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जैन प्रतिमाविज्ञान
होती है । वहां मंदिर का निर्माण नहीं करना चाहिये । ठक्कर फेरु ने यह उपाय भी बताया हैं कि उत्खात गड्ढे को जल से परिपूर्ण कर सौ कदम दूर जाइये । लौट कर आने पर यदि गड्ढे का जल एक अंगुल कम मिले तो भूमि को उत्तम, दो अंगुल कम मिलने पर मध्यम और तीन अंगुल कम होने पर अधम समझना चाहिये । २ निर्वाणकलिकाकार ने गड्ढे के सम्पूर्ण भरे रहने पर भूमि को श्रेष्ठ, एक अंगुल खाली होने पर मध्यम और उससे अधिक खाली हो जाने पर निकृष्ट कहा है ।"
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प्रतिष्ठाग्रंथों तथा वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों में मंदिरों के प्रकार आदि का विवरण मिलता है किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ का विवेच्य विषय नही होने के कारण तद्विषयक विवेचन यहां नही किया जा रहा है ।
प्रतिमा घटन द्रव्य
प्राचीन काल में मंदिरों में प्रतिष्ठा करने के लिये प्रतिमाओं का निर्माण किया जाता था । वे दो प्रकार की होती थी, प्रथम चल प्रतिमा और द्वितीय अचल प्रतिमा । अचल प्रतिमा अपनी वेदिका पर स्थिर रहती है किन्तु चल प्रतिमा विशिष्ट विशिष्ट अवसरों पर मूल वेदी से उठाकर अस्थायी वेदी पर लायी जाती है और उत्सव के अन्त में यथास्थान वापस पहुंचायी जाती है । अचल प्रतिमा को ध्रुवंवंर और चल प्रतिमा को उत्सववेर कहा जाता है । इन्हें क्रमश: स्थावर और जंगम प्रतिमा भी कहते हैं ।
वसुनन्दि के श्रावकाचार में मणि, रत्न, स्वर्ण, रजत, पीतल, मुक्ताफल और पापाण की प्रतिमाएं निर्मित किये जाने का विधान है। जयसेन ने स्फटिक की प्रतिमाएं भी प्रशस्त बतायी है ।" काष्ठ, दन्त और लोहे की प्रतिमानो के विषय मे विभिन्न प्राचार्यो में मतभेद है । कुछ आचार्यो न काष्ठ, दन्त र लोहे की प्रतिमात्र के निर्माण का किसी भी प्रकार से उल्लेख नही किया है। कुछ ने इन द्रव्यों से जिनबिम्ब निर्माण किये जानेका स्पष्ट निषेध किया है
१. आशा० १।१६ ; वसुविन्दु २६ ; वास्तुसारप्रकरण १३, निर्वाण कलिका, पन्ना १० ।
२. वास्तुसारप्रकरण १।४.
३. निर्वाणकलिका, पन्ना १० ॥
४. श्रावकाचार, ३६० ।
५. प्रतिष्ठापाठ, ६६ ।