन्ना 177 / 5. प्रतिष्ठासारसंग्रह. 5,51 6. प्रतिष्ठामारोद्धार 3/172
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जैन प्रतिमाविज्ञान
दायें हाथों के आयुध मातुलिंग और कमल है। वह बायें मोर के एक हाथ में अक्षमूत्र धारण करती है पर उसके दूसरे बायें हाथ में निर्वाणकलिका के अनुसार पाश, तथा अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा पद्म हुमा करना है।' अपराजिना /वैरोट्या
उनीमवें तीर्थकर मल्लिनाथ की यक्षी दिगम्बरों के अनुसार अपराजिता नाम की है और श्वेताम्बरों के अनुमार वैरोटया नाम की। उसे तिलोयपण्णत्ती और अपराजितपृच्छा में विजया कहा गया है । वमुनन्दि ने अपराजिता को भी अन्यत्र अनजान देवी के नाम में स्मरण किया है । उसी प्रकार रोट्या को प्रवचनसारोद्धार मे वैराटी, अभिधानचिन्तामणि में धरण प्रिया और प्राचारदिनकर में नागाधिप की प्रियतमा कहा गया है। अपराजिता हरित् वर्ण और वैरोट्या कृष्ण वर्ण है । अपराजिनपृच्छा की विजया का वर्ग श्याम है। अपराजिता यक्षी का वाहन अष्टापद किन्तु वैरोटी पद्म पर प्रासीन है । दोनों देवियों की भुजाएं चार हैं । अपगजितपृच्छा ने विजया के आयुध खड्ग, खेट, फल और वरद कहे हैं । वसुनन्दि ने अपराजिता के पूरे प्रायुध नहीं बताये किन्तु आशाधर प्रोर नेमिचन्द्र के अनुसार वह यक्षी दायें उपरले हाथ में तलवार, बायें उपरले में खेट तथा बायें निचले हाथ में फल धारण करती है और उसका दायां निचला हाथ वरद मुद्रा में होता है । २ वरोट्या यक्षी के दायें हाथों में प्रक्षमूत्र और वाद तथा बायें हाथों में शक्ति और बीजपूर हुमा करते हैं । ३ बहुरूपिणी नरदत्ता
बीसवें तीर्थकर मुनिमुव्रतनाथ की यक्षी दिगम्बरों के अनुसार बहुरूपिणी पौर श्वेताम्बरो के अनुसार नरदत्ता है । वसुनन्दि ने बहुरूपिणी को सुगंधिनी भी कहा है । प्रवचनसारोद्धार में बीसवें तीर्थकर की यक्षी का नाम अच्छुप्ता बताया गया है । प्राचारदिनकर ने अच्छुप्तिका प्रोर नदत्ता दोनों ही नामों का उल्लेख किया है । तिलोयपगत्ती और अपराजितपृच्छ। के अनुसार अपराजिता बीसवें तीर्थकर को यक्षी है । दिगम्बरों की यक्षी बहुरूपिणी पीतवर्ण की है। नरदत्ता को प्राचारदिनकरकार स्वर्ण के वर्ण की बताते हैं किन्तु अन्य ग्रन्थों के अनुसार वह
१. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७८; निर्वाणकलिका, पन्ना ३६ २. प्रतिष्ठासारोबार , ३/१७३; प्रनिष्ठातिलक, पृष्ठ ३४७ । ३. निर्वाणकलिका, पन्ना ३६ तथा अन्य ग्रन्थ ।
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शासन यक्षिया
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गौर वर्ण है । बहुरूपिणी का वाहन कृष्ण नाग है । नरदत्ता भद्रासना है । बहुरूपिणी और नरदत्ता दोनों चतुर्भुजा है पर अपराजितपृच्छा की देवी द्विभजा है जो खड्ग-खेटक धारण करती है । वसुनन्दि ने बहुरूपिणी को अष्टानना, महाकाया और जटामुटभूषिता कहा है । बहुरूपिणी के दायें हाथों में खड्ग और वरद तथा बायें हाथों में खेट और फल होने का विधान है ।' नरदत्ता के प्रायुधों के संबंध में किञ्चित् मतवंषम्य है। प्राचारदिनकर और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित उसके दायें हाथो में वरद और अक्षमूत्र तथा वांये हाथों में मातुलिंग और शूल बताते है किन्तु निर्वाणकलिका में शूल के स्थान यर कुम्भ कहा गया है।' चामुण्डा/गांधारी
इक्कीसवें तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षी को दिगम्बर लोगों ने चामुण्डा और श्वेताम्बर लोगों ने गांधारी नाम दिया है । नेमिचन्द्र ने उसे चामुण्डिका और वमुनन्दि ने कुसुममालिनी भी कहा है । तिलोयपण्णत्ती के अनुसार बहु-- रूपिणी बाईसवें तीर्थकर की यक्षी है । चामुण्डा का वर्ण हरित् कहा गया है और गांधारी का श्वेत । वसुनन्दि ने चामुण्डा को नंदिवाहना बताया है किन्तु प्रागाधर और नेमिचन्द्र उ मकरवाहना कहते है । अपराजितपृच्छा की देवी मर्कट पर सवारी करती है । गाधारी हंसवाहना है । वसुनन्दि के अनुसार चामुण्डा प्रप्टभुजा और चतुर्भुजा दोनों विग्रह वाली है पर प्राशाधर और नेमि चन्द्र उसे चतुर्भुजा ही मानते हैं । अपराजिनपृच्छा की देवो अष्टभुजा है । श्वेताम्बरों की गांधारी के भी चार हाथ है। चामुण्डा को वमुनन्दि ने चतुर्वक्त्रा (चारमुखवाली) और रक्ताक्षा भी कहा है पर अन्य ग्रन्थो में इसका उल्लेख नही मिलता । अपराजिताच्छा में बहुरूपिणी नाम की देवी के माठ प्रायुध शूल, खड्ग, मुद्गर, पाश, वज्र, चक्र, डमरू और अक्षमूत्र बताये गये है । दिगम्बर ग्रन्थ चामुण्डा के चार प्रायुध बताते हैं । तदनुमार उसके दायें हाथों में अक्षमूत्र और तलवार तथा बायें हाथों में यष्टि और खेट हुमा करते हैं ।'
१. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/१७४; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३४७ २. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७८ । ३. निर्वाणकलिका, पन्ना ३६ ४. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/५७ ५. प्रतिष्ठासारोदार, ३/१७५; प्रतिष्ठातिलक,पृष्ठ ३४७ ।
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जन प्रति माविज्ञान
गांधारी के प्रायुधो के बारे मे मनवैषम्य देखा जाता है । त्रिषप्टिशलाकापुरुप-- चरित्र और अमरकाव्य के अनुमार गापारी के दाये हाथों में वरद और खड्ग तथा दोनो बारे हाथो मे बीजर है। प्राचारदिनकरकार बाये हाथो में शकुन्त (पक्षी) और बीजपूर कहत है' जबकि निर्वाणलिका कुम्भ अोर बीजपूर का उल्लेख करती है। ग्राम्रा अम्बिका
बाईमवे तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षी ग्राम्रा या अम्बिका है । टस देवी के अनक नाम है। वेताम्बर गुभचन्द्र प्राचार्य ने दमके अम्बा, पाम्नकप्माण्टी, अबिला, तारा, गौरी, वजा प्रादि नाम कहे है।' तिलीयपणनी में कृप्माण्डो तथा प्रवचनमागेद्धार में अम्बा नाम मिलते है। अगजितपृच्छा बाईमवें तीर्थकर की यक्षी के चामुण्डा और अम्बिका दोना नाम कहती है। अभिधानचिन्तामणि म अम्बा नाम है पर त्रिषष्टिगलाकापुम्पचरित्रमे काम ण्डी। वमुन्दि, ग्रागाधर ग्रार नमिचन्द्र न ग्राम्ना नाम से इस यक्षीका वर्णन किया है पर वसुनन्दि ने अपर नाम प्माण्डी भी बताया है । अम्बिका देवी का एक अन्य नाम धर्मा देवी भी है। इस यक्षी को प्राचारदिनकर गे अम्बा, निर्वाणलिका में कूष्माण्डी पीर अमरकान्य म अम्बिका कहा गया है । जैन परम्परा में अम्बिका देवी की बटी मान्यता रही है । महामात्य वास्तुपाल विरचित अम्बिका स्तवन और जिनश्वरदत्तमूरि कृत अम्बिकादेवीस्तुति जैमी अनेक रचनाए अम्बिका की स्तुति में रची गयी थी।
दिगम्बरो के अनुसार प्रानादेवी हरित वणं है । अपराजितपुच्छा मे भो उमे हरित कहा गया है । श्वेताम्बरो ने अम्बिका को सुवर्ण के समान पात वर्ण की माना है । रूपमण्डन ने भी पीत ही कहा है।
__ इस यक्षो का वाहन सिह है । प्राशाधर ने भर्तचर विशेषण दिया है जिसका सकेत पूर्व जन्म को कथा के प्रति है। दिगम्बर लोग अम्बिा को द्विभुजा
१ प्राचार'दनकर, उदय ३३, पन्ना १७७ । यदि शकुन्त को मकुन्न
(यद्यपि वह अशुद्ध होगा) माने तो एक अायुध कुन्न होगा। २. निर्वाणलिका पन्ना ६६ । कुम्भ के स्थान पर कुन भी हो
सकता है ? ३. अम्बिकाका, ७/२--३ । शुभच द्राचार्य ने अम्बिका कल्प की रचना
जिनदत्त के प्रारह स ब्रह्मगोल के पठन के लिए की थी।
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शासन यक्षियां
मानते हैं पर श्वेताम्बर लोग चतुर्भुजा । शुभचन्द्राचार्य ने तीन स्थितियो में तीन प्रकार से भजायों की संख्या का विधान किया है। तदनुसार जब यक्षी अरिष्ट नेमि के पादमूल में स्थित हो तो अष्टभुजा होती है; जव उसकी प्रतिमा मिहामन पर बनायी जावे तो चतुर्भुजा और जब पाश्व में स्थित की जावे तो द्विभुजा होना चाहिये । आशाधर के अनुसार प्राम्रा देवी प्राम्र वृक्ष को छाया में स्थित होती है । नेमिचन्द्र ने उसे पाम्रवृक्ष की छाया में वाम कटि पर प्रियंकर को रखे हुये बताया है । अपराजितपृच्छा में भी इस यक्षी को पुत्रण उपास्यमाना और मुतोत्संगा कहा गया है।
अपराजितपृच्छा मे, अम्बिका का दायां हाथ वरद मुद्रा में और बायें हाथ में फल का होना बताया गया है। प्राशाधर के अनुसार अम्बिका के दायें हाथ की अंगुलियां अपने पुत्र शुभंकर के हाथ को छूती हुयी दिखायी जाती हैं और बायें हाथ में वह गोद में बैठे प्रियंकर के लिये प्राम्रस्तबक पकड़े रहती है।' नेमिचन्द्र ने भी उसी प्रकार का विवरण दिया है ।२ श्वेताम्बर परम्परा के प्रवचनमारोबार में अम्बिका के दाये हाथों में प्रानलुम्बि और पाश तथा बायें हाथों में चक्र और अंकुश बताये गये हैं । त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के अनुमार यक्षी के दायें हाथों में प्राम्रलुम्बि और पाश तथा बायें हाथों में पुत्र और अंकुश होते हैं। रूपमण्डन ने पाश के स्थान पर नागपाग कहा है । प्राचारदिनकर का मत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र जैमा है। किन्तु निर्वाणकलिका में आम्र लुम्बि या पाम्राली के स्थान पर मातुलिंग का उल्लेख किया गया है।' शुमचन्द्र प्राचार्य ने चतुर्भुजा अम्बिका के प्रायुध शंख, चक्र, बरद और पाश बताये हैं। उन्ही प्राचार्य ने अष्टभुजा स्थिति में आम्रकूष्माण्डी को शंख, चक्र, धनुष, परशु, तोमर, तलवार, पाश और कोक्षेय इन प्रायुधों से युक्त कहा है । पद्मावती
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की यक्षी पद्मावती को तिलोयपण्णत्ती में पद्मा कहा गया है। इन्द्रनन्दि और मल्लिषेण ने भी उसे पद्मा नाम से
१. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/९७६ २. प्रतिष्ठातिलक पृष्ठ ३४७ ३. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना; १७६ ४, निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
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जन प्रतिमाविज्ञान
म्मरण किया है । इम यक्षी को लेकर अनेक कल्पों और स्तोत्रों की रचनाएं हुयी है । इन्द्रनन्दि का पद्मावती पूजन, मल्लिषेण का भैरवपद्मावतीकल्प, यशोभद्र उपाध्याय के गिप्य श्रीचन्द्र मूरि का अद्भुत पद्मावतीकल्प ग्रादि उनमें प्रमुख हैं। दिगम्बरो के अनुमार पद्मावती का वर्ण रक्त है। अपराजित पृच्छा और रूपमण्डन ने भी उमे रक्तवर्ण बताया है। श्वेताम्बर ग्रंथो के अनुमार वह मुवणं के समान पीनवर्ण की है ।
वमुनन्दि पद्मावती का पद्मामीना कहते है। अागाधर पद्मस्था नो कहते ही है पर कुकुंटमपंगा भा बताते है । अपराजिनपृच्छा मे पद्मामना और कुक्कुटम्था तथा म्पमण्डन मे कुकुंटोग्गम्या का विधान किया गया है । मल्लिषेण ने पद्मस्था कहा है। श्वेताम्बर ग्रयों में से त्रिपटिश नाकापुरषचरित्र पौर प्राचारदिनकर में पद्मावतीको कुकुट मर्प पर स्थित बताया गया है किन्तु श्रीचन्द्रमूरि ने उसे पद्म एवं हम पर स्थित कहा है। मल्लिषेण ने पद्मावत को ग्रिलोचना बताया है। प्राशाधर और श्रीचन्द्रमूर ने त्रिफणसर्पमोलि तथा मल्लिषेण ने पन्नगाधिपगेवर पाद विशेषणों द्वारा मूचित किया है कि पद्मावती के मस्तक पर सर्पफण का चत्र होता है। पद्मावती की भुजामो की मख्या के संबंध में मतभिन्नता है । वमुनन्दि और नेमिचन्द्र उसे चार, छह या चौवीस भुजानो वाली बनाते है । प्राशाधर ने चार, छह और पाठ भुजानों का उल्लेख किया है । श्वेताम्बर ग्रन्थों में सामान्यतया पद्मावती देवी को चतुर्भुजा ही कहा है । उसी प्रकार, मल्लिषेण, श्रीचन्द्रमूरि, अपराजितपच्छाकार एव रूपमण्डनकार भी पद्मावती को चतुर्भजा मानते है । नमिचन्द्र के अनुमार पद्मावती देवी के आयुध निम्न प्रकार है :चतुर्भुजा : दाये हाथों में अक्षमाला पौर वरदमुद्रा तथा वायें हाथो में
__अंकुश और कमल । षड्भुजा : पाग प्रादि (विवरण अपूर्ग) चतुर्विशतिभुजा : शंख, तलवार प्रादि (विवरण प्राणं)'
प्राशाधर ने नेमिचन्द्र के समान मत प्रकट किया है। अन्तर केवल इतना है कि माशाधर के अनुसार चतुर्भुजा पद्मावती के दायें हाथों के प्रायुधों में
१. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३४७-४८
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शासन यभियां
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वरदमुदा के स्थान पर व्यालांबर हुप्रा करता है ।' वसुनन्दि ने पद्मावती के प्रायुधों का वर्णन विस्तार से किया है। उनके अनुमार चतुर्भुजा पद्मावती अंकुश, अनमूत्र, कमल पोर संभवत: वरदमुद्रा धारण करती है ; षड्भुजा देवी के हाथों में पाय, अमि. कुंत, अर्धचन्द्र, गदा और मूसल हुया करते है, जबकि चतुर्विशतिभुजा अवस्थाके प्रायुध, शंख, अमि,चक्र,अर्धचन्द्र, स्वेतपद्म, उत्पल (नीलकमल), धनुष,शक्ति,पाय, गंकुग,घण्टा, बाण,मूसल, खेटक,विशूल, परशु, वज्र, माला,फल, गदा, पत्रपल्लव, वरदमुद्रा तथा अन्य दो होते है । रूपमण्डन ने पद्म, पाश, अंकुश और बीजपूर तथा अपगजितपृच्छा ने पादा, अंकुग, पद्म और वरदमुद्रा इनका विधान किया है।
____ प्राचारदिनकर में पद्मावती के दायें हाथों के आयुध पद्म और पाग तथा बायें हाथों के आयुध अंकुश और दधिफल कहे गये है ।' निर्माणकलिका में भी दाये हाथों में पद्म और पाश का, तथा वाये हाथों में फन और अंकुरा का उल्लेख है । श्रीचन्द्र मुरि ने पद्म, अंकुम, वग्द और पाग तथा महिलपेण ने वामोर्ध्व कर क्रम में पाग, फन, वरद प्रौर अंकुश, इन प्रायुधो का वर्णन किया है।
भैरवपद्मावतीकल्प ( ?!:) में पम देवी के तोतला, त्वरिता, नि-या, निपुग, काममाधिनी और त्रिपुरभैरव, इन छह भिन्न भिन्न FII का लेख है । तोतला के प्रायुध, पाश, पत्र, फन और कमल है। त्वरिता रक्त वर्ण की हैमोर गग्व, पद्म, अभयमुद्रा तथा वरमुद्रा धारण करती है। निन्या म्र में देवी की जटाए बालचन्द्र में मति होत है । उसके हाथों म पाग, अंकुश, कमल और क्षमाला, तथा वाहन हंम: । क्रम के समान वयं वाली त्रिपुग को पाठ भुजाणो मे शून, चक, कगा, कमन, चाप, बाण, फल और अंकुग होते है । काममाधिनी बधक पुष्प के ममान वर्ण वाली है और शंख, पद्म, फल एवं कमल धारण करती है। त्रिपुरभैरवा का वर्ण इन्द्रगोप के समान है। वह विलोचना है । उसके हाथों में पाग, चक्र, धनुष, बाण, खेट, खड्ग, फल और अम्बुज हुया करते हैं।
१. प्रतिष्ठामाराद्धार, ३/ ७७ २. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/६०-६८ ३. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७८ ४. निर्वाणलिका, पन्ना ३७ ५. अद्भुतपद्मावतीकल्प, ४/५२-५४ ६. भैरवपद्मावतीकल्प, १/२
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जन प्रतिमा विज्ञान
मिहारिका
चौबीमवे तीर्थकर महावीर स्वामी की यक्षी मिढायिका है । उमे सिद्धा. यिनी भी कहा जाता है । प्रवचनमारोद्धार मे उमका नाम केवल मिद्धा मिलता है । मिद्धायिका यक्षा का वर्ण दिगम्बरो के अनुमार म्वगा जैमा है पर नेमिचन्द्र ने इन्द्रनीलवर्ण का उल्लेख किया है । श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धायिका को हरित् वर्ण वाली माना गया है।
वमुनन्दि ने मिद्धायिका को भद्रासना, प्राशाधर ने भद्रासना और मिहगति, नेमिचन्द्र ने भद्रासना और हंसगति, अपराजित पृच्छाकार ने भद्रासना, रूपमण्डन मे मिहारूदा या मिद्धारूढा, निर्वाणकलिका और प्राचारदिनकर मे मिहवाहना एव अमरचन्द्र ने गजबाहना कहा है । दिगम्बरों के अनुमार यह यक्षी द्विभुजा है और श्वेताम्बरो के अनुसार चतुर्भुजा । अपगजिनपृच्छा मे द्विभुजा और रूपमण्डन मे चतुर्भुजा का विधान है ।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार, सिद्धायिका का दाया हाथ वरद मुद्रा में होता है और उसके बाये हाथ मे पुस्तक रहती है ।' अपराजितपच्छा में दायां हाथ अभयमुद्रा में और बाया हाथ पुस्तकयुक्त बताया गया है। श्वेताम्बर परम्परा के प्राचारदिनकर के अनुसार इस यक्षी के दाये हाथो मे पुस्तक और अभयमुद्रा तथा बाये हाथो मे पाश और कमल होते है । निर्वाणकलिका मे बाये हाथो में मातुलिंग और वीणा का विधान है।' रूपमण्डन मे वीणा के स्थान पर वाण का उल्लेख है जो संभवत: भूल है ।
शासन देवताओं की उत्पत्ति प्राचीनतम जैन साहित्य मे शासन देवतामों का विवरण नही मिलता। प्राचीनतम तीर्थंकर प्रतिमानो के साथ भी शासन देवतामो की प्रतिमाएं नही मिली है । इसके ज्ञात होता है कि जैन प्रतिमा निर्माण के प्रारभिक काल मे शासन यक्षो पौर यक्षियों की प्रतिमाएं निर्मित किये जाने की परम्परा नहीं थी।
१ प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५/६६-६७; प्रतिष्ठामारोदार, ३/१७८; प्रति
ष्ठातिलक, पृष्ठ ३४८. २. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७८ ३. निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
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शासन देवताओं की उत्पत्ति
श्री उमाकान्त परमानन्द शाह ने शासन देवतामों के जैन शासन में प्रवेश के संबंध में विस्तार से विवेचन किया है ।' उन्होंने बताया है कि अकोटा की कायोत्सर्ग ऋषभनाथ प्रतिमा के साथ प्रथम बार शासन देवताग्री की प्रतिमाएं देखी गयी है। वह प्रतिमा अनुमानत: ५५० ईस्वी के लगभग की कला. कृति है । उस पर उत्कीर्ण लेख में जिनभद्र वाचनाचार्य का उल्लेख है जिन्हें श्री शाह ने जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण से अभिन्न माना है। उपर्युक्त ऋषभनाथ प्रतिमा के साथ प्राप्त यक्ष और यक्षी का रूप क्रमशः कुबेर और अम्बिका जैसा है। श्री शाह का मत है कि नौवीं शताब्दी ईस्वी के अन्त तक सभी तीर्थकरों की प्रतिमानों के साथ कुबेर और अम्बिका की जोड़ी ही बनायी जाती रही है जैसाकि एलोरा तथा अन्य स्थानों को तीर्थकर प्रतिमाओं में देखा जाता है।
मध्यकाल में भारत में तांत्रिक युग प्राया। उसके प्रभाव से ही बौद्धों में वजयान सम्प्रदाय का निर्माण हुप्रा । तांत्रिक युग में नये नये देव और देवियों की कल्पना की गयी और उनकी पूजा का प्रचार-प्रसार हुमा। पुराने देवों को नये रूप दे दिये गये। पूर्व में जो देव द्विभुज थे, उनके हाथों की संख्या बढ़ी । अवलोकितेश्वर सहस्रभुज तक बन गये।
जैनों पर भी तांत्रिक युग का प्रभाव पड़ा । वैसे तो जैनों ने अपनी प्राचारविधि के मूल रूप की रक्षा करने का यथाशक्य प्रयास किया पर तंत्र उस समय युगधर्म बन चुका था, इसलिये जैन लोग उससे अछते नहीं बचे। जैनों को भी नये नये देवों और देवियों की कल्पना करनी पड़ी। सोमदेवसूरि ने स्वीकार किया है कि शासन की रक्षा के लिये परमागम में शासन देवताओं की कल्पना की गयी है।
जैनों की इतनी विशेषता अवश्य रही कि उन्होंने नये देवतानों को तीर्थंकरों के रक्षक और सेवक देवतामों के रूप में प्रस्तुत किया और तीर्थंकरो के देवाधिदेव पद की पूर्ण रूप से रक्षा की। तंत्र से प्रभावित जन प्राचार्यों ने ज्वालिनीकल्प और भैरवपदमावतीकल्प जैसी रचनाएं भी की और विशिष्ट चमत्कारों का प्रदर्शन किया।
१. प्रोसीडिग्ज एण्ड ट्रान्जेक्शन्स प्राफ दि अॉल इण्डिया मोरियण्टल
कान्फ्रेन्स, भुवनेश्वर, १९५६ २. वही, पृष्ठ १४२ ३. उपासकाध्ययन, ध्यानप्रकरण, श्लोक ६६७-६६
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जैन प्रतिमाविज्ञान
जयमेन ( वसुविन्दु) के प्रतिष्ठापाठ मे शासन देवो की अर्चा-पूजा का उल्लेख नहीं है पर श्राशावर के प्रतिष्ठामारोद्धार, नेमिचन्द्र के प्रतिष्ठातिलक, पादलिप्नमूरि की निर्वाणकलिका और वर्धमानमूरि के प्रचारदिनकर जैसे ग्रन्थों मे शासन देवताओ को यथोचित बनि प्रदान किये जाने का विधान किया गया है ।
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श्री उमाकान्त शह के अनुसार, आठवी शताब्दी ईस्वी में जैन साहित्य में, और नौवी शताब्दी ईस्वी मे जैन प्रतिमा निर्माण में शाभन देवताओ का प्रवेश हुआ। इतने पर भी सभी देव देवियों की कल्पना एक साथ नहीं, बल्कि क्रमण हुयी थी । श्वेताम्बर ग्रन्था मा मन देवताग्रा की सम्पूर्ण सूची सर्वप्रथम हेमचन्द्र के प्रभिधानचिन्तामणि में मिलती है। उन देवताम्री के स्वरूप मवधी विवरण निपटाकरूपचरित्र में उपलब्ध होते है ।
अम्बिका
दिगम्बर परम्परा के ग्रात्रयनिगन (८ वी शताब्दी) के हरिवशपुराण में अ र श्वेताम्बर परम्परा के बाप मूर की चतुविशतिना (८००८६५ ईस्वी) में अम्बिका का दणन मिलता है। तदनुस र वह देवी द्विभुजा है । जिनसेन आचार्य के उसी इलाक में अप्रतिचका का भी उल्लेख है ।"
हरिभद्रसूरि ने श्रावश्यकनिर्युक्ति का टीका में ५ भी श्रम्बा कूप्माण्डी विद्या का उल्लेख किया है पर उसके वाहन आदि का विवरण नहीं दिया है । इससे पूर्व मे भी विशेषावश्यक महाभाग्य की क्षमाश्रमण महत्तरीय टीका मे यस्मिन्मन्त्रदेवता स्त्री सा विद्या श्रम्बाकूपमाण्डया : उल्नख तो मिलता है पर
१. निलोयपण्णत्ती मे दी गयी यक्ष-यक्षियो को सूत्री के संबंध मे श्री शाह का मन है कि वह अश पश्चात्काल गे जोडा गया था ।
२. श्री शाह निर्वाणकलिका को ११ वी १२ वी शताब्दी की कृति मानते है ।
३. हरिवशपुराण, जिल्द २, मर्ग ६६, श्लोक ४४
४. गृहीतचक्राप्रतिचक्रदेवता तथोर्ज्जयन्तालय सिंहवाहिनी
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शिवाय यस्मिन्निह सन्निधीयते क्व तत्र विघ्नाप्रभवन्ति शान्त्यं ।। ५. श्लोक ६३१
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शासन देवताओं की उत्पत्ति
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अम्बिका या कूष्माण्डी का नाम विद्यादेवियों की सूची में नहीं मिलता।' इस प्रकार अम्बिका का उल्लेख पूर्व में मिलने लगा था; उसकी प्रतिमाएं ५५० ईस्वी के लगभग (संभवतः उममे पूर्व भी) निर्मित होने लगा थी। अम्बिका को प्राचीन प्रतिमाएं अकोटा, मेगुटि मंदिर ऐहोल, महुडी, ढाक और मथुरा में उपलब्ध हुयी है। सर्वानुभूति / सर्वात
कुवेर जैसे जिस यक्ष की प्रतिमाएं प्रायः सभी तीर्थकरों को प्रतिमानों के साथ देखी जाती है. उम यक्ष को श्री उमाकान्त गाह सर्वानभूति यक्ष से अभिन्न मानते है । प्रतिक्रमण मूत्र की प्रबाधा टीका' में सर्वानभूति यक्ष का वर्णन मिलता है । वह यक्ष दिव्य गज पर प्रारूढ़ कर विचरण किया करता है।
__तिलोय पण्णत्नी में अनेक स्थलों पर सर्वात नामक यक्ष की प्रतिमाओं (रूप) का उल्लेख किया गया है ।' बाद के प्रतिष्ठा ग्रन्थों में भी सर्वाण यक्ष का विवरण मिलता है। उसे भी दिव्य श्वेत गज पर प्रारूढ़ बताया गया है । वह जैन पूजा-यज्ञ प्रादि को रक्षा किया क ता है। अन्य शासन देवता
__ पाठवी शताब्दी ईस्वी में रचित भद्रेश्वरमूरि की कहावलो की स्थविरावली में विभिन्न शामन देवतामों का उल्लेख मिलता है पर उम ममय की कला में अम्बिका जैमी देवियों को छोड़कर अन्य गामन यक्षों या यक्षियों की प्रतिमाएं प्राप्त नही होती है । भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि की नवमुनिगुफा में जो कुछेक यक्षी प्रतिमाएं है, उनका काल नौवी शताब्दी प्रांका गया है ।
१. संभवत: वही अप्रतिचक्रा है। २. प्रबोधा टीका, जिल्द ३, पृष्ठ १७०
निप्पंकव्योमनीलद्युतिमलमदृशं बालचन्द्राभदंष्टम मतं घण्टारवेण प्रसूतमदजलं परयन्तं समन्तात् । मारूढ़ो दिव्यनागं विचरनि गगने कामद : कामरूपी
यक्ष : सर्वानुभूतिर्दिशतु मम सदा सर्वकार्येषु मिद्धिम् ।। ३. ४/१८८१ प्रादि ४. प्रतिष्ठातिलक, पन्ना EE
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जैन प्रतिमाविज्ञान
देवगढ़ किले के जैन मंदिर (क्रमांक १२ ) में यक्षियों की नामयुक्त प्रतिमाएं हैं। पर वे प्रतिमाएं भी नौवीं शताब्दी ईस्वी से पूर्व की प्रतीत नहीं होतीं ।
श्री उमाकान्त शाह का मन है कि ईस्वी १००० के पश्चात् ही यक्षों और यक्षियों की कल्पना विकसित हो सकी थी और बारहवी शताब्दी ईस्वी में दिगम्बर श्रौर श्वेताम्बर दोनों ही परम्परा की सूचियों ने पूर्णता प्राप्त कर ली थी ।
देवगढ़ की यक्षियां
देवगढ़ के जैन मंदिर में यक्षियों की प्रतिमानों के पट्ट पर उनके नाम उत्कीर्ण किये हुये हैं । उत्कीर्ण लेखों की लिपि ६५० ईस्वी के लगभग की प्रतीत होती है । उन नामों से ज्ञात होता है कि उस समय तक यक्षियों की एक सूची तैयार हो चुकी थी । देवगढ़ की यक्षीप्रतिमाएं दिगम्बर श्राम्नाय की हैं। इसलिये उनके नामों की तुलना तिलोयपण्णत्ती में प्राप्त नामों से करके क्रमिक विकास का अध्ययन किया जा सकता है । वे नाम इस प्रकार हैं:
क्रमांक तीर्थंकर
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
ε.
१०.
११.
१२.
१२.
१४.
१५.
१६.
१७.
ऋषभनाथ
अजितनाथ
संभवनाथ
श्रभिनन्दननाथ सरस्वती
सुमतिनाथ
पद्मप्रभ
सुपार्श्वनाथ
चन्द्रप्रभ
पुष्पदन्त
शीतलनाथ
श्रेयांसनाथ
वासुपूज्य
विमलनाथ
देवगढ़ की यक्षी
चक्रेश्वरी
अनंतनाथ
धर्मनाथ
शान्तिनाथ
कुन्थुनाथ
सुलोचना
सुमालिनी
बहुरूपी
श्रियदेवी
वह्निदेवी
प्रभोग रोहिणी
सुलक्षणा
अनंतवीर्या
तिलोयपण्णत्ती की यक्षो
चक्रेश्वरी
रोहिणी
प्रज्ञप्ति
वज्रशृंखला
वज्रांकुशी
अप्रतिचका
पुरुषदत्ता
मनोवेगा
काली
ज्वालामालिनी
महाकाली
गोरी
गांधारी
रोट्या
अनन्तमती
सुरक्षिता
श्रियदेवी या अनंतवीर्या मानसी
अरकरभि
महामानसी
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शासन देवतानों की उत्पत्ति
६०६
जया
अरनाथ तारादेवी १६. मल्लिनाथ भीमदेवो
मुनिमुव्रतनाथ - नमिन'थ नेमिनाथ अम्बिका
पार्श्वनाथ पद्मावती २४. महावीरस्वामी अपराजिता
wM
विजा
जिता बहामी कामागिनी सदमा मिदायिनी
२३.
