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चतुर्थ प्रध्याय चतुविशति तीर्थकर
प्राचार्य हेमचन्द्र ने ग्रभिधान चिन्तामणि के प्रथम काण्ड को देवाधिदेवकाण्ड नाम दिया है और उसमें वर्तमान वर्मार्पणी कालके चतुर्विंशति तीर्थकरों के नाम, उनके कुल, माता-पिता, लाछन, वर्ण प्रादि का विवरण दिया है ।
जैन सिद्धान्त की मान्यता है कि मँमारी जीव अपने कर्मबंधन के कारण देव, मनुष्य, तिर्यच और नरक इन चार गतियों में भ्रमण करता रहता है । कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त होने पर जीवात्मा सिद्ध अवस्था प्राप्त करती है और लोक के प्रप्रतम भाग में जाकर स्थिर हो जाती है । तव उसे संसार मे पुन: नही आना पडता । इन सिद्ध आत्माओ की संख्या अनन्तानन्त है | सभी सिद्ध आत्माएँ मनुष्य योनि से ही सिद्ध अवस्था का प्राप्त करती है । तीर्थकर भी उसी प्रकार सिद्ध अवस्था प्राप्त करते है । वे देवजानिके नही होते पर क्योकि मानव शरीर धारण करते हुये भी वे देवताओ द्वारा पूजित होते है, इसलिये उन्हे देवाधिदेव कहा गया है ।
कालरचना
जैन मान्यता के अनुसार संसार अनादि और अनंत है । अवस और उत्सपिणी रूप से कालका चक्र घूमता रहता है परि तदनुसार हास एवं वृद्धि है | यह कम केवल भरत और ऐरावत क्षेत्र में चलता है अन्य एक सा युग रहता है ।
सपिणो और उस परणी में प्रत्येक के ग्रह-छह ग्रारे हुआ करते है । वर्मा के आरो के नाम है, सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा दुषमासुषमा दुषमा र दुषमादुपमा । उत्सर्पिण के आरे विपरीत मसे होते है -- श्रर्थात् दुषमादुषमा, दुषमा, दुषमासुषा गृपमादुपमा, मुषमा और मृषमासुमा । इस समय अवसर्पिणी कालका पंचम आश दुषमा चल रहा है ।
१ तिलोयपण्णत्ती, ४/३१६-१९