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________________ द्वितीय अध्याय जैन मंदिर और प्रतिमाएं मंदिर निर्माण के योग्य स्थान मंदिर कैसे स्थान पर निर्मित किये जाना चाहिये ? इस जिज्ञासा का समाधान प्रायः सभी ग्रंथकारो ने एक समान उत्तर देकर किया है । जयसेन ने नगर के शुद्ध प्रदेश में, अटवी में, नदी के समीप में और पवित्र तीर्थभूमि में विराजित जैनमदिर को प्रशस्त कहा है।' वसुनन्दि के अनुसार, तीर्थकरों के जन्म, निष्क्रमण, ज्ञान और निर्वाण भूमि में तथा अन्य पुण्य प्रदेश, नदीतट, पर्वत, ग्राममन्निवेम, ममुद्रपुलिन आदि मनोज्ञ स्थानो पर जिनमंदिरों का निर्माण किया जाना चाहिये । अपराजितपच्छा में जिनमंदिरो को शान्तिदायक स्वीकार किया गया है और उन्हे नगर के मध्य में बनाने का विधान किया गया है। जिनमंदिर के लिये भूमि का चयन करत समय अनेक उपयोगी बातों पर विचार करना होता है, भूमि शुद्ध हो, रम्य हो, स्निग्ध हो, सुगंधवाली हो, दूर्वा से पाच्छादित हो, पाली न हो, वहा कीड़े-मकोड़ो का निवास न हो पोर श्मशान भूमि भी न हो ।४ भूमि का चयन मदिर निर्माण विधि का सर्वाधिक मसत्वपूर्ण अंग है । योग्य भूमि पर निर्मित प्रासाद ही दीर्घकाल तक स्थित रह सकता है। विभिन्न ग्रंथकारो ने भूमिपरीक्षा के दो उपाय बताये है । जिम भूमि पर मंदिर निर्मित करने का विचार किया गया हो, उसमे एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा जावे और फिर उस गड्ढे को उसी में से निकली मिट्टी से पूग जावे । ऐसा करने पर यदि मिट्टी गडढे से अधिक पड़े तो वह भूमि श्रेष्ठ मानी गई है । यदि मिट्टी गढे के बराबर हो तो भूमि मध्यम कोटि की होती है और यदि उतनी मिट्टी से गड्ढा पुनः पूरा न भरे तो वह भूमि अधम जाति की १. प्रतिष्ठापाठ, १२५ । २. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ३/३,४ । ३. अपरा० १७६/१४ । ४. आशा० १/१८; वसुविन्दु, २८ ।
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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