नागौद के निकट प्राप्त पतानी या पता:न देवो के नाम से ज्ञात अम्बिका प्रतिमा के तीन प्रोर अन्य तेईम यक्षिषा का छाटी घाटी प्रतिमाएं निर्मित की गयी है। उन मन के माथ उनके नाम भी उत्को । यद्यपि उनमेसे कई नाम ठेक ठीक नही पड़े जा सके है पर उनमे यक्षियों के नाम एम प्रकार ज्ञात होते है :
बहुरूपिणी, चामुण्डा, सरस्वती, पद्मावती, विजया, अपराजिता, महामान मी, अनन्तमती, गाधारी, मानमी, ज्वालामालिनी, भाउमी, वज्रशृंखला, भानुजा ?, जया, अनन्तमती, वरोट्या, गौरी, महाकाली, काली, बुधदधी ?, प्रजापति ? बह्नि ?
श्री उमाकान्त शाह का विचार है कि उपर्युक्त यक्षी प्रतिमाए तिलो. यपण्णत्ती के अनुमार है और वे देवगढ़ की प्रतिमामा के निर्माण से पश्चात् की तथा प्राशाधर मे पूर्व की हैं। देवगढ में सरस्वती की चतुर्भुजा प्रतिमा १०७० ईस्वी मे निर्मित की गयी थी। वही ममय मुमालिनी की प्रतिमा का भी है । हिन्दू और बौद्ध प्रभाव
जैन शासनदेवताओं की सूची में ब्रह्म, कुमार, षण्मुग्व, वरुण, ईशान, चामुण्डा, चण्डा, काली, महाकाली, गौरी प्रादि अनेक नाम ऐसे हैं जो हिन्दू देववाद में भी हैं । उमी प्रकार, तारा, भृकुटि, विद्युन्ज्वालाकराली, वज]. खला, वज्राकुगा, अपगजिता जमे नाम बोद्धों की देवियो के है ।
तांत्रिक युग मे जनसमुदाय को अपने धर्म के प्रति आकृष्ट करने के लिये अपने देवताओं को उच्च और उत्कृष्ट दिग्वाना अावश्यक हो गया था। महायानी बौद्धों ने हिन्दू देवनामों को अपराजिता जमी देवियों द्वारा पददलित
१. अब इलाहाबाद मप्रहालयम मुराक्षन ।
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११०
जन प्रतिमाविज्ञान
किये जाने तक का प्रदर्शन किया था किन्तु जैनों ने पैसा न करके अन्य देवतामों को अपने तीर्थकरों के रक्षक देवताओं के रूप में स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं, तीर्थंकरों को भी ईशान, वामदेव, नत्पुरुष प्रादि नामों से विभूषित किया।
दूसरे ओर, ऐमी भी संभावना है कि जैनों और हिन्दुओं दोनों ने ही पूर्व परम्परा के कुछ देव-देवियों को समान रूप में स्वीकार कर लिया हो। कुछ भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि जनों के अनेक यक्ष और यक्षियां या तो हिन्दू देवतामों के नामों में साम्य रखते है या उनके रूप में । कही कहीं तो नाम और रूप दोनों में ही पूर्ण साम्य है । बौद्धों ने भी महाकाल, गणपति, सरस्वती, दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्ण, महेश्वर, कार्तिकेय, वाराही, चामुण्डा, भृगि, नन्दिकेश्वर आदि विभिन्न देवताओं के साथ यक्ष,,किन्नर, गंधर्व,विद्याधर, नक्षत्र, तिथिदेवता प्रादि को स्वीकार किया था । वैसे ही जैनों ने भी दिक्पालों, गणपति, भैरव आदि को अपने देववाद में सम्मिलित किया और उन्हें भी जैनी बना लिया ।
कुछ विशिष्ट यक्ष और देवियां शासनदवताओं के अलावा और भी अनेक विशिष्ट विशिष्ट यक्षों नया देवियों का उल्लेख और उनका वर्णन जैन ग्रन्थों में पाया जाता है । उन में दिगम्बर परम्परा के अनावृत और सर्वाह यक्ष तथा श्वेताम्बर परम्परा के ब्रह्मशान्ति और तुम्बरु यक्ष प्रमुख हैं । अनावत यक्ष
मनावत यक्ष व्यन्तर जाति के देवों में में है। उसका निवास मेरु पर्वत के ईशान भाग में, उत्तर कुरु के जंबू वृक्ष की पूर्व शाखा पर स्थित प्रासाद में बताया गया है । अनावृत यक्ष का वर्ण जलद के समान कृष्ण है । उसका वाहन पक्षीन्द्र गरुड है । अनावृत अपने चार हाथों में शंख, चक्र, कमण्डलु और प्रक्षमाला धारण करता है।'
१. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/२०१; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३६३
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विशिष्ट यक्ष और देवियां
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सर्वाल यक्ष
इस यक्ष की चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। अम्बिका से सम्बद्ध होने के कारण इसे गोमेध यक्ष का प्राद्य रूप कहा जा सकता है किन्तु इसका वाहन दिव्य श्वेत गज बताया गया है । सर्वाह्न यक्ष का वर्ण श्याम है । इसके मस्तक पर धर्मचक्र स्थित होता है जिसे वह अपने दो हाथों से पकड़े रहता है; अन्य दो ह थ बद्धांजलिमुद्रा में हुआ करते है । ब्रह्मगान्ति यक्ष
इस यक्ष का रूप तो विकराल है पर स्वभाव और कार्य अत्यन्त सौम्य । श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में इसके स्वरूप का वर्णन मिलता है। तदनुसार इसका वर्ण पिंग है। भद्रासन पर स्थिति और पादुकारूढ़ होना ब्रह्मशान्ति यक्ष की विशेषता है। इसके मस्तक पर जटामुकुट, विकराल दाढ़ें और कन्धे पर उपवीत होता है । यक्षके दायें हाथों मे प्रक्षसूत्र और दण्डक तथा बायें हाथों में कमण्डलु और छत्र होते है ।' तुम्बरु यक्ष
अर्हन्तदेव का प्रतीहार । जटामुकुटधारी, नर मुण्डमालाभूपित शिर, हाथ में खटवांग । इस यक्ष का नाम शासन यक्षों की सूची में भी मिलता है। शान्ति देवी
यह देवी धवल वर्ण की है । निर्वाणकलिका में एक स्थल पर 3 इसके अनेक हाथ बताये गये हैं जिनमें वह वरदमुद्रा, कमल, पुस्तक, कमण्डलु प्रादि धारण करती है किन्तु उसी ग्रन्थ में अन्य स्थल पर शान्ति देवता को कमलासना और चतुर्भुजा कहा गया है और उसके दायें हाथों के प्रायुध, वरद एवं प्रक्षसूत्र तथा बायें हाथों के प्रायुध कुण्डिका और कमण्डलु कहे गये है ।
१. निर्वाण कलिका, पन्ना ३८ २. निर्वाणकलिका, बिम्बप्रतिष्ठाविधि, पन्ना २० ३. बिम्बप्रतिष्ठाविधि, पन्ना १८ ४. पन्ना ३७
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जैन प्रतिमाविज्ञान
कुवेरा यक्षी
___ सकलचन्द्रगणी के प्रतिष्ठाकल्प (पृष्ठ २०) में इम यक्षी को नरवाहना और श्रतांका बताया गया है। यह मथुरा पुरी के मुपार्श्वस्तूप की रक्षिका यक्षी के रूप में प्रसिद्ध है। पष्ठी
प्राचारदिनकर में षष्ठी देवी का वर्ण श्याम और वाहन नर बताया है । षष्ठी का निवाम पाम्रवन में होता है। वह कदम्बवनों में विहार करती है । उसके दो पुत्र उसके माथ रहते है । कामचाण्डाली
मल्लिपेण ने कामचाण्डालीकल्प में इस तांत्रिक देवी के रूप का विचार किया है । वह कृष्णवर्णा, निर्वस्त्रा, मुक्त केशा, मर्वाभरणभूषिता और चतुर्भुजा है । उसके प्रायुध फलक, कलश, शाल्मलिदण्ड और सपं है ।
सर्व एव हि जनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ।।
१. उदय ३३, पन्ना १३
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प्रष्टम अध्याय
क्षेत्रपाल जन मन्दिरों मे क्षेत्रपाल की प्रतिमाएं स्थापित रहती है । उन्हे जिनमन्दिर का रक्षक माना जाता है । भट्ट प्रकलंक के प्रतिष्ठाकल्प में क्षेत्रपाल को जिनेश्वर और जैन मुनियो का भक्त एवं धर्मवत्सल कहा गया है । उन के जटामुकुट में जिनपूजा का चिह्न होना बताया गया है।'
नेमिचन्द्र ने क्षेत्रपाल को तैल से अभिषिचित कर सिंदूर से धूसरित किये जाने का विधान किया है। प्राचारदिनकर मे कुंकुम, तेल, सिन्दूर एवं लाल रंग के पुष्पों से क्षेत्रपाल की पूजा का विधान है। भट्ट अकलंक के प्रतिष्ठाकल्प में वर्णन है कि तैललिप्त विग्रह और सिदूराकिन मौलि के कारण क्षेत्रपाल अंजनाद्रि के समान दिखायी पड़ते है।
क्षेत्रपाल की प्रतिमाएं कार्यरूप भी होती है और लिगरूप भी।' खजुराहो के शान्तिनाथ मंदिर मे क्षेत्रपाल की चन्देलकालीन कायरूप प्रतिमा है जिस पर उनका नाम भी उत्कीर्ण है। अनेक जैन मंदिरो में लिगरूप क्षेत्रपाल प्रतिष्ठिन है।
प्राशाधर के अनुसार क्षेत्रपाल का अलंकरण नाग, और वाहन श्वान है । भट्ट अकलंक ने क्षेत्रपाल के नग्न, सारमेयममारूढ, नागविभूषण, त्रिलोचन रूप का वर्णन किया है । आगाधर के अनुसार, क्षेत्रपाल के उपरले दो हाथों में तलवार और ढाल, नीचे के दाये हाथ म काला कुत्ता और नीचे के ही बायें
१. हिन्दुनों में क्षेत्रपाल को शिव का रूप माना गया है। रूपमण्डन
(५/७४-७५) के अनुसार क्षेत्रपाल नग्न एवं घण्टाभूषित होते हैं । उनकी जटाए मर्प मोर मुण्डमाला मे ग्रथित होती है। उनका यज्ञोपवीत भी मुण्डग्रथित होता है । उनके दायें हाथों के प्रायुष कतिका और डमरू तथा बाये हाथों के प्रायुध शूल पौर कपाल बताये गये है। २. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ११५-१६ ३. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना २१०
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जैन प्रतिमाविज्ञान
हाथ में गदा रहती है।' नेमिचन्द्र ने भी उपरले हाथों में तलवार और ढाल तथा निचले हायों में काला कुत्ता और गदा, इन्हीं प्रायुधों का होना बताया है।' भट्ट प्रकलंक के प्रतिष्ठाकल्प में स्वर्णपात्र, गदा, डमरू और धेनुका ये चार प्रायुष कहे गये हैं। उनमें स्वर्णपात्र की कल्पना बिलकुल नवीन प्रतीत होती हैं और वह प्राशाधर एवं नेमिचन्द्र द्वारा दिये गये विवरणों से भिन्न है।
प्राचारदिनकर में क्षेत्रपाल के रूप का वर्णन बिस्तार से किया गया है। वह वर्णन प्रायः वैसा ही है जो हिन्दू परम्परा के शिल्प ग्रन्थों में मिलता है। प्राचारदिनकर के अनुसार, क्षेत्रपाल की बीस भुजाएं हैं। वे कृष्ण, गौर, काञ्चन, धूसर मोर कपिल वर्ण के हैं। क्षेत्रपाल के अनेक नाम हैं जिनमें से एक प्रेतनाथ भी है। बर्बर केश, जटाजूट, वासुकि का जिनयज्ञोपवीत, तमक की मेखला, शेष (नाग) का हार, नाना-प्रायुध, सिंह चर्म का प्रावरण, प्रेत का मासन, कुक्कुरवाहन, त्रिलोचन, प्रानंदभैरव आदि प्रष्ट भैरवों से युक्त तथा चौसठ जोगिनियों के बीच स्थिति, यह क्षेत्रपाल का रूप है जो प्राचारदिनकर में वर्णित है।
निर्वाणकलिका में कहा है कि क्षत्र के अनुसार क्षेत्रपाल के भिन्न-भिन्न नाम हुमा करते हैं । उसी ग्रन्थ के अनुसार, क्षेत्रपाल श्यामवर्ण, बर्बर केश, प्रावृत्तपिंगनयन, विकृतदंष्ट्रा, पादुकारूढ़ पोर नग्न होते हैं। उनके दायें हाथों में मुद्गर, पाश और डमरू तथा बायें हाथों में श्वान, अंकुश और गेडिका, ये प्रायुध होते हैं। निर्वाणकलिका में क्षेत्रपाल का स्थान जिनेन्द्र भगवान् के दक्षिण पार्श्व में ईशान की पोर दक्षिण दिशामुख बताया गया है । प्रमृतरत्नसूरि ने माणिभद्र भारती में मणिभद्र क्षेत्रपाल के छह हाथ और उन हाथों के प्रायुध ढक्का, शूल, दाम, पाश, अंकुश मोर खड्ग कहे है । गणपति
गणपति या गणेश ने हिन्दुनों में ही नहीं, अपितु बौद्धों और जनों में भी प्रतिष्ठा प्राप्त की है। प्रारंभ में जनों ने उन्हें गणधर के रूप में मान्यता दी थी। प्राचारदिनकर (पन्ना २१०) में विद्यागणेश को द्विभुज, चतुर्भुज, षभुज, नवभुज, अष्टादशभुज पोर यहां तक कि १०८ भुजा युक्त भी कहा है।
१. प्रतिष्ठासारोबार, ६/५५ २. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ११५-१६ ३. उदय ३३, पत्रा १८१ ४. निर्वाणकलिका, पन्ना ३८-३९
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नवम प्रध्याय
अष्ट मातृकाएं इन्द्राणी, वैष्णवी, कौमारी, वाराही, ब्रह्माणी, महालक्ष्मी, चामुण्डी पौर भवानी इन आठ देवियों की ख्याति मात का नाम से है। इनमें से प्रथम चार की स्थापना दिशामों में मोर अन्य चार की स्थापना विदिशामों में की जाती है । जैन ग्रंथों में मातृकानों के रूप का लगभग वैसा ही वर्णन प्राप्त होता है जैसा कि हिन्दू शिल्प ग्रंथों में है । कही कही चामुण्डा और महालक्ष्मी को छोड़कर छह मातृकाएं भी बतायी गयी हैं । शिल्प शास्त्रो मे मातृकामों की सामान्य संख्या सात ही है पर कभी कभी वह संख्या सोलह तक बता दी जाती है। इन्द्राणी
इन्द्राणी की स्थापना पूर्व दिशा में की जाती है । उसका वर्ण सोने के समान है । वह ऐरावत गज पर प्रासीन रहती है । इन्द्राणी का प्रमुख प्रायुष वज है।' वैष्णवी
वैष्णवी की स्थापना वेदी की दक्षिण दिशा में की जाती है । वह देवी गरुडवाहना एवं नील वर्ण की मानी गयी है । वैष्णवी का मुख्य प्रायुध चक्र है।' प्राचारदिनकर में उसे श्याम वर्ण की तथा शंख, चक्र, गदा और शार्ष (खड्ग) धारिणी कहा है।' कौमारी
वेदी की प्रतीची दिशा में स्थित कौमारी प्रचणमूर्ति, विद्रुम वर्ण, मयूरवाहना और खगधारिणी है।' प्राचारदिनकर में उसे गौरवर्ण पौर पण्मुखा बताते हुए उसके प्रायुध शूल, शक्ति, वरद मोर प्रभय, ये चार कहे गये हैं।
१, प्रतिष्ठातिलक, प.ष्ठ ३६५ । प्राचारदिनकर, उदय ६, पन्ना १३ २. प्रतिष्ठातिलक, पन्ना ३६५ ३. उदय ६, पन्ना १३ ४. प्रतिष्ठातिलक, पन्ना ३६५ ५. उदय ६, पन्ना १३
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११६
जन प्रतिमाविज्ञान
वाराही
उत्तर दिशा में स्थापित की जाने वाली वाराही का वर्ण श्याम है। वह वन्य वाराह पर सवारी करती है । उसके प्रायुध अभय और सीर (हल) हैं ।' प्राचारदिनकर में वाराही का वाहन शेष (नाग), मुख वराह का तथा प्रायुध चक्र और खड्ग बताए गये है।' ब्रह्माणी
ब्रह्माणी की स्थापना प्राग्नेय दिशा में की जाती है । उसका वर्ण पद्म जैसा लाल और यान भी पद्म ही है । ब्रह्माणी के हाथ में मुद्गर होता है।' प्राचारदिनकर के अनुसार ब्रह्माणी का वर्ण श्वेत, वाहन हंम एवं आयुध वीणा, पुस्तक, पद्म प्रौर अक्षसूत्र है ।' महालक्ष्मी /त्रिपुरा
भट्ट अकलंक के प्रतिष्ठाकल्प में महालक्ष्मी, नेमिचन्द्र के प्रतिष्ठातिलक में लक्ष्मी और प्राचारदिनकर में त्रिपुरा के नाम से इस मातृका का वर्णन है । नेमिचन्द्र के अनुसार लक्ष्मी दक्षिण-पश्चिम कोण में स्थित होती है। उसका वर्ण श्वेत, वाहन उलूक और मुख्य प्रायुध गदा है ।५ प्राचारदिनकर मे त्रिपुरा का वर्ण श्वेत, वाहन सिंह तथा मायुध, पन, पुस्तक, वरद और अभय बताये गये हैं।
चामुण्डा
चामुण्डा या चामुण्डिका को वेदी के उत्तर-पश्चिम कोण मे स्थापित किया जाता है। मध्याह्न के सूर्य के समान दीप्त चामुण्डा प्रेतवाहना है । उसके मायुध दण्ड एवं शक्ति बताये गए हैं। प्राचारदिनकर के अनुसार चामुण्डा का वर्ण धूसर और वाहन प्रेत है । उसका सम्पूर्ण शरीर शिराजाल से
१. प्रतिष्ठातिलक, पन्ना ३६६ २ उदय ६, पन्ना १३ ३. प्रतिष्ठातिलक, पन्ना ३६६ ४. उदय ६, पन्ना १२ ५. प्रतिष्टातिलक, पन्ना ३६६ ६. उदय ६, पन्ना १३ ७. प्रतिष्ठातिलक, पन्ना ३६६
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अष्ट मातृकाएं
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कराल दिखायी पड़ता है; केशों से ज्वालाएं निकलती हैं । चामुण्डा त्रिनयना है । शूल, कपाल, खड्ग और प्रेतकेश (मुण्ड) इन्हें वह अपने हाथों में धारण करती है। भवानी /माहेश्वरी
वेदी के पूर्वोत्तर कोण में माहेश्वरी का स्थान होता है जिसे भवानी और रुद्राणी भी कहा जाता है। भवानी का वर्ण श्वेत, वाहन शाक्कर और मायुध भिण्डिमाल है। प्राचारदिनकर के अनुसार माहेश्वरी के प्रायुध, शूल, पिनाक, कपाल और खट्वांग हैं । माहेश्वरी का वर्ण श्वेत, वाहन वृषभ और नेत्र तीन हैं । उसके ललाट पर प्रर्धचन्द्र बताया गया है । गजचर्म गे प्रावृत माहेश्वरी शेषनाग की मेखला धारण करती है । 3
१. उदय ६, पन्ना १३ २. प्रतिष्ठातिलक, पन्ना ३६६ ३. देवीमाहात्म्य आदि जैनेतर कृतियो में नारमिही को भी मातृकानों
की सूची में सम्मिलित किया गया है किन्तु वह रूपमण्डन की सूची में नहीं है।
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दशम अध्याय
दस दिक्पाल जैन परम्परा में दिक्पालों की संख्या दस बतायी गयी है । ऊर्ध्व पोर प्रषो दिशामों के दिक्पालों की कल्पना जैनों की अपनी विशेषता है ।
कुछ विद्वान् दिक्पालों की कल्पना का प्राधार वैदिक संहिता को मानते है।' वैदिक देववाद में इन्द्र, अग्नि, वरुण, पवन, नैऋत्य प्रादि को महत्त्व का स्थान प्राप्त था पर जब पौराणिक देववाद को प्रधानता मिली तो वैदिक देवों का स्थान गौण हो गया और पन्ततोगत्वा वे दिक्पालों की श्रेणी में मा गये।
बताया जाता है कि प्रारंभ में चार ही दिक्पालों की गणना की जाती थी। पश्चात्काल में उनकी संख्या माठ हो गई। ऐसा भी मत है कि मष्ट दिक्पालों की पूर्व सूची में कुबेर और ईशान नहीं थे। उनके स्थान पर सूर्य पोर चन्द्र की गणना की जाती थी।
जैनों की प्रारंभिक सूची में भी चार लोकपालों या दिक्पागों का नाम मिलता है। तिलोयपण्णत्ती (तृतीय महाधिकार ) में उल्लेख है कि भवनवासी देवों के इनों के सोम, यम, वरुण पोर घनद (कुबेर) नाम के चार लोकपाल होते हैं । जंबूदीपपग्णत्तिसंगहो' में सौधर्मकल्प के नगरों की चारों दिशामों में यम, वरुण, सोम और कुबेर इन चार लोकपालों के निवास का उल्लेख है। वे इन्द्र के प्रतीन्द्र हुमा करते हैं । इस प्रकार सोम या चन्द्र को लोकपाल मानने की जैन मान्यता अधिक प्राचीन जान पड़ती है ।
विष्णुधर्मोत्तर ने चतुर्भुज लोकपालों को कल्पना की थी। अपराजितपृच्छा और रूपमण्डन जैसे ग्रन्थों में चतुर्भुज लोकपालों की परम्परा का निर्वहन किया गया किन्तु मग्निपुराण', मानसोल्लास" प्रोर बृहत्संहिता' प्रादि से ज्ञात होता है कि लोकपालों के विभज होने की मान्यता अधिक प्राचीन है। जैन परम्परा में भी दिक्पालों को विभुज माना गया है ।
१. बनर्जीः डेवलपमेण्ट माफ हिन्दू आइकोनोग्राफी, पृष्ठ ५२१ २. उद्देश्य ११, २१६-२१७ । ३. ३/५०-५३
५. १/३/७७२-७९८ ६. ५७/४२/५७
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बस दिक्पाल
११९
जैनों ने अग्नि को रक्तवर्ण, यम, नैर्ऋत्य और पवन को श्यामवर्ण, वरुण, ईशान, चन्द्र और धरणेन्द्र को श्वेत वर्ण तथा इन्द्र और कुबेर को स्वर्ण के समान पीत वर्ण माना है । श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्र के स्थान पर ब्रह्मा को कध्वं दिशा का अधीश्वर कहा गया है जिसका वर्ण सुवर्ण के समान है। वाहन
दिक्पालों के वाहनों के संबंध में जैनों की मान्यता प्राय: अग्निपुराण के' विधान से मिलती-जुलती है । केवल कुबेर के वाहन के संबंध में भिन्नता है। मग्नि पुराण में कुबेर को मेषस्थ बताया गया है। पर दिगम्बर जैन परम्परा के ग्रन्थों में उसे पुष्पक विमान में पासीन और श्वेताम्बर परम्परा के प्राचारदिनकर में नरवाहन कहा गया है । वसुनन्दि, माशापर और नेमिचन्द्र ने वरुण का वाहन करिमकर कहा है जबकि अग्निपुराणमें वह मकर बताया गया है । पषिकतर प्रतिमानों में वरुण का वाहन करिमकर रूप में मिलता है ।
__दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार ऊर्ध्व दिशा का लोकपाल सोम या चन्द्र सिंहासनारूढ़ होता है । श्वेताम्बर जैन परम्परा का ब्रह्मा हंसारूढ़ बताया गया है। प्रधोदिशा के लोकपाल नागेन्द्र धरण की सवारी प्राशाधर मौर नेमिचन्द्र ने कच्छप बतायी है पर प्राचारदिनकर के अनुसार धरणेन्द्र पद्म पर मासीन है और कृष्ण वर्ण का है । पायुध
दिगम्बर ग्रन्थों में इन्द्र को वजी एवं अग्नि को पक्षसूत्र प्रौर कमण्डलु युक्त माना गया है । प्राचारदिनकर के अनुमार अग्नि के हाथों में धनुष और बाण होते हैं । निर्वाणकलिका ने धनुष के स्थान पर शक्ति बतायी है । मत्स्यपुराण में अग्नि के आयुध प्रक्षसूत्र और कमण्डलु बताये गये हैं पर प्रग्निपुराणमें पग्नि को शक्तिमान् ही कहा है ।
यम दण्डी हैं पर उनके द्वितीय प्रायुध के संबंध में मतवैषम्य है। पाशापर ने वह प्रायुध धनुष कहा है पर नेमिचन्द्र ने नाग। मत्स्यपुराण में पमके भायुष दण्ड मोर पाश बताये गये हैं ।
१. पग्निपुराण,५१/१४-१५ २. वही, ५१/१५ ३. नरवाहन कुबेर की परम्परा मत्स्यपुराण और विष्णुधर्मोत्तर की है।
मत्स्यपुराणमें अग्निका वाहन प्रर्षचन्द्र है।
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________________ 120 जैन प्रतिमाविज्ञान नैऋत्य को जैन परम्परा में मुद्गरधारी बताया गया है / मत्स्यपुराण प्रादि में वे ग्खड्गधारी हैं / निर्वाणकलिकाकार ने नैर्ऋत्य को खड्गधारी कहा वरुण के हाथ में नागपाश या पाश होता है। वसुनन्दि आदि ने पवन का मायुध महावृक्ष बताया है पर आचारदिनकरकार ने पवन को ध्वजधारी कहा है जैसा कि अग्नि पुराण और मत्स्यपुराण में है / __अग्निपुगण में कुबेर का प्रायुध गदा बताया गया है। जैन लोग भी वैसा ही मानते है / प्राशाधर ने गदा और वसुनन्दि ने शक्ति प्रायुध का उल्लेख किया है। प्राचारदिनकरकार धनद को रत्नहस्त पर निर्वाणकलिकाकार कुबेर को गदापाणि कहते है। ईगान गूल या त्रिशूल धारी है / प्राशाधर के अनुसार उनके द्वितीय हस्त में कपाल किन्तु आचारदिनकरकार के अनुसार पिनाक होता है / चन्द्र के प्रायुध भाला और धनुष है / ब्रह्मा के हाथों में पुस्तक और कमल होते हैं। धरणेन्द्र अंकुश और पाश धारण करते हैं / प्राचार दिनकर और निर्वाणकलिका के अनुसार उनके हाथ में सर्प होता है / दिक्पालों की पत्नियां / शची, स्वाहा, छाया, निर्ऋति, वरुणानी, वायुवेगी, धनदेवी, पार्वती, रोहिणी और पद्मावती, ये क्रमशः इन्द्र, अग्नि, छाया, नैर्ऋत्य, वरुण, वायु कुबेर ईशान, सोम और धरणेन्द्र की पत्नियां कही गयी हैं / ब्रह्मा की पत्नी का उल्लेख नहीं है / विष्णुघत्तिर में यम की पत्नी धमोर्णा और कुबेर की पत्नी ऋद्धि कही गयी है। दिक्कुमारिकाएं हिमवान्, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी, इन छह कुलाचलो पर स्थित पद्म, महापद्म, निगिंछ, केसरी, पुण्डरीक पोर महापुण्डरीक ह्रदों के मध्य में स्थित अति विस्तीर्ण कमलो पर क्रमशः श्री, ह्री, धृति, कीत्ति, बुद्धि और लक्ष्मी, ये देवकन्याएं अपने सामानिक और पारिषत्कों के साथ निवास करती हैं / ये तीर्थंकरों के गर्भ में आने पर जननी की सेवा किया करती हैं. यथा श्री चामर ढलाती है, ह्री छत्र तानती है आदि आदि / 1. जंबूदीपपण्णांतसंगहो, 3/66 2. वही, 3/78
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दिक्कुमारिकाएं
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उपर्युक्त देवियों मे से ह्री का वर्ण लाल बताया गया है। अन्य देव कन्याएं सुवर्ण के समान पीतवर्ण की है। नेमिचन्द्र ने इन देवियों को पुष्पमुखकलशकमलहस्ता लिखा है पर वसुनन्दि ने उन्हें पुष्पमुम्बकमल हस्ता और चतुर्भुजा बताया है। प्राशाधर ने भी उसी प्रकार का वर्णन किया है।
तीर्थकर जननी की सेवा करने वाली छप्पन दिक्कुमारियो का भी उल्लेख जैन ग्रन्थों में मिलता है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में उनकी सूची निम्न प्रकार दी गयी है। आठ अधोलोकवासिनी : भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, तोयधारा
(सुव्रता), विचित्रा (वत्समित्रा), पुष्पमाला और
अदिता (नंदिता) पाठ ऊर्ध्वलोकवासिनी : मघंकरा, मेघवनी, मुमेधा, मेधमालिनी, तोयधारा,
विचित्रा, वारिपेणा मौर बलाहिका आठ पूर्व रुचकाद्रि स्थित : नंदा, उत्तरानंदा, पानंदा, आनंदवर्धना, विजया,
वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता अाठ दक्षिण रुचकाद्रि स्थित : ममाहाग, सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीवती,
शेषवतो, चित्रगुप्ता और वसुधरा पाठ पश्चिम रुचकाद्रि स्थित : इलादेवी, मुरादेवी, पृथिवी, पद्मवती, एकनासा,
अनवमिका, भद्रा और अशोका पाठ उत्तर रुचकाद्रि स्थित : अलंबुगा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका, वारुणी, हासा,
मर्वप्रभा, श्री, ह्री चार विदिक रुचक सैल से : चित्रा, चित्रकन का, सतेरा और मौत्रामणी चार रुचक द्वीप से : रूपा, रूपांशिका, सुरूपा और रूपकावतो।
१. वसुनन्दि/६ २. पर्व १, सर्प ।
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एकादश अध्याय
नव ग्रह सकलचन्द्र गणी के प्रतिष्ठाकल्प मे आदित्य, चन्द्र, भौम, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु क्रमश: छठे तीर्थकर पद्मप्रभ, अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभ, द्वादश तीर्थकर वासुपूज्य, षोडश तीर्थकर शान्तिनाथ, प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ, नवम तीर्थकर मुविधिनाथ, बीमवे तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ, बाईसव तीर्थंकर नेमिनाथ और तेईमवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के शासनवामी कहे गये हैं । प्राचारदिनकर' के अनुसार मार्तण्ड (सूर्य) की शान्ति के लिये पद्मप्रभ की, चन्द्र की शान्ति के लिये चन्द्रप्रभ की, भूमिपुत्र, (मंगल) की शान्ति के लिये वासुपूज्य की, बुध की शान्ति के लिये प्रष्ट जिनेन्द्र – विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, मरनाथ, नमिनाथ और वर्धमान-की, बहम्पति की शान्ति के लिये ऋषभनाथ, अजितनाथ, मंभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ. सुपार्श्वनाथ, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ की, शुक्र की शान्ति के लिये सुविधिनाथ की, दानि की शान्ति के लिये मुनिसुव्रतनाथ की, गहु की गान्ति के लिये नेमिनाथ की और केतु की शान्ति के लिये मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ की पूजा करनी चाहिय ।
ग्रहों को सभी भारतीय धर्मो ने किमी न किसी रूप में मान्यता दी है। जैन परम्परा में पूर्व में पाठ ग्रहा की गणना की जाती थी। पश्चात्काल में उनकी संख्या नव हयी। जे० एन० बनर्जी का मत है कि भारतीय मूर्ति विधान मे अन्तिम ग्रह केतु बाद में जोड़ा गया था।'
प्राचारदिनकर ने सूर्य को पूर्व दिशा का अधीश, चन्द्र को वायव्य दिशा का, मंगल को दक्षिण दिशा का, बुध को उत्तर का, गुरु को ईशान का, शुक्र को प्राग्नेय का, शनि को पश्चिम का और राहु को नैर्ऋत्य दिशा का अधीश बताया है जबकि उक्त ग्रन्थ के अनुसार केतु राहु का प्रतिच्छन्द है। सकलचन्द्र गणी के प्रतिष्ठाकल्प में चन्द्र को प्रतीची पौर मंगल को वारुण दिशा से सम्बद्ध किया गया है।
१. उदय ३५, शान्त्यधिकार । २. बौद्धों ने भी नवग्रहों को स्वीकार किया है । ३. डेवलपमेण्ट प्राफ हिन्दू आइकोनोग्राफी, पृष्ठ ४४४ ।
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नव ग्रह
१२३
निर्वाणकलिका के अनुसार' सूर्य हिंगुलवर्ण, सोम और शुक्र श्वेतवर्ण, मंगल रक्तवर्ण, बुध और गुरु पीतवर्ण, शनि ईषत्कृष्ण, राहु प्रति कृष्ण और केतु धूमवर्ण है । प्राचारदिनकर में सूर्य २ को स्फटिक के समान उज्ज्वल बताया गया है । सूर्य के वस्त्रों का रंग लाल, चन्द्र के श्वेत, मंगल के लाल, बुध के हरित, बृहस्पति के पीत, शुक्र के श्वेत, शनि के नील तथा राहु और केतु के वस्त्रों का रंग श्याम कहा गया है ।
वाहन
भूमि
बुध
na
प्राचारदिनकर में ग्रहों के वाहन इस प्रकार बताये गये है
सप्ताश्व रथ चन्द्र
प्रश्व मंगल
कलहंस बृहस्पति हम शुक्र
प्रश्व शनि
कमठ गट
पन्नग सकलचन्द्र गणी ने सूर्य को गज वृषभसिंहतरग वाहन, मोम को मृगवाहन, भौम को गजवाहन, बुध को केसरीवाहन, बृहस्पति को हंसगरुडवाहन, शुक्र को शूकरवाहन और शनि को मेषवाहन कहा है । पंडित परमानंद की सिंहासनप्रतिष्ठा में ग्रहों के वाहन भिन्न प्रकार से बताये गये है। भजाए
सभी ग्रह द्विभज निम्पित किए गए है। निर्वाणकलिका के अनुसार सूर्य के दोनों हाथां म कमल हैं । प्रर्धकायरहित राहु के दोनो हाथ अर्घ मुद्रा में होते है । अन्य सभी ग्रह अक्षमूत्र एवं कुण्डिका धारी है। सिहासनप्रतिष्ठा में ग्रहो के प्रायुध भिन्न बताये गये है, यथा मोम कुन्तधारी,मंगल त्रिशूलधारी, बृहस्पति पुस्तकधारी, शुक्र महिधारी अादि आदि । प्राचारदिनकर ने सूर्य को कमलहस्त, चन्द्र को सुधाकुम्भहस्त, मंगल को कुद्दालहस्त, बुध को पुस्तकहस्त, शुक्र को कुम्भहस्त, शनि को परशुहस्त, राहु को भी परशुहस्त और केतु को
१. पन्ना ३८ २. उदय ३३, पन्ना १८१ ।
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________________
१२४
जैन प्रतिमाविज्ञान
पन्नगहस्त बताया है।
__ मूल जैन परम्परा में सूर्य चन्द्र आदि को ज्योतिष्क देवों के समूह में सम्मिलित किया गया है । ज्योतिष्क देवों के पांच समूह हैं, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारा ।' चन्द्र ज्योतिष्क देवों का इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र है । प्रत्येक चन्द्र के अठासी ग्रह बताये गए हैं जिनमें से बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल और शनि ये प्रथम पांच हैं।' प्रत्येक चन्द्र के २८ नक्षत्र होते हैं।' नक्षत्रों के प्राकार का वर्णन तिलोयपण्णत्ती में है । नेमिचन्द्र के अनुसार चन्द्र मिहाधिरूढ़ और कुन्त (भाला)धारी है । सूर्य अश्वारूढ़ है ।'
१. उदय ३३, पन्ना १८१ । २. तिलोयपण्णत्ती, ७। ३. वही, ७।१४-२२ ४. वही, ७।२५-२८ ५. वही, ७।४६५-४६७ ६. नेमिचन्द्र ने (प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३१६-३२२) यक्ष, वैश्वानर, राक्षस, नधृत, पन्नग, असुर, सुकुमार, पितृ, विश्वमालिनि, चमर, वैरोचन, महाविद्यामार, विश्वेश्वर, पिंडाशी, ये पंद्रह तिषिदेव बताये हैं।
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________________
परिशिष्ट एक
तालिका षोडश विद्यादेवियां
___
नाम
परम्परा शरीर का वाहन
वर्ण
भजाम्रो की संख्या
दिग० मुवर्ण कमलामना चार
नील अश्व
चार
श्वेत मयूर
दो
. . .
