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जैन प्रतिमाविज्ञान
हाथ में गदा रहती है।' नेमिचन्द्र ने भी उपरले हाथों में तलवार और ढाल तथा निचले हायों में काला कुत्ता और गदा, इन्हीं प्रायुधों का होना बताया है।' भट्ट प्रकलंक के प्रतिष्ठाकल्प में स्वर्णपात्र, गदा, डमरू और धेनुका ये चार प्रायुष कहे गये हैं। उनमें स्वर्णपात्र की कल्पना बिलकुल नवीन प्रतीत होती हैं और वह प्राशाधर एवं नेमिचन्द्र द्वारा दिये गये विवरणों से भिन्न है।
प्राचारदिनकर में क्षेत्रपाल के रूप का वर्णन बिस्तार से किया गया है। वह वर्णन प्रायः वैसा ही है जो हिन्दू परम्परा के शिल्प ग्रन्थों में मिलता है। प्राचारदिनकर के अनुसार, क्षेत्रपाल की बीस भुजाएं हैं। वे कृष्ण, गौर, काञ्चन, धूसर मोर कपिल वर्ण के हैं। क्षेत्रपाल के अनेक नाम हैं जिनमें से एक प्रेतनाथ भी है। बर्बर केश, जटाजूट, वासुकि का जिनयज्ञोपवीत, तमक की मेखला, शेष (नाग) का हार, नाना-प्रायुध, सिंह चर्म का प्रावरण, प्रेत का मासन, कुक्कुरवाहन, त्रिलोचन, प्रानंदभैरव आदि प्रष्ट भैरवों से युक्त तथा चौसठ जोगिनियों के बीच स्थिति, यह क्षेत्रपाल का रूप है जो प्राचारदिनकर में वर्णित है।
निर्वाणकलिका में कहा है कि क्षत्र के अनुसार क्षेत्रपाल के भिन्न-भिन्न नाम हुमा करते हैं । उसी ग्रन्थ के अनुसार, क्षेत्रपाल श्यामवर्ण, बर्बर केश, प्रावृत्तपिंगनयन, विकृतदंष्ट्रा, पादुकारूढ़ पोर नग्न होते हैं। उनके दायें हाथों में मुद्गर, पाश और डमरू तथा बायें हाथों में श्वान, अंकुश और गेडिका, ये प्रायुध होते हैं। निर्वाणकलिका में क्षेत्रपाल का स्थान जिनेन्द्र भगवान् के दक्षिण पार्श्व में ईशान की पोर दक्षिण दिशामुख बताया गया है । प्रमृतरत्नसूरि ने माणिभद्र भारती में मणिभद्र क्षेत्रपाल के छह हाथ और उन हाथों के प्रायुध ढक्का, शूल, दाम, पाश, अंकुश मोर खड्ग कहे है । गणपति
गणपति या गणेश ने हिन्दुनों में ही नहीं, अपितु बौद्धों और जनों में भी प्रतिष्ठा प्राप्त की है। प्रारंभ में जनों ने उन्हें गणधर के रूप में मान्यता दी थी। प्राचारदिनकर (पन्ना २१०) में विद्यागणेश को द्विभुज, चतुर्भुज, षभुज, नवभुज, अष्टादशभुज पोर यहां तक कि १०८ भुजा युक्त भी कहा है।
१. प्रतिष्ठासारोबार, ६/५५ २. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ११५-१६ ३. उदय ३३, पत्रा १८१ ४. निर्वाणकलिका, पन्ना ३८-३९