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________________ जैन प्रतिमाविज्ञान किन्तु उसमें दिक्पालादिक के आवाहन का नामोल्लेख भी नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि जैन पूजा-विधान में दिक्पालादिक को पश्चात्काल में -१० वीं-११ वीं शताब्दी के लगभग–महत्त्व दिया गया। सोमदेवसूरि और पाशाधर के ग्रन्थों में दिक्पालादिक को बलि प्रदान करने का विधान है । जान पड़ता है कि सोमदेव के समय में दक्षिण भारतीय जैनों में शासन देवताओं की बड़ी प्रतिष्ठा थी । इसी कारण, मोमदेव को अपने उपासकाध्ययन के ध्यान प्रकरण में स्पष्ट उल्लेख करना पड़ा कि तीनों लोकों के दृष्टा जिनेन्द्रदेव और व्यन्तरादिक देवताओं को जो पूजाविधानों में समान रूप से देखता है, वह नरक में जाता है ।' सोमदेवसूरि ने स्वीकार किया है कि परमागम में शासन की रक्षा के लिये शासन देवताओं की कल्पना की गयी है । अतः सम्यग्दृष्टि उन्हें पूजा का अंश देकर उनका केवल सम्मान करते हैं। जैन प्रतिमाशास्त्र के अध्ययन के लिये हरिभद्रसूरि कृत पञ्चवास्तुप्रकरण और ठक्कर फेरु रचित वास्तुसारप्रकरण विशेष उपयोगी ग्रन्थ हैं । जिनप्रममूरि के विविधतीर्थंकल्प से भी जिनमंदिरों और जिनबिम्बों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। अनेक जैनेतर ग्रन्थों में जैन प्रतिमाशास्त्रीय ज्ञान सन्निहित है । गुप्त कालीन मानसार के ५५ वें अध्याय में जैन लक्षण विधान है । वराह मिहिर को बृहत्संहिता में जैन प्रतिमानों के लक्षण बताये गये हैं । अभिलषितार्थ चिन्तामणि, अपराजितपृच्छा, राजवल्लभ, दीपाव, देवतामूर्ति प्रकरण और रूपमंडन में भी तीर्थकरो और शासन देवतायो की प्रतिमानों के लक्षण बताये गये हैं। आधुनिक काल म जेम्स बर्जेस, देवदत्त भण्डारकर, बी० भट्टाचार्य, टी० एन० रामचन्द्रन, डाक्टर सांकलिया, डाक्टर उमाकांत परमानन्द शाह, बाबू छोटेलाल जैन प्रति विद्वानों ने जैन प्रतिमा शास्त्र विषयक अनुसंधानात्मक प्रबंध प्रकाशित किये हैं । डाक्टर द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, प्रार० एस० गुप्ते तथा अन्य विद्वानों ने भी अपने प्रतिमा शास्त्रीय ग्रंथों मे जैन प्रतिमा शास्त्र विषयक जानकारी सम्मिलित की है। ये सभी जन प्रतिमा विज्ञान के माधारभूत है । १- श्लोक ६६७-६६६ ।
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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