कना, बांख, कमल, बीजपूर धनुष, बाण, शंख, अक्षमूत्र चक्र, खड्ग, कमन, फल वरद, शक्ति, मातुलिंग, शक्ति, शक्ति और कमल वज, शृंखला वजशृंखला, शंख, कमल, बीजपूर शृंखला और गदा वरद, श्रृंखला पद्म, शृंखला अकुश, कमल, बीजपूर, वीणा नलवार, वज, ढाल, माला वरद, वज्र, मातुलिंग, अंकुश
.
. .
४. वज्राकशा
". .
१२५
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________________
दिग० सुवर्ण केकि वेल सुवर्ण गरुड
___चार
खड्ग, भाला, कमल, बीजपूर चारों भुजायोंमें चक्र
५. जांबूनदा
अप्रतिचका
(चत्रेश्वरी) ६ पुरुषदत्ता
चार
दिग० खेत कोक श्वे० सुवर्ण माहिती
,
७. काली
दो
श्वे. कृष्ण पन खे० कृष्ण पद दिग० श्याम शरम
६. महाकाली
वन, कमल, शंख, फल खड्ग प्रार ढाल वरद, असि, मातुलिंग, खेटक मूसल, प्रसि, पद्म, फल गदा और वन ग्राक्षसूत्र, गदा, वन, अभय धनुष, बाण, खड्ग, फल प्रक्षसूत्र, वज्र, अभय, घण्टा अक्षसूत्र, वन, फल, घण्टा कमल ग्रादि चार वरद, मूसल, मक्षमाला, कुवलय चक्र और खड्ग मूसल और वज वरद मूसल, अभय, वज धनुष, वाण, खड्ग, खेटक, चक्र प्रादि विभिन्न प्रायुध
दिश० सुवर्ण गोधा
चार
१७. गांधारी
दिग० श्याम कच्छप खे० श्याम कमल
दो दो
जैन प्रतिमाविज्ञान
११. ज्वालामालिनी दिग० श्वेत महिष
ज्वालावे वेत वराह ___अनेक
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________________
ज्वाला० श्वेत मार्जार १२. मानवी दिग० नील शुकर
षोडश विद्यादेवियां
दिग० नील
श्वे० श्याम श्वे० गौर मिह दिग० सुवर्ण प्रश्न वे० विद्युत्वर्ण अश्व श्वे० विद्युत्वर्ण अश्व दिग० रक्त सर्प श्वे० सुवर्ण हम
दो दोनों भुजानों में ज्वाला चार मत्म्य, खड्ग, त्रिशूल, X
वरद, पाश, अक्षसूत्र, वृक्ष
दो सर्प, दो हाथ प्रणाममुद्रामें ___ खड्ग, सर्प, ढाल, सर्प चार खडग, ऊर्ध्वहस्त, सर्प ? वरद
खड्ग, वज़, दो हाथ प्रणाममुद्रामें बाण, खड्ग, धनुष, ढाल वाण, खड़ग, ढाल, सर्प दो हाथ प्रणाममुद्रामें वरद, वज्र वरद, बज्र, प्रक्षमूत्र, प्रशनि
अक्षमाला, माला, वरद, अंकुश चार दो हाथ प्रणाममुद्राम चार वरद. अमि, कुण्डका, ढाल
–
Ho .
१६. महामानसी
ཡྻ ཀྐཱ
दिग० विद्रम
हम
. #
१२७
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________________
तालिका २ चतुर्विशति शासन यक्ष
१२८
परम्पग
शरीर का
वाहन
भुजाओं की संख्या
प्रायुध
विशेष
वर्ण
१.
गोमुख
दिगः
सुवर्ण
वृषभ
चार
गज
चार
सुवर्ण ___ मुवर्ण
गज
प्राठ
श्याम
गज
पाठ
परशु, बीजपूर. प्रक्षमूत्र, वरद गोवक्त्र और मस्तक
पर धर्मचक्र __ वरद, अक्षसूत्र, पाश, बीजपूर
खड्ग, दण्ड, परशु, वरद, चक्र, चतुर्मुख गिगुल, कमल, अंकुश वरद, मुद्गर, पाश, अक्षसूत्र, अभय, बीजपूर, अंकुश, शक्ति दण्ड, त्रिशूल, कतिका, चक्र, त्रिमुख, त्रिलोचन असि, मृणि नकुल, गदा, अभय, बीजपूर, प्रक्षसूत्र, नाग बाण, खड्ग, धनुष, ढाल अक्षमूत्र, बीजपूर, नकुल, अंकुश
___३.
त्रिमुख
दिग०
श्याम
मयूर
___छह
श्याम
मयूर
छह
४.
जन प्रतिमाविज्ञान
यक्षेश्वर ईश्वर
श्याम
दिग० श्वे०
गज गज
चार चार
श्याम
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________________
५.
तुम्बरु
दिग०
श्याम
गड
चार
सर्पयज्ञोपवीत
श्वे.
श्वेत
गरुड
चार
६.
चार
पुष्प कुसुम मातंग
श्याम नील
चतुर्विशति शासन यक्ष
श्व०
चार
दिग.
श्याम
मिह
वक्रतुण्ड
श्वे.
नील
चार
८,
श्याम
दिग०
श्याम
कपोत
चार
विजय
श्वे.
नील
६.
अजित
श्वेत
चार
दिग० श्वे०
दो हाथों मे सर्प, वरद, फल वरद, शक्ति, गदा, नागपाश खेट, अभय, कुन्न, वरद फल, अभय, नकुल, अक्षमूत्र शूल, दण्ड विल्व, पाश, नकुल, अंकुश अक्षमूत्र, वग्द, परशु, फल चक्र और मुद्गर अक्षसूत्र, बरद, शक्ति, फल बीजपूर, अक्षसूत्र, नकुल, कुन्त वाण, अनुप, परशु, दण्ड, तलवार, ढाल. वग्द, वज्र वीजपूर, मुद्गर, पाश, अभय, नकुल, गदा. ग्रंकुग प्रक्षत्र अक्षमूत्र, पद्म, त्रिल, दण्ड बीजपूर, गदा, नकुल, अक्षमूत्र वाण. गदा, वग्द, धनुष, नकुल, फल बीजपूर, बाण, धनुष, नकुल
श्वेत
कर्म
चार
१०. ब्रह्म
दिग०
श्वेत
आठ
चतुर्मख
श्वे.
अाठ
चतुर्मख
दिग०
श्वे०
वषभ
चार चार छह चार
कुमार
दिग०
ho no
हम हम
त्रिमुग्व
श्वे.
१२९
चार
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
षण्मुख
चतुर्मुख
षण्मुख
पाताल
किन्नर
गरुड
गंधव
दिग०
दिग० श्वे
दिग०
न
दिग०
श्वे ०
दिग०
श्व ०
दिग०
श्वे ०
हरित
हरित
श्वत
रक्त
रक्त
रक्त
रक्त
श्याम
श्याम
श्याम
श्याम
मयूर
मयूर
मयूर
मकर
मकर
मीन
कूर्म
वराह
वराह
पक्षी
हंस
बारह
बारह
बारह
छह
छह
छह
छह
चार
चार
चार
चार
ऊपर के आठ हाथों में परशु, शेष
चार हाथों में खड्ग, अक्षसूत्र,
ढाल, दण्ड
उपर्युक्त प्रकार
फल, चक्र, बाण, खड्ग, पाश,
अक्षसूत्र, नकुल, चक्र, धनुष, ढाल, अंकुश, अभय
अंकुश, शूल, कमल, कशा, हल,
फल
पद्म, पाश, असि, नकुल, ढाल,
अक्षसूत्र
बीजपूर, गदा, अभय, नकुल,
पद्म, अक्षसूत्र
मुद्गर, अक्षसूत्र, वरद, चक्र, वज्र, अंकुश
वज्र, पद्म, चक्र, फल
बीजपूर, कमल, प्रक्षसूत्र, नकुल दो हाथों में नागपाश, बाण, धनुष वरद, पाश, बीजपूर, अंकुश
छह मुख
चार मुख
छह मुख
त्रिमुख
त्रिमुख
त्रिमुख
त्रिमुख
शूकर मुख उपर्युक्त
१३०
जैन प्रतिमाविज्ञान
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१६.
खेन्द्र
दिग०
श्याम
शंख
बारह
छह मुख
यक्षेन्द्र
श्व०
श्याम
शंख
बारह
चतुर्विशति शासन यक्ष
छह मुख
१६.
कुबेर
दिग०
इन्द्रधनुष
गज
पाठ
चतुर्मुख
श्वे०
इन्द्रधनुष
गज
पाठ
चतुर्मुख
बाण, कमल, फल, माला, अक्षसूत्र, प्रभय, धनुष, वज, पाश, मुद्गर, अंकुश, वरद बीजपूर, वाण, खड्ग, मुद्गर, पाश, अभय, नकुल, धनुष, ढाल, शूल, अंकुश, अक्षमूत्र कृपाण, वाण, पाश, वरद, ढाल, धनुष, दण्ड, पद्म शूल, परशु, अभय, वरद, मुद्गर, अक्षसूत्र, बीजपूर, गक्ति । वरद, तलवार, ढाल, फल वीजपूर, गदा, वाण, शक्ति, नकुल, पद्म, धनुष, परशु खेट, असि, धनुष, बाण, अंकुश, कमल, चक्र, वरद बीजपूर, शक्ति, मुद्गर, अभय, नकुल, परशु, वज्र, अक्षसूत्र मुद्गर, कुठार, दण्ड, फल, वज्र, वरद
२०.
वरुण
चार
दिग० श्व०
श्वेत श्वेत
वृषभ वृषभ
अष्ट मुख चतुर्मुख
पाठ
२१. भृकुति
दिग०
सुवर्ण
वृषभ
चतुर्मुख
श्वे०
सुवर्ण
वृषभ
पाठ
चतर्मुख
२२.
गोमेद
दिग० श्याम
छह
नृवाहन पुष्पयान
त्रिमुख
१३१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२३.
२४.
5.
गोमेध
धरणेन्द्र
पार्श्व
मातंग
नाम
चक्रेश्वरी
श्वे ०
दिग०
वे ०
श्वे ०
दिग०
श्वे ०
परम्परा
दिग०
दिग०
श्रप्रतिचक्रा श्व०
श्याम
श्य म
श्याम
श्याम
मुद्ग
श्याम
नरवाहन
शरीर का
वर्ण
सुवर्ण
सुवर्ण
सुवर्ण
गज
गज
वाह्न
छह
कमलासना
गरुड
गरुड
चार
चार
चार
दो
तालिका ३ चतुविशति शासन यक्षियां
परशु, बीजपूर, चक्र, नकुल, शूल, शक्ति
दो हाथो मे नाग, वर, नागपाश
बारह
गदा, बीजपूर, सर्प. नकुल
मर्प, बीजपूर, सर्प, नकुल
वरद और फल
नकुल और बीजपूर
भुजा की
संख्या
चार
प्राउ
आयुध
सर्पफण
गजमुख मर्पण
मस्तक पर धर्मचक्र
दो हाथो मे वज्र, प्राठ हाथों मे
चक्र, वरद, फल
दो चक्र, वरद, फल
वरद, चक्र, पाश, बाण, धनुष, चक्र, अंकुश, वज्र
त्रिमुख
विशेष
∞
AU
A
जैन प्रतिमाविज्ञान
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२
३.
४.
५.
७.
रोहिणी
अजिता
प्रज्ञप्ति
दुरितारि
वज्रशृंखला
कालिका
पुरुषदत्ता
महाकाली
मनोवेगा
श्यामा
काली
शान्ता
ज्वालामालिनी
भृकुटि
महाकाली
दिग०
वे ०
दिग०
सुवर्ण
धवल
श्वेत
श्वे०
श्वेत
दिग० सुवर्ण
श्वे ०
दिग०
श्वे ०
दिग०
श्वे ०
श्वे०
श्वे ०
दिग०
श्वे ०
दिग
श्वे ०
दिग ०
श्याम
मुवर्ण
मुवर्ण
सुवर्ण
श्याम
श्याम
श्याम
श्वेत
पीन
श्वेन
लोहासना
लोहामना
पक्षी
मेष
हंस
पद्म
गज
पद्म
अश्व
नर
नर
नर
वृषभ
गज
महिष
नार
चार
छह
चार
चार
चार
चार
चार
चार
चार
चार
चार
चार
चार
आठ
पीन वराह / विडाल हम चार
कृष्ण
कूर्म
चार
चक्र, शंख, अभय, वरद
वरद, पाश, अंकुश, फल
अर्धचन्द्र, परशु, फल, तलवार, तुम्बी, वरद
वरद, अक्षमूत्र, फल, अभय
नागपाश, अक्षसूत्र, फल, वरद
वरद, पाश, नाग अंकुश
चक्र, वज्र, फन, वरद
पाश, वरद, अंकुश, वीजपुर
वरद, प्रसि, ढाल, फल
पाश, वरद, बीजपूर, अंकुश
वरद, बाण, धनुष, प्रभय
वरद, पाश, धनुष, अभय घण्टा, त्रिशूल पल, वरद
वरद,अक्षसूत्र,गुल,अभय
चक्र, धनुष, पान, ढाल, त्रिशूल, वाण, मत्स्य, तलवार
खड्ग, मुद्गर, फलक, पशु वज्र, फल, मुद्गर, वग्द
चतुर्विंशति शासन यक्षिया
१३३
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०.
दिग०
१३४
दवे.
सुतारा मानवा अशोका गौरी मानवी गांधारी प्रचण्डा वैरोटी विदिता अनंतमती अंकुगा
दिग०
चार चार नार चार चार चार चार चार चार चार
दिग०
दिग०
मानसी
श्वे० गौर वृषभ
शूकर श्वे. हरित् पद्म दिग० सुवर्ण मृग
__गौर सिह
हरित मकर वे. श्याम अश्व
अजगर श्वे० सुवर्ण पद्म
सुवर्ण हम श्वे०
गौर पद्म दिग० प्रवाल व्याघ्र
गौर मत्म्य दिग०
सुवर्ण मयूर वे० गौर पद्म दिग० मुवर्ण शूकर श्वे०
गौर मयूर सुवर्ण हम
कृष्ण पद्म दिग० हरित अष्टापद श्वे० कृष्ण पद्म दिग० पीत नाग श्वे. गौर भद्रासन दिग० हरित मकर
चार चार चार चार चार
वरद, प्रक्षसूत्र, कलश, अंकुश माला, वरद, मत्स्य, फल वरद, पाश, फल,अंकुश मुद्गर, कमल, कलश, वरद वरद, मुद्गर, कलश, अंकुश पद्म. वग्द, कमल, मूसल वरद,शक्ति, पुष्प, गदा दो हाथों मे सर्प.धनुष, वाण बाण, पाश, धनुष, नाग धनुष, वाण, फल, वग्द पाग, तलवार, अंकुश,ढाल कमल,धनुष,वरद,अंकुश, बाण, कमल उत्पल, अंकुश, पद्म, अभय फल, चक्र, खड्ग, वरद पुस्तक,उत्पल,कमण्डलु,कमल शंख, असि, चक्र, वरद बीजपूर, शूल, मुषण्ढी, पद्म सर्प, वज्र, मृग, वरद बीजपूर, कमल, पाश, अक्षसूत्र ढाल, तलवार, फल, वरद वरद, अक्षसूत्र, बोजपूर, शक्ति ढाल, तलवार, फल, वरद । वरद, अक्षमूत्र, बीजपूर, शूल यष्टि, ढाल, प्रक्षसूत्र, तलवार
दिग०
कन्दर्पा महामानसी निर्वाणी जया विजया तारावती धारिणी अपगजिना वरोट्या बहुरूपिणी नरदत्ता चामुण्डा
सवर्ण
चार
वे०
२०
चार चार चार चार चार चार
जन प्रतिमाविज्ञान
अष्टानना
२१
चतुर्मुख
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
'he inche
चार
श्वेत
रित
चतुर्विशति शासन यक्षियां
सिंह
प्राम्रा
पीत
रक्त
पद्य
गांधारी श्वे० श्वेत हंस चार वरद, खड्ग, बीजपूर, कुम्भ श्वे. श्वेत
वरद, खड्ग, शकुन्त, कुम्भ श्वे०
चार वरद, खड्ग, बीजपूर, बीजपूर दिग०
अाम्रस्तवक, पुत्र शुभंकर का अाम्र वृक्ष की छाया में हाथ छूती हुई
दो पुत्रो के साथ स्थित अम्बिका श्वे०
बीजपूर, पाश, पत्र, ग्रंकुश श्वे० पीत सिंह चार पाम्राली, पाश, पुत्र, अंकुश २३. पद्मावती दिग० रक्त पद्म चार अंकुश, अक्षमूत्र, कमल, वरद
त्रिफणसर्पमोलि दिग.
छह पाग, अक्षमूत्र, कुन्त, अर्धचन्द्र, गदा, मूमल दिग०
पद्म पाठ यथोचित दिग० रक्त पद्म चौबीस विभिन्न श्वे०
कुक्कुटसपं चार पद्म, पाश, फल, अंकुश २४. सिद्धायिका दिग० सुवर्ण भद्रासन, सिंह दो वरद पार पुस्तक
श्वे. हरित् सिंह चार पुस्तक, अभय, वोजपूर, वीणा श्वे० हरित् गज चार पुस्तक अभय, पाश, कमल
तालिका ४ नाम परम्परा शरीर का वाहन भुजानों की
प्रायुध
विशेष वर्ग
संख्या क्षेत्रपाल दिग० श्याम श्वान चार तलवार, ढाल, काला कुत्ता, गदा नाग अलंकरण त्रिनेत्र
सुवर्ण
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्वान
बीस
श्वान
छह
क्षेत्रपाल श्वे० विभिन्न
श्वे. श्याम
श्वे० श्याम अनावृत यक्ष दिग० कृष्ण सर्वाह यक्ष दिग० श्याम
श्वान
छह
गरुड चार श्वेत गज चार
विभिन्न मुद्गर, पाग, डमरू, श्वान, अंकुश, गेडिक। ढक्का, शूल, माला, पाश, अंकुश, खड्ग शंख, चक्र, कमण्डल, प्रक्षसूत्र । दो हाथ बद्धांजलि दो हाथों मे
मम्तक पर धर्मचक्र सम्हाले
धर्मचक्र अक्षसूत्र, दण्ड, कमण्डलु, छत्र विकराल दाढ़ें
ब्रह्मशान्ति यक्ष श्वे.
पिंग
भद्रामन पादुकारूढ
चार
जैन प्रतिमाविज्ञान
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परिशिष्ट दो जैन प्रतिमा लक्षण
श्रतदेवता
श्रुतदेवता श्वेतवर्णा श्वेतवस्त्रधारिणी हंसवाहना श्वेतसिंहासनासीना भामण्डलालंकृता चतुर्भुजा श्वेताब्जवीणालंकृतवामकरा पुस्तकमुक्ताक्षमालालंकृतदक्षिणकरा......
