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प्रष्टम अध्याय
क्षेत्रपाल जन मन्दिरों मे क्षेत्रपाल की प्रतिमाएं स्थापित रहती है । उन्हे जिनमन्दिर का रक्षक माना जाता है । भट्ट प्रकलंक के प्रतिष्ठाकल्प में क्षेत्रपाल को जिनेश्वर और जैन मुनियो का भक्त एवं धर्मवत्सल कहा गया है । उन के जटामुकुट में जिनपूजा का चिह्न होना बताया गया है।'
नेमिचन्द्र ने क्षेत्रपाल को तैल से अभिषिचित कर सिंदूर से धूसरित किये जाने का विधान किया है। प्राचारदिनकर मे कुंकुम, तेल, सिन्दूर एवं लाल रंग के पुष्पों से क्षेत्रपाल की पूजा का विधान है। भट्ट अकलंक के प्रतिष्ठाकल्प में वर्णन है कि तैललिप्त विग्रह और सिदूराकिन मौलि के कारण क्षेत्रपाल अंजनाद्रि के समान दिखायी पड़ते है।
क्षेत्रपाल की प्रतिमाएं कार्यरूप भी होती है और लिगरूप भी।' खजुराहो के शान्तिनाथ मंदिर मे क्षेत्रपाल की चन्देलकालीन कायरूप प्रतिमा है जिस पर उनका नाम भी उत्कीर्ण है। अनेक जैन मंदिरो में लिगरूप क्षेत्रपाल प्रतिष्ठिन है।
प्राशाधर के अनुसार क्षेत्रपाल का अलंकरण नाग, और वाहन श्वान है । भट्ट अकलंक ने क्षेत्रपाल के नग्न, सारमेयममारूढ, नागविभूषण, त्रिलोचन रूप का वर्णन किया है । आगाधर के अनुसार, क्षेत्रपाल के उपरले दो हाथों में तलवार और ढाल, नीचे के दाये हाथ म काला कुत्ता और नीचे के ही बायें
१. हिन्दुनों में क्षेत्रपाल को शिव का रूप माना गया है। रूपमण्डन
(५/७४-७५) के अनुसार क्षेत्रपाल नग्न एवं घण्टाभूषित होते हैं । उनकी जटाए मर्प मोर मुण्डमाला मे ग्रथित होती है। उनका यज्ञोपवीत भी मुण्डग्रथित होता है । उनके दायें हाथों के प्रायुष कतिका और डमरू तथा बाये हाथों के प्रायुध शूल पौर कपाल बताये गये है। २. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ११५-१६ ३. प्राचारदिनकर, उदय ३३, पन्ना २१०