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माघार ग्रन्थ
की उत्थानिका और पुष्पिका से ज्ञात होता है कि कुमुदचन्द्र माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य थे जिनका स्वयं एक प्रतिष्ठाकल्प उपलब्ध है। भट्टाकलंक के प्रतिष्ठाकल्प, ब्रह्मसूरि के प्रतिष्ठातिलक, भट्टारक राजकीर्ति के प्रतिष्ठादर्श, पंडिताचार्य नरेन्द्र सेन के प्रतिष्ठादीपक, पंडित परमानन्द की सिंहासनप्रतिष्ठा आदि आदि रचनाओं की हस्तलिखित प्रतिया पारा, जयपुर तथा अन्य स्थानों के शास्त्रभण्डारों में अद्यावधि सुरक्षित हैं । ये सभी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के सकलचन्द्र उपाध्याय का प्रतिष्ठापाठ गुजराती अनुवाद सहित प्रकाशित हुआ है । उसमें हरिभद्र सूरि, हेमचन्द्र, श्यामाचार्य गुणरत्नाकरसूरि और जगच्चंद्र सूरीश्वर के प्रतिष्ठाकल्पो का उल्लेख किया गया है । श्वेताम्बर परम्परा के ही प्राचारदिनकर में प्रतिष्ठाविधि का बड़े विस्तार से वर्णन है । ग्रंथकर्ता वर्धमान सूरि ने दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों शाखाओं के शाखाचार का विचार कर आवश्यक में उक्त प्राचार का ख्यापन किया है। उन्होंने चन्द्रमुरि का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उनकी लघतर प्रतिष्ठाविधि को आचार दिनकर में विस्तार से कहा गया है । वर्धमानमूरि ने प्रार्यनन्दि, क्षपक चंदननन्दि, इन्द्र नन्दि और वचम्वामी के प्रतिष्ठाकल्पों का अध्ययन किया था। प्राचार दिनकर की रचना विक्रम संवत् १४६८ में, कार्तिकी पूणिमा को अनंतपाल के राज्य में जालंधरभूषण नन्दवन नामक पुर में पूर्ण हुई थी।'
श्वेताम्बर गाग्वा का निर्वाण कलिका नामक ग्रन्थ जैन प्रतिमा विज्ञान के अध्ययन के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति ह । सका प्रतिगालक्षण स्पष्ट और सुबोध है । ग्रन्य पादलिप्तमूरिकृत कहा जाता है किन्तु वे पश्चात्कालीन प्राचार्य थे । निर्वाणकलिका के अतिरिक्त नेमिचन्द्र के प्रवचनमारोद्धार और जिनदन मूरि के विवेकविलाम में भी जैन प्रतिमाशास्त्रीय विवरण मिलते हैं।
दिगम्बर शाखा के बोधपाहुड, भावसंग्रह (देवमेन) यशस्तिलकचम्पू, प्रवचनसार, धर्मरत्नाकर, आदि ग्रन्थों में जिन पूजा का निर्देश मिलता है। सातवी शताब्दी ईस्वी में जटासिहनन्दी द्वारा रचित पौराणिक काव्य वरांगचरित के २२-२३ वें सर्ग में जिनपूजा और अभिषेक का वर्णन है
१. ग्रन्थप्रगस्ति, पन्ना १५० ।