प्राचारदिनकर उदय ३३, पन्ना १५५
श्रुतदेवनां शुक्लवर्णी हंसवाहनां चतुर्भुजां वरदकमलान्वितदक्षिणकरां पुस्तकाक्षमालान्वितवामकरां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ दक्षिणपाश्र्वासीनधवलमूर्तिवरदपद्माक्षसूत्रपुस्तकालंकृतानेकपाणिद्वादशाङ्गश्रुतदेवाधिदेवते सरस्वत्यै स्वाहा ।
निर्वाणकलिका, पन्ना १७ अभयज्ञानमुद्राक्षमालापुस्तकधारिणी । त्रिनेत्रा पातु मां वाणी जटाभालेंदुमण्डिता ।।
मल्लिषेण, भारती कल्प, १-२
सितांबरां चतुर्भुजां सरोजविष्टरसंस्थिताम् । सरस्वती वरप्रदामहनिशं नमाम्यहम् ।।
___ मल्लिषेण, भारतीकल्प चंचच्चन्द्ररुचं कलापिगमनां य: पुण्डरीकासना सज्ञानाभयपुस्तकाक्षवलयप्रावारराज्युज्ज्वलाम् । त्वामध्येति सरस्वति विनयनां ब्राह्म मुहूर्ते मुदा व्याप्तासाधरकीतिरस्तु सुमहाविद्यः स वंद्यः सदा ।।
मलयकीति, सरस्वतीकल्प
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१३८
जैन प्रतिमालक्षण
विद्यादेवियां
रोहिणी प्रज्ञप्तिर्वजशृङखला कुलिशाक शा। चक्रेश्वरी नरदत्ता काल्यथासौ महापरा ।। गौरी गान्धारी सर्वास्त्रमहाज्वाला च मानवी । वैरोट्याच्छप्ता मानसो महामानसिकेति ताः ।। वाग ब्राह्मी भारती गोर्गीर्वाणी भाषा मरस्वती। श्रतदेवी वचनं तु व्याहारो भाषितं वचः ।।
अभिधानचिन्तामणि, देवकाण्ड (द्वितीय) १. रोहिणी सकुंभशंखाब्जफलांबुजस्थाश्रिताय॑मे रोहिणि रुक्मवक्त्रम् ।
प्राशाधर, ३/३७ दोभिर्चतुभिः कलशं दधाना शंख पयोज फलपूरमुद्धं । सदष्टिसंसिद्धजिनानुरागा या रोहिणी तां प्रभजामि देवीम् ।।
नेमिचन्द्र, पृष्ठ २८४ प्रों सुवर्णवर्णं चतुर्भुजे शंखपद्मफलहस्ते कमलासने रोहिणि पागच्छ ।
वमुनन्दि, ६ शंखाक्षमालागरचापशालिचतुःकरा कुन्दतुषारगौरा ।। गोगामिनी गीतवरप्रभावा श्रीरोहिणी मिद्धिमिमां ददातु ।।
प्राचार दिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२ नत्राद्या रोहिणी धवलवर्णा सुर्रा भवाहना चतुर्भुजामक्षमू- वाणान्वितदक्षिणपाणि शंखधनुर्युक्त वामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ २. प्रज्ञप्ति तद्भाक्तिका त्वश्वगनेलिनीला प्राप्तिके_मि सत्रक्रखङ्गाम् ।
प्राशाधर
दृष्ट्या दिसन्य ग्विनयानुरागां चक्रं समाक्रांतविरोधिचक्रम् । खड्गं पयो फलमुदहन्ती प्रज्ञप्तिमर्चामि धृताहंताज्ञाम् ।।
नमिचन्द्र, २८४
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विद्यादेवियां
प्रो श्यामवर्णे चतुर्भुजे रहु ? हस्ते प्रज्ञप्ते प्रागच्छ ।
शक्तिसरोहहस्ता मयूरकृतयानलीलया कलिता । प्रज्ञप्तिविज्ञप्ति शृणोतु नः कमलपत्राभा ॥
३. वज्र खला
प्रज्ञप्ति श्वेतवरण मयूरवाहनां चतुर्भुजां वरदशक्तियुक्त दक्षिणकरा मातुलिंगशक्ति युक्त वामहस्तां चेति ।
श्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२
प्रो सुवर्णवर्ण चतुर्भुजे श्रृंखलहस्ते वच्च खले श्रागच्छ ।
वसुनन्दि, ६
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
शीलव्रताभा जिनभावनास्था बिभत्त दोभिः पविश्रं खलां या । शंखं सरोजं वरबीजपूरमाराधयामः पविश्रृंखला ताम् ॥
नेमिचन्द्र २८५
सश्रृंखलगदाहस्ता कनकप्रभविग्रहा । पद्मासनस्था श्रीवज्रश्रृखला हन्तु नः खलान् ।।
४. वज्राकुशा
१३६
वसुनन्दि, ६
आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२
वज्रशृंखला शंखावदाना पद्मवाहना चतुर्भुजा वरदश्रृखनान्वितदक्षिणकरां पद्मश्रृंखला धिष्ठित वामकरा चेनि ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
या सुप्रमोदा सुतरामभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगांत्तमभावनायाम् । घृताकुशाभोजमुबीजपूरा वज्राकुशा तामिह यायजीमि ॥
नेमिचन्द्र, २८५
ओ अंजनवर्णे चतुर्भुजं अंतुजाहस्ते वस्त्रांकुशे श्रागच्छ ।
वसुनन्दि, ६ निस्त्रिंशवज्रफल कोत्तमकुन्तयुक्तहस्ता मुनप्तविलसत्कलधौतकान्तिः उन्मत्तदन्तिगमना भुवनस्य विघ्नं वज्राकुशी हरनु वज्रसमानशक्तिः । श्राचारदिनकर, उदय ३६, पन्ना १६२
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१४०
जैन प्रतिमालक्षण
asiकुगां कनकवर्णा गजवाहनां चतुर्भुजां वरदवचयुतदक्षिणकरां मातुलिंगां कुशयुक्त वामहस्तां चेति ।
५. जाम्बूनदा / प्रप्रतिचक्रा
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
सद्धर्मतत्फलज रागभवातिभीतिस्वरूपसं वेगविभावनोत्काम् । सखङ्गकुंतां बुजबीजपूरां जांबूनदां भक्तहितां यजामि || नेमिचन्द्र २८५
श्रों कनकवर्णे चतुर्भुजे करवालहस्ते जांबूनदे भागच्छ ।
गरुत्मत्पृष्ठ ग्रामीना कार्तस्वरसमच्छविः । भूयादप्रतिचक्रा नः सिद्धये चक्रधारिणी ।।
६. पुरुष दत्ता
अप्रतिचत्रा तडिद्वर्णा गरुडवाहनां चतुर्भुजां चक्रचतुष्टयभूषितकरां चेति ।
वसुनन्दि, ६
श्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
कोकश्रितां वज्रसरोजहस्तां यजे सितां पुरुषदत्तिके त्वाम् । प्रशाधर, ३ / ४२ धी संयमत्यागविभावनाप्त श्री तीर्थ कृनामजिनांघ्रिभक्ताम् । वज्राब्जशंखोद्धफलांकहस्ता यजामहे पुरुषदत्तिके त्वाम् ।।
नेमिचन्द्र, २०६
श्रो गवलनिभे चतुर्मुजे वज्रहस्ते पुरुषदते श्रागच्छ । वसुनन्दि, ६ खङ्गस्फरांकितकरद्वयश'ममाना मेषाभसैरिभपटुस्थितिभासमाना । जात्यार्जुनप्रभतनुः पुरुषाग्रदत्ता भद्रं प्रयच्छतु सतां पुरुषाग्रदत्ता ।। आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२
पुरुषदत्तां कनकावदाता महिषीवाहनां चतुर्भुजां वरदासियुक्त दक्षिणकरा मातुलिगखेटकयुतवामहस्ता चेति । निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
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विद्यादेवियां
१४१
७. काली
तप्त्वा तपो दुश्चमराय पुण्यं यस्तीर्थकृन्नाम तमचंयंतीम् । कालीं यजामो मुसलासिपद्मफलोल्लसद्द जयदोश्चतुष्काम् ।।
___ नेमिचन्द्र, २८७ अओं हेमप्रभे चतुर्भुजे मुसलहस्ते कालि प्रागच्छ ।
वसुनन्दि, ६ शरदम्बुधरप्रमुक्तचञ्चद्मगनतलाभतनुद्युतिर्दयाढ्या । विकचकमलवाहना गदाभृत् कुशलमलंकुरतात सदैव काली ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२ कालीदेवी कृष्णवर्णा पद्मासनां चतुर्भुजा अक्षमूत्रगदालंकृत दक्षिणकरां वज्राभययुतवामहस्तां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ ८. महाकाली
भक्त्यन्विता साधुममाधिम्पसद्भावना सिद्धजिनांघ्रिपद्मे । चापं फलं बाणास बभार या ता महाकालिमहं यजामि ।।
नेमिचन्द्र, २८६ ओं कृष्णवर्णं चतुर्भुजे वज्रहम्ने महाकालि प्रागच्छ ।
वसुनन्दि, ६ नरवाहना शशधरोपलोज्वला रुचिराक्षसूत्रफल विस्फुरत्कग । शुभघंटिकापविवरेण्यधारिणी भुवि कालिका शुभकरा महापरा ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२ महाकाली देवीं तमालवर्गा पुरुषवाहनां चतुर्भुजां अक्षमूत्रवजान्वित दक्षिणक रामभयघण्टालंकृतवामभुजां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ ९. गौरी
यस्तोर्थकृनाम बबंध वैयावृत्ये स्फुरद्भावनयाग्रपुण्यम् । तं मेवमानामरविदहस्तामाराधयामी वरगोरिदेवीम् ।।
नेमिचन्द्र, २८७ प्रों हेमवणे चतुर्भुजे पद्महस्ते गौरि प्रागच्छ ।
वसुनन्दि, ६
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१४२
जैन प्रतिमालक्षण
गोधासनसमासीना कुन्दकपूर निर्मला । सहस्रपत्रसंयुक्तापाणिगौरी श्रियेस्तु नः ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२ गौरी देवी कनकगोरी गोधावाहनां चतुर्भुजां वरदमुसलयुतदक्षिणकरामक्षमालाकुवलयालंकृतवामहस्ता चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ १०. गांधारी
योर्हन्महाभक्तिभरातपुण्यरचिन्त्यमार्हन्त्यमुपाससाद । नत्पादभक्तां तचक्रवड्गां गांधारि गंधादिभिरर्चये त्वाम् ।।
नेमिचन्द्र, २८७ मों भ्रमरवणे चतुर्भुजे चक्रहस्ते गांधारि पागच्छ ।
वसुनन्दि, ६ शतपत्रस्थितचरणा मुसलं वजं च हस्तयोदधती । कमनीयांजनकान्तिर्गान्धारी गां शुभां दद्यात् ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२ गाधारीदेवी नीलवर्णी कमलासनां चतुर्भुजां वरदमुसलयुतदक्षिणकरां अभयकुलिशयुतवामहस्तां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७-३८ ११. ज्वालामालिनी |ज्वाला
प्राचार्यभक्त्योद्यदगण्यपुण्यमहन्तमहन्त्यनुरागयोगात् । कोदंडकांडादियुताष्टबाहुं ज्वालोज्ज्वलज्ज्वालिनि पूजये त्वाम् ।।
नेमिचन्द्र, २८७ मों श्वेतवर्णे मष्टभुजे धनुखङ्गवाणखेटहस्ते ज्वालामालिनि प्रागच्छ ।
वसुनन्दि, ६ मार्जारवाहना नित्यं ज्वालोद्भासिकरद्वया । शशाङ्कधवला ज्वालादेवी भद्रं ददातु नः ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२ सर्वास्त्रमहाज्वाला धवलवर्णी वराहवाहनां मसंख्यप्रहरणयुतहस्तां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३८
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विद्यादेवियां
१४३
१२. मानवी
बहुश्रुतेष्वाहितभक्तिमीशं भक्त्या भजती झषमुद्वहन्तीम् । घोरं करालं करवालमुग्रत्रिमूलकं मानवि मानये त्वाम् ।।
नेमिचन्द्र, २८८ प्रों शिखिकंठनिभे चतुर्भुजे त्रिशूलहस्ते मानवी प्रागच्छ ।
वसुनन्दि, ६ नोलांगी नीलसरोजवाहना वृक्षभासमानकरा । मानवगणस्य सर्वस्य मङ्गलं मानवी दद्यात् ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६२ मानवी श्यामवर्णा कमलासनां चतुर्भुजा वरदपाशालंकृतदक्षिणकरां अक्षमूत्रविटपालंकृतवामहस्तां घेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३८ १३. वैरोटी /वैरोट्या
यः श्रद्धया प्रत्ययरोचनाम्यां स्पृष्ट या जिनागममेव भेजे। तमानमंतीमहिमुद्वहन्तीमर्चामि व रोटि हट त्विषम् ताम् ।।
नेमिचन्द्र, २८८ प्रां जलदप्रभे चतुर्भुजे सर्पहम्ने वरोटि प्रागच्छ ।
वमुनन्दि, ६ खगस्फुरत्स्फुरितवीर्यवदूर्ध्वहस्ता सद्दन्दशूकवरदापरहस्तयुग्मा । सिंहासनाब्जमुदतारतुषारगोरा रोट्यया यभिधयास्तु शिवाय देवी ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६३ वैरोट्यां श्यामवर्णा अजगरवाहनां चतुर्भुजां खङ्गोरगालंकृतदक्षिणकरां खेटकाहियुतवामकरां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३० १४. अच्युता /अच्छुप्ता
आवश्यकस्यापरिहाणिमुच्चश्चचार षड्भेदवती वशी यः । तमच्युतं सादरमर्चयंती त्वामच्युते खड्गभुजं यजामि ।।
नेमिचन्द्र, २८८ ओं जांबूनदप्रभे चतुर्भुजे वज्रहस्ते अच्युते पागच्छ ।
वसुनन्दि, ६
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१४४
जैन प्रतिमालक्षण
सव्यपाणिधृतकार्मुकरफरान्यस्फुरद्विशिखखङ्गधारिणी। विद्युदाभतनुरश्ववाहनाऽच्छुप्तिका भगवती ददातु शम् ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६३ अच्छुप्ता तडिद्वर्णा तुरगवाहनां चतुर्भुजां खङ्गवाणयुतदक्षिणकरां खेटकाहियुतवामकरां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३८ १५. मानसी
तप:श्रुताद्यविनतान मार्गप्रभावनां यो वृषनीतभव्यः । तस्य प्रणामप्रवणां प्रणाममुद्रान्वितां मानसि मानये त्वाम् ।।
नेमिचन्द्र, २८६ भों रत्नप्रभे चतुर्भुजे नमस्कारमुद्रासहिते मानसि पागच्छ ।
वसुनन्दि, ६ हंसासनसमासीना वरदेन्द्रायुधान्विता। मानमी मानसी पीडा हन्तु जाम्बूनदच्छविः ।।
आचारदिनकर, उदय ३३, पन्न। १६३ मानमी धवलवर्णा चतुर्भुजां वरदवजालंकृतदक्षिणकरा अक्षवलयाशनियुक्तवामकरा चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३८ १६. महामानसी
माधामिकेष्वाहित वत्सलवमाराधयंती विभुमक्षमालाम् । मालां वर चाकुशमादधानां मान्ये महामानसि मानये त्वाम् ।।
नेमिचन्द्र, २८६ प्रों विट्टमवर्गे चतुर्भजे प्रणाममुद्रासहिते महामानसि पागच्छ ।
____वमुनन्दि, ६ करखङ्गरत्नवरदाढ्यपाणिभृच्छशिनिभा मक रगमना । संघस्य रक्षणकरी जयति महामानमी देवी ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १६३ महामानसीं देवी धवलवर्णा सिंहवाहनां चतुर्भजां वरदासियुक्तदक्षिणकरां कुण्डिकाफलकयुतवामहस्तां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३८
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चतुविशति यक्ष
शासन देवता
प्रापदाकुलितोपि दार्शनिक: तन्निवृत्त्यर्थम् । शासनदेवतादीन् कदाचिदपि न भजते पाक्षिकस्तु भजत्यपि ॥
सागारधर्मामृत
यक्षं च दक्षिणे पार्श्वे वामे शासनदेवताम् । लाञ्छनं पादपीठाधः स्थापयेत्यस्य यद्भवेत ॥
वसुनन्दि, ५ / १२
यक्षाणां देवतानाञ्च सव्र्व्वालंकारभूषितम् । स्ववाहनायुधोपेतं कुर्यात्सर्वाङ्गसुन्दरम् ।।
चतुर्विंशति यक्ष
वसुनन्दि, ४ /७१
गोवद महाजातिमुट्टो जक्खेसरो य तंबुरश्रो । मादगविजय प्रश्रिो बम्हो बम्हेमगे य कोमारो ॥ छम्मु पादानो किण्णरकिंपुरुमगरुडगंधव्या । तह य कुबेरे वरुणो भिउडी गोमेघपास मातंगा || गुप्रो इदि एदे जक्खा चउबीस उसहपहुदीणं । तित्थयराणं पामे चेट्ठ ते भत्तिमंजुत्ता ॥ तिलोयपण्णत्ती, ४/९३४-३६ जवख गोमुह महज्जक्य तिमुह ईमर स तंब कुमुमो । मायंग विजयाजिय बंभो मणुप्रो सुरकुमारो || छम्मुह पयाल किन्नर गण्डी गंधव्व तहय जक्खिदो । कूबर वरुणो भिउडी गोमे हो वामण मयंगी ॥
प्रवचनसारोद्धार, द्वार २६ / ३७५-३७६
स्याद्गोमुखो महायक्षस्त्रिमुखां यक्षनायकः ।। तुम्बरुः सुमुखश्चापि मातंगो विजयोजित: ब्रह्मा यक्षेट् कुमारः षण्मुखपातालकिन्नराः ॥ गरुडो गन्धर्वो यक्षेट कुबेरो वरुणोपि च । भृकुटिर्गोमेघः पार्श्वो मातंगोई दुपासकाः ।।
अभिधानचिन्तामणि, देवाधिदेवकाण्ड प्रथम । ४१-४३
१४५
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१४६
वृषवक्त्रो महायक्षस्त्रि मुखश्चतुरानतः । तुम्बरुः कुमुमाख्यश्च मातंगो विजयस्तथा ।। जयो ब्रह्मा किन्नरेश: कुमारश्च तथैव च । षण्मुखः पातालयक्ष : किन्नरो गरुडस्तथा । गन्धर्वश्च यक्षेशः कुबेरो वरुणस्तथा । भृकुटिचैव गोमेघः पार्श्वो मातंग एव च ।। यक्षाचतुर्विंशतिका ऋषभादेर्यथाक्रमम् । भेदांश्व भुजशस्त्राणां कथयामि समासतः ।।
१. गोमुख
पराजित पृच्छा | २२१ / ३६-४२
सव्येतरोधवं कर दी प्रपरश्वधाक्ष सूत्रं तथाधरकरांकफनेष्टदानम् । प्राग्गोमुखं वृषमुखं वृषगं वृषांकभक्तं यजे कनकभं वृषचक्रशीर्षम् ।।
जैन प्रतिमालक्षण
प्रशाधर, ३ / १२६
वामान्योर्ध्व करद्वयेन परशुं धत्तेक्षमालामधः सव्यासव्यकरद्वयेन ललितं यो बीजपूरं वरम् । तं मूर्ध्ना कृतधर्म चक्रमनिशं गोवक्त्रकं गोमुखं श्रीनाभेय जिनेन्द्रपादकमला लोलालिमालापये ||
नेमिचन्द्र, ३३१
चतुर्भुजः सुवर्णाभ समुखो वृषवाहनः । हस्ते परशुं धत्ते बीजपूराक्षसूत्रकम् ।। वरदानपरः सम्यक् धर्मचक्रं च मस्तके | संस्थाप्यो गोमुखो यक्ष प्रादिदेवस्य दक्षिणे ||
वसुनन्दि, ५ / १३-१४
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चतुविशति यक्ष
स्वर्णाभो वृषवाहनो द्विरदगोयुक्तश्चतुर्बाहुभिः बिभ्रदक्षिणहस्तयोश्च वरदं मुक्ताक्षमालामपि । पाशं चापि हि मातुलिङ्गसहितं पाण्योर्वहन् वामयोः संघं रक्षतु दाक्ष्यलक्षितमतिर्यक्षोत्तमः गोमुखः । श्राचारदिनकर, ३३, पत्रा १७४
तत्तीर्थोत्पन्नगोमुखयक्षं हेमवर्णं गजवाहनं चतुर्भुजं वरदाक्षसूत्र युतदक्षिणपाणि मातुलिङ्गपाशान्वितवामपाणि चेति । निर्वाणकलिका, पन्ना ३४
वराक्षसूत्रे पाच मातुलिंगं चतुर्भुजः । श्वेतवर्णो वृषमुखो वृषभासनसंस्थितः ।।
अपराजित पृच्छा, २२१/४३
ऋषभे गोमुखे यक्षो हेमवर्णो गजाननः । वरोक्षसूत्रं पाशञ्च बीजपूरं करेषु च ।।
२. महायक्ष
चक्रत्रिशूल कमलां कुशवामहस्तो निस्त्रिंशदंडप र शूद्य व राज्यपाणिः । चामीकरद्युतिरिभांकनतो महादियक्षोयतो हि जगतश्चतुराननोसी ॥
रूपमण्डन, ६/१७
श्राशाघर, ३/१३
त्रिशूलं कमलं मृणि वै खड्गं च दंड परशुं प्रधा ( दा ) नम् । विभ्राणमिष्टाजिननाथपादं यजे महायक्ष चतुर्मुखं त्वाम् ॥
नेमिचन्द्र, ३३१
अजितस्य महायक्षो हेमवणंश्चतुर्भुजः (र्मुखः) । गजेन्द्रवाहनारूढः स्वोचिताष्टभुजायुधः ।।
१४७
वसुनन्दि, ५ / १७
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१४८
जन प्रतिमालक्षण
द्विरदगमनकृच्छितिश्चाष्टबाहुचतुर्वक्त्रभाग्मुद्गरं वरदमपि च पाशमक्षावलि दक्षिणे हस्तवृन्दे वहन् । अभयमविकलं तथा मातलिंगं सृणिशक्तिमाभासयत् सततमतुलं वामहस्तेषु यक्षोत्तमोसो महायक्षकः।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३,पन्ना १७४ तथा तत्तीर्थोत्पन्न महायमाभिधानं यक्षेश्वरं चतुर्मुखं श्यामवर्णं मातङ्गवाहनमष्टपाणि वरदमुद्गराक्षमूत्रपाशान्वितदक्षिणपाणि बोजपूरकाभयांकुशशक्तियुक्तवामपाणिपल्लवं चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३४ सपाशाक्षस्रग्मुद्गरवरदैदक्षिणेतरैः करः । शक्त्यङ्क, शबोजपूराभयदैर्दक्षिण तरैः।। अष्टबाहुमहायक्ष नामा यक्षश्चतर्मुखः । श्यामो गजरथस्तीर्थे समभूजितप्रभोः ।।
अमरचन्द्र, अजितचरित्र, १६,२० श्यामोष्टबाहु स्तिस्था वरदाभयमुद्गगः । अक्षपाशांकुशाः शक्तिर्मातलिंगं नथैव च ।
अपराजितपृच्छा, २२११४४ ३. त्रिमुख
चक्रासिशृण्युपगसव्यसयोन्यहस्त दंडत्रिशूलमुपयन् शितकतिकां च । वाजिघ्वजप्रभुनतः शिखिगांजनाभ स्त्र्यक्षः प्रतीक्षत बलिं त्रिमुखाख्ययक्षः ।।
प्राशाधर, ११३१ सव्यः करैश्च क्रमसि सणि यो दंडं त्रिशूलं सितकत्रिकां च । अन्य बिभर्ति श्रितसंभव तं यजे त्रिनेत्र त्रिमुखाख्ययक्षम् ।।
नेमिचन्द्र,३३२ षड्भुजस्त्रिमुखो यक्ष स्त्रिनेत्रशिखिवाहनः । श्यामलांगो विनीतात्मा संभवजिनमाश्रितः ।।
वसुनन्दि,५ ॥१६
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चतुविशति यक्ष
१४६
त्र्यास्य: श्यामो नवाक्षः शिखिगमनरस: षड्भुजो वामहस्तप्रस्तारे मातुलिंगाक्षवलयभुजगान् दक्षिणे पाणिवृन्दे । बिभ्राणो दीर्घजिह्वद्विषदभय गदासादिताशेषदष्ट: कष्टं संघस्य हन्यात्रिमुखसुरवरः शुद्धसम्यक्त्वधारी ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४
तस्मिंस्तीर्थे समुत्पन्नं त्रिमुखयक्षेश्वरं त्रिमुखं त्रिनेत्रं श्यामवर्ण मयूरवाहनं षड्भुजं नकुलगदाभययुक्नदक्षिणपाणिं मातुलिंगनागाक्षसूत्रान्वितवामहस्तं चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३४ स बभ्रगदाभृदभीप्रददक्षिणदोस्त्रयः । समातुलिङ्गनागाक्षसूत्रवामभुजत्रयः ।। त्रिनेत्र: षड्भुजो यक्षः श्यामो बहिणवाहनः । त्रिमुखस्त्रिमुखाख्योभूत् तीर्थे श्रीसम्भवप्रभोः ।।
अमरचन्द्र, संभवचरित्र, १७-१८
मयूरस्थस्त्रिनेत्रः त्रिवक्त्रः श्यामबणंकः । परश्वक्षगदाचशंखा वरश्च षड्भुजः ।।
अपराजितपृच्छा, २२१ । ४५
४. यक्षेश्वर
प्रेख द्धनुःखेटकवामपाणिं सकंकपत्रास्यपसव्यहस्तम् । श्यामं करिस्थं कपिकेतुभक्तं यक्षेश्वरं यक्षमिहार्चयामि ।।
प्राशाधर, ३/१३२ कोदण्डसत्खेटक वामहस्तं वामान्यहनोद्धृतवाणखड्गं । यक्षेश्वरं त्वामभिनंदनाहत्पादाब्ज गं प्रयजे प्रसीद ।।
नेमिचन्द्र, ३३२ अभिनंदननाथस्य यक्षो यक्षेश्वराभिधः । हस्तिवाहनमारूढःश्यामवर्णश्चतुर्भुजः ।।
वसुनन्दि, ५।२१
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१५०
जन प्रतिमालक्षण
श्याम: सिन्धुरवाहनो युगभुजो हस्तद्वये दक्षिणे मुक्ताक्षावलिमुत्तमा परिणतं सन्मातुलिंगं वहन् । वामेप्यङ्क,शमुत्तमं च नकुलं कल्याणमालाकरः श्रीयक्षेश्वर उज्ज्वलां जिनपदेदंद्याम्मति शासने ॥
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४ तत्तीर्थोपपन्नमीश्वरयक्ष श्यामवर्ण गजवाहनं चतुर्भुजं मातुलिङ्गाक्षसूत्रयुतदक्षिणपाणि नकुलांकुशान्वितवामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३४ श्यामः समातुलिङ्गाक्षसूत्रदक्षिणदो यः नकुलांकुशभृद्वामदोयुगो गजवाहनः ।। यक्षेश्वराख्यो यक्षोभूत् तीर्थभिनंदनप्रभोः ।
अमरचन्द्र, अभिनंदनचरित्र, १६-१७
५. तुम्बरु /तुम्बर
सर्पोपवीतं द्विकपन्न गोर्ध्वकरं स्फुरद्दानफलान्यहस्तम् । कोकांकन नं गरूडाधिरूढं श्रीतुम्बरं श्यामरुचि यजामि ।।
प्राशाधर, ३।१३३ ऊर्ध्वस्थिताभ्यां फणिनी कराम्यां अध:स्थिताम्यां दधते प्रदानम् । फलं प्रयक्ष्ये मुमतीशभक्तं श्रीनुम्बरं सर्पमयोपवीतम् ।।
नेमिचन्द्र, ३३२ सुमतेस्तम्बरो यक्षः श्यामवर्णश्चतर्भजः । सर्पद्वयं फलं धने वरदः परिकीर्तितः ।। सर्पयज्ञोपवीतोसो खगाधिपतिवाहनः ।
वमुनन्दि , ५०२३-२४ वर्णश्वेतो गाडगमनो वेदबाहुश्च वामे हस्तद्वन्द्वे सुललितगदां नागपाशं च बिभ्रत् । शक्तिं चञ्चद्वरदमतुलं दक्षिणं तम्बरं स प्रस्फीतां नो दिशतु कमला संघकार्येऽव्ययां नः ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४
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चतुर्विशति यक्ष
१५१
तुम्बरुयक्षं श्वेतवर्ण गरुडवाहनं चतुर्भुजं वरदशक्तियुत दक्षिणपाणि नागपाशयुक्तवामहस्तं चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५ यक्ष : सुमतितीर्यभूत् तुम्वरुर्ताय वाहनः । श्वेताङ्गो वरदशक्तियुतदक्षिणदोर्युगः ।। गदापाशधरवामकरद्वन्द्वोऽन्ति कस्थितः ।
अमरचन्द्र, सुमतिचरित्र, ४-५
६. पुष्प / कुसुम
मगारुहं कुंतवरापसव्यकरं सखेटाभयसव्यहस्तम् । श्यामागमब्जध्वजदेवमेव्यं पुष्पाख्ययक्षं परितपयामि ।।
पाशाधर, ३/१३४
खेटोभयोभाषितसव्यहस्तं कुतेप्ट दानम्फुरितान्यपाणिम् । पद्मप्रभश्रीपदपद्मभृगं पुष्पाख्ययक्षेश्वरमचंयामि ।।
नेमिचन्द्र, ३३३
पद्मप्रभजिनेन्द्रम्य यक्षो हरिणवाहनः । द्विभुज: पुष्पनामामौ श्यामवर्णः प्रकीर्तितः
वमुनन्दि, ५/२६
नीलस्तुरंगगमनश्च चतुर्भुजाढ्य:-फूर्जत्फलाभयमुदक्षिणपाणियुग्म: । बभ्राक्षमूत्रयुतवामकरद्वयश्च संघं जिनार्चनरत कुसुमः पुनातु ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७८
कुमुमं यक्ष नीलवर्ण कुरङ्गवाहनं चतुर्भुजं फलाभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलाक्षसूत्रयुक्तवामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५
यक्षः कुसुमनामामीनीलाङ्गो मृगवाहन: । बिभ्राणो दक्षिणी पाणी सफलाभयदी परो ।। नकुलाक्षसूत्रयुक्ती तीर्थे पद्मप्रभप्रभो : ।
अमरचन्द्र, पद्मचरित्र, १६-१७
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१५२
जैन प्रतिमालक्षण
७. मातंग
मिहादिरोहस्य सदंडशूलसव्यान्यपाणे: कुटिलाननस्य । कृष्णत्विषः स्वस्तिककेतुभक्तेर्मातङ्गयक्षस्य करोमि पूजाम् ।।
माशाघर, ३.१३५ यमोनदंडोपमचंडदंडं सव्येन चासव्य करेण शूलम् । बिभ्राणमर्चामि सुपार्श्वभक्तं मातंगयक्षं कुटिलाननोग्रम् ।।
नेमिचन्द्र, ३३३ सुपार्श्वनाथदेवस्य यक्षो मातंगसंज्ञकः । द्विभुजो वक्रतुंडोसो कृष्णवर्णप्रकीर्तितः ।।
वसुनन्दि, ५/२८ नोलो गजेन्द्रगमनश्च चतुर्भुजोपि बिल्वाहिपाशयुतदक्षिणपाणियुग्मः । वज्रांकुशप्रगुणितीकृतवामपाणि तिङ्गराट जिनमतेद्विषतो निहन्तु ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५ मातङ्गयक्ष नीलवर्ण गजवाहनं चतुर्भुजं बिल्वपाशयुक्तदक्षिणपाणि नकुलांकुशान्धितवामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५ दक्षिणी बिल्वपाशाङ्को वामौ सनकुलांकुशौ ।। भुजी दधानो मातङ्गो यक्षो नीलो गजाश्रयः ।
ममरचन्द्र, सप्तमजिन चरित्र, १८-१६ ८. श्याम /विजय
यजे स्वधित्युद्यफलाक्षमाला वरांकवामान्यकरं त्रिनेत्रम् । कपोतपत्रं प्रभयाख्यया च श्यामं कृतेन्दुध्वजदेवसेवम् ।।
___ प्राशाधर, ३/१३६ सव्येन धत्ते परशु फलं यस्त थाक्षमालां च वरं परेण । करद्वयेन प्रयजे त्रिनेत्रं श्याम तमिन्दुप्रभभक्तिभारम् ।।
नेमिचन्द्र, ३३३
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चतुविशति यक्ष
अजित
चंद्रप्रभजिनेन्द्रस्य श्यामो यक्षस्त्रिलोचन: फलाक्षसूत्रकं धत्ते परशुं च वरप्रदः ।।
वसुनन्दि, ५/३०
श्यामानिभो हंसगतिस्त्रिनेत्रो द्विबाहुधारी कर एव वामे | सन्मुद्गरं दक्षिण एव चक्रं वहन् जयं श्रीविजयः करोतु ॥
आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४
विजययक्षं हरितवर्णं त्रिनेत्रं हंसवाहनं द्विभुजं दक्षिणहस्ते चक्रं वामे मुद्गरमिति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५
तीर्थेभूद् विजयो यक्षो नीलाङ्गो हंसवाहनः । सङ्गं दक्षिणं बाहुं बहून् वामं समुद्रम् ।। अमरचन्द्र, अष्टमजिनचरित्र, १७
महाक्षमाला वरदानशक्ति फलापमव्यापरपाणियुग्मः । स्वारूढ़कूर्मो मकरांकभक्तां गृहणातु पूजामजितः सिताभः ॥ प्रशाधर, ३/१३७
यजामहे शक्ति फलाक्षमालावरांकवामेतरहस्तयुग्मम् । पुष्पेषु निप्पेषक पुष्पदन्तश्रीपादभक्ताजितयक्षनाथम् ।। नेमिचन्द्र, ३३३
प्रजिनः पुष्पदन्तस्य यक्षः श्वेतश्चतुर्भुजः । फलाक्षसूत्रशभचाढ्प्रो वरदः कूर्मवाहनः ।।
वसुनन्दि, ५ / ३२
कूर्मारूढो धवलकरणो वेदबाहुश्च वामे हस्तद्वन्द्वं नकुलमनुलं रत्नमुत्तंसयंश्च । मुक्तामालां परिमलयुतं दक्षिणे बीजपूरं सम्यग्दृष्टिप्रमृमरधियां सोऽजितः ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४
१५३
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१५४
जैन प्रतिमा लक्षण
तत्तीर्थोत्पन्नमजिनयक्ष श्वेतवर्ण कर्मवाहनं चतुर्भुजं मालिङ्गाक्ष मूत्रयुक्नदक्षिणपाणि नकुलकुन्तान्वितवामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५ प्रजिताम्योभवद् यक्षः श्वेताङ्गः कर्मवाहनः । मातुलिङ्गाक्षमूवाको बिभ्राणो दक्षिणी करो ।। वामो नकुल कुजाको नोर्थे श्रीमविधिप्रभाः ।
अमरचन्द्र, मुविधिचरित्र, १७.१८ १० ब्रह्म श्रीबृक्षकेतननतो धनुदण्डसेट वचाट्यमव्यमय
इंदुसिताम्बुजस्थः । ब्रह्मा शरम्वधितिखगवरप्रदानं व्य ग्रान्यपाणि
__ रूपयातु चतुर्मुखोर्चाम् ।।
प्राशावर, ३/१३८ सचापदंडाजितखेटवज्रमव्योद्धपाणि नुतशीत लेशम । मव्यान्यहस्तेषु परश्वमोष्ट दानं यजे ब्रह्मममाम्ययक्षम् ।।
__ नेमिचन्द्र, ३३४ शीतलम्य जिनेन्द्रम्य ब्रह्मयक्षश्चतुर्मुखः । माटबाहु सरोजस्थः श्वेतवर्ण: प्रकीर्तितः ।।
वमुनन्दि, ५/३४ वमुमितभनयक चतुर्वक्त्रभारद्वादशाक्षी रचा सपजविहिनामनो मातुलिङ्गाभये पाशयुग्मुद्गरं दधदति गुणमेव हस्तोत्करे दक्षिणे चापि वाम गदा माणन कुनसरोद्भवक्षाव नीब्रह्मनामा मुगर्वोनमः ।
___ प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७४ ब्रह्मयक्षं चतुर्मखं त्रिनेत्रं धवलवर्ण पद्मामनमप्टभुजं मातुलिङ्गमुद्गरपाशाभययुक्तदक्षिणपाणि नकुलगदाडू शाक्षसूधान्वितवामपाणि चति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५
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चतुर्विशति यक्ष
१५५
यक्षस्तीर्थे प्रभो ब्रह्मनामा यक्षश्चतुर्मुखः । श्वेत: पद्मासनो बिभ्रच्चतुरो दक्षिणान् भुजान् ।। मातुलिङ्गमुद्गरिण्यौ सपाशाभयदायिनो । वामास्तु नकु नगदाकुशाक्षसूत्रधारिण ।।
प्रमरचन्द्र, दगमजिनचरित्र, १७-१८
११. ईश्वर
त्रिशूल दण्डान्वितवामहस्त: करेक्षमूत्र त्वरे फलं च । बिभ्रत्मिना गडककेतुभक्तो लात्वीश्वरोर्चा वषगस्त्रिनेत्रः ।।
प्रागाधर, ३/१३६
मव्यान्यहम्तोद्धनमन्त्रिालदडाक्षमालाफलमीश्वराज्यम् । यक्ष त्रिनेत्र परितर्पयामि श्रेयोजिनश्रीपददतचित्तम् ।।
नेमिचन्द्र, ३३४
ईश्वरः श्रेयमा यस्त्रिनेको बपवाहन । फलाक्षमूत्रमसान. मत्रिशूलचतुर्भुज ॥
वमुन्दि , ५१३६
श्यक्षी महोक्षगमनो धवलश्चतुर्वािमय टम्मयुगल नकुनाक्षमूत्र । मस्थापयस्तदनु दक्षिणपाणियुग्मे मन्मातलिगकगदावत यक्षराजः ।।
आचारदिनकर, उदय ३३. पन्ना १७५
तत्तीर्योत्पन्नमीश्वरयक्ष धवलवणं त्रिनेत्र वपभवाहन चतुर्भनं मानुनिङ्गगदान्वितदक्षिणपाणि नकुलाक्षम त्रयुनवामपाणि चति ।
निवाणकलिका, पन्ना ३५
ईश्वराख्योभवद्यक्षम्यक्षो गोगे वृपाश्रय. । मातुलिगगदायुक्तो बिभ्राणो दक्षिणो करो ।। वामी तु मनकुलाक्षत्री श्रेयामशामन ।
अमर चन्द्र, श्रेयाजिनारत्र, १६-२०
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जन प्रतिमा लक्षण
१२ कुमार
शुभ्री धनबंभ्रफलाढयमव्यहस्तान्यहस्तेषु गदेष्टदानः । नुलायनक्षमप्रणम्बिवत्रः प्रमोदना हमचर : कुमारः ।।
प्रागाधर, ३।१४० हम्लधंनुवभ्रफलानि सव्यं ग्न्यरिए चारुगदा वरं च । धरतमामि कुमाग्यक्षं स्विक्त्रमाराधित वासुपूज्यम् ।।
नमिचन्द्र, ३६४
वासुपूज्यजिनेन्द्रम्य यक्षो नाम्ना कुमारकः । त्रिमुग्यपड्भ जम्वन: मुम्पा हमवाहनः ।।
वनन्दि, ५।३८ तश्चत भंजयग गतिकृच्न हमें कोदण्डपिङ्गल मुलक्षिनवामहःन । मी जग्गार पूरिन दक्षिणायहम्नद्रय बिमान स्नात्व मार ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५ ननाथा-पन्न चुन र यक्ष नवर्ण हंसवाहन चतुर्भुज मातुनि गवाणान्वित दक्षिणपाणि न कुन कधन्यं नवामपाणि चेनि ।
निवाण कनिका, पन्ना ३६ योनि कुमागम्य : श्यामागी इस वाहन: । दधाना दक्षि गोम्नो मातुल गगरान्विनी ।। वामौ नकुल नापानी धीवामृज्यदा मने ।
अमरचन्द्र, वासुपूज्यन्त्रि , १७-१८ १३. चतुर्मख षण्मुख
यक्षा हरित्सपरपरिमापाणि : कोक्षयकाक्षमाग्यटक दंडमृद्राः । बिभ्रननुभिरपरः शिविग. किसकन म्र प्रतृप्तयन यथार्थचतुर्मुखारव्य:
मागाधर, ३।१४१
विमलस्य जिनेन्द्रस्य नामाथाभ्यां चतुर्मुखः । यक्षो द्वादशदोर्दण्ड · मुरूपः शिन्विवाहनः ।।
वमुनन्दि, ५॥४०
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चतुर्विशति यक्ष
१५७
ऊष्टि हस्तविलसत्परमा चतुभिः खड़गामलाक्ष मणिग्वेटकदंडमुद्राः । शेष: करेन दधतं विमलेशभक्तं नाम्नोर्थन षण्मुखमर्चयामि ।।
नेमिचन्द्र, ३३५ शशधरकरदेहरुग् द्वादशाक्षस्तथा द्वादशोदाद्भुजो बहिगामी
परं षण्मुग्व. । फलशरकरवालपाशाक्षमाला महाचत्र वस्तुनि पाण्युत्करे
दक्षिण धारयन ।। तदन च नन वामके चापचक्ररफरान् पिङ्गला चाभय माकुशं सज्जनानन्द नो विरचयत मुखं मदा पण्मृग्व सवंगघरस्य
__मर्वामु दिक्ष प्रतिम्फूरिताद्यद्यगा: ।।
ग्राचारदिनकर, उदय २६, पन्ना १७५ तत्तीर्थोत्पन्न पण्मुग्व यक्षं देतवगं शिग्विवाहनं द्वादशभज फल चक्रवाणग्वद्गपागाक्षसूययुक्न दक्षिणपाणि नकुलचक्रधनु फलका शाभय न वामपाणि नि ।
निर्वाणलिका, पन्ना ३५-६६ बभूव पण्मुग्यो यक्ष गिग्वियानो बन्नदारक । दक्षिा फलच कोणग्यशपागाक्षमूत्रिभिः ।। वाम। म नकुल नकोदण्ट फलकानग. । प्रभादेन च दोर्दण्दै श्रीमद्विमलगागने ।।
अमरचन्द्र, विमनजिनचरित्र, १६-२० १८. पाताल
पातालक मणि गुलक जापम व्यहम्त कपाहल फलाकितमव्यपाणिः । मेधाध्वजैकगरणी मकगदिम्ही रनोच्यंना यिफणनागगिरस्त्रि
वक्त्रम् ॥
प्रागाधर, ३११८२ सव्यः कगाहलफलान्यपमव्यहस्तं बिभ्राणमकुगसमूलमरोरुहाणि । पातालकं विफणनाय स्त्रवक्यम म्यनंजिनमादरतोचंयन्तम्।।
नेमिचन्द्र, ३३५
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१५८
जन प्रतिमालक्षण
अनंतस्य जिनेन्द्रस्य यक्ष: पातालनायक: । त्रिमुखः षडभजो रक्तवर्णो मकरवाहनः ।।
वमुनन्दि, ५१४२ खट्वागस्त्रिमुख: पडम्बकधरो वादोगनिर्लोहितः पद्म पाशममि च दक्षिणकरव्यूहे वहनजमा । मुक्ताक्षावलिखेट कोरगरिपू वामेषु हस्तेष्वपि ।। श्रीविस्तार मलंकरोतु भविनां पातालनामा मुरः ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५ तत्तीर्थोत्पन्नं पातालयक्षं त्रिमुखं रक्तवर्ण मकरवाहनं षड्भुजं पद्मखङ्गपाशयुक्तदक्षिणपाणि नकुलफलकाक्षमूत्रयुक्तवामपाणि चेति।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३६ पातालस्त्रिमुग्यो यक्षस्ताम्रो मकरवाहनः । दक्षिणाहुभिः खङ्गपद्मपागाङ्कित स्त्रिभिः ।। वामनंकुलफलकाक्षमूत्रप्रवरयुतः ।।
प्रमरचन्द्र,प्रनंजिनचरित्र, १८-१९ १५, किन्नर
सचक्रवजांकुशवामपाणि: समुद्गराक्षालिवरान्य हस्तः । प्रवालवर्णस्त्रिमुग्यो झषस्थो वजांकभक्तोचतु किन्नरोाम् ।।
प्राशाघर, ३।१४३ चकं पवि चाकुशमवहन्तं मव्य: परमदगरमक्षमालाम् । वरं च संमे वितधर्मनाथं त्रिवपत्रक किन्नरमर्चयामि ।।
नेमिचन्द्र, ३३५ धर्मस्य किन्नरो यक्षस्त्रिमुख. मीनवाहनः । षड्भुजः पद्मरागाभो जिनधर्मपरायणः ।।
वसुनन्दि, ५१४४ त्र्यास्य: षण्न यनोरूत. कमठगः षडबाहुयुक्तोभयं विस्पष्टं फलपूरकं गुरुगदां चावामहस्तावली । बिभ्रद्वामकरोच्चये च कमलं मुक्ताक्षमालां तथा बिभ्रत् किनरनिर्जरो जनजरारोगादिकं कृन्ततु ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५
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विशति यक्ष
तत्तीर्थोत्पन्नं किन्नरयक्षं त्रिमुखं रक्तवर्णं कर्मवाहनं षड्भुजं बीजपूरकगदाभययुक्तदक्षिणपाणि नकुलपद्माक्षमालायुक्त - वामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३६
त्रिमुख: किन्नराख्योभूद् यक्ष कूर्मरथोमणः । समातुलिंगगदाभृदभीदान् दक्षिणान् भुजान् ।। वामास्तु नकुलाम्भोजाक्षमालामालिनो दधत् ।
१६. गरुड
अमरचन्द्र, धर्मजिनचरित्र, १६-२०
वक्राननोधननहस्तपद्म फलोन्य हस्तापित व खचत्रः । मृगध्वजात्प्रणतः मय श्याम किटिस्थो गरुडोभ्युपैतु ||
आशाधर, २ १४४
पद्मं फलं संदधतं कराभ्या श्रध. स्थिताभ्यामुपरिस्थिताभ्याम् । वज्रं च चक्रं गरुडाहत्रयं त्वामचर्चामि शातिश्रितवक्रवक्त्र || नमिचन्द्र, ३३६
१५६
गरुडी नामतो यक्षो शानिनाथम्य कीर्त्तित । वराहवाहनः श्यामो वक्रवक्त्रश्चतुर्भुजः ।। वसुनन्दि, ५, ४६
श्यामो व राहगमनश्च वराहवक्त्रश्चञ्चच्चतुर्भुजधरो गरुडश्च पाण्योः । सव्याक्षमूत्रनकुलोप्यथ दक्षिणे च पाणिद्वये धृनमरोरुहमातुलिंगः || आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५
तत्तीर्थोत्पन्नं गरुडयक्षं वराहवाहनं काडवदन श्यामवर्ण
चतुर्भुजं बीजपूरकपद्मयुक्तदक्षिणपाणि नकुलाक्षमूत्रवामपाणि चेति । निर्वाणकलिका, पना ३६
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१६०
१७ गंधर्व
मनागपाशीध्वं करद्वयोध: करद्वयाने धनुः सुनीलः । गंधर्वयक्षः स्तभकेनुभक्तः पूजामुपैतु श्रितपक्षियानः ॥
प्रागाधर, ३ १८५.
