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________________ ११० जन प्रतिमाविज्ञान किये जाने तक का प्रदर्शन किया था किन्तु जैनों ने पैसा न करके अन्य देवतामों को अपने तीर्थकरों के रक्षक देवताओं के रूप में स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं, तीर्थंकरों को भी ईशान, वामदेव, नत्पुरुष प्रादि नामों से विभूषित किया। दूसरे ओर, ऐमी भी संभावना है कि जैनों और हिन्दुओं दोनों ने ही पूर्व परम्परा के कुछ देव-देवियों को समान रूप में स्वीकार कर लिया हो। कुछ भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि जनों के अनेक यक्ष और यक्षियां या तो हिन्दू देवतामों के नामों में साम्य रखते है या उनके रूप में । कही कहीं तो नाम और रूप दोनों में ही पूर्ण साम्य है । बौद्धों ने भी महाकाल, गणपति, सरस्वती, दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्ण, महेश्वर, कार्तिकेय, वाराही, चामुण्डा, भृगि, नन्दिकेश्वर आदि विभिन्न देवताओं के साथ यक्ष,,किन्नर, गंधर्व,विद्याधर, नक्षत्र, तिथिदेवता प्रादि को स्वीकार किया था । वैसे ही जैनों ने भी दिक्पालों, गणपति, भैरव आदि को अपने देववाद में सम्मिलित किया और उन्हें भी जैनी बना लिया । कुछ विशिष्ट यक्ष और देवियां शासनदवताओं के अलावा और भी अनेक विशिष्ट विशिष्ट यक्षों नया देवियों का उल्लेख और उनका वर्णन जैन ग्रन्थों में पाया जाता है । उन में दिगम्बर परम्परा के अनावृत और सर्वाह यक्ष तथा श्वेताम्बर परम्परा के ब्रह्मशान्ति और तुम्बरु यक्ष प्रमुख हैं । अनावत यक्ष मनावत यक्ष व्यन्तर जाति के देवों में में है। उसका निवास मेरु पर्वत के ईशान भाग में, उत्तर कुरु के जंबू वृक्ष की पूर्व शाखा पर स्थित प्रासाद में बताया गया है । अनावृत यक्ष का वर्ण जलद के समान कृष्ण है । उसका वाहन पक्षीन्द्र गरुड है । अनावृत अपने चार हाथों में शंख, चक्र, कमण्डलु और प्रक्षमाला धारण करता है।' १. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३/२०१; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३६३
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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