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चतुर्विशति तीर्थकर
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अवसर्पिणी के प्रथम तीन प्रारों में उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की रचना होती है । भोगभूमि में मनुष्य अपनी अन्नवस्त्र आदिकी प्रावश्यकताएं कल्पवृक्षों से पूरी करते है । वे कृषि, उद्योग, व्यवसाय आदि से अनभिज्ञ होते है । कल्पवृक्ष न तो वनस्पति होते है और न कोई देव । वे पृथिवीरूप होते हुए भी जीवों को उनके पुण्य का फल देते है ।' कल्पवृक्ष दस प्रकार के होते है, तेजाँग, तूर्याग, भूषणॉग, वस्त्राग, भोजनॉग, आलयाग, दीपाग भाजनांग, मालाग और तेजांग ।।
सुषमादुषमा नामक तीसरे पारे के अंतिम भाग में भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त होकर कर्मभूमि की रचना होने लगती ।। उम गमय कमश: चौदह कुलकर होते है जो मनुष्यो को कर्मभूमि संबंधी बाते समझाते हे । चौदह कुलकर
वर्तमान काल के चौदह कुलकरों के नाम ये बताये गये है-प्रतिथति, सन्मति, क्षेमकर, क्षेमंबर, मीमंकर, सीमंधर, विमलबाहन, चक्षामान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मम्देव, प्रमेनजित्, और नाभि । प्रथम कुलकर के समय मे तेजाग नामक कल्पवृक्षो की किरणे मन्द पड़ा और इस कारण चन्द्र-सूर्य के दर्शन होने लगे। द्वितीय कुलकर के समय में तेजाग कल्पवृक्ष सर्वथा नाट हये और उसस ग्रह, नक्षत्र, तारागण भी दिखाई पड़ने लगे । तृतीय कुलकर क्षेमकर के समय मे व्याघ्रादिक पशुप्रो में क्रूर भाव उत्पन्न होने लगे। चौथे कुलकर के समय तक वे मनुष्य तथा अन्य प्राणियो का भक्षण करने लगे थ । पाचवे कुलकर के समय में कल्पवृक्षो से सम्पूर्ण आवश्यकताएं पूरी नहीं होती थी। वे सीमित मात्रा में ही आवश्यकताएं पूरी कर पाते थे। इसलिये मनुष्यो में लोभ उत्पन्न हुआ, व झगडन लगे । तब मीमकर नामक पंचम कुलकर न वस्तुएं प्राप्त करने की मीमा बाधी । सीमा का उल्लंघन करने वाला के लिये 'हा' दण्ड की व्यवस्था की गयी । छठे कुलकर के समय म कल्पवृक्ष विरल होते गये । फल भी अल्प प्राप्त होता था, इसलिये भिन्न-भिन्न लागों के लिये भिन्नभिन्न वक्षसमूहादि निश्चित कर उन्हे ही चिह्न मान कर मीमा नियत की गई। सप्तम कुलकर के समय में लोगों ने गमनागमन के लिये गज यादि का प्रयोग करना सीखा । पाठवे और नौवे कुलकरो के समय में पुत्रजन्म, नामकरण,
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१. तिलोयपण्णत्ता, ८१३५४ २. ही, ४।३४२