ऊर्ध्वद्विहस्तोद्धृतनागपाशमध'द्वहस्तस्थितचापवाणम् । गंधर्वयक्षेश्वर कुंथुनाथ सेवान्थिनानंदयमचं ये त्वाम् ।। नेमिचन्द्र, ३३६
कुंपनाथजिनेन्द्रस्य यक्षां गंधर्वसंज्ञकः । पक्षियानममान्द्रः श्यामवरश्चतुभ'जः ।।
जन प्रतिमालक्षण
श्यामश्चतुर्भुजधर, मिनपत्रगामी विभ्रच्च दक्षिणकर द्वितयेपिपाशम् । विस्फ़जितं च वरदं किल बायो गन्धर्वगट परिधूना कुशबीजपूरः ।। आचारदिनकर, उदय : ३, पन्ना १७५
.
वसुनन्दि, ५४८
१८ खेन्द्र | यक्षेश्वर
तत्तीर्थात्पन्नं गन्धर्वयक्षं श्यामवर्ण हंसवाहनं चतुर्भुज वरदपाशा न्वितदक्षिणभुजं मातृनिङ्गाङ्क, गाधिष्ठितवामभजं चति । निर्वाणकलिया, पन्ना ३६
गन्धर्वनामा यक्षोभूदमितो हंसवाहनः । दक्षिणो वरदं पाशधर विभ्रत् करो परो ॥ मातुलिङ्गाकुंशधरी तीर्थे कुन्यजिनेशिनु ।
अमरचन्द्र, कुन्थजिनचरित्र, १८-१६
प्रारम्योपरिमात्करेषु कलयन् वामेषु चापं पवि पाशं मुद्गरमंकुशं च वरदः षष्ठेन य॒जन् परैः । वाणाभोजफलत्र गच्छपटली लीलाविलासांस्त्रिदृक् षड्वक्त्रष्टगराकभक्तिरमितः खेन्द्रो ऽच्यंत शंखगः ।। प्रशाघर, ३ १४६
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चतुर्विशति यक्ष
१६१
सव्य : कररिह शरासनवज्रपाशम मुदगराकुशवगनपरधरन्तम् । बाणाबुजोरुफलमाल्यमहाक्षमालालीला यजाम्यरसित त्रिदशचखेन्द्रम्।।
नेमिचन्द्र, ३३६
अरस्य जिननाथम्य खेन्द्रो यक्षरित्रलोनन । द्वादगोरुभज श्याम पण्मुखशंगवाहन ।।
__ वमनन्दि, ५/५० वमुशगिनयन षडाम्य मदा कम्बुगामी धृतद्वादशोद्य इज श्यामलः तदनु च शापाशमद्वोजगभयामिम्मम्मदगगन्दक्षिण फारयन । करपरिचरण पुनर्वाम के बभ्राला नक्षगत्र स्परं कार्मक दघवतथवा म रक्षेश्वगभिम्पया लक्षित पान मर्वय भक्तं जनम्।।
प्राचार्गदनकर, उदय ६ ., पन्ना १०५
तनाया-पन्न यक्षेन्द्रय पण्मग त्रिपामवर्ण शम्बग्व रन दाभज मालिगायनमदगरपाशाभययुक्तक्षिणपाणि नकुलधनुश्चमपनमालागासग युगवामपाणि चेति।
निर्वाण कलिना, पन्ना ३६
यक्षाभूत् ५७म ग्वग्यक्ष श्यामाग गदवा, न । ममातुलिङ्गवाणामिमदागन पागभीप्रदो। दक्षिणान् पड्मजान बिभ्रद वामी चक्रधनुधंगे। मवमं नाकुगाक्षमूत्रान् तीर्थ वरप्रभा ।।
अमरचन्द्र, अजिनरिग, १७-१८
१६ कुबेर
मफलकधनुर्दडपद्मग्वगप्रदरमुपागवरप्रदाटपाणिम् । गजगमन चतुर्मखन्द्रचापद्यतिकलशाकनत यजे कुबरम् ।।
प्राशाधर, ३।१४७
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१६२
जन प्रतिमालक्षण
मल्लिनाथस्य यक्षेश : वेरो हम्तिवाहनः । मुरेन्द्र चापवणों सावष्टहस्तचतुर्मुखः ।।
व मुनन्दि, ५१५२
सव्यः करैः फलककामुकदंडपमानन्यः कृपाणगरपाशवरान्दधानम् । दुर्वायं वीर्यचतुरानन पूजये त्वा श्रीमल्लिनाथपदभक्तकुबेरयक्षम् ।।
नेमिचन्द्र, ३३७
प्रष्टाक्षाप्टभुज चतुर्मुखधरो नीलो गजांद्यद्गति : शूलं पर्शमथाभयं च वरदं पाण्युच्चये दक्षिणे । वामे मुद्गरमक्षमूत्रममलं मवीजपूर दधत् शक्ति चापि कुबेरक बरघृताभिरख्यः सुर: पातु वः ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५ ततीर्थोत्पन्नं कुबेरयक्षं चतर्मुख मिन्द्रायुधवर्ण गरुरवदनं गजवाहनं अष्टभज वरदा।शशूलाभययुक्तदक्षिणपाणिं बीजपुरकगक्तिमुद्गराक्षमूत्रयुक्त वामपाणिं चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३६
२० वरुण
जटाकिरीटोप्टमुख स्त्रिनेत्रो वामान्य म्वेटासिफलेप्टदानः । कूर्माकन म्रो वरुणो वृषस्थ : श्वेतो महाकाय उपनु तृप्तिम् ।।
प्रागाधर, ३११४८
यजे जटाजूटकिरीटजुष्टविशिष्टभावाष्टमखं त्रिनेत्रम । सखेटखड्ग सफलेष्टदानं श्री मुव्रतेगो वरुणाख्ययनम् ।।
नेमिचन्द्र, ३,
मुनिसुव्रतनाथस्य यक्षो वरुणसंज्ञकः । त्रिनेत्रो वृषभारूढः श्वेतवर्णश्चतुर्भुजः ।।
वसुनन्दि, २५४
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चतुर्विशति यक्ष
१६३
श्वेतो व दगलोचनो वषगतिर्वेदाननः शुभ्ररुक सज्जात्यष्टभुजोथ दक्षिणकरवाते गदा सायकान् । शक्तिं सफल पूरकं दघदयो वामे धनुः पंकज पशु बभ्रमपाकरोतु वरुणः प्रत्यूहविस्फूजितम् ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५ तत्तीर्थोत्पन्नं वरुणयक्ष चतुर्मुखं त्रिनेत्रं धवलवर्ण बृषभवानं जटाम कुटमण्डितं अष्टभुज मालिगगदावाणशक्तियुतदक्षिणपाणि नकुलकपद्मधनु परशुयुतवामपाणि चेति ।
निर्वाण कलिका, पन्ना ३६ २१. भृकुटि
खेटं खङ्गं फलं धत्ते हेमवर्ण: चतुर्भुजः । नमिनाथ जिनेन्द्रस्य यक्षो भृकुटिमंज्ञकः ।।
वमुनन्दि, ५२५६ खेटामिकोदंडगरांकगाब्जचक्रप्टदानोल्लमिताप्टहस्तम् । चतुर्मुखं नंदिगमतालाकभक्तं जपाभं भृक टि यजामि ।।
___ प्रागाधर, ३।१४६ य: खेटखगो दृढचापवाणी मृण्यं बुजे चक्रवरो दधानः । हम्ताप्टकेनोग्रचतुर्मग्वं तं नमीशयक्ष भृकटि यजामि ।।
नेमिचन्द्र, ३३७ नमितीय भृकटयाख्यो यक्षम्यक्षश्चतुर्मुखः । वृषस्थ: स्वर्णभी जज़ चतुरो दक्षिणान् भुजान् ।। बिभ्रन्मानुलिंगगक्तिमगदराङ्काभयप्रदान् । वामान नकुलपरशुवजाक्षमूत्रमंयुतान् ।।
अमरचन्द्र, नमिजिनचरित्र, १८-१६ स्वर्णाभी वृषवाहनोष्टभुज भाग वेदाननो द्वादशाक्षी वामे करमण्डले भयमथो शक्तिं ततो मुद्गरम् । बिभ्रद्वै फलपूरकं तदारे वामे च बभ्रु पनि पगं मौक्तिकमालिकां भृक टेराइ विस्फोट येत्संकटम् ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७५
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१६४
जन प्रतिमालक्षण
ननीर्थोत्पन्नं भृकुटियक्षं चतुर्मग्वं त्रिनेत्र हेमवणं वृषभवाहनं अष्टभ जं मातृलिङ्गगविनमद्गराभययुक्तदक्षिण आणि नकलपरवज्रासमूत्रवामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७ २२. गोमेद | गोमेध
श्यामम्बिवत्रो द्रघणं कुठारं दंडं फलं वनवरी च विभ्रत् । गोमेदयक्ष: बिनगंग्वलक्ष्मा पूजा नवाहोहंतु पुष्पयानः ।।
ग्रागाधर, ३।१५० घनं कुठार च बिनति दंई मव्य: फनैर्वज्रवरी च योन्यैः । हस्नग्तमाग धतनेमिनाथं गोमेधयक्ष प्रय जामि दक्षम् ।।
नेमिचन्द्र, ३३७ षड़बाहम्बक भारु शितिम्विदनो बाहयं नरं धारयन पद्य-फलपूरचत्र कलिना हम्नीको दक्षिणे । वामे पिङ्गलमूलगवितललिता गोमेघनामा मृर: मंघम्यापि हि मतभीतिहरणो भूया प्रकष्टो हिनः ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६ ननी-पतं गोमेधयक्ष निमृग्वं श्यामवर्ण पुरुषवाहनं पड्भुजं मालिग पर गुचक्रान्वित दक्षिणपाणि नकुल कलयक्तियुतवामपाणि चेति।
निर्वाणलिका.पन्ना ३७ २३. धरण पार्व
ऊर्ध्वद्विहस्तधनवामुकिल्दभटाधः सयान्यपाणिणिपाशवरप्रणंता । श्रीनागराज कुदं धरणाभ्रनील कमश्रितो नजतु वामुकिमोलिरिज्याम्।
मागाधर, ३।१५१ सव्येतराभ्यामुपरिस्थ नाभ्यां यो वामुकीपाशवगै पराभ्याम् । धत्ते तमेनं फणिमौलिचूलं पावेंशयक्षं धरणं धिनोमि ।।
देमिचन्द्र, ३३०
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चतुर्विशति यक्ष
१६५
पार्श्वस्य धरणों यक्ष: श्यामाग: कम्मवाहन. ।
वमुनन्दि, ५।६० खर्वः शीर्षफण : मिति: कमठगो दन्यानन पावं क स्थामोद्भामिचतर्भुज : मुगद या मन्मानाल गेन च स्फूर्जदक्षिणहस्तकोहिनकुल भ्राजिणु वामम्फरन् पाणियंच्छत विघ्न कारिर्भावना विन्हिनिमक यक ।।
प्राचारदिनकर, उदय ::. पन्ना १७६ ननीर्थोत्पन्न पार्वयक्ष गजमयमरगफणामपिटत 'दाम श्यामवर्ण कूर्मवाहनं चतुर्भज बीजपुरको रगय पदणाण नकादियुत वामपाणि चेति ।।
निर्वाणलिका पन्ना ३७
२४. मातङ्ग
वधम नजिनेन्द्र ग्य या माननगर । द्विमजा मुगवोमो वरदो गजवारन: ।। मालिगं कर धने धर्म नत्र, च माना।
बम नदि, ५ ६५-६६ मरगप्रमा मनि धमंच बिभ्रत्फल काम करेथ यच्छन । वर करिम्धी हरिकेतुभना मातंगयक्षागत नृष्टिमिष्टया ।।
अाशाधर, ३११५२ विनान या मर्धनि धर्मचक्र पाल च वा मेन बरं परेण । परेशान मवितवर्धमान मान गयक्ष महिनं महामि ।।
नमिचन्द्र, ३३८ ट्यामो महादस्तिगतिद्विवाहु. मदीजगकितवामपाणि: । दि'जहादवामदग्नी मानङ्गयक्षा वितनातु रक्षाम् ।।
याचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६ ननीर्थोत्पन्नं मान गयक्ष श्यामवर्ग गजवाहन द्विभुजं दक्षिा नकुल वाम बीजपूरकमिति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
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१६६
जैन प्रतिमालक्षण
चतुर्विशति यक्षी
जक्खीप्रो चसगिरोहिणिपण्णतिवर्जामखलया। वज्जंकुसा य अप्पदिचक्के मरिपुरिसदत्ता य ।। मणवेगा कालाप्रो तह जालामालिगगी महाकाली । गउरी गांधारी प्रो वैरोटी मोलसा प्रणं तमदी ।। माणमि महमाणमिया जया य विजयापगजिदाग्री य । बहुरूपिणि कुभंडी पउमा सिद्धायिगीयो ति ।।
तिलायपणनी, ४/६३७-३६ चक्रेश्वर्य जितबला दुरितारिश्च कालिका । महाकाली च्यामा शान्ता भृकुटिश्च मुतारका ।। प्रशोका मानवी चण्डा विदिता चाङ्कमा तथा । कन्दर्पा निर्वाणी बला धारिणी धरणप्रिया ।। नरदनाथ गाधार्यम्बिका पद्मावती तथा । सिद्धायिका चति जन्य क्रमाच्छासनदेवता. ॥
अभिधान चिन्तामणि, देवाधिदेवकाण्ड,४४.४ चक्रेश्वरी रोहिणी च प्रज्ञा व वज्रश्रं ग्वला । नरदता मनोवेगा कालिका ज्वालमालिका ।। महाकाली मानवी च गौरी गान्धारिका तथा । विराटा तारिका चंवानन्तागतिश्च मानसी ।। महामानसी च जया विजया चापराजिता । बहुरूपा च चामुण्डाम्बिका पद्मावती तथा ।। सिद्धायिकेति देव्यस्तु चतुर्विगतिरताम् । कथितान्यभिधानानि शस्त्रभेदोत्र कथ्यते ।।
अपराजितपृच्छा, २२१ । ११-१४ देवीपो चक्कसरि अजिया दुरितारि कालि महाकाली । मच्च य सता जाला मुतारया मोय सिरिवच्छा ।। पवर विजयकुमा पन्नयत्ति निव्वाण प्रच्च या धरणी । वहरुट छुत गधारि प्रब पउमावई सिदा ।।
प्रवचनसारोदार, द्वार २७।३७७-३७८
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चतुर्विशति यक्षी
१६७
१. चक्रेश्वरी अप्रतिचक्रा
भर्माभाटकरद्वयालकुलिशा चक्राकहस्ताष्टका सव्यासव्यशयोल्लसत्फलवग यन्मनिरास्तेम्बुजे । ताये वा सह चक्रयुग्मरुचकत्यागश्चतुभिः करैः पंचेष्वासशतोन्नतप्रभुननां चक्रेश्वरी ता यजे ।।
प्रागाधर, ३११५६ या देव्यूर्ध्वकरद्वये कुलिशं चक्राण्यधा स्थ: कर अष्टाभिश्च फलं वरं करयुगेनाधत्त एवाथवा धत्ते चक्रयुगं फलं वरमिमा दोभिश्चभिः श्रिताम् ताक्ष्य तां पुरुतीर्थपालनपरां चक्रेश्वरी मयजे ॥
नेमिचन्द्र, ३४० वामे चक्रेश्वरी देवी स्थाप्या द्वादशसद्भजा । धत्ते हम्त द्वये वजे चक्रानि च तथाप्टम् ।। एकेन वीजपूरं तु वरदा कमलामना । चतुर्भजाथवा चऋद्वयोर्गरडवाहना ।।
वमनन्दि,५।१५-१६ स्वर्णाभा गम्डामनाष्टभ जयग्वामे च हम्नीच्चये वज्र चापमथाङ्क,श गुरुधनुः मोम्यागया बिभ्रती। तस्मिंश्चापि हि दक्षिणेथ वरदं चक्र च पाश गन् मच्चका परचक्रभजनरता चत्रेश्वरी पातु नः ।।
ग्राचारदिनकर, उदय ३३.पन्ना१७६ तथा तम्मिन्नेव तीर्थ ममत्पन्नामप्रतिचक्राभिधाना यक्षिणी हेमवर्णा गरुडवाहनामष्टभुजा वरदवाणचक्रपागयुक्न दक्षिणकरा धनुवं च चक्राकुगवामहम्ना चेनि ।
निर्वाणलिका, पन्ना ३४ प्रभारप्रतिचक्राम्या तीर्थे शासनदेवता । युता मच्चक्रपाशेषु वरदैदक्षिण : वर. ।। चक्रा डुगधनुर्वचलक्षणदक्षिणेतरः ।। मुपर्णवाहना स्वर्गवणी सन्निधिवननी ।।
अमरचन्द्र, प्रथम जिन चरित्र,१०२-१०३
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जैन प्रतिमालक्षण
षट्पादा द्वादशभूजा चक्राण्यप्टो द्विवचकम् । मातुलिंगाभये चैव तथा पद्मामनापि च । गाडोपरिसंस्था च चक्रेशी हेमणिका ।
अपराजितच्छा , २२१११५-१६ २. रोहिणी । अजिता। अजितबला
स्वर्णयुतिशंग्व रथाङ्गगाना लोहामनम्थाभयदान हस्ता । देवं धनुःमाचतुःगतोच्च बदामवीप्टामिह रोहिणीष्टः।।
प्रायाधर, ३।१५७ ऊध्वंद्विहस्तांदघनच त्रयम्बा अधाद्वि हम्नाभयदानमुद्राम् । प्रभावयनीजितगतीयं यजरिधि कागि गहिणि त्वाम् ।।
नमिचन्द्र, ३४१ देवी लोहामनाम्दा गहिण्याम्या चतुर्भुजा । वरदाभ यहम्नामा गम्वचत्र बनायुधा ।।
____ वमनन्दि, ५११८ गोगामिनी धवलरक च चतुर्भजाया वामेतर वरदपावभासमाना । वाम च पाणियुगल सृणिमातृनिङ्गयुक्त, मदाजित बला दधती पुनातु ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६ तथा तस्मिन्नेव तीर्थे ममृत्पन्नामजिनाभिधाना यक्षिणी गौरवर्णा लोहामनाधिरूदा चतुर्भजा वरदपानाधिष्ठिनदक्षिणकग बीजपूगङ्कनयुक्त वामकरा चति ।
निर्वाणलिका, पन्ना ३४ बिभ्राणा दणिणी वाहू वरदं पागगालिनम् । बीजपूराङ्कयुतो वामौ तु कनकद्य नि: ।। देवता त्वजितबला तीर्थभूदजितप्रभो । लोहासनसमामीना पार्वे शासनदेवता ।।
अमरचन्द्र, अजितचरित्र, २१-२२ चतुर्भुजा श्वेतवर्गा शंखचकाभयवरा । लोहासना च कर्तव्या रथारूढा च रोहिणी ।।।
प्रपराजिनपृच्छा, २२१११६
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चतुविशति यक्षी
३. प्रज्ञप्ति / दुरितारि
पक्षिस्था परशुफलामी ढीवरैः मिता । चतुश्चापशतोच्चार्हद्भक्ता प्रज्ञप्तिरिज्यते ।। आशाधर, ३ १५८
धत्ते चंद्रपरशु फलं वै कृपाणपिडीवरमादधानम् । यजामहे सभवनाथयक्षा प्रज्ञप्तिसज्ञा क्षपितारिशक्तिम् ।। नेमिचन्द्र, ३४१
प्रज्ञप्तिदेवना चैना षड्भुजा पक्षिवाहना । परशु धत्तं फलासाठिवरप्रदा ॥ वसुनन्दि, ५२० मेषारूढा विशदकरणा दोष्चतुष्केण युक्ता मुक्तामालावर दकलितं दक्षिण पाणियुग्मम् । वामं तच्चाभयफलशुभ बिभ्रता पुण्यभाजा दद्यात् भद्र सपदि दुरितागतिदेवी जनानाम् ।। आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६
तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्ना दुरितारिदवी गौरवर्णा मेषवाहना चतुर्भुजा वरदानयुस्तदक्षिणकरा फलाभयान्वित वामक्राति
निर्वाणकनिका, पन्ना ३४
वरदानपराक्षस्रग्युता दक्षिणदांगूंगा । अभयप्रद कणिभृदव र वामकरद्वया ॥ दुरितागिति नाम्ना गौराङ्गीच्या गवाहना । चतुर्भुजा श्रीसम्भवनीय शासनदव्यभूत् ।। ग्रमरचन्द्र, सभवचरित्र, १९-२०
४. वज्र खन्ना / कालिका
P
मनागपाशीफलाक्षसूत्रा साबिरुदा वरदानुभुक्ता । हमप्रभावं त्रिधनु गताच्चतीयगनम्रा पविशृंखला ॥ प्राणाधर, ३ / १५६
या नागपाशं फलमलमूत्र वर विभत्ति प्रवरप्रभावा । यजे यजन्तीमभिनदनेशमुच्छ्र वनद्धि पविश्रृंखला ताम ॥ नेमिचन्द्र, ३४१
१६६
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१७०
जैन प्रतिमालक्षण
वरदा हंसमारूढा देवता वज्रश्रृंखला । नागपाशाक्षसूत्रोरुफलहस्ता चतुर्भुजा ।।
वमुनन्दि,५२२. श्यामा पद्यसंस्था वलयलिचतुर्बाहुविभ्राजमाना पाशं विम्फूर्जमूर्जस्वलमपि वरदं दक्षिणे हस्तयुग्मे । विभ्राणा चापि वामेक शमपि कवि भोगिनं च प्रकृष्टा देवीनामस्तु काली कलिकलितकलिम्फनितद्भूतये नः ।।
___प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६ तस्मिन्नेव तीर्थ समुत्पन्नां कालिकादेवी श्यामवर्णा पद्यामनां चतुर्भुजा वरदपाशाधिष्ठित दक्षिणभुजा नागाङ्क गान्वितवामकरा चति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३४-३५ श्यामा वरदपाशाको बिभ्राणा दक्षिणी करी ।। नागांकुगधरी वामो कालिका कमलासना। अभिनंदनदेवस्य तीर्थे शासनदेवता ।।
प्रमरचन्द्र, अभिनंदनचरित्र,१७-१८
५. पुरुपदत्ता | महाकाली
गजेन्द्रमा वजफलोद्यचक्रवरागहस्ता कनकोज्ज्वलांगी। गह गानुदंडत्रिशतोन्नतार्चना खङ्गवराय॑नेत्वम्
प्राशाघर,३।१६० वचं फलं सव्यकरद्वयेन चक्रं वरं चान्यकरद्वयन म मुद्हन्ती मुमतीशयक्षो यजामहे पूरुषदत्तिकारव्याम् ।।
नेमिचन्द्र ,३४२ देवी पुरुषदत्ता च चतुर्हस्ता गजेन्द्र गा ।। रथाङ्गवशस्त्रासो फलहस्ता वरप्रदा । तिमणां प्रोक्नदेवीनां शरीरं कनकप्रभम् ।।
वमुनन्दि,५।२४-२५
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चतुर्विशति यक्षी
स्वर्णाभाम्भोरुहकृतपदा स्फारबाहा चतुष्का सार पाय वरदममल दक्षिणे हस्तयुग्मे । वामे रम्याट कुगमतिगुण मातुलिङ्ग वन्ती सद्भक्ताना दुरितह रणी श्रीमहाकालिकास्तु ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७ तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्ना महाकाली दवी मुवर्णवर्णी पद्मवाहना चतुर्भुजा पाशाधिष्ठितदक्षिणकरा मातुलिगाकुशयुक्तवामभुजा चेति ।
निर्वाणलिका, पन्ना ३५ करो वरदपाशाको दक्षिणी दक्षिणेतरी ।। मातलिङ्गाकुगधरो बिभ्राणाम्भारुहामना । मकान्तिमहाकाली देवी सुमतिगासन ।।
अमरचन्द्र, मुमतिचरित्र, १६-२० ६. मनोवेगा | अच्युता
फलक फलमुग्रामि वर वहति दुर्जया । पप्रभस्य या यक्षी मनोवेगा महामि ताम् ।।
नेमिचन्द्र,३४२ तुरगवाहना दवी मनावंगा चतुर्भजा । वरदा काचनछाया मात्रामिफलका ।।
वमुनन्दि, ५।२७. श्यामा चतुर्भजधग नरवाहनम्था पाश तथा च वरद
करयादधाना। वामान्ययोम्नदनु सुन्दरबी जपूर तं पणाकुश च परयो.
प्रभुदच्युताम् ॥
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७ तस्मिन्नेव तीर्थे ममुत्पन्नामच्युतादेवी श्यामवर्णी नरवाहना चतुर्भुजा वरदवीणा (वाणा) न्वित दक्षिणकरा कार्मुकाभययुतवामहम्ना चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५,
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१७२
जन प्रतिमालक्षण
अच्युता गामनदेवी श्यामागी नरवाहना ।। दक्षिणी वरद पागं गोभिनं विभ्रती भुजी । वामो पुनधनुदंण्डप्रचण्डाभयदायिनी ।।
अमरचन्द्र, पद्मप्रभचरित्र, १७-१८
७. काली /गान्ता
मिता गोवृषगां घटा फलशूलवगवृताम् । यजे काली द्विकोदण्डगतोच्छाजिनाश्रयाम् ।।
प्रागाधर, ३/१६१
प्रारभ्य वामोपरि हम्ननो या घटा फल शूलमभीष्टदानम् । दधानि काली कलितप्रमादा ममपंया मास्तु सुपार्वयक्षी ।।
नेमिचन्द्र, ३४२
मिनागा वृषभारूदा का नीदवा चतुजा । घटा मूलमयुक्ता फलदम्ता वरप्रदा ।।।
वमुनन्दि, ५/२६
गजारूढा पाता द्विगुग नपुग्मन सहिता लमन्मुक्तामाला वरदमाप मध्यान्यकग्यो । वहन्नी शूल चाभयमपि च मा वामक्रया निशान्त भद्राणा प्रतिदिदा ] गा। मदृदयम् ।।
प्राचारदिनकर उदय ३३ पन्ना १७७
नम्मिन्नेव तीर्थ ममु-पना सान्निदवा मुपा गजवाहना चतुर्भुजा वरदाक्षमूययुक्तदक्षणका गूनाभयपुतवामहस्ता चति ।
निर्वाणलिका, पत्रा ३५
मासन देवता दाना म्वर्णव गमवाहना ।। दक्षिगौ वरद साक्षत्र वामो तु बिम्रती । मूलावाभयदी बाहू श्रामुपाश्वप्रभारभवत् ।।
अमरचन्द्र, मुपास्वं चरित्र १६-२०
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चतुविशति यक्षी
८. ज्वालिनी / ज्वाला / ज्वालामालिनी/ भृकुटि
चंद्रोज्ज्वलां चक्रशरासपाणचमं त्रिशूले भषा मिहस्ताम् । श्रीज्वालिनी सार्द्धधनुः गतोच्चजिनाननां कोणगनां भजामि || प्रशाध र ३ १६२
चक्रं चापमहीपागफलके सव्यंश्चतुभि: करं
:
रन्यैः शूलमिषु भवं ज्वलदसि घनेत्रया दुर्जया । तां इन्दुप्रभदेवमेवनपरामिष्टार्थसार्थप्रदाम्
ज्वालामाल कराल मौलिकलिता देवा यजे ज्वालिनीम | नेमिचन्द्र, ३४३
ज्वालिनी महिषारूढा देवी श्वेता भुजाष्टका । काण्डवत्रिशूलं च धत्तं पाये धनुषम् ।।
वसुनन्दि, ५ ३१
पीता विडालगमना भृकुटितुर्दो वमि च हस्तयुगले फलकं पशुम् । तव दक्षिणक रेप्यमिमुद्गरो च विभ्रन्यनन्यहृदयान् परिपातु देवी ।।
तस्मिन्नेव नीर्थे समुत्पन्ना भृकुटिदेवी पीतवर्णा वराह ( विडाल ) वाहना चतुर्भुजा खडगमुद्गरान्वितदक्षिणभजां फलक परशुयुतवामहस्ता चेनि ।
श्राचारदिनकर उदय ३३, पन्ना १७७.
९ महाकाली / सुतारा
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५
खड्गमुद्गरसंयुक्तो विभ्राणा दक्षिणो करो । वाम फलकपरशु शालिनी हंसवाहना ।। सुवर्णवर्णा भृकुटी प्रभो. शासन देव्यभूत ।
१७३
अमरचन्द्र प्रष्ट मजिनचरित्र, १५ १६
1
कृष्णा कूर्मासना धन्वशतोन्नतजिनानना । महाकालीज्यते वज्ज्रफनमुद्गग्दानयुक् ।। श्राशाघर, ३ / १६३
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१७४
जैन प्रतिमालमण
या वषमत्यूजितमानुलगं धत्ते म्फुरन्मुद्गरमिष्टदानम् । तां पुष्पदन्तप्रभुपादसेवामक्तां महाकालिमिमा महामि ।।
___ नमिचन्द्र. ३४३ देवी नथा महाकाली विनीता कम्मं वाहना। मवज्रमुद्गरा कृष्णफल हस्ता चतुर्भुजा ।।
वमुननन्दि, ५ ३३ वृषभ गतिरथोद्यच्चारुबाहा चतुष्का गरारकिरणभा दक्षिणे हस्तयुग्मे । वरदरमजमाले बिभ्रती चव वामे मणिकलगमनोज्ञा स्तात् मतारा महाध्य ॥
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७ तस्मिन्नेव तीर्थे ममुत्पन्ना मतारादेवी गौरवणी वृषवहाना चतुर्भुजा वरदाक्षमृत्रयुक्त दक्षिणभुजा कलशाकुशान्वितवामपाणिं चेति।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५ दक्षिणी वरदं साक्षमत्रं च दधती भुजी ।। वामी कलगाकुशाड्डो गौरागी वृषवाहना । मुतारा सुविधेरासीत् तीर्थे शासनदेवता ।।
अमरचन्द्र, मुविधिजिन चरित्र,१८-१६ ६. मानवी अशोका
झषदामरुचकदानोचितहम्ता कृष्णकालगा हरिताम् । नवतिधनुगजिनप्रणतामिह मानवी प्रयजे ।।
प्रागाधर ३।१६४ अवंद्विहस्तोद्धृतमत्स्यमाला अधोद्विहस्तात्तफलप्रदानाम् । वामादित. शीतलनाथयक्षी महद्धि का मानवि मानये त्वाम् ।।
नेमिचन्द्र,३४३ मानवी च हरिद्वर्णा झषहस्ता चतुर्भुजा। कृष्णशूकरसंस्था च फलहस्ता वरप्रदा ।।
वसुनन्दि, ५॥३५.
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चतुविशति यक्षी
१७५
नोला पद्मकृतामना वरभदपमाणर्युता पाग सदवरद न दक्षिणकरे हम्तद्वये विभ्रती । वामे चाकुगवर्मणी बहुगुण गापा वियोका जन कुर्यादामरमा गणे. परिवना नयादगनन्दित ।।
प्राचार्गदनकर उदय ३३, पन्ना १७७ नम्मिन्नेव तीर्थ ममुनाना अगोका दर्ष मृदगवी पद्मवाहना चतुर्भजा वरदपाशयुक्त दक्षिणकरा फाकुशयुक्तवामकग चति ।
निर्वाण निका, पन्ना ३५ दक्षिणी वरद पाशशोभित बिभ्रता भजी। वामो फलाकुनायगे मुदगाभा जामनाजनि ।। अगाकार या श्रागोतलतार्थ गामन देवता ।।
अमरचन्द्र, गीतननाथ नरित्र, १६-२० ११. गौरी /मानवी
ममुद्गगब्जरला वग्दा कनकप्रभाम । गोरी यजनीतिधन प्राश देवा मगापगाम ।।
प्रागाधर,३।१६५ दोभिचतुभिदंघण पयोज वा विभ्रती भमभीष्टदानाम ।। श्रेयोजिनश्रीपदपद्मभगी गोरी यज विविधा भकारीम् ।।
नमिचन्द्र, ३८८ पद्महम्ना मुवर्णामा गोरीदेवी चतुर्भज।। जिनेन्द्रगामने भक्ता वरदा मगवाहना ।।
वमनन्दि, ५७. श्रीवन्माप्यथ मानवी गिनिभा मानगजिद वाहना । वाम हम्लयुग घटाकुगयुत नम्मार दक्षिणम ।। गाट म्फजितमुदगरेण वरदेनाल न बिभ्रती पूजाया सकल निहन्तु कलुष विश्वयम्वामिन ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३,पन्ना १७७. नम्मिन्न व नीर्थे ममुत्पन्ना मानवी दवा गौरवर्गा सिंहवाना चतुर्भुजा वरदमुद्गन्वितदक्षिणपाणि कलगाकुगयुक्तवामकरा चेति ।
निर्वाणकलिका पन्ना ३५
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१७६
जैन प्रतिमालक्षण
देवी च मानवी गोग्शरीग मिहवाहना । वरदं मुद्गर प्राग्रं बिभ्राणा दक्षिणी कगे। कलशेनाकुशेनापि प्रगम्यो दक्षिणेतरी ।।
अमरचन्द्र, एकादशजिनचरित्र,२०.२१ १२. गांधारी चण्डा
मपप्रमुमलाभोजदाना मकरगा हरित् । गाधारी मप्ततीप्वामतुगप्रभनताय॑ते ।।
__ अागाधर ३३१६६ लीलाबुजाकोपरि हम्तयुग्मामघोद्विहस्ते मृमलेष्टदानाम् त्वा वासुपूज्मप्रमितान्नग्गा गाधारि मान्ये बहु मानयामि।।
नेमिचन्द्र,३८४ गाधारी मजका दवा हरिद्भामा चतर्भजा । मुशल पद्मयुग्म च धने मकर वाहना।।
वमुनन्दि,५।३६ श्यामसना नग्गासना चत दो करयोदक्षिणयावर च शक्तिम् । दधती किल वामयो: प्रसून मुगदा मा प्रवगवताच्च चण्डा ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७. नम्मिन्नव तीर्थ म मृत्पन्ना प्रचण्डादेवी श्यामवर्णा अश्वारूढ़ा चतुर्भुजा वरदाक्तियुक्तदक्षिणकग पुगदायुक्तवामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३५ देवी चण्डाह्वया श्यामधामदेहाश्ववाहना ।। बिभ्राणा वरद शक्तिधारिण दक्षिणी भुजौ। पुष्पेण गदया युक्ती दधाना दक्षिणेतरी ।।
अमरचन्द्र, वासुपूज्य चरित्र, १८-१६ १३. वैरोटी / विदिता
षष्टिदंडोच्चतीर्थेशनता गोनसवाहना । ससर्पचापसषवरोटी हरितार्यते ।।
माशाघर,३११६७
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चतुर्विशति यक्षी
जान हस्तद्वितयेन सर्पावध.स्थितेनोजितचापवाणी । यजे वहन्ती विमलेशयक्षी वरोटिका नाटिनविघ्नकोटिम् ।।
नेमिचन्द, ३४४ वैरोटी नामनो देवी हरिद्वर्णा चतर्भजा । हस्तद्वयेन मप्पी द्वो धत्ते घोनमवाहना ।।
वमुनन्दि,५१४१ विजयाम्बुजगा च वंदबाहुः कनकाभा किल दक्षिणद्विपाण्यो: शरपागधरा च वामपाण्याविदिता नागधनुर्धराऽववताद्वा ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३ पन्ना १७७ तस्मिन्नेव तीर्थे समपन्ना विदिता देवा तालवणों पारूढा चतुर्भुजा बाणपागयक्तदक्षिणपाणि धनुर्भागयुक्त वामपाणि चेति ।
निर्वाणलिका, पन्ना ३६
१४. अनंतमती /अवगा
हेमाभा हंमगा चापफल वाणवरोद्यता । पचाशच्चापतुगाईभक्ताननमती ते ।।
प्रागाधर, ३,१६८ अधिज्यधन्वानमपातलगं निगानवाण दधताप्टदानम् । सचितानंतमती प्रमन्ना भयादिहानंजिनगयक्षा ।।
नमिचन्द्र,३८५
तथानंतमती देवी मवर्णा चतुर्भुजा । चापं वागा फनं धत्तं वरदा हमवाहना ।।
वमुनन्दि,५।४३ पद्मासनोज्ज्वलतनुश्चनुराढ्य बाहुः पागामिलक्षितमुदक्षिणहस्तयुग्मा। वामे च हस्तयुगले शखेटकाभ्या रम्यांकुगा दलयतु प्रतिपक्षवृन्दम् ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७
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१७८
जन प्रतिमालक्षण
तम्मिन्नेव तीर्थे ममुत्पन्ना अंकुशा देवी गौरवर्णा पप्रवाहना चतुर्भुजा खड्गपाशयुक्नदक्षिणकरां चर्मफलकाकुशयुनवामहस्ता चति ।
निर्वाणकालिका, पन्ना ३६
प्रकशा नाम्ना देवी तु गौगङ्गी कमला मना ।। दक्षिणे फलकं वामे वकुशं दधती करे। अनन्तस्वामिनश्तीविना शामन देवता ।।
प्रमरचन्द्र, अनन्तजिनचरित्र, १६-२०
१५. मानमी कन्दर्पा
माबुजधनुदानाकुगगरोत्पला व्याघ्रगा प्रवाल निभा। नवपचकचापांच्छितजिननम्रा मानमीह मान्येत ॥
प्राशाधर, ३/१६६
अंभोग कार्मुकमिट दान धने कुरा मार्गणमृत्पलं च । दधाति वै धजिनशयक्षी या मानसीमा बहु मानयामि ।।
नेमिचन्द्र, ३४५
देवता मानमी नाम्ना पड्भ जा विद्रमप्रभा । व्याघ्रवाहनमारूढा नित्य धर्मानुरागिणी ।।
वसुनन्दि, ५/४५
कन्दपांत परपन्नगाभिधाना गोरामा झष गमना चतुर्भुजा च । मत्पद्याभययुतवामपाणियुग्मा । कल्हाराङ्क,शभृतदक्षिण द्विपाणिः ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७ तस्मिन्नेव तीर्थे ममुत्पन्ना कन्दपी देवी गौरवणी मत्स्यवाहना चतुर्भुजां उत्पलाकुशयुक्तदक्षणकरा पद्माभययुक्तवामहस्तां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३६
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पतुर्विशति यक्षी
१७६
कन्दर्पा नाम देवी त गोराङ्गा मोनवाहना ।। उत्पलाडू गमयुक्तो दक्षिणी दधती भजी। वामो सपनाभयदी श्रीधर्मस्वामिगामने ।।
अमरचन्द्र, धर्मजिन चरित्र, २०.२१ १६. महामानमी/ निर्वाणी
चत्र फलेदिवराकिलकगं महामानमी गुवर्णाभाम् । शिखिगा चत्वारिषद्धनुरुन्नजिननता प्रयजे ।।
प्रागाधर, ३।१५० रथांगपाणि फलपूरहम्त' मोडीगया दानक राम जेयाम् । शातीगपादाम्बुजदत्तचित्तां काता महामानगि मानये त्वाम् ।
नेमिचन्द्र ३४५ मा महामानमी देवी हे मवर्णा चतर्भजा । फलेट चक्रहस्तामो वरदा गिग्विवाहना ।।
वमनन्दि,५४० पद्मम्था कनकर्माचश्चत जाभूत काहारोत्पललितापमव्यपाण्या । कारकाम्बुजसव्यपाणियुग्मा निर्वाणा प्रदिगत निति जनानाम् ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १८७ तस्मिन्नेव तीर्थ ममुत्पन्ना निर्वाणी देवी गौरवणी पनामनां चतुर्भुजा पुस्तकोत्पलयुक्तदक्षिणकरा कमण्डलुकमलयुक्तवामहम्ना चेति ।
निर्वाण कलिका, पन्ना ३६ जया/बन्ला
मचक्रशग्वामिवग रुक्माभा कृ णकोलगाम् । पंत्रिगद्धनुगजिननम्रा यजे जयाम् ।।
प्रागाधर,३/१७१ चक्रं ममाक्रातविरोधिचक्र शंखं म्वभकारकृताग्भिीतिम् । प्रत्युग्रखडगं वरमादधाना यजे जया कुंजिनेन्द्रयक्षीम् ॥
नेमिचन्द्र, ३४५-३४६
१७.
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१८०
जयदेवी सुवर्णाभा कृष्णशूकर वाहना । शखामिचक्रहम्तासो वरदा धर्मवत्सला ।।
वसुनन्दि, ५।०६
शिखिगा मुचतुर्भुजानिपीता फलपूर दधती त्रिशूलयुक्तम् । करयारपसव्ययाच मन्य करयुग्म तु भुयुटिभृत्बलाच्यात् ।। श्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७७
तस्मिन्नव तीर्थे समुत्पन्ना बला देवी गौरवर्णा मयूरवाहनां चतुर्भुजा बीजपूरकशूलान्वितदक्षिणभुजा मुष्टिपद्यान्वितवामभुजा चेति ।
जैन प्रतिमालक्षण
देवी बलाह्वया गौरदेहा बहिणवाहना || बीजपूरकशूलाङ्क । बिभ्राणा दक्षिणा भुजी । वामो मुण्टीपद्माडी कुन्या शासनदेव्यभूत ॥
१८. तारावती / धारिणी
निर्वाणकल्वा, पन्ना ३६
अमरचन्द्र, कुन्थुजिनचरित्र, १९-२०
स्वर्णाभा हमगा सर्पमृगवज्रवराद्धुराम् । चाय तारावती निशच्चापोच्च प्रभुभक्ति काम् ॥ प्रशाधर । १७२
देवी तारावती नाम्नामवर्णा चतुर्भुजा । सर्प वज्र मृग धत्ते वरदा हसवाहिनी || वसुनन्दि, ५०५१ नीलाभाव्जपरिष्ठिता भुजचत एकाद्यापसव्ये करद्वन्द्वे कैरवमातुलिंगकलिता वामे च पाणिद्वय । पद्माक्षावलिधारिणी भगवती देवाचिता धारिणी सघस्याप्यखिलस्य दस्युनिवहं दूरीकरोतु क्षणात् ।।
माचार दिनकर, उदय ३३, पन्ता १७८
तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्ना धारिणी देवी कृष्णवर्णां चतुर्भुजा पद्मासना मातुलिंगोत्पलान्वितदक्षिणभुजा पाशाक्षसूत्रान्वितवामकरा चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३६
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चतुर्विशति यक्षी
मातुलिगात्पलधरी विभ्र णा दक्षिणी भजी । पद्माक्षमूत्रिणी वामी नलाङ्गी नालनासना ।। धारणीन्यर नाथस्य तीथे शामन देवता । प्रभो मर्वपरीवारोभवद् विहरव' ।।
अमरचन्द, प्रजननरित्र, १९-२०
१६. अपगजिता वैरोटी
पविशतिचापोच्चदेवसेवापराजिता । शरभम्थाच्यं ते बेट फलासिवर एक हारत् ।।
प्रागापर,११५. हम्नद्वयनोपरि मन भटकृपाणमन्येन फ1 प्रदानम् । उद्विभ्र । मल्लिजिनन्द्रयक्षा गलात पुजामपगजित यम ।।
नामचन्द्र, .. प्रप्टापद ममारूढा दवी नाम्नापगजिना । फलामिखेटहरनामी हरिदवर्णा चतुभंगा ।।
वगनन्दि , ५ ५:
कृष्णा पत्यकृतामना गुममयप्राद्यत्चतुर्मानुभूल मुक्ताक्षालिमदभन च वरद मपूर्ण मुद्विमना । चच्चदक्षिणाणयुग्ममिन-मन्यामपाणिय मच्छक्ति फलपूरक प्रियतमा नागाधिपायावतु ।।
प्राचार्गदनकर, उदय ३५, पन्ना १७८
नम्मिन्नेव तीर्थ ममृत्पन्ना वगट्या दवा पद्यामना चतुर्भुजा वग्दा समूयुकदक्षिणकग मातृलिगगक्तियुतवामहग्ना चति ।
निर्वाणलिका, पन्ना ३६
वरद माक्षमूत्र च दक्षिणी विनंती भुजी । वामो पुनातुलिगगकयङ्गी कमलामना ।। वरोट्या गजपट्टाभा मल्ल: शासनदव्यभून् ।
अमरचन्द्र, मल्लिजिनचरित्र, ६०-६१
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१८२
जन प्रतिमालक्षण
२०. बहुरूपिणी / नरदत्ता
अष्टानना महाकाया जटामुकुटभूषिता । कृष्णनागसमारूढा देवना बहुरूपिणी ।।
वमुनन्दि, ५/५५ पीता विशतिचापोच्चस्वामिका बहुरूपिणीम् यजे कृष्णाहिगा खेटफलग्वगवरोनराम् ।।
प्रागाधर ३/१७४ या खेटक मंगलमातुलगं कृपाणमुग्रं बरमादधाति । सा न. प्रसन्ना मुनिसुव्रनाईभक्तास्तु भव्यबहुरूपिणीष्टया ।।
नेमिचन्द्र, ३४७ भद्रासना कनकरुक्तनुरुच्चबाहुरक्षावलीवरददक्षिणपादयुग्मा । सन्मातुलिङ्गयुतशूलितदन्यपाणि रच्छतिका भगवती जयनादत्ता ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७८ तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्ना नरदत्तां देवी गौरवर्णा भद्रासनारूढा चतुर्भुजा वरदाक्षसूत्रयुतदक्षिणकरा बीजपूरककुम्भयुतवामहस्ता चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३६ २१. चामुण्डा/गाधारी
प्रष्टबाहुश्चतुर्वक्त्रा रक्ताक्षा नदिवाहना । चामुण्डा देवता भीमा हरिद्वर्णा चतुर्भुजा ।।
वमुनन्दि, ५ ५७ चामुण्डा यष्टि खेटाक्षमूरखङ्गात्कटा हरिन् । मकरस्थाय॑ ते पचदशदंडोन्नतेशभ'क् ।।
प्राशाघर, ३ १७५ इष्टयास्तु तुष्टा धृतप्टिखेटसव्यद्विहस्तान्यकरद्वयेन । दिव्याक्षमालामसिमादधाना चामुडिकां श्रीनमिमानमन्तीम् ।।
नेमिचन्द्र, ३४७
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पतुविशति यक्षी
१३
हंसानना शशि सितोरुचतुर्भुजाढया खड्ग वर सदपसव्यकरद्वये च । सव्ये च पाणियुगले दधनी शकुन्तं गाम्मारिका बहुगुणा फलपूरमव्यात् ।।
प्राचारदिनकर, उदय : ३, पन्ना १७७ गांधारीदेवी श्वेतां हंसवाहना चतुर्भजा वरदखङ्गयुक्तदक्षिणभुजद्वया बीज पूरकुभ (यन्त ।) युतवामपाणिद्वया चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३६ गाधारी गासने देवी श्वेताजी हमवादना । वरदं वङ्गिनं बाहू दक्षिणावपरी पुनः । सबोजपूरी बिभ्राणा सनिधी श्रीन मिप्रभो । पृथ्ख्या विहरत: सर्वपरीवारम्त्वभूदिति ।
अमरचन्द्र, नमिजिननरित्र, २०-२१
२२, पाम्रा अम्बिका द्विभुजा सिहमारूढा पाम्रादेवी हरिप्रभा ।।
वमुनन्दि, ५/५: सव्येक द्यपगप्रियंकर मुतुक्प्रीत्य को बिभ्रती दिव्याग्रस्त बकं शुभंकरकरश्लिष्टान्य हम्तालिम् । सिहे भर्तृचरे स्थिता हरितभामा म्रदमच्छायगा वंदारु दशकामकोच्छ जिनं देवीमिहाम्रा यजे ।।
प्रागाधर, ३/१७६ धत्ते वामकटो प्रियंकरमृतं वामे करे मजरीमाम्रम्यान्यको शुभंकरतजोहस्तं प्रशस्त हगे। प्रास्ते भत चरे महाम्रविटपिच्छायं श्रिता भीष्टया यामो ता नुननेमिनाथपदयानंम्रामिहाम्रा यजे ।।
नमिचन्द्र ३४७ सिहारूढा कनकननुरुग्वेदबाहुन वामे हस्तद्वन्द्वं कुगतनुभवो विभ्रती दक्षिणेत्र । पागाम्राली सकल जगता रक्षणकाद्वंचिन्ता देव्यम्बा नः प्रदिशतु ममस्तापविध्वंममागु ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पत्रा १७८
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१८४
तस्मिन्नेव तीर्थं समुत्पन्नां कूष्माण्डी देवी कनकवर्णा सिंहवाहनां चतुर्भुजां मातुलिङ्गपाणयुक्तदक्षिणकरां पुत्रांकुशान्विनवामकरां चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
२३. पद्मावती
देवी पद्यावती नाम्ना रक्तवर्णा चतुर्भुजा || पद्मासनांकुशं धते स्वक्षमूत्रं च पङ्कजम् । अथवा षड्भुजा देवी चतुर्विंशतिमद्भुजा || पाशामिकुन बालेन्दुगदा ममलमयुतम् । भुजाषट्कं समाख्यातं चतुर्विंशतिरच्यते ॥ शंखासिवालेन्दुपद्मोत्पलगरामनं । शक्तिपाशांकुशं घण्टां वाणं मुसलखेटकम् || त्रिशूलं परशु कुतं वज्र माना फल गदा । पत्रं च पल्लवं धत्ते वरदा धर्म्मवत्सला ।।
वसुनन्दि, ५।६०-६४
जैन प्रतिमालक्षण
येष्टुं कुर्कुटमा त्रिफणकोत्तसा द्विषो यानपट् पाणादिः मदमत्कृते च घृतांवापादिदी अष्टका । तां गानामरुणा स्फ ुरच्छ्रणिमरोजन्माक्षमाला वरां पद्मस्थानवहस्तकप्रभ नता यायज्मि पद्मावतीम् ॥ प्रशाधर, ३।१७७
पायाद्यन्वितषडभ जारिजयदा ध्याना चर्चाविशनि शंखास्यादियुतान्करांस्तु दधती या क्रूरणान्त्यर्थदा || शान्त्यं सांकुदावारिजाक्षमणिमद्दानंश्वनुभिः करं युक्तां ता प्रयजामि पार्श्वविनता पद्मस्थपद्मावतीम् ।। नेमिचन्द्र, ३८७-४८
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चतुर्विशति यक्षी
१८५
स्वर्णाभोनमकुर्कुटाहिगमना सौम्या चतुर्बाहुभद् वामे हस्तयुजेश दधिफलं तत्रापि व दक्षिणे पद्मं पाशमुदञ्चयन्यमविरत पद्मावतीदेवता किन्नर्यचितनित्यपादयुगला संघम्य विघ्न ह्रियात् ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७८ तस्मिन्नेव तीर्य समुत्पन्ना पद्मावता देवी कनकवर्णा कुर्कुटवाहना चतुर्भुजा पद्मपाशान्वितदक्षिणका फलाकुगाधिष्टिनवामकरा चेति।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३७
२४. मिद्धायिका
मिद्धायिका तथा देवी द्विभजा कनकप्रभा ।। वरदा पुस्तकं धत्ते मुभद्रासनमाश्रिता ।
वसुनन्दि, ५।६६-६७ मिद्धायिका सप्तकरोच्छिनांगजिनाश्रयं गुम्न कदानहस्ताम् । श्रिता मुभद्रासनमत्र यज्ञे हेमद्युति मिहर्गात यजेहम् ।।
___ ग्रागाधर, ३/१७८ बिनि या पुस्तकमिष्ट दान मव्यापमन करदायेन । भद्रामनामाश्रितवर्धमाना मिद्धायिका सिद्धिकरी भजेताम् ।।
नेमिचन्द्र, ३४८ देवी मिद्धायिका चामोदामीना गजवाहने । हरिच्छविः पुस्तकाढ्याऽभयदी दक्षिणा करी ।। वामो नु दधनी बीजपूरवल्लकिमयुनो। प्रभोरभृता ते निन्यामन्ने गामनदेवते ।।
अमरचन्द्र, २४८.२४६ मिहस्था हरिताङ्गरुक भजचतुष्केण प्रभावोजिता नि-यं धाग्निपुम्नकाभयलमद्वामान्यपाणिद्वया । पाशाम्भोरुहराजिवामकरभाग सिद्धायिका सिद्धिदा श्रीमंघस्य करोतु विघ्नहरणं देवार्चने मंस्मृता ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७८
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१८६
जैन प्रतिमालक्षण
तत्तीर्थोन्पन्ना मिद्धायिका हरितवर्गा मिहवाहना चतुर्भुजा पुस्तकाभय युक्तदक्षिणकरा मातुलिग-- वीणान्वितवामहस्ता चति ।
निर्वाण कलिक', पन्ना ३७
मर्वाल यक्ष
उत्तुग शरद भ्रशुभ्र मुचितं सद्विभ्रम विभ्रत या दिव्यद्वितमामराह शिर मि श्राधमंचक्र दो । हस्ताभ्याममितद्युति करयुगेनान्येन बद्धानि न जैनाघ्वररक्षणक्षममिम मर्वाहयक्ष यजे ।।
नामचन्द्र, पन्ना EE
अनावृत यक्ष
मेरोरीगानभागे कुरुषु मणिमयस्यात्तरे स्थितम्य श्रीजबूभूरुहम्य स्थितिजुषमनिग पूर्वशाग्वाम्थमोधे । शव चक्र च कुण्डि दधतमुरुकररक्षमाला च कृष्ण पक्ष न्द्राम्ढमम्या भवदिशि विधिनानावन्द्र भजामि ।।
नेमिचन्द्र, ३६३
जवक्षम्य नानामणिमयवपुषः प्राज्य जवतम्य प्राक्शाखामावमत नवजलदरच पक्षिराजाधिस्टम् । कुण्डीदाखाक्षमालारथचरणकर वानि:शषजवू द्वीपधाक यजेस्मिन विधुविधुतयनावृत व्यतरन्द्रम् ।।
प्रागाधर, ३।२०१
ब्रह्मशाति यक्ष
ब्रह्मशान्ति पिङ्गवर्ण दष्ट्राकरालं जटामुकुटमण्डिन पादुकामढ भद्रामनस्थितिमपवीतालकृतम्ध चतुर्भुज अक्षमूत्रदण्ड कान्वितदक्षिणपाणि कुण्डिकाक्षत्रा-- लकृतवामपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३८
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क्षेत्रपाल
तुम्बरु यक्ष
भगवद प्रतिपन्नप्रतिहारभावत्वेनाधिष्ठिनद्वाराभ्यन्त राय जटामुकुटधारिगे नरशिरःकपालमालाभूषित शिरोधराय खट्वागपाणवे तुम्बरवे स्वाहा।
निर्वाणलिका, बिम्बप्रतिष्ठाविधि, पन्ना २० क्षेत्रपाल
ऊर्ध्वस्थेन करद्वयन फनक खङ्ग कराम्यामधा वनिम्यामरुमार मेयमसितं स्फूर्जद्गदा बिभ्रतम् । प्रत्यक्षपणक्षम सभवितक्षेत्रव्रज क्षेत्रपम् तैलेनाद्य सताभिपिच्य विदधे सिदूर कै— मरम् ।।
नमिचन्द्र, १ . ५-११६ क्षेत्रपालो जिनाचीकजटामुकुटभूपितः । मिदूराकितमन्मोलिरंजनाद्राद्रम निभः ।। सारमेयममारूढा नग्नो नागविभूषणः। ग्रिलोचनश्वतुर्बाहुः तेलाम्य मृमुविग्रहः।। म्वर्णपात्र गदा बिभ्रड्डमा धनु कामपि । जिनेश्वर जिनमुनीन् वदारुधमंवत्मनः ।। निःपत्नीको जिनज्याया. प्रत्यूहक्षपणक्षमः । एवविधगुणा य: पूजनीय. मुवम्नभि. ।।
___ भट्टाकलक, प्रतिष्ठाकल्प नम. क्षत्रमालाय कृ ण गोरकाञ्चन धमर कपिलवर्गाय कालमंघमघनाद गिरिविदारण ग्राह लादन प्रहलादन बञ्जकभीमगामुम्बभूपण रिम विदारण दृरिनारि प्रियकर तनाथप्रतिप्रमिद्वाभिधानाय विनिमजदण्डाय ववर के माय जटाजटमण्डिताय वामुकीकृतजिनापीताय नक्षक कृतमेखलाय शेषकृतहागय नानायुबम्नाय मिह वर्मावरणाय प्रेतामनाय कुकुरवाहनाय त्रिलोचनाय ग्रान दभैरवाद्यभैरव परिवताय चनु पष्टियागिनीमध्यगताय ।
याचा दिनकर, उदय ३०, पन्ना १८१.
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१८८
जैन प्रतिमालक्षण
क्षेत्रपालं क्षत्रानुरूपनामानं श्यामवर्ण बर्बरकेशमावृनपिङ्गनयन विकृतदंष्ट्र पादुकाभिम्हें नग्नं कामचारिणं पड्भुजं मुद्गरपागड मरूकान्वितदक्षिणपाणि श्वानाकुगगेडिकायुतवामपाणि श्रीमद्भगवती दक्षिणपावें ईशानाश्रितं दक्षिणाशामुग्वमेव प्रतिष्ठाप्यमिति ।
निर्वाणकलिका, पन्ना ३८,३६ प्रामाद वा गृहे वा क्षेत्रपालम्प द्विधा मूनि कायम्या वा लिंगम्पा वा।
प्राचारदिनकर, उदय ३१,पन्ना २१० अष्ट मातृका
इन्द्राणी वणवी कौमारी वाराही ततः पग। बह्माणी च महालक्ष्मी चामुण्टा च भवानि च ।। इ-यप्टो देवता अत्र दिक्षिवद्राण्यादिकास्तथा । ब्रह्माण्यान्या विदिश्वेव लेण्या विघ्न विनागये ।।
भट्टाकलक, प्रतिष्ठाकल्प दधती पविमिन्द्रागगी चक्र वैष्णव्याम च कौमारी मोर वाराही मश नं ब्रह्माणी गदा महालक्ष्मी । शक्ति चामुण्डायनि माहेगी भिण्डमाल माघ्नवन्तु विघ्नान् प्रणवमुखाग्या गभम्वाहान्तमविन्यस्ता. ।।
प्राशाधर, ३।२०७
इन्द्राणी
उत्तुगमत्तद्विरदेन्द्ररूदा रूद्वाप्रवज्रायुधमद्वहन्ती । ऐन्द्री वसत्यिन्द्रदिगीर वेद्या हेमप्रभा विघ्नविनाशनाय ।।
नेमिचन्द्र, ३६५
भगवनि इन्द्राणि सहस्रनयने वजहस्ते सर्वाभरणभूषिते गजवाहने सुराङ्गनाकोटिवेष्टिने काञ्चनवणे .........
प्राचदिनकर, उदय ६, पन्ना १३
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अष्ट मातृका
१८६
वैष्णवी
या वैष्णवी विष्णुग्थागयाना जिष्णोजिनेशस्तवने मनीला । प्रत्यथिचक्रप्रतिघातचक्र धृत्वेयमास्ता दिशि सा यमस्य ।।
नेमिचन्द्र, ३६५ भगवति वैष्णवि दाखचक्रगदागाङ्गखगकरे गडवाहने श्यामवणे....... .
प्राचार्यदनकर, उदय ६. पन्ना १३
कौमारी
कौमारिका कोमलविद्रुमाभा शिवडियाना धृतमडलाना । प्रचण्डमू-वर तात्प्रतीच्या वेद्या जिनेन्द्रावविन्नशान्तये ।।
नेमिनन्द्र,३६६ भगवति कामारि पण्मुग्वि मूलशक्तिधरे वरदाभयकरे मयूर वाहने गौरवणे ............
याचारदिनकर, उदय ६, पन्ना १३
वाराही
वाहिका वन्य वगायाना श्याम प्रभाभीकरमः पाणि: । पत्रोनरम्या दिशि वेदिकायामाम्ना ममानाध्वविघ्नशान्य ।।
नमिचन्द्र, ३६६
भगवनि बाद वगही मुग्वि चव ङ्गरम्न शेषवाहने
श्यामवर्ग .....
प्राचारदिनकर, उदय ६, पन्ना १३ ब्रह्माणी
पप्रभाका श्रितपद्मयाना विद्वेषिमयामक मुद्गगम्या । ब्रह्माणि मंजा जिनयज्ञवेद्या हुताशनाया ममलं करोतु ।।
नमिचन्द्र, ३६६ भगवनि ब्रह्माणि वीणापुस्तकपद्मासमूत्रकर हंमवाहने श्वेतवर्ण प्रागच्छ ..........
प्राचारदिनकर, उदय ६, पन्ना १२
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१९०
लक्ष्मी / महालक्ष्मी / त्रिपुरा
चामुण्डा
षष्ठी
श्वेतच्छदाभोदुरुवाहनम्था लक्ष्मीगंदाल क्षितशस्त्रहस्ता । विघ्नापनोदाय दिशीह वेद्याः प्रवर्ततां दक्षिणपश्चिमायाम् ।। नेमिचन्द्र, ३६६
भगवति त्रिपुरे पद्मपुस्तकवरदाभयकरे मिहवाहने श्वेतवर्णे
जैन प्रतिमालक्षण
रुद्राणी / माहेश्वरी
श्राचारदिनकर, उदय ६, पन्ना १३
चामुडिका प्रेतगता ममध्यमार्तण्डदीप्तिर्धृतदण्डाक्ति । प्रत्यूहान्त्यं दिशि वेदिकायाः प्रवर्तनामुत्तरपश्रिमायाः ।। नेमिचन्द्र, ३६६
भगवति चामुण्डे शिराजालकरालशरीरे प्रकरितदर्शने ज्वालाकुन्तले रक्तत्रिनेत्रे मूलकपालख स विकेशकरे प्रेतवाहने धूमरव
श्राचारदिनकर, उदय ६, पन्ना १३
उच्चडगावकर गते धृतभिडिमाले द्राणि रुद्रामलचंद्रकान्ते । पूर्वोत्तरस्या दिशि तिष्ठ वैद्या विद्यानिधेरध्वरविघ्नशान्त्यै ।। नेमिचन्द्र, ३६७ भगवति माहेश्वरि शूलपिनाक कपालखट्वाङ्गकरं चन्द्रार्धललाटे गजचर्मावृते शेषाहिबद्ध काञ्चीकलापे त्रिनयने वृषभव हुने श्वेतवर्ण श्रागच्छ
आचारदिनकर, उदय ६, पन्ना १३
प्रो षष्ठि प्राम्रवनामीने कदंबवनविहारिपुत्रद्वययुते नरवाहने श्यामागि इह प्रागच्छ...
प्राचारदिनकर, उदय ६, पन्ना १३
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दस दिक्पाल
१६१
शान्ति / देवी
...... 'धवलातिवग्द कमल पुस्तककमण्ड लुभूषितानेकपाणिसकल जनगान्तिकारि के शान्तिदेव्यै स्वाहा ।
निर्वाणकलिका, बिम्ब प्रतिष्ठाविधि, पन्ना १८ तथा शान्तिदेवता धवलवर्णा कमलामना च तुर्मुजा वरदाक्षमूत्रयुक्नदक्षिणकरा कुण्डिकाकमण्डल्वन्धिनवामकरां चति ।
निर्वाणक लिका, पन्ना ३७
१. इन्द्र
प्यादि-पद्धिघंटायुगपटकटटका र नानानियाभ द्र पामम्यानिचित्रीज्वल विलमलमवा मंद्वयम्थं । दृप्यन्मामानिकापिदिापरिनल सापादिश्वी लोनाक्ष वच पोद्भटमुभगर व प्रागिहन्द्रं यजामि ।।
ग्रागाधर, ३११८७ उनंगं गग्दभ्रशुभ्र मचितार भ्रफुरिभ्रमम तं दिव्याघ्रमुवल्लभ दिसमुपारूढ प्रगाढश्रियम् ।। दंभोलिश्रितपाणिमप्रति हताश्वयं विभाजित गच्या मयुतमाहय नि ममता मिन्द्रं जिनन्द्राध्वर ।।
___ नमिचन्द्र, ५१ न::: श्रीदन्द्राय नप्तकाञ्चन वर्णा पीताम्ब गय ऐगवणवाहनाय वचदम्नाय.... पूर्वदिगधीशाय च ।
प्राचार्गदनकर, उदय ३३, पन्ना १७:
२. अग्नि
ग्राग्नया दिगि मेषवाहनममाट मुधमत्र अग्ने यादिवघु जनाहिनदृशं ज्वाला ज्वलच्छेग्वरम् । कल्पाती ग्रहमस्तरश्मिमदगं म्फन्प्रभोल्कायुधं गंधाद्य मदो वितीयं हुनभक् देवं ममाह्वानय ।।
वमनन्दि, ६।५८
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१६२
३. यम
जैन प्रतिमालक्षण
स्वमारग्घर्घर वग्गलच पृथुप्राभगाभनुग स्थं द्रविगक्षणयुगमल ब्रह्मसूत्र शिवास्त्रम् । कुडी वामप्रकोष्ठे दधतमितर पाण्यात पुण्याक्षसूत्र स्वाहान्वीतं धिनोमि श्रुतिमुखरसभ प्राच्यपाच्यतरेग्निम् ॥
ग्राणावर, ३।१८६
शोणमश्र के शावक मरुणरुच जाज्व नज्वालशक्ति कुडी वामेक्षमालामिनर करतले विभ्रत सोपवीतम् । स्वाहायुक्त नियुक्त जिनयजनविवेधूपादिकारे द्वेदात्राषिम्यावृतमनलमलकारसार यह ।। नमिचन्द्र, ३५० नम प्रग्नये सर्वदेवमुख य प्रभूततेजोमयाय छागवाहनाय नीलाम्बराय पणिहस्ताय
ग्रावारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६
तत्र अग्नि अग्निवर्ण मपवाहन सप्नशिव शक्तिपाणि चेनि । निर्वाणकालका पन्ना :
प्रोद्यत्प्रचण्ड महिषोत्तमयानसम्थ दार्दण्डनक राद्धृतदडवडछायागनादिपरिवारपरिष्कृतागमाहानये वर्मामु विशिदक्षिणम्याम् ।
वसुनन्दि, ६५६
1
कल्पान्ताब्दोष जे गुणफणगुणागतिग्रैवघण्टा टंकाराश्रु प्रय गक्रमतमधरातरनाक्षमस्थम् । चडाचिकादण्डाट्टमरकर मनिकरदारादिलीक कायद्रेक नृशमप्रथममथ यम दिश्याच्या यजामि ||
प्रशाधर, ३।१८६
गवलयुगलधृष्टाम्भोदमाख्डवन्त महिनमहिपमुच्न र जनाद्वीन्द्रकल्पम् । प्रतिमहिषभूष भीषण चडदडविदिनमदयधर्म व्याह वय धर्मराजम् ।।
नेमिचन्द्र, ५२
नमो यमाय धर्मराजाय दक्षिणदिगधीशाय कृष्णवर्णाय चमविरणाय महिषवाहनाय दण्डहस्ताय ।
प्रचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६
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दस दिक्पाल
१६३
तथा यमराज कृष्णवर्ण महिषवाहनं दण्डपाणि चेति ।
निर्वाष कलिका, पन्ना ३८
४. नैऋति
याम्यापराया दिगि नैऋतेश्वर स्वत्यनिकरश्च मंयुतम् । कार्तक्षयानं धृतवज्रमृद्गर प्राह वानये जैनमहामहात्मने ।।
वमनदि, ६।६. प्रारूढ धूमधू म्रायविकट मटारताग्रदिक्षरूपमा लक्षाक्षा-शिष्टा म्फटरचितकला याद्रमाभागमृक्ष । क्ररक्रव्यापरीतं तिमिरचयरुच मद्गरक्ष णगंद्र क्षद्घ तात याचा रहग्नमहं नै झन तर्पयामि ।।
पाशाघर, ३११६०
तमा ननील पुरना बन्न म्बिस्फुटन्मटाभार मदार मृक्षम् । अाम्दु मार्भील मशक्ति वधयत ने तमात् वयामि।।
नमिचन्द्र, ५२
नमो निऋतय निऋत्यदिगधीशाय धूम्रवर्णाय व्याघ्रचर्मावताय मद्गग्हम्ताय प्रतवाहनाय ।
___प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६ नथा नेति हग्निवर्ण गववाहन खड्गपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, ३८ ५. वरुण
करिमकरविमानारमिदं मुगुभ्र वरुणममरमुख पाशहस्त मभायंम् स्वपर जनसमेत ध्वम्तनिपविघ्नं अपरदिशि मपर्यापूर्वक व्याहगमि ।।
वमुनन्दि,६।६६
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जैन प्रतिमा लक्षण
नित्याभः कोलिपाइकटकपिलविगच्छेदमोदर्यवंत प्रोत्फल्यत्तमम्बेलत्करकरिमकरव्योमयानाधिस्टम् । प्रेवन्मुक्ताप्रवालाभरणभर मुपस्थावृदारादृनाक्ष म्फर्जदभीमाहिपाश मणमपरदिग्रक्षण प्रीणयामि ।।
प्रागाधर,।१६१
करी कथंचिन्मकर: कचिद मन्यापयेज्जैनकथंचिदुक्तम् । यम्न करिप्राइमकरं गनोहिपाशीच्यते विश्रतपाशपाणि:।।
नेमिचन्द्र,५३ नमो वरुणाय परिचमदिगधास्वराय ममुद्रवामाय मेघवर्णाय पीताम्बराय पाहस्ताय मत्स्यवाहनाय ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६ तथा वरुण धवलवर्ण मकरवाहन पागपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, ३८
६, वायु
अपगेत्तरदिग्देशे प्रचण्डदोर्दण्ड धतमहावृक्षम मृगवाहन सभार्य सपरिजनं वाह वये पवनम् ।।
वसुनन्दि, ६।६२ वल्गच्छ गाभिन्नाबुदपटलगलनोयपीतश्रमाभ्रप्लुत्यस्तम्वातरहः वर कपिन कुलग्रावमा गयुग्मम । व्यालोलद्गायत्र विजगदमुघनित्यग्रम ग्रनुमास्त्र सर्वार्थानर्थसर्गप्रभमनिकमुदक प्रत्यगत प्रगगौमि।।
__ प्रागाधर, ३।१६२ य. पचधाराचतुर तुरंगं ममारोहोरुमहीरुहास्त्र: तं वायुवेगीयतवायुदत्रं व्या ह्वानये व्याहतयागविघ्नम् ।।
नेमिचन्द्र,५३
नमो वायवे बायव्यदिगधोशाय धूसरांगाय रक्ताम्बराय हरिणवाहनाय ध्वजप्रहरणाय च ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १७६
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दस दिक्पाल
१९५
वाय सितवर्ण मृगवाहनं वजां (ध्वजा) लंकृतपाणि चेति
निर्वाणकलिका,३०
७. कुबेर
इनस्ततो नाभिगिरे सगर्भा गदां मलीला म्रमयन्नुदीच्ये। द्वारे निषण्णोनुचरवित': कुबेरवीरानुमरोपचार ॥
प्राशाधर, ३।१८४ उत्तरस्या दिशायां विमानस्थितं भरवित्तेश्वरयक्षवंदाचितम् यक्षिणी भिवृत्तं दिव्यशत्तपान्वितं गहराम कुबेरं मुशक्त्यान्वितम्।।
वसुनन्दि,६१६३ नमो धनदाय उत्तरदिगधीशाय मवं यक्षेश्वराय कैलामस्थ य अलकापुरीप्रतिष्ठाय शक्रकोशाध्यक्षाय कनकाङ्गाय श्वेतवस्त्राय न रवाहनाय रत्नहम्ताय ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३,पन्ना १७६ कुबेरमनेकवर्ण निधिनवकारूढ निचलकहम्तं तृन्दिलं गदापानि चेति ।
निर्वाणलिका, ६८ ८. ईशान
कैलासाचन मंनिभायतमितीनगागवि भ्राजिनं पर्जन्योजितगर्जनं वपभमारूढं जगद्गढकम् । नागाकल्पमनपपिंगलजटाज़टाबंचद्रोज्जवलम् पावंन्या: पतिमाह वये त्रिनयनं भाम्वन विशलायुधम् ।।
नेमिनन्द्र,५८ ईशान्या गीत रश्मिद्यतिवषभमहायानसंस्थवषाक रुद्राण्यालिगितांगकपिलतरजटाजूटस्यचंद्रम् । शूलाम्त्रव्य ग्रहम्नं भृमगणपरिव तं कृष्णनागप्रभूपं जंने पूज्योत्मवेस्मिन्मवनमभयमिहाह वानयाम्यादराद्राक् ।।
वमुन्दि , ६.६४
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जन प्रतिमालमण
नम श्री ईशानाय ईशान दिगधीशाय...श्वेतवर्णाय गजाजिनवृताय वृषभवाहनाय पिनाकशलधराय ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३,पन्ना १८० तथेशानं धवलवर्ग वृषभवाहनं द्विनेत्र शूलपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका,३८ ६. धरणेद्र /नाग
वक्षोजस्तजिपृष्ठश्वमनममतर. कमंगजाधिरूढ क्षुद्रछोवे मकु भाक्रमण चणमृणिस्फारणव्यग्रपाणिम् । संश्लिष्ट दृक्महस्र द्वितव्यणिफणारन्नर सवाल ब्रघ्नौद्यापीड मच्छितमाहियमधोर्चामि पद्मासमेतम् ।।
प्रागाधर ४ / ६१ ऐरावणोरुचरणातिपथत्वधर्म श्रीकृमवचनिभपृष्ठकृतप्रतिष्ठम् व्याह्वान र धवल मकुशपागहम्न पद्मापनि फणिपतिफणिमौलिचूलम् ।।
नामचन्द्र, ५४ नमो नागाय पातालाघ'स्वग काणवाय पद्मवाहनाय उरगहस्ताप च ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३ नाग श्यामवणं पद्मवाहनमरगण चनि ।
निर्वाणलिका,६८ १०. सोम / ब्रह्मा
ऊ या दिश्यमेवद्युतिविशरमधाधीतभूमण्डलात प्राप्प च देत्यभिच्यामिकुमुदवनालादनात्सर्वकातम् । रोहिण्याधिष्टमनिद्विरदरविमानस्थित कुनपाणि दत्त्वार्घ चदनाद्यज्जिनभवनविधौ सोममाह्वानयामि ।।
__ वमनन्दि, ६ ६६ प्रगमितसटौघम्राजितश्वेतगात्रप्रवरनखर रह सिहमारूढ वन्तम् । कुवलयमयमाल कानकातं मकुन्नं सितनुनकरसाद्रं चंद्रमाह्वानयामि ।।
नेमिचन्द्र, ५४
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नवग्रह
१. सूर्य
२. चन्द्र
नमो ब्रह्मणे ऊर्ध्व लोकाधीश्वराय. वर्णाय चतुर्मुखाय श्वेतवस्त्राय पुस्तक ग्राचरदिनकर उय ३३ पन्ना १७६
.. नाभिभवाय काञ्चनमलहस्ताय ।
तथा ब्रह्माणं धवलवर्ग हंसवाहन कमण्डलुपाणि चेति । निर्वाणकलिका, ३८
नमः सूर्याय सहस्रकिरणाय रत्नादेवीकान्नाय ययमुना जनकाय ... पूर्व दिगधीशाय स्फटिकोज्ज्वलाय रक्तवस्ताय कमलहस्ताय
......
सप्नाश्वरथवाहनाय च ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १८०
तत्रादित्यहिङ्गलवर्णमूर्ध्वस्थित द्विभुज कमलपाणि नेति । निर्वाणकलिका, ३८
आदित्यमाद्यं सकल ग्रहाणामानिद्यमभोरुचारुपाणिम् । पद्मप्रभं नीलतुरगयानमानदयामि प्रवितीय्यं पूजाम ॥ सिहासनप्रतिष्ठा
सूर्याय सहस्रकिरणाय गजवृषभमिहर गवाहनाय रक्तवर्णाय.........
प्रतिष्ठाकल्प, पन्ना १४
नमश्चन्द्राय ...... नागगणाधीशाय वायव्यदिगधीशाय श्वेतवस्त्राय श्वेतदावाजिवाहनाय सुधाकुम्भहस्ताय...। आचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १८०
१६७
तथा सोमं श्वद्विभुजं दक्षिणं प्रक्षसूत्रं वामे कुण्डिका चेति
निर्वाणकलिका, ३८
सारंगमारोहति कुन मन्त्रमंगीकरोति क्षनवेरिवर्गः । यस्तं प्रशस्तं सकलं हिमाशुमाकारयामि स्वहिताय यज्ञं ॥
सिंहासनप्रतिष्ठा
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१६८
जैन प्रतिमालक्षण
प्रतीचीदिग्दलोद्भत अक्षमालाकम नाम्बुपाणिसोमाय मृगवाहनाय ।
प्रतिष्ठाकल्प, पन्ना १४ ३. मंगल
नमः मंगलाय दक्षिणदिगधीशाय विद्रुमवर्णाय रक्ताम्बगय भूमिस्थिताय कुद्दालहस्ताय ।
प्राचारदिनकर उदय, ३३, पन्ना १८० तथाङ्गारकं रक्तवर्ण द्विभुज दक्षिणेक्षमूत्र वामे कुण्डिकां चेति ।
निर्वाणकलिका, ३८ त्रिशूलविध्वस्तममस्तशत्रो शोणांगरक्ताक्षपरिग्रहोग्रा। त्वं मंगलातुच्छममुच्चवेश्मिनागच्छ सच्छायसदाहितेष्व ।।
मिहासनप्रतिष्ठा वारणदिग्दलासिने रक्तप्रभाक्षमूत्रावल्यकुंडि कालंकृते भोमाय गजवाहनाय ।
प्रतिष्ठाकल्प, पन्ना १४
४. बुध
नमः बुधाय उत्तरदिगधीशाय हरितवस्त्राय कलहंसवाहनाय पुस्तकहस्ताय च ।
__प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १८० तथा वुधं पीतवर्ण द्विभुजं अनमूत्रकुण्डिकापाणि चति ।।
निर्वाणकलिका, ३८ बुधं निरुद्धारिवलं सनीलं ली नोप्सच्छायपरिग्रहागम् । दुर्गोपसर्गेविनाशदक्षं यज्ञ सदा गातिधिया य जामि ।।
मिहामनप्रतिष्ठा ५. वृहस्पति
नमः श्रीगुरवे वृहस्पतये ईशान दिगधीशाय सर्वदेवाचार्याय सर्वग्रहबलवत्तराय काचनवर्णाय पीतवस्त्राय पुस्तकहस्ताय श्रीहंसवाहनाय ।
प्राचारदिनकर. उदय ३३, पन्ना १८०
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नवग्रह
१६8
तथा सुरगुरुं पीतवर्ण द्विभुजं प्रक्षमूत्रकुण्डिकापाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, ३८ वृहस्पति सारमरोरुहस्थप्रसव्य हम्नस्थितपुस्तक च । सुवर्णवर्ण प्रवितीर्णशोभं क्षोभं दधानं द्विषता यजामि ॥
सिहासनप्रतिष्ठा ६. शुक्र
नमः शुक्राय देन्याचार्याय प्राग्नेयदिगधीशाय स्फटिकोज्ज्वलाय श्वेतवस्त्राय कुम्भहस्ताय तुरगवाहनाय ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १८१ तथा शुक्र श्वेतवर्ण द्विभुज प्रक्षमूत्रकमण्डपाणि चति ।
निवांणकलिका, ३८ शालूरयानाहिकरा सुगणां गुरो प्रणष्टप्रतिपक्षदक्ष । शुक्र स्वय वैदिविधानरक्षामागत्य नित्यं कुछ गजताभम् ।।
सिहासनप्रतिष्ठा ७. शनि
नमः शनैश्च गय पश्चिमदिगधीशाय नोलदेहाय नीलाम्बराय परशुहम्नाय कमठवाहनाय ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना १८१ तथा गने चरमोत्कृष्य द्विभ नं लम्बकूर्च किञ्चित्तं द्विभुजमक्षमालाकमण्डनयुक्तपाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, ३८ शनैश्चरं गंचरता ग्रहाणा शनिश्चरक उजलकालमंत्र विद्वंषिविशेषवेषमन्वेषयतं स्वयमाद्वयामि ।।
मिहासनप्रतिष्ठा ८. राहु
नम. राहवे नै नदिगधीगाय कज्जलश्यामनाय श्यामवस्याय परगुहम्नाय मिहवाहनाय ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३. पन्ना १८१ नथा "हमतिकृष्णवर्ण अधंकायरहितं द्विभ जमघमुद्रान्वितपाणि चेति ।
निर्वाणलिका, ३८ प्रलीन्द्रनीलामितकाय कांनिकेन्वानपत्राशनदामभूपम् । राहुं हतारिष्टमदष्टचेष्टमाकारयाम्यत्र पवित्रकायें ।।
सिहासनप्रतिष्ठा
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२००
जैन प्रतिमालक्षण
६. केतु
नमः केतवे राहुप्रतिच्छन्दाय श्यामवम्त्राय पनगवाहनाय पनगहम्नाय ।
प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना ११८ तथा केतु धूम्रवर्ण द्विभजमक्षमूत्र कुण्डिकान्वित-- पाणि चेति ।
निर्वाणकलिका, ३० केतुमहाकेतुरतोवशूरो दूगेभितागतिकृतापकारः । प्रारम्य सर्वज्ञमहे फणाग्रमणिप्रभाढ्यः ममुपैति शीघ्रम् ।।
मिहासनप्रतिष्ठा ग्रहगांति
पद्मप्रभम्य मार्तण्डश्रन्द्रश्चन्द्रप्रभस्य च । वासुपूज्यो भूमिपुत्रो बुधोऽयष्टजिनेश्वरा . ।। विमलानंतधर्मारा: शान्तिः कुन्थनं 'मम्नथा। वर्धमानो जिनेन्द्राणा पादपद्म बुध न्य मेत् ।। ऋषभाजितमुपाश्वा अभिनन्दन गीतलौ । सुमति. सभव: स्वामी श्रेयामश्च वृहम्पनि मुविधि: कथित शुक्र: मुव्रतश्च गर्नश्चर नमीनाथो भवेद्राहु. केतुः श्रामल्लिप'श्वयोः ।।
प्राचारदिनकर, उदय ३४, मान्यविकार दिक्कुमारिकाएँ
प्रो सुवर्णवणे चतुर्भुजे पुष्पमुखकमलहम्ने श्रीदेवी आगच्छ प्रो रक्तवर्गे चतुर्भुजे पुष्पमुग्वकमलहस्ते ह्रीदेवी प्रागच्छ पो सुवर्णवर्णं चतुर्भुजे पुष्पमुखकमल हस्ते तिदेवि प्रागच्छ मो सुवर्णवर्णं चतुर्भुजे पुष्पमुम्बकमलह-ते कीतिदेवि प्रागच्छ प्रो सुधगंवणे चतुर्भुजे पुष्पमुखकमलहस्ते बुद्धिदेवि प्रागच्छ प्रो सुवर्गवणे चतुर्भुजे पुष्पमुखकमल हस्ते लक्ष्मीदेवि प्रागच्छ प्रो सुवर्णवर्गे चतुर्भुज पुष्पमुम्बकमलहस्ते । शान्तिदेवि मागच्छ प्रो सुवर्गवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकमल हम्ने पुष्टिदेवि मागच्छ
वमुनन्दि, ६ टीप-नेमिचन्द्र ने इन्हे पुष्पमुखकलश कमलहस्ता कहा है ।
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देशना नरेशों के नाम
अनंतपाल, ६ कृष्णराज, ५ चोल राजा, ७ देवपाल, परमार, ७
नन्दराज, ३ भरत चक्रवती, २, ७, ३० स्द्रकुमार, ८ लाला,
भौगोलिक नाम
प्रकोटा, १०५, १०७ पारा, ६, ६, ५३ इलाहाबाद मग्रहालय, १०६ उत्तर कुरु, ३२ उदयगिरि( उड़ीसा), १०७ एकशिला नगरी, ८ एलोरा, १०५ ऐहोल, १०७ कर्णाटक, ७ कलिंग, ३ कुरु उत्तर ३२ --देव, ३२ कुलाचल, ४५ कैलास पर्वत, २ कांकण, ६ कंकाली टोला, ३ खजराहो, ११३ म्बइगिरि (उडोमा),३ गंगा नदी, ८५ जम्बूद्वीप, ४०
जयपुर, ६ जालंधर, देवकुम, ३२ देवगढ, १०८ नागोद, १०६ नीलगिरि, ५ नन्दवनपुर, नन्दीश्वरद्वीप, ४३ नलकच्छपुर, नवनिगुफा, १०५ ढाक, १०७ पटना मंग्रहालय, ३ पचमक, ४३ प्रिन्म ग्राफ वेल्म मग्रहालय, बम्बई, ३ बीकानेर, ५३ भुवनेश्वर, १०७ भोगभूमि, ३२ मगध, ३ मथुरा ३, १८, ३७, ५३, १०७ - का मुपावं म्न्प, ११२
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२०२
मद्रास ओरियण्टल लायब्रेरी, ८
महुडी, १०७
मान्यखेट, ५
मूवी, ६
रत्नागिरि, ६
राजगृह, ३८
राजस्थान, ६
लोहिनीपुर, ३
कलंक, 3
- भट्ट, प्रतिष्ठाकल्प के
लेखकों और प्राचार्यों के नाम
--कल्याण मंदिर
रचयिता, ६ तथा
यथाप्रसंग
ग्रननव'यं, ७
श्रमरचन्द्रसूरि ३ तथा यथाप्रसंग,
अपायं
प्रगट नमि, तीर्थकर, ४८
भट्टारक, ६
श्रानन्दि
आगर पति १ तथा अन्यत्र
श्रयंन
इन्द्रनन्दि, ५, ७
उभयभाषा कविशेखर, ५
उमाकान्त गाह ३,१०,१३,६७,९०५-२,
उमाम्वाति, ४
एकमधि भट्टारक, ६ कुदकुद, प्राचार्य, ६
कुमुदनन्द्र, वादी,
विजयार्ध पर्वत, ८५
विदेह क्षेत्र, ३२ श्रवणबेलगुल,
सिन्धु नदी, ४५ स्थिरकदम्ब नगर, ८
हडप्पा, ३
हाथीगुफा ३ हेमग्राम, ५
जैन प्रतिमा विज्ञान
स्तोत्र के रचयिता, ८
कल्हण, प्रतिष्ठाचार्य, ७
गुणनन्दी, ५ गुणरत्नाकरसूरी गुणविजय, ३
गुप्ते, आर०एम०, १० चन्दननन्दी, क्षपक,
चामुण्डरा ३, ६
जयमेन वगुबिन्दु, ६ तथा अन्यत्र --धर्मरत्नाकर के
रचयिता, ६
जगन्चन्द्रसूरा
जिनदनसूरी, ५
जिनप्रभसूरी, ५
जिनभद्र, गण, १०५
- वाचनाचार्य, १०५
जिनसेन, भ्राचार्य, १३-६, १०६ जेम्स बर्जेस, १०
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देशना
२०३
जैन, छोटेलाल, १० जैन, हीरालाल, ४६ देवविजय गणी, ४ दौवंलि शास्त्री, ८ धनजय, कवि, ४ नरेन्द्र मेन, पण्डिनाचार्य, नेमिचन्द्र, प्रतिष्ठातिलक
के रचयिता, ७ तथा यथाप्रसंग -बिलोकसार के
रचयिता, ४ ~प्रवचनसारोद्धार
क रचयिता, ठक्कुर फे, १०, १२, १४, १५ पद्मनन्दि, ८ परमातद, पण्डिन, परवादिमन, मुनि, ५ पुष्पदन्त, कवि, ३
ज्याद, ६ फा, ठक्कुर फेरु देखें बापमाट, ४, ६, १०६ वर्जेस, जम्म, १० बन र, मंद्रस्वरि , १०७ भट्टाना, वी, १० भ रकर, देवदन, १० भवदेवसूरी, ३ मण्डन, १३ तथा अन्यत्र मलयीति,६ मल्लिषेण, ५ तथा अन्यत्र
माघनन्दी, सिद्धान्नचक्रवर्ती, ६ मानतुङ्ग, ४ मेरुविजय, ४ यविवृषभ, ४ रविषेण, प्राचार्य, ३ राजकीति, भट्टारक, ६ रामचन्द्रन, टो०, एन०. १० लोकपाल, द्विज, ७ वादिगज, ५ वादी मह, ७ वज्रम्वामी, वराहमिहिर, १० वर्धमान मूरि, ३, ६ वमुनन्दि, प्रतिष्ठासाग्गग्रह के रचयिता, ६, ७ नथा
अन्यत्र यथाप्रमग वबिन्द, जयमेन, ६ तथा
प्रन्यन यथाप्नमग वास्तुपाल, महामान्य, ५ वामवन्दी, ५ विजयको नि, मानायं, : ८ विनयविजय, उपाध्याय, ४ विम नमूर, ३ वीरमन, गिवार्या, माबी, ५ गोलाक, प्राचार्य,३ मुक्ल, द्विजन्द्रनाय, १० शुभ चन्द्र, भट्टारक, " गोभन, मुनि, ८ श्यामाचार्य,
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जन प्रतिमाविज्ञान
श्रीषेण, ५ सकलचन्द्र उपाध्याय, ६ तथा अन्यत्र समन्तभद्र, १,४ सांकलिया, डा०, १० सागरचन्द्रसूरी, ५ मिद्धमेन, दिवाकर, ४
सोमदेवसूरी, १, ६६, १०५ हरिभद्रमूरि, ६, १०६ हम्तिमल्ल, ७ हेमचन्द्र, प्राचार्ग, ३ तथा अन्यन्न हेलाचायं, ५ क्षपक चन्दननन्दी, ६
ग्रन्थों के नाम
अपराजितपृच्छा १०, नथा अन्यत्र अभिलषितार्थचिन्तामणि, १० प्रग्निपुराण, ११८.२० प्राचारदिनकर, ह तथा अन्यत्र प्रादिपुराण, १ प्रादिणाहचरिउ, ३ अम्बिकाम्तुति, जिनदत्तमूरि कृत, ५ -- स्तवन, वास्तुपाल कृत, ५
-कल्प, शुभचन्द्र कृत, ५ पावश्यककणि २ पावश्यकनियुक्ति टीका, १०६ उपासकाध्ययन, ६६
-श्रावकाचार ग्रन्थ, ६ --पूज्यपाद कृत, ६
-सोमदेवमूरि कृत, ६ एकीभावस्तोत्र, ४ कल्पमूत्र, ३ कल्याणमंदिर स्तोत्र, ४ कामचाण्डानिनीकल्प, ५ क्रियाविशाल, ३ चउपनमहापुरिसरित, ३ चक्रेश्वरीस्तोत्र, ८६
चविगतिजिनेन्द्रचरित,
अमरचन्द्रमूरि कृत, ३ चन्द्रप्रज्ञप्ति, ४ चारित्रमार, ६ जिनमहस्रनामस्तात्र, सिद्धसेन
दिवाकर कृत, ४ - जिनमेन कृत, ४ -- प्राशाधर कृत, ४
देवविजय गणी कृत, ४ -विनयविजय उपाध्याय कृत, ८ जिनमंहिता, इन्द्रनन्दि कृत, ६ --एकन्धि कृत, ६ -वादिकुमुदचन्द्र कृत, ८ जिनेन्द्रकल्याणाम्युदय, ८ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, ८ जबूद्वीपपण्णत्तिमगहो, ८ जबूढोपप्रज्ञप्ति, ४ जंवूद्वीपसमास, ४ ज्वालिनीकल्प, ५ तत्त्वार्थसूत्र, ४ तिसट्टिमहापुरिसालंकार, ३
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देशना
२०५
तिलोयपण्णत्ती, यथाप्रसंग
प्रवचनमारोद्धार, २ अनेक स्थानों पर
विषापहारस्तोत्र, ४ दीपार्णव, १०
वृहत्संहिता, १०, १५, १६, ११८ देवतामूर्तिप्रकरण, १०
भक्तामर स्तोत्र, ४ देवीमाहात्म्य, ११७
भैरवपद्मावतीकल्प, ५ द्वादशाग पागम, ५३
मत्स्यपुराण, ११६-२० धर्मरत्नाकर, ६
नहापुराण, ३ ७ निर्वाणकलिका, ह तथा अन्यत्र महाभारत, १५ नेमिनाथ चरित, ३
मंत्राधिराजकल्प, ६ पटमचरिउ, ३
मानमार, १०, १७ पठिन मिद्धमारस्वतस्तव, ५
मानसोल्लास, ११८ पंचवास्तुप्रकरण, १०
यम्तिलकत्तम्यू, १ पद्मचरित, रविषेण कृत, ३
यक्षिणीकल्प, ५ पद्मानंदमहाकाव्य, २,३
रत्नकरंडश्रावका वार, १ पार्श्वनाथचरित, ३
राजवल्लभ, १० प्रतिष्ठाकप, माघनदि कृत,
रूपमरन, १० तथा अन्यत्र - भट्टाकलंक कृत,
वरागचरित, प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण, ८
वास्तुमारप्रकरण, १० प्रतिष्ठानिलक, नमिचन्द्र कृत, तथा विद्यानुवाद, ३, ५
अन्यत्र यथाप्रसंग विविधतीथंकल्प, १० - ब्रह्ममूरि कृत,
विवेकविलाम, ६, १७ प्रतिष्ठादीपक, नरेन्द्रमेन कृत, विशेषावश्यक भाष्यटीका, १०६ प्रतिष्ठादर्श, राजकीनि भट्टारक कृत, ६ विष्णु पुराण, ४२, ११८-१६ प्रतिष्ठापाठ, जयसेन कृत, ६ तथा वैदिक महिता. ११८
अन्यत्र यथाप्रमंग शाग्दास्तवन ५ -हम्तिमल्ल कृत, ८
शुक्रनीति, १४ - मकलचन्द्र उपाध्याय, ह श्रावकाचार, वमुनन्दि कृत, १, ७ प्रतिष्ठासारसंग्रह, वमुनन्दि कृत, ७ -रत्नकरंड, १
तथा अन्यत्र यथाप्रसंग -युग, ६ प्रतिष्ठामारोद्धार, माशापर कृत ७ धीदेवीकल्प, ६
तथा अन्यत्र यथाप्रसंग सत्यशासनपरीक्षाप्रकरण, ८
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२०६
जैन प्रतिमाविज्ञान
मरस्वतीकल्प, बप्पट्टि कृत, ६
-विजयकीति कृत, ६ -मलयकीति कृत, ६
-स्तुति, प्रागाधर कृत, ५ समरागणमूत्रधार, १६ समवायाग, ३ मग्रहणी, ४ मागारधर्मामृत, ६६ सूर्यप्रज्ञप्ति, ४
मूत्रकृताग, ३ स्तुतिचतुर्विशतिका, ४ म्दय भूम्नोत्र, ४ हरिव पुराण, ३, १०६ क्षेत्रममाम, ४ यिलोकमार, ४ त्रिपप्टिलक्षणमहापुगण, ३
गलाकापुरुषचरित ३ तथा अन्यत्र -स्मृतिशास्त्र, ३
सामान्य प्रकुगा, यक्षी ६५, १३४ अनिचका यक्षी,८६,१०६,१०: १३२ प्रगुल, मान, २०-२५
-- विद्यादेवी, ५८, १०६ प्रचल प्रतिमा, १२
अम्बा, १०० प्रच्युता, गामन यक्षी, ८६, ६०, ६६ अम्बिका,१००,१०१,१०५-०६,१३५ - विद्यादेवी, ६३, ६४, १२७
- द्विभजा, १०१ अच्छुप्ता, शामन यक्षी, ६८
- चतुर्भजा, १०१ - विद्यादेवी, ६३, ६४, १२७ - अष्टभुजा, १०१ पच्छुप्तिका, गासन यक्षी, ६८
- स्तवन, १०० अजित शासनयक्ष, ७४
- कल्प, १०० अजित बला, शासन यक्षी, ८७ अम्बिला, १०० प्रजिता, शासनयक्षी, ८७, १३३ ।। ग्ररकरभि, यक्षी, देवगढ, १०८ अनजातदेवी, शासनयक्षा, ६८ अर्हत्, १-२ अनंतमती, यक्षी, ६५, १३४ - प्रतिमा, १७ अनंतवीर्या, यक्षी, देवगढ, १०८ अवलोकितेश्वर, १०५ अनतागति, यक्षी, ६५
प्रवमपिणी २८ मनावृत यक्ष, ११०, १३६
अशोका, यक्षी ६८, १६४ अपराजिता, शासन यक्षी, १८, १३४ माभोगरोहिणी, यक्षी, देवगढ, १०८ -प्रतीहार देवता, ४१
पाम्रकूष्माण्डी, १००,१०१ -बौद्ध देवी, १०६
माम्रादेवी, यक्षी, १००, १०१, १३५
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देशना
२०७
इन्द्राणी, मातृका, ११५ ईश्वर, यक्ष, ७१, ७५, १२८ उत्तर कुरु, ३२ उत्मपिणी, २८ ऋषभनाथ, २ तथा अन्यत्र कन्दा , यक्षी, ६५-६६, १३४ कमठ, देव, ४४ कर गानुयोग, ४ कर्मभूमि, ३२ कल्याणक, पञ्च, ३२ कामचाण्डाली, ११२ काममाधनी, १०३ कालिका, यक्षी, ८८-६० काली, विद्यादेवी, ५६, १२६
-- यक्षी, ८८-६०, ७, १३३ किन्नर, यक्ष, ७७, १३० किन्नरेग, ७५
बेर, ७६, १०५, १७, १३, कुवेग यक्षा, ११२ कुमार, यक्ष, ७५, १२९ कुलकर, २६ कृमुम, यक्ष, ५२, १.६ कुमुममालिनी, कबर यक्ष, ७६ कूष्माण्डी, १००, १०६ केवली, १
-प्रजप्न धर्म, १ कौमारी, मातृका, ११५ स्वङ्गवरा, यक्षी, ८६ म्वेन्द्र, यक्ष, ७८, १३१ गणपति, ११४
गंधर्व, यक्ष, ७७, ७८, १३० गाड, यम, ७७ गाधारी, यक्षी,६३,९६,६६-१००,१३८
- विद्यादेवी, ६१, १२६ गुह्यक, ६८ गोमुग्व, यक्ष ६६, १२८ गोमेद, यक्ष, ८०, १३१ ग'मेध, यक्ष, ८०, ८१.१३: गोमेधी, यक्षी, ६३ गोम्मटेश्वर, ३१ गोगे, यक्षी ६१,१:४
- विद्यादेवी, ६० - ६.१, १.६ नवनी, -मम्या , - वर न. ३० - की निघिया,३० नका, ६ नत्र स्वर्ग, यक्षी, ८, १३ -- चतुर्भजा, ८६ -अष्टाजा, ८६ --द्वाःयाभुजा, : -देवगढ, १०८ - विद्यादवी, ५८, १२६ चतुगनन, यक्ष, ६८,८१ चनिकाय देव, ४, ८५ चतुर्मग्य, यक्ष, ७५, १३० चविगति यक्षिया, ८२ चंदन काट की प्रतिमा, २ चन्द्रा, यक्षी, ६३ चण्डा, यक्षी, ६३ चल प्रतिमा, १२
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२०८
चामुण्डा, यक्षी, ६२, ६६, १०६, १३४ तुम्बरव, ७१
- मातृका, ११६
चार्वाक, ५३
चंत्य,
२
- वृक्ष, ३
- प्रालय, ३
छत्र, २६
जय, यक्ष, ७४
जया, यक्षी, ६, ६७, १३४ जाम्बूनदा, विद्यादेवी, ५८, १२६
जिन, २
――
- प्रतिमा, १७
- वाणी, १ जीवन्तस्वामी, १३
ज्योतिष्क देव, ४६
ज्वाला, यक्षी, ६०, ६१
- विद्यादेवी, ६१, ६०, १२६, १२० त्वरिता, १०३
ज्वालिनीकल्प, ६०
ज्वालामालिका, ६०
ज्वालामालिनी, यक्षी, ६०, १३३
- विद्यादेवी, ६१, ६२, १२६ तारा, यक्षी, १००
- देवी, देवगढ, १०६
- वती, यक्षी, ६७, १३४
तारिका, पक्षी, ६५
ताल, १६
- मान, १६
- दश, १६
- नव, १६
तांत्रिक युग, १०५
तुम्बर, यक्ष, ७१,
तुम्बम, ७१, ११०, १११, १२६ तिथिदेव, १२४ तीर्थकर, ३३
जैन प्रतिमा विज्ञान
- कुल, ३३ - वर्ण, ३३
- माता पिता, ३४
- माता के स्वप्न, ३५
- जन्मस्थान, ३६
- लाछन, ३७
- दीक्षास्थल, ३६
- दीक्षावृक्ष, ३६
- चक्रवर्ती, ४०
-
- समवशरण, ४०
- प्रतीहार, ४१, ८२ - निर्वाणभूमिया, ४२ तोतला, १०३
दिक्कुमारिकाएं, १२० दिक्पाल, दम, ११८
- श्रायुध, ११९
- वाहन, ११६
दुरितारि, यक्षी, ८८, १३३ देवकुरु ३२
द्रविड सघ, ५
धरण, यक्ष. ८१
धरणेन्द्र, ८१, १३२
धरणप्रिया, २८
धरिणी, ६७ धर्मचक्र, ३
धर्मादिवी, १००
धारिणी, पक्षी, ६७, १३४
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देशना
२०६
ध्वजस्तंभ, ३ नम्रा, यक्षी, ८८ नरदत्ता, यक्षी, ८६,९८, ६६ नवग्रह, १२२ -वाहन, १२३ -भुजाएं. १२३ नवदेवता, ४३ नक्षत्र, ४६ नारद, ३० नारमिही, मातृका, ११७ नारायण, ३० नित्या, १०३ निर्वाणा, यक्षी, ६६ निर्वागो, यक्षी, ६६, १३४ नंगमेष, ३ पतानी देवी या पताइनदेवी, १०६ पद्मा, यक्षी, १०१, १०३ । पद्मावती, १०१-०३, १०६, १३५ - चतुर्भुजा, १०० -षड्भुजा, १०२ -चतुर्विशतिभुजा, १०२-०३ पन्नगा, यक्षी, ६५ पनगगति, यक्षी, ६५ परभृता, यक्षी, ६५ परमाणु, १६ परमेष्ठी, १ परिकर, २५, २६ पर्यक मासन, १६ पाताल, यक्ष, ७६, १३० पावं, यक्ष, ८१, १३२ पुरुषदत्ता, यक्षी ८६, १३३
-विद्यादेवी, ५८, ५६, १२६ पुष्प यक्ष, ७२, १२६ पूजा, १ - शिक्षावत, १ -श्रावक का नित्यकर्म, १ -स्थापना, १ -प्रकार, १ ---वैयावृन्य, १ प्रचण्डा, यक्षी, ६३,१३४ प्रतिनारायण, ३, ३० प्रथमानुयोग, ४ प्रवरा, यक्षी, ६३ प्रज्ञप्ति, यक्षी, ८८, १३३ - विद्यादेवी, ५६, ५७, १२५ प्रज्ञा, यक्षी, ८८ प्राकृत भाषा, ३ प्रातिहार्य, १५, २७, ४४ प्रियकर, १०१ बलगम, १८, ३० बला, यक्षी, १६, १७, --व्यन्तरी, ४५ बहम्पी, देवगढ यक्षी, १०८ बहुरूपिणी, यक्षी, ६६, १०६, १३४ बह्निदेवी, ५, ६० -देवगढ, १०८ -विद्या देवी, ६२ बाहुबली, ३०, ३१, ४४ ब्रह्म, यक्ष, ७४, १२६ ब्रह्मगक्षम, ५ ब्रह्मशान्ति, ११०, १११, १३६ ब्रह्माणी, मातृका, ११४
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________________
२१०
जन प्रतिमा विज्ञान
भवनवासी देव,४६
मोमामक, ५६ -इन्द्रों के नाम, ४७
मोहिनी, यक्षी, ८६ -वाहन, ४८
यक्षेन्द्र, यक्ष, ७८ भवानी, मातृका, ११७
यक्षेश्वर, यक्ष, ७१, ७५, १२८ भीमदेवी, देवगढ, १०६
योगिनी,६ भूमि परीक्षा, ११
गहिणा, यक्षो, ८७, १३३ भृकुटि यक्ष, ८०, १३१
--विद्यादेवी, ५५, ५६, १२५ -यक्षी, ६०, ११, १३३
द्र.३० भोगभूमि, ३२
लवणा, व्यन्नरी, ४५ मनोवेगा, यक्षी, ८६, ६०, १३३ वज्रयान, १०५ महाकाली, यक्षी, ८६,९१, १३३ वजशृखला, यक्षी. ८८, ८६, १३३
-विद्यादेवी, ५६, ६०, १२६ -विद्यादेवी, ५७, १२५ महापरा, ५
वज्रा, यक्षा, १०९ महामानमी, यक्षी, ६६. १३४ वज्राकुगा, यक्षी, ८६
-विद्यादेवी, ६४, ६५, १२७ -विद्यादेवी, ५७, ५८, १२५ महायक्ष, ७०. १२८
वरुण यक्ष, ७६, १३१ महायानी, बौद्ध, १०६
वरटिका, यक्षी, ६४ महालक्ष्मी, मातृका, ११६
वामन, यक्ष, ८१, महावीर, २
वाराही. मातृका, ११६ -की चदनकाष्ठ
वासुदेव, १८ की प्रतिमा, २
विजय, यक्ष, ७३, १२६ मंगल, १
विजया, यक्षा, ६४, ६८, १३४ -पूजनीय, २
विज़म्भिणी, यक्षी, ६५ -प्रकार, २
विदिता, यक्षी, ६४, १३४ -द्रव्य, ३, ४४
विदेह क्षेत्र के तीर्थकर, ३२ मातकाए, ११५
विद्यादेविया, ५३ मातंग, यक्ष, ७२, ८२, १२६, १३२ विद्युन्मालिनी यक्षी, ६३ मानवी,यक्षी,६०,६२-६३,६५,६६,१३४ विराटा, यक्षी, ६४ । -विद्यादेवी, ६२, १२७
वैमानिक देव, ५०-५२ मानसी, विद्यादेवी, ६४, १२७ वैयावत्त्य, १ माहेश्वरी, मातृका, ११७ वैरोटी यक्षी, ६४, ६८, १३४
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देशना
२११
-विद्यादेवी, ६३, १२६ मंसारी देवी, ८६ वैष्णवी, मातृका, ११५
माख्य, ५२ व्यन्तर देव, ४८, ४६
माधु, १ शरभ, ६०
-प्रकार,१
मायिक शिक्षाक्त, १ शलाकापुरुष, ३
सिद्ध, १ शान्ता, यक्षी, ६०
-प्रतिमा, १७ शान्ति देवी, ६०, १११
मिद्धा, १०४ शामन देवता, ६६
सिद्धायिका, १०८, १३: - उत्पत्ति, १०४
सिद्धायिनी १०४ -हिन्दू और बौद्ध प्रभाव, १०६ मिहामन, २५ शिग्विमद्देवी. १०
मगंधिनी, शुभंकर, १०१
मृतारका, यक्षी, ११ श्याम, यक्ष, ७३, १२६
मृताग यी, (१.१३४ ज्यामा, यक्षी, ८६
मुमानिनी, यक्षा, देवगढ , १०८ श्रावक,१
गुमुग्व, यक्ष, ५२ श्रावकाचार युग, ५
मुर्गक्षता, यक्षी दवगढ, १०८ श्रियदेवी, देवगढ़ यक्षी, १०८ मुलक्षणा, यी, देवगढ, १०८ श्रीवत्मा, यक्षी, ३
मुलाचना, यती, देवगढ, १०८ धन,
मोगत, ३ -देवता,१
ग्नू प,३ -देबी, ५३
म्थापना. माव,१ षष्ठी, ११२
-प्रमदभाव, षण्मुख, यक्ष, ७५, १३०
-विधि,१ सरस्वती, ३
हग्निंगमेष, २६ -प्रतिमा, मथुग. ५३
क्षेत्रपाल, ६, ११३ -प्रतिमा, बीकानेर, ५३
- खजुगहो की प्रतिमा, ११३ -प्रतिमा, देवगढ़, १०८
त्रिमुख, यक्ष, ७०, १२८ मर्वानुभूति, यक्ष, ८१, १०. त्रिपुरभैरवी, १०३
त्रिपुरा, १०३ सर्वाल यक्ष,८१,१०७,११०,१११,१३६ -मातृका, ११६ -गोमेघ का प्राद्य रूप, १११ ज्ञानकल्याणक, ३२,३३
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________________
ग्रन्थ निर्देश [उन ग्रन्यो को छोड़कर जिनका उल्लेख देशना पृष्ठ २०४-०६ पर किया जा चुका है]
अद्भुतपद्मावतीकल्प : श्रीचन्द्रमूरि
अन्तगडदशाम्रो : प्रभयचन्द्रमूरि कृत टीका अभिधानचिन्तामणि : प्राचार्य हेमचन्द्र
अपगजितपृच्छा : भुवनदेव प्राचार दिनकर : वर्धमानमूरि, पंस्ति केमरीसिह मोमवाल
बम्बई द्वारा दो जिन्दो में प्रकाशित
सस्करण । एकविंशतिस्थानकप्रकरण : मुनि चतुरविजय द्वारा सम्पादित काण्ट्रीब्यूशन टू ए बिब्लियोग्राफी : हरिदास मित्रा, विश्वभारती, शान्तिपॉफ इण्डियन प्रार्ट एण्ड एम्थेटि- निकेतन, १६५१.
कम, प्रथम खण्ड : कामचाण्डालिनीकल्प : मल्लिपेण कनन्स मॉफ इण्डियन प्रार्ट : तारापद भट्टाचार्य कैटलाग पॉफ मथुरा म्यूजियम : वी० एस० अग्रवाल खजुराहो की देव प्रतिमाएं : डा० रामाश्रय प्रवस्थी, प्रागरा, १९६७ घण्टाकर्णमणिभद्रतंत्रमंत्र : साराभाई नबाब, अहमदाबाद चन्द्र प्रज्ञप्ति : शान्तिचन्द्र कृत टीका, देवचंद लालभाई
जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई, १९२० चतुर्विशतिजिनेन्द्रचरित : अमरचन्द्रसूरि
चक्रेश्वरी स्तोत्र : जिनदत्तसूरि जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति : शान्तिचन्द्र कृत टीका, देवचंद लालभाई
जैन पुस्तकोदार फण्ड, बम्बई, १९२०
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________________
ग्रन्थ निर्देश
२१३
जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो : पउमणदि, प्रादिनाथ नमिनाथ उपाध्ये
प्रोर हारालाल जैन द्वारा सम्पादित, जैन संस्कृति संरक्षक सघ, सोलापुर,
१६५८. जिनयज्ञकल्पदीपक : पडित प्राशाधर का स्वोपश निवध जिनयजकल्पटीका : पंडित प्रागाधर के प्रतिष्ठाग्रन्थ पर
मस्कृन टोका जिनमंहिता . इन्द्रनन्दि, हस्तलिखित पोथो, बम्बई ---- : भट्टारक एकमधि, हस्तलिखित पोथी.
मारा. जैन प्राइकोनोग्राफी बी० भट्टाचार्य, लाहौर, १६२६, जैन साहित्य और इतिहाम · नाथ गम प्रेमा, बम्बई जंन स्तुप ऑफ मथुग : वी० ए० स्मिथ तिलोयपणनी . यतिवरभ, मालापुर, १९५६
दीपाव निर्वाण कलिका पादालनाचार्य, सम्पादक मोहनलाल
भगवान नाम भबर्ग, बम्बई, १६.६ किशनरी 'फ. हिन्दू ग्राकिटक्चर पी० के ० ग्राचाय
पचवास्तुप्रकरण · हरिभद्रगर, मरत, १९२५ प्रतिमा लक्षण द्विजद्रनय शुक्ल प्रतिष्ठातिलक · ने मचन्द्र कृत, मगठी अनुवाद माहित
मोलापूर प्रतिष्ठापाट जय मेन (वमुबिन्द), मालापुर ----- : मकलचन्द्र उपाध्याय, गृजगती अनुवाद
सहित प्रतिष्ठासार माह : वमनन्दि, हम्नलिखित प्रति, गयपुर
मग्रहालय --- . ब्र० मीतलप्रमाद, मृरत
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________________
२१४
जैन प्रतिमा विज्ञान
प्रतिष्ठासारोद्धार : पंडित आशाधर, बम्बई
प्रवचनसारोद्धार : नेमिचन्द्रमूरि, सिद्धमेनगणी की तत्त्वज्ञान विकासिनी टीका
प्राचीन भारतीय मूर्तिकला : डा० वासुदेव उपाध्याय, वाराणसी
प्रासादमण्डन : प०
भगवानदास जैन जयपुर द्वारा
प्रकाशित
भद्रबाहुमंहिता : पं० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सम्पादित
भारत कल्प : मल्लिषेण, हस्तलिखित प्रति श्रारा भारतीय स्थापत्य द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, लखनऊ
भैरवपद्मावतीकल्प : मल्लिपेण कृत, साराभाई नबाब द्वारा प्रकाशित, अहमदाबाद
मंदिर प्रतिष्ठाविधि हस्तलिखित प्रति प्राग
>
मंदिरवेदीप्रतिष्ठा कलशारोहण विधि प० पन्नालाल साहित्याचार्य, वाराणसी मन्त्राधिराजचिन्तामणि : साराभाई नबाब द्वारा सम्पादित
यशस्तिलकचम्पू : सोमदेवसूरि, निर्णयसागर प्रेम, बम्बई वास्तुमारप्रकरण : ठक्कुर फेम, पंडित भगवानदास जैन द्वारा सम्पादित, जयपुर,१६३६
विद्यानुवाद : मल्लिषेण, हस्तलिखित प्रति, जयपुर विवेकविलास : जिनदनमूरि, मेमसं नेघजी हीरजी कपनी बम्बई द्वारा प्रकाशित. १९१६
पिल्लरत्नाकर : नर्मदाशकर मुलजीभाई
सिद्धान्तमार्गादिसंग्रह : माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई
सूर्यप्रज्ञप्ति : मलयगिरि की टीका, आगमोदय समिति सूरत, १९१६
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________________
ग्रन्थ निर्देश
२१५
संग्रहणी : मलयगिरि को टीका, भावनगर स्टडीज इन जैन आर्ट : उमाकान्त परमानन्द शाह, वाराणसी
क्षीरार्णव
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित : प्राचार्य हेमचन्द्र, जैनधर्मप्रसारक सभा,
भावनगर
ज्ञानप्रकाश (प्रायतत्त्वाधिकार)
Page #228
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________________
शुद्धि पत्र
पृष्ठ
पनि
अशुद्ध
१
१८
म्थापना के दो है ठक्कर ममन्वपूर्ण
शुद्ध स्थापना के दो भेद है ठक्कुर महन्वपूर्ण ठक्कुर
ठक्कर
ऊपर
शा
जन
५५
अच्छाता
दाय
अच्छता दाये गोमेध मल्लिपण
गामेध
मल्लिपण तीर्थकरी वज्रर्थ
तीर्थक
वच
हथ
हाथ
पार्वती
१०० १८ पावती ६२०१६ छाया अंतिम
महाविद्यामार
यम
१२४
महाविद्य, मार
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक एक
विद्या देवियां
(Cam
१. रोहिणी (दिग०)
२ प्रप्ति (दिग०)
२. प्रज्ञप्ति (श्वे.)
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक दो
विद्या देवियां
३. वनवना (दिग०)
३ वज्र पचना (स्व०)
' वचावगा (दिग.)
४ वजाकुशा (इवे.)
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
५. जाम्बूनदा ( दिग० )
६. पुम्पदना ( दिग० )
विद्या देवियां
फलक तीन
५ अप्रतिचना ( ० )
६ पुम्पदत्ता ( ० )
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक चार
७. काली ( दिग०)
विद्या देवियां
८. महाकाली ( दिग० )
mun
७. काली ( वे० )
www
८. महाकाली (श्वे० )
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक पांच
विद्या देविया
AU min
६. गौरी (दिग०)
। गांग (श्व०)
१०. गाधारी (दिग०)
१० गाधारी (ग्वे.)
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक छह
विद्या देवियां
PA
१५ ज्वालामालिनी (दिग०)
१२ मानवी (दिग०)
१२. मानवी (म्वे.)
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
((0)
100
५३ वरोटी ( दिग० )
(02)
१४. प्रच्युता ( दिग० )
विद्या देवियां
トン
Comm
Kille
फलक सात
१. वेगल्या ( ० )
CALE
१८च्छता (०)
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक पाठ
विद्या देवियां
CHHIOID
MUSma
५५. मानमी (दिग०)
१५ मानगी (स्व०)
m
D
१६ महामानसी (दिग०)
१६ महामानमी (श्वे०)
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक नौ
शासन यक्ष
MuD
MID
..
१. गोमुग्व (दिग०)
- गाम (श्वे.)
२. महायक्ष (दिग०)
- महायन (व०)
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक दस
4
३ निमुस ( दिग० )
-150
(६)
४ यक्षेश्वर ( दिग० )
शासन यक्ष
: त्रिम (०)
४ यक्षेश्वर (स्व)
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक ग्यारह
शासन यक्ष
५ तुम्बा (दिग०)
५ नम्बर (५०)
६ पुष्प (दिग०)
६ कुगुम (व०)
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक बारह
शासन यक्ष
COD CuuuuN AILKUD
N
७. मातग (दिग०)
७. मातंग (श्वे.)
Huma
८. श्याम (दिग०)
८. विजय (श्वे.)
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक तेरह
शासन यक्ष
"
-
1
६. अजित (दिग०)
१. अनिा (श्व०)
१०. ब्रह्म (दिग०)
१०. ब्रह्म (श्वे०)
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलक चौदह
११. ईश्वर ( दिग० )
१२. कुमार ( दिग० )
शासन यक्ष
Col!
११. ईश्वर ( श्व० )
१२. कुमार ( श्वे ० )
Page #243
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पलन पंद्रह
शासन यक्ष
१३. प्राय ('दग)
१.
पा.
(प.)
१४. पातान (दिग०)
१८. पानात (श्वे.)
Page #244
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फलक सोलह
शासन यक्ष
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१५ मिनर (1:ग.)
१५. विनर (स्व०)
१६. गरुड (दिग.)
१६. गरुड (श्वे०)
Page #245
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फलक सत्रह
शासन यक्ष
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१७. गधर्व (दिग.)
१७ गधव (श्व०)
१८. खेन्द्र (दिग०)
१८. यक्षेन्द्र (श्वे.)
Page #246
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फलक ग्रठारह
शासन यक्ष
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सरका
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१६. बर (दिग०)
१६. कुबेर (श्वे.)
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२०. वरुण (दिग०)
२०. वरुण (श्वे०)
Page #247
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________________
फलक उन्नीस
शासन यक्ष
२१. भृकुटि (दिग०)
२१. भृकुटि (०)
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२२. गोमेद (दिग०)
२२. गामेध (वे.)
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फलक बीस
२३. धरणेन्द्र (दिग० )
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२४. मातंग (दिग० )
शासन यक्ष
२३. पार्श्व ( श्वे ० )
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२४. मातंग (श्वे ० )
Page #249
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१. चक्रेश्वरी (दिग० )
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२. रोहिणी (दिग० )
शासन यक्षी
फलक इक्कीस
१. प्रतिवया ( ख० )
२. प्रजिता ( १० )
Page #250
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फलक बाईम
शासन यक्षी
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३. प्रज्ञप्ति (दिग०)
३. दुरितारि (श्वे.)
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४. वधश्रृंखला (दिग०)
४ कालिका (श्वे.)
Page #251
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________________
फलक तेईस
शासन यक्षी
५. पुरुषदत्ता (दिग०)
५ महाकानो (श्व०)
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६. मनोवेगा (दिग०)
६ अच्युता (श्व०)
Page #252
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फलक चौबीम
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७. काली ( दिग० )
शासन यक्षी
८. ज्वालामालिनी (दिग० )
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७. शान्ता ( श्वे ० )
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८. भृकुटि ( खे० )
Page #253
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फलक पच्चीस
शासन यक्षी
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६. महाकाली (दिग०)
१०. मानवी (दिग०)
१०. अशोका (श्वे.)
Page #254
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फलक छब्बीम
शासन यक्षी
११ गौरी (दिग०)
११. मानवी (श्वे.)
१२. गाधारी (दिग.)
Page #255
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________________
फलक सत्ताइस
शासन यक्षी
१३. वैरोटी (दिग०)
१३. विदिता (श्वे.)
१४ मनन्तमती (दिग०)
१४ अंकुशा (श्वे.)
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फलक अट्ठाइस
शासन यक्षी
20
१५. मानसी (दिग.)
१५. कन्दर्पा (श्वे०)
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2
१६. महामानसी (दिग.)
१६. निर्वाणी (श्वे.)
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फलक उन्तीस
शासन यक्षी
12
A
१७. जया (दिग०)
१७. बला (श्वे.)
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१८ तारावती (दिग.)
१८ धारिणी (श्वे.)
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तक तीस
शासन यक्षी
१६. अपर्गाजता (दिग.)
१६. वैरोट्या (श्वे०)
२०. बहुरूपिणी (दिग०)
२०. नरदत्ता (श्वे.)
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२१. चामुण्डा (दिग ० )
२२. प्राम्रा ( दिग ० )
२३. पद्मावती ( दिग० )
शासन यक्षी
फलक इकतीस
२१ गाधारी ( श्वे० )
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अमिता ( ० )
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२३ पद्मावती ( ० )
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फलक बत्तीम
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२४. मिद्धायिका (दिग०)
२४. सिद्धायिका (श्वे.)
क्षेत्रपाल
अनावृत यक्ष (दिग.)
सर्वाह यक्ष (दिग)
ब्रह्मशान्ति यक्ष(श्वे